सोमवार, जून 23, 2008

हमरी भैसिया को घंटी किसने मारा

दीदी, कंचन और सौम्या
इतवार छुट्टी का दिन होता है। कल चिट्ठे कम लिखे गये। ई-स्वामी ने कल हिंदिनी को हाईटेक बनाया। नये कलेवर से रामचन्द्र मिश्र इत्ता इम्प्रेस हो गये कि बोले :
पहले ये थीम टेस्ट कर लें अपनी साइट पर बाकी पढ़ना लिखना बाद में

इस थीमबाजी के चक्कर में हुआ यह कि फ़ुरसतिया की नई पोस्ट सारे संकलकों से गायब हो गयी। शायद फ़ीड का कुछ लफ़ड़ा है। यह पोस्ट कंचन के बारे में हैं। आप इसे पढिये :
अपने जीवन में जिन ‘लीजेंडरी’ लोगों से कंचन मिलना चाहती थीं उनमें से एक के.पी.सक्सेनाजी हैं। के.पी.सक्सेनाजी ने कंचन से मुलाकात बाद कहा- आज जब तुम मुझसे ‘लीजेंडरी’ मानते हुये मिल रही हो। फोटो खिचवा रही हो। मुझे इस बात का अफ़सोस रहेगा कि कल को जब तुम ‘लीजेंडरी’ बनोगी तब मैं तुम्हारे साथ फोटो खिंचवाने के न रहूं।”


रजनीश मंगला आजकल जर्मनी में हैं। सप्तांत में गायिकी का आनंद लिया। समूह गायिकी के बारे में बताते हुये वे लिखते हैं-
choir एक ऐसा समूह होता है जिसमें बहुत से लोग तीन या चार टुकड़ियां बनाकर लिखित संगीत को पढ़कर गाते हैं। अधिकतर ये संगीत खासकर choir के लिये लिखा जाता है जिसमें हर टुकड़ी एक ही ताल में अलग झलग स्वरों में गाती है जिससे गानों में अजीब सी कशिश पैदा होती है। इसकी एक और खास बात ये है कि इसमें कोई भी थोड़े अभ्यास के बाद गा सकता है, जबकि भारतीय संगीत में गुरू से सीखकर, बहुत रियाज़ करके अकेले गाने का रिवाज़ है। इससे एक दूसरे की आवाज़ सुनकर पहचानने, सीखने का मौका मिलता है, टीम की भावना उत्पन्न होती है।


रवीशकुमार गोवा गये तो वहां उनको परशुराम, डा.राममनोहर लोहिया और चार्ल्स शोभराज के बारे में लिखने का मौका मिला। डा. लोहिया भारत छोडो़ आंन्दोलन के दौरान गोवा गये थे। इसके बारे में लिखते हैं-
भारत छोड़ो आंदोलन में हुई गिरफ्तारी के बाद लोहिया गोवा आए थे। अपने मित्र के यहां आराम करने। इतिहासकारों ने आज़ादी की लड़ाई में शामिल नेताओं के जीवन के दूसरे पहलुओं का अध्ययन नहीं किया है। इतने सघन संघर्ष में भी लोहिया गोवा पहुंचे थे आराम करने। मैं कुछ देर तक विस्मय से सोचता रहा।

अजित वडनेरकर अपने शब्दों के सफ़र में आज हाथी के बारे में बताते हैं:
अगर कहा जाए कि हाथी के पास भी हाथ होता है तो शायद कोई यकीन नहीं करेगा मगर हाथी के नामकरण के पीछे उसकी सूंड का ही हाथ है। दरअसल हाथी की सूंड ही उसका हाथ होती है जितनी सफाई से इसके जरिये असंभव लगनेवाले काम करता है, इन्सान को उन्हें करने के लिए भारीभरकम मशीनों की ज़रूरत पड़ती है।


महावीर शर्माजी बिंदिया पर तीन क्षणिकायें पेश करते हैं। इनमें से एक है:
तबले पर ता थइ ता थैया, पांव में घुंघरू यौवन छलके
मुजरे में नोटों की वर्षा, बार बार ही आंचल ढलके
माथे से पांव पर गिर कर, उलझ गई घुंघरू में बिंदिया
सिसक उठी छोटी सी बिंदिया !


समीरलाल के लिये मेरी जान कहना भी बबालेजान है। वेलिखते हैं:

तुमको मैं अपनी जान कहूँ
या नील गगन का चाँद कहूँ

घनघोर उदासी छाती है
जब दूर जरा तुम होती हो
मदहोशी छाने लगती है
जब बाहों में तुम होती हो
ये कलम हो रही है डगमग
तब मधुशाला का जाम कहूँ


अब इसके बाद कुछ और बचता नहीं सिवाय चंद एकलाइना के:

1. मोहल्ले का कवि सम्मेलन भाग दो: सही शीर्षक- मोहल्ले का कवि सम्मेलन भाग लो।

2.जरा इन्हे पहचानिए और गीत सुनिए :) : क्या इनका भी कोई ब्लाग है?

3. खामोशी का खामोशी से कत्ल.: बतर्ज लोहे को लोहा काटता है।

4. एक लड़की: ख्वाब में ही दिखेगी जी।

5.तुम कहाँ चले गये????????????? : इत्ते सवालिया निशान के बाद भी कोई जवाब नहीं।

6.दो व्यक्ति, एक दूसरे के जमानती हो सकते हैं? : हां, बशर्ते वे ब्लागर न हों।


7. हमरी भैसिया को घंटी किसने मारा: उसका तो बैलेन्सै गड़बड़ा गया है जी।

8.मेरी चाहत का जनाजा : निकाल दिया तुमने।

9.हर अधूरे प्रश्न का उत्तर : मिल जायेगा गीतकलश की कुंजी में।

10. देर से या लंबे फैसले सुनाने वाले जजों पर नज़र: कहीं जल्दी में न निपटा दिये जायें वे।

11. ब्लाग गिरा सकता है, भाषा की दीवारें मलबा कहां फ़ेका जायेगा?

12.दिखावे की संस्कृति-1 ....एक दुपहर शमशान में :दिखावे के लिये श्मशान जाना पड़ा!

13.तुमको मैं अपनी जान कहूँ : अरे बबाले जान को जान कैसे कह सकते हैं जी।


14.विफल लवर और सफल नागिस्ट :पद के लिये आवेदन करें। वेतन के बारे में कोई चर्चा नहीं।

15. माननीय एपीजे अब्दुल कलाम और गोपालकृष्ण विश्वनाथ:के बारे में माननीय ज्ञानदत्त जी की पोस्ट रिठेल।

शनिवार, जून 21, 2008

संकल्प -पढ़ाने का भविष्य बनाने का


कामगार बच्चा
निधि हमारी पसन्दीदा ब्लागरों में हैं। अर्से से लिखना बन्द है। अपने जबर सेवा के चलते हाल-फिलहाल तक सारी पढ़ाई खतम करने के बाद अब फ़िर से प्रयास करके एम.बी.बी.एस. करने की जुगत सोच रही थीं।

कल निधि ने लेखन वापसी करते हुये संकल्प संस्था के बारे में जानकारी दी। यह संस्था पीतल नगरी के नाम से जाने जाने वाले शहर मुरादाबाद के कामगार बच्चों को उनका बचपना सुरक्षित रखने का प्रयास करती है। पीतल उद्योग में लगे लोग खासकर बच्चे ऐसी कठिन परिस्थितियों में काम करते हैं कि उनकी औसत आयु ४०-४५ साल ही रह जाती है। संकल्प संस्था का उद्देश्य पीतल नगरी के कामगार लोगों के बच्चों को शिक्षित करने के अवसर प्रदान करना है ताकि उनके बेहतर भविष्य की आशायें बनें। फिलहाल लगभग ५०० बच्चे संकल्प संस्था के सौजन्य से शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं उनमें से कुछ ११ वीं, १२ वीं की पढाई करने के बाद ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रहे हैं।

संकल्प के माध्यम से आप भी इन बच्चों के भविष्य संवारने में सहयोग दे सकते हैं। आप निधि की यह पोस्ट पढ़ें और अपने मित्रों को पढ़वायें। शायद आपका और आपके मित्रों का मन कुछ बच्चों के भविष्य संवारने का कारक बने।

सबीना का बनाया चित्र
निधि के माध्यम से ही हम प्रशान्त तक पहुंचे। मुरादाबाद के तमाम चित्रों के अलावा उनके ब्लाग पर संकल्प संस्था से जुड़े बच्चों के बनाये चित्र भी हैं। इनमें से कई चित्र लोगों ने बच्चों को सहयोग देने के उद्देश्य से खरीद लिये हैं। कुछ और बचे हैं। देखिये शायद आपका भी मन कुछ सहयोग करने का बने। यह बगल का चित्र कक्षा आठ में पढ़ने वाली सबीना ने बनाया है।


ललित कुमार बहुत दिनों से कविता कोश को में कविताओं के संकलन में लगे हैं। आज कविता कोश में दस हजार का आंकड़ा पूरा हुआ। यह एक उपलब्धि है। आप उनको बधाई दीजिये और कविता कोश को समृद्ध करने में ललितजी को सहयोग भी।

प्रख्यात कथाकार सूरज प्रकाश जयपुर में कहानी पाठ के संस्मरण बताते हुये कहते हैं:

रचनाकार के लिए कोई भी शहर पराया नहीं होता अगर वहां उसका एक भी रचनाकार दोस्‍त या पाठक रहता हो. तब सारा शहर उसका अपना हो जाता है.



जीतेंद्र को न जाने क्या हुआ वे चिंतन करने लगे। रामचन्द्र मिसिर बोले -नहीं चाहिये ऐसा चिंतन। समीरलाल बोले -बालक धरती पर वापस आओ/हमारी अगली पोस्ट पर टिपियाओ।

आपको शायद पता न चले इसलिये सौम्या ने बताया है- आज साल का सबसे बड़ा दिन है। वो तो जावा भी सिखा रही है।

डा.अमरकुमार का मन न जाने क्यों ऐं-वैं टाइप हो रहा है। उन्होंने सवाल-जबाब कर डाले। देखिये आप भी।

कहीं कोई चिरकुटई का काम हो और उसमें पंगेबाज न सहयोग करें ऐसा हो नहीं सकता। कविताई के दंगल में वे कूद पड़े झम्म से। अनूप कानपुरी का शेर पेश करते हुये बोले-
"जिसे प्यार करते थे, वो समझदार निकली
हम दिल दे रहे थे, वो गुर्दे की खरीदार निकली"


इसी कड़ी में प्रमेन्द्र ने अपने ब्लागिंग के निजी अनुभवों के आधार पर दस लाइन का निबन्ध लिख मारा। आप देखिये और नम्बर दीजिये।

शायद आपको पता हो लेकिन बमार्फ़त नीरज वुधकर बजरिये अजित वडनेरकर एक बार फ़िर से बता दें कि तमाम पत्रिकायें आनलाइन उपलब्ध हैं। उसी रूप में जिस रूप में बाजार में मिलती हैं।


१. हम ...आपको समझना चाहते हैं !: लेकिन आप हमको कुछ समझते ही नहीं।

२.पुस्तकचोर बच्चे यानी तरह-तरह के चोर : सबसे ज्यादा किताबें चुरा के ही पढ़ी जाती हैं जी।

३.मिलिये स्वघोषित भावी प्रधानमन्त्री से! :अभी मिल लीजिये जब बन गये तब तो न मिल पायेंगे।

४. सीवर कंसल्टेंसी उर्फ इनवेस्टीगेशन: किस्सा वही जो पुराणिक बतलायें। टेस्ट वही जो सीबीआई करवाये।

५.कैसे कैसे अड्डे और अड्डेबाज ! :आखिर सब गर्त में जाना ही है!

६. छुट्टिया और ऋषिकेश में आत्म चिंतन:बालक, धरती पर वापस आ जाओ।

७.शहद के छत्ते को न छेड़ें श्रीमन्… : शहद तो मिलेगा नहीं, डंक लग जायेगा।

८.सिक्किम - छोटा मगर सुन्दर : सुन्दर नहीं अति सुन्दर!

९. क्या गृहिणी को गृहकार्य का वेतन मिलना चाहिए?: आप ही बतायें।

१०.उच्च वर्ग का औजार है मीडिया : बड़ा तेज औजार है।

११.हम मिलेंगे एक अच्छे दोस्त की तरह! सच्ची!!

१२.वाह क्रीमी लेयर से आह क्रीमी लेयर तक :हर जगह रपटन ही रपटन है।

१३.केरल और पीने का पानी : पानी रे पानी तेरा रंग कैसा ? : जैसा मनीष बतायें वैसा।

तमाम दोस्तों को शिकायत होती है कि उनके ब्लाग की चर्चा हमने नहीं की। छोड़ दिया,छूट गया। असल में एकाध घंटे में जो दिख जाते हैं उन ब्लाग को देख कर उनमें से जितना समझ आता है उतने का जिक्र कर देता हूं। तमाम साथी इस चर्चा मंच से जुड़े लेकिन समय और अपनी मजबूरियों के चलते कम होते गये। यह चर्चा भी बहुत कुछ आलोक पुराणिक के उकसावे पर होती रहती है। एकलाइना के लिये वे अक्सर कहते रहते हैं। एकलाइना के चलते और भी बहुत कुछ ठेल दिया जाता है। आदतें मुश्किल से जाती हैं। वो आदत ही क्या जो आसानी से छूट जाये। :)

आप लोगों में जो साथी चिट्ठाचर्चा से जुड़ना चाहें वे बतायें। हम उनको यहां लिखने के लिये निमंत्रण भेजेंगे।


मेरी पसन्द



हालांकि ज्ञानजी ने मौज लेते हुये ही कहा था -"मेरी पसन्द" में यदा-कदा गद्य भी ठेला करें! कविता तो अब अझेल जी करने लगे हैं। :) लेकिन पाठक को चिट्ठाजगत का भगवान मानते हुये हम उनकी इच्छा का आदर करने के लिये अपना पसंदीदा गद्य लेखन पेश कर रहे हैं-

"उच्च वर्ग की साज़िशों में साथ देने वाले मध्य वर्ग में दो तरह के लोग हैं। एक बेहद महात्वाकांक्षी लोग जो हर कीमत पर उच्च वर्ग में शामिल होना चाहता हैं। ऐसे लोग आगे बढ़ने के लिए भौतिक सुखों को इकट्ठा करने के लिए हर साजिश में शामिल हो सकते हैं। वो खुद को उच्च वर्ग के सबसे बड़े हितैषी के रूप में पेश करते हैं और अपने मकसद के लिए उससे भी कहीं अधिक क्रूर हो सकते हैं।

मध्य वर्ग में दूसरा तबका है ऐसे लोगों का है जो मजबूर हैं। ये लोग अपने घरवालों से बहुत प्यार करते हैं। उन्हें मझधार में छोड़ कर समाज को बदलने की जद्दोजेहद में शामिल होने का साहस नहीं जुटा पाते। इनकी स्थिति पेड़ से कटे उस साख की तरह है जो अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता है। अपनी मिट्टी और देस से उखड़े हुए उस पौधे की तरह है जो परायी जमीन में जड़े जमाने की कोशिश में है। आज की बाज़ारवादी व्यवस्था में नौकरी करना इस तबके की मजबूरी है। उसकी इसी मजबूरी का फायदा उच्च वर्ग उठाता है। मध्य वर्ग के इस तबके में मैं भी शामिल हूं।"

समरेन्द्र

शुक्रवार, जून 20, 2008

कुलीनता का भौकाल जो बोले सो निहाल।


फ़्रैक्टल
मसिजीवी को वैसे तो हम 'बाई डिफ़ाल्ट' शरारती ब्लागर मानते और कहते आये हैं लेकिन मसिजीवी का एक लेख हमें बहुत अच्छा लगता है। इसमें उन्होंनेफ़्रैक्टल के बारे में बताया था। यह इस विधा से मेरा परिचय था। फ़्रैक्टल के बारे में जानकारी देते हुये उन्होंने बताया कि यह व्यवस्था और अव्यवस्था के संगम से बनता है। कुछ ऐसे ही जैसे कि प्रकृति-
प्रकृति खूबसूरत है क्‍योंकि वह लीनीयर नहीं है, वह व्‍यवस्‍था व गैर व्‍यवस्‍था (केओस) का मिला जुला रूप है। मसलन एक बागीचे में कतार से लगे पौधों में व्‍यवस्‍था है पर इन पौधों की विविधता एक प्रकार के केओस से उपजती है।
एक बार पढ़ने के बाद दुबारा मैं इस लेख को खोजता रहा, मिला नहीं। आज फ़िर बमार्फ़त दिनेशजी जब
अभिषेक ओझा की यह गणितीय पोस्ट पढ़ी तो मसिजीवी का यह लेख फिर खोज के पढ़ा।

अभिषेक ओझा गणित की बातें सरल,सहज अंदाज में बताते हुये कहते हैं-
एक बंद कमरे में बैठ कर ऐसे गणित को जन्म देना जिसका वास्तविक दुनिया से कोई लेना देना नहीं... और उसका इतना उपयोग होने लगे की उसके बिना कई काम ठप हो जाए... शायद इसीलिए गणित और सत्य की खोज एक जैसे होते हैं... सत्य है, सर्वव्यापी है तभी तो दशकों बाद ही सही... उपयोगी हो जाता है।



मुस्कराते रहो

रवीशकुमार आजकल ब्लाग के बारे में नियमित रूप से लिखते हैं दैनिक हिन्दुस्तान में। पिछले दिनों उन्होंने प्राइमरी का मास्टर ब्लाग का जिक्र किया अपने स्तम्भ में| प्रवीन त्रिवेदी ने इस पर अपने उद्गार व्यक्त करते हुये कहा
एक प्राथमिक विद्यालय का अध्यापक होने के नाते सामाजिक छवि के विपरीत होने की बात करने का साहस करना कभी - कभी बड़ा कठिन लगता है। हिन्दी टाइपिंग न जानना ,लिखने में संकोच, सरकारी मास्टर होने के बाद किस हद तक लिख सकता हूँ इस बात का डर? इस तरह के बहुत सारे डर के बावजूद भी आप यकीन जानिए की कुछ उपस्थिति का एहसास होना बड़ा ही सुखदायक व प्रेरणास्पद लगता है। आप यकीन जानिए की समाचारों की सुर्खियों में पढ़कर बड़ा आश्चर्य होता है , अपनी सामाजिक छवि के बारे में ।


महाकवि अंद्रेई दानिशोविच और अझेल कास्त्रो का जिक्र पढ़कर ही शायद पल्लवीजी का कवि विरही का दर्द बांटने का मन बना। उन्होंने बांटा और अपने ब्लाग पर भी पोस्ट किया-
अरे...पहले के प्रेमी मूर्ख और अनपढ़ हुआ करते थे..नहीं जानते थे कि इस उदासी से कैसे निकला जाए पर हम मॉडर्न लवर हैं...पढ़े लिखे भी हैं सो जानते हैं कि डिप्रेशन के शिकार व्यक्ति को खाली नहीं बैठना चाहिए...इसलिए बस किसी तरह मन लगा रहे हैं ताकि उसकी यादें कुछ पल को दिल से दूर जा सकें वरना तो जरा सा खाली बैठे नहीं कि उसकी यादें दिल में मकां कर लेती हैं...


ब्लागिंग पर नामवरजी के वक्तव्य ने शिवकुमार मिश्र को उकसा दिया और वे यह भूल गये कि समीरलाल के ब्लाग पर टिपियाना बिसरा कर ब्लागिंग चर्चा में रत हुये।

देर हो गयी गुरू दुकान जाना है। इसलिये फ़टफ़टिया वन लाइनर। बकिया फ़िर:

मुझे पहला प्रमोशन मिला: ढेरो काम करने के लिये।

पुरानी जीस और गिटार : का आपस में गठबंधन हुआ।


ऊंची अटरिया में ठहाके : लगाओ लेकिन फ़ेफ़ड़ा बचा के।

कुलीनता का भौकाल : जो बोले सो निहाल।

हाथ-घड़ी की क्या जरूरत है? : जब दीवार पर कैलेन्डर है।

नेता उर्फ एग्जास्ट फैन: तुलना पर एग्जास्ट फ़ैन बिफ़रा। मानहानि का दावा करने की धमकी।


जनम जनम के फेरे: हम तो हो गये साथी तेरे।

मेरी पसन्द

हालांकि ज्ञानजी का कहना है कि हमको मेरी पसन्द में गद्य देना चाहिये। लेकिन आजकल कविताओं का मौसम है सो कविता ह सुना रहे हैं। कविता और गणित का मेल होगा तो कैसा होगा , सरस्वती वंदना से इसका अंदाजा लगा सकते हैं-

वर दे,
मातु शारदे वर दे!
कूढ़ मगज़ लोगों के सर में
मन-मन भर बुद्धि भर दे।

बिंदु-बिंदु मिल बने लाइनें
लाइन-लाइन लंबी कर दे।
त्रिभुज-त्रिभुज समरूप बना दो
कोण-कोण समकोण करा दो
हर रेखा पर लंब गिरा दो
परिधि-परिधि पर कण दौड़ा दो
वृत्तों में कुछ वृत्त घुसा दो
कुछ जीवायें व्यास बना दो
व्यासों को आधार बना दो
आधारों पर त्रिभुज बना दो
त्रिभुजों में १८० डिग्री धर दो।

वर दे,
वीणा वादिनी वर दे।



पूरा पढ़ने के लिये फ़ुरसतिया पोस्ट पढ़ें

गुरुवार, जून 19, 2008

खेत में गोभी का फूल खिला है


मुस्कराते रहो


कहानीकार काशीनाथ सिंह जी अपने भैया प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह जी से बतियाते हुये सवाल किया था:
आपको कैसे लोगों से ईर्ष्या होती है?
नामवर जी का जबाब था:
जो वही कह या लिख देते हैं जिसे सटीक ढंग से कहने के लिये मैं अरसे से बेचैन रहा।


अगर नामवरजी नियमित ब्लाग पाठन करते तो निश्चित तौर पर कुछ जरूर उनको मिला होता जिनसे उनको ईर्ष्या होती।
यह उनका कमाल का आत्मविश्वास और किसी चीज को सूंधकर ही उसके बारे में वक्तव्य देने की आलोचकीय दृष्टि ही है जो उनसे कहलाती है -‘ब्लॉग लेखन अनुपयुक्त है’

ब्लागिंग अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। अब यह इसके प्रयोग करने वालों पर है कि वे इसका कैसा उपयोग करते हैं। बकिया नामवरजी जैसे बहुपाठी विद्वान एक जगह जो कहेंगे उसके धुर-उलट दूसरी जगह क्या कह देंगे यह वे खुद नहीं बता सकते। नामवारजी से बतकही का जिक्र करते हुये काशीनाथजी ने लिखा भी है-

एक दिन जब मूड में थे, मैंने पूछा -"पिछले दस सालों से जो घूम-घूम कर यहां-वहां भाषण करते फ़िर रहे हैं, इसके पीछे क्या मकसद है आपका?"
उन्होंने एक क्षण मेरी ओर देखा,फिर फ़िराक का शेर सुनाया-
दुविधा पैदा कर दे दिलों में
ईमानों को दे टकराने
बात वो कर ऐ इश्क कि जिससे
सब कायल हों , कोई न माने।


मुझे लगता है जब नामवर जी ब्लाग लेखन को अनुपयुक्त बता रहे होंगे तो कुछ इसी मूड में रहे होंगे। इससे अधिक कुछ सोचना अपने साथ और अपने समय के महान आलोचक के साथ भी अन्याय होगा।

एस.पी.सिंह के बारे में तमाम लेख आये। आज एस.पी. होते तो ये होता, वो होता। वे यह कर देते, वह कर देते। इस बात के धुरउलट अपनी बात कहते हुये समरेंद्र ने लेख लिखा है-अच्छा हुआ मैं एसपी सिंह से नहीं मिला। वे कहते हैं-
नब्बे के दशक के बाद से टीवी मीडिया को एसपी के साथियों ने ही दिशा दी है। आज इस मीडिया का विभत्स चेहरा उन्हीं लोगों का बनाया हुआ है। वो आज भी कई चैनलों के कर्ताधर्ता हैं। लेकिन उनमें से ज़्यादातर में ऐसा हौसला नहीं कि ख़बरों का खोया सम्मान वापस लौटा सके। वो कभी मल्लिका सेहरावत तो कभी राखी सावंत के बहाने जिस्म की नुमाइश में लगे हैं। अपराध को मसाला बना कर परोस रहे हैं। कभी जासूस बन कर इंचीटेप से क़ातिल के कदम नापने लगते हैं, तो कभी पहलवान के साथ रिंग में उतर कर कुश्ती की नौटंकी करते हैं। वो झूठ को सच बना कर बाज़ार में परोसते हैं और सच को झूठ बनाने का कारोबार करते हैं।

अनिल रघुराज टिपियाते हुये कहते हैं-
पंडे भर गए हैं पत्रकारिता में जो मरे हुए लोगों को भगवान बनाकर मलाई काट रहे हैं। एसपी की आलोचनाच्मक समीक्षा कोई नहीं करता। मैंने अपने छोटे से अनुभव से जाना था कि एसपी टीम बनाने में कतई एकीन नहीं करते थे। दूसरे वो बंगाल की धांधा (क्विज टाइप) परंपरा के वाहक थे। ज्ञान की गहराई में उतरने का माद्दा नहीं था उनमें। बेहद छिछले थे एसपी।


कल अजित वडनेरकर जी ने छिनार शब्द से परिचय कराया तो उसके मुकाबले बोधिसत्व ने छिनरा को खड़ा कर दिया।

छिनरा छिनरी से मिले
हँस-हँस होय निहाल।


बारिशों का मौसम है सुनते ही मेढक टर्राने लगते हैं और कविगण कविताने लगते हैं। तमाम दुनिया भर के कवियों ने हिंदी ब्लागजगत पर हल्ला-बोल दिया। महाकवि अंद्रेई दानिशोविच ने कल अपनी तीन कवितायें अजदक मंच से पढीं। आखिरी कविता मुलाहिजा फ़र्मायें-

खेत में गोभी का फूल
खिला है, बैल के माथे गूमड़
सिपाही के चूतड़ पर फुंसी
फली है, मेरी छाती में,
प्रिये, कविता कलकल!

अब मुंबई में कोई झमेला हो उसकी प्रतिक्रिया कलकत्ते में न हो अईसा कईसे हो सकता है? क्या वहां कम बारिश होती है? क्या वहां कम लोग मरते हैं बारिश में? क्या वहां कम लोग रहते हैं झुग्गी-झोपड़ियों में? नहीं न! तो इसीलिये वहां भी कवितागिरी हुयी। बालकिशन के अखाड़े में। तस्लीमा नसरीन को अपने यहां न रख पाने के अफ़सोस से निजात पाने के लिये और मुम्बईया कविताई का कवितातोड़ जबाब देने के लिये उन्होंने क्यूबा के महान कवि अझेल पास्त्रो (बालकिशन ने टाइपिंग की गलती से अझेल की जगह उजेल लिख दिया) की शरण ली। अझेल पास्त्रो की सेवायें लेने के पीछे यह भावना रही होगी कि एक विदेशी कवि का मुकाबला दूसरा विदेशी कवि ही कर सकता है। आप इस कविताई को निहारिये और देखिये कैसा रहा मुकाबला। नमूना देख लीजिये हम दिखाये देते हैं-
ईख के खेत में नहीं उपजती है,
ये मंहगाई
न ही निकलती है
कानों तक पहनी गई टोपी के ऊपर से
किसी ने इसे नही देखा
नहीं देखा
कि ये मंहगाई उछल आई हो
सिगार के धुंए से बनने वाले छल्ले से


पाठकों की प्रतिक्रियायें देखकर फ़िर याद आ रहा है। कोई कवि बन जाये सहज सम्भाव्य है/अझेल तुम्हारा नाम ही काव्य है।
अब चंद एक लाइना:

1. जमानत प्रक्रिया को जानें : न जाने कब करानी पड़े।

2.अच्छा हुआ मैं एसपी सिंह से नहीं मिला : मिलता तो पोस्ट न लिख पाता।

3.मीडिया बना स्वयम्भू ठेकेदार : रोज टेंडर भर रहा है/ठेके मिल रहे हैं।

4.दिल्ली पुलिस मुख्यालय पर प्रदर्शन: 19 जून, 11 बजे भाग लेंगे कि भागेंगे।

5. तीन दिवसीय ब्लॉगिंग वर्कशॉप …..: जैसे थे वैसे वापस लौटने की गारंटी। :)

6.अंगुलियों का गणित : सिखाया जा रहा है यहां। मुफ़्त में।

7.रेणुका जी का सुझाव बहुत अच्छा है ! : तब तो हो लिया अमल!

8. 2010 तक इंटरनेट एड्रेस खत्म हो जाएँगे?: फिर कोई नया चोचला आयेगा जी।

9.बादलों को घिरते देखा है और यादों का छाता लगाया है।

10.दीना : ज्ञानजी के नियंत्रण कक्ष का चपरासी है। उसको समीरलाल सलाम करते हैं।

11. आपने किया है मर्डर: चलो दफ़ा ३०२ में अन्दर!

12. रोज बदलती दुनिया कैसी...: सोच सोच के मन में खलबली मची है!

मेरी पसन्द
अपनी ज़िंदगी ऐसी
कि जैसे सोख़्ता हो।

जनम से मृत्यु तक की
यह सड़क लंबी
भरी है धूल से ही

यहाँ हर साँस की दुलहिन
बिंधी है शूल से ही
अँधेरी खाइयों के बीच
कि ज्यों ख़त लापता हो।

डा.कुंवर बेचैन

बुधवार, जून 18, 2008

बंटी और निम्मो की शादी में जूते चप्पल और डंडो की बरसात


मुस्कराते रहो
ये गुलाब आपके लिये बमार्फ़त शहरोज आये हैं। वे कहते हैं
टिफिन तैयार कर स्त्री पति को सोपेंगी
समय पर खा लेने की ताकीद के साथ .
हर पुरुष की पत्नी और प्रेमिका
विश्व की सबसे सुन्दर कृति होगी
देह बिना प्रेम अपूर्ण माना जायेगा
स्त्री बस देह हो जाया करेंगी ।


कविता की ये बानगी भी देखिये-
क्रांतिकारी संगठन से जुदा कवि
सरकारी महकमे में आ टिकेगा
तीन घंटे के अनुबंध पर सहायक से आठ घंटे की चाकरी
करना उसका धेये नहीं विवशता होगी


बोधिसत्व का मन आजकल बनारस में रम रहा है। वे कहते हैं हैं-
कहने को तो कहा जा सकता है कि काशी में क्या रखा है.....मैं कहूँगा कि यदि काशी में कुछ नहीं रखा है तो दुनिया में ही क्या रखा है....पतन किसका नहीं हुआ है....काशी का भी हुआ होगा....समय और बदलाव का दबाव काशी पर भी पड़ा है....लेकिन काशी का नशा मेरे मन से तनिक भी कम नहीं हुआ है.....।


डा.टंडन को न जाने क्या हुआ। आज अचानक बरमूडा त्रिभुज में मटरगस्ती करते पाये गये।

अतानु डे अंग्रेजी के जाने-माने ब्लागर हैं। अपने इंटरव्यू में उन्होंने कहा था-
ब्लॉग्स वैकल्पिक विचारों को आम चर्चा के मंच पर ला खड़ा करते हैं। असल में, ब्लॉग स्वयं आम जनता को आम चर्चा तक ले आती है। मुख्य धारा का मीडिया संकुचित और व्यभिचारी रूप गढ़ सकता है। ब्लॉग विचारों कि विविधता, जिसकी खासी ज़रूरत है, उत्पन्न करते हैं।
। अतानु डे के लेख अब हिंदी में भी उपलब्ध हैं। ज्ञानजी ने उनको सनद देते हुये कहा-
अतनु डे बहुत अच्छा लिखते हैं। और उनके लेखों की हिन्दी में उपलब्धता तो हिन्दी ब्लॉगिन्ग के लिये मील का पत्थर है।


एस.पी.सिंह पत्रकारिता के मील के पत्थर माने जाते हैं। चालीस के आसपास की उम्र में चले गये। अपना कोई गुरुडम नहीं चलाया। उनके बारे में इस बीच कई लेख लिखे गये। दिलीप मंडल ने कल एस पी की गैरहाजिरी का मतलब का मतलब बताया था। बमार्फ़त विजय शंकर चतुर्वेदी यह लेख भी उसी कड़ी का लेख है।

मैं ख़बरनवीस एसपी में अब कुछ और खोज रहा था। वह क्या चीज़ है, जो गाज़ीपुर के उस छोटे-से अंधियारे गांव से यहां कनाट प्लेस में बसे मायावी मीडिया लोक के शीर्ष तक उन्हें ले आयी है।


आप अगर फ़ायरफ़ाक्स ब्राउजर का प्रयोग करते हैं और आपको कभी-कभी हिंदी की पोस्ट पढ़ने में अक्षर टूटे दिखाई देते हैं तो आलोक उसका हल बता रहे हैं।
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आप इत्ता बांचते-बांचते थक गये होंगे। सो निशा मधूलिका के द्वारा बनाई साबूदाने की खीर खाइये और आगे कुछ एक-लाइना बांचिये। लेकिन इसके पहले आप विनीत कुमार की इसअपील पर गौर फ़र्मायें।

1.बेईमानी आधी-आधी :पूरी करने में मेहनत बहुत है।

2.स्वीकारो मेरा अभिवादन : पलट नमस्ते भेजो फ़ौरन!

3. आपने मारा आरुषि को..आपने.!: अरे भैया, कैसे-कैसे सपने देखते हो। नार्को में फ़ंसा दोगे का?

4.चलो बुलावा आया है, जंगल ने बुलाया है! : लेकिन चलना पैदल ही पड़ेगा।

5. प्रेम पर पेट्रोल: भारी है। प्रेम की कैसी लाचारी है।

6.छिनाल का जन्म :शब्दों के सफ़र के दौरान!

7. सार्क में भी छाया रहेगा पेट और पेट्रोल:पेट्रोल बटोर के ले आया जाये और बेचकर पेट भर लिया जाये। कैसा रहेगा?

8.मैं काशीवाला नहीं हूँ : तो काहे हुड़क रहे हो बनारस के लिये?

9.तेरे शहर में तुझे ढूढते जमाने गुजर गए :रिपोर्ट लिखानी है तेरे शहर के सब थाने किधर गये।

10.बंटी और निम्मो की शादी.. :में जूते चप्पल और डंडो की बरसात ।

11.आज हम अंग्रेजी के गुलाम हैं : एक आत्मसाक्षात्कार। वर्तनी सुधारने की सलाह।

12. हिंदी ब्लाग के सचिन तेंदुलकर: समीरलाल का आरोप मानने से इंकार। लोगों के प्यार की साजिश बताया।

13.अपने वतन का नाम बताओ : चौथी बार पूछ रहे हैं।


मेरी पसंद
१.”पपीते के ठेले पर
कितना सुंदर दिख रहा है पपीता
बिलकुल अपने मालिक जैसा
जब हमने कल उसको पीटा”

२.”गर्मियो का मौसम
तरबूज की मिठास
जैसे कोई आया चौकी में
लिये सहायता की आस”

३.चौराहे पर खडे खडे
सुबह से शाम हो जाय
आंखे चमके चौगुनी
जो बिन हेल्मेट दिख जाय

४. जब जी चाहे बुलाईये
हम है आपके पास
दिन भर तकते राह आपकी
हमको भी है आस

पंगेबाज से

सोमवार, जून 16, 2008

नाव पर हेलमेट लादकर आलोक पुराणिक मुंबई पहुँचे।

अतुल अरोरा को शिकायत है कि बहुत दिन बाद उन्होंने कुछ लिखा लेकिन किसी ने देखा नहीं। लगता है लोग उनको भूल गये हैं। अब यह उनको पता होना चाहिये कि ब्लागिंग रेलवे का जनरल डिब्बा है। आपकी सीट तभी तक सुरक्षित है जब तक आप सीट पर बैठे हैं। जैसे ही सीट से गये, सीट आपके रूमाल समेत किसी और किसी की हो जायेगी।

बहरहाल आप देखिये उनकी मुक्केबाजी।

पिछले दिनों शमाजी के ब्लाग पर कई लेख पढ़े। उनके लेखन की सहजता और ईमानदारी ने काफ़ी प्रभावित किया। अभी-अभी उन्होंने मेरे जीवन साथी सीरीज की आखिरी किस्त लिखी है। देखिये आपको पसन्द आयेगा उनका लिख हुआ पढ़ना।

अभिषेक त्रिपाठी उर्फ़ मोनू ठेलुहा परिवार से ताल्लुक रखते हैं। इंद्र अवस्थी के ममेरे भाई हैं। लिखने लगे लेकिन इनका ब्लाग किसी एग्रीगेटर पर नहीं है। इससे दुखी हैं। इनका लेख हवामहल इनके हुनर की कहानी कहता है। देखिये आप भी।

अब चन्द एकलाइना।
१.पाकिस्तान से मिली हार बर्दाश्त नहीं होती : चलिये अच्छा अबकी बार बांगलादेश से हार के दिखाते हैं।
२.इन दिनों तू कहाँ है जिंदगी ?... : बताओ नहीं तो हम जा रहे हैं FIR लिखवाने।
३.कल मैंने एक देश खो दिया : संभाल के रखा करो भाई, देश के मामले में लापरवाही ठीक नहीं।
४. उल्लू का पठ्ठा शब्द का उद्भव कईसे हुआ?: फ़ुरसतिया चैनेल खुलासा।
५. उस गली के मोड़ पर : अचानक टक्कर हो जाती है। जरा संभल के चलना!
६.अब जल रही नदी है.. : कोई फ़ायर ब्रिगेड बुलाये।
७. करोगे याद तो हर बात याद आएगी: तो शुरू करो याद करना, मन लगा के करना!
८.किस नजर से देखूँ दुनिया तुझे... : हुश-हुश महाराज को डमरू बजाते हुये बाकी सबको टिपियाते हुये देखा जाये।
९. सबसे अच्छी तारीख:जब सौम्या की तबियत ठीक हुयी।
१०.हत्यारा कौन? सजा किसे? : मतलब खेत खायें गदहा, बांधें जायें कूकुर।
११.आम बगइचा आदर्श विद्यालय एडमिशन लीजिये पानी बरसने से पहले। बाद में कीचड़ हो जायेगा।
१२.गंगा किनारे एक शाम : की कहानी सुना रहे हैं ज्ञानजी सुबह-सुबह!
१३.नाव पर हेलमेट :लादकर आलोक पुराणिक मुंबई पहुंचे। मल्लिका के साथ हीरो बनने के चांस!
१४.एक छोटा सा जहाँ हो : फिर उसको बड़ा करने की ट्राई मारेंगे।
१५. अपने वतन का नाम बताओ: तो जानें।
१६. हर जगह बस आरूषि ही आरूषि‍: बाकी के लिये कोई जगह ही नहीं।