गुरुवार, अगस्त 31, 2006

हम तो हमारी मस्ती में झूमते चले हैं

धर्मेन्द्र के तकियाकलाम के बारे में बताते हुये हनुमानजी कहते हैं:-
अमरीका में दोस्ती करनी बहुत मुश्किल है। यहाँ आदमी पैसे, कर्जे, होड़, और प्रतिस्पर्द्धा के बुखार से बावरा है।

यही कारण है कि :-

अब यहाँ दोस्ती करनी मुश्किल है, उसका नतीजा बच्चे को झेलना पड़ता है। उनकी भी दोस्ती नहीं हो पातीं, और उसका नतीजा यहाँ बच्चों की आपराधिक टोलियाँ बन जाती हैं। और सच तो यह है जिस तरह का यहाँ चाल चलन है अमरीकी बच्चों का, हम लोग अपने बच्चों को दूसरे देसी परिवारों के बच्चों से ही दोस्ती करने देते हैं।

रमन कौल आजकल भारत में हैं। अपने भारत प्रवास के बारे में झलकियाँ देते हुये वे हवा में रंगभेद के बारे में बताते हैं।

आशीष गुप्ता ने मूर्खता के नियमों की जानकारी देते हुये बताया है:-

मूर्ख वह है जो कि किसी वस्तु, व्यक्ति या समूह को नुकसान पहुँचाता है, जबकि उसे खुद कोई फायदा नही होता, बल्कि शायद नुकसान ही होता है।


मूर्ख व्यक्ति की परिभाषा बताने के बाद उन्होंने एक पायलट को काकपिट के बाहर हवा में फंसा दिया।

वंदेमातरम पर अपने विचार रखे इंडिया गेट ने तथा इस पर शुएब ने अपने अंदाज में लिखा है:-
आज ख़ुदा ने अमेरिका से भारत यात्रा की इजाज़त चाही, अमेरिका ने मना करदियाः ख़ुदा का भारत यात्रा करना ख़तरनाक है क्योंकि वहां कोई एक धर्म नही बल्कि ऐसे वैसे लोगों का देश है के आपका एक बाल मिल जाए तो मज़ार बनादें, दूध से नेहला कर आपके सर पर नारियल तोड सकते हैं यहां तक के आपके कपडे फाड कर अक़ीदत से खाजएंगे फिर उसके बाद किसी तालाब मे डूबा कर आपको घुला देंगे।


आगे लिखते हुये वे कहते हैं:-
अगर आप अपने देश को खुश हाल और तरक्की दिलाना चाहते हो तो देश भक्त बनो देश के गीत गाओ और अगर कोई देश की शान मे गीत ना गाए तो समझो वोह इस देश का नही


रवि रतलामी ने बताया था कि जिस दिन आपके ब्लाग पर दस हजार के करीब लोग आने लगेंगे उस दिन से आप डालर गिनने लगेंगे। अपने ब्लाग पर शायद इसीका जुगाड़ करते हुये उन्होंने टाइम्स आफ इंडिया के बहाने कुछ अश्लील चित्रों की चर्चा की है। अभी तक यह नहीं बताया कि हिट्‌स कितने हुये!

रतलामी जी के रचनाकार पर प्रवीण पंकज की लघुकथा भी देखें।

आनन्द मग्न रहना, कहते हैं इसे जीना,
यह मौत क्या बला है इसका पता न चीन्हा
रस्ता मिला है पक्का, हम दौड़ते चले हैं
हम तो हमारी मस्ती में झूमते चले हैं


यह कहना है आशीष विश्वास का जोऐलान करते हैं:-

ऐलान कर दिया है दुनिया से हम निराले,
शक हो किसी से दिल में, तो चाहे आजमा ले,
यह देह तो मुकद्दर को सौंपते चले हैं
हम तो हमारी मस्ती में झूमते चले हैं


मोहन राणा अपनी कविता में कुछ पाने की चिंता करते हैं।

उधर मुशर्रफ की मुसीबत बयान कर रहे हैं शेखचिल्ली जी।

हिंदी के प्रख्यात ललित निबंधकार शोभाकांत झा का भवभूति के बारे में लिखा ललित निबंध पढ़िये बमार्फत सृजन गाथा


सृजन शिल्पी ने हिंदी के प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह का लेख पोस्ट किया है हिन्दी के दुश्मन।नामवर सिंह लिखते हैं:-
मुझे तो लगता है कि सत्ता प्रतिष्ठान पर क़ाबिज़ अँग्रेज़ीदाँ अफ़सरों ने ही राजभाषा को नकली बना दिया। सरकार को चाहिए कि वह राजभाषा को अंग्रेजी के अनुवाद से मुक्ति दिलाए।


आजादी के बाद हमारे देश में एक बड़ा मध्यवर्ग पैदा हुआ है। वह ताकतवर है। उसकी ताकत और यहाँ तक कि आजीविका भी मुख्यत: अंग्रेजी पर ही टिकी हुई है। शासन और इस ताकतवर तबक़े का एक गठजोड़ बन गया है जो निरंतर हिन्दी के लगभग नहीं के बराबर प्रयोग होने वाले एक-दो शब्दों को पकड़कर पूरी हिन्दी भाषा का मजाक उड़ाता है। राजभाषा होने के कारण भी हिन्दी को विरोध का सामना करना पड़ता है। आम तौर पर राजसत्ता का विरोध करने की एक प्रवृत्ति होती है। चूँकि राजसत्ता भ्रष्ट हो गई है, इसलिए कई लोग हिन्दी को भी इस भ्रष्टाचार में शामिल कर लेते हैं। कहा जाता है कि राजभाषा खाने-कमाने का धंधा बन गई है यानी समाज और राजनीति में आई हर तरह की गिरावट को हिन्दी के साथ जोड़कर देखने की हवा सी चल पड़ी है। यह हवा हमारे देश में सत्ता प्रतिष्ठान पर क़ाबिज़ वही अँग्रेज़ीदाँ तबक़ा बना रहा है, जिसका हिन्दी विरोध में खुद का स्वार्थ छिपा है।



...ये लोग अंग्रेजी में सोचते हैं और अंग्रेजी का ही खाते हैं। पश्चिम की नकल करते हैं और अपने समाज से कटकर वहीं के समाज में अपनी जड़ें तलाशते हैं। इस तबक़े ने जो नया दर्शन गढ़ा है उसे मैं ‘खंड-खंड पाखंड’ कहता हूँ। यह दर्शन न सिर्फ अंग्रेजी के वर्चस्व और पश्चिमी विचारधारा की रक्षा करता है बल्कि परोक्ष रूप से नवउपनिवेशवाद का हिमायती भी है।

यह पूरा लेख पठनीय है।
लक्ष्मी नारायणजी ने कवि गोविंदजी के कुछ छंद अपने ब्लाग में पोस्ट किये हैं।

हिंदी प्रेमी जयप्रकाश मानस जी अपने विस्तृत लेख में इंटरनेट पर हिंदी के बढ़ते प्रसार की विस्तार से चर्चा की है। तमाम तकनीकी चिट्ठाकारों के योगदान का उल्लेख किया है। यह लेख अनुनाद सिंह द्वारा दिये गये ब्योरे में नया पृष्ठ जोड़ता है।

कल बिहार से भेजे गये रमेश परिहार के तमाचे हमें अभी तक मिले नहीं है। वैसे जानने वाले लोगों ने बताया है कि बिहार से तमाचे भेजने वाले रमेश परिहार तथा अमेरिका से छद्मनाम से ब्लागिंग करने वाले एक चिट्ठाकार का आई.पी. पता एक ही है। वैसे बिहारी इतने डरपोक नहीं होते कि छिपकर वारे करें। वहाँ तो जो होता है खुला खेल फर्रखाबादी होता है।

मुझसे कल जीतेंद्र और स्वामीजी ने बहुत कहा कि मैं रमेश परिहार वाली टिप्पणी चिट्ठाचर्चा से हटा दूँ। अमूमन मैं इन लोगों की कोई बात नहीं टालता लेकिन कल बावजूद इनके तमाम अनुरोध के मैंने टिप्पणी हटाना ठीक नहीं समझा ताकि सनद रहे। अनाम या छद्मनाम से लेखन करना किसी के लिये मजबूरी होगी। जरूरत होगी। उसके तमाम फायदे भी होंगे । इसी का एक पहलू इस तरह के उपहार भी हैं।

नारदजी के सूचनार्थ लेख(इतनी जल्दबाजी अच्छी नहीं का)लिंक ठीक नहीं है।

आज की टिप्पणी

:-



माननीय खबरिया जी

चिट्ठाचर्चा के सौजन्य से पता चला कि किन्ही परिहार ने हमें तमाचे भेजे दे कोरियर से जो आपने हम तक पहुँचने के पहले ही जब्त कर लिये ।

खैर मैं कुछ स्पष्टीकरण देना आवश्यक समझूँगा।
१. अनाम रहकर लिखना मैं गलत नही समझता। अगर ऐसा होता तो ईस्वामी, सृजनशिल्पी, सुर, रीडर्स कैफे और कई अन्य श्रेष्ठ लेखकों के ब्लाग पर विरोध दर्ज कर दिया होता। ब्लागिंग निजी विचारों को सार्वजनिक करने का माध्यम है, इसे अनाम रहकर करें या नाम से, कोई फर्क नही पड़ता।
२. “सबसे पहले हम मीडिया की लेंगे” एक टाइपोग्राफिक गलती थी, मान लिया बात खत्म, पर इसे किया १७ अगस्त को और माना ३० अगस्त को। पूरे १३ दिन बाद!
३. इस टाइपोग्राफिक गलती से पहले आपने लिखा कि “जब हमने आजतक की ख़बर ली थी तो दर्द किन्ही औरों को उठा था। हम जब नेताओं को गालियां देते हैं तो सभी तारीफ़ करते हैं। लेकिन जब लोकतंत्र के डगमगाते चौथे स्तंभ पर उंगलियां उठाते हैं तो आलोचना क्यों की जाती है?” यह वाक्य दुबारा , तिबारा पढ़ लीजीये। नेता, अभिनेता और वे सभी हस्तियाँ जिनकी सार्वजनिक छवि है, उनके एक एक कदम पर मीडीया और जनता की नजर होती है। इन्हें जनता अपना नायक बनाती है, सर आँखो पर बिठाती है तो इनसे भी मर्यादापूर्ण आचरण की अपेक्षा होती है। वैसा न करने पर इनकी थुक्काफजीहत लाजिमी है। हाँ वह आलोचना भी मर्यादा के अँदर हो तो ठीक वरना पीतपत्रकारिता बन जाती है।
४. आपके ब्लाग का दावा है कि आप लोग पत्रकार है, मीडिया में रहकर, मीडिया के भ्रष्टाचार की पोल खोलना चाहते हैं। कुछ उदाहरण देता हूँ काल्पनिक हैं, गौर करियेः

मान लीजिये, आजकल ओंकारा और कभी अलविदा न .. के विरोध का स्टंट मीडिया दिखा रहा है, जनता पक गई है, जानती है यह सब दिखावा है, आप जिस संस्थान में काम करते हैं वह अपनी व्यवसायिक प्रतिबद्धताओं के चलते एकपक्षीय सामचार देता है, आप लोग ब्लाग के जरिये वह खुलासा नही कर सकते क्या?

मान लीजिये, आरक्षण पर धुँआधार बहस छिड़ी है पर जिस तरह का सच , जैसी उत्कृष्ट समीक्षा सृजनशिल्पी ने लिखी वैसा लिखने के लिये शायद समाजशास्त्र , राजनीतिशास्त्र का अध्ययन जरूरी होता है। यह विषय बीए , एमए में होते हैं और समाज , राजनीति की खबर लेने रखने वाले पत्रकार यह सब पढ़े होते हैं ऐसा मेरा भ्रम है। तो क्या आप की टीम में किसी ने यह सब नही पढ़ रखा ?

जब देश का पूरा का पूरा भ्रष्ट मीडिया जैसा कि आप दावा करते हैं, राकी साँवत के चुबँन शास्त्र, बाला साहेब की कुर्सी और राहुल महाजन के हनीमून के ठिकाने का पता करने में जुटा है तो आप ऐसा क्यों किया जा रहा हैं और क्या दिखाना चाहिये उस पर रोशनी नही डाल सकते?

दरअसल पूरे विवाद कि जड़ में मेरा भ्रम, मेरी अपेक्षा शामिल थी, जब मैने आपका यह दावा देखा कि आप लोग पत्रकार हैं तो मुझे लगा कि अब हमें वह पढ़ने को मिलेगा जो आम मीडिया राजनैतिक, व्यवसायिक प्रतिबद्धताओं के चलते दिखाना नही चाहता। पर आप लोगो का उद्देश्य था “to bring the dirty laundry of various publicly known journalist, out in public”. आपको लगता है कि इससे मीडिया में व्याप्त भ्रष्टाचार मिटेगा तो आपको शतः शतः शुभकामनाऐं। मैनें खामखाँ कुछ ज्यादा की उम्मीद लगाकर आप लोगो की आलोचना की और अनजानें में अनूप शुक्ला और ईस्वामी की फजीहत करवायी।

मैं इस प्रकरण के लिये अनूप शुक्ला और ईस्वामी से क्षमायाचक हूँ ।
अतुल


आज का फोटो


नीचे दिया गया फोटो केरल के कोवलम तट पर जाल को खींचते मछुवारों का है। इसे जीतेंद्र के फोटो ब्लाग दर्पणसे लिया गया है।
मछुवारे
मछुवारे

बुधवार, अगस्त 30, 2006

सुबह-सुबह की हवा सुहानी

मानसी ने दूसरे देशों में रहने वाले भारतीयों के बारे में लिखना शुरू किया था। उनके लिखने के बाद काफी लेख प्रवासी लोगों के बारे में लिखे गये। अपने लेख को आगे बढ़ाते हुये मानसी ने कुछ और बातें आज लिखी हैं। पठनीय लेख पर अनूप भार्गव की टिप्पणियाँ भी कम पठनीय नहीं हैं। कुछ उदाहरण नीचे दिये हैं:-

  • किसी खाली स्थान पर नयी बस्ती बनाना आसान होता है। सैकड़ों वर्ष पुरानें मोहल्ले की जगह नई बस्ती बनाना मुश्किल।

  • हज़ारों वर्षों से चली आ रही परम्पराओं और आदतों को बदलनें में समय लगता है। मनुष्य की स्वाभाविक प्रव्रत्ति हमेशा से 'परिवर्तन' के खिलाफ़ रही है।

  • भ्रष्टाचार का सीधा सम्बन्ध पेट की भूख और 'मूल ज़रूरतों' की पूर्ति से रहा है।

  • व्यवस्था से समझौता कर के अपनें लिये 'राह निकाल लेना' हमेशा सरल विकल्प रहा है, व्यवस्था को बदलनें की कोशिश की क्षमता हर किसी में नहीं होती।

  • यदि आप में पूरी व्यवस्था को चुनौती दे कर उसे बदलनें की क्षमता और ऊर्जा न भी हो तो भी उस के एक छोटे से भाग को बदलनें का प्रयास कम सराहनीय नहीं है । असुविधा तो होती है लेकिन एक अज़ब सा आत्मसंतोष भी मिलता है।


  • वैसे कोई कितना अनिवासी भारतीय है परखने के लिये अतुल ने बहुत पहले लिटमस टेस्ट अतुल ने बहुत पहले बताये थे। पहले ये लेख हाल आफ फेम में थे। आज इसे खोजने में काफी मसक्कत करनी पड़ी।

    मेलोडी गीतों के बारे में बताते हुये मनीष ने तमाम मनभावन गीतों की जानकारी दी है अपने ब्लाग -'एक शाम तेरे नाम' में। जिन गीतों के बारे में बताया उनमे से दो गीतों के अंश हैं:-
    1.झील एक आदत है, तुझमें ही तो रहती है
    और नदी शरारत है तेरे संग बहती है
    उतार गम के मोजे जमीं को गुनगुनाने दे
    कंकरों को तलवों में गुदगुदी मचाने दे

    2. रतिया अंधियारी रतिया
    रात हमारी तो, चाँद की सहेली है
    कितने दिनों के बाद, आई वो अकेली है
    चुप्पी की बिरहा है, झींगुर का बाजे साथ

    अगर आप महाविस्फोट तथा डाप्लर के सिद्दान्त के बारे में जानना चाहते हैं तो विज्ञान विश्व पढ़िये।

    बहुत से चिट्ठाकार साथी अपना सफर ब्लागस्पाट, वर्डप्रेस या दूसरी जगहों से शुरू करते हैं। बाद में वे अपनी खुद की साइट बनाना चाहते हैं। जीतेंद्र चौधरी ने अपने लेख में सरल भाषा में बताया है कि कैसे वर्डप्रेस से अपने सर्वर तक जाया जाये।

    संजय बेंगाणीं जुगाड़ी लिंक का मजा लेते रहे लेकिन तारीफ करने से चूकते रहे। आज वे एक साथ वाह-वाह करते पाये गये।

    जिन लोगों को इनाम मिला वही लोग भ्रष्टाचार में लिप्त हों यह दुखदायी है।रचना बजाज अपनी व्यथा कथा बताते हुये बताती हैं।

    दिल में सच लिये हुये खबरिया ने आजतक के बाद अब एनडीटीवी की खबर ली है तथा तमाम नामचीन पत्रकारों की असलियत बताई है।उनकी व्यक्तिगत जीवन से जुड़ी बातों को बताया है। अन्य लोगों के अलावा खबरिया का उत्साह बढ़ाते हुये रमेश सिंह परिहार, गया, बिहार ने लिखा है:-

    हिंदी ब्लोगिंग के स्वयम्भू दरोगा बनने की अनधिकृत चेष्टा करते कुछ अनूपों और अतुलों के मुंह पर करारे तमाचे लगाते रहिये। लिखिये, और लिखिये। ब्लोगिंग किसी के बाप की बपौती या खाला का घर नही। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन् करने वाले इन तथाकथित बुजुर्ग ब्लोगरों को गुमान है कि वे जो करें या कहें ब्रह्मवाक्य है, खुद लिखते हैं “हम तो जबरिया लिखिबे, हमार कोई का करिहे”,और आपको रोकते हैं। और ई-स्वामी पहले खुद अश्लील भाषा लिखना बंद करें, फिर “लेंगे” वाली भाषा पर एतराज करें। “पर उपदेश कुशल बहुतेरे”।


    अपने मन की बात कहते हुये प्रेमलता जीलिखतीहैं:-
    चाँदनी रात हरेक को प्रभावित करती है। योगी एकाग्रता की कोशिश करता है, जोगी प्रभु पाने की इच्छा! और मौजी मौज लेता है तो रोगी नींद। किसी को ये नैसर्गिक छटाएँ बहका देती हैं तो किसी को रुला देती हैं। किसी की वाह! निकलती है तो किसी की आह! कोई डरता है तो कोई मरता! किसी की रात कटती नहीं तो किसी की बढ़ती नहीं।

    राकेश खंडेलवाल फिर अपना गीत कलश छलकाते हुये लिखते हैं:-
    इतिहासों की अमर कथायें
    फिर जिससे जीवंत हो गईं
    जिससे जुड़ती हुई कहानी
    मधुर प्रणय का छंद हो गई
    वशीकरण के महाकाव्य के
    प्रथम सर्ग का शब्द प्रथम यह
    जीवन की क्षणभंगुरता में
    केवल एक यही है अक्षय

    अगर आपने लिनक्स पर कुछ कामधाम किया है तो अपने बारे में यहाँ जानकारी दे दें। संभव है कि आप कुछ पुरस्कार पा जायें। यह सूचना दी है रवि रतलामी ने जिन्होंने खुद काफी काम किया है लिनक्स पर। रवि रतलामी ने मर्फी के नियमों की श्रंखला में इस बार गृहणियों के बारे में जानकारी दी है। वे बताते हैं:-
    जब आप अपनी किसी महत्वपूर्ण सहेली के फोन काल का इंतजार करते बैठी होती हैं, तो पता चलता है कि आपके कार्डलेस फ़ोन की बैटरी पूरी तरह डिसचार्ज हो गई है या लैंडलाइन फ़ोन के केबल में खराबी आ गई है या मोबाइल फ़ोन की बैटरी को आपका नन्हा उस पर गेम खेलकर खत्म कर चुका है.

    उपप्रमेय 1: यदि फोन काल किसी टेलिमार्केटिंग कंपनी से आया होता है तो आपका बंद फ़ोन अचानक बढ़िया काम करने लगता है.


    इस कड़ी में निधि भी अपनी तरफ से जोड़ते हुये कहती हैं:-
    किसी दिन, फुर्सत के समय जब आप चेहरे पर काला-पीला सा कोई फ़ेस-पैक लगा के बैठी ही होती हैं, उसी समय कोई कुरियर, डाक या अनापेक्षित आगंतुक ज़रूर आता है।

    उपप्रमेय: यदि पैक सूखने की कगा़र पर है और आप अपना मुँह खोलने में असमर्थ हैं तो फ़ोन का आना भी स्वाभाविक है।


    सागर चन्द नाहर ने पूछा है कि ब्लागर पर भी कोई मर्फी के नियम हैं क्या ? जब तक रवि रतलामी जवाब दें तब तक आप फुरसतिया के ब्लाग,ब्लागर,ब्लागिंग पर लिखे सूत्रों से काम चलायें।

    गांगुली-चैपेल विवाद की झांकी दुर्गा पूजा तक में नजर आने लगी है। यह जानकारी दे रहे हैं शेखचिल्ली।

    राष्ट्रीय ध्वज के लिये सानिया मिर्जा तथा मोहम्मद कैफ की सजगता तथा सम्मान के बारे में सागर सिंह नाहर उनको
    शाबासी देते हैं।

    भारत की गरीबी के उपहास पूर्ण प्रदर्शन पर अपना आक्रोश जाहिर करते हुये पंकज बेंगानीलिखते हैं:-
    इत्ता गुस्सा आया हुज़ुर कि पुछो मत। पर क्या करें, अपने लोग ही बेच रहे हैं गोरों को क्या दोष दें। और मुखमंतरी का कहते हैं ये भी सुनो। बोले हमें कुछ ना पता है।


    फ़ुरसतिया ने मुक्तिबोध पर लिखे हरिशंकर परसाई के संस्मरणों से पाठकों को रूबरू कराया। परसाईजी ने मुक्तिबोध के बारे में बताते हुये लिखा था:-
    मुक्तिबोध भयंकर तनाव में जीते थे। आर्थिक कष्ट उन्हें असीम थे। उन जैसे रचनाकार का तनाव साधारण से बहुत अधिक होगा भी। वे सन्त्रास में जीते थे। आजकल सन्त्रास का दावा बहुत किया जा रहा है। मगर मुक्तिबोध का एक-चौथाई तनाव भी कोई झेलता ,तो उनसे आधी उम्र में मर जाता।


    अनुराग श्रीवास्तव ने नया चिट्ठा प्रारम्भ किया है। उनका स्वागत ,शुभकामनायें।

    पुनश्च: खबरिया ने दिल में सच रखते हुये अपनी बात कहनी जारी रखी। लेकिन रमेश चंद परिहार की जबान पर ताला दिया तथा उनकी टिप्पणी हटा दी। मेरा यह मानना है कि सच ,चाहे जितना कटु क्यों न हो,को इस तरह दबाया नहीं जाना चाहिये। अनुरोध है कि खबरिया को फिर से पढ़ लिया जाये। जो टिप्पणी मिटा दी गयी है वह ऊपर ही दी गयी है।इसी क्रम में खबरिया ने अपने पाठकों से कुछ भी आग्रह किये हैं।

    मेरी पसंद

    यह कविता प्रियंकर के चिट्ठेअनहद नाद से ली गयी।

    सुबह-सुबह की हवा सुहानी
    और शाम की धूप
    आंखों को जो शीतल कर दे
    सुंदर है वह रूप।

    वर्षा अच्छी रिमझिम-रिमझिम
    ज्यों प्रिय का संदेश
    देश वही अच्छा जो लगता
    नहीं कभी परदेश।


    -राजकिशोर

    मंगलवार, अगस्त 29, 2006

    आया ज़माना 'उत्पभोक्ता' का

    हमने चिट्ठाचर्चा शुरू किया था चिट्ठों के बारे में चर्चा करने के लिये ।लेकिन यह बीच-बीच में थम जाता है। दो दिन लिखा नहीं तो समीर जी ने उकसाया कि इसे बंद न किया जाये। देबाशीष ने भी संतोष जाहिर किया कि हमने इसे दोबारा शुरू किया इसका मतलब है उनका भी मानना है कि इसे चलाते रहें।कुछ ऐसा ही मत प्रत्यक्षा जी का है। ग्राहकों की मर्जी सर्वोपरि मानते हुये फिर से इसे चालू किया जा रहा है।

    बात ग्राहकी से ही । हिंदी ब्लागर ने प्रख्यात भविष्य वक्ता के माध्यम से आने वाले समय में सामाजिक संरचना के बारे में तमाम जानकारियाँ दीं। उत्पादक और उपभोक्ता गठबंधन से 'प्रोज्‍़यूमर' यानि कि 'उत्भोक्ता' के उदय की बात बताते हुये भविष्य के समाज के बारे में जानकारी देते हैं:-
    "परिवार ख़त्म नहीं होगा, लेकिन पारिवारिक व्यवस्था के नए रूपों का उदय ज़रूर होगा. समलैंगिकों की शादी को स्वीकृति मिलती जा रही है. अकेली माताओं, अविवाहित युगलों, बिना बाल-बच्चे वाले विवाहित जोड़ों और कई-कई शादियाँ कर चुके माता-पिता हर समाज में देखे जा रहे हैं. एक साथी के साथ ज़िंदगी गुजारने का चलन भले ही ख़त्म नहीं हो, लेकिन एकाधिक साथियों के साथ संबंध को व्यापक स्वीकृति मिलने लगेगी."



    कतरनें में डाकुओं के माल के बंटवारे के सिद्धान्त के बारे में बताया गया था। बाकी का पता नहीं लेकिन मुझे इस लेख को समझने में काफी कठिनाई हुई।अभी भी जितना समझ में आया उससे यही मतलब लगाया मैंने कि यह बात कुछ-कुछ उन टीवी प्रोग्रामों पर फिट बैठती है जिसमें हर हफ्ते एक प्रतियोगी बाहर कर दिया जाता है।आशीष जी कुछ बतायें इस बारे में।

    निठल्ले भाई ने अनुवाद की समस्यासे के बारे में शुरू कीं तो विनय ने अनुवाद के कुछ नीति निर्देशक सुझावबताये। इस संबंध में किसी भाषा वैज्ञानिक का कहना है कि "किसी भी भाषा की क्षमता इस बात से भी जानी जाती है कि वह विदेशी भाषा के शब्दों को कितनी आसानी से अपने में पचा लेती है।"

    निधि ने अपने लाला मल्लूमल की कहानी आगे सुनाते हुये उनकी सुधार कथा बताना जारी रखा:-
    आजकल मैं सुधारा जा रहा हूँ। मेरे दिल और दिमाग को वह सुधारों के झाँवाँ से रगड़-रगड़ कर साफ़ कर रही है। जिस प्रकार अड़ियल टट्टू की पीठ पर कोड़े बरसते हैं उसी प्रकार मेरे सिर पर सुधारों के ओले बरस रहे हैं। उसे यह कौन समझाये कि बिगड़े दूध को मथने से मक्खन नहीं निकलता।


    कभी आतंक का पर्याय मानी जाने वाली फूलन देवी की व्यथा-कथा सृजन शिल्पी की नजर से सुनने के साथ-साथ मायादेवी के विचार जानिये जीतेंदर चौधरी से।वैसे जीतेंदर ने अपनी व्यथा-कथा भी कही है। अपने सप्ताहांत के किस्सों का अपनी चिर-परिचित शैली में बखान किया है:-
    ...हम जित्ता हो सकता है करते है, बाकी को अगले हफ़्ते पर सरका कर, कम्पयूटर की तरफ़ टरक लेते है आप लोगों के ब्लॉग पढने के लिए और इमेल्स का जवाब देने के लिए बैठ जाते है। बस इतना होना होता है कि श्रीमती के दिमाग का पारा चढने लगता है और उनका ओजस्वी भाषण पूरे जोशो खरोश के साथ शुरु होता है, जिसमे कम्प्यूटर, ब्लॉग, टीवी, न्यूज चैनल, मिर्जा, स्वामी (किरकिट स्वामी), (और अब सैटेलाइट रेडियो भी शामिल) किसी को भी नही बख्शा जाता। सबको समान रुप से गरिआया जाता है। अब बताओ यार, आदमी छुट्टी के दिन इन सबके बिना कैसे रह सकता सकता है? एक घन्टे के भाषण प्रसारण के बाद, श्रीमती जी थक जाती है तो आराम के लिए शयनकक्ष का रुख करती है और हम? अबे हम कम्प्यूटर से हटे ही कहाँ थे?


    यह लेख फिर से बताता है कि जीतेंदर जब भी अपना कोई लेख लिखते हैं तो बहाने से पुराने तमाम अपने तथा कुछ दोस्तों लेखों को परोस देते हैं।कहां तक बचेगा पाठक!

    वंदे मातरम ब्लाग देश के बारे में धनात्मक जानकारी देने वाला अच्छा ब्लाग है। वंदे मातरम में कल जो सवाल पूछा गया था उसका हल बताया गया। कम लोग जानते थे प्रफुल्ल चंद्र राय के बारे में लेकिन विजय ने सही हल बताया।


    जगदीश भाटिया अपने घर को देश से जोड़ते हुये वंदेमातरम विवाद पर अपनी बात कहते हैं वहीं रत्नाजी आरक्षण समस्या पर अपने कुछ अनूठे सुझाव देती हैं।

    छुट्टी पुराण में नया अध्याय जोड़ते हुये भोपाली काली भाई लिखते हैं:-

    शाम को मै बनता हुँ घसियारा माली. मेरी पत्नी के हिसाब से यह काम मेरी कँजुसी को डिफाइन करता है. महीने के १२० डालर बचाने के लिऍ में हर शनिवार ४ से ५ तक घास काटता हुँ और बागड़ की कटाई करता हुँ. मित्रों के टपकने का अकसर यही समय होता है जिसके कारण मेरी पत्नी अकसर दुखी पाई जाती हैं की क्योँ माली टाईप ईमेज दिखाते हो.


    विकीपिडिया के बारे में कई महत्वपूर्ण लेख लिख चुके उन्मुक्तजी कुछ और छुटपुट जानकारी देते हैं।

    फुरसतिया ने खबरिया तथा शेखचिल्ली के बारे में लिखते हुये कुछ लिखा। उस पर राहुलजी ने ऐसा हड़काया है अंग्रेजी में कि उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। हिंदी के ब्लाग पर वैसे भी अंग्रेजी में हड़काने का बहुत असर होता है। सिट्टी-पिट्टी गुम होने का जवाब तो सहमकर या अकड़कर दिया जा सकता है लेकिन किसी के दुख को कम नहीं किया जा सकता है। छायाजी उस पोस्ट से बहुत आहत हुये हैं तथा अपना क्षोभ भी व्यक्त किया है।उधर जीतेंद्र को इस बारे में सबकुछ पता है लेकिन गोपनीयता के कानून से बंधे हैं।
    लिखते-लिखते समीरजी भी अपनी अवकाश कथा बताने लगे। इसे पढ़िये उड़नतश्तरी पर:-
    आजकल डाक मे फालतू विज्ञापन वाली डाक कितनी आने लग गई हैं. सोचा, कचरे का डब्बा यहीं लाकर रख लेता हूँ, उसी मे बेकार डाक फेंकता जाऊँगा, नही तो फिर कचरा बीनने का एक काम और बढ़ जायेगा. कचरे का डिब्बा उठाने पीछे वाले कमरे मे गया, तो डब्बा पूरा भरा मिला. ये लो, अब इसे बाहर कचरे मे डाल कर आयें, तब काम आगे बढ़े. अब कचरा फेंकने जा ही रहा हूँ, तो वहीं सामने तो डाक का डिब्बा है, उसमे बिलों के भुगतान के चेक भी डालता आऊँ, कहाँ फिर चक्कर लगाऊँगा. तो फिर पहले चेक बना लेता हूँ. चेक बुक खोली तो उसमे बस एक ही चेक बचा है. नई चेक बुक निकालनी पडेगी. कहां है...कहां है, अरे हां, याद आया, वो मेरी पढ़ने वाली टेबल की दराज मे रखी है. चेक बुक लेने पहुँचा तो देखो तो जरा, ना जाने कल रात शरबत पीने के बाद बोतल यहीं टेबल पर छोड दी.अभी ठोकर लग कर गिर जाये तो सब जरुरी कागज पत्तर खराब हो जायें. इसे फ्रिज मे रख देता हूँ, नही तो खराब और हो जायेगा.

    मेरी पसंद
    रवि रतलामीजी ने रचनाकार में प्रख्यात शायर कैफी आज़मी की कुछ गजलें पोस्ट कीं। उनमें से एक यहाँ प्रस्तुत है:-

    हाथ आकर लगा गया कोई
    मेरा छप्पर उठा गया कोई

    लग गया इक मशीन में मैं
    शहर में ले के आ गया कोई

    मैं खड़ा था के पीठ पर मेरी
    इश्तिहार इक लगा गया कोई

    यह सदी धूप को तरसती है
    जैसे सूरज को खा गया कोई

    ऐसी मंहगाई है के चेहरा भी
    बेच के अपना खा गया कोई

    अब बोह अरमान हैं न वो सपने
    सब कबूतर उड़ा गया कोई

    वोह गए जब से ऐसा लगता है
    छोटा मोटा खुदा गया कोई

    मेरा बचपन भी साथ ले आया
    गांव से जब भी आ गया कोई


    -कैफी आज़मी

    शुक्रवार, अगस्त 25, 2006

    जाने किसके चित्र बनाती ....

    कैसा संयोग है! कल इधर ब्रह्मांड की उत्पत्ति की बात शुरू हुयी और इधर पिछले ७६ साल से सौरमंडल का गृह रहे प्लूटो को नटवर सिंह और गांगुली की तरह बाहर कर दिया गया। हिंदी ब्लागर की बात का मतलब निकालें तो यह लगता है कि अपने बास (सूरज) से बहुत दूरी तथा नेप्च्यून की कक्षा में अक्सर टकराते रहना इसका कारण रहा। प्लूटो को समझना चाहिये कि वह कोई इजराइल थोड़ी है न हीं नेप्च्यून कोई फिलिस्तीन है। बहरहाल इस घटना से छायाजी दुखी दिखे।

    उधर प्लूटो का निष्काशन हुआ इधर लोगसभा में हाथापाई के ग्रहयोग बन गये। कल हुई जम के। निठल्लों की सलाह है कि संसद को एक दिन के लिये अखाड़ा बना दिया जाये लेकिन मुझे नहीं लगता कि कोई इसे मानेगा। अरे भाई जो मजा रोज पहलवानी में है वो साल में
    एक दिन में कहाँ मिलेगा।भाटिया जी इसीलिये संसद को केवल वयस्कों के लिये बताते हैं।

    इधर प्लूटो का रुतबा छिना उधर उत्तरांचल वाले 'अंचल' त्यागकर 'खंड' में जा रहे हैं। ये होते हैं जवानी के जलवे। अंचल से लगता है कि आंचल में हैं खंड से लगता है कुछ कि अपना अलग इंतजाम कर लिया है। इधर अपने पति को छील-छाल कर आदमी बनाने के किस्से सुना रही हैं निधि उधर राकेश खंडेलवालजी अपनी कविता में कह रहे हैं:>
    जाने किसके चित्र बनाती आज तूलिका व्यस्त हुई है
    जाने किसकी यादें पीकर यह पुरबा मदमस्त हुई है

    किसके अधरों की है ये स्मित, जंगल में बहार ले आइ
    किसके स्वर की मिश्री लेकर कोयल गीत कोई गा पाई
    किसकी अँगड़ाई से सोने लगे सितारे नभ आते ही
    पूर्ण स्रष्टि पर पड़ी हुई है जाने यह किसकी परछाई

    आशा किसके मंदहास की स्वीकॄति पा विश्वस्त हुई है
    जाने किसकी यादें पीकर यह पुरबा मदमस्त हुई है

    जाने किसके कुन्तल ने की हैं नभ की आँखें कजरारी
    लहराती चूनर से किसकी, मलयज ने वादियां बुहारीं
    क्या तुम हो वह कलासाधिके, ओ शतरूपे, मधुर कल्पना
    जिसने हर सौन्दर्य कला की, परिभाषायें और सँवारी

    बेचैनी धड़कन की, जिसका सम्बल पा आश्वस्त हुई है
    तुम ही हो वह छूकर जिसको यह पुरबा मदमस्त हुई है


    मुझे तो लगता है कि यह सवालप्रत्यक्षाजी की कूची से पूछा गया है। अब देखें कि वहाँ से कोई जवाब आता है कि नहीं। जब तक कुछ जवाब आये तब तक फुरसतिया अपनी कहानी सुनाने लगे।

    गुरुवार, अगस्त 24, 2006

    उस पार न जाने क्या होगा!

    आजकल चिट्ठाकारी में प्रवासी लोग छाये हुये हैं। इसकी आग लगाई मानसी ने। इसके बाद तो आग ब्लाग दर ब्लाग फैलती जा रही है। वैसे कुछ सूंघने वाले बताते हैं कि इस आग की चिंगारी स्वामीजी की लगाई हुई है। मन करे तो आप भी कुछ लकड़ियाँ लगा दो। वैसे भाई लोग अपने पुराने संताप और सपने दिखाना शुरू कर चुके हैं। राकेश खंडेलवाल यह वायदा कर करते हुये कि वे शीघ्र ही डा० अंजना संधीर की कविता अमेरिका सुविधायें देकर हड्डियों मे बस जाता है उपलब्ध कराने का वायदा करते हुये लिखते हैं:
    याद है
    तुमने कहा था
    घाटियों के पार
    सूरज की किरन का देश है
    और मैं
    रब से यह सोच रहा हूँ
    कि मैं
    घाटियों के
    इस पार हूँ या उस पार
    जहाँ एक तरफ प्रवासियों का जिक्र चल रहा है वहीं दूसरी तरफ वन्देमातरम पर आयुर्वेद कथा कह रहे हैं। जब तक हल्दी और चूने का संगम फायदा करे तब तक पताचलताहै कि बंदे मातरम पर पर आपत्ति उठ गयी। इस सबसे अलग लोग अपने रंग और कूची से खेलने में लगे हुये हैं। मैं और मेरी कूची शीर्षक से लगा कि आगे पैरोडी पढ़ने को मिलेगी -मैं और मेरी कूची अक्सर बातें करते हैं। लेकिन मामला कुछ बेहतर था। यह कैसा संयोग है कि किसी कुँवारे को हर कन्या लूट ले जाती है और दूसरी तरफ दूसरे कुँवारे संग-सुख पाते हैं-बादलों के उस पार।