रविवार, अप्रैल 12, 2009

विष्णु प्रभाकर : चिट्ठाकारों की विनम्र श्रद्धांजलि

(चित्र – साभार, अशोक लव)

हिन्दी के वयोवृद्ध गाँधीवादी साहित्यकार विष्णु प्रभाकर नहीं रहे. उनका देहावसान भारतीय समयानुसार शुक्रवार, 10 अप्रैल की रात्रि को हो गया. वे 96 वर्ष के थे.

 

कोई छः महीना पहले हिन्द युग्म ने उन्हें याद किया था और बताया था कि वे काफी बीमार चल रहे हैं.  कुछ दिन पहले ही कुमार मुकुल ने उनका एक पत्र प्रकाशित किया था तो  प्रतिभा कटियार ने उनका एक प्रेमपत्र प्रकाशित किया था. विष्णु प्रभाकर का एक साक्षात्कार भी हाल ही में प्रकाशित हुआ था.

 

तमाम चिट्ठाकारों ने उन्हें याद किया व अपनी विनम्र श्रद्धांजलियाँ दीं.

अमरेन्द्र कुमार उन्हें याद करते हैं -

उनसे मिलने के बारे में सोचा था २००४ की भारत यात्रा के दौरान । गुडगांव में ठहरा हुआ था मैं तब। पता नहीं फिर मन में लगा कि क्या मिलना उचित रहेगा और मैं लौट आया था।
बाद में उनके बारे में अन्य लोगों के संस्मरण पढते हुए लगा कि मुझसे भूल हो गयी। फिर सोचता हूं कि वह मिलना तो सिर्फ़ आमने सामने होना था लेकिन उनकी पुस्तकों के माध्यम से जितना उनको जानता हूं क्या उससे ज्यादा उन्हें देख पाता, जान पाता उनसे मिलकर । घडी दो घडी का मिलना भी क्या...

डॉ. रमा द्विवेदी अपनी श्रद्धांजलि देती हैं -

हम उन्हें शत-शत नमन करते हैं और ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे। ईश्वर उनके शोक-संतप्त परिवार को इस गहन वेदना को सहन करने की शक्ति प्रदान करे। ओम शन्ति शान्ति शान्ति….

दिव्यांशु शर्मा ने उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को श्रद्धांजलि स्वरूप याद किया -

प्रभाकर मूलतः गांधीवादी थे और उनकी लेखनी स्वाधीनता संग्राम में मुखर हो कर सामने आयी| कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, संस्मरण, बाल साहित्य एवं लघुकथा उनके लेखन की मूल विधाएं रहीं| प्रभाकर उन साहित्यकारों में से हैं जिन्होंने लघुकथा लेखन को बहुत संजीदगी से लिया और उसे एक नयी परिभाषा दी| उन्ही के शब्दों में (गद्य कोष से साभार): "आदर्श लघुकथा वह होती है, जो किसी कहानी का कथानक न बन सके"|

धीरेश सैनी के श्रद्धा-सुमन कुछ यूं रहे -

पिछले कई वर्षों में उन्हें बीमारी और दुर्घटना की वजह से बार-बार अस्पताल जाना पड़ा था लेकिन उनकी जिजीविषा उन्हें हर बार जिलाए रखती थी. इन्हीं दिनों कई पत्रिकाओं में उन पर उनकी बाद की पीढ़ी के लेखकों के कुछ लेख भी छपे. समयांतर में पंकज बिष्ट ने भी बेहद सम्मान और आत्मीय ढंग से इस वरिष्ठ कथाकार पर लिखा था. यह वाकई बेहद दुर्लभ था कि हिंदी के वयोवृद्ध लेखक से उनके बाद की पीढ़ी ऐसा गर्व भरा रिश्ता महसूस करती हो. शायद त्रिलोचन,शमशेर और नागार्जुन के बाद वे इस तरह के अकेले हिंदी लेखक बचे थे.

डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक की श्रद्धांजलि -

उन्होंने हिन्दी -साहित्य की विधाओं जैसे- उपन्यास, कहानी-लेखन, एकांकी-लेखन, नाटक, जीवनी, बालोपयोगी साहित्य आदि सभी में अपनी सशक्त लेखनी को चलाया। 1980 के दशक में मैंने रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय के एम.ए. के पाठ्यक्रम में उनके नाटक ‘‘युगे-युगे क्रांन्ति’’ के द्वारा उनके गहन चिन्तन-मनन का परिचय पाया था। वह स्मृति आज भी मेरे मन पर उनकी विशेष छाप बनाये हुए है।
मैं इस महान साहित्यकार को प्रणाम करता हूँ।
अपने दिल की गहराइयों से उन्हें भाव-भीनी श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ।

नीशू की श्रद्धांजलि स्वरूप पोस्ट है -

हिन्दी साहित्य के जाने माने साहित्यकार विष्णु प्रभाकर जी का निधन साहित्य प्रेमियों के लिए गहरा झटका है । प्रभाकर जी ९७ वर्ष के थे । एनसीआरटी के १० कक्षा की पुस्तक में उन्हें पहले ही मार दिया था ( यह बाद केदार नाथ की बेटी " संध्या सिंह " से पता चली जब सुबह शैलेश जी ने उनका फोन नं जुगाड़ कर बात की जब ९५ वर्ष के थे तभी ) ।विष्णु प्रभाकर जी का जन्म १२ जनवरी १९१२ को मुजफ्फरनगर जिले के मीरा पुर गांव में हुआ । परिवार में मां एक शिक्षक थी जिससे माहौल साहित्य से जुड़ा रहा । प्रभाकर जी हिन्दी में प्राभकर और हिन्दी भूषण की शिक्षा ली । और अंग्रेजी में स्नातक किया । गरीबी से छुटकारा पाने के लिए पहली नौकरी १८ रूपये में की । नौकरी के सात ही साथ एक नाटक कंपनी में भाग लिया । जिसके बाद नाटक " हत्या के बाद " लिखा जो प्रभाकर जी का पहला नाटक था ।

डॉ. राजेन्द्र गुप्ता लिखते हैं -

भले ही विष्णु प्रभाकर हमारे बीच से चले गए लेकिन उनकी रचनाएं हमेशा लोगों के साथ रहेंगी। प्रभाकर को पद्मभूषण दिया गया था, लेकिन सरकार द्वारा किसी साहित्यकार की देर से सुध लेने का आरोप लगाते हुए उन्होंने सम्मान वापस कर दिया था। उनके बारे में प्रभाकर लिखा गया था, 'साहित्य और पाठकों के बीच स्लिप डिस्क के सही हकीम हैं। यही कारण है कि उनका साहित्य पुरस्कारों के कारण नहीं पाठकों के कारण चर्चित हुआ।' प्रभाकर का जन्म 20 जुलाई 1912 को उत्तरप्रदेश में मुजफ्फरनगर जिले के मीरापुर गांव में हुआ था। छोटी उम्र में ही वह पश्चिम उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर से हिसार चले गए थे। प्रभाकर पर महात्मा गांधी के दर्शन और सिद्धांतों का गहरा असर पड़ा। इसके चलते ही उनका कांग्रेस की तरफ हुआ और स्वतंत्रता संग्राम के महासमर में उन्होंने अपनी लेखनी का भी एक उद्देश्य बना लिया जो आजादी के लिए सतत् संघर्षरत रही।

ब्लॉग ऊं नम: शिवाय में कुछ इस तरह श्रद्धा सुमन अर्पित किए गए -

शनिवार को हैरानी ये देखकर हुई कि दोपहर तक पीतमपुरा स्थित प्रभाकर के आवास पर उनकी शवयात्रा में शामिल होने एक भी राजनेता नहीं पहुंचे। न सरकार का कोई मंत्री या अधिकारी और न लोकसभा चुनाव के लिए अनगिनत राजनीतिक पार्टियों का कोई उम्मीदवार।
शनिवार सुबह से ही पीतमपुरा स्थित उनके आवास पर साहित्य प्रेमियों और मीडिया का जमावड़ा लगने लगा था। जिसने भी प्रभाकर जी के देहावसान की खबर सुनी, वही उस ओर हो लिया।

अविनाश वाचस्पति ने  काव्य सुमन अर्पित किए -

देह का सफर पूरा
विचारों का जारी।

आवारा मसीहा के मसीहा
विष्‍णु प्रभाकर

की सिर्फ देह का
अंत हुआ है
विचार उनके
जीवित रहेंगे सदा सर्वदा।

 

कविता वाचक्नवी ने श्रद्धांजलि देते हुए उनकी बहुत सी बातों को याद किया -

११ अप्रैल को तड़के दिल्ली के एम्स अस्पताल में इनका स्वर्गवास हो गया।

विष्णु प्रभाकर जी अपनी देहदान करना चाहते थे। अत: उनके पुत्र ने पिता द्वारा व्यक्त इच्छा के कारण एम्स अस्पताल को इनकी पार्थिव देह दान कर दी है।

कृतियाँ 

ढलती रात , स्वप्नमयी, नव प्रभात, डॉक्टर, संघर्ष के बाद, प्रकाश और परछाइयाँ, बारह एकांकी, अशोक, जाने-अनजाने, आवारा मसीहा, मेरे साक्षात्कार, मेरा वतन, और पंछी उड़ गया, मुक्त गगन में, एक कहानी का जन्म, पंखहीन (आत्मकथा -३ खंडों में), सुनो कहानी आदि ४० पुस्तकों की रचना की| ३ पुस्तकें अभी प्रकाशनाधीन भी हैं।

`अर्द्धनारीश्वर' तो उर्दू, पंजाबी, तमिल, कन्नड़ व तेलुगु आदि भाषाओं में अनूदित भी हो चुका है। 

ईश्वर उनकी पवित्र सात्विक आत्मा को चिर शान्ति प्रदान करे।

मार्क राय की अनुभूतियाँ थीं -

आज विष्णु प्रभाकर हमारे बीच से चले गए लेकिन उनकी रचनाएं हमेशा लोगों के साथ रहेंगी। प्रभाकर को पद्मभूषण दिया गया था, लेकिन देर से दिए जाने के कारण अपने आत्म सम्मान पर चोट मानते हुए लेने से इनकार कर दिया था । उन्होंने अपने स्वाभिमान से कभी भी समझौता नही किया । उनका साहित्य पुरस्कारों से नही बल्कि पाठको के स्नेह से प्रसिद्ध हुआ ।

अशोक लव उन्हें बेमुद्दत याद करते रहे-

विष्णु जी अजमेरी गेट से पैदल आकर कनाट प्लेस के मोहन सिंह पैलेस के काफ़ी हाउस में पहुँचते थे । वहाँ वे साहित्यकारों से घिरे रहते थे । वे क्या नए क्या पुराने , क्या वामपंथी क्या अन्य , सब साहित्यकारों के प्रिय थे। वे साहित्यिक-राजनीति से दूर थे । इसलिए सबके थे। उनके साथ अनेक लघुकथा - संग्रहों में प्रकाशित होने के अवसर मिले हैं । वे दिल खोलकर प्रशंसा करते थे। विष्णु जी ने हमेशा नए साहित्यकारों को प्रोत्साहित किया था । कौन क्या और कैसा लिख रहा है उन्हें इसकी जानकारी रहती थी ।

रमेंद्र ने लिखा -

हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार विष्णु प्रभाकर नहीं रहे. उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के मीरापुर में जन्मे इस साहित्य-शिल्पी की याद इस गांव के गली-कूचों में रची-बसी है। ये अलग बात है कि प्रभाकर कब के यहां से चले गए. लेकिन अपनी माटी कब छूटी है किसी से, जो उनसे छूटती. शायद इसीलिए जब कुछ साल पूर्व बीबीसी ने उनका साक्षात्कार प्रसारित किया तो उनकी भाषा ठेठ पश्चिमी यूपी वाली थी. उन्होंने कहा भी कि 'ऐ माटी तुझे अभी कई और विष्णु को जन्म देना है...'

डॉ. अमर कुमार चिट्ठाचर्चा संबंधी बातों को शुरू करने से पहले श्रद्धांजलि देना नहीं भूले -

विष्णु प्रभाकर जी नहीं रहे । कुछेक शीर्ष अख़बारों के लिये यह ब्रेकिंग न्यूज़ न रही होगी ! अनूप जी ने उचित सम्मान दिया !  विष्णु जी ने आवारा मसीहा के लिये सामग्री जुटाने के लिये जो कल्पनातीत श्रम किया है, मैं तो केवल इसी तथ्य से ही उनका भक्त बन गया । बाद के दिनों में तो उनके अन्य तत्व भी दिखने लगे थे ! अपने साहित्य साधना में वह विवादो की काग़ज़ की रेख से अपने को बचा ले गये, यह उनकी एक बड़ी उपल्ब्धि है !

उन्हें सच्चे मन से श्रद्धाँजलि ! 

धर्मेंद्र चतुर्वेदी की विनम्र श्रद्धांजलि थी -

कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, संस्मरण, बाल साहित्य सभी विधाओं में प्रचुर साहित्य लिखने के बावजूद आवारा मसीहा उनकी पहचान का पर्याय बन गयी। बाद में अ‌र्द्धनारीश्वर पर उन्हें बेशक साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला हो, किन्तु आवारा मसीहा ने साहित्य में उनका मुकाम अलग ही रखा।आज निश्चय ही हमें उनकी कमी महसूस होगी।

डॉ. मनीष कुमार मिश्र ने विष्णु प्रभाकर के रचनासंसार का जायजा लेते हुए उन्हें श्रद्धांजलि दी -

सन १९१२ में जन्मे विष्णु प्रभाकर जी नाटककार,कहानीकार,उपन्यासकार और जीवनीकार के रूप मे जाने जाते थे । आप के प्रमुख उपन्यास इस प्रकार हैं
१.निशिकांत -१९५५
२.तट के बंधन -१९५५
३.दर्पण का व्यक्ति -१९६८
४.कोई तो - १९८०
५.अर्धनारीश्वर-१९९२
आप की कहानिया भी काफी लोकप्रिय रही हैं । आप के कुछ प्रमुख कहानी संग्रह इस प्रकार हैं
१.धरती अब घूम रही है
२.सांचे और कला -१९६२
३.पुल टूटने से पहले -१९७७
४.मेरा वतन -१९८०
५.खिलौने
६.एक और कुंती
७। जिंदगी का रिहर्सल
आप ने हिन्दी नाटको के विकास में भी अहम् भूमिका निभाई । सन १९५८ में डॉक्टर नामक आप के नाटक से आप को हिन्दी नाटक के परिदृश्य मे जाना गया । आप के प्रमुख नाटक इस प्रकार हैं
१.युगे-युगे क्रांति-१९६९
२.टूटते परिवेश-१९७४
३.कुहासा और किरण -१९७५
४.डरे हुवे लोग -१९७८
५.वन्दिनी-१९७९
६.अब और नही -१९८१
७.सत्ता के आर-पार -१९८१
८.श्वेत कमल -१९८४
इनके अतिरिक्त आपको जिन पुस्तकों की वजह से जाना गया ,उनमे आवारा मसीहा ,हत्या के बाद और मैं नारी हूँ शामिल है ।

….

आज विष्णु प्रभाकर जीवित नही हैं ,लेकिन उनका साहित्य अमर है। यह साहित्य ही हमे हमेशा विष्णु जी की याद दिलाता रहे गा । ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे ।

 

अरूण स्तब्ध हैं, और वे एक पंक्ति से ज्यादा कुछ बोल नहीं पाए -

वरिष्ट साहित्कार विष्णु जी की निधन की ख़बर ने स्तब्ध कर दिया ।

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बहुत संभव है कि बहुत से चिट्ठों के श्रद्धा सुमन यहां संकलित न हो पाए हों तो टिप्पणियों के जरिए कड़ियाँ दे सकते हैं.

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13 टिप्‍पणियां:


  1. श्रद्धेय के लिये बहुत से जन कुछ न कुछ कह चुके हैं.. या कहना चाहेंगे ! उसमें मैं इतना ही जोड़ना चाहूँगा, कि..
    वह एक प्रेरक संघर्षगाथा के जीवित स्वरूप रहे हैं । विष्णु दयाल के रूप मे उनकी प्रारंभिक यात्रा विष्णु गुप्ता पर तनिक ठहर , विष्णु धर्मदत्त को लाँघते हुये, विष्णु प्रभाकर बन कर छा गये ! थर्ड ग्रेड नाटक कम्पनी के लिए ’ हत्या के बाद ’ जैसा नाटक लिख कर भी वह विचलित न हुये ! यह और बात है कि यह नाटक भी चर्चित हो उठा ! देश व समाज के लिये उनका स्पष्ट विज़न था !
    उनको मिले पद्मभूषण पर अटल जी से उनके सम्बन्धों पर कुछ अटकलें लगी ही थीं, कि उनके क्षोभ ने इन पर लगाम भी लगा दी.. " वैसे भी इस तमगे की बाजार में कोई कीमत तो है नहीं। मुझे क्या मिलने वाला है इससे ? जो मिलना था, बहुत मिल चुका। अब मुझे किसी भी चीज की स्पृहा नहीं है। ऐसे अलंकरण से कहीं ज्यादा संतोषदायी बात मेरे लिए यह है कि मेरा लेखन चलता रहे । जो अपने नाम के पीछे पद्मश्री- पद्मविभूषण लगाने में गौरव समझते हैं , वे लोग शायद नहीं जानते कि ऐसा करना जुर्म है । यह तो महज अलंकरण है, नाम और उपाधि का हिस्सा नहीं है । "
    देहदान का संकल्प आसान है.. परंपरागत संस्कार इसे कठिन बना देते हैं.. पर उन्होंने इस पर भी विजय पा लिया !

    मैं समझता हूँ, मृत्युपरांत याद रखे जाना.. याद किये जाते रहना.. ही मानव शरीर की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है..
    फिर कालजयी साहित्य का रचयिता तो कभी मरता ही नहीं !
    लेकिन.. " यह कहाँ आ गये हम ? " कि ..
    अब एक ही दुआ मेरे मन से निकल रही थी..."हे इश्वर....अब के सब ठीक ठाक करना....बस मेरे इन फरिश्तों जैसे दोस्तों के जीवन मे खुशियाँ ही खुशियाँ भर देना...माँ-बाबूजी को उनकी बुढापे की लाठी दे देना...बड़ी पुण्यात्माएं हैं.....शत शत बार तेरे दर पे नतमस्तक हूँ....अपना नज़रे करम रखना...."

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  2. हम क्या कहें...कल से ही बहुत कुछ पढ़ रहे हैं। अपने जीवन का जो पहला साक्षात्कार हमने लिया था 1982 में कभी...बीस वर्ष की उम्र में, वो यही महापुरुष थे-विष्णु प्रभाकर। पटना से निकलनेवाली एक साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित भी हुआ था। यह सब हुआ था मेरे मामा पूं कमलकांत बुधकर के सौजन्य से। विष्णुजी उन्हीं के मेहमान थे हरिद्वार में। मामा की वजह से हमें कई साहित्यकारों और विद्वानों के दर्शनों-संगत का लाभ समय समय पर मिलता रहा है।
    इच्छा थी कि कभी लड़कपन का वह साक्षात्कार शब्दों के सफर पर डालूंगा,मगर उसे तलाश पाता उससे पहले ही वे चले गए...तलाश जारी है।
    उनकी पुण्यस्मृतियों को एक बार फिर नमन...

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  3. नेट पर इस बीच आई सूचनाओं आदि की संकलनात्मक चर्चा। धन्यवाद।
    नेट पर ही "बीबीसी(व अन्य) की विष्णुप्भाकर जी के संबंध में भारी भूल" ( http://hindibharat.blogspot.com/2009/04/blog-post_5123.html ) को भी संकलन की दृष्टि से इनमें जोड़ना चाहूँगी।

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  4. कृपया मेरी टिप्पणी में‘विष्णु प्रभाकर’ जी के नाम की टाईप को सही पढ़ें।

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  5. आज विष्णु प्रभाकर जीवित नही हैं ,लेकिन उनका साहित्य अमर है। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे ।

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  6. हिन्दी साहित्य के इस विराट व्यक्तित्व को श्रद्धांजलि देती इन कड़ियों के संकलन के लिये आभार । मेरी भी श्रद्धांजलि ।

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  7. बहुत बढिया ... विष्‍णु प्रभाकर जी को श्रद्धांजलि देते हुए सारे लेखकों को समेट लिया आपने इस चिट्ठा चर्चा में ... उन्‍हें मेरी भी श्रद्धांजलि।

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  8. कल हिन्दुस्तान में बंगला साहित्यकार सुनील गंगोपाध्याय जी का लेख छपा था। उन्होंने लिखा कि विष्णु प्रभाकार जी ने बंगाली लोगों को शरतचन्द्र के बताया। विष्णु प्रभाकार जी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।

    आपको दुबारा चिट्ठाचर्चा में सक्रिय देखकर मुझे बहुत हर्ष हो रहा है।आशा है आप नियमित इतवार के दिन कुछ न कुछ चर्चा करते रहेंगे।

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  9. उन से कभी प्रत्यक्ष नहीं हुआ। उन के पात्रों के माध्यम से ही उन्हें जाना। लगता ही नहीं कि वे अपरिचित थे। विनम्र श्रद्धान्जलि। वे अपने पात्रों में अमर हैं।

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  10. ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे ।
    आदरणीय विष्नु प्रभाकर जी को सादर श्रध्धाँजली -
    उनके परिवार के सदस्य राज माँगलिक जी
    मेरे शहर मेँ रहते हैँ
    कभी उनसे बातचीत की जायेगी --
    मेरी विनम्र श्रद्धान्जलि।
    - लावण्या

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  11. साहित्य जगत के एक ऐसे सीधे, सच्चे साहित्यकार के रूप में विष्णु प्रभाकर जी सदा याद किया जाएगा निन्होंने गुट, वाद और गिरोहबंदी से दूर रह कर साहित्य साधना की। ऐसे सरल साहित्यकार की आत्मा को नमन॥

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  12. बहुत श्रद्धा है उनके प्रति मन में। श्रद्धान्जलि।

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  13. माननीय श्री दिविक रमेश जी ने अपने ब्‍लॉग में एक पोस्‍ट में काफी खरी खरी बातें कहीं, श्री प्रेम जनमेजय जी ने नुक्‍कड़ पर इस बेबाक टिप्‍पणी का लिंक दिया और इस पर खूब मंथन हुआ। मैं इन दोनों कडि़यों को इसमें जोड़ना चाहूंगा http://nukkadh.blogspot.com/2009/04/blog-post_3143.html और दिविक रमेश जी के ब्‍लॉग पर टिप्‍पणी का मूल लिंक http://divikramesh.blogspot.com/2009/04/blog-post.html जिस पर प्राप्‍त टिप्‍पणियां लेखकों की जागरूकता को प्रतिबिंबित करती हैं।

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