बुधवार, जून 27, 2012

चलो एक कप चाय हो जाये

कुछ दिन हुये अपन ने बजरिये पापुलर मेरठी बताया था:
मवालियों को न देखा करो हिकारत से
न जाने कौन सा गुंडा वजीर हो जाए
आज देखते हैं कि अपने शब्द-सरदार साहब अजित वडनेरकर जी ने इसकी तसदीक भी कर दी कि गुंडा मतलब उभरा हुआ मतलब लोगों से अलग मतलब नायक मतलब नेता। तसल्ली से बताते हुये अजित जी बताते हैं:
"कन्नड़ में गण्डा का अर्थ होता है मोटा आदमी । इसका एक अन्य अर्थ है शक्तिशाली पुरुष । ध्यान रहे उभार की अर्थवत्ता के चलते ही गण्ड में नायकत्व का भाव आया है अर्थात जो दूसरों से ऊपर दिखे ।"

अब नेता जो होता है अपने अनुयायियों से घिरा रहता है, सबसे अलग दिखता है। यही तत्व गुंडे में भी होते हैं। तो अगर नेताजी को कोई गुंडा कहता है तो उनको बुरा नहीं मानना चाहिये। लेकिन ऐसा होगा नहीं न! वे हरकतें गुंडों सरीखीं करते हैं लेकिन मानते नहीं अपने को गुंडा। काश वे शब्दों का सफ़र पढ़ते होते। वैसे जब भी कभी गुंडागीरी की बात होती है, मुझे जयशंकर प्रसाद की कहानी’गुंडा’याद आती है। देखिये उस समय के गुंडे कैसे होते थे:
समस्त न्याय और बुद्धिवाद को शस्त्र-बल के सामने झुकते देखकर, काशी के विच्छिन्न और निराश नागरिक जीवन ने, एक नवीन सम्प्रदाय की सृष्टि की। वीरता जिसका धर्म था। अपनी बात पर मिटना, सिंह-वृत्ति से जीविका ग्रहण करना, प्राण-भिक्षा माँगनेवाले कायरों तथा चोट खाकर गिरे हुए प्रतिद्वन्द्वी पर शस्त्र न उठाना, सताये निर्बलों को सहायता देना और प्रत्येक क्षण प्राणों को हथेली पर लिये घूमना, उसका बाना था। उन्हें लोग काशी में गुंडा कहते थे।
बहरहाल बात गुंडागीरी से शुरु हुई तो आपको तो पता ही होगा कि आजकल एक ठो पिक्चर बनी है कोयला माफ़िया के किस्से और राजनीति दिखाने के लिये। नाम धरा गया है -गैंग्स आफ़ वासेपुर। तमाम लोग इस फ़िलिम पर अपनी राय बता चुके हैं। रवीश कुमार की बतावन सबसे ज्यादा चर्चा में रही। वे कहते हैं- गैंग्स आफ वासेपुर-गुंडई का नया महाकाव्य है। अपनी बात का लब्बो-लुआब रवीश शुरुऐ में बता देते हैं:
जो लोग बिहार की राजनीति के कांग्रेसी दौर में पनपे माफिया राज और कोइलरी के किस्से को ज़रा सा भी जानते हैं वो समझ जायेंगे कि गैंग्स आफ वासेपुर पूरी तरह एक राजनीतिक फिल्म है और लाइसेंसी राज से लेकर उदारीकरण के मछलीपालन तक आते आते कार्पोरेट,पोलिटिक्स और गैंग के आदिम रिश्तों की असली कहानी है।
गौरव सोलंकी अपनी बात कहते हुये शीर्षक में ही सब कुछ कह देते हैं-वासेपुर की हिंसा हम सबकी हिंसा है जिसने कमउम्र फ़ैज़लों से रेलगाड़ियां साफ़ करवाई हैं! इसी सिनेमा के अभिनेता मनोज बाजपेयी फ़िलिम के अपने विचार लिखवाते हैं:
गैंग्स ऑफ वासेपुर की चर्चा उत्साहित करने वाली है। लेकिन, पता नहीं फिल्म को लेकर अति उत्सुकतावश क्या क्या लिखा जा रहा है। एक मायने में यह अच्छा है, लेकिन दूसरी तरफ कई गलतफहमियां भी फैलती हैं। आज सेंसर बोर्ड का सर्टिफिकेट मिल गया है। ए सर्टिफिकेट मिला है। यह बात हमें मालूम थी। हम सब संतुष्ट भी हैं। फिल्म के सेंसर बोर्ड में अटकने को लेकर जो अफवाहें थी, वो सही मायने में अफवाहें ही थीं।
मजे की बात है जिस वासेपुर के नाम पर फ़िलिम बनी वहां के लोग नाराज हैं इस बात पर कि उनके कस्बे को गलत तरीके से दिखाया गया है देखिये पंजाब केसरी की खबर :
जहां इस फिल्म को देश भर में सराहना मिल रही है तो दूसरी और धनबाद के वासेपुर में इस फिल्म का विरोध हो रहा है। वासेपुर के लोगों की शिकायत है कि फिल्म में उनके कस्बे को गलत तरीके से दिखाया गया है।
वासेपुर निवासियों के गुस्से के बारे में पढ़कर अपने गंगौली (गाजीपुर) वाले राही मासूम रजा साहब के गुस्से की याद आ गयी। फ़िलिम ’न्यू देहली टाइम्स’ में हिन्दू-मुस्लिम दंगे की कहानी दिखाने के लिये कस्बे का नाम रखा गया था गाजीपुर। राही मासूम रजा साहब ने इस पर सख्त एतराज जताया था यह कहते हुये कि गाजीपुर में कभी हिन्दू-मुस्लिम दंगा नहीं हुआ। देश में तमाम शहरों में दंगे होते हैं उनकी जगह गाजीपुर का नाम क्यों लिया गया। उनका एतराज फ़िलिम की इस लाइन के आगे अनसुना रहा गया- इस फ़िल्म में दिखाये गये सभी स्थान और पात्र काल्पपिक हैं। तहलका में छपी अनुपमा की रिपोर्ट में वासेपुर के लोगों की प्रतिक्रियायें बतायी गयी हैं। नईम मियां बताते हैं कि वासेपुर बसा कैसे:
वासे साहब के बारे में नईम मियां भी बताते हैं कि उन्होंने ही सबसे पहले डेढ़-दो सौ परिवारों को लाकर बसाया था. फिर तेजी से इस मोहल्ले का फैलाव होता गया और आज यह धनबाद का सबसे बड़ा मोहल्ला है. वासेपुर में हर कोई एक से बढ़कर एक बात बताता है. पता चलता है कि यहां छिनैती, रेप, चोरी, छेड़खानी जैसी घटनाएं कभी नहीं होतीं. लेकिन जब धनबाद में कोई घटना होती है तो कह दिया जाता है- अपराधियों को वासेपुर की राह भागते हुए देखा गया है.
इस मसले पर जब फ़िल्म के स्क्रिप राइटर से पूछा गया कि तो देखिये वे क्या कहते हैं:
फिल्म का नाम गैंग्स ऑफ वासेपुर होने की वजह से आपके मोहल्लेवाले ही नाराज हैं.
फिल्म में वासेपुर का सिर्फ नाम भर लिया गया है. कहानी धनबाद के कोयला माफियाओं की है. वैसे वासेपुर के आम लोग नाराज नहीं हैं. कुछ लोग अपना नाम चमकाने के लिए लोगों को उलटा-सीधा समझा रहे हैं. मैं वासेपुर का ही रहनेवाला हूं. मेरे मां-पिताजी वहीं रहते हैं. मुझे अपने मोहल्ले से बहुत प्यार है. भला मैं क्यों मोहल्ले को बदनाम करना चाहूंगा?
विनीत कुमार की नायिका का दर्द भी देखिये कुछ ऐसा सा है:
जिस धनबाद को लोग पढ़ने-लिखने और कल्चरली रिच टाउन मानते थे न, अब इसे गुंड़ों का शहर समझेंगे. एक बड़े सच को दिखाने के लिए ही सही पर इसने कल्चरली इसको बहुत डैमेज किया है. मेरे बचपन के शहर की धज्जी उड़ा दी रघु. मेरी सारी खूबसूरत स्म़तियों की चिद्दी-चिद्दी कर दी इस इंटल डायरेक्टर ने. वो जब लाल स्कूल ड्रेस में बच्चों को स्कूल जाते दिखा रहा था न तो लगा- अरे ये तो मैं हूं..लेकिन वो बच्चे गायब हो गए. क्या बासेपुर,धनबाद की एक भी लड़की कॉलेज नहीं जाती रघु ?
इस फ़िलिम के बारे में अनिल कुमार यादव का कहना कुछ अलग सा है देखिये:
अनुराग कश्यप चलती का नाम गाड़ी हो चुके हैं। सितारेदार प्री-पेड रिव्यूज का पहाड़ लग चुका है। वे अब आराम से किसी भी दिशा में हाथ उठाकर कह सकते हैं- इतने सारे लोग बेवकूफ हैं क्या? फिर भी इतना कहूंगा कि दर्शकों को चौंकाने के चक्कर में कहानी का तियापांचा हो गया है। कहानी की खामोश ताकत से अनजान निर्देशक गालियों और गोलियों पर ही गदगद है।

लेकिन जे एन यू के अमरेन्द्र का दर्द कुछ अलग तरह का है। पहला दिन पहला शो लपककर देखने वाले अमरेन्द्र ने जब फ़िल्म के निर्देशक का बयान सुना तो वे चौंके। अमरेन्द्र लिखते हैं:
अनुराग जी हिन्दी समाज में फिल्मों का स्तर गिरा होने का कारण दर्शकों को मानते हैं. वे दो टूक कहते हैं कि फिल्म कैसी आयेगी, यह दर्शक डिसाइड करता है. यानी खराब फ़िल्में आ रही हैं तो उसकी वजह निर्देशन-परिवेश कतई नहीं बल्कि दर्शक-परिवेश है.
अनुराग कश्यप के इस बयान पर अपनी राय जाहिर करते हुये अमरेन्द्र लिखते हैं:
फिलहाल बातचीत से यह समझने में आया कि सारी जद्दोजहद फन्ने-खाँ बन पाने तक ही है. ये (कला माध्यमों की) क्रांतिकारिता/परिवर्तनकामना ख़ास पायदान तक के पहले का मंगलाचरण हुआ करती है. उसके बाद तो बदलाव आता ही है. निर्देशक का व्याकरण/खेल-नियम बदल जाता है.
तो ये रही गुंडई का महाकाव्य नाम से चल रही पिक्चर गैंग्स आफ़ वासेपुर की चर्चा। अब देखिये तकनीक के किस्से। रविरतलामी बताते हैं एक एप्पलीकेशन के बारे में जो खरीददारी प्रेमी महिलाओं को बताता है कि वे कहां अपना पइसा खर्च कर सकती हैं। लेकिन रवि रतलामी के भीतर एक मध्यवर्गीय पति भी बसता है उसने अपनी बात धर दी सामने:
परंतु जब मैंने इस एप्प को ठोंक बजाकर देखा तो मुझे ये खास जमा नहीं. मेरे विचार में इस एप्प में एक फ़ीचर की कमी है. यदि ये फ़ीचर जुड़ जाए तो फिर यह एप्प एकदम परफ़ेक्ट हो जाए. वह फ़ीचर है – इसका स्वचालित खरीदारी अलार्म. जब भी स्त्रियाँ कोई नया ड्रेस खरीदने का विचार करें तो यह अलार्म बजा कर उन्हें आगाह करे कि आलमारी में जगह नहीं है, कोई बारह सौ ड्रेसेस का पहनने का नंबर पिछले साल भर से नहीं आया है और उनमें भी तीन दर्जन तो पूरे नए-नकोरे हैं – इत्यादि.

बधाई/मंगलकामनायें

अंतर्जाल में हिंदी के प्रचार-प्रसार में सबसे अग्रणी लोगों में से प्रमुख पूर्णिमा वर्मन जी को पिछले दिनों राष्ट्रपति द्वारा हिंदी सेवी सम्मान समारोह में पद्मभूषण डॉ. मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पूर्णिमा जी को हार्दिक बधाई।
“मुट्ठी भर संकल्पवान लोग जिनकी अपने लक्ष्य में दृढ आस्था है, इतिहास की धारा को बदल सकते हैं।” का दृढ़ विश्वास धारण किये दुनिया के हर कोने से हिंदी की आवाज को बुलंद करने के लिए तत्पर पूर्णिमा जी हिंदी का लोकप्रिय साहित्य नेट पर लाने के लिये सदैव प्रयासरत रहती हैं। संयोग से आज 27 जून को पूर्णिमा जी का जन्मदिन है। पूर्णिमाजी को अनेकानेक मंगलकामनायें।
इस मौके पर उनके बारे में लिखे लेख के साथ पढिये उनसे हुई बातचीत जिसमें वे अपनी पत्रिकाओं अभिव्यक्ति और अनुभूति के बारे में बताती हैं:
हिन्दी में शायद यह पहली पत्रिका होगी जहां संपादक एक देश में निदेशक दूसरे देश में और टाइपिस्ट तीसरे देश में हों। फिर भी सब एक दूसरे को देख सकते हों सुन सकते हों दिन में चार घंटे दो घंटे सुबह और दो घंटे शाम। वो भी तब जब एक की दुनिया में दिन हो और दूसरे की दुनिया में रात। हम आपस में अक्सर कहते हैं, “हम दिन रात काम करते हैं। इसी लिये तो हम दूसरों से बेहतर काम करते हैं”।

पूर्णिमा जी के जन्मदिन के मौके पर आज उनकी ही एक कविताचलो एक कप चाय हो जाये

मेरी पसन्द


पूर्णिमा वर्मन>
जन्मदिवस के इस अवसर से
थोड़ा सा तो न्याय हो जाए
गुमसुम से बैठे हैं हम तुम
चलो एक कप चाय हो जाए


धूम धड़ाका किया उम्र भर
जीवन जी भर जिया उम्र भर
आज सुखद यह शीतल मौसम
कल की यादों में डूबा मन
खिड़की में यह सुबह सुहानी
यों ही ना बेकार हो जाए
चलो एक कप चाय हो जाए

खुशबू जो हमने महकाई
देखो दुनिया ने अपनाई
जगह जगह लगते हैं मेले
हम क्यों बैठे यहाँ अकेले
नई तुम्हारी इस किताब का
जरा एक अध्याय हो जाए
चलो एक कप चाय हो जाए

फूल भरा सुंदर गुलदस्ता
देखो कहता हँसता हँसता
दुख का जीवन में ना भय हो
जन्मदिवस शुभ मंगलमय हो
नानखताई का डिब्बा खोलो
मुँह मीठा इक बार हो जाए
चलो एक कप चाय हो जाए
पूर्णिमा वर्मन

और अंत में

आज के लिये फ़िलहाल इत्ता ही। चलते-चलते देखिये शब्दों के सारथी अजित वडनेरकर का एक और रूप जिसके बारे में रवि रतलामी ने लिखा था :
क्या आप जानते हैं कि अजित वडनेरकर कभी अहमद हुसैन – मोहम्मद हुसैन के शिष्य हुआ करते थे और वे एक उम्दा गायक भी हैं? देखिए उनके लाइव परफ़ॉर्मेंस का वीडियो – जब से हम तबाह हो गए, तुम जहाँपनाह हो गए.
इसमें गायक हैं अजित वडनेरकर। तबले पर संगत भी अजित की है। बस तबले की जगह माचिस का प्रयोग किया गया।

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24 टिप्‍पणियां:

  1. हम तो गीत सुनके जहाँपनाह हो गए !!!! माचिस का प्रयोग ऐसे भी हो सकता है :)
    बाकी "गैंग ऑफ़ वासेपुर" वतन पहुंचते ही देखनी है, इतने सारे लोग इतना सारा कह रहे हैं :)
    वैसे "गुंडा ताड़ने के फायदे" तो आपके भी बड़े फेमस हैं :)

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  2. अजित वडनेरकर बढ़िया गाते हैं , आवाज में दम है :))
    बधाई उनको !

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  3. ...आजकल तो लेखन में भी गुंडई झलक रही है !

    ...गैंग्स ऑफ वासेपुर के लिए यही कहूँगा कि लम्पट बनकर देखने जाने में कोई बुराई नहीं है.फिलम मजेदार है.सब कुछ कह के होता है !

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  4. उन्हें लोग काशी में गुंडा कहते थे-- ये लक्षण तो क्षत्रियों के होते हैं . यानि क्षत्रिय मतलब गुंडा !
    फिल्म के बहाने लोग वासेपुर का नाम तो जान गए .
    पूर्णिमा बर्मन जी की कविता पढ़कर आनंद आ गया .
    और आपकी चर्चा पढ़कर भी .

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  5. गैंग ऑफ वासेपुर देखने का मन तो नहीं फिर भी देखेंगे जरुर. और पूर्णिमा जी को सम्मान के लिए ढेरों बधाई. अजित वडनेकर जी की आवाज में उनके शब्दों जैसा ही दम ख़म है.
    कुल मिला कर चर्चा लाभकारी रही.

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  6. सुन्दर चर्चा.
    GOW से ताल्लुक एक लिंक यह भी गौरतलब:http://gangadhaba.blogspot.in/2012/06/blog-post.html
    पूर्णिमा जी को बधाई. उनकी निष्ठा काबिले-सलाम!
    अजित बडनेकर भाई को चाहिए कि जैसे शब्दों के गड़े मुर्दे खोदते हैं वैसे, थोड़ा ही सही, गीत का इतिहास-भूगोल भी बता दिया करें. अंतिम शेर उन्होंने अपना कहा है, उसके पहले के तीनों शेर पद्मश्री बेकल उत्साही के हैं, धुन भी उन्हीं की है. इसी धुन में वो यह भी गाते रहे हैं, 'सादगी सिंगार हो गयी/आइनों की हार हो गयी'!

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    1. गंगा ढाबा वाला लिंक चर्चा के बाद देखा। अच्छा किया जो लगा दिया।
      अजित जी ने यह गाना फ़रमाइश पर सुनाया। इलाहाबाद में हुये ब्लॉगर सम्मेलन में जब मिले थे। रात को खाने के बाद। जब शुरु हो गये तब हमने अचानक अपना कैमरा उनके सामने लगा दिया था और रिकार्ड कर लिया था। इसके पहले उन्होंने तफ़सील से गाने के बारे में और तमाम चीजें बताईं थीं जो हमें याद नहीं रहीं। चलो इसी बहाने यह भी आ गया कि पहले के तीनों शेर पद्मश्री बेकल उत्साही जी के हैं। यह हमसे छूट गया था। :)

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    2. अच्छा. इस गजल को जगजीत-चित्रा की युगल आवाज में आप सुन भी सकते हैं:
      http://www.youtube.com/watch?v=4UxcghzwJgw

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    3. सुना! अच्छा लगा। लेकिन इसमें माचिस-तबला नहीं है न! :)

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    4. हाँ सो तो है, अनौपचारिकता का अपना मजा होता है। :)

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  7. आदरणीय पूर्णिमा जी को पद्मभूषण मिलने पर बधाईयाँ और जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ.
    अजीत जी का गायन उम्दा लगा .

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    1. पद्मभूषण डॉ. मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

      पूर्णिमा जी को पद्मभूषण nahin milaa haen unhae upar diyaa puruskaar milaa haen

      anup clear kar dae

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    2. खबर का लिंक वहां लगा है। उसी से सूचना मिली मुझे। उसके अनुसार पूर्णिमाजी को हिंदी सेवी सम्मान समारोह में पद्मभूषण डॉ. मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार मिला है।

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  8. वाह, अजीत वडनेरकर तो शब्दों के साथ स्वर के भी सम्राट हैं, बहुत सुन्दर!

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    1. हां जी अजित जी स्वर और सुर सम्राट भी हैं। :)

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  9. मुद्दतों से नींद न मिली ख्वाब बेपनाह हो गए ....वाह गजब जी गजब , पोस्ट को ही बुकमार्क करके रख लिया है । बहुत ही उम्दा चर्चा अनूप जी । बेहतरीन बेहतरीन ।

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  10. पूर्णिमा जी को जन्म दिन की बधाई। एक कप चाय के बहाने खूब हौसलाअफजाई की है कविता ने..वाह!
    वासेपुर की चर्चा पढ़ने में पूरा दिमाग खरच हो गया। फिल्म देखी जाय फिर एक कप चाय पी जाय। इन सब के बीच गुंडा शब्द की व्याख्या और गुंडा कहानी की चर्चा का गठजोड़ खूब किया है आपने।

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    1. एक कप चाय पिया जाये पहले तो। फ़िल्म के बारे में हम यही कहेंगे कि अनिल कुमार यादव की समीक्षा सटीक है। हम देख के आये अभी इसलिये कान्फ़ीडेन्टली कह रहे हैं। :)

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  11. सर जी , हमने चाय के टेस्ट पर बहुत अनुसंधान किया और अंततः पाया कि चाय का टेस्ट कंपनी पर निर्भर करता है | कंपनी बोले तो 'संगत' ,चाय की पत्ती की निर्मात्री नहीं |

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  12. बहुत शुक्रिया साथियों,
    अनूपजी की चर्चाएँ तो ऐसी ही मज़ेदार होती हैं । ऐसी ही एक चर्चा के दौरान थोड़ा सा गुनगुनाना हो गया था । बाकी इस विधा को टाटा बाय बाय कहे अर्सा हो चुका है ।
    अमरेन्द्र भाई से कहना चाहूँगा कि जो शेर हमने अपना कहा है , वह तथाकथित रूप में नहीं बल्कि आधिकारिक तौर पर मेरा अपना है :) किसी और की बहर पर अपनी बात कहना वैसे भी शायरी में आम है । हमने भी हिमाक़त कर ली थी । हाँ, ये ग़ज़ल किनकी है, हमें भी नहीं पता था । और जैसा कहा है कि वो गुनगुनाने वाले लम्हे थे । किसने गाया, किसने लिखा जैसी औपचारिकताओं से काफ़ी ऊपर वाला आध्यात्मिक सत्र था वो :)

    एक बार फिर सभी का शुक्रिया ....

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