सोमवार, फ़रवरी 12, 2007

कट गई अरमानों की पतंग


चिट्ठाचर्चा के रूपाकार को लेकर चर्चाओं का दौर जारी है, और यह जारी रहनी चाहिए ताकि हमेशा कुछ अच्छा कुछ नया सा होता रहे.

आइए, सबसे पहले नए चिट्ठों का स्वागत करें, जो, हो सकता है नए तो न हों, परंतु जिनका हमें नया-नया पता चला हो.

दिल का दर्पण - परावर्तन एक ऐसा ही चिट्ठा है, जो संभवतः जनवरी 07 में प्रारंभ हुआ, और एक महीने में ही उसमें 53 पोस्टें आ गईं. फरवरी की 12 तारीख तक आते आते उसमें 62 पोस्टें जमा हैं. ठीक है, आप कहेंगे कि इनमें बहुत सी छोटी छोटी कविताएं हैं, परंतु फिर भी ये कम नहीं हैं. इस चिट्ठे के लेखक मोहिन्दर कुमार को शुभकामनाएँ कि वे इसी महीने, बल्कि इसी हफ़्ते अपने चिट्ठा पोस्ट का शतक पूरा करें और शीघ्र ही सहस्र वीर की उपाधि भी प्राप्त करें. वैसे अभी कौन इस उपाधि के बहुत नज़दीक है? संभवतः मेरा पन्ना. मेरा पन्ना पर आज की गिनती है 663! सहस्र वीर होने के लिए सिर्फ 337 चिट्ठापोस्टों का सवाल है. जीतू भाई को इधर विशेष ध्यान देना चाहिए.

बहरहाल, दिल का दर्पण - परावर्तन में कुछ बहुत ही खूबसूरत कविताएं हैं. मिसाल के तौर पर जिंदगी प्याज हो गई. इसी चिट्ठे से प्रस्तुत है अरमानों की पतंग कविता की कुछ पंक्तियाँ :

तुझे पसन्द थे

लेटेस्ट रिमिक्स

मैं ओल्ड हिट सुनाता रहा

इसलिये कट गयी

मेरे अरमानों की पतंग

फाईव स्टार होटल

तेरा ऐम था

मै लोकल ढाबे के

चक्कर लगवाता रहा

इसलिये कट गयी

मेरे अरमानों की पतंग

रकीब दे गया उसे

हीरे का नेकलस

मैं खाली फूलों से

काम चलाता रहा

इसलिये कट गयी

मेरे अरमानों की पतंग.

एक और ताज़ातरीन चिट्ठा है - कुछ विचार. इसे मृणाल कान्त (या कांत?) ने लिखना शुरु किया है, और उन्होंने अपने पहले चिट्ठा-पोस्ट में में न्यूटन के गति के नियमों की वास्तविकता की जांच की है -

'पहले नियम' के तुल्य हम कह सकते हैं - बाह्य बलों के अभाव मे प्रत्येक वस्तु एक समान गति (जिसमे स्थिर अवस्था भी शामिल है) से चलती है। (कुछ पुस्तकें प्रथम नियम मे 'बल' शब्द का प्रयोग न करके 'प्राक्रितिक अवस्था' का प्रयोग करते हैं। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बाद मे यह समझा दिया जाता है कि 'प्राक्रितिक अवस्था' और 'बाह्य बलों का अभाव' एक ही चीज़ हैं)। क्या इस कथन को हम नियम कह सकते हैं? इस कथन को नियम कहने के लिये निम्नलिखित दो तथ्यो॑ को एक दूसरे से स्वतन्त्र रूप से निर्धारित होना आवश्यक है। पहला, किसी वस्तु की एकसमान गति तथा उसकी अन्य अवस्थाओं मे अन्तर करना सम्भव होना चाहिये। दूसरा, यह निर्धारित करना सम्भव होना चाहिये कि कब किसी वस्तु पर बाह्य बल आरोपित हो रहे हैं ऒर कब नहीं। यदि हम मान लें कि वस्तु का एकसमान गति मे होना तथा उस पर बाह्य बलों के आरोपित होने को एक दूसरे से स्वतन्त्र रूप से निर्धारित किया जा सकता है तो उपर्युक्त कथन को हम नियम कह सकते हैं। तब प्रयोगों द्वारा यदि हम देखते हैं कि बाह्य बलों के अभाव मे कोई वस्तु वास्तव मे एकसमान गति ( या स्थिर अवस्था) से चलती है तो पहले नियम के सत्य होने की सम्भावना है। अन्यथा प्रथम नियम का गलत होना सिद्ध होगा।

इस तर्क को पढ़कर तो लगता है कि क्या ये नियम सचमुच नियम हैं? आखिर बेचारे प्लूटो को भी तो पहले पृथ्वी का एक ग्रह माना गया फिर बाद में उससे यह पदवी छीन कर छुद्र-ग्रह ही मान लिया गया.

आप सभी चिट्ठा-पाठकों से गुजारिश है कि नए चिट्ठाकारों का गर्मजोशी से टिप्पणियाकर स्वागत करें.

महाशक्ति में प्रमेन्द्र अपने वृहत चिट्ठा-पोस्ट - दीप जो जलता रहा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रथम सरसंघ चालक स्व. श्री गुरु गोलवलकर को उनके जन्मशताब्दी वर्ष पर याद कर रहे हैं. उन्होंने श्री गुरु जी के जीवन से संबंधित बहुत सी बातों को सामने रखा है तथा डॉ. सैफुद्दीन जिलानी द्वारा लिए गए श्री गुरु जी के एक साक्षात्कार का अंश भी शामिल किया है. खुशवंत सिंह, जिनको सम्मानित करने अभी हाल ही में महामहिम राष्ट्रपति कलाम स्वयं उनके घर गए थे, के श्री गुरु जी के बारे में संस्मरण को भी उन्होंने उद्घृत किया है-

"मैं गुरुजी का आधे घंटे का समय ले चुका था। फिर भी उनमें किसी तरह की बेचैनी के र्चिन्ह दिखाई नही दिए। मै उनसे आज्ञा लेने लगा तो उन्होने हाथ पकडकर पैर छुनेसे रोक दिया।

'क्या मैं प्रभावित हुआ? मैं स्वीकार करता हूँ कि हाँ। उन्होंने मुझे अपना दृष्टिकोण स्वीकार कराने का कोई प्रयास नहीं किया, अपितु उन्होंने मेरे भीतर यह भावना निर्माण कर दी कि किसी भी बात को समझने-समझाने के लिए उनका हृदय खुला हुआ है। नागपुर आकर वस्तुस्थिति को स्वयं समझने का उनका निमंत्रण मैंने स्वीकार कर लिया है। हो सकता है कि हिन्दू-मुस्लिम एकता को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उद्देश्य बनाने के लिए मैं उनको मना सकूँगा और यह भी हो सकता है कि मेरी यह धारणा एक भोले-भाले सरदार जी जैसी हो।'"

अमित ने अपनी अजमेर यात्रा के किस्से का अगला भाग - वीर योद्धाओं के देश में - 2 प्रस्तुत किया है. उनका लिखा पढ़कर यूं लगता है कि अपन भी उनके साथ घूम रहे हैं, खाने का आनंद ले रहे हैं. पढ़ते पढ़ते मरे हुए कुत्तों के सड़ते शवों का दुर्गन्ध भी पाठक को महसूस सा होने लगता है -

उन्होंने दिशा निर्देश देते हुए बताया कि पास ही में "मैंगो मसाला" नाम का रेस्तरां है जो कि अजमेर में सबसे बढ़िया है। तो हम लोग चल पड़े उनके दिए दिशा निर्देशों के अनुसार और रास्ते में भी एकाध जगह पूछ लिया उस रेस्तरां के बारे में। आखिरकार कुछ देर भटकने के बाद हम पहुँच ही गए "मैंगो मसाला" पर। सभी की तबियत उसको देख प्रसन्न हो गई। ऑर्डर देने के बाद उन्होंने खाना भी जल्द ही परोस दिया, अधिक समय नहीं लगाया। भरपेट भोजन के बाद हम पुनः पहुँच गए अना सागर नामक तालाब पर।

तालाब के किनारे पर हर तरह का कूड़ा पड़ा था, किनारे का पानी भी बहुत गंदा हरे रंग का था और बहुत तीव्र दुर्गन्ध आ रही थी।

बाग़ में नशेड़ी भरे हुए थे जो कि नशे में धुत घास पर बेसुध पड़े थे। एन्सी और शोभना से माहौल बर्दाश्त नहीं हो रहा था तो वे लोग बाहर गाड़ी में जाकर बैठ गए।

बढ़ते-२ एक पहाड़ी सड़क पर पहुँचे जहाँ अत्यधिक तीव्र दुर्गन्ध आ रही थी क्योंकि आसपास बहुत से कुत्ते और कुत्ते के बच्चे मरे पड़े थे और उनके शव सड़ रहे थे(ये सब गाड़ियों के नीचे आकर मरे थे क्योंकि एकदम से ये गाड़ियों के सामने आ जाते हैं)।

लगता है वेलेंटाइन दिवस का प्यार का नशा हफ़्तों पहले ही सिर चढ़ रहा है. राइम ऑफ लाइफ़ में मन्या ने प्यार के बारे में लिखा -

"ये वो दौलत है जो कभी घटती नहीं... तुम्हें कितना मिला ये तुम्हारी किस्मत.. तुमने कितना दिया ये तुम्हारी नीयत... प्यार तुम या मैं नहीं.. प्यार हम है.. प्यार सब है... प्यार रिश्ता नहीं.. प्यार बंधन नहीं.. प्यार तो तुममें , हममें , सबमें है.... प्यार दिलों में है.. इसे बंधनों में मत बांधो.... फ़ैलने दो आज़ादी से... महकने दो इसकी खुश्बू को..... प्यार तुम्हारा नहीं ना सहीं किसी का तो है, कहीं तो है...."

तो जीतू प्यार में नॉस्टलजिया गए और जवाब में कुछ यूँ कहने लगे-

वाह! वाह!

प्यार पाने का नाम नही है, प्यार तो, अपने महबूब के चेहरे पर मुस्कराहटें पाने के लिए लुट जाने का नाम है। भले ही इस मुस्कराहट से आपकी राहों मे काँटे आएं। दीवाने को माशूका की बेवफ़ाई मे भी अलग रंग ही नज़र आता है। एक शायर ने क्या खूब कहा है :

मै चाहता भी यही था वो बेवफ़ा निकले

उसे समझने का कोई तो सिलसिला निकले

किताब-ए-माज़ी के औराक़ उलट के देख ज़रा

ना जाने कौन सा सफ़हा मुड़ा हुआ निकले

परंतु, होशियार! खबरदार! प्यार में इतना न खो जाएँ कि सुध-बुध न रहे, और वायरसों से अपना नुकसान करवा बैठें. खबरदार कर रही हैं मनीषा - वेलेंटाइन डे पर बचें कम्प्यूटर वायरस से.

चलते चलते पता चला कि - अपोलो 9 की अभ्यास उड़ान करते करते मुन्नाभाई सर्किट समेत अमरीका भाग गए.

दिनांक 11 फरवरी 2007 को प्रकाशित हिन्दी के सभी चिट्ठों की सूची नारद पर यहाँ देखें.

फरमाइशी व्यंज़ल -

यूँ तो इस दफ़ा चिट्ठा चर्चा में मुद्दा ऐसा कोई था नहीं जिस पर व्यंज़ल लिखा जा सकता हो, परंतु घंटा भर कम्प्यूटर मॉनीटर को घूरते रहने से कुछ क्लिक हो गया. मुलाहिजा फरमाएँ -

कटा ली हमने अपने अरमानों की पतंग

कुछ इस तरह स्वयं ही बन गए अपंग

अहसास तो हो चुके हैं जाने कब से खार

फिर क्या कर लेगा अपने तीरों से अनंग

कैसे करें शिकवा कि हमें कुछ नहीं मिला

ये दुनिया तो उसकी है जो है नंग धड़ंग

साथ चलने का आमंत्रण यूँ तो बहुत था

कुछ तो हमें ही बहुत पसंद था असंग

चार पंक्ति जमा के हो रही है भ्रांति रवि

सोचते हैं अब हम भी हो गए हैं अखंग

**-**

(चित्र - अमित के चिट्ठे से)

3 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन चर्चा.व्यंजल के लिये आभार, यह शेर कुछ खास ही है:

    कैसे करें शिकवा कि हमें कुछ नहीं मिला
    ये दुनिया तो उसकी है जो है नंग धड़ंग...

    --बहुत बढ़िया.बधाई.

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  2. क्षमा चाहूँगा रतलामी जी, श्री गुरू जी द्वितीय सर संघ चालक थे

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