शुक्रवार, दिसंबर 11, 2009

ब्लाग का पाठक उसका सम्पादक होता है

image इलाहाबाद में हुये ब्लागर सम्मेलन में बोधिसत्व ने ब्लागिंग के बारे में अपनी राय जाहिर करते हुये कहा था कि ब्लागिंग एकतरफ़ा संवाद है। मोनोलॉग है। उसी मंच से अगले दिन विनीत कुमार ने अपनी बात कहते हुये जो कहा था उसका लब्बोलुआब यह था कि यह बात  मानना सही नहीं है कि ब्लागिंग में  संपादक विदा हो गया है। बल्कि अब संपादकों की संख्या बढ़ गयी है। पहले एक संपादक होता है उसकी दृष्टि एक थी, सोच तयशुदा थी। अब एक नहीं पचास संपादक हैं ब्लाग माध्यम में। हर पाठक आपका सम्पादक है। पाठक आपको पढता है, अपनी राय जाहिर करता है और अगर आप पाठक की राय का सम्मान करते हैं तो पाठक आपको बदलने के लिये प्रयास करता है। अब यह आपके और पाठक के आपसी संबंधों पर है कि आपका बदलाव सार्थक है या ऐं-वैं टाइप।

अब देखिये आज अविनाश वाचस्पति जी ने एक पोस्ट लिखी जिसका शीर्षक उन्होंने दिया -अविनाश वाचस्‍पति गुजर गये..! गुजर गये से उनका मतलब किसी जगह से होकर गुजरना था! आशु कविता की तर्ज पर अविनाश जी ने कुछ यूं शुरुआत की थी-

 गुजरता है जैसे जमाना

मचाते हुए खूब हंगामा

काम ऐसा वो कर गये

  अविनाश जी गुजर गये।

imageअविनाश जी आशुकविता के सिद्ध हैं। वे अपनी हर बात आशु कविता में करते हैं। हर बात न सही लेकिन अधिकतर के लिये तो आप हामी भर ही दीजिये। कभी-कभी तो इतना आशु मामला होता है कि देखकर आंसू आ जाते हैं। बहरहाल शीर्षक से उनके यह लगा कि गुजर गये से उनका मतलब दुनिया से गुजर जाने का झांसा देते हुये ---हाय मेरी तो जान ही निकल गयी देखकर टाइप टीआरपी टिप्पणियां पाना था।इस पर सुधी पाठकों ने उनको दौड़ा लिया और पहले तो अविनाशजी ने अपने शीर्षक में कुछ हेर-फ़ेर किया। लेकिन फ़िर भी जब हड़काई बरकार रही तो पोस्ट को ढेर कर दिया।

image सुबह मसिजीवी ने पोस्ट लिखी खून खौलाना की काफियापूर्ति करते मौलाना (आजाद) इसमें जो कुछ लिखा था वो आपै बांचो। उसके बाद इसमें घोस्ट बस्टर ने टिपियाया (घोस्ट बस्टर के समर्थन वापस ले लेने से टिप्पणी-सरकार गिर गई है)

जिसका  लब्बो-लुआब था कि पोस्ट में नाटक के बारे में ठीक से जानकारी न देकर इधर-उधर से बस  पोस्ट लिख दी है। मसिजीवी ने उनकी बात से सैद्धांतिक सहमति जताते हुये सफ़ाई नुमा पेश कर दी:

 

आपकी टिप्‍पणी सुबह कॉलेज में देखी तो मुझे एकदम उपयुक्‍त लगी टाईपिंग का सही जुगाड़ न होने के कारण उत्‍तर न दे सका
आपका कहना ठीक है इस पोस्‍ट को नाटक की समीक्षा नहीं माना जा सकता इस उद्देश्‍य से लिखी भी नहीं गई थी... आस पास की घटनाओं पर एक चलती फिरती नजर भर थी शायद कुछ देर थमकर लिखी जानी चाहिए थी।

अब मसिजीवी थमकर कुछ लिखें या न लिख पायें लेकिन पाठक सम्पादक ने हस्तक्षेप करते हुये अपना एतराज दर्ज कराया।

कल की पोस्ट में घोस्ट बस्टर ने चिट्ठाचर्चा के टेम्पलेट पर अपने विचार व्यक्त करते हुये टिपियाया-

image "कृपया इस टेम्पलेट के बारे में अपने सुझाव अवश्य देवे.. "
बिलो एवरेज.
आर्थीमिया टेम्पलेट यहां अब तक का सबसे बेहतर टेम्पलेट था और एक तरह से चिट्ठाचर्चा की पहचान बन चुका था. उसे बदला जाना समझ से परे है. वहां से यहां तक का सफ़र भूतकाल की ओर प्रस्थान करने जैसा है. ये उससे बदतर और गुजरे जमाने का सामान लगता है.
मेरा सुझाव है कि टेम्पलेट की जिम्मेदारी कुश को सौंपी जाए. उनका डिज़ाइनिंग सेंस अच्छा है और चिट्ठे के विषय से सम्बन्धित टेम्पलेट चुनने लायक प्रतिभा भी है.
[मुझे ठीक-ठीक नहीं पता कि इस मंच के लिये यह टेम्पलेट किसने चुना है पर मैंने अपनी सीधी सपाट राय दी है. कृपया अन्यथा न लें]

घोस्ट बस्टर की सीधी सपाट राय को उनकी इच्छानुसार अन्यथा न लेते हुये यथाचित तरीके से लिया गया और आर्थीमिया टेम्पलेट लगा दिया गया। कुश ने घोस्ट बस्टर को उनकी सलाह के लिये  खास तौर से धन्यवाद लिखने को कहा है। हम भी अपना धन्यवाद देते हुये यह चुगली करने से बाज नहीं आना चाहते हैं कि इसके पहले के टेम्पलेट भी कुश के ही लगाये हुये थे। शायद हमारी सलाहें भी इसका कारण रहीं कि अभी तक हम ये वाला टेम्पलेट न लगाये थे फ़िर से।

बहरहाल अब लौट के बालक फ़िर से पुरनका टेम्पलेट पर आये।

इससे सिद्ध होता है कि ब्लाग का पाठक उसका सम्पादक क्या प्रधान सम्पादक होता है।

इति श्री चर्चा कथा ।

मेरी पसंद

बेहतर है मुझे लौटा देना ख़त मेरे जलाने से पहले

image

दिल से भी मिटाओ तो जाने, ये नक़्श मिटाने से पहले.
बेहतर है मुझे लौटा देना, ख़त मेरे जलाने से पहले

.
तबियत भी है उखड़ी, उखड़ी मुखड़ा भी है फीका-फीका,
सरकार मेरे क्यों गुमसुम हैं अहवाल सुनाने से पहले.


घर वीरां करके कहते हैं, घर अपना बसा लेना तुम भी,
अपना सा समझते हैं सबको, ये राय बताने से पहले.


रोओगे कभी चुपके-चुपके जब ज़िक्र हमारा निकलेगा,
आँसू बनकर मैं बरसूँगा सावन के आने से पहले .


इक जगह से बाँधू सौ टूटें हालात भी कितने ज़ालिम हैं,
इक आग नई लग जाती है, इक आग बुझाने से पहले.

डॉ.सुभाष भदौरिया

20 टिप्‍पणियां:

  1. जब कमेन्ट कर्ता को इतने सम्मान से नवाज़ा जा रहा है तो मै भी कुछ बद्लाव चाह्ता हू

    १- इस टेम्पलेट मे यह नही पता चल रहा कि पोस्ट किस समय लिखी गई थी
    २.. यह कही नजर नही आया कि पोस्ट किस चर्चाकार ने लिखी है


    या शायद मेरे देखने मे भूल हुइ हो तो यही कमेन्ट से सूचित करे

    आशा है मेरे कमेन्ट पर ध्यान दिया जयेगा

    --वीनस

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  2. सच है पाठक ही संपादक होता है खास कर ब्लोगजगत में । अवि्नाश जी की पोस्ट का शीर्षक पढ़ कर एक सेकेंड के लिए तो हम भी धक्क से रह गये थे कि अभी कल ही तो बतियाये थे। फ़िर देखा कि लिखने वाले भी वो खुद ही हैं तो जान में जान आई…।:) हाँ पोस्ट तो हम नहीं पढ़ पाये, शायद तब तक उन्हों ने उसे हटा दिया था।
    सुभाष जी की कविता बहुत अच्छी लगी, आभार

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  3. वीनस केसरी, भैया आजै लगा है टेम्पलेट। कुश लगा के टेम्पलेट चले गये हैं किसी के यहां आज मेरे इयार की शादी पर डांस करने। आपकी दोनों समस्यायें हमारी भी हैं लिहाजा जायज तो कहलाने से कोई रोक ही नहीं सकता। आशा है निदान जल्द ही होगा।
    आपके कमेंट पर ध्यान तो दिया ही जा रहा है भैये। कौन नहीं देगा ध्यान ऐसे सुधी पाठक की बात पर।

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  4. ओह,,,,

    इतनी त्वरित सुन्वाई अदालतो ने भी होने लगे तो देश का कल्ताण हो जाये :)

    अनूप जी
    हार्दिक धन्यवाद
    वैसे हम पह्ले ही बूझ्ह गये थे कि पोस्ट आपने लिखी है :)

    बूझो कौन का लेबल नही था इस लिये नही बताये :)

    वीनस

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  5. 'गुजर' शब्‍द को हम सबने इस दुनिया को छोड़कर चले जाने के अर्थ में सीमित कर दिया है जबकि शब्‍दों का सौंदर्य तो उसकी व्‍यापकता में बसा रहता है। गुजर शब्‍द के साथ जुड़कर बने शब्‍द गुजर-बसर से सभी परिचित हैं। वैसे गुजरना और चले जाना एक ही अर्थ ध्‍वनित करते हैं, यदि पोस्‍ट का शीर्षक रखा जाता 'अविनाश वाचस्‍पति चले गये' तब भी आभास ऐसा ही होता, जैसे पहले वाले शीर्षक से हुआ। शब्‍दों की महिमा अपरंपार है।
    'गुजर गये' शब्‍द अनिष्‍ट का आभास देता है पर हमें पूरी जानकारी तो बाकी की सामग्री को देखकर मिलती है। अनिष्‍ट होना और आभास देना - दोनों अलग-अलग स्थितियां हैं। कभी कोई निर्णय शीर्षक पढ़कर नहीं लेना चाहिये। इसी के चलते टिप्‍पणियों में जो लिखा गया, वो आपत्ति सिर्फ शीर्षक को लेकर रही। परन्‍तु यदि कोई शीर्षक,पोस्‍ट या उसकी सामग्री से आहत होता है तो उसे वापिस लेने में कोई बुराई मैं नहीं मानता बनिस्‍वत इसके की फिजूल में ही जिद्द ठान ली जाये और अडे रहकर एक विवाद को जन्‍म दे दिया जाये।

    पर इससे ब्‍लॉग पाठक की ताकत और उनकी जागरूकता समझ में आती है। टिप्‍पणियों में दी गई सलाह के अनुरूप ही मैंने उसका शीर्षक बदल दिया था परन्‍तु उसके बाद भी मित्रों को वो पसंद नहीं आया तो मैंने उस पोस्‍ट को ही डिलीट कर दिया क्‍योंकि मुझे विवादप्रिय नहीं हैं और न ही विवादों में रहना प्रिय है।
    अविनाश की यही बात मुझे सदा अच्‍छी लगती रही है कि अनेक अवसरों पर हुये विवादों में भी उनको सदा संयमित ही देखा गया है। इस पोस्‍ट पर भी उनका फोन मुझे आया था कि पाठकों को यदि यह पोस्‍ट या इसका शीर्षक पसंद नहीं आ रहा है तो उनकी राय का सम्‍मान करते हुए इस पोस्‍ट को हटाने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिये और मैंने तुरंत पोस्‍ट को हटा दिया। जो कि अब अपने परि‍वर्तित और परिवर्द्धित रूप में पुन: प्रस्‍तुत करूंगा।

    अविनाश ने इस पर तनिक भी अपनी नाराजगी जाहिर नहीं की है बल्कि यूं कहें कि कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दी है। पर मैं चाहूंगा कि वे भी इस मामले पर अपनी राय अवश्‍य दें।
    मेरी तो अब भी यही दिली कामना और मन की भावना है कि वे और भी तेजी से शहर-दर-शहर बदलते हुये ब्‍लॉगर्स से मिलें और मुझे भी अपनी इस मुहिम में साथ ले लें। मेरा मकसद उनकी ब्‍लॉगर मिलन वाली मुहिम की ओर सबका ध्‍यान खींचना था। वैसे मैं सहमत हूं कि इसके और भी अनेक नेक तरीके हो सकते हैं। मैं उनके स्‍वास्‍थ्‍यपूर्ण लंबे जीवन की कामना करता हूं जिससे ब्‍लॉगजगत और भी हृष्‍ट-पुष्‍ट हो सकेगा।

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  6. टैम्पलेट तो बढ़िया है!
    मैं भी अपने ब्लॉग का टैम्पलेट बदलना चाहता हूँ!
    कृपया बताएँ कि कँहा से नये टैम्पलेट्स मिलेंगे?

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  7. सार्थक शब्दों के साथ अच्छी चर्चा, अभिनंदन।

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  8. चिट्ठा चर्चा भी अविनाश भाई की तरह गोल है घूम फिर कर उसी टेम्पो पर?

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  9. इधर हम संपादकीय का काम सीखते सीखते हलाल हुए जा रहे हैं और उधर ब्‍लॉगिंग में ले मार दे मार संपादक तैयार हो रहे हैं। हमारे धंधे की तो वाट लगनी तय है।


    वैसे मैंने टिपियाया इसलिए क्‍योंकि आपने ऊपर लिखा हुआ है कि प्रतिक्रिया आपके लिए महत्‍वपूर्ण है :)

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  10. अपनी अपनी पसंद है.. मुझे तो इससे पहले वाला टेम्पलेट कहीं ज्यादा बेहतर लगा था.. पर हम यहां टेम्पलेट देखने थोड़ी आते है..

    प्रतिक्रिया को सकारात्मक रुप से ब्लोग पर विमर्श की अनंत सम्भावनाऐं है!!

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  11. "हर पाठक आपका सम्पादक है।"

    नहीं भाइ, वो तो नामवर सिंह होता है :)

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  12. १) आलोचनात्मक टिप्पणियां दो प्रकार के उद्देश्यों से की जाती हैं - एक वे जो केवल ब्लॉग लेखक को परेशान

    करने और विषय से भटकाने के लिये होती हैं. दूसरी वे जिनके पीछे कुछ सार्थकता और ईमानदार भाव होते हैं.

    पहले टाइप की टिप्पणियों का उदाहरण सुरेश चिपलूनकर जी के ब्लॉग पर भरपूर मिलेगा. मेरी टिप्पणियों को

    आप दूसरे टाइप में रख सकते हैं.

    अब ये ब्लॉगर के विवेक पर निर्भर करता है कि वह इन दोनों के बीच के भेद को समझे और उसी के अनुसार

    एक्शन ले.

    २) कुश के लिये मैंने जो कहा, सच कहा. वे इसके पूरे हकदार हैं.

    ३) दुबारा आर्थीमिया टेम्प्लेट लगा दिया गया है लेकिन मैंने पाया कि अभी यह अपने रॉ फ़ॉर्म में है. जब पहले

    इसे यहां लगाया गया था तब काफ़ी सारे ट्वीक्स किये गये थे. पोस्ट की तिथि पोस्ट टाइटल के ऊपर दिखती थी

    और लेखक का नाम भी नजर आता था. हेडर में एक बढ़िया तस्वीर भी थी. वे सभी पुनः जोड़े जा सकते हैं. कुछ और भी सोचा जा सकता है. सम्भावनाएं अनन्त हैं. आई टी फ़ील्ड से आने वाले कई दिग्गज इस मंच से जुड़े हैं - रवि रतलामी जी और संजय बेंगाणी जी, टु नेम अ फ़्यू. और देबाशीष जी का भी साथ आपको प्राप्त है, तो समस्या नहीं होनी चाहिये.

    एक अच्छे टेम्प्लेट की महत्ता को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता. कन्टेंट महत्वपूर्ण है पर अच्छा प्रेसेन्टेशन उसमें और निखार ला सकता है. आइ कैचिंग होने के साथ ही रोचक, इंफ़ॉर्मेटिव मगर डीसेंट टेम्प्लेट बनाना मेहनत का काम है. लेकिन परिणाम बेहतर होंगे. याद रखना चाहिये कि चिठ्ठाचर्चा कोई साधारण ब्लॉग भर नहीं है.

    ४) मैने कहा था कि आर्थीमिया ’अब तक का’ सबसे बेहतर टेम्प्लेट था. लेकिन यह नही कहा था कि वापिस उसे ही लाया जाना चाहिये. लेकिन इस टेम्प्लेट में ट्वीकिंग और टिंकरिंग की अपार सम्भावनाएं हैं. इसे काफ़ी निखारा संवारा जा सकता है. एक यूनिक आइडेंटिटी पाने के लिये ऐसा करना आवश्यक है.

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  13. @घोस्ट बस्टर, आपकी बातों से सहमति है।
    कुश खुद लगे हुये हैं सुधार करने में।
    देबाशीष, रविरतलामी इस ब्लाग एडमिनिस्ट्रटर हैं। वे जो सही समझते हैं उसे करते रहते हैं। कोई समस्या आने पर मैं उनको बताता हूं। वैसे वे स्वयं नजर रखते हैं।
    इनके अलावा तरुण और सबसे नये एडमिनिस्ट्रेटर कुश हैं। वे अपनी समझ के अनुसार फ़ेरबदल करने के लिये सर्वथा स्वतंत्र हैं।
    पाठकों की राय हमारे लिये हमेशा महत्वपूर्ण रही है। आगे भी रहेगी।
    आपके सुझाव और टिप्पणी का फ़िर से शुक्रिया।

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  14. अनूप जी,

    चर्चा पढ़ने के बहाने आके ना जाने क्या-क्या पढ़ा जा सकता है चिट्ठाचर्चा के माध्यम से कमोबेश हर कहीं नज़र है चर्चाकार की।

    और अपने संपादकों(पाठकों) से इतना बेहतर संवाद वाह! वाह!

    वैसे मेरी निजी राय है कि चर्चा में रस बना रहे टेम्पलेट्स बहुत ज्यादा अफैक्ट नही करते बदलाव होना चाहिये, होते रहना चाहिये, प्रकृति का नियम है।


    सादर,


    मुकेश कुमार तिवारी

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  15. चलिए मैं भी कुछ संपादन का काम कर दूँ। सहमत हूँ। घोस्टबस्टर की इस बात से भी आलोचनात्मक टिप्पणिताँ सार्थक भी हो सकती हैं, या केवल विषय से भटकाने के लिए। कुछ केवल लिखने की प्रेरणा देने के लिए भी होती हैं।
    घुघूती बासूती

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  16. ब्लाग का हर पाठक उसका सम्पादक नहीं होता, केवल प्रतिक्रिया करने वाला पाठक सम्‍पादक हो सकता है, वह भी अगर धन्‍यवाद, बधाई, शुभमानाऐं से आगे जानता हो

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  17. अहा चर्चा का पुराना रंग-रुप लौटा देखकर अच्छा लग रहा है।

    ्सार्थक टिप्पणियां वाकई में संपादक-मंडली का काम करती हैं। लेकिन गौर-तलब बात ये है कि इन टिप्पणियों में कितनी सार्थक होती हैं?

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  18. अनूप जी, चिट्ठारी की नब्‍ज़ पकड़ना कोई आपसे सीखे, आज महफूज भाई जी, अपनी पोस्‍ट डिलीट कर दिया करीब 75 से ज्‍यादा टिप्‍पणी थी, मुझे बहुत खराब लगा, अगर पोस्‍ट डिलीट करना था तो लिखा ही क्‍यो और हमने टिप्‍पणी किये थे तो उसे डिलीट क्‍यो किया।

    बहुत दिनो से आपको पढ़ नही पाया हूँ, जल्‍द ही आपका नम्‍बर आने वाला है। :)

    जवाब देंहटाएं

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