गुरुवार, मार्च 19, 2009

आज के लिए बस इतना ही.

लोकतंत्र का त्यौहार आ गया है. ऐसे में पूरा माहौल ही लोकतान्त्रिक हो गया है. नेताओं को पहचानने की कवायद तो शुरू हो ही गई है, साथ ही साहित्यकारों के पहचान की कोशिशें भी तेज हैं. मंगलेश डबराल जी को पुरस्कार मिला लेकिन उन्होंने लेने से मना कर दिया. ऐसे में कोई पुरस्कार का समर्थन कर रहा है तो डबराल जी का.

यह मौसम ही ऐसा है कि समर्थन देने और समर्थन खीचने की बात अपने आप शुरू हो जाती है. अब देखिये न, वरुण गांधी ने भाषण दे डाला. इसका नतीजा यह हुआ कि कोई उनके भाषण के विषैलेपन पर लिख रहा है तो कोई पूछ रहा है कि उन्होंने क्या बुरा कहा?

लेकिन उन्होंने कुछ तो कहा जिसको लेकर इतना बखेड़ा खड़ा हो गया है. वैसे भी वे क्या करें? सभी कहते हैं कि देश को नौजवान नेताओं की ज़रुरत है. अब ऐसे में यह तो हो ही सकता है कि नेता कुछ ज्यादा नौजवान निकल जाए. ऐसा हो जाता है तो समाज में खाली-पीली भीत खड़ी हो जाती है. समर्थन देने और खीचने की बातें अपने आप शुरू हो जाती हैं.

खैर, हमें तो चर्चा करने के लिए समर्थन मिला है. ऐसे में हम चर्चा कर डालते हैं.

आप कह सकते हैं कि चर्चा के लिए मुझे किसने समर्थन दिया? देश के दिग्गजों ने तो बिलकुल ही नहीं दिया. वे तो आजकल लतिका सरकार के समर्थन में खड़े हैं.

आप पूछ सकते हैं कि लतिका सरकार कौन हैं? इसे जानने के लिए आप के पी चौहान जी की यह पोस्ट पढ़िए. पढ़ने के बाद मुझे पता चला कि लतिका सरकार समाजसेवी हैं. पढ़कर यह अनुमान लगा कि लतिका सरकार को उनके घर वालों ने ही घर से बेघर कर दिया होगा. चौहान जी की मानें तो;

"जब से देश में प्रोपर्टी के मूल्य अनाप सनाप बड़े है "जब से देश में प्रोपर्टी के मूल्य अनाप सनाप बड़े है तभी से अपने बच्चे पड़ोसी ,किरायेदार ,नौकर तक गिद्ध द्रष्टि लगाकर बैठजाते है और किसी ना किसी प्रकार उसे हथियाने की कोशिश करते हैं ,और कुछ जगह तक मर्डर भी हो रहे हैं.."

लोन-वोन देकर वित्तीय संस्थानों ने देश की खटिया खड़ी कर दी है. प्रोपर्टी का दाम बढा दिया है. जिसके कारण समाज अन्यायी हो गया है. समाज में अपराध बढ़ गया है. हमें अपने कर्मों (और कुकर्मों) के लिए बहाने खोजने में कोई असुविधा नहीं होती. यह शोध का विषय है कि जब देश में प्रोपर्टी की कीमतें नहीं बढ़ी थीं तो हम ऐसे कर्म करते थे या नहीं?

चौहान जी आगे लिखते हैं;

"केस को जल्दी हल करने के लिए डेल्ही हाई कोर्ट ने बहुत दिलचस्पी ली है और उसी का
कारण और लतिका जी का जागरूक और समाज सेवी होने के कारण ही आज उनके पक्ष में देश के १५२ जाने माने ,प्रसिद्द लोग उनकी मदद करने के लिए आगे आए हैं..."

पता तो नहीं कि जाने-माने लोग कौन हैं? हमें लिस्ट मिलती तो देखने की कोशिश करते कि इसमें कुछ ब्लागरों के भी नाम हैं या नहीं?

अगर आप मेरा समर्थन करते हैं तो चौहान जी की पोस्ट पर टिप्पणी करके उनसे लिस्ट छापने की बात कर सकते हैं.

लेखक-पत्रकार कहाँ उलझे हैं? आप कह सकते हैं कि चुनावों के मौसम में चुनाव-वर्षा से भीग रहे होंगे. आप यह भी कह सकते हैं कि लेखक-पत्रकार इस बात में उलझे हैं कि फला सरकार द्बारा दिया जाने वाला सम्मान लिया जाय या फिर चिट्ठी लिखकर रिजेक्ट कर दिया जाय. ऐसे में पुरस्कार रिजेक्ट माल हो जायेगा.

लेकिन अखिलेश्वर जी की मानें तो लेखक-पत्रकार यौन आलोचना में उलझे हैं. बताईये, जिन्हें आलोचना-समालोचना में उलझना चाहिए था वे उलझे हैं यौन आलोचना में.

अखिलेश्वर जी लिखते हैं;

"वे यह जानने को इच्‍छुक होते हैं कि क्‍या निजी जीवन में भी इनका व्‍यवहार नाटकीय, इनकी भाषा प्रभावशाली और रहन-सहन इनके पात्रों जैसा ही होता है।"

अब इसका जवाब तो कोई लेखक-पत्रकार ही दे सकता है. हो सकता है लेखक या पत्रकार का रहन-सहन उनके पात्रों जैसा होता हो. अगर ऐसा हो गया तो कह सकते हैं कि वे कैरेक्टर में घुस जाते हैं. ठीक वैसे ही जैसे आमिर खान कैरेक्टर में घुसे रहते हैं. लेकिन इसमें एक दुविधा है. कोई लेखक-पत्रकार इसका विरोध करते हुए कह सकता है कि; "हमारी तुलना आमिर खान से करते हो?"

अखिलेश्वर जी आगे लिखते हैं;

"यह विडंबना नहीं तो क्‍या है कि समाज को दिशा दिखाने का दंभ भरनेवाले एक वर्ग विशेष के प्रति लोगों की ऐसी धारणा बन गई है।"

धारणा बनाने में क्या जाता है? कोई घर बनाने का काम तो है नहीं कि बैंक से लोन नहीं मिला तो घर नहीं बना. धारणा बनाने का सारा साज-ओ-सामान तो अपने पास ही है. धारणा बनाने के लिए जिस छिन्नी, हथौडी, काठ, लोहे, बालू, सीमेंट की ज़रुरत होती है, उससे तो हम हमेशा ही लैश रहते हैं. जैसी चाहिए, शेप दे डालो. जिससे कभी नहीं मिले, जिसे कभी नहीं देखा उसके बारे में उसके लेखन से या फिर पत्रिकाओं में पढ़कर धारणा बना डालो. आधा मिनट तो लगता है धारणा बनाने में.

अखिलेश्वर जी आगे लिखते हैं;

"यही वजह है कि आज भी जिन दिवंगत मूर्धन्‍य साहित्‍यकारों के प्रशंसक आराधना करते
नहीं थकते हैं उनके बारे में उनकी ही बिरादरी के लोग ओछी जानकारियों को यदा-कदा
एक-दूसरे से शेयर कर अपनी मूर्खतापूर्ण जानकारी का परिचय देने से भी नहीं चूकते।
जैसे- प्रेमचंद सूद पर रुपया देते थे, जैनेंद्र स्‍वेच्‍छाचार के हिमायती थे,भारतेंदू ने अपने बाप-दादों की कमाई तवायफों के पास आने-जाने में खूब उडाई, शरतचंद्र व्‍याभिचारी थे आदि-आदि..."

बिरादरी के लोग बड़े 'वो' होते हैं. बिरादरी ने न जाने क्या-क्या करवा दिया है देश में. उसपर इतनी सारी बिरादरी. हे भगवान, बिरादरी से बचाओ. नेता से बाद में बचा देना.

आये दिन सुनते हैं (और कहते भी हैं) कि देश की हवा अब सांस लेने लायक नहीं रही. इस बात के कई मतलब निकल सकते हैं. लेकिन मैं बात कर रहा हूँ निहायत ही शारीरक मतलब की. माने वातावरण के प्रदूषण की. प्रदूषित वातावरण में जीने के लिए दवाईयों का महत्व बहुत बढ़ गया है. दवाई नहीं तो जीना नहीं. लेकिन क्या करेंगे, अगर दवाई नकली निकल जाती है तो?

आज द्विवेदी जी नकली दवाई या फिर दवाई से होने वाले साइड एफ्फेक्ट्स से पैदा होनेवाली परेशानी के निराकरण के लिए कानूनी सुझाव दिए हैं.

असल में द्विवेदी जी से इस बाबत सवाल किया था भुवनेश जी ने. यही कारण है कि द्विवेदी जी ने भुवनेश जी को संबोधित करते हुए लिखा है. लेकिन लेख तो कोई भी पढ़ सकता है. इसपर कोई रोक-टोक नहीं है. द्विवेदी जी लिखते हैं;

"भुवनेश जी, कोई भी दवा बिना बिल के कभी भी किसी को भी नहीं खरीदनी चाहिए। आज के जमाने में जब हम देखते हैं कि नकली दवाओं का कारोबार जोरों पर है और उस पर अंकुश लगाए जाने के लिए देश मे कोई कारगर व्यवस्था नहीं है। ऐसे में बिल लेने पर दुकानदार को हमेशा यह चिन्ता बनी रहेगी कि बिल का उस के विरुद्ध प्रयोग हो सकता है तो वह आप को नकली दवा देने से बचेगा।"

यह शोध का विषय है कि जिस नकली दवा का बिल बनाकर दूकानदार बेचने से डरेगा, उसी दवा को इस दूकानदार ने बिना बिल के खरीदा है या दवा खरीदते समय स्टॉक बिल से लैश होता होगा. और फिर जब नकली दवा बनाने वाले को कोई डर नहीं है तो दूकानदार ऐसे में डरेगा?

नकली दवाओं की बिक्री को रोकने के लिए कोई कारगर उपाय क्यों नहीं है? हमारे स्वास्थ मंत्री मीडिया से मिलते हैं. प्रेस कांफ्रेंस करते हैं. फ़िल्मी परदे पर सिगरेट शराब न दिखे, इसके लिए इतनी मेहनत करते हैं. ऐसे में एक बार कानून मंत्री से भी मिल लेते. कोई कारगर उपाय खोजने के लिए कमीशन ही बैठा देते. लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि नकली दवा बनाने वालों का कमीशन इस कमीशन पर भरी पद जाता है?

खैर, द्विवेदी जी आगे लिखते हैं;

"यदि दवा नकली पाई जाती है तो तुरंत पुलिस को खबर करना चाहिए जिस से पुलिस त्वरित कार्यवाही कर के नकली दवा के शेष स्टॉक को जब्त कर सके और नकली दवा निर्माता, वितरक और केमिस्ट को पकड़ सके और उन्हें सजा दिला सके।"

नकली दवा बनाने वालों को आये दिन पुलिस पकड़ती रहती है. लेकिन दवाओं का बनना बंद नहीं होता. और हाँ, नकली दवाओं से बचने की कोशिश की जानी चाहिए. यह मानकर चलना चाहिए कि नकली दवाएं तो बनेंगी.

आप द्विवेदी जी की पोस्ट पढ़िए. बहुत बढ़िया जानकारी दी है उन्होंने.

हम सेलफोन पर फोनिया रहे हैं. कुछ लोग कहते हैं कि इसकी वजह से कैंसर हो सकता है. यह बात कुछ ही लोग तो कह रहे हैं. सारे तो नहीं कह रहे हैं न. ऐसे में बाकी कुछ क्या कहेंगे? वे कहेंगे कि यह सच नहीं है कि सेलफोन के इस्तेमाल से कैंसर हो सकता है. लेकिन अगर यह बात सारे बोल दें तो सेलफोन का इस्तेमाल बंद हो जायेगा. कौन मरना चाहेगा जी कैंसर से?

लेकिन अगर नुक्सान हमें न होकर गौरैया को हो तो? हो. हममें से कुछ कह सकते हैं; "गौरैया कौन?" कह ही सकते हैं. कहाँ दिखती हैं आजकल? ऊपर से संजय जी की मानें तो उनके शहर से नब्बे प्रतिशत गौरैया गायब हो गई हैं. संजय जी लिखते हैं;

"मगर एक सच्चाई जो सामने आ रही है, वह चिंतित करने वाली है. शहरों से गौरैया जिसे
घरेलू चिड़िया भी कहा जाता है, तेजी से कम हो रही है. हमारे शहर से देखते ही देखते
90% गौरैया खो गई है. इसका कारण मोबाइल टावरों से निकले वाली तंरगों को माना जा रहा है. ये तंरगें चिड़िया की दिशा खोजने वाली प्रणाली को प्रभावित कर रही है. इनके
प्रजजन पर भी विपरीत असर पड़ रहा है. परिणाम स्वरूप गौरैया तेजी से विलुप्त हो रही
है. "

हमें क्या जी? गौरैया जाए तो जाए. हमारी तो बात हो जाए. हम तो सेलफोन का इस्तेमाल नहीं करेंगे तो दूसरों को हमारी पोस्ट पर कमेन्ट देने के लिए कैसे बोलेंगे?

प्रेम सागर सिंह जी पर्यावरण के बारे में लिखते हैं. हमें उनका ब्लॉग बहुत पसंद आया. आज उन्होंने अपनी पोस्ट में लिखा है;

"हिरण छोड़ खरगोश तक छिपने के लिए वनस्पति नहीं.."

आप प्रेम सागर जी की पोस्ट ही नहीं, उनका ब्लॉग पढ़िए.

शिरीष कुमार मौर्य जी ने तानसेन से कुछ बात की है. मियाँ की मल्हार के बहाने वे लिखते हैं;

मियाँ कहने का अब ज़माना नहीं रहा
और अच्छा हुआ
कि गुजरात में नहीं
ग्वालियर में हुई आपकी मज़ार
वरना उजाड़ दी जाती
सैकडों बरस बाद भी
आपको कत्ल न कर पाने की
ऐतिहासिक असमर्थता में

आज के लिए बस इतना ही.

15 टिप्‍पणियां:

  1. चिठ्ठा चर्चा की आड़ में दुनिया भर की चर्चा करना करना कोई आपसे सीखे...किस बात से किस को लपेट लें...पता ही नहीं चलता...बहुत खूब साहेब.

    नीरज

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  2. वाकई नीरज जी की बात में दम है

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  3. संक्षिप्त और अच्छी चर्चा। पर नकली दवा का बनना नहीं रुकेगा इस व्यवस्था में, तो फिर व्यवस्था को बदलने की बात उठेगी। सब स्थानों पर यही हाल है। लेकिन जब तक यह व्यवस्था है तब तक इस के कानूनी उपाय भी करने होंगे। कानूनी उपाय नहीं करेंगे तो व्यवस्था बदलने की बात कैसे उठेगी। और कैसी भी व्यवस्था क्यों न हो जब तक नागरिक अपने अधिकारों के लिए जागरूक न होंगे और हर बुरी और हानिकारक को सहन करते जाएँगे वे बढ़ती जाएँगी। प्रतिवाद करें और कम से कम कानूनी तरीकों से तो करें।

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  4. बहुत ही बेहतरीन चर्चा.......

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  5. उम्दा चर्चा के लिए साधुवाद. आपका सेल फोन से कोई मैसेज नहीं आया टिपियाने के लिए फिर भी आदत से मजबूर चले आये. :)

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  6. बहुत सुंदर चरचा. धन्यवाद.

    रामराम.

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  7. बहुत अच्छी चर्चा। कुछ नये ब्लॉगों पर भी आपने दृष्टि डाली तो अच्छा लगा। एक शुरुआत मैने भी की है। छिपक्कली नाम से। कभी उसे भी देखना चाहें। http://guptatmaji.blogspot.com

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  8. "लोकतंत्र का त्यौहार आ गया है"

    बहुत सुंदर व्यंग !!

    तानसेन के बारे में जो मौर्य जी की जो पंक्तियां आप ने छापी हैं वह अच्छी लगी -- खास कर इसलिये कि उसमें ग्वालियर का सही चित्रण किया गया है.

    सस्नेह -- शास्त्री

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  9. sachmuch badi sankshipt rahi charcha...

    khair koi baat nahi,march ka mahina hai...samjha ja sakta hai...

    par fir bhi prashansha yogy to hai hi,yah sankhipt sundar tikaau charcha.

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  10. "पता तो नहीं कि जाने-माने लोग कौन हैं? हमें लिस्ट मिलती तो देखने की कोशिश करते कि इसमें कुछ ब्लागरों के भी नाम हैं या नहीं?" अरे भाई, आपका तो नाम होगा ही।
    लोतिका सरकार कानून विभाग की पहली महिला अध्यक्ष थी और उनके प्रशिक्षण में न जाने कितने जज विद्यार्थियों के रूप में रह चुके हैं और आज यह हालत है कि एक आइ पी एस अधिकारी उनके मकान पर कब्ज़ा करके बैठा है। अब ऐसे जाने-माने [कुश भी इनमें आते ही हैं:)]लोगों की यह गति है तो आम आदमी का क्या कहना?

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  11. सुश्री लतिका सरकार के सम्बन्ध में ४ मार्च को http://streevimarsh.blogspot.com/2009/03/blog-post.html

    पर भी लिखा गया था.

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  12. बढि़या किये! इत्ता ही लिख दिये बहुत है! रात को हम सोचे कि एकलाइना लिखें। लिखने बैठे , लेट गये और फ़िर सो गये। लेकिन आपको पढ़वाये दे रहे हैं! लिविंग रिलेशन में रहें आज लोग खुशहाल :शादी करने वाले जो हैं घूमें हाल बेहाल
    नामचीन ब्लागर के चमचे की डायरी: ब्लागर का चमचा , वो भी डायरी वाला! क्या के रहें हैं भाई!!
    कवि मन को जिंदा रखने की एक साजिश.. : स्थिति तनाव पूर्ण किंतु नियंत्रण में
    क्या ऐसे बाल या केश रखने का कोई ख़ास कारण होता है :एक फ़ायदा तो यह होता है कि ऐसे बाल जब मन आये कटवाये जा सकते हैं
    पहली बारिश :में विंड स्क्रीन पर पानी के साथ कविता मुफ़्त में

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  13. चर्चा का बहुत अच्छा विषय चुना है। नीरज जी की बातों में काफी दम है।

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  14. श्रद्धेय शिवकुमार मिश्र जी!
    मैं अन्तर्जाल की दुनिया पर केवल 60 दिन पुराना हूँ। कल डा. सिद्धेश्वर सिंह मेरे पास बैठे थे। उन्होंने ही बताया कि आप कभी चिट्ठा-चर्चा भी खोल लिया करो। मुझे तो कुछ ज्ञान ही नही था। अतः मैंने उनसे पूछा कि चिट्ठा-चर्चा कहाँ मिलेगा। वह मुझे बता कर गये। तभी इस पर पहली बार आया हूँ।

    प्रजातन्त्र में सीधे-सीधे, इन पर करना चोट नही,

    भ्रष्टाचारी नेताओं को, अब करना है वोट नही।

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