मंगलवार, जुलाई 31, 2007

ये क्या कर रहे हो चिट्ठाकारों

यहां मैं एक सवाल उठा रहा हूं. किसी को नाराज करने के लिए नहीं सिर्फ सवाल करने के लिए सवाल उठा रहा हूं.
विभिन्न एग्रीगेटरों पर हाल में जो शीर्षक मुझे दिखे हैं उनमें से कुछ नीचे मैं दे रहा हूं, आप भी पढ़िये-
HONEST BORE VRS SINGAPORE SHOPPERS
maiN bujh gayaa to hamesha ko bujh hi jaaungaa...
DATING VERSUS DATES OF BILLS
Discussion
Colourful paintings - रँग बिरँगी तस्वीरें - Quadri colorati
HONEST BORE VRS SINGAPORE SHOPPERS
O PIYAA
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अब आप बताईये यह सब क्या हो रहा है? क्या यह हिन्दी चिट्ठाकारी के लिहाज से ठीक है? एक तरफ हमारे आलोक भैया हैं नई-नई हिन्दी शब्दावली का श्रृजन करते रहते हैं. अब देखिए आज ही उनकी पोस्ट आयी है शब्दकोष गूगल पट्टी में. और दूसरी तरफ वे लोग भी हैं जिन्हें हिन्दी में शीर्षक देने से भी परहेज हो रहा है.

हम ऐसा क्यों कर रहे हैं?

लो चन्द बातें

शिकार,जंगल औ सूखी धरती

वे लिख रहे हैं ये चन्द बातें

तो कोई तन्हाईयां बस सजाकर

सवाल करते बिताता रातें



कहीं दिशायें सवाल करतीं

तो कोई दुनिया के रू-ब-रू है

यहाँ रफ़ी की है याद जीवित

हैं साथ भूली औ' बिसरी बातें



कमाले शाहरुख जो कह न पाये

वे पूछते हैं, हूँ कौन मैं भी

ये न्यूज चैनल का जो नजरिया,

की हैं बताते असल की बातें



जो चीर देता है हर युवा को

कहां चमकता है बोलो सूरज

कुछ ऐसे लेकर सवाल मन में

पखेरू करता है तुमसे बातें



यों बात तो हैं हजार लेकिन

न वक्त इतना बतायें सारी

यहाँ क्लिक कर अगर पढ़ेंगे

तो पढ़ सकेंगे हज़ार बातें



अगर न मैं ये लिखूँ जनमदिन

तुम्हें मुबारक ओ लाल साहब

न तुम कहोगे कुछ पर ये दुनिया

उठायेगी दस हज़ार बातें

रविवार, जुलाई 29, 2007

एक पतनशील चर्चा

दरअसल चर्चा पतनशील नहीं है जो चिट्ठा आज चर्चा के लिए लिए चुना है वह लेखक द्वारा घोषित पतनशील गद्य है। पर उससे पूर्व सारी पोस्‍टें देखें यहॉं पर और यहॉं पर।



प्रमोद अब जमे जमाए गद्यकार हैं तथा अपने पतनशील साहित्‍य के टैग के तहत वे अक्‍सर पतन को खूब मार्क करते हैं। उनका एकदम नई पोस्‍ट संडे के फंडे और भगवानजी का अज्ञान एक जरूरी किस्म की पोस्‍ट है जिसे पढ़ते हुए अंदर का सुविधाप्रिय इंसान, जो मंथन के पचड़े से बचना चाहता है बार बार कह उठता है कि आखिर क्‍यों लिखा है इस लेखक ने यह। इसके बिना भी तो काम चल रहा था- प्रेम की बात करें मार पीट के बिना भी तो काम चल ही रहा है न। प्रमोद ने क्‍यों लिखा ये तो फ्रेंचेस्‍का ही जानें, उन्‍होंने ही दुनिया के इस हिस्से में प्रेम का इतिहास लिखा है या जाने भगवान जो अज्ञानी है। खैर प्रमोद ने लिखा है और परेशान कर देने वाला लिखा है - आलोक धन्‍वा चिट्ठे पता नहीं पढ़ते हैं कि नहीं इसलिए उन तक तो बात पहुँचने से रही। बाकी कवि बिरादरी को लगेगा कि ये बेबात में लिख दिया किसी पर कीचड़ उछाली जा रही है, भगवान पर भी।



शादी सचमुच जी का जंजाल है. ये है कि बैठे-बिठाये दो वक़्त का खाना मिल जाता है, और लेटे-लेटे दूसरी चीज़ें भी मिलती रहती हैं (अगर मन में औरत के प्रति मितली न पैदा हो रही हो), मगर ज्‍यादा समय तो इसका चिल्‍ल-बिल्‍ल चलता ही रहता है. सत्‍यनरायन की कथा. चुप्‍पै नहीं रहती. गूंगी होती ज्‍यादा अच्‍छा होता?


क्रांति बेहतर जानती होंगी। जाने दो अगर आप अकारण विचालित हो अपना संडे मंडे खराब नहीं करना चाहते, मानते हैं कि परिवार में सब अच्‍छा ही अच्‍छा है तो इस पोस्‍ट को जानें दें, बाकी चाजें पढें और समीर भाई को जन्‍मदिन की शुभकामनाएं दें, बारंबार। एक बार दें, दूसरी बार दें, बार बार दें



एक और पोस्‍ट की चर्चा की जानी जरूरी लगती है वह है अंतर्ध्‍वनि पर नीरज द्वारा निरपेक्ष सोच प्रचार और आम आदमी एक गंभीर किसम का चिंतनपरक लेख जो शब्‍दों की सीमाएं सुझाते हुए इस डगर पर चलने में बरते जाने वाली सावधानियों का संकेत करता है-



ओर अंत में चने के नारियल के झाड़ पर शास्‍त्रीजी देखें




रविवार, जुलाई 22, 2007

एक नई अंतर्लिंकित चिट्ठाचर्चा

हिंदी चिट्ठों की बढ्ती संख्या से हिंदी के देसी पंडित का सवाल पिछले दिनों उठाया गया ! सच है कि चिट्ठाकारी बढेगी तो इसके पाठक के लिए अपनी पसंद के चिट्ठे तक पहुंच पाना मुश्किल होता जाएगा ! चिट्ठाचर्चा जैसे मंचों को अपनी निष्क्रिय भूमिका त्यागकर चिट्ठा- समीक्षा और वर्गीकरण के लिए कमर कसनी होगी ! चिट्ठों की वर्गीकृत करके ही उनकी समीक्षा और चर्चा संभव हो पाएगी ! एसे में चिट्ठाचर्चाकार या चिट्ठा-समीक्षाकार की चयन कुशलता मायने रखेगी और उसका दायित्व बोध भी बढ जाएगा ! हम नहीं जानते कि हिंदी चिट्ठाकारिता भविष्य क्या होगा किंतु अनुमान तो लगा ही सकते हैं न ! और हमारा अनुमान है वर्गीकृत चिट्ठों को विषयानुरूप विशेषज्ञता वाले चिट्ठाचर्चाकार की जरूरत होगी !

तो आइए आज की चिट्ठाचर्चा के बहाने कुछ भविष्य की चिट्ठाचर्चा शैली की प्रेक्टिस हो जाए आज हमने एक नहीं पॉच चर्चाएं की है और हर में केवल दो तीन ही पोस्‍टों को लिया है वर्गीकरण विषय व रुचि के अनुसार है इसलिए नीचे की पॉंच चर्चाओं में से अपनी पसंद की चर्चा पढें और अपनी पसंद की चर्चा पर ही टिप्‍पणी भी करें। पर इस मॉडल पर टिप्‍पणी यहॉं या कहीं भी कर डालें चाहें। चर्चाएं हैं-

कविता की रसधार में कविताई

जहॉं गद्य ललित है कोमल है ललित गद्य

दाग अच्‍छे हैं- व्‍यंग्‍य पोस्‍टें

धड़धड़ फ्राड पर तीरे नजर - तकनीक व चिट्ठाई

पत्रकारिता का भटियारापन और वैज्ञानिक का भटकता मन - विमर्श व चिंतन

पर पहले सारी पोस्‍टों के लिए नारद पर यहॉं देखें, चिट्ठाजगत पर यहॉं देखें, ब्‍लॉगवाणी पर यहॉं देखें।

वैसे हम फोटोब्‍लॉग की कैटेगरी से भी कुछ देना चाहते थे पर फिर सामूहिक संसाधन के इस सामूहिक इस्‍तेमाल की भी बात थी। तो आनंद ले चिट्ठों का और चर्चा(ओं) का।

धड़ाधड़ फ्राड पर तीरेनजर

तकनीकी व चिट्ठाई लेखन में दो मुद्दे और तीन-चार पोस्‍टें। पहले सागरभाई ने एक पोस्‍ट लिखी थी जिसमें क्लिक की गैर ईमानदारी की चर्चा थी- हमारा क्‍या है हो गए प्रेरित और लिख दिया-

दरअसल इन्‍हीं फ्राडों के चलते गूगल अर्थव्‍यवस्‍था पर ही एक संकट सा आ गया है, क्‍योंकि अब विज्ञापनदाता प्रति क्लिक भुगतान करने के स्‍थान पर अब साईनअप या सेल्‍स पर ही भुगतान करने वाले मॉडल को वरीयता देने लगे हैं।

पर ऐसे विषयों पर रविजी को पढ़ने का अपना आनंद है और हम तो कहते हैं कि फ्राड मानें तो मानें पर आपको इन्‍हें पढ़ना चाहिए और एकाध विज्ञापन भी क्लिक कर देखना चाहिए इससे हाथ से हाथ बढ़ा का जज्‍बा पैदा होता है। है कि नहीं- खैर इस विषय पर उन्‍होंने लिखा-

एडसेंस मिसयूज़ का किस्सा तो एडसेंस के आरंभ से ही चला आ रहा है, हालाकि अब हालात काफी कुछ सुधर गए हैं. मुझे याद आ रहा है सात आठ साल पहले का वाकया जब यहाँ रतलाम में भी किसी नेटवर्क कंपनी ने लोगों को किश्तों में पीसी बांटे थे और उन लोगों को इंटरनेट पर कुछ खास साइटों के विज्ञापनों को क्लिक करते रहने होते थे और बदले में बहुत सा पैसा मिलने का झांसा दिया गया था. उनके पीसी को हर हफ़्ते फ़ॉर्मेट किया जाता था ताकि कुकीज वगैरह से पहचान स्थापित दुबारा नहीं की जा सके. शायद तब आईपी पते से पहचानने की सुविधा नहीं जोड़ी गई रही हो.

ओह रतलाम की कंप्‍यूटर क्रांति गूगलफ्राड से आई है :)

दूसरा मुद्दा हुआ है चिट्ठाजगत की दुनिया का जहॉं की जा रही रेटिंग पर तरुण भाईसा ने चंद सवाल उठाए हैं दिक्‍कत दोनों ही रैंकिंग से है। विपुलजी ने भी वहीं पहुँच के जबाव दिए हैं हम प्रतिक्रिया दे आए हैं आप भी जाकर दे आएं। चाहते थे कि कॉपी पेस्‍ट कर यहॉं बता देते कि तर्क की दिशा क्‍या है पर क्‍या करें इन गीकों ने भी न... पता नहीं क्‍या जुगाड़ है कि नकल करता हूँ टेक्‍स्‍ट और होता है लिंक- हम उसी सिद्धांत पर कि भई खुद टाईप तो करेंगे नहीं कह रहे हैं कि जाकर ही देख लें। :)

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जहां गद्य ललित है कोमल है

प्रत्‍यक्षा जी की ने अपने चिरपरिचित काव्यमय गद्य शैली में रात पाली में काम करने वाले मेहनत कशों की जिंदगी को उकेरा है! यहां श्रम से संवेदना के बोझिल होते मन की कथा बखूबी कही गई है श्रम जो है पुरुष का

रेले का रेला , हुजूम का हुजूम विशाल गेट के मुहाने से अजबजाये बाढ की तरह बह आता । साथ साथ आती पसीने ,थकन और ग्रीज़ की खट्टी बिसाई महक । कुछ भीड छिटक कर गुमटी की तरफ सरक आती । कुछ और आगे की टीन टप्पर की दो बेंच वाली चाय दुकान पर जमक जाती । रात पाली के बाद की रुकी ठहरी भीड बडी छेहर सी होती ।

और साथ ही श्रम जो है स्‍त्री का अनचीन्‍हा, अनगिना-

औरत निंदायी निंदायी पानी का ग्लास थामे निढाल आती है बिस्तर पर । रसोई समेटना बाकी है अभी , दही जमाना बाकी है अभी , मुन्नु की आखिरी बोतल बनाना बाकी है अभी । गँधाते फलियों और कपडों के ढेर को सरका कर जगह बनाते औरत सोचती है उसकी रात पाली कब खत्म होगी

हमारी एक और प्रिय गद्यकार बेजी ने कहानी लिखने का पहला प्रयास किया है, अपनी कहानी स्‍मृति की छवि में, कहानी के विषय में कामगार श्रमिक महोदय ने सही ही कहा कि कहानी में ठहराव नहीं है। नारूिकी समख्‍ति की ही तरह कहानी फिसल फिसल बहती है रिदम के साथ-

अपने आप में कोई ऐसे भी खोता है पर स्मृति को किसी चीज़ की परवाह नहीं थी। मस्त और खुश। ना तो उसे बाकी लड़कियों की तरह मेहंदी लगाते, सिलाई बुनाई करते देखा...ना खुद को घंटों शीशा निहारते। कहीं कोई अच्छा गाना सुनती तो थिरकने लगती...हर छोटी बड़ी बात पर खिलखिला कर हँसती....और कभी घंटों खिड़की पर बैठी रहती।

तो ये थी आज की गद्य पोस्‍टों से हमारा चुनी हुई दो पोस्‍टें। वापस मूल चर्चा पर जाने के लिए क्लिक करें।

पत्रकारिता का भटियारापन और वैज्ञानिक का भटकता मन

विर्मशात्मक पोस्‍टों में से मैं दो पोस्‍टों की चर्चा करना चाहूँगा - पहली और वाकई दमदार पोस्‍ट है नीरज रोहिल्‍ला की विज्ञान और प्राद्योगिकी में एक गालीय घोड़े की परिकल्‍पना। क्‍या बात है- सौभाग्‍य से हम चिट्ठाकारों में नीरज, मिश्राजी, लाल्‍टू, शास्‍ती्रजी जैसे संवेदनशील वैज्ञानिक हैं और वे तो इस लेख से जुड़ाव स्‍वाभाविक रूप से महसूस करेंगे ही पर हम भी इस वाकई मौजूं लेखन मानते हैं। खासकर छटपटाहट की अभिव्‍यक्ति -

जिस गति से शोधपत्र छप रहे हैं उसके लिहाज से आप कभी भी विषय पर पूरी जानकारी प्राप्त नहीं कर सकते । आपको कहीं न कहीं रेखा खींचनी पडेगी और अपना मौलिक कार्य प्रारम्भ करना पडेगा ।

तथा

मैने वास्तव में गोलीय घोडों जैसी अवधारणायें मानकर महत्वपूर्ण विषयों पर शोधकार्य होते देखा है । कई बार ऐसी हास्यास्पद परिकल्पनायें वास्तविक जीवन की समस्याओं (Real World Problems) को सुलझाने में सक्षम होती हैं । Pure Science के क्षेत्र में भले ही आपको ऐसी अवधारणाओं की आवश्यकता न पडे लेकिन व्यवहारिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी (Applied Science and Technology) के क्षेत्र में लगभग रोज ही ऐसी अवधारणाओं पर शोधकार्य किया जा रहा है ।

दूसरी पोस्‍ट सेलेब्रिटी पत्रकार रवीश की अपने लेखन के श्रेय को एनडीटीवी की झोली में पटकती हुई पोस्‍ट है।

हिंदी पत्रकारिता अपने भटियारेपन से गुज़र रही है। देखा जाना चाहिए कि क्या यह सब पत्रकारों की नाकामी से हो रहा है। क्या टीआरपी सिर्फ भूत प्रेत से आएगी ? जिस तरह से आजतक ने नकली दवाओं का पर्दाफाश किया उससे टीआरपी, बाज़ार और पत्रकारिता का रास्ता नहीं दिखता? करोड़ों लोगों की ज़िंदगी से समझौता करने वाली नकली दवाईयां। उसे तो दस दिन तक लगातार दिखाना चाहिए। या फिर ऐसी खोजी पत्रकारिता की सीमा है? रोज़ नहीं मिल सकती? रोज़ हासिल करने के लिए भूत तांत्रिकों को लाना होगा?

विमर्श वाल भी पोस्‍टें तो बहुत हैं पर हम कोई तांत्रिक थोड़े ही हैं कि सब बता पाएंगे कुछ मेहनत आप भी करें :)

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कविता की रसधार में

बांझ कौन है ? कविता मान्या जी के भीतरी आक्रोश को उजागर करती कविता है ! इसमें कविता का महीनपन न होकर सवालों की स्थूलता ज्यादा है! यहां कविता का संवेदना संप्रेषण कविता की शैली पर हावी होता दिखाई दे रहा है ! कवियित्री के लिए भावना अहम है उसका प्रदर्शन नहीं ! इस कविता में बांझ ,निपूती जैसे पांपरिक विभूषनणों से नवाजी जाती औरत का दर्द साकार हो उठा है ! यह कबविता समाज पर गहरा व्यंग्य करते हुए जिस सवाल को सामने रख देती है उससे बचल्कर निकल पाना कविता पढ लेने के बाद संभव नहीं ! यह पाठक ही जो तय करेगा कि बांझ का क्या मायना है भारतीय सामाजिक जीवन में-

आज फ़िर दो और वर्ष बीत चुके हैं...

आज 'वह' एक बेटी की गौरवान्वित 'मां' है...

सुहागन, भागन जैसे अलंकार हैं....

और सुना है उसके पहले पति ने....

अपनी दूसरी बीवी को भी...

'बांझ' कहना शुरू कर दिया है....

बोतल जिन्न और शब्द में अभिव्यक्ति के लिए व्याकुल कवि मन के उद्गार हैं ! कवि अन्याय से सामाजिक शोषण से आहत होता है -सबसे अधिक आहत होता है वह संवेदना को अभिव्यक्त न कर पाने से। ओर इसी जिन्‍न को साधने की कोशिश है लेखन-

सोचता हूँ अपने शब्द-लेखन से
कहीं दूर हो जाऊं
बिना पढे मैं कब तक लिखता जाऊं
पर शब्द और बोतल में बंद जिन्न के
बीच मैं खङा होकर सोचता हूँ
मुझे किसी एक रास्ते पर तो जाना होगा
और शब्द हैं कि झुंड के झुंड
पीडाओं को साथ लिए चले आते हैं
मुझे अपने साथ खींच ले जाते हैं

कवितामूलक पोस्‍टों के ही क्रम में युनुस के रोडियोवाणी में चॉंद प्रेरित गीतो का आनंद लें। मूलचर्चा पर वापसी के लिए क्लिक करें

दाग अच्‍छे हैं

हिंदी की चिट्ठाकारी में 'जारी' साधुवाद युग की ही तरह राष्‍ट्रपति भवन में ही ऐसा ही युग जारी था कलाम गए तो राहत की सांस ली गई। बिहारी बाबू और खुलासा कर बता रहे हैं-

अब आप ही बताइए न शुचिता, ईमानदारी, पवित्रता, विद्वता ... औरो न जाने केतना कुछ ... एतना भारी भरकम शब्द सब कलाम से जुड़ल था कि राष्ट्रपति भवन में समाइए नहीं पाता था। परिणाम ई हो गया कि देश का बाकी नेता सब इंफीरियरिटी काम्प्लेक्स से ग्रस्त हो गया था औरो मानसिक तौर पर बीमार रहने लगा था।

हमारे यहॉं तो एक्‍के नेता हैं- समीर भाई और वे चकाचक हैं :)। इस देश के लिए दाग बहुत अच्‍छे हैं- हम सहमत हैं-

दाग अच्छे हैं इसलिए, काहे कि यह पता नहीं चलने देता कि के राजा है, के रंक। काजल की कोठरिया में सब बस काला भूत होता है। अगर कलाम दागी होते, तो दो सूटकेश लेकर राष्ट्रपति भवन से विदा नहीं होते औरो यही तो अखरने वाली बात है! जिस देश में चपरासी का भाई मुखमंतरी बनता हो औरो करोड़पति होकर मुखमंतरी निवास से विदा होता हो... एमसीडी की टीचर मुखमंतरी बनती हो औरो अरबपति होकर मुखमंतरी निवास से विदा होती हो, वैसन देश में कलाम जैसन लोगों होना ठीक नहीं।

व्‍यंग्‍य के हमाम में आज दूसरी पोस्‍ट है एक विश्‍वदीपक की एक हास्‍य कविता

अब हंसने की मेरी बारी है,
बड़ी मुश्किल से ताड़ी है,
थोड़ी रोनी सूरत डालो भी,
हर रोम-रोम खंगालो भी।
तेरे ट्रेंड, गर्लफ्रेंड की महिमा से
तेरा यूँ काया-कल्प हुआ,
लव-लाईफ तो धुमिल हुई हीं
और
शर्ट चेंज करोगे कहाँ कहो,
मेरी नज़रों में मेरे यार अहो-
सक्सेश-परसेंटेज अल्प हुआ।



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शनिवार, जुलाई 21, 2007

काव्यचर्चा बनाम चिट्ठाचर्चा ..

कविताओ‍ से चाहे लोग जितेन्द्र जी की तरह भागे भागे फ़िरते हो‍ और भले ही समीर जी से बात करते हुए हमे पकड कर कविता सुना दिए जाने का डर लगता हो :)पर सत्य यह है कि कविता आज के प्रदूषण के युग में यान्त्रिकता से बचाती है और मानवीय सम्वेदनाओं की रक्षा करती है ।सुनने में बडे बोल लगते है‍ ,यह भी लगता है कि कविता की उपयोगिता क्या है ।गद्य तो विचार का वाहक है ।फ़िर भी न मानें तो परमजीत की यह कविता देखे जो उन्होने
"चीख" लेख से प्रेरितहोकर लिखी -----
कर्ज तो चुकता करो ऐ आदमी
किस्तों मे ही हो भले अदायगी
मर रही तिल-तिल तुझे दिखता नही
इन्सान है या जानवर, तू कौन है
कविता किसी जाति [जाति व्यवस्था वाली नही]की सघनतम और सर्वोत्तम भाषिक अभिव्यक्ति है ।
सारथी पर शानू की कविता यह देखिये ---

फ़िर एक दिन,
अचानकआकर्षित करता है,
अहसास दिलाता है,मुझेअपनी मौजू़दगी का
,एक हल्की सीठोकर खाकर
मै
पुकारती हूँ जब नाम तेरा
अखबार कैसे मुकम्मिल हो सकती है ? पर हादसों से भरा अखबार जब परेशां करता है तो भी कैसे कविता में अभिव्यक्ति लेता है
कोशिश करता हूं
अख़बार के पन्नों में
एक मुकम्मिल अख़बार ढूंढने की
लेकिनहर बारमुझे मिलता है
खून से लथपथएक निकम्मा तंत्र
जिसका हरेक पुर्जा बिकाऊ है।

नाता टूटने का दर्द बयां है रचना सिंह के यहां -
ज़िन्दगी की इस दौड़ मे
टूटा तुम्हारा नाता अच्छाइयों से
और मेरा नाता तुमसे
अफ़सोस नहीं हें
क्यो टूटा मेरा नाता तुमसे
पर बहुत अफ़सोस है
क्यो टूटा तुम्हारा नाता अच्छाइयों से
हिन्द युग्म पर देखिये श्रीकान्त शर्मा कान्त की कविता--
धूप-धूप चलते-चलते
सब झुलस चुकी है काया
फूट चुके हैं पग छाले सब
धीरज भी चुक आया
पथ कंटकाकीर्ण है फिर भी
तू चलता हर्षित मन
फिर भी बहता जीवन

अभिव्यक्ति का भदेस रन्ग मोहल्ला पर नवोदित कवि मे देखिये ।हालांकि इस पर टिप्पणी नही करून्गी कि फ़ेन्स के उस पार की यह भाषा अभिव्यक्ति की क्या दिशा तय करती है पर सही है कि ज़रा रस्‍ता देना भइया हमें विकास की जल्‍दी है

शुक्रवार, जुलाई 20, 2007

एक अलिंकित चर्चा

महाशक्ति पर प्रमेन्द्र प्रताप सिंह लिखते हैं " कुछ दिनों पूर्व देखने में आया था कि कुछ चिट्ठाकारों के द्वारा अप्रत्‍यक्ष रूप से महाशक्ति का बहिस्‍कार किया जा रहा था और इसकी छाप निश्चित रूप से चिट्ठाचर्चा पर दिखती है।"

तो लिंकित मन की एक पोस्ट पर जगदीश भाटिया टिप्पड़ी करते हैं "यहां यह देखना भी जरूरी होगा कि चिट्ठाचर्चा न होने से भी क्या पाठकों में कमी आयी है? इससे मेरी इस भावना को बल मिलेगा कि आने वाले समय में एग्रीगेटरों से ज्यादा चिट्ठाचर्चा का महत्व होगा।"

दोनों ही बातों का केन्द्रीयभाव यह है कि चिट्ठाचर्चा नियमित हो, निष्पक्ष हो, शसक्त हो और सर्वसमावेशक हो. पहले तो मैं प्रमेन्द्र से क्षमाप्रर्थी हूं कि अपनी पिछली दो चर्चाओं के दौरान मैं उनका उल्लेख नहीं कर सका. यह मेरी नासमझी और नादानी है. और संयोग कहें या दुर्योग कि मसिजीवी की चर्चा के बाद लगातार दो चर्चाएं मैंने ही की हैं. इस दौर में कोई नाराज होता है तो इसकी सारी जिम्मेदारी मेरी है. हो सके तो मुझे माफ कर देना प्रमेन्द्र और उन सभी से मैं क्षमा चाहता हूं जिनके चिट्ठों का उल्लेख मैं नहीं कर सका.

हिन्दी चिट्ठासंसार कई मायनों में अनोखा है. यहां दिल की जुबान बोली जाती है. शायद इसीलिए रूठने-मनाने का एक अंतहीन सिलसिला चलता ही रहता है. मानों कोई गृहस्थी है. एक तरफ से सम्भारो तो दूसरी ओर से दरकने लगती है. दूसरी ओर सम्हारो तो तीसरा कोना भसकने लगता है. और यह सब होते हुए भी कोई गृहस्थी का त्याग नहीं करता. शायद इसीलिए गृहस्थी अन्य तीन आश्रमों (ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ, सन्यास) से श्रेष्ठ है.

यह आत्मीयता का परिचायक है. अहिंसा का जन्म इसी भाव से होता है और भारतीय परिवार में इसकी ट्रेनिंग जन्मजात होती है. मां ने खाने में देर की तो रूठकर बैठ गये. बाप ने कोई मांग पूरी नहीं की रूठकर घर से चार कदम दूर जा खड़े हुए. हम इसकी परिभाषा भले न कर पायें लेकिन हम जानते हैं कि अन्न का दाना मेरे पेट में नहीं जाएगा लेकिन तड़प उसे होगी. और अपनेपने का यही भाव हमारे सत्याग्रह का आधार बन जाता है.

यह सत्याग्रह चलता रहे. और केवल गलबहियां ही क्यों कभी मन करे तो तकरार के गरारे का भी आनंद लिया जा सकता है. आखिर हम सबके अंदर शिशुवत कोमल हृदय तो है ही. इष्टदेव की एक कविता इन भावों को ज्यादा सटीकता से बयां करती है कि -

न डरना शेर की दहाड़ से
और बकरी के मिमियाने से डर जाना.
गिर पड़ना आंगन में ठुमकते हुए,
हौसला रखना फिर भी एवरेस्ट के शिखरों पर फतह की.
न समझ पाना छोटी-छोटी बातें और
बेझिझक सुझाना बेहद मुश्किल मसलों के हल.
सूखे हुए पौधों वाले गमलों में डालना पानी,
नोच लेना नए बौर.
रूठ जाना बेबात
और फिर न मानना किसी के मनाने से.
खुश हो जाना ऐसे ही किसी बात से.
डूब जाना किसी भी सोच में,
वैसे बिल्कुल न समझना
दादी किसकी चिन्ता करती हैं बेकार,
दादा क्या सोचते रहते हैं लगातार?

आखिर में एक बात कहे देता हूं, कान खोलकर सुन लो, जाने की बात कभी न करना कोई भी. यहां से जाएं आपके दुश्मन.

क्या कहा?
कौन?
दुश्मन नंबर एक मैं ही हूं....

तो ठीक है यह लो अपनी लकुटि कमरिया, मैं तो चला... नमस्ते...

मंगलवार, जुलाई 17, 2007

हम बोलें भी तो क्या बोलें

चार दिनों तक, हिन्दी के मैं सम्मेलन में गया हुआ था
इसीलिये अब कार्य भार जो जुड़ा हुआ है, निपटाना है
चाहा तो था, समय किन्तु मिल सका नहीं कुछ भी पढ़ने का
इसीलिये चर्चा में मुश्किल हुआ जरा भी लिख पाना है

नारद पर देखें या जाकर चिट्ठा जग को आप टटोलें
हिन्दी के ब्लाग के जाकर डाट काम पर परदे खोलें
जैसे भी चाहें अपनी पसन्द के चिट्ठे जाकर पढ़लें
लिख देते हैं लिखने वाले, हम बोलें भी तो क्या बोलें

सोमवार, जुलाई 16, 2007

भोज-भात और साधुवाद

हिन्दी ब्लागिंग में साधुवाद का युग बीत गया इसलिए मैं आतंकवादी बनना चाहता हूं. मुझे इस ढांढस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि क्या साधुवाद का कोई युग होता है. मैं और मेरी चिट्ठाकारी अक्सर ये बाते करते हैं कि काश ऐसा होता तो कैसा होता, काश वैसा होता तो कैसा होता? क्या खाक होता. सब बेहतर हो रहा है लेकिन जिन्दगी बेहतर नहीं हो रही है. और इसी बेहतरी की खोज में मैं जा गिरा एक दिन अष्टधातु के कुंए में. देखा वहां मेरी टिप्पड़ियों के खिलाफ एक लंबी टिप्पड़ी रखी हुई थी. मैं वापस आ गया फिर से अपनी चिट्ठाकारी की दुनिया में, ढाई आखर प्रेम का लिखने.

अब मैं हे दुखभंजन, मारूति नंदन का जाप करूंगा. हनुमान जी से प्रार्थना करूंगा हे भगवान यहां कोई गांधी जी की धोती न खींचे. इसके बाद भी जो अपनी आदत से बाज नहीं आयेगा उसके लिए सलवा-जुड़ूम की वेबसाईट शुरू हो गयी है. वैसे चिट्ठाकारों के लिए यमदूत का भी आभिर्भाव हो गया है. मुश्किल समय है, चिट्ठाकारों. ढाई आखर प्रेम के सांवरे कब समझोगे तुम. वाली कहावत अब हलक के नीचे उतारना ही पड़ेगा. नहीं तो वे भी कह देंगे कि हर एक बात पर कहते हो कि तू क्या है.

अरे हिन्दीसेवा वाली बात तो भूल ही गये. तो मेरी एक विनती है कि प्लीज हिन्दी की सेवा मत करिए.
न्यूयार्क में जो लोग बैठे हैं वे घर की मुर्गी को विश्वमंच पर प्रतिष्ठित करेंगे. यह भी स्थापित सत्य है कि जैसे घर की रक्षा कुलीन स्त्री से होती है. वैसे ही समाज की रक्षा भाषा से होती है. यह लेख नहीं है, विचार भी नहीं है फिर क्या है? (अन्यथा न लें, खादिम की सीआरपी का मामला हैं.) राखी ने कपड़े उतारे तो आधा देश उधर को हो लिया है. फिलहाल मैं उधर को नहीं जा रहा हूं. मैं उधर को जा रहा हूं जहां खुशी बटोरने का एटीएम लगाया जा रहा है. इसके बाद उस भोज-भात का बचा-खुचा बटोरने पहुंच जाऊंगा जहां कल मसालेदार अरवी भी परोसी गयी थी.

क्या कहा, ज्ञान बघारने के चक्कर में चर्चा टर्चा हो गयी. तो चलिए चार दोस्तों को इकट्ठा कर समवेत स्वर में कहते हैं -

संजय तिवारी शेम शेम

मंगलवार, जुलाई 10, 2007

खादिम, सारा दिन

राकेश जी की संक्षिप्त चर्चा के बाद, अब एक अति संक्षिप्त चर्चा.

तो सत्ते की तिकड़ी बीत जाने के बाद भी संसार कायम है इसलिए अध्याय वहां से शुरू करते हैं जहां शास्त्री जे सी फिलिप की दक्षता पर रश्क किया गया. और इस रश्क पर मुश्क यह कि जे सी फिलिप किताब लिखेंगे. अपनी तरह लोगों को भी सक्रिय बना देंगे. फिर चिट्ठाजगत के सक्रियता क्रमांक का क्या होगा? कुछ नहीं होगा. हिन्दी हैं, हम वतन हैं, हिन्दोस्तां हमारा. अब कोई सवाल उठाये कि क्या हिन्दी के चिट्ठाकार बेकार की चर्चा ज्यादा करते हैं तो जवाब भी वहीं मिलता है- सही है. यह मूल्यवान टिप्पड़ी किसकी हो सकती है, अंदाज लगाईये...... मैंने तो समीरलाल नाम लिया नहीं, आप हर बात के लिए नाहक ही उनपर शक करते हैं. आजकल उनका कार्य बड़े-बड़े आकार ले रहा है. उनको फुर्सत कहां है.

सक्रियता बढ़ी है यह बात सारे पैरामीटर कह रहे हैं. विषयों का विस्तार हुआ है विविधता भी आयी है. किसी ने रपट तैयार की कि ताज के नाम पर देश लुटा तो किसी ने कहा ताज को वोट न देकर क्या तीर मार लिया. बाकी ताज चर्चा के सारे लिंक यहीं मिल जाएंगे. हम क्यों टाईम खोटी करें? वैसे ताज चर्चा से मितली आये और थकान का अहसास हो तो ननिहाल में गरमी की छुट्टियां बिता आइये. क्या कहा, आप नहीं जाना चाहते? यहीं खाट बिछाकर लेटेंगे, बैठेंगे, आराम करेंगे. जरूर करिए. मुझे तो ड्यूटी पूरी करनी है इसलिए आगे चलता हूं.

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर नहीं रहे. चिट्ठाकारों ने अपने-अपने स्तर पर श्रद्धांजली दी. किसी ने उन्हें असहमति की राजनीति में मुखर आवाज कहा तो किसी ने कहा कि उन्हें गुजरात के फाफड़े बहुत पसंद थे. उनके जाने से संसद की सबसे मुखर आवाज खामोश हो गयी है. चंद्रशेखर जी को हमसभी ब्लागरों की ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि.
वैसे इसी आपदकाल में एक आवाज कलकत्ते से मुखर हुई है. उस आवाज ने कहा है कि फुरसतिया जी वहां गये थे, लेकिन जो लौटे वे फुरसतिया नहीं थे. फिर कौन थे? आना फुरसतिया का, जाना एक मित्र का. वैसे राजस्थानवाले भैया ने भी सूचना भेज दी है कि वे फिर आ गये हैं? बड़े दिनों बाद महाशय भी जगह-जगह टिप्पड़ी करते पाये जा रहे हैं. उम्मीद है जल्द ही इनके लेख भी आने शुरू हो जाएंगे. क्या कहा इस विरह पर कविता हो जाए. तो लीजिए दो पंक्तियां इनके चिट्ठे से हाजिर हैं-

नज़रें थक गई, आँखें भर आई।
पर फीर भी वह नज़र न आई॥

कविता में वर्तनी दोष ढूंढ लिया. भाई इसे तो मैंने जस का तस रख दिया है. वैसे हिमाचल में बारिश से जनजीवन अस्त-व्यस्त है इसलिए घूम-फिर कर लौट आये ब्लागरों से अनुरोध है कि हिमाचल न जाएं, बल्कि यहीं से एक दक्ष पत्रकार की तरह समीक्षा करते रहें. फिलहाल चिट्ठाजगत में स्वस्थ बहस का सक्रिय विषय है पूजा का प्रतिरोध फिल्मी है या वास्तविक?

आप बहस में हिस्सा लीजिए, मैं तो चला चंदा जुटाने. मुझे टिप्पड़ियां जो खरीदनी है.
एक मिनट
कौन बोला?
क्या?
पंगेबाज का नाम क्यों नहीं लिया?
अच्छा. बहुत पंगेबाजी करते हो. वह पंगेबाज तो तुम फंदेबाज.
कुछ भी कर लिया जाए ये सुधरनेवाले नहीं है.

चर्चा ये संक्षिप्त रही है

इक तो कुछ है अधिक व्यस्तता
दूजे परेशान मौसम से
इसीलिये चिट्ठों की पूरी
चर्चा भी हो सकी न हमसे

उड़नतश्तरी को देखें या
पढें श्री
रंजन प्रसाद को
बात
कबीरा की कर लें या
छोड़ें हर
फ़ैले विवाद को

जो
बस्ती से बाहर निकले
या जो रचनाकार कहाये
बाकी चिट्ठे यहां देखिये
जिन्हें ब्लागर लिख कर लाये

रविवार, जुलाई 08, 2007

चिट्ठाचर्चा 7X7X7

आज है तो 8X7X7 पर ये 7X7X7 के ही चिट्ठों की चर्चा है, इसलिए इसे ही 7X7X7 चर्चा माना जाए। पिछली चर्चा से अब तक एक पूरी दुनिया बदल चुकी है, हमने पिछली चर्चा में बताया कि एक दिन में 57 पोस्‍ट चिट्ठाजगत ने रिपोर्ट की है तो रविजी ने कहा


Raviratlami कहते हैं:
7/01/2007 4:39 PM
एक दिन में 57 पोस्ट - हिन्दी चिट्ठों के लिखे जाने की गति में त्वरण बढ़ने लगा है. अब एक दिन में 100 के आंकड़े का इंतजार है. देखते हैं कितनी जल्दी पूरा होता है



और लीजिए हो भी गया, अब हालत ये है कि रोज ही सैकड़ा लग रहा है। चिट्ठाजगत के अनुसार कल की पोस्‍टें 119 हैं, नारद के अनुसार और ब्‍लॉगवाणी के अनुसार कितने हैं आप खुद देखें। रविजी का टंबलर या हिंदी ब्लॉग्स पसंद हो तो वहॉं देखें।

हे हे हे कर ये मत कहना कहना कि मात्रा से क्‍या होता है गुणवत्‍ता बताओ क्‍या है। है और भरपूर है। पहले देखें विविधता-
भाषा-साहित्य


हास्य-व्यंग्य

कविता

सम-सामयिक

तकनीक

संगीत-मनोरंजन

फिल्म-टेलिविजन

धर्म

आत्म-विकास

चौपाल

ब्लॉगरी

विविध

समीक्षा

जीवनशैली

खेलकूद

संस्मरण

इधर उधर की

शैयर बाजार

पूंजी-जायदाद

फोटोग्राफी एवं पेन्टिंग

खाना और बनाना

पोडकास्ट

व्हीडियोकास्ट

शिक्षा

सैर-सपाटा


ये भी अभी टेस्टिंग पर है इसलिए एरर400 आ जाए तो मैथिलीजी को गुरर्र मत करने लगना- सहयोग करें, आदमी काम पर हैं।

आप कहेंगे कि इंडेक्सिंग ही करते रहोगे कि चर्चा भी करोगे। तो भई हम तो हाथ खड़े करते हैं- सबकी चर्चा नहीं कर पाएंगे- बहुतो की भी नहीं कर पाएंगे- थोड़ों की करने की कोशिश कर लेते हैं।


पहले वे जिनकी चर्चा मैं नहीं कर रहा हूँ-
पंगेबाज, काकेश, ईस्‍वामी, राहुल, भड़ास, मसिजीवी, अफलातून, ज्ञानदत्‍त, अभय तिवारी आदि ने फिर से नारद वारद के पचखे पर पोस्‍टें या व्‍यंग्‍य लिखें हैं और चूंकि इनके अलावा भी बहुत काम की पोस्‍टें आई हैं तो इन्‍हें छोड़ भी देंगे तो आपका कोई नुकसान नहीं होने वाला- फिर भी लगाई बुझाई पसंद है तो जांए पर ये न कहना कि आगाह नहीं किया था।

अब व पोस्‍टें जिनकी चर्चा मैं कर रहा हूँ- रविजी बता रहे हैं चिट्ठाजगत पर टैग के विषय में, शास्‍त्रीजी भोमियो पर फिर से कुछ बता रहे हैं। नसीर ने समाचार दिया है कला पर हमले का।
कल 7x7x7 थी इसलिए ये चर्चा भी 7x7x7 हुई तो देखें आज की 7x7x7 विषयक पोस्‍टें- नितिन अपनी नजर से अजूबे खोज रहे हैं -7, संजय 070707 बनाम चिट्ठों पर विचार कर रहे हैं। इसी विषय पर ईष्‍टदेव भी कुछ कह रहे हैं देखें।



एक विशेष उल्‍लेख चिट्ठों में हाल में बच्‍चों से संबंधित प्रविष्टियों व चिटृठों की स्‍वागतयोग्‍य उपस्थिति दिख रही है- मसलन केंद्रीय विद्यालय हजरतपुर का चिट्ठा या जाकिर अली का चिट्ठा बालमन....बाकी कहीं जाएं या नहीं यहॉं जरूर जाएं और भरपूर उत्‍साहवर्धन करें। लठ्ठम लठ्ठा तो इंतजार कर सकती है।




बुधवार, जुलाई 04, 2007

आज की भड़भड़िया चर्चा

आज अनजाने में ही एक चिट्ठाचर्चा , हमारी चर्चाकारी से बेहतर, वैसे ही हो चुकी है जो कि हमारे मित्र जगदीश भाटिया ने अपने अनोखे और निराले अंदाज में की है. हम तो उसे ही कट पेस्ट कर देते. परमिशन भी मांगे थे. मालूम भी है वो दे देंगे मगर भारत है, क्या करें. जब तक परमिशन आयेगी-दिन सरक जायेगा, बातें महत्ता खो देंगी. इस लिये बस लिंक दिये दे रहे हैं तो वहाँ तक की चर्चा इस लिंक पर देखें. मजा आने की गारंटी, जगदीश भाई की तरफ से हमारी.

अब आगे बढ़ना ही जिन्दगी है तो हम भी बढ़ें. क्या आपको पता है कि ब्लॉगर पर आप अपने पोल और सर्वे करवा सकते हैं जैसा कि नारद करता है कि आप स्त्री हैं कि पुरुष. बिना इसका ध्यान रखे कि एक वर्ग और है. चुनाव तक लड़ने का अधिकार है मगर नारद पढ़ने का नहीं. खैर, उसे छोड़ें. हरि इच्छा के आगे क्या कहें. मगर ऐसे पोल आप कैसे कर सकते हैं बता रहे हैं अंकुर भाई . सीख गये और आसमान पर नजर दौडाई और रोज की तरह आज भी आज की शायरी और सामान्य ज्ञान प्राप्त किया. आज, आज के विचार की कमी खली, आदत जो पड़ गई है. वैसे, यह मात्र प्रस्ताव है कि अगर यह तीन दैनिक पोस्टों को एक कर दिया जाये और शीर्षक रहे-आज का विचार, शायरी और सामान्य ज्ञान. तो एक ही क्लिक में काम चल जाये और नारद के संसाधनों का भी उपयोग सभी के द्वारा बराबरी से हो सके. यह मात्र आज का हमारा विचार है, बाकि जैसा आप उचित समझें.

अनिल जी की रचना विड्म्बना देखें-सव, एक सुन्दर रचना है. और भी दुर्लभ चीज देखना हो तो सागर भाई हेमंत दा का दुर्लभ गीत सुना रहे हैं और अमित दुर्लभ चित्र दिखा रहे हैं. चाहे कुछ देख दिखा लो, मगर कमलेश भाई का डिक्लेरेशन कि मैं भी इंसान हूँ देखना न भूलना. हमने न सिर्फ देखा बल्कि टिपियाया भी है. :) अब ध्यान रखते हैं.

अनिल रघुराज जी की लेखनी के तो हम व्यक्तिगत तौर पर कायल हैं और आज उस पर और मुहर लग गई जब उन्होंने क्यूबा के कास्त्रो के विचार हिन्दी में लिखे यह कहते हुये कि आत्मा जैसे होते हैं विचार . आज पहली बार पढ़ा और दिनेश पारते जी ने तो मानो लुट ही लिया-क्या रचना है!! हम तो पूछने वाले थे कि क्या भाई, आपने ही लिखी है?? गजब भाई गजब- आकांक्षा मानकर चले कि उन्होंने ही लिखी है तो उसका कुछ भाग यहाँ न दें तो पाप कहलायेगा, सच में:

हे कृष्ण मुझे उन्माद नहीं, उर में उपजा उत्थान चाहियेअब रास न आता रास मुझे, मुझको
गीता का ज्ञान चाहियेनिर्विकार निर्वाक रहे तुम, मानवनिहित् संशयों परकिंचित
प्रश्नचिन्ह हैं अब तक, अर्धसत्य आशयों परकब चाह रही है सुदर्शन की, कब माँगा है
कुरुक्षेत्र विजयमैने तो तुमसे माँगा, वरदान विजय का विषयों परमन कलुषित न हो,
विचलित न हो, ऐसा एक वरदान चाहियेमुझको गीता का ज्ञान चाहिये



.....पूरी रचना यहाँ पढ़ें . वाह, बधाई, मित्र. उनकी पुरानी रचनायें भी पढ़ें.

लिखे तो राजीव रंजन जी भी चाँद पर बेहतरीन क्षणिकायें हैं मगर कोशिश करके भी हम टिपिया नहीं पाये, पता नहीं क्या समस्या है.

रचनाकार ने बेहद नाजुक कहानी विजय शर्मा जी की सुहागन सुनाई, हम तो ऐसा खोये कि टिपियाना ही भूल गये, जो अभी देख पाये. माफ कर देना भाई, चर्चा के बाद कोशिश करते हैं.

राजेश पुरकैफ भाई
से बारिश के मंजर की एक अलग तस्वीर देखें-हमने कह दिया है: किसी की मस्ती, किसी की उजड़ी बस्ती चन्द्र भूषण जी ने कहा लट्ठलट्ठे का सूत कपास-शीर्षक देख कर पढ़ना शुरु किया और पहली लाईन देख कर बंद-आपका दिल करे तो पढ़ें . मेरी मंद बुद्धि है, गहराई समझ नहीं पाता. मगर अधिकतर चंद्र भूषण जी लिखा पसंद करता हूँ तो बता दिया.

सब चुप रह जायें तो भी मेरे भाई मसिजीवी न चुप रहेंगे, तो उनकी सुनो चिट्ठाजगत की गोपनियता पर ....


अभी यही रुकते हैं, वादा है कि कल सुबह आगे की कवरेज दूंगा बिना नागा.....जरा, हड़बड़ी में भागना पड़ रहा है....कोई भी कुछ न सोचे मैं वापस आ रह हूँ...क्षमा मित्रों.

मंगलवार, जुलाई 03, 2007

गागरी भर तॄषा , आंजुरि तॄप्ति की


गागरी भर तॄषा, आंजुरि तॄप्ति को

भेजा तुमको नेह निमंत्रण चिट्ठे पर टिपियाने को
हे मानस के राजहंस, तुम भूल गये पर आने को

नातों का आभास कभी बहलाता कभी दुखाता है
और यहां हम लाये हैं कुछ गज़लें तुम्हेम सुनाने को

मिले न जिनको छंद गीत वे कैसे फिर बन पायेंगे
मुट्ठी भर अक्षर हैं केवल पन्नों पर बिखराने को

अब हम क्या बतलायें देखें खुद ही आप वहां जाकर
लाये हैं आलोक पुराणिक किसको हूट कराने को

आतुर होता रहा आदमी, वो भी कविता बन जाये
फ़ुरसतियाजी किसको लाये मुलाकात करवाने को

पांच मिनट में क्य हो सकता है इसको पहचानो अब
जायें आप सारथी पर अपना भंडार बढ़ाने को

यों तो चलती रहे ज़िन्दगी फूलों पर, कांटों में भी
तेरे ख्याल सदा हैं काफ़ी, इस दिल के बहलाने को

खोना-पाना ये दोनों इक सिक्के के दो पहलू हैं
अगर समझ लें फिर न बचेगा कुछ खोने या पाने को

काफ़ी, काकटेल या पानी, अलग तरीके पीने के
आओ खोजें नये सलीके, कुछ खुद को सिखलाने को

एक कहानी रही दुलारी, तो हैरानी और हुई
तो कोई आया है चल कर अपना गीत सुनाने को

हो कबीर की वाणी या फिर गीत सुनहरा हो कोई
भाई लोगों का जमघट लगने वाला बतियाने को

जो बीमारी रही भूख की जिस को भी या तिस को भी
जायें तरकश पर अपना पूरा इलाज करवाने को

उड़नतश्तरी, फ़ुरसतियाजी, गीतकलश, दिल का दर्पण
खुली छूट है जायें चाहे जिस पर, पढ़, टिपियाने को

कमी समय की रही इसी से चर्चा उनकीहो न सकी
बुला हमें जो लाये चिट्ठे की चर्चा करवाने को






रविवार, जुलाई 01, 2007

ये च्‍वाइस का मामला है

रविवार का अलमस्‍त खाली दिन है इसलिए दिन की शुरुआत एक ऐसे नाश्‍ते से होनी चाहिए जिसमें आप चुनें कि क्‍या लेंगे। च्‍वाइस का दिन रविवार। तो जाहिर है पढ़ने के लिए भी च्‍वाइस दरकार है। यूँ तो हम चाहेंगे कि आप सब कुछ पढ़ें पर ऐसा न तो अब होता है न हो सकता है इसलिए हम आपके सामने पेश करना चाहते हैं च्‍वाइस। तो सबसे पहले तो ये लें- कल की सारी पोस्‍ट पढ़ने की च्‍वाइस- नारद से पढ़ना चाहें तो यहॉं पढ़ें (कुल 49 पोस्‍ट) और यदि पचखा मुक्‍त एग्रीगेटर से पढ़ना चाहें तो चिट्ठाजगत से यहॉं पढ़ें (कुल 57 पोस्‍ट) (ध्‍यान रखें कि ये अक्‍सर सर्वर डाउन पाया जाता है, हमें दोष न दें, टीथिंग प्राब्‍लम हैं, सहयोग करें) वैसे हिंदी ब्‍लॉग्‍स भी है और रविजी का टंबलर भी च्‍वाइस में पर ये दिनांक के अनुसार वर्गीकरण नहीं करते।

अगर आप चिट्ठाकार मिलन पर कुछ पढ़ना चाहें तो च्‍वाइस है कि हमारे यहॉं जाकर दिल्‍ली मीट की बात करें या सत्‍य की घाटी में जाकर उमाशंकरजी के साथ इस बैठक का एंजेंडा तय करें या फिर चाहें तो फुरसतिया जी के चिट्ठे पर जाकर बाकायदा एक मीट का वर्णन पढ़ें । तस्वीरें टंडनजी पहले ही दिखा चुके हैं। यक्ष अनुत्‍तरित प्रश्‍न रहा



डा.टंडन ने सवाल दागा- आप इतना लिखने की फ़ुर्सत कैसे निकाल लेते हैं?
हमारे पास कोई जवाब न था। हमने मुस्करा के बात टालने की कोशिश की लेकिन उसी घराने के सवाल वे बराबर उछालते गये।



अगर भाषाबाजी करनी हो, भाषाखोरी करनी हो सिर्फ भाषावाद करना हो तो आपके पास कुछ च्‍वाइस हैं मसलन आप प्रमोद के साथ सुकुमार हिंदी की सवारी कर सकते हैं, मोहल्‍ला में इस भाषा की बीमारू होने पर चल रही बहस में हिस्‍सा ले सकते हैं, लाल्‍टू के यहॉं इस भाषा में लिखने की उनकी परेशानियॉं सुन सकते हैं, हरिराम के यहॉं वाक्‍यांश कोश की जरूरत पर विचार देख सकते हैं और नहीं तो ज्ञानदत्‍तजी द्वारा भाषा का खतम इस्‍तेमाल देख सकते हैं। यानि इस मामले में आपके पास च्‍वाइस ही च्‍वाइस है।



• हिन्दी वाले खतम हैं.
• अरुण अरोड़ा खतम पन्गेबाज हैं.
• फ़ुरसतिया एकदम खतम ब्लागर हैं.
• समीर लाल की टिप्पणियां खतमतम होती हैं.
• अभय तिवारी ने अछूतों पर एक खतम शोध किया है.
• इन्फ़ोसिस के नारायणमूर्ति एक खतम व्यक्तित्व हैं.
• आप बिल्कुल खतम आदमी हैं.


लगता है पंगाशास्‍त्र पढकर इन्‍होंने कई लागों से एकसाथ पंगे ले लिए हैं।

पर असली च्‍वाइस तो है कविता पढ़ने में- दीपक की कविता रंग बदलता सौंदर्य महसूसें या फिर योगेशजी के यहॉं झुलसा कबीर पढ़ें



अपनी किस्मत, अपना हिस्सा,
सबका अपना अपना किस्सा,
कोई बडी जमीं का मालिक
कोई बोये बिस्सा बिस्सा,

बिरहन भक्तिन श्रेयार्चन की कविता कान्‍हां के भावों में खो जाएं, मान्‍या की कविता तुम्‍हारा आईना हूँ मैं पढ़ें जहॉं (भी) समीर ने 'सुंदर कविता' टाईप टिप्‍पणी की है। हिंद युग्‍म गुरनाम सिंह जी की भी कविताएं हैं।

पर ये सब आपके लिए राईट च्‍वाइस नहीं रहीं हैं क्‍योंकि आप गीकटाईप हैं या बनना चाहते हैं तो आप जाहिर है तकनीक पर नजर डालेंगे तो हुजुर मेरे झोले में आपके लिए भी काफी च्‍वाइस हैं- आप फिलिप महोदय के यहॉं चिट्ठाचोरों से बचने के उपाय देखें या देखें कुछ मुक्‍त साफ्टवेयर आई फोन पर राजेश को सुनें, देवाशीष नए वर्डप्रेस की समीक्षा कर रहे हैं और वर्च्‍युल टीम्स पर ईस्‍वामी कर रहे हैं चर्चा।

अब च्‍वाइस देखने और न देखने की। सबसे पहले फिर से पूछा गया कि चिट्ठाजगत देखा कि नहीं, फिर सुजाता ने कहा कि अनदेखा करें... फिर थोड़ी ही देर में कहा कि अनदेखा न करें- शास्‍त्रीजी ने सही ही कहा है कि ये अनदेखा करें...कहना ठीक नहीं है। वैसे ठीक तो ये भी नहीं है कि बिजली बेकार यूँ ही जलती रहे। पर ये आपको पंकजजी के यहॉं जाकर ही देखना पड़ेगा क्‍योंकि हमारे यहॉं तो उनका ये लिंक आज खुल नहीं रहा।

कुछ देखने की भी च्‍वाइस हैं- प्रतिबिंब पर, मिश्राजी के यहॉं भी पर हम दिखा रहे हैं एक तस्‍वीर हनुमानजी के ऑंसू रविजी के यहॉं से।





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