सोमवार, जनवरी 01, 2007

मध्यान्हचर्चा दिनांक : 01-01-2007

संजय ने कक्ष में कदम रखा, तब धृतराष्ट्र नए मग में कोफी का आनन्द ले रहे थे. संजय समझ गए की यह जरूर नए साल के उपहार स्वरूप किसी ने भेंट किया होगा.
संजय : नव वर्ष की शुभकामनाएं, महाराज.
धृतराष्ट्र : तुम्हे भी ढ़ेर सारी बधाई. सब ओर पार्टी का ही महौल है या कोई कुछ लिख भी रहा है.
संजय : महाराज, ज्यादा लिखा जा रहा है. सब एक- दुसरे को बधाईयाँ दे रहे हैं, नए साल में अपने लिए नए नियम बना रहे है. कुल मिला कर उत्साह का माहौल है.
धृतराष्ट्र : बहुत खुशी की बात है. अब बताओ कौन क्या लिख रहा है.
संजय : जी महाराज. पहले तो यह उपहार ग्रहण करे, रविजी बता रहे हैं अभिव्यक्ति और अनुभूति ने नए साल में अंतत: यूनिकोड का आवरण पहन ही लिया.
साथ ही एक और अच्छी खबर सुना रही हैं, मनिषाजी. उनके अनुसार सदियों पहले विदेश में जा बसे भारतीयों के पास अपने वंशजों की जड़ें तलाशने का सुनहरा मौका है प्रवासी भारतीय दिवस.
धृतराष्ट्र : स्वदेश से दूर हुआ व्यक्ति ही अपनी जड़ो के कटने की पीड़ा को समझ सकता है.
धृतराष्ट्र कहीं खो से गए, फिर लम्बी साँस छोड़ते हुए कोफी का बड़ा-सा घूँट भरा.
संजय : सही कहा महाराज. पर रविजी के अनुसार कुछ ऐसा भी सिर्फ भारत में ही हो सकता है.
(फिर धीमे स्वर में) और द्रोपदी का अपमान भी इसी भूमि पर हुआ था.
धृतराष्ट्र ने स्वीकृति में सर हिलाया.
संजय (ने विषय बदलते हुए कहा) : महाराज, कुछ मजेदार अन्दरूनी समाचार ले कर आएं है श्रीशजी.
गीतमाला के तहत शाम को गीत गुनगुना रहे हैं, मनिष.
और अब आप छायाचित्रकार से देखिये नववर्ष पर बोलोनिया की सड़क का नजारा, मैं होता हूँ लोग-आउट.
अरे हाँ, कल सर्वश्रेष्ठ चिट्ठाकार के लिए मतदान करना न भूले.

2 टिप्‍पणियां:

  1. "धृतराष्ट्र : स्वदेश से दूर हुआ व्यक्ति ही अपनी जड़ो के कटने की पीड़ा को समझ सकता है.
    धृतराष्ट्र कहीं खो से गए, फिर लम्बी साँस छोड़ते हुए कोफी का बड़ा-सा घूँट भरा."


    धृतराष्ट्र महाराज कौन से देश में हैं आजकल ?

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  2. धृतराष्ट्र का देश ही नहीं युग भी पीछे छुट गया है, इनका दर्द कौन समझ सकता है?

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