कहानीकार काशीनाथ सिंह जी अपने भैया प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह जी से बतियाते हुये सवाल किया था:
आपको कैसे लोगों से ईर्ष्या होती है?
नामवर जी का जबाब था:
जो वही कह या लिख देते हैं जिसे सटीक ढंग से कहने के लिये मैं अरसे से बेचैन रहा।
अगर नामवरजी नियमित ब्लाग पाठन करते तो निश्चित तौर पर कुछ जरूर उनको मिला होता जिनसे उनको ईर्ष्या होती।
यह उनका कमाल का आत्मविश्वास और किसी चीज को सूंधकर ही उसके बारे में वक्तव्य देने की आलोचकीय दृष्टि ही है जो उनसे कहलाती है -‘ब्लॉग लेखन अनुपयुक्त है’
ब्लागिंग अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। अब यह इसके प्रयोग करने वालों पर है कि वे इसका कैसा उपयोग करते हैं। बकिया नामवरजी जैसे बहुपाठी विद्वान एक जगह जो कहेंगे उसके धुर-उलट दूसरी जगह क्या कह देंगे यह वे खुद नहीं बता सकते। नामवारजी से बतकही का जिक्र करते हुये काशीनाथजी ने लिखा भी है-
एक दिन जब मूड में थे, मैंने पूछा -"पिछले दस सालों से जो घूम-घूम कर यहां-वहां भाषण करते फ़िर रहे हैं, इसके पीछे क्या मकसद है आपका?"
उन्होंने एक क्षण मेरी ओर देखा,फिर फ़िराक का शेर सुनाया-
दुविधा पैदा कर दे दिलों में
ईमानों को दे टकराने
बात वो कर ऐ इश्क कि जिससे
सब कायल हों , कोई न माने।
मुझे लगता है जब नामवर जी ब्लाग लेखन को अनुपयुक्त बता रहे होंगे तो कुछ इसी मूड में रहे होंगे। इससे अधिक कुछ सोचना अपने साथ और अपने समय के महान आलोचक के साथ भी अन्याय होगा।
एस.पी.सिंह के बारे में तमाम लेख आये। आज एस.पी. होते तो ये होता, वो होता। वे यह कर देते, वह कर देते। इस बात के धुरउलट अपनी बात कहते हुये समरेंद्र ने लेख लिखा है-अच्छा हुआ मैं एसपी सिंह से नहीं मिला। वे कहते हैं-
नब्बे के दशक के बाद से टीवी मीडिया को एसपी के साथियों ने ही दिशा दी है। आज इस मीडिया का विभत्स चेहरा उन्हीं लोगों का बनाया हुआ है। वो आज भी कई चैनलों के कर्ताधर्ता हैं। लेकिन उनमें से ज़्यादातर में ऐसा हौसला नहीं कि ख़बरों का खोया सम्मान वापस लौटा सके। वो कभी मल्लिका सेहरावत तो कभी राखी सावंत के बहाने जिस्म की नुमाइश में लगे हैं। अपराध को मसाला बना कर परोस रहे हैं। कभी जासूस बन कर इंचीटेप से क़ातिल के कदम नापने लगते हैं, तो कभी पहलवान के साथ रिंग में उतर कर कुश्ती की नौटंकी करते हैं। वो झूठ को सच बना कर बाज़ार में परोसते हैं और सच को झूठ बनाने का कारोबार करते हैं।
अनिल रघुराज टिपियाते हुये कहते हैं-
पंडे भर गए हैं पत्रकारिता में जो मरे हुए लोगों को भगवान बनाकर मलाई काट रहे हैं। एसपी की आलोचनाच्मक समीक्षा कोई नहीं करता। मैंने अपने छोटे से अनुभव से जाना था कि एसपी टीम बनाने में कतई एकीन नहीं करते थे। दूसरे वो बंगाल की धांधा (क्विज टाइप) परंपरा के वाहक थे। ज्ञान की गहराई में उतरने का माद्दा नहीं था उनमें। बेहद छिछले थे एसपी।
कल अजित वडनेरकर जी ने छिनार शब्द से परिचय कराया तो उसके मुकाबले बोधिसत्व ने छिनरा को खड़ा कर दिया।
छिनरा छिनरी से मिले
हँस-हँस होय निहाल।
बारिशों का मौसम है सुनते ही मेढक टर्राने लगते हैं और कविगण कविताने लगते हैं। तमाम दुनिया भर के कवियों ने हिंदी ब्लागजगत पर हल्ला-बोल दिया। महाकवि अंद्रेई दानिशोविच ने कल अपनी तीन कवितायें अजदक मंच से पढीं। आखिरी कविता मुलाहिजा फ़र्मायें-
खेत में गोभी का फूल
खिला है, बैल के माथे गूमड़
सिपाही के चूतड़ पर फुंसी
फली है, मेरी छाती में,
प्रिये, कविता कलकल!
अब मुंबई में कोई झमेला हो उसकी प्रतिक्रिया कलकत्ते में न हो अईसा कईसे हो सकता है? क्या वहां कम बारिश होती है? क्या वहां कम लोग मरते हैं बारिश में? क्या वहां कम लोग रहते हैं झुग्गी-झोपड़ियों में? नहीं न! तो इसीलिये वहां भी कवितागिरी हुयी। बालकिशन के अखाड़े में। तस्लीमा नसरीन को अपने यहां न रख पाने के अफ़सोस से निजात पाने के लिये और मुम्बईया कविताई का कवितातोड़ जबाब देने के लिये उन्होंने क्यूबा के महान कवि अझेल पास्त्रो (बालकिशन ने टाइपिंग की गलती से अझेल की जगह उजेल लिख दिया) की शरण ली। अझेल पास्त्रो की सेवायें लेने के पीछे यह भावना रही होगी कि एक विदेशी कवि का मुकाबला दूसरा विदेशी कवि ही कर सकता है। आप इस कविताई को निहारिये और देखिये कैसा रहा मुकाबला। नमूना देख लीजिये हम दिखाये देते हैं-
ईख के खेत में नहीं उपजती है,
ये मंहगाई
न ही निकलती है
कानों तक पहनी गई टोपी के ऊपर से
किसी ने इसे नही देखा
नहीं देखा
कि ये मंहगाई उछल आई हो
सिगार के धुंए से बनने वाले छल्ले से
पाठकों की प्रतिक्रियायें देखकर फ़िर याद आ रहा है। कोई कवि बन जाये सहज सम्भाव्य है/अझेल तुम्हारा नाम ही काव्य है।
अब चंद एक लाइना:
1. जमानत प्रक्रिया को जानें : न जाने कब करानी पड़े।
2.अच्छा हुआ मैं एसपी सिंह से नहीं मिला : मिलता तो पोस्ट न लिख पाता।
3.मीडिया बना स्वयम्भू ठेकेदार : रोज टेंडर भर रहा है/ठेके मिल रहे हैं।
4.दिल्ली पुलिस मुख्यालय पर प्रदर्शन: 19 जून, 11 बजे भाग लेंगे कि भागेंगे।
5. तीन दिवसीय ब्लॉगिंग वर्कशॉप …..: जैसे थे वैसे वापस लौटने की गारंटी। :)
6.अंगुलियों का गणित : सिखाया जा रहा है यहां। मुफ़्त में।
7.रेणुका जी का सुझाव बहुत अच्छा है ! : तब तो हो लिया अमल!
8. 2010 तक इंटरनेट एड्रेस खत्म हो जाएँगे?: फिर कोई नया चोचला आयेगा जी।
9.बादलों को घिरते देखा है और यादों का छाता लगाया है।
10.दीना : ज्ञानजी के नियंत्रण कक्ष का चपरासी है। उसको समीरलाल सलाम करते हैं।
11. आपने किया है मर्डर: चलो दफ़ा ३०२ में अन्दर!
12. रोज बदलती दुनिया कैसी...: सोच सोच के मन में खलबली मची है!
मेरी पसन्द
अपनी ज़िंदगी ऐसी
कि जैसे सोख़्ता हो।
जनम से मृत्यु तक की
यह सड़क लंबी
भरी है धूल से ही
यहाँ हर साँस की दुलहिन
बिंधी है शूल से ही
अँधेरी खाइयों के बीच
कि ज्यों ख़त लापता हो।
डा.कुंवर बेचैन
आज बढ़े दिनों बाद ब्लोगनगर में आये और देखा नुक्कड़ पर कानपुरी चचा अभी भी हमेशा की तरह अपना खोमचा लगाये मोहल्ले भर की खबर बांच रहे हैं। धन्यवाद चचा
जवाब देंहटाएंशुक्लीजी, प्रणाम।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर एवं उम्दा प्रस्तुति। साधुवाद।
रोज आया कीजिये जी।
जवाब देंहटाएंअब तो हम भी केवल कविता ही लिखेंगे. आज से बाकी सबकुछ लिखना बंद. अब तो आफिस में बैठे अप्लिकेशन भी नहीं लिखेंगे. कविता ही लिखेंगे...
जवाब देंहटाएंऔर हाँ, अलोक जी से हम भी सहमत हैं. रोज आया करिए..
मैं तो हर दिन चिट्ठा चर्चा में हूँ.....जय हो
जवाब देंहटाएंवाह जी. बस यही चाहिए. आने दीजिये.
जवाब देंहटाएं"मेरी पसन्द" में यदा-कदा गद्य भी ठेला करें! कविता तो अब अझेल जी करने लगे हैं। :)
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया..जारी रहें.
जवाब देंहटाएंये मेरी तरफ़ से..
जवाब देंहटाएंखेत में गोभी का फूल खिला है - तोड़कर उसे अपनी गर्ल फ़्रेंड को दे दो.. :)