मंगलवार, जून 19, 2012

पापा का ईमेल और कुछ और बातें


(फादर्स डे के मौके पर अनूप जी और मैं एक दुसरे से अनजान अपनी अपनी पोस्ट लिखते रहे. उनकी पोस्ट छपने के बाद इसे मुल्तवी करना पड़ा. अब कुछ अंतराल से इसे पोस्ट कर रहा हूँ. कुछ लिंक दोनों पोस्ट में मिल सकते हैं. पोस्ट में नीचे कुछ ताज़े लिंक भी जोड़ दिए हैं.)

पिछले साल पापा ने मुझसे कहा कि मैं उनका ईमेल एड्रेस बना दूं. मैंने बना दिया.

वे लिखने-पढ़ने वाले आदमी हैं. उनसे लोगबाग ईमेल पूछते रहते हैं. उनका ईमेल बना देने के बाद मैंने उन्हें लोगिन और पासवर्ड उन्हें बता दिया पर वह ईमेल शायद अब तक किसी काम नहीं आया है. और शायद आएगा भी नहीं. जब तक वे कम्प्यूटर पर हाथ नहीं आजमाएंगे तब तक कुछ सीख नहीं पायेंगे. वे स्वघोषित 'बूढ़ा तोता' हैं जो अब राम-राम नहीं सीख सकता.

पता नहीं किस तरह पापा भोपाल में मेरे बगैर अपना काम चलाते हैं. वे अशक्त नहीं हैं. रोज़ खूब चलते हैं. अपने सारे काम वे बखूबी कर लेते हैं लेकिन जहाँ तकनीक की ज़रुरत होती है वहां उनका हाथ तंग हो जाता है. रिमोट या घड़ी में सैल उल्टे-पुल्टे डाल देते हैं. मोबाईल में वे केवल कॉल सेंड-रिसीव ही कर सकते हैं. मैसेज पढ़कर वे भांप नहीं पाते कि कंपनी की चालाकी से उनके पैसे बिला वजह कट सकते हैं. स्कूटर पंचर हो जाए तो वे टायर नहीं बदलते. दूर तक खींच ले जायेंगे लेकिन औजारों को हाथ नहीं लगायेंगे. आधी रात को सिर्फ उनके ही घर की बत्ती गुल हो जाए तो वे मीटर बौक्स में झांकेंगे नहीं. सुबह तक पसीना पोंछते-पोंछते हलकान हो जायेंगे, फिर इलेक्ट्रीशियन  को बुलाकर लायेंगे.

पापा अपने स्वभाव में कठोरता का दिखावा करते हैं ताकि लोग उनकी उंगली पकड़ने की हिमाकत न करें. वो क्या है न, बहुतेरे लोग उनकी भलमनसाहत का फायदा उठा चुके हैं. वे उन लोगों से खुद को बचा नहीं पाते हैं जो मामूली से काम के लिए उनकी जेब से मोटी रकम निकलवा लेते हैं. किसी घरेलू मशीन में मामूली फॉल्ट को ठीक करने के लिए वे मैकेनिक को देते हैं लेकिन वह उनसे कह देता है कि उसमें बड़ी खराबी है. मैकेनिक मशीन दुकान में हफ्ते भर रखने के बाद उनसे दो-तीन सौ रुपये ऐंठ लेता है जबकि हकीकत में उसने सिर्फ एक तार को जोड़कर मशीन ठीक की थी.

वे नियम के पक्के हैं. किसी की नहीं सुनते. उनका नियम है कि बाथरूम सात-आठ दिन में साफ़ करना ज़रूरी है. दूसरी ओर मैं इस बात पर बहस करता हूँ कि सफाई तभी करनी चाहिए जब बाथरूम गन्दा लगने लगे. हम बहस करते हैं. वे यह कहकर मुझे चुप कर देते हैं कि 'यह काम मेरा है और मुझे मेरे तरीके से काम करने दो, मैंने तुमसे बाथरूम साफ़ करने के लिए कभी नहीं कहा'.

मुझे लगता है मैं उनमें बहुत नुख्स निकालता हूँ. मुझमें शायद इस बात की अकड़ भी है कि मुझे किसी भी आइटम को सीखने समझने के लिए वक़्त नहीं लगता.

यह सब मैं क्यों बता रहा हूँ? मैं आज पितृ दिवस के बहाने ही पापा को जी भरके याद कर रहा हूँ. मैं उन्हें वाकई मिस करता हूँ. आज मैं इस बात को मानना चाहता हूँ कि जब कभी हम दोनों किसी बात में उलझते हैं तो उनका दृष्टिकोण बहुधा सही होता है. वे अनुभवी हैं. उन्होंने दुनिया देखी है. ऐसे कस्बों में उन्होंने नौकरियां कीं हैं जहाँ आज भी बेतरह पिछड़ापन है. मैं समझ सकता हूँ कि वे मेट्रो स्टेशन पर घबराहट क्यों महसूस करते हैं. उनमें वही सीधापन और सहजता है जिसके बारे में मैंने अपने ब्लॉग में दसियों पोस्टें लिख दीं, लेकिन जिसे मैं बहुत देर से पहचान सका. वे लीक पर नहीं चलते, उन्होंने अपना रास्ता खुद बनाया है. वे दूसरों पर अपनी बात नहीं थोपते, लेकिन अपनी निजता को संजोकर रखते हैं.

पिछले साल मैंने उनकी कविताओं को लिपिबद्ध करने और एक स्थल पर रखने की मंशा से उनके नाम से एक ब्लॉग बनाया. उसमें मैंने उनकी कुछ ही कवितायेँ पोस्ट की हैं. उनमें से एक है 'पितृऋण'. उसी कविता से:
अभी-अभी कुछ ही दिन हुए हैं
कमरे की तस्वीर पर तुम्हारी तस्वीर टंगे
तुम्हारी चिरपरिचित मुस्कराहट में
अभी भी कितनी माया, कितना मोह है
मैं नहीं जानता
और यह भी कि जब तुम्हारी तस्वीर मात्र ही रह गयी है
मेरे आसपास
उस पर चढ़ाई गयी माला के फूल भी सूख चुके हैं
वक़्त के गुज़र जाने के एक तीखे अहसास की तरह
परिवर्तन की इस प्रक्रिया में
इसी तरह घूमता है कालचक्र
कोई एक दिन
मैं भी इस कमरे की दीवार पर
तस्वीर सा टांग दिया जाऊंगा
उस पर चढ़ा दी जायेगी कोई माला
फूल सूख गए होंगे
फिर भी चढ़े रहेंगे इसी तरह
और फिर किसी दिन
कोई वह तस्वीर उतार कबाड़ में रख देगा.
यह कविता उन्होंने दादाजी के निधन के कुछेक दिन के भीतर लिखी थी. उसे पढ़ता हूँ तो मन यह कहने को मजबूर हो जाता है कि मैं इतना अच्छा नहीं लिख सकता. लोग सच ही कहते हैं, बाप बाप ही रहता है, बेटा बेटा ही रहता है.

 देवेन्द्र जी की इस पोस्ट जिस पर कापी- ताला लगा हुआ का ये अंश देखें:
पिता जब साथ होते हैं
समझ में नहीं आते
जब नहीं होते हैं
महान होते हैं ।


मेरे प्यारे पापा जैसे हैं वैसे ही रहें. खुद को वे बदलें नहीं किसी भी शर्त पर. दुनिया को और किसी को भी खुद पर हावी न होने दें. मुझे भी नहीं.

यह सब मैंने गुस्ताख मंजीत के एक बेहद निजी-से पत्र को पढ़कर लिख दिया जो उन्होंने अपने दिवंगत पिता को लिखी है. मंजीत के पिता उन्हें तब हमेशा के लिए छोड़कर चल दिए जब मंजीत बमुश्किल दो बरस के थे.  बात पुरानी है, इसलिए घटना के आफ्टर-शॉक्स मन के रोलर पर सिलसिलेवार छपते जाते हैं. भवन का मुख्य स्तंभ जब धराशायी हो जाता है तो लोग बची खड़ी दीवारों की ईंटों को उखाड़ने से गुरेज़ नहीं करते. हर ज़िंदगी की कीमत होती है... बल्कि यह कहना चाहिए कि हर ज़िंदगी कीमती होती है. और उसकी कीमत का अंदाजा तब लगता है जब वह आँखों से ओझल हो जाती है.

अपने दिवंगत पिता को लिखी चिट्ठी में मंजीत के उलाहनों और शिकायतों के पुलिंदों के पीछे एक बच्चे की निर्दोष चाह है कि जेठ की तपती दुपहरी में उसके कोमल पैरों को जलने से बचाने के लिए पिता ने उसे गोदी में उठा लिया होता. और यह भी कि वे रहते तो कोई परिवार पर तरस नहीं खाता. एक जगह वे लिखते हैं:
"मां कहती है, कि आपके गुण जितने थे उसके आधे तो क्या एक चौथाई भी हममें नहीं हैं। आप ही कहिए बाबूजी कहां से आएंगे गुण। दो साल के लड़के को क्या पता कि घर के कोने में धूल खा रहे सामान दरअसल आपके सितार, हारमोनियम, तबले हैं, जिन्हें बजाने में आपको महारत थी। दो साल के लड़के को कैसे पता चलेगा बाबूजी की कागज़ों के पुलिंदे जो आपने बांध रख छोड़े हैं, उनमें आपने कहानियां, कविताएं और लेख लिख छोड़े हैं। और उन कागज़ों का दुनिया केलिए कोई आर्थिक मोल नहीं। दो साल के लड़के को कैसे पता चलेगा बाबूजी कि आपने सिर्फ रोशनाई से जो चित्र बनाए, उनकी कला का कोई जोड़ नहीं।"
'फादर्स डे' का चलन जब कुछेक साल पहले शुरू हुआ तब उसमें हमने भी बहुत मीनमेख निकाले. उन्हें बाजारवादी रुझान और मल्टीनेशनल्स की साजिशों से जोड़कर देखा. लेकिन अब यह ऐसे अवसर के रूप में दिख रहा है जब इस दिन के होने के कारण चाहे-अनचाहे ही ध्यान पिता की ओर चला जाता है.

ब्लॉग जगत में भी इस मौके पर हमारे साथी अपने पिता को गहराई से याद कर रहे हैं. अदाजी ने भी अपने ब्लॉग पर अपने प्यारे बाबा पर केन्द्रित कविता प्रस्तुत की. हम बड़े कितने ही बड़े क्यों न हो जाएँ, अपने माता-पिता को याद करते समय हम सदैव ही इतने बौने हो जाते हैं कि उनकी उंगली पकड़कर चलना सीखने लगें. इन रिश्तों की यही लिबर्टी है कि होश संभालने के बाद आप कभी लड़खड़ा जाएँ तो आसपास ताकते हुए कपड़े झाड़कर खड़े हो जाएँ, लेकिन जब कभी दुनिया आपको रौंदती हुई गुज़र जाए तो आप अपने बचपन में लौट जाएँ और याद करें कि गिरने पर जब आप चोटिल हो जाते थे तो आपके पिता रुलाई से आपका ध्यान हटाने के लिए किसी अभागी चींटी का किस्सा गढ़ देते थे जो किंचित आपके नीचे कुचल गयी होगी.

मेरे ब्लॉग में दो साल पहले मैंने अंग्रेजी के ब्लौगर लियो बबौटा द्वारा उनके तीन वर्षीय पुत्र को लिखा एक पत्र अनूदित किया था. वह ब्लॉग में सर्वाधिक पढ़ी गयी पोस्टों में शुमार है. पोस्ट में लियो ने अपने नन्हे बेटे को ज़िंदगी जीने की नसीहतें दी हैं. लियो ने लिखा है:
"तुम बहुत छोटे हो और अभी ज़िंदगी अपनी तमाम दुश्वारियों, नाकामियों, उदासी, अकेलेपन, बैचैनी, और जोखिमों को तुमपर उतारने के मौके तलाश रही है. अभी तुमने दिन-रात खटनेवाले कामों में खुद को नहीं झोंका है जिनके लिए कोई शुक्रिया का एक शब्द भी नहीं कहता. अभी तुमने रोज़मर्रा पड़नेवाले पत्थरों की बौछार को नहीं झेला है....
... आखिर में, तुम्हें यह पता होना चाहिए कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ और हमेशा करता रहूँगा. तुम्हारी जीवनयात्रा बहुत अपरिमित, अस्पष्ट, और दुरूह होने जा रही है पर यह बड़ी विहंगम यात्रा है. मैं इस यात्रा में सदैव तुम्हारे साथ रहने का प्रयास करूंगा. ईश्वर तुम्हारा मार्ग प्रशस्त करे. शुभाशीष."
और अब कुछ ताज़े लिंक्स:

हथकड़ वाले किशोर चौधरी की गद्य कविता 'बारिशें तुम्हारे लिए'. पता नहीं किशोर इसे गद्य कविता कहने पर ऐतराज़ न कर बैठें. गद्य कविता क्या है? उसका शिल्प/विन्यास क्या कहता है? इन सवालों से जूझने की बजाय ऐसे लेखन में रूचि लेने वालों को चाहिए कि वे कविता के मीटर और फुट्टे को एक कोने में टिकाकर कविता को पोर-पोर खुलते हुए देखें. इसके लिए आँख चाहिए या मन? दिल चाहिए या दिमाग? सवाल बेमानी हैं न? 

और अब हाइकू. इसे भी कविता मानने में कभी ऐतराज़ होने लगता है. मुझे शक है कि जापानी में हाइकू की तीन पंक्तियों में कुछ कहने की कला वह नहीं है जिसे हम हिंदी में आजमाते हैं. इसकी तफसील तो कोई जापानी जानने वाला ही कर सकता है. हिंदी में हाइकू लिखना कोई नया प्रयोग नहीं है. इसकी तीन पंक्तियों में कभी-कभी अनूठे बिम्ब उभर आते हैं. इंदु सिंह हृदयानुभूति ब्लॉग में लिखती हैं कि "कविता लिखी नहीं जाती,स्वतः लिख जाती है…". उन्होंने प्रकृति विषयक कुछ हाइकू लिखे हैं. कुछ सपाट हैं तो कुछ कल्पनापूर्ण और रोचक. बानगी ये है:
१. जैसे जीवन
पोखर किनारे यूँ,
बैठे हैं हम।
२. जड़ है कहाँ
दिखती हैं लताएँ
चारों तरफ।
३. हमें बताती
सुबह हो गई है,
चीँ-चीँ गौरैया।
आपको जब नींद नहीं आती है तो क्या करते हैं आप? यकीनन कविता तो नहीं ही लिखते होंगे. अब कभी नींद न आये तो कागज़-कलम लेकर करवटें बदलते रहें और मन में हो रही हलचल को थामने की कोशिश करके देखिये. शरद कोकास जी ने तो ऐसे ही में कवितायेँ भी लिख दीं, आप एक अदद ब्लॉग पोस्ट का जुगाड़ तो कर ही लेंगे. हम शरद जी से आग्रह करते हैं कि वे नींद न आने पर लिखी उनकी और कवितायेँ पोस्ट करें ताकि हमारे इन्सोम्नियक ब्लौगर साथी अतिरिक्त समय का सदुपयोग करना सीख लें. शरद जी की कविता में नींद के स्थान पर और किसके आने की प्रतीक्षा है उसे जानने के लिए आपको उनकी ताज़ा पोस्ट तक जाना पड़ेगा. बड़ी कविताओं के कुछ अंश यहाँ पोस्ट किये जा सकते हैं पर छोटी कविताओं को तो पूरा ही उठाया जा सकता है जो ठीक नहीं होगा.

पूर्णता/अपूर्णता, शून्य/अशून्य का विचार ललित की पोस्ट में ईशावास्य उपनिषद के आदि श्लोक से उपजता है और वैज्ञानिक चेतना से पुष्ट होता हुआ मानव संबंधों में भी मुखरित होता है. ललित एक जगह कहते हैं,
"इस बात को आपसी संबंधो के ज़रिए भी समझा जा सकता है। दो व्यक्ति जब एक संबंध बनाते हैं तो उनका संबंध एक मिश्रण की भांति ही होता है। दो लोगों का एक मिश्रण। जैसा कि हम जानते हैं कि मिश्रण टूट सकता है –इसलिए संबंध भी टूट सकते हैं। केवल वही संबंध हमेशा के लिए बने रहते हैं जिनमें दोनों व्यक्ति मिलकर एक हो जाएँ। और ऐसा केवल तब हो सकता है जब दोनों व्यक्ति स्वयं को शून्य कर लें –यानी स्वार्थ, अहंकार और “मैं” की भावना को पूर्णत: त्याग दें। ऐसा करने से व्यक्ति शून्य हो जाएगा… पूर्ण हो जाएगा… और एक सम्पूर्ण संबंध में भागीदारी कर सकेगा."
घुघूती जी ने समुद्र किनारे रोजाना की सैर के दौरान हर तरफ बढ़ रहे कचरे से व्यथित होकर बढ़िया पोस्ट लिख दी. पोस्ट के अंत में लिखा:
"अब तो मन एक ही प्रश्न पूछता है कि हम भारतीय हर जगह, हर समय इतना खाते क्यों है? यदि खाते ही हैं तो खाना व पेय डालने के लिए अपने साथ अपना कटोरा व कमंडल क्यों नहीं रखते? तब कम से कम न खाने वालों को खाने वालों की जूठन लगे कागज, पॉलीथीन, प्लास्टिक व पेपर कप, गिलास, चम्मचों व बैठने के स्थानों से तो न जूझना पड़ेगा। अब डस्टबिन की अपेक्षा व उनके उपयोग की अपेक्षा तो हमसे की नहीं जा सकती।"
इसपर प्रवीण शाह में अपने कमेन्ट में कहा है:
"मुझे लगता है कभी-कभी कि मुल्क के कुछ भागों को छोड़कर देश के अधिकाँश भागों में हम लोग कचरे के प्रति सहिष्णु हैं... हम कचरे के साथ रहने-खाने-जीने के आदी हैं, यह हमें परेशान नहीं करता, बस यह हमारे घर की चारदीवारी के बाहर फैला रहे... यह कुछ ठीक उसी तरह है जैसे नैतिकता व सदाचार के लंबे चौड़े लेक्चर पेलते हम लोगों को चारों तरफ खुल कर लिया-दिया जाता दहेज, अपने बंधु-बांधवों की हराम की कमाई से बनाये महल आदि आदि परेशान नहीं करते...
और हाँ, हर जगह हर समय खाते ही रहने को यदि देखना हो तो रेल के सफर में देखिये... डब्बे में चढ़ते ही कईयों का खाने का डब्बा खुलता है और गंतव्य आने तक उनकी जीभ व जबड़े लगातार कसरत करते रहते हैं...."
प्रवीण मजेदार लिखते हैं. इस बीत लगता है कुछ व्यस्त हो गए हैं. जहाँ तार्किकता और वैज्ञानिक दृष्टि की बात आती है वहां उनका ज़िक्र हमेशा आएगा.

बाकी, साथीगण खुश हैं कि चिटठा चर्चा के दिन फिर गए हैं. दिन तो वैसे घूरे के भी फिरते हैं. अब कोशिश करेंगे कि हर दो दिन में एक बार चर्चिया सकें. अनेक ब्लौगर पूर्व में लिंक्स के चयन के बारे में शिकायत करते रहे हैं जिसके बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि हम अपने विवेक, अभिरुचियों, व्यस्तता, और सामर्थ्य के अनुसार यह कार्य करते हैं और कोशिश करेंगे कि यथासंभव सभी ब्लौगर इस प्लेटफोर्म से लाभान्वित हों.

5 टिप्‍पणियां:

  1. http://bairang.blogspot.in/2011/09/blog-post_24.html

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  2. कई बार बचपन की यादें ,
    माँ कैसी थी ?चित्र बनाते,
    पापा अक्सर याद न आते
    पर जब आते, खूब रुलाते !
    उनके गले में बाहें डाले,प्यार सीखते, मेरे गीत !
    पिता की उंगली पकडे पकडे,सीख लिए थे मैंने गीत !

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  3. मेरी कविता पसंद करने के लिए आभार। यह कविता व्यक्तिगत कारणों से मुझे बहुत अच्छी लगती है।

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