मंगलवार, मई 01, 2007

बहुत महँगा पड़ा हमको

बात तो थी चिट्ठा चर्चा की. पर हमारे समीर भाई के आदेश और मोहिन्दरजी के आग्रह पर- गीत लिखें.- कोशिश की कि पहले चिट्ठा चर्चा करूं फिर गीत लिखूँ पर सब कुछ लस्सी में चीनी की तरह गडमड हो गया. देखें और दोष देना हो तो समीर भाई और मोहिन्दर को पकड़ें


नहीं संभव हुआ हमको ये चिट्ठे आज पढ़ पाना
बहुत महँगा पड़ा हमको यो मीटिंग में चले जाना

यों नारद की तलहटी में थे चिट्ठे चार दर्जन भर
मगर आया नहीं कोई सतह पर, पर उबर ऊपर
वही शिकवे शिकायत थीं को शोले न उगलती है
हमारी है नहीं यह बात जो आकर उभरती

हुआ बस एक बंगाली कॄति को आज पढ़ पाना
बहुत महंगा पड़ा हमको यों मीटिंग में चले जाना

लिखे था जोग से कोई अहमदाबाद से चिट्ठी
कोई सच था असुविधा का, कहीं थी ग्रीष्म की छुट्टी
था उतरा रंग में जाकर, किसी के सामने कोई
रहा था बंद बक्से में कहीं पर भेद जा कोई

नहीं संभव हुआ है रास्ता कोई भी मिल पाना
बहुत महँगा पड़ा हमको यों चर्चा के लिये आना

कहीं पर आज पतझड़ है, कहीं मौसम बसन्ती है
कहीं हिन्दी ब्लागिंग पर छपी आलेख दिखती है
यहाँ कहते हैं दीपक जी, कभी जो कह नहीं पाये
कोई अहसास की गलियों से बाहर किस तरह आये

न कल था, आज भी संभव नहीं है फोन कर पाना
बहुत महँगा पड़ा है आज चर्चा के लिये आना

कई पल रात की परछाईयों में सोये न जागे
पढ़ें कोई कहावत काम आयेगी कभी आगे
हुए हैं बीस शत कविताओं के देखें यहां पन्ने
उखाड़ें क्रोध वाले खेत से कैसे अहो गन्ने

नहीं संभव हुआ बढ़ते वज़न को फिर घटा पाना
बहुत महँगा पड़ा शादी में जाकर दावतें खाना

3 टिप्‍पणियां:

  1. राकेश भाइ हमरा नाम तक नही लिये हो जेई लिख मारते की कछु नाही लिखो है जाओ अब हम भी नही टीपियायेगे.

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  2. इतनी बेहतरीन चर्चा करके कहते हैं कि बहुत मंहगा पड़ा..तो सही है. हर बार मंहगा ही पड़ा करे, कम से कम चर्चा तो बेहतरीन सुनने मिलेगी.. :)

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  3. बेहतरीन चर्चा रही…छंद और नया छंद सुंदर्…।

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