बुधवार, जनवरी 31, 2007

गाँधीजी का न्यासिता (ट्रस्टीशिप) संबंधी सिद्धांत

गाँधी जी पुण्य स्मरण करते हुये आज की चर्चा प्रारंभ कर रहा हूँ.

१२ जनवरी से शुरु हुई जद्दो जेहद को आज अंजाम पाते देख खुशी से आँख छलक आई. इसे कहते हैं कि अगर जज्बा हो तो मंजिल पाने से( या मंजिल पर वापस लौटने से) कोई नहीं रोक सकता. भाई श्रीश शर्मा उर्फ पंडित जी १२ तारीख से विचारे, फिर वर्ड प्रेस को विदा कहे, फिर नये घर आकर( मात्र चार पोस्टों में) ही माने. बधाई, नये घर की. हम तो बीच में हिम्मत हार ही बैठे थे कि बंदा अब यही सब लिखता रहेगा, कि जा रहा हूँ, जाऊँ कि न जाऊँ, अब चल पड़ा हूँ, अब रास्ते में हूँ, अब रास्ता भूल गया हूँ. मगर नहीं, हिम्मती पंडित जी पहुँच ही गये ब्लागर धाम. बधाई. लड्डू बंट रहे है और बताया जा रहा है कि नये और पुराने घर में क्या अच्छा है और क्या बुरा. बधाई, भाई, बधाई.

हम तो बधाई दे रहे हैं मगर जीतु भाई को देखो, क्या नेक सलाह दे डाली:

अब तुम्हरा का कहें, इधर उधर भटक रहे हो बार बार, लगातार। अब कल को कोई तीसरा कुछ नयी चीज लगाएगा तो वहाँ टहल जाओगे? तुम्हारा हाल अगर नटशैल मे कहा जाए तो फिल्म खून भरी मांग वाले कबीर बेदी की तरह हो गया है।
रेखा------>सोनू वालिया------->रेखा
अपने घर मे जाओ, सबसे ज्यादा सुखी। पूरी आजादी, लेकिन जिम्मेदारी बढ जाती है। खैर, भैया, कभी ना कभी तो घर बसाना ही पड़ता है, आज नही कल, कभी ना कभी तो मोह भंग होगा ही इस ब्लॉगर से भी।



उधर हमारे फुरसतिया जी भी जनता की भारी मांग पर हाथ मुँह धोकर बेहतरीन नयी पोस्ट लेकर आये हैं: गाँधी जी, निराला जी और हिंदी पोस्ट लंबी होने के बावजूद एक सांस में पढ़वाने की काबिलियत रखती है.


निराला जी विलक्षण, स्वाभिमानी व्यक्ति थे। वे जिन लोगों का बेहद सम्मान करते थे उनसे भी अपनी वह बात कहने में दबते न थे जिसे वे सही मानते थे। किसी का भी प्रभामंडल उनको इतना आक्रांत न कर पाता था कि वे अपने मन की बात कहने में हिचकें या डरें।


आगे निराला जी कि गांधीजी से बातचीत बता रहे हैं:


महात्माजी ने पूछा-”आप किस प्रांत के रहनेवाले है?”
इस प्रश्न का गूढ़ संबंध बहुत दूर तक आदमी को ले जाता है। यहां नेता,राजनीति और प्रांतीयता की मनोवैज्ञानिक बातें रहने देता हूं, केवल इतना ही बहुत है, हिंदी का कवि हिंदी-विरोधी बंगली की वेश-भूषा में क्यों?
मैने जवाब दिया-” जी मैं यहीं उन्नाव जिले का रहनेवाला हूं।”
महात्माजी पर ताज्जुब की रेखाएं देखकर मैने कहा-”मै बंगाल मे पैदा हुआ हूं और बहुत दिन रह चुका हू।”
महात्माजी की शंका को पूरा समाधान मिला। वह स्थितप्रज्ञ हुए, लेकिन चुप रहे; क्योकि बातचीत मुझे करनी थी, प्रश्न मेरी तरफ़ से उठना था।


आगे आप उनकी पोस्ट पढ़ें .

सृजन शिल्पी जी जहाँ अपने चिट्ठे की वर्षगांठ मना रहे हैं, वहीं एक शानदार पोस्ट भी लेकर आये हैं गाँधी जी ट्रस्टीशिप के सिंद्धांत पर और आप सब से आव्हान कर रहे हैं :


गाँधीजी के न्यासिता संबंधी सिद्धांत का एक नया व्यावहारिक मॉडल भी मैंने तैयार किया है, जो किशोरलाल मश्रुवाला और नरहरि पारीख द्वारा तैयार किए गए और कुछ संशोधनों के साथ स्वयं महात्मा गाँधी द्वारा अनुमोदित सूत्रों पर आधारित है। इससे पहले कि मैं आपके समक्ष न्यासिता का वह मॉडल पेश करूँ, बेहतर होगा कि हम न्यासिता के सिद्धांत और उसके अर्थशास्त्र को गाँधीजी के शब्दों में ही ठीक से समझ लें। गाँधीजी अपनी बात को सरलतम शब्दों में व्यक्त करते थे, इसलिए उसकी अलग से व्याख्या करना मेरे ख्याल से आवश्यक नहीं है।
मेरा आपसे अनुरोध है कि न्यासिता के इस सिद्धांत के बारे में आप अपनी राय से जरूर अवगत कराएँ और यह भी बताएँ कि क्या आप इस सिद्धांत को अपने जीवन में किसी हद तक व्यवहारिक रूप से अपनाने लायक मानते हैं।



अभी इनकी वर्षगांठ की दावत उड़ाकर निकल ही रहे थे कि जीतु भाई का सालाना सिरियल का अंक देखने को मिला. जिसका गतांक आज से ठीक एक वर्ष पहले आया था, इस अंक में वो अपने वीजा के झमेले के बारे में बता रहे हैं. आशा की जा रही है, कि इसका अगला अंक जल्द ही लाया जाये, वरना पहले वाला तो भूल ही जाते हैं और फिर से पढ़ना पड़ता है. अच्छा लगता है क्या ऐसे जुल्म करते हुये.

कल और परसों के चिट्ठा चर्चा पर प्रेमलता जी टिप्पणी देखकर मुझे लग रहा है कि कोई उनके नाम से टिप्पणी कर गया है. अन्यथा जिन प्रेमलता जी को मै जानता हूँ, उन्होंने तो मुझे निरुत्साहित करने वाली कविताओं को छोड़ उत्साहपूर्ण कविता लिखने की ओर मोड़ा था. अरे भाई, ऐसा मजाक मत करो आप लोग. इतना बेहतरीन चल रहा है ज्योतिष पर जानकारी का सिलसिला. वैसे एक बात जरुर कहना चाहूँगा कि किसी भी चिट्ठाचर्चाकार का यही प्रयत्न होता है कि अधिक से अधिक चिट्ठों के बारे में लिखे और मै नहीं समझता कि कोई भी किसी को जानबूझ कर नजर अंदाज करता है. नारद पर भी सब कुछ स्वचालित है, मगर किन्हीं कारणोंवश कभी कोई पोस्ट आते ही पिछले पन्नों पर चली जाती है और अगर आप मेरा चिट्ठा पढ़े तो मेरी पिछली पोस्ट की शुरुवात मैने इसी मुद्दे को लेकर की थी. राकेश खंडेलवाल जी भी इन परिस्थितियों से गुजर रहे हैं और परेशान भी रहे. मगर हम सब समझ रहे हैं कि किन्हीं तकनिकी कारणों से ऐसा हो रहा है. आशा है प्रेमलता जी, अगर वाकई उन्होंने यह टिप्पणियां की हैं तो, अपने फैसले पर पुनर्विचार करेंगी और अपने बेहतरीन लेखन को जारी रखेंगी. कभी हमने आपकी बात मान कर निराशावादी कविता लिखना कम कर दिया था तो आज आप हमारी बात मान कर लेखन जारी रखें, यही गुजारिश है. :)


हमेशा की तरह हमारे नितिन हिन्दुस्तानी जी दो दो ज्ञान की बात बता रहे हैं, एक तो ब्लागर में लेबल कैसे लगायें साइड बार मेनु बनाने के लिये और दूसरा अपने चिट्ठे की गूगल रेकिंग कैसे चेक करें. हम कर आये, बताने लायक नहीं है. बस ४ है इसलिये नहीं बता रहा हूँ. :(

इसी तरह की ज्ञानधारा आशीष जी अंतरीक्ष की जानकारी दे देकर बहाये हुये हैं और हम भी हर बार उन्हें उत्साहित करके इसी में फंसायें है और इसमें हमारा साथ देने टिप्पणी सम्राट संजय भाई और माननीय फुरसतिया जी भी जुटे हैं ताकि कहीं वो अपनी हंसी मजाक वाली पोस्ट पर वापस न आ जायें वरना हमें कौन पढ़ेगा. जब तक वो वहाँ उलझे हैं, सोचता हूँ अपनी आठ दस पोस्ट सटका देता हूँ. आशीष भाई, बहुत अच्छी और ज्ञानवर्धक जानकारी दे रहे हो, लगे रहो, साधुवाद.

रचना जी ने भारतीय राजनीतिक परिदृष्य दिखाया तो आँखें खुली रह गई और तब तक महाशक्ति एक और गजब की खबर लेकर भागते चले आये कि सास को लेकर दामाद भाग गया. लेकिन इस बात का राजनीति से कुछ लेना देना नहीं है, यह पहले बता दिया जा रहा है.

वाह वाह, रवि रतलामी भाई भी क्या खबर लायें हैं, इंडीब्लॉगीज़ 2006 पुरस्कारों के लिए नामांकन प्रक्रिया प्रारंभ हो गई है. अब चहल कदमी शुरु करना पड़ेगी. अभी तो पिछली थकान नहीं उतरी.


इंडीब्लॉग़ीज - भारत के पहले, और असली (माइक्रोसॉफ़्ट इंडिक अवार्ड की तरह नक़ली नहीं, जिसे ईनामों की घोषणा तो की, परंतु ईनाम अब तक नहीं दिए!) इंडिक ब्लॉग पुरस्कार वर्ष 2006 के लिए नामांकन प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है. भारतीय भाषाओं के चिट्ठाकारों को इंडीब्लॉगीज़ पुरस्कार प्रदान करने का यह लगातार चौथा गौरवशाली वर्ष है, जिसे पुणे स्थित सॉफ़्टवेयर सलाहकार देबाशीष चक्रवर्ती अंजाम दे रहे हैं.


बाकी प्रक्रिया और अधिक जानकारी के लिये यहाँ देखें.

अफलातून जी ने बताया गांधी-सुभाष: भिन्न मार्गों के सहयात्री के विषय में और अनुराग जी बोले कभी भी प्लास्टिक के बर्तन में रख कर माइक्रोवेव में खाना ना गर्म करें। स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। सिर्फ चीनीमिट्टी के बर्तनों का ही प्रयोग करें।

मना तो कर गये तब रा.च. मिश्र जी पूछे- क्यों और कैसे? तब से अनुराग मिल नहीं रहे हैं.

मनीष जी अब गीतमाला की ११ वीं पायदान तक पहुँच गये हैं, सुनें मधुर संगीत.

प्रतीक भाई तो हमेशा से एक से एक तस्वीर लाते रहे हैं, देख तो सभी लेते हैं मगर कुछ टिप्पणी करने में जरा शरमा से जाते है, कभी डर से तो कभी, हाय, लोग क्या कहेंगे. उसी तर्ज पर आज बेनजीर भुट्टो की नये अंदाज की तस्वीर लायें है. हमने देख ली है और टिप्पणी नहीं की, यही सोचकर- हाय, लोग क्या कहेंगे.

राजसमुन्द वाले जीतु भाई ने एप्पल के आई फोन की कथा सुनाई.

आज ज्यादा कविता नहीं हुई मगर जो हुई हैं वो बड़ी उच्च कोटि की हैं, एक तो गीतकार की कलम से : मौन की अपराधिनी और दूसरी, मै प्रतीक्षित-कोई तो हो:


जानता हूँ स्वप्न सारे शिल्प में ढलते नहीं हैं
यज्ञ-मंडप में सजें जो पुष्प नित खिलते नहीं हैं
कल्प के उपरांत ही योगेश्वरों को सॄष्टि देती
औ' उपासक को सदा आराध्य भी मिलते नहीं हैं

किन्तु फिर भी मैं खड़ा हूँ, दीप दोनों में सजा कर
कोई तो आगे बढ़ेगा, आज मैं आवाज़ दूँ जब


२७ जनवरी २००७, संयुक्त राज्य अमेरिका की सिएटल नगरी में डा बृजेन्द्र अवस्थी को श्रद्धान्जलि देते हुए कार्यक्रम "कुछ संस्मरण कुछ स्मृतियाँ - महान राष्ट्रकवि डा बृजेन्द्र अवस्थी" का आयोजन किया गया। इसकी रिपोर्ट पेश की निनाद गाथा पर भाई अभिनव शुक्ल जी ने.

आज की चर्चा में बस इतना ही. जो चिट्ठे चर्चा से रह गये हों, उनसे क्षमा प्रार्थना. आप यहाँ टिप्पणी के माध्यम से भी अपनी प्रविष्टी की सूचना दे सकते हैं, यकिन मानिये लोग टिप्पणियां भी बड़ी दिलचस्पी से पढ़ते हैं, जब भी आ जाती हैं तब!!!

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मंगलवार, जनवरी 30, 2007

मध्यान्हचर्चा दिनांक : 30-01-2007

संजय लैपटॉप पर चिट्ठा-दंगल का हाल देख रहे थे तो दुसरी ओर धृतराष्ट्र भी अपनी कोफी क आनन्द लेते हुए चर्चा के शुरू होने कि प्रतीक्षा कर रहे थे.

धृतराष्ट्र : बताओ संजय, क्या दिख रहा है? सब कुछ शांत है या एक दूसरे से उलझे पड़े है?

संजय : सभी लिखने में व्यस्त लग रहे है, हाँ इन दिनो गाँधी पर ज्यादा लिखा गया तथा आसार है की अभी यह क्रम जारी रहेगा.

धृतराष्ट्र : ठीक है. फिलहाल कौन-क्या-कहाँ-कैसा लिख रहा है?

संजय : दिवंगत कमलेश्वरजी पर घड़ीयाली आँसू बहाए जाने की पेज-थ्री खबर दे रहे हैं, अभिषेकजी.

वहीं नेताओ की भूल से विभाजन के शिकार अनाम शहीदो पर आँसू बहने के लिए कह रहे है, जोगलिखी.

अनूप भार्गवजी भी दुःखी हैं, दो राजनैतिक दलों के बीच राजघाट पर झगड़ा हुआ तो लगा गाँधीजी की दुसरी हत्या की जा रही है.

धृतराष्ट्र : गाँधी के नाम को जितना भूना सको भूना लो. गाँधी नाम की माया है...

संजय : इसे ही कहते है हरि से बड़ा हरि नाम. यह कहना है समीरलालजी का.

धृतराष्ट्र : सभी ओर हाय-हाय मची हुई है या कोई प्रेम की बात भी कर रहा है. कवियों को देखो. आदमी प्रेम में कवि होता है या फिर कवि ही प्रेम के गीत गाता है.

संजय : कवियों से पहले, जो कह ना सके वह सुनीलजी बता रहे है, प्रेम की परिभाषा. एक सुन्दर चित्रकारी जिसे अश्लील समझा गया था, उसमें दरअसल प्रेम का दर्शन छुपा हुआ है.

वहीं लगता है, सुरेशजी प्रेम की शुरुआत प्रेमपत्र से करना चाहते है. सुनिये उनसे प्रेमपत्र की परिभाषा.

प्रेम-पत्र की बात सुन अनुभवी नज़ीर अकबराबादी भी कह उठे क्या दिन थे यारों.

मगर सावधान कवि जहाँ पिता के रूपांतरण को देख सकते हैं वहीं कवि आपको अवसादग्रस्त भी कर सकते है.

धृतराष्ट्र : यह अवसाद हमें घेर लेगा, यहाँ से आगे बड़ो.

संजय : जी, महाराज. आप लिनेक्स बनाम वीस्टा एवं मैकिन्टॉश की तुलना देखते हुए हरी धनिया ताजी रखने का नुस्खा देखें.

मैं होता हूँ लोग-आउट.

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आज चिट्ठों की चर्चा शुरु जो करी,
सोच में पड़ गया कि कहां से करूँ
किस को छोड़ूँ, किसे मैं समेटूँ यहाँ
और किसको कहाँ पर उठा कर धरूँ
एक चिट्ठे पे कोई नहीं पोस्ट है
लिख के ये पोस्ट वो कर गये देखिये
और जिसने लिखीं तीन टुकड़ों में है
आप बतलाईये,उसका मैं क्या करूँ

जो न जाना कभी छंद को काव्य को
खुद को अच्छा कवि वो बताने लगा
मिल गये राह में जब प्रतीक एक दिन
बन के अवसाद उनको सताने लगा
काव्य की राह का वो भगत सिंह बने
निर्णय् पांडेय जी ने लिया अंत में
उस घड़ी से कहानी की बाजीगरी
का सितारा गगन जगमगाने लगा

जगमगाते हुए ढेर तारे लिये,
यान पर ले चले साथ आशीषजी
और मन को लुभा ले जो वो साथ में
ले के आये हैं दो दो ये तस्वीर भी
जोगलिखी खबर ये भी आई यहाँ
इक नया शब्द का कोश उपलब्ध है
और अपना किचन लाये जर्मन,क्षितिज
पकती टर्की जहां पर मलाई भरी

जिनका तकनीकियों से न परिचय अधिक
लाये हैंउनकी खातिर नितिन कुछ नया
अपने चिट्ठे पे लेबल् लगा लीजिये
काम सारा ये झटपट ही पूरा हुआ
काम अब शेष नारद के जिम्मे रहा
किसको किस पॄष्ठ पर वो सजा कर रखे
अब चलूँ मैं भी शुभ रात्रि कह आपको
आज चर्चा का यह काम पूरा हुआ.


आज की टिप्पणी: मेरा हिन्दी चिट्ठा पर


बनवारी ही गया इस दुनिया से, ऐसा जान पड़ता है. नई ब्लाग की कोई सूचना तो दिख नहीं रही. :)अब आपसे मिलने के पहले हवलदार को साथ लायेंगे, ऐसा तय पाया गया है. :)
By उडन तश्तरी, at 11:57 PM


आज की फोटॊ:-

क्योंकि हर कोई बर्फ़ और सर्दी की बात कर रहा है


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सोमवार, जनवरी 29, 2007

अंतर्जालीय चेंगड़ों का दिवंगतों को श्रद्धा सुमन


भारत के सृजनाकाश के कुछ चमकते सितारे पिछले दिनों अस्त हो गए. हिन्दी साहित्य के - डॉ. ब्रजेन्द्र अवस्थी का इंतकाल पिछले हफ़्ते हुआ. इधर महान साहित्यकार, संपादक व पत्रकार कमलेश्वर के इंतकाल की खबर आई ही थी कि भारत के एक महान संगीतकार ओ.पी.नैयर के स्वर्गवास की खबर आई. चिट्ठाचर्चा की ओर से दिवंगतों को श्रद्धा सुमन.

ओ.पी.नैयर को अपने चिट्ठों के माध्यम से श्रद्धासुमन अर्पित कर रहे हैं - मनीष, नीरज, और जगदीश

बड़े दिनों बाद लाल्टू नजर आए नेवला लेकर. उम्मीद करते हैं कि अब उनका संपेरा नित्य रचनाओं की बीन बजाया करेगा. एक नया अनगढ़ कच्चा चिट्ठा अवतरित हुआ है और इस चिट्ठे से, इसके नाम के विपरीत, बहुत सी गढ़ी और गूढ़ बातें नित्य पढ़ने को मिलेंगीं.

आज का चर्चित चिट्ठा रहा फ़ुरसतिया का लिखा - काव्यात्मक न्याय और अंतर्जालीय ‘चेंगड़े'

यह चिट्ठा वैचारिक भिन्नताओं को लेकर व्यक्तिगत स्तर पर की गई टिप्पणियों का प्रत्युत्तर स्वरूप लिखा गया है. इस चिट्ठे को पढ़कर, हिन्दी ब्लॉगर टिपियाते हैं -

अंतर्जालीय चेंगड़ा विवाद पर आपका लंबा पोस्ट पढ़ कर यही लगा कि इस पर इतनी ऊर्जा ख़र्च करने की ज़रूरत नहीं थी. सच कहूँ तो आपका ताज़ा पोस्ट कमलेश्वर जी पर केंद्रित रहने की अपेक्षा थी.

कुछ इन्हीं मायनों के साथ अनूप की टीप है-

विवाद में कौन सही है और कौन गलत , ये तो नहीं जानता और ना ही ये जानना मायने रखता है लेकिन यदि ऐसी बातों से खिन्न हो कर आप के लेखन पर प्रभाव पड़े या आप का लेखन कम हो जाये तो यह हिन्दी ब्लौग जगत की क्षति होगी । इस आशा के साथ कि ऐसा नहीं होगा ।

एक और टिप्पणी पड़ी है संजय की :

अखरी तो केवल एक बात कि इस लेख में वो वाली व्यंग्यात्मक पुट नहीं थी, जिससे कायल हो आपकी लम्बी-लम्बी पोस्टें पढ़ते रहे है.

मेरी कोई टिप्पणी नहीं है वहाँ. अगर मैं कुछ टिपियाता तो इनमें से कोई एक या ऐसा ही कुछ टिपियाता.

मेरे विचार में, हिन्दी चिट्ठाकार जगत में फ़ुरसतिया बहुतों के बड़भैया हैं, और रहेंगे. और, उनके बहुत से विचारों के लिए तो मैं भी उनका सगर्व चेंगड़ा हूँ. पहले भी उन्होंने चिट्ठाकारों के आत्मसम्मान के बहुत से विवाद चुटकियों में सुलझाए थे, और भविष्य में भी सुलझाते रहेंगे.

वैचारिक भिन्नताएँ हम सब में होती हैं. एक जैसे विचार, रूप रंग तो पत्थरों के भी नहीं होते, और हम तो मनुष्य हैं. अपनी-अपनी वैचारिक भिन्नताओं को समक्ष रखना और प्रस्तुत करना भी जरूरी है. उससे भी जरूरी यह बात है कि उन भिन्नताओं को सार्वजनिक स्थल पर रखते समय व्यक्तिगत स्तर पर छींटाकसी या भाषा के अनर्थक प्रयोग से बचाया जाए.

दूसरी बात, व्यक्तिगत वैचारिक भिन्नताओं को जगजाहिर करने से भी बचा जाना चाहिए. कुछ अरसा पहले मेरे कुछ विचार मेरे कुछ चिट्ठाकार मित्रों को नहीं जमे. उन्होंने सार्वजनिक स्थल पर इसकी आलोचना की. आलोचना की भाषा के सवाल पर कुछ प्रश्न भी उठे. मैंने उनका प्रत्युत्तर सार्वजनिक रूप से ही दिया, परंतु अप्रत्यक्ष, संयत रूप से दिया. किसी अन्य को इस उत्तर प्रत्युत्तर के सिलसिले के बारे में भनक ही नहीं पड़ी. सार यह कि अपनी बातें कहते समय भाषा का प्रयोग संयत रूप से रखना ही होगा. संयत भाषा में कही गई कड़वी से कड़वी बात भी आदमी पचा लेता है, परंतु असंयत भाषा में प्रेम का इजहार भी असह्य होता है.

तीसरी बात, हिन्दी चिट्ठों की लोकप्रियता और उसकी बढ़ती संख्या के मद्देनजर इस तरह की समस्याओं से चिट्ठाकारों को भविष्य में जूझना पड़ सकता है. एक सार्वजनिक निवेदन तमाम चिट्ठाकारों से यह है कि वे अपने चिट्ठों में व्यक्तिगत आक्षेप को लेकर की गई टिप्पणियों के हिस्सों को मिटा दें - इससे बेवजह विवाद बढ़ने का खतरा रहता हैं. रहा सवाल व्यक्तिगत आक्षेप वाले चिट्ठा पोस्टों का, तो अभी तो ऐसी कोई गंभीर बात हुई नहीं है, और अगर कभी ऐसा हुआ भी तो नारद जैसे सार्वजनिक स्थलों पर उसका भी बहिष्कार किया जाना चाहिए.

मुझे लगता है कि गांधी से शुरू विवाद अनावश्यक लंबा खिंच गया है. इसे अब यहीं समाप्त किया जाना चाहिए, वह भी गांधीगिरी से. तो आइए, हम सभी चिट्ठाकार बंधु आपस में एक दूसरे को जादू की झप्पी देते हैं और अपने विवादों को भूल कर अपने काम धंधे (चिट्ठा लेखन, टिप्पणी आदान-प्रदान) में लग जाते हैं.

व्यंज़ल

**-**

रूप भले ही धर लूं चेंगड़ों का

व्यवहार कैसे बदलूं केकड़ों का


दम की बात तो कर लूँ मगर

क्या करूँ इन दूषित फेफड़ों का


कोई एक गिला हो तो बात करूं

यहाँ पर तो मुद्दा है सैकड़ों का


दौड़ में मैं अकेला पिछड़ा पैदल

जमाना आ गया है लंगड़ों का


मैं तो बन गया हूँ शिकार रवि

बिना काम पाले हुए लफड़ों का

**-**

चित्र: माई इमेजेस से

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कमलेश्वर : भावभीनी श्रृद्धांजलि

साथियों मै प्रस्तुत हूँ, शनिवार के चिट्ठों अर्थात दिनांक २७ जनवरी के चिट्ठों की चर्चा लेकर। आप लोग तैयार है ना?

आगे बढने से पहले, एक दु:खद समाचार, हिन्दी के जाने माने साहित्यकार कमलेश्वर जी आज हमारे बीच नही रहे। कमलेश्वर जी का शनिवार की रात साढ़े आठ बजे हृदय गति रुक जाने के कारण निधन हो गया। वे ७५ वर्ष के थे। कमलेश्वर जी के निधन से हिन्दी साहित्य, फिल्म, टेलीविजन और पत्रकारिता को अपूरणीय क्षति हुई है। मै हिन्दी चिट्ठाकरों की तरफ़ से उन्हे भावभीनी श्रृद्धांजलि अर्पित करता हूँ। हिन्दी ब्लॉगर ने अपने ब्लॉग देश दुनिया मे कमलेश्वर जी को श्रृद्धांजलि अर्पित करते हुए लिखा है :

कमलेश्वर जी संभवत: भारत के एकमात्र साहित्यकार थे जिन्हें विशुद्ध साहित्य और फ़िल्म, दोनों ही क्षेत्रों में पूरी सफलता मिली. साथ ही पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उन्होंने महती काम किया था.कमलेश्वर जी ने अपनी रचनाओं में कस्बाई और महानगरीय ज़िंदगी, दोनों ही को बहुत बारीकी से उतारा है.


आज की सबसे धमाकेदार पोस्ट रही हिन्द, हिंदी और हिन्दुस्तानी, ईस्वामी द्वारा लिखे गए इस विचारोत्तेजक लेख में ईस्वामी ने कुछ बुनियादी सवाल उठाएं है। इस बारे मे आप वहीं पर पढिए तो ज्यादा मजा आएगा, ईस्वामी कहते है :
मैं मन ही मन सोचता हूं की यार काश भाषा-प्रेम का ऐसा जज़्बा हमारे देसियों मे होता तो मेरे ब्लाग पर कितनी अधिक हिट्स पडतीं!

साथ ही ईस्वामी जी ने नास्डेक पर फहराए तिरंगे पर भी एक विशिष्ठ नज़रिया पेश किया है, ईस्वामी कहते है:

मुझे क्यों लगता है की ये भारत की सफ़लता नहीं है, ये अमरीका की सफ़लता है. भारत का कोई भय नहीं है, उस से कोई स्पर्धा नहीं है वो पालतू हो गया है - जैसे कोई निरीह नवयौवना किसी ड्रैकुला से खून चूसवाने को अपनी गर्दन आगे बढा दे! और निश्चिंत ड्रैकुला दांत गडाते हुए कहे “आज तुम्हारी ड्रेस खूबसूरत लग रही है”! नवयौवना बोले “थेंक्यू” … बिल्कुल वैसा मामला है - अपने बाज़ारों पर जैसे पकड हो रही है उप्पर वाला ही मालिक है,बीच में तो बॉम्बे स्टाक एक्सचेंज में नेस्डेक और एनवाईएसई द्वारा निवेश करने की खबरें उड रहीं थी! इनकी असली स्पर्धा तो है संयुक्त यूरोप से, चीन से. उधर किसानों की आत्महत्याएं और त्सुनामी प्रभावित नाविकों के किडनी बेचने की खबरें कहां और कहां न्यूयार्क के चौराहे पर तिरंगा! इस से बडी विसंगती नहीं हो सकती!


तरुण ने अनुराग द्वारा आयोजित वर्जीनिया रेडियो पर प्रसारित हिन्दी ब्लॉगिंग वार्ता के अंश अपने ब्लॉग पर पेश किए है जरुर देखिएगा/सुनिएगा। साथ ही वे बता रहे है उत्तरांचल के चार सपूतों को पद्मश्री पुरस्कार दिया जा रहा है। भोला जो बहुत काफी दिनो बाद, कहा जाए तो अपनी दूसरी पारी की चिट्ठाकारी मे सक्रिय हुए है, आजकल अपने पसंदीदा विषय क्रिकेट को छोड़कर तकनीकी ज्ञान बाँटने मे लगे हुए है, आज वे पिकासा चलचित्र मैनेजर के बारे मे बता रहे है। नारायण अंग्रेजी फिल्म वार आफ द वर्ल्ड के समीक्षा लिख रहे है। लोकमंच पर बिहार के किसानों की बात करते हुए लिखा गया है :
बिहार के किसान परिवारों की स्थिति प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ के होरी परिवार जैसी है। होरी किसानी करता है और उसका बेटा गोबर शहर में मजदूरी करता है। अभी बिहार में भी बुजुर्ग किसानी कर रहे हैं और युवा वर्ग बाहर जाकर मजदूरी कर रहा है या नौकरी। यह विस्थापन कुशल एवं अकुशल दोनों प्रकार के मजदूरों का हो रहा है। यही प्रवृत्ति इन्हें बचाए हुए है। राज्य सरकार की अकर्मण्यता की वजह से पलायन की प्रकृति और तेज हो गई है। कृषि एवं गांव की खराब स्थिति इसे और बढ़ा रही है। इस प्रकार बिहार में किसानों का जो मर्ज है वही उनके लिए दवा बन गयी है।

सुनील भाई २६ जनवरी पर स्वतंत्र पत्रकारिता पर अपने लेख 'विचारों की आजादी' मे लिखते है:
आजकल सरकारी सेंसरशिप का नया काम है अंतर्जाल पर पहरे लगाना ताकि लोगों की पढ़ने और लिखने की आज़ादी पर रोक लगे. सीविप इन देशों को "काले खड्डे" (Black holes) का नाम देती है और इनमें सबसे पहले स्थान पर है चीन, जहाँ कहते हैं कि 30,000 लोग सरकारी सेसरशिप विभाग में अंतर्जाल को काबू में रखने का काम करते हैं. कहते हें कि चीन में अगर आप किसी बहस के फोरम या चिट्ठे पर कुछ ऐसा लिखे जिससे सरकार सहमत नहीं है तो एक घंटे के अंदर उसे हटा हुआ पायेंगे. जिन अंतर्जाल स्थलों को चीन में नहीं देख सकते उनमें वीकीपीडिया भी है.


स्वागत और तारीफ़ करिए, नवोदित चिट्ठाकार सुरेश चिपलूकर अपने चिट्ठे, अनगढ कच्चा चिट्ठा, को लेकर प्रस्तुत हुए है। साथ ही कैलकूलेटर लेकर तैयार हो जाइए, क्योंकि सागर चंद नाहर संयुक्त परिवार पेचीदे रिश्तों की खिचड़ी पर एक लेख लेकर प्रस्तुत है। रचनाकार मे प्रस्तुत है राजकुमारी श्रीवास्तव की कहानी साहसी राजन । गिरिन्द्र झा मीडिया के अन्दर की बात बता रहे है, चुपचाप सुनिए।

आने वाले बजट के बारे मे जगदीश भाटिया का जानकारी पूर्ण लेख पढिए, फुरसतिया जी के ब्लॉग पर पढिए परसाई जी का एक प्रसिद्द व्यंग लेख पहिला सफेद बाल । आशीष द्वारा, ब्रम्हाण्ड की विस्मित कर देने वाली सस्वीरों और जानकारी के साथ पढिए, ब्रम्हाण्ड मे एक समुद्री बीच। मोहल्ला मे पढिए एक पत्र पागलखाने से, प्रस्तुत है इस लेख की कविता एक अंश : ( टंकण मे हुई अशुद्दिया खलती है)

ये दीवारें इतनी ख़ाली क्‍यों हैं?
न कोई दर्पण, न चित्र, न ही धब्‍बे
बच्‍चों के हाथों के निशान तक नहीं
केवल डरावनी सफेदी


आज की टिप्पणी : सृजनशिल्पी द्वारा, देश दुनिया पर
कमलेश्वर जी के निधन से हिन्दी साहित्य, फिल्म, टेलीविजन और पत्रकारिता को अपूरणीय क्षति हुई है। वह इस दुनिया को छोड़ कर चले गए हैं लेकिन अपनी रचनाओं में वह जो अपनी अमिट छाप कर गए हैं उससे पाठकों को हमेशा नया सोचने और समझने के लिए प्रेरणा मिलती रहेगी। परमपिता से हम दिवंगत आत्मा को परम मुक्ति प्रदान करने की प्रार्थना करते हैं।



पिछले वर्ष इसी सप्ताह:
मसला ए रिहाइश, चौधरी साहब अपनी कुवैत की कहानी सुनाते सुनाते इस ब्लॉग को अनाथ करके, अचानक पता नही कहाँ, गुम हो गए, शायद आज चर्चा मेँ इनको उलाहना देने से इनकी अधूरी कहानी आगे बढे।

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रविवार, जनवरी 28, 2007

सिंहासन पर बैठा, उनके तमगे कौन लगाता है?

मित्रों चिट्ठा चर्चा में आये अवरोध के लिये क्षमाप्रार्थी है यह दल। मेरी ओर से प्रस्तुत हैं २६ जनवरी के चिट्ठों की संक्षिप्त चर्चा।

गणतंत्र दिवस के अवसर पर अनूप ने प्रकाशित किया हरिशंकर परसाई का लेख ठिठुरता हुआ गणतंत्र, कितने ही साल पहले लिखा गया पर आज भी प्रभावी।

प्रधानमंत्री किसी विदेशी मेहमान के साथ खुली गाड़ी में निकलती हैं। रेडियो टिप्पणीकार कहता है, "घोर करतल-ध्वनि हो रही है।" मैं देख रहा हूं, नहीं हो रही है। हम सब तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं। बाहर निकालने का जी नहीं हो रहा है। हाथ अकड़ जायेंगे। लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियां बज रहीं हैं। मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं, जिनके पास हाथ गरमाने के लिये कोट नहीं है। लगता है, गणतन्त्र ठिठुरते हुये हाथों की तालियों पर टिका है। गणतन्त्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलतीं हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिये गर्म कपडा़ नहीं है।

नैस्डैक के भवन पर भारतीय तिरंगे की छटा दिखा रहे हैं जीतेंद्र पर रचना संशय में हैं

हर दिन की मुश्किल से आम आदमी परेशान है,
आज तक भी गुम नारी की पहचान है,
नौकरी विहीन निराश नौजवान है,
फिर कैसे कह दें? ये देश महान है!

लोकमंच पर पढ़िये सिंगूर का सच और पानी पर राजनीति के शिकार राजस्थान के किसानों की व्यथा

मानव मन भी अद्भुत है। बालपन में माँ बाप उलाहना देते रहते हैं, "क्या छोटे बच्चों की तरह बिहेव कर रहे हो!" जब बड़े हो जाते हैं तो ताने सुनने को मिलते हैं, "आप का तो बचपना अब तक नहीं गया"। तो उमर का तकाज़ा भले हो कि उमर पहचानी जाय, पर उमर बढ़ रही है यह पहचानने में उमर बीत जाती है। गीतकार जी बढ़ती उमरिया की पहचान का लिटमस परीक्षण प्रस्तुत करते हुये कहते हैं

तन की बिल्डिंग की छत पर जब उग आयें पौधे कपास के
बिस्तर पर जब गुजरें रातें, करवट लेकर खांस खांस के
जब हिमेश रेशमिया की धुन, लगे ठठेरे की दुकान सी
याद रहें केवल विज्ञापन जब झंडू की च्यवनप्राश के
बाहर से ज्यादा अच्छे जब दॄश्य लगें घर के अंदर के
सपनों के यायावर, ये हैं लक्षण ढलती हुई उमर के

मनीशा बता रही हैं की तिरुमला मंदिर के चढ़ावे में भगत जाली नोट दे रहे हैं। "देते हैं भगवान को धोखा इंसां को क्या छोड़ेंगे?" पर समीर ने दो टूक टिप्पणी की, "जब अपने आराध्य तक पहूँचने का मार्ग भी पैसा बन जाये तो क्या सच्चा और क्या झूठा. गलत ही सही, मगर वो दर्शन तो कर पाया वरना २४ घंटे लाईन में लगने के बाद भी मात्र ३ सेकेंड के दर्शन होते"

कृष्ण विवर यानि ब्लैक होल, न्यूट्रॉन और पलसर जैसे शब्द यदि आपको उत्साहित करते हैं तो पढ़िये अंतरिक्ष चिट्ठे पर आशीष का यह रोचक आलेख

अंत में एक छोटा सा सवाल, इस प्रविष्टि के शीर्षक को किन लेखक की रचना से लिया गया है? बिना गूगल किये बता सके सकें हों तो हम सब की दाद स्वीकारें।

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गुरुवार, जनवरी 25, 2007

उफ्फ!!ये कहाँ आ गये हम

सन १९८१ में एक फिल्म आई थी 'सिलसिला'. अमिताभ और रेखा मुख्य कलाकार थे. याद आता है वो कशिश भरा गीत, जब अमिताभ अपनी स्थितियों को यूँ शब्द देते हैं:

मैं और मेरी तन्हाई, अक्सर ये बातें करते हैं,
तुम होती तो कैसा होता, तुम ये कहती, तुम वो कहती.....


फिर बैग्राऊंड से रेखा और अमिताभ को दिखाते हैं, सुंदर स्विटजरलैंड की फूलवती वादियों में:

अब रेखा गा रही है:

ये कहाँ आ गये हम, यूँ ही साथ साथ चलते
तेरी बाँहों में है जानम, मेरे जिस्म-ओ-जान पिघलते....


सब तरफ फूलों की खुशबू फैली है, प्राकृतिक सौंदर्य है, कलकल नदी बह रही है, झरना है और वाह क्या महौल है, कोई भी गा उठे....ये कहाँ आ गये...

ऐसी ही टाईप की चरमगति की प्राप्ति हर इस तरह के स्थल पर होती है. अब रचना जी को देखिये, उनकी यही गति हिन्दी चिट्ठाकारी के मैदान में आकर हो गई. हाँलाकि यहाँ सोलो चल रहा है, उन्होंने दोनो रोल खुद ही निभाये-

पहले अमिताभ:

किसको छोडूँ, क्या पढ डालूँ!
यहीं रहूँ या विदा कह दूँ!!



फिर बैकग्राऊंड से रेखा और अमिताभ-

और शूटिंग के समय शायद गर्मी बहुत रही होगी और कागज के फूल मूल सजा लिये होंगे तो खुशबू भरा महौल भी नहीं होगा...झरने के नल का पानी चला गया होगा..रेखा गा रही है:

उफ्फ!!ये कहाँ आ गये हम

अरे जी, कहीं नहीं आ गये, यही है हिन्दी चिट्ठाकारी का मैदान. अब चाहे उफ्फ हो या आह या वाह!! जो है सो ये ही है, और है भी बड़ी लती जगह. किसी से पहले के जमाने में बदला लेना होता था तो लोग उसे शतरंज खेलने की आदत डलवा देते थे. लो अब हो गये शतरंजी, अब किसी काम के नहीं. जब तक खेले खेले फिर बाकि समय भी चाल ही सोच रहें हैं कि अगली बार ऐसा खेलूंगा. वैसा ही है ये मैदान भी. आदमी अभी पढ़ता है और नहाते समय हँसता है याद कर कर के, घर वाले पागल समझते हैं और ....हे भगवान, न घर का ख्याल रह जाता है, न अचार का, न मुरब्बे का. बाजार से खरीद लाओ बना बनाया, और घर की शीशी में भर कर खिला दो. हमें तो यही रास्ता समझ आता है. कविता भी लिख मारी वो भी इस उहापोह की अवस्था में:

किसको छोडूँ, क्या पढ डालूँ!
यहीं रहूँ या विदा कह दूँ!!


एक एक चिट्ठाकार को पकड़कर लपेटा गया है जैसे खेत में मवेशी घुस आये हों और सबको डंडा लेकर दौड़ा रहे हैं. और यह मजाकिया और बेहतरीन हंसोड़ बात करने वाला और कोई नहीं बल्कि एक ऐसा शक्स है जो एक महिने पहले नवम्बर ३०, २००६ को जान पहचान के तहत यह कहता था कि :



वैसे कुछ लोग यहाँ हैं जो मुझे पहचानते भी हैं, उनसे गुजारिश है कि अगर वे मेरे या इस चिट्ठे के बारे मे कुछ कहना चाहें तो जरूर कहें.सिर्फ दो बातों का ध्यान रखें-
१. मै किसी भी मजाक का बुरा मान सकती हूँ!!
२. मैं किसी भी बात को मजाक मान सकती हूँ!!!




वाह भाई, हिन्दी चिट्ठाजगत, क्या परिवर्तन लाता है आपके अंदर. संपूर्ण हृदय परिवर्तन. खैर जो इच्छा हो, जैसी हो वैसा करें, हम तो हमेशा की तरह चुपचाप निकल जाते हैं.

एक नया महौल और चल पड़ा है इस शूटिंग वाले महौल के साथ और वो है विवादों का अखाडा. कितनी बार कहा जा चुका कि न तो अब गाँधी जी हैं, न सुभाष चन्द्र बोस, न भगत सिंग, न नेहरु और फिर हमारे सागर भाई ने भी बताया कि उनकी तबियत भी कुछ ठीक नहीं चल रही मगर जरा इन महारथियों में से किसी एक पर भी लिखिये तो सही या फिर जरा राजनिति पर लिखने की कोशिश करें, बस फिर नगाडे की धुन शुरु..ढमर कड़कड़ ...ढमर किड़िकिड़ ....ढमर कड़कड़ ...ढमर किड़िकिड़.. और कुश्ती चालू..अक्सर विचारों की कुश्ती तक सिमित रहता यह मंजर व्यक्तिगत होता नजर आने लगता है, यहाँ तक कि आज तो आज, पहले कही गई बात भी थाली पत्तल में सजाकर बारात निकाली जाती है. कुछ लोग सड़कों पर निकल कर नाचते हैं तो कुछ घर के भीतर ही. मजा सबको आता है. अभी पिछली बारात का खाना पचा नहीं है तब तक नई बारात और कुश्ती का आयोजन होने लगता है. इस आयोजन के प्रायोजक बनने के लिये आपको कुछ नहीं करना होता, बस उपरोक्त उल्लेखित किसी भी मुद्दे पर एक सनसनाती पोस्ट लिख दें, जैसे कि सृजन शिल्पी जी की पोस्ट-भारतीय सवतंत्रता संग्राम के कर्ण और बाकी आयोजन खुद हो जायेगा. बाराती आ जायेंगे, अखाड़े खुद जायेंगे, और फिर समय रहते सारा सामान लपेट कर अगली बारात की तैयारी. अगर आप इस आयोजन को अपने स्थली पर नहीं कराना चाहते तो जहाँ भी यह चल रहा हो वहाँ जाकर यज्ञ में आहूति डाल सकते हैं. कई बार लोगों को ऐसी जगह देर से पहुँचने पर अफसोस मनाते भी देखा है क्योंकि तब तक सब कुछ लपेटा जा चुका था. इसलिये समय का विशेष ध्यान दें, जितना जल्दी पहू~ण्चेंगे, उतना ही यज्ञ मे ज्यादा आहूति दे पुण्य प्राप्त कर सकते हैं. वैसे तो वाद विवाद एक अति स्वस्थ परंपरा है, इसके लिये, ज्ञान, उर्जा और अध्ययन की आवश्यकता है और अन्य पाठकों का ज्ञानवर्धन भी होता है मगर जब यह व्यक्तिगत आक्षेपों और अलंकरणों पर आ जाये, तब तकलीफ और दुख होता है. अब हम तो निकलते हैं यहाँ से, घर के अंदर ही नाच कर बारात का मजा ले लेंगे.

अभी हम दबे छिपे निकल ही रहे थे कि कोई देख न ले. बस, फुरसतिया जी ने देख लिया, बोले कहाँ चले, हमको नहीं सुनोगे. हमने कहा, भाई, अभी आप ही को और उसके भी उपर आपके बारे में सुनकर चले आ रहे हैं, अब जाने दो हमें. कहने लगे तुम भी उसी टाईप के हो कि छेड़ दो तो दुखी, काहे छेड़ दिया और न छेडो तो दुखी कि काहे नहीं छेडा. सबको छेडा हमको नहीं. इतने भी खराब नहीं दिखते हम. तो सुनो, कल जब निराला जी के बारे में सुनाये थे तो बहुते हिट गया टापिक. कई बार जब टापिक नहीं समझ आता तब भी हिट हो जाता है और लोग भीड़ लगाते हैं कि कहीं लोग हमें अनपढ़ न समझ लें. तो उसी पर जन आग्रह पर अगला भाग लाये हैं, पढ़ लेना. हमने कहा, जरुर पढ़ लेंगे और अब जायें. बोले झूटमूठ टिप्पणी मत करना, उसी में से कुछ बातें पूछूंगा बाद में. अब क्या, एक बार निराला जी को दसवीं की परीक्षा मे ध्यान से पढा था और अब आज. मगर आज वाला बहुते जीवंत है, बिल्कुल जोर नहीं लगा और मजा भी बहुत आया. वाह वाह..सही लिखते और सही लेखन लाते हो, भाई फुरसतिया. अब जो पूछना हो तो पूछ लेना. याद है हमें सब.


इतनी भगदड़ रही कि अब हंसना जरुरी हो गया बिना इसके, हमारे जैसे रक्तचाप के रोगी की तो चर्चा खतम करने के पहले ही लाई लूट जाये.

भला हो भाई प्रमेन्द्र का जो हमें इतना मानते है कि न सिर्फ़ इतमिनान से बैठकर ११ (धार्मिक अंक है) चुटकुले सुनाये, बल्कि ११ बार बसंत पंचमी के स्नान की डुबकी भी हमारी तरफ से लगाये और सबूत के तौर पर फोटू भी भेजी है- भाग १ और भाग २.

हम हंसे, आभारी हुये और चले तो अनुराग ईंग्लिश ईस्कूल का अंतिम भाग ले आये, इतना हंसाये, इतना हंसाये कि हम सोचने लगे कि अच्छा हुआ यह आखिरी किश्त थी, नहीं तो अबकी रक्तचाप का दोष हँसी पर स्थान्तरित हो जाता. फिर चाहे रवि भाई चिट्ठों के हैक्स लाते या रमण जी का एक और ब्लागर जुगाड़ या दिव्याभ जी सत्य संकेत दिखाते, हम तो होते ही न पढ़ने को और अविनाश भाई को भी मौका न लगता कहने का कि अगर तुम न होते. क्योंकि हम तो वाकई नहीं होते.

अब चलते चलते, एक गीत याद आया- हम लाये हैं तूफानों से किश्ती निकाल के.......उसी तर्ज पर यह आज की टिप्पणियां लायें हैं, पढ़ें...कुछ भी अन्यथा न लिया जाये. स्माईली. :)

कल की चर्चा पर आप सबका उडेला गया टिप्पणी रुपी स्नेह ने इतना भाव विभोर कर दिया कि आज फिर चर्चा करने आ गये वरना आज के नम्बरी तो फुरसतिया जी थे, तो अगर कुछ खराब लगा हो तो फुरसतिया जी को कोसें, न वो हमे लिखने देते न हम लिखते. हाँ, तारिफ के बंदा हाजिर है टिप्पणी द्वार पर पलक पावड़े बिछाये. जो छूट गये हैं वो सूचित करें टिप्पणी के माध्यम से सूचित करें, कल संजय भाई मध्यांतर मे कवर कर लेंगे. :)


आज की पोस्टनुमा टिप्पणियाँ सृजन शिल्पी जी के चिट्ठे के सौजन्य से:

अनूप शुक्ला:

मैं अब भी यही कह रहा हूं कि इन विचारों से यह लगता है कि गांधी-नेहरू राष्ट्रनायक न होकर एकता कपूर के सीरियल के कोई कलाकार थे जो तमाम दूसरे लोगों को अपने रास्ते से हटाने की जुगत में ही लगे रहे। और मैंने जो इतिहास के
अध्ययन की बात लिखी थी उसमें मेरी अज्ञानता छिपी थी और है भी। मैंने इन लोगों के बारे में जो पढ़ा वह एक आम आदमी की तरह पढ़ा। किसी विद्वान की तरह नहीं और मेरी सीमित जानकारी में ये सभी लोग आम आदमी से ऊपर मानसिकता के लोग थे। इनके बारे में यह सुनना कि ये लोग एक दूसरे को उठाने-गिराने में इस कदर लगे रहे, कम से कम मुझे यकीन नहीं होता। गांधी, नेहरू, सुभाष, भगतसिंह में महाभारत के पात्र खोजने का तरीका वह तरीका है जिसमें आप पहले कद तय कर लेते हैं और तब उसके लिये उपमा तलासते हैं। कर्ण अभिशप्त महारथी थे, कुंवारी कन्या की कोख से पैदा हुये थे उनके कौन से साम्य
थे सुभाषजी से? कम से कम आजादी की लड़ाई तक दोनों के दुश्मन साझा थे -वे अंग्रेज थे। जबकि कर्ण और दूसरे पांडव एक दूसरे के खिलाफ़ थे। बहरहाल, संभव है आपका विस्तार से सालों का किया अध्ययन इस बात का प्रमाण देता हो आपको लेकिन मेरा दिल इनमें से किसी महापुरुष को इतना घात-प्रतिघात में संलग्न होने की बात से सहमत नहीं हो पाता। नेहरू सत्ता लोलुप थे या नहीं यह भी व्यक्तिगत सोच की बातें हैं। जो शक्स पूरे १६ देश का नीतिनिर्धारक रहा और एकमात्र जननायक रहा उसके लिये, बावजूद तमाम उनकी गलतियों के, यह सोचना कि उसके सारे काम सत्तालोलुपता से संचालित थे , कम से कम मेरा मन ऐसा मानने के लिये तैयार नहीं होता।
आशा है कि आगे भविष्य में कुछ और ज्ञानभरी बाते पता चलेंगी जब आपके पास अपने सालों के अध्ययन को लिखने का पर्याप्त समय होगा!
नेताजी हमारे देश के महान सपूत थे। उनकी जन्मदिन पर उनको विनम्र होकर याद कर रहा हूं। आपकी पोस्ट इसका माध्यम बनी इसके लिये आपका आभार!




प्रियंकर:



सृजन शिल्पी द्वारा की गई तुलना –सुभाष बाबू की पौराणिक चरित्र कर्ण से तुलना रोचक लगी .
इसके साथ ही दिनकर का सुप्रसिद्ध काव्य ‘रश्मिरथी’ और मराठी उपन्यासकार शिवाजी सावंत का कर्ण के चरित्र पर लिखा कालजयी उपन्यास ‘मृत्युंजय’ मन-मस्तिष्क में तैरने लगे . कैसा उदात्त चरित्र और उसका कितना उत्कृष्ट निरूपण . तुलना सर्वथा उपयुक्त है . प्रतिभा की अवमानना और अपमान के ऐसे अवसर मानव संस्कृति के इतिहास में विरल ही होते हैं, और जब होते हैं तो जनता की सामूहिक स्मृति — लोक-मानस — उन्हें शताब्दियों तक याद रखता है . और अपनी स्मृति कोशिकाओं में रची-बसी अनोखी न्याय तुला पर तौल कर ऐसा पोएटिक जस्टिस — काव्य न्याय — करता है कि उनकी लोकप्रियता की सीमा नहीं रहती . इतिहास का कोई भी सफ़लतम व्यक्ति उनकी लोकप्रियता के सामने बौना हो जाये , वे ऐसी किंवदंती बन जाते हैं . इस तरह ‘लोक स्मृति’ इतिहास द्वारा किये गये अन्याय को अपने ढंग से न्याय में परिवर्तित कर देती है.
सुभाष बाबू के साथ भी कुछ ऐसा ही अन्याय हुआ था. पर यहां अन्याय करने वाला ‘चिन्हित’ नहीं है. गांधी के व्यक्तित्व को देखते उन पर इस तरह के आरोप वैसे भी टिकते नहीं हैं . तो क्या उस ऐतिहासिक प्रक्रिया का कोई दोष था सुभाष बाबू के राजनैतिक फ़ैसले जिसके प्रतिरोध में खड़े पाये गये ? गांधी के विशाल व्यक्तित्व की छाया में बहुत से प्रतिभाशाली व्यक्तित्वों को वैसा खुला मंच नहीं मिला जैसा गांधी की अनुपस्थिति में मिल सकता था . पर क्या इसमें गांधी का कोई दोष है ? गांधी के राजनैतिक निर्णयों की समीक्षा करने पर हमें कहां-कहां भावनात्मक दबाव और परिस्थितिजन्य निरंकुशता के छींटे दिखाई देते हैं ? तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों, सुभाष बाबू के तात्कालिक राजनैतिक अतिउत्साह और समय से पहले लिये गये निर्णयों के अलावा क्या सुभाष बाबू के साथ हुए अन्याय का कुछ दोष गांधी पर भी आता है?
सुभाष बाबू की मौत के रहस्य ने इस अध्ययन को और भी मुश्किल और चुनौतीपूर्ण बना दिया . सृजन शिल्पी अपने अध्ययन द्वारा इस गुत्थी को समझने का प्रयास करते और समस्या के मुख्य कारकों को चिन्हित करने का प्रयास करते दिखाई देते हैं . उनके निर्णयों से नाइत्तफ़ाकी रखते हुए भी इतना स्वीकार करने की बौद्धिक ईमानदारी तो हममें होनी ही चाहिये .
अनूप जी से वैचारिक सहमति रखते हुए भी और सबको ‘सन्मति दे भगवान‘ जैसे अच्छे हस्तक्षेप के बावजूद गांधी पर हुई बहस में उनका रुख प्रारम्भ से ही कुछ संदिग्ध सा लगता रहा है .
सृजन शिल्पी का विश्लेषण सही हो या न हो पर निराधार नहीं है . यह ऐसा धुआं नहीं है जिसके पीछे आग बिल्कुल भी न हो . इसे अनूप जी जैसे होशियार आदमी से बेहतर भला और कौन जानेगा .
पर इन्हीं अनूप जी को, गांधी के विरुद्ध बात-बात में गोडसे को उद्धृत करने वाले गोडसे-भक्त नाहर जी के यह विचार कि ‘देश का जितना नुकसान गांधीजी के सिद्धांतों और नेहरूजी की वजह से हुआ उतना किसी और वजह से नहीं हुआ’ न केवल विरोध के लायक नहीं लगे बल्कि ‘पठनीय’ लगे और प्रमेन्द्र का यह बयान कि ‘ देश को गांधियों के चंगुल से मुक्त कराना होगा’ (मानो गांधी कोई माफ़िया सरगना हों) उन्हें ‘ओजस्वी’ लगा . ऐसे में उनकी मुंह देखकर तिलक करने की प्रवृत्ति, उनकी चुनी हुई चुप्पी, यहां तक कि उनकी सधी हुई सदाशयी टिप्पणियां भी चिट्ठाकारों को सृजनशिल्पी के निष्कर्षों से ज्यादा ‘मायावी’ और ‘मायालोकीय’ प्रतीत होती हैं . सो वे माया-मोह से थोड़ा ऊपर उठेंगे ऐसी आशा रखना अन्यथा न होगा.
कई बार लगता है कि उनका अभिजात्य उन्हें अंतर्जालीय ‘चेंगडों’ से दो-दो हाथ करने से रोकता है . और सज्जनों को सीख देते समय वे सौरव गांगुली की तरह फ़ॉर्म में आ जाते हैं. इस मामले में वे बाबा तुलसीदास की परम्परा में हैं जो कहते हैं: ‘बंदउं संत असज्जन चरना’ . असज्जन की वंदना इसलिये कि दुष्ट आदमी दो मिनट में आपके अभिजात्य को छियाछार कर सकता है — उस अभिजात्य को जिसे आपने परत-दर-परत बरसों से बड़े जतन से अपने व्यक्तित्व पर चढाया है.
अनूप जी से करबद्ध अनुरोध है कृपया वे कुछ समय इस बात की समीक्षा के लिये भी निकालें कि सृजन शिल्पी द्वारा गांधी पर शुरु की गयी बौद्धिक बहस सागरचंद नाहर से होती हुई जब प्रमेन्द्र तक पहुंचती है तो वह किस कदर गंदली होती जाती है. गांधी और सुभाष दोनों का पक्ष इसी आत्म-समीक्षा में निहित है .


आज का चित्र और केप्शन
, प्रमेन्द्र के ब्लाग से:

एक कुत्ते का बच्चा पोज देता हुआ, जिसके गले में रुद्राछ माला भी थी, मेरे साथ गये विशाल ने कहा कि ये बड़ा होकर माँडल बन कर अपने बाप क न रौशन करेगा



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बुधवार, जनवरी 24, 2007

मध्यान्हचर्चा दिनांक : 24-01-2007

संजय मुँह लटकाए लैपटॉप की स्क्रीन को ताक रहे थे. धृतराष्ट्र संजय को घूर रहे थे. तभी चपरासी संजय के आगे काफी का मग रख कर चला गया.

धृतराष्ट्र : क्या बात है? मुँह क्यों लटका रखा है?

संजय : समझमें नहीं आ रहा, जब मैने कहा ‘टीप’ दो तो सबने दुत्कार दिया था और अब जब उड़नतश्तरी अपनी सुनी मांग दिखा रही है, तो सब सिंदूर लिए दौड़े आ रहे है?

धृतराष्ट्र : हा हा हा, मैने उस दिन भी कहा था आज भी कहता हूँ, तुम्हारा काम चर्चा करना है, बस. वो कृष्ण ने कहा ही है की...

संजय : जाने दें महाराज, कृष्ण ने बहुत कुछ कहा है... यह कृष्ण का प्रताप है. ऐसा ही प्रताप सुखसागर भी बता रहे है.

धृतराष्ट्र : ठीक हैं संजय, अब बाकी का हाल भी सुना दो, देखो कौन क्या लिख रहा है?

संजय : जी महाराज. अंतरिक्ष में सोम्ब्रेरो आकाशगंगा दिखाई दे रही है. जिसे भगवान की अंगूठी भी कहा गया है.

धृतराष्ट्र : और यह लोगो का हजूम क्यों जमा है?

संजय : कुछ जुगाडे वितरित कि जा रही है. एक स्थान पर दैनिक जुगाड़ दे रहे हैं, जितुभाई तो डेस्कटोप से सीधे चिट्ठे पढ़ने का जुगड़ बता रहें है, मीणाजी.

लोगो को एकत्र कर अपनी ‘बुक-सेल्फ’ देखा रहें है जितेन्द्रजी.

धृतराष्ट्र : यह नाराज कौन हो रहा है?

संजय : बेंगाणी बन्धू है महाराज. संजय शाहरूख द्वारा क्लिष्ट हिन्दी का मजाक बनाए जाने से नाराज है तो, पंकज भारतीय विपक्षी नेताओं के रवैये से.

धृतराष्ट्र : इन्हे यहीं छोड़ो, कवियों का हाल देखो.

संजय : महाराज, गीतकार कैसे कविता लिखता है, पता नहीं जब उनसे कुछ कहा न गया, कुछ लिखा न गया, वाणी चुप हो रही, शब्द हो गए अजनबी. फिर भी आगे देखता हूँ शायद और भी हो.

आहा! आगे रजनीगन्धा से महके हाईकु लेकर आयी हैं रजनीजी. यह देख अनुपमा चौहान ने कहा यात्रा से पूर्व,अधरों से उसके अंतिम क्षण,अंतिम शब्द "प्रियवर" ही निकला मकबरा हूँ मैं... इसबात पर सीमाजी भी प्रसन्न हो कर शब्दो के जाल बुनने लगी. और रचनाजी हैरान परेशान हो कह उठी उफ्फ! ये कहाँ आ गये हम!!

महाराज अब आप रोमन सर्कस देखिये और मैं होता हूँ लोग-आउट.

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यह अच्छी बात नहीं!!

सबसे पहले डा बृजेन्द्र अवस्थी को हिन्दी चिट्ठाजगत की तरफ से भावभीनी श्रद्धान्जलि. अभिनव शुक्ला जी ने डा बृजेन्द्र अवस्थी को श्रद्धान्जलि देते हुये अपना संस्मरण लिखा है और अगले शनिवार को श्रद्धान्जलि सभा का आयोजन किया है.

डा बृजेन्द्र अवस्थी





आज जब चर्चा शुरु की जा रही है तो देख रहा हूँ कि बहुत ज्यादा चिट्ठे नहीं है जिन पर चर्चा करनी है. आज सबसे पहले पंकज भाई आये और बताये अरिन्दम भैया की किताबों के बारे में. बड़े परेशान हैं कि बंदा पैसे कहाँ से लाता है इतनी किताबें निकालने को. अब जहाँ से भी लाता हो, हमसे तो मांगे नहीं कि हम हिसाब रखें. हमारे सागर भाई एक दुर्घटना स्थली से बिना पूरी मदद पहुँचाये घर चले आये और अपराध बोध हल्का करने के लिये आपसे सलाह मांग रहे हैं. अति संवेदनशीलता इस तरह के कृत्य करवाती है और इतिहास इसका गवाह है.

राकेश भाई ने आज दो-दो बेहतरीन गीत सुनाये:
पहला तो अपरिचित से परिचय बढ़ाने का प्रयास:

तो अपरिचित ! आओ हम तुम शब्द से परिचय बढ़ायें
कुछ कहो तुम, कुछ कहूँ मैं, साथ मिल कर गीत गायें


और फिर उन्हीं शब्दों को जिनसे परिचय बढ़ा रहे थे, कहते हैं कि शब्द हैं अजनबी. एक ही दिन में सब. अब जाकर फिर ध्यान से पढूंगा कि मसला क्या है.

नारायन जी ने बताया कि मिडिया के लोगों पर आम जनता की धारणा क्या है तो मिडिया युग कहते है कि क्यों है टीवी विश्लेषण की जरुरत.

तो आज के चिट्ठों में इतना ही था. आज सिर्फ़ नारद महाराज उपलब्ध थे तो हिन्दी ब्लाग पर अगर कुछ और हों तो कह नहीं सकता, कुछ तकनिकी दिक्कतों की वजह से वह काम नहीं कर रहा है.भला हो संजय भाई का जो दुपहर में चर्चा कर हमारे नाजुक कंधों से काफी वजन कम कर गये और हमें कुछ और बात करने की जगह मिल गई.

तो चलिये, आज मौका है तो लगे हाथों कुछ मन की बात कर लें:

बहुतेरे चिट्ठों पर देखा है कि लोगों ने किन्हीं वजहों से टिप्पणियाँ करना बंद कर दी या शुरु ही नहीं की, और चिट्ठाकार हतोत्साहित होकर दुकान में ताला टांगकर बैठ गया.

कितनी जरुरी है यह दाद और टिप्पणियाँ..यह हर चिट्ठाकार में उत्साह लाती हैं आगे और बेहतर लिखने का और बेहतर पेश करने का. मै तो मानता हूँ बड़ा से बड़ा चिट्ठाकार भी इंतजार करता है कि किसने क्या कहा उसकी लेखनी पर.

तो क्या यही सच लागू नहीं होता चिट्ठा चर्चा पर भी. कोई जरुरी नहीं कि टिप्पणी में तारीफ ही की जाये. आप अपनी राय रख सकते हैं, सुधार के उपाय बता सकते है, पसंद आये तो वाह वाही कर सकते हैं, कोई बात बुरी लगे तो उस ओर ध्यान इंगित करा सकते हैं.

अभी पिछले हफ्ते यही बात जीतू भाई ने टिप्पणी के माध्य्म से कही थी:

"चिट्ठा चर्चा पर "जबरन टिप्पणी (अ)सुविधा" शुरु की जानी चाहिए, इसके अनुसार:
चिट्ठा चर्चा की प्रत्येक चर्चा पर कम से कम दस टिप्पणी तो होनी ही चाहिए,ये देखना सभी चिट्ठाकारों की ड्यूटी हो। जो बन्दा टिप्पणी ना करे, उसके ब्लॉग की चर्चा महीन अक्षरो मे की जाए।

तो भई इसे कब से शुरु कर रहे हो।"


आज जहाँ तक मैं समझता हूँ चिट्ठाचर्चा पर आने वालों की संख्या किसी भी अन्य हिन्दी के चिट्ठे से ज्यादा है और यदि औसत लगाया जाये तो यहाँ आने वाली टिप्पणियों की संख्या सबसे कम. क्या वजह है इसकी.

कई बार तो आवाजाही गणक की गणना पर ही प्रश्न चिन्ह सा लगाने का मन करता है और एक भी टिप्पणी न देखकर क़ैफ भोपाली का एक शेर याद आ जाता है:

कौन आएगा यहां कोई न आया होगा
मेरा दरवाज़ा हवाओं ने हिलाया होगा.


शायद हवाओं के आने जाने को ही गणक लोगों का आना जाना मान गिनती बढ़ा रहा है वरना क्या वजह हो सकती है कि दिन भर में इतने लोग आये और सब मौन, कोई तो मुखर होता. कोई शोक सभा तो चल नहीं रही है कि आओ, दो मिनट मौन धरो, और आत्मा की शांति की दुआ मन ही मन करते निकल लो, कहीं और शादी की पार्टी में.

एक दिन तो राना अकबराबादी का शेर याद आया:

सुनते हैं कि मिल जाती है हर चीज़ दुआ से
एक रोज तुझे मांग के देखेंगे खुदा से.


तो चर्चा करने के पहले नहाये, पूजा पाठ किये, दो मंहगे वाले फूल कम्प्यूटर पर धरे और दुआ की कि आज २० टिप्पणी आयें, और शुरु हो गये लिखना. मगर हासिल, वही शुन्य की संख्या. तीन दिन तक रोज आ आकर देखते रहे, मगर न!! न तो आना था न आई!!

फुरसतिया जी की बात याद आती है:



१.टिप्पणी विहीन ब्लाग विधवा की मांग की तरह सूना दिखता है।

२.अगर आपके ब्लाग पर लोग टिप्पणियां नहीं करते हैं तो यह मानने में कोई बुराई नहीं है कि जनता की समझ का स्तर अभी आपकी समझ के स्तर तक नहीं पहुंचा है। अक्सर समझ के स्तर को उठने या गिरने में लगने वाला समय स्तर के अंतर के समानुपाती होता है।

३.जब आप कोई टिप्पणी करते समय उसे बेवकूफी की बात मानकर ‘करूं न करूं’ की दुविधा जनक हालत में ‘सरल आवर्त गति’ (Simple Hormonic Motion) कर रहेहोते हैं उसी समयावधि में हजारों उससे ज्यादा बेवकूफी की टिप्पणियां दुनिया की तमाम पोस्टों पर चस्पाँ हो जाती हैं।





चलो, हम तो उनकी नं. २ को ही अपना सहारा बना लेंगे लेकिन बकौल अटल बिहारी जी- यह अच्छी बात नहीं!!

अब कोई इन सब बातों का अच्छा बुरा मत मानना. यह बहस का मुद्दा नहीं है बल्कि स्वामी समीरानन्द के ज्ञानसागर से फूटा एक छोटा सा नाला है. मन करे तो डुबकी लगाओ नहीं तो...नहीं तो क्या!! भगवान सबका भला कर ही रहे हैं. :) :)

दो दो स्माईली, अन्यथा न लेने के लिये.

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मंगलवार, जनवरी 23, 2007

मध्यान्हचर्चा दिनांक : 22-01-2007

धृतराष्ट्र कोफी का आनन्द ले रहे थे, संजय लैपटॉप की स्क्रीन पर आँखें टिकाए हुए थे.

कक्ष की शांति को भंग करते हुए धृतराष्ट्र ने पुछा ,”क्या हुआ संजय?”
संजय : कुछ नहीं महाराज, हिन्दी में समाचार पढ़ने लग गया था.

धृतराष्ट्र : ठीक है, अब देखो आज क्या गतिविधियाँ हो रही है.
संजय : महाराज, चिट्ठाकार आज खास तौर पर नेताजी को याद कर रहे है. सृजन-शिल्पी को नेताजी को याद करते समय महाभारत के महारथी कर्ण का स्मरण हो आता है, तो जोगलिखी के अनुसार भारत का नाम ऐसे ही सपूतो से सूरज बन कर जग पर चमका है.

महाराज आज जनता के कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ को भी याद किया जा रहा है. उनके जीवन पर प्रकाश डाल रहे है, फुरसतीयाजी. वहीं अपने शब्दो में महाप्राण को याद कर रहे हैं, उपस्थित.

धृतराष्ट्र : हमारा भी नमन.

संजय : महाराज, हमारा देश संयुक्त परिवारों के लिए भले ही जाना जाता हो, पर कुछ अनोखे संयुक्त परिवारों के बारे में बता रहे है सुनीलजी.
और तो और वंशवाद भी अब भारत की बपौती नहीं रहा.

धृतराष्ट्र चर्चा सुनते हुए कोफी के घूँट भर रहे थे.

संजय : पृथ्वी पर वसंत ऋतु का मन से स्वागत हो रहा हैं, तो अंतरिक्ष में सूर्य के बौने बेटों का. सुखसागर में स्वागत हो रहा है, मुदगल ऋषि का.

धृतराष्ट्र : अतिथि देवो भवः, अब फोटोग्राफरों को भी देख लो.
संजय : महाराज, छायाचित्रकार रोमन स्नानागार की भव्यता दिखा रहें है, तो केरल की सुन्दरता दिखा रहे है, जितेन्द्रजी.

धृतराष्ट्र : खुब. अब कवियों का हालचाल भी देख लो.
संजय : महाराज, रंजूजी के अनुसार तेरी आवाज़ एक रोशनी की किरण है मेरे लिए मेरी ज़िंदगी को यह रात रानी सा मेहका जाती है.
बेजीजी का कहना है टिका कर निगाहें मुझे तुमने खींचा…अपने स्नेह से मेरे मन को सींचा....पहलू में तेरे जगी....फिर सोई...सुबह जब जागी, हल्की हो गई थी.....
रचनाजी आव्हन कर रही है, देश है पुकारता, सुन लो उसकी आह तुम देश की जरूरतों पर डालो एक निगाह तुम.
इसके अलावा रचनाकार की कथा भी है.


अब आप जुगाड़ी कड़ीयों का आनन्द लें, साथ ही जाने ऑन-लाइन मार्केटिंग के गूर, या फिर गुरू फिल्म की समीक्षा पढ़े, मैं होता हूँ लोग-आउट.

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यह कवि है अपनी जनता का

पहले एक सूचना लिखता हूँ शोकाकुल शब्दों से मैं
कविता का प्रासाद भव्य यों लगता है क्षतिग्रस्त हो गया
आँख मूंद कर विदा ले गये,कल संध्या कविराज अवस्थी
काव्य गगन पर दीप्तिमान था जो,वह सूरज अस्त हो गया

राष्ट्र कवि थे श्री ब्रजेन्द्रजी ओज जगाती उनकी वाणी
आशुकाव्य की परिभाषा क्या, हम सबने उनसे ही जानी
पंत और पांडेय, निराला, बेढब जी हों या हों त्यागी
सबने उनकी सरस लेखनी बार बार जानी पहचानी

कविता की ही बात आज लेकर आये हैं फ़ुरसतियाजी
वर दे वीणावादिनि वर दे के लेखक श्री सूर्य निराला
रचनाकार सुनाने आये एक कहानी चन्तारा की
पढ़ें, नीरजा माधवजी ने क्या कमाल देखो कर डाला

उथल पुथल जो हुई अभी बंगलूर नगर में, खबर आपको
जीतूभाई की पदरज का ये कमाल लगता शायद था
मिडलईस्ट से भटक भटक कर, खींच रहे थे फोटू आकर
महल किले सा खड़ा हुआ था, भीड़ भड़क्का पर गायब था

अगली किस्त लिये आये हैं , साथ बताशों में ले पानी
श्री अनुराग अनुभवों वाली इस्कूली इगलिसी कहानी
क्रमश: क्रमश: क्रमश: करके संभव है फिर क्रमश: कर दें
इनकी कलम अनूठी जिसकी कोई थाह नहीं हम जानी

आज की फोटो की बात

कम्प्यूटर से मैं अज्ञानी, पढ़ कर लिंक जुगाड़ी पूछूँ
रवि भैय्या इतना बतलाओ, वाट इज द वे आई शुड डू
और सहज वे बतला देते, कट और पेस्ट करो तुम पहले
और बाद में इतना करना " हिट ANY की टू कन्टीन्यू "




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सोमवार, जनवरी 22, 2007

सद्दाम का असहनशील भारत


सद्दाम को फ़ांसी दे दी गई. दो हफ़्ता गुजर गया. परंतु उसके विरोध में भारत में प्रदर्शन जारी है. मौलाना मुलायम निठारी छोड़कर दिल्ली में प्रदर्शन करते पाए गए थे और हाल ही में बैंगलोर में हिंसक प्रदर्शनों के दौर में एक मासूम तो मारा ही गया, दुकानों-वाहनों को छति पहुँचाई गई, आग लगाया गया. इस व्यथा कथा का वर्णन दो अलग-अलग तरीके से कर रहे हैं प्रतीक तथा पंकज

छोटे शहरों से बड़े शहरों की ओर पलायन क्यों हो रहा है? क्या वजह है कि लोग बड़े शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं? गिरीन्द्रनाथ झा इस बात का कुछ खुलासा कर रहे हैं तो कुछ प्रश्न भी कर रहे हैं. मैं भी एक छोटे से शहर रतलाम में रहता हूँ. यहाँ दिन में अभी 5 से 7 घंटे बिजली बंद रहती है. कल ही पास के कस्बे जावरा में जो कि रतलाम से भी छोटा है, जहाँ 7-10 घंटे बिजली बंद रहती है, गुस्साए नागरिकों ने बिजली दफ़्तर में भारी तोड़ फोड़ कर डाली. मैं सोचता हूँ कि मैं भी इंदौर या भोपाल माइग्रेट कर जाऊँ. वहां बिजली सुबह सिर्फ 1-2 घंटे ही बंद रहती है. ख़ैर, अपने अपने किस्से हैं शहरों में माइग्रेट करने के. आपके भी होंगे? तो अगली पोस्ट इसी बात पर कर डालिए.

आशीष की अंतरिक्ष यात्रा बदस्तूर और तीव्र गति से जारी है. लगता है उन्हें ब्रह्मांड नापने में ज्यादा वक्त नहीं लगने वाला. प्लूटो, शेरान, निक्स और हायड्रा के बारे में तो उन्होंने लिखा है ही, प्लेटो को उसके पद - पृथ्वी के ग्रह से निकाल बाहर किया गया इस पर भी कुछ प्रकाश वे डाल रहे हैं.

यह माना जाता है कि खरीदारी में औरतें बहुत सारा समय लगाती हैं और उनकी खरीदारी बड़ी ही कॉम्प्लैक्स किस्म की होती है. एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि जब तक कोई स्त्री अपने लिए एक परिधान खरीदती है, उतने ही समय में एक पुरुष क्रिसमस तथा नए वर्ष के त्यौहार की संपूर्ण खरीदारी कर लेता है. परंतु बात अंडरवियर की खरीदारी की हो तो? तब तो यह काम पुरुषों के लिए भी आसान नहीं होता. और सचमुच, अंदर की बात यह है कि मुझे भी आजतक मेरा आइडियल अंडरवियर नहीं मिला. यही बात तो उन्मुक्त भी बता रहे हैं!

राइटर्स ब्लॉक के बारे में बहुत कुछ कहा-सुना-बोला-छापा जाता है और जाता रहेगा. ये राइटर्स ब्लॉक क्या है भाई? यह होता है नौ महीने का दर्द. कोई लेखक - चाहे वह एक पंक्ति का ब्लॉग लेखक क्यों न हो - वह उसी किस्म की प्रसव पीड़ा से गुजरता है तब जाकर उसका लेखन अस्तित्व में आता है. अपने इसी पीड़ा को बयाँ करते हुए अभिषेक मीडिया द्वारा परोसी जा रही अवांछित पीड़ाओं का भी जिक्र करते हैं, जो जाहिर है वो हमारी अपनी भी है.

राहु केतु से डरने की जरूरत नहीं है. हो सकता है कि किसी ग्रह के साथ मिलकर यह आपकी कुंडली में राज योग बना दे - बस बातों को गहराई में जाकर समझने की है. इन्हें समझाने की कोशिश कर रही हैं प्रेमलता.

अगर आप चिट्ठाकार हैं, और आप अपनी आवाज रेडियो पर सुनकर रोमांचित होना चाहते हैं तो फौरन अनुराग मिश्र को अपने स्काइप में शामिल कर लें और 27 जनवरी को उनके बताए समय पर ऑनलाइन रहें. किसी के पास यह सुविधा हो कि इसे एमपी3 में रेकार्ड कर सके तो हमारे जैसे ऑफ़लाइन-जीवी को बहुत फ़ायदा होगा. बाद में इसे शांति से डाउनलोड कर आराम से सुनेंगे.

आखिर में एक कहानी. फ़िल्म के बनने की कहानी. तरूण बता रहे हैं कि एक फ़िल्म को बनाने के लिए कहानी की जरूरत होती है. होती होगी. हॉलीवुड में तो होती होगी. परंतु अपने बॉलीवुड में आमतौर पर फ़िल्म बनाने के लिए किसी कहानी की आवश्यकता ही नहीं होती. बॉलीवुड घटिया प्रेम-प्रसंगों वाली कहानी युक्त फ़िल्मों से अभी उभरा ही नहीं है. अपना बॉलीवुड तो भइये 16 साल की मानसिकता का बना हुआ है, और लगता है बना ही रहेगा.

और, अंत में फ्रस्ट्रेशन कथा. बिहारी बाबू ऐश्वर्या की शादी को लेकर एतना फ्रस्टियाए एतना फ्रस्टियाए कि गूगल भी फ़्रस्टिया गया. ऊपर का चित्र उसी का है.

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रविवार, जनवरी 21, 2007

रविवारीय चिट्ठा

लो भैया, हम आ गया हूँ, शनिवार के चिट्ठों की चर्चा करने। पिछली बार हम रोना रो रहे थे, कि भाया ज्यादा चिट्ठे लिखो, अब रवि भैया ने दन्न से इत्ते सारी पोस्ट मार दी कि पढते पढते सन्न हो गए। शनिवार का दिन नाम रहा, रवि रतलामी जी कि जिन्होने पर्यावरण डाइजेस्ट के इतनी पोस्ट/पब्लिश कर दी कि दूसरों के लिए मुख्य पृष्ठ पर छाने की जगह ही नही बची। तो भई शुरु करते हैं रविवारीय चिट्ठा चर्चा।

मेरा क्या है, इस अंक में, प्रेम और सुन्दरी की देवी, मदाम एंजेलो की डायरी, का जिक्र तो यूं ही प्रसंगवश आ गया, नही तो (उत्तम) प्रदेश चर्चा और निरंकुशता के शिकार बच्चों का संकट कुछ कम था क्या। देश तो अभी भी शांति ही संस्कृति है कि नारे पर गर्व करने के बहाने अनेक ढूंढते हुए आस्था के कुम्भ आयोजित करता रहेगा। लेकिन मीडिया का नैतिक दायित्व भी तो कुछ होता है, प्रकाशन यात्रा के दो दशक होने को आए, आज भी सत्ता, गरीबी और वैश्वविक जल संकट ज्यों का त्यों है। आखिर कब सुधरेंगे हम? मीडिया को छोड़िए, हम चिट्ठाकारों ही अपने फर्ज को निभाएं और आइए हम चिट्ठों को आम-जन तक पहुँचाए, क्योंकि चिट्ठाकारों का आवाज ही दिल की आवाज है। इसे मेरा दीवानापन समझिए या गर्व करने का बहाना, हम पर्यावरण परिक्रमा करते हुए शादी की तैयारियां देखने चले गए, बड़ा मजमा लगा हुआ था भई, आखिर क्यों ना हो, जब शादी ही इतनी खास है। सोचा लौटते वक्त हुमायूं का मकबरा भी देख लेंगे, रास्ते में नौछमी नारेणा से आगे बढते ही बडारडा के पास एक और ट्रक दुर्घटना भी हो गयी, लेकिन आखिर ये हौंसला कैसे झुके ये आरजू कैसे रुके, पहुँच गए, जमुनालाल जी घर तक, उनको साथ लिया बीच बीच मे टाइम-पास करने के लिए बातचीत होती रही। जमुनालाल जी ने बताया कि जी.एम फसलओं मे नए मापदंडों की जरुरत है बोले अब पौधे भी कहेंगे, मै प्यासा हूँ पानी पिलाओ। उनकी रामायण में राम की सेना का सागरवतरण हो चुका था, वे अध्यात्म और पर्यावरण की बाते करके पका रहे तो हमने सोच हम भी शुरु हो जाएं। हमने भी कम्प्यूटर की बाते करके जैसे वर्डप्रेस को २.०.५ से २.०.७ अपडेट कैसे करें, सप्ताह ०३ के स्वादिष्ट पुस्तचिन्ह, विन्डोज एक्सपी टिप्स एवं ट्रिक्स, नए ब्लॉगर मे शीर्षक चित्र कैसे डालें? करके बहुत पकाया। पर्यावरण से कम्प्यूटर का पाला पड़ा तो वे बोले कि ऐसा है बहुत हो गया, कम्प्यूटर और पर्यावरण, सम-सामयिक चर्चा करते है। फिर वे शुरु हो गए, बोले कि अमरीका को चुनौती, भारत को सीख, बोले :
चीन ने 11 जनवरी को अपने ही एक बुढ़ा चुके मौसम-उपग्रह को अंतरिक्ष में ही सफलतापूर्वक मार गिराया. चीन ने आधिकारिक रूप से इस बारे में कोई बयान नहीं दिया है, लेकिन अमरीका तथा ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे उसके पिछलग्गों के खुल कर विरोध जताने से साफ़ है कि चीन स्टार-वॉर्स के क्षेत्र में अमरीका को चुनौती देने की दिशा में पहला क़दम बढ़ा चुका है.



रात घिर आयी थी, हम भी सोचे अब बहुत समय हो चला है, वापस लौट लिया जाए, चिट्ठा चर्चा जो करनी है। अरे! ये तो बातो बातों मे ही चिट्ठा चर्चा हो गयी, चलो हम भी निकलते है, अच्छा जी, राम राम!

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शनिवार, जनवरी 20, 2007

वेब पत्रकारिता का भविष्य उज्ज्वल...

अभी कुछ दिनों पहले अपने फ़ुरसतियाजी बता रहे थे कि “तख्ती पुराण” क्या है? यदि आपको इसके बारे में जानकारी नहीं है तो ले लिजियेगा वरना आज की यह चर्चा आपके सामने से बिलकुल वैसे ही... (मान्यजी का आगमन)

कविराजजी....कविराजजी
अरे मान्यजी आप कहिये क्या हुआ?
मान्यवर! आप अपनी महापुराण सुनाने के चक्कर में कही हमारी तन्हाई को नज़र अंदाज मत कर दीजियेगा, संजय भाई भी भूल गये थे।
अरे नहीं नहीं मान्यजी आप निश्चिंत रहें, हम आपको शिकायत का मौका नहीं देंगे।

हाँ तो हम कह रहे थे कि वरना आज की यह चर्चा आपके सामने से बिलकुल वैसे ही निकलेगी जैसे भारतीय बल्लेबाजो के सामने से होती हुई गेंद विकटों पर जा लगती है। उनकी इसी पोस्ट का समर्थन करते हुए मैं कहता हूँ कि लोग आजकल ऐसे गपशप पेटिका (चैट बॉक्स) में आ धमकते है जैसे सार्वजनिक मूत्रालय में। ना तो अनाड़ियों की तरह ही खट-खट करते हैं और ना ही सभ्य महापुरूषों की तरह “May I come in..” जैसे श्लोंको का उच्चारण करते हैं। खैर मेरे को इस पचड़े में पड़के क्या करना हैं? अरे नहीं, करना है। आज मैं भी... (खट-खट)

कौन है?
अरे मैं हूँ, मनिष वन्देमातरम!!! तुम्हारा कवि-मित्र, पहचाना?
ओह!!! मनिष आप हैं क्या, आईये चाय पीजिये।
अरे नहीं, मैं तो यूँही चला आया था, कहीं आप बाद में आप यह तो ना कहो कि फिर तुम नहीं आयी। चलती हूँ।
हम सचेत हुए कि यह मनिषजी ने लिंग परिवर्तन कब करवा लिया तो देखा कि मनिषजी नहीं थे, उनकी याद आयी थी।


खैर, वापस मुद्दे पर आते हैं। तो मैं कह रहा था कि आज मैं भी तो इसका शिकार हुआ हूँ भाई। फ़ुरसतियाजी आ धमके अचानक, बोले, “देबुदा व्यस्त है आज फिर से चर्चा करो”। हमने शरमाते हुए, संकोच करते हुए पुछा “ऐसा क्यों श्रीमान?”। हमारा यह पुछना था कि प्रवचन चालू, हमने बीच-बीच में समझाना चाहा कि आप पोस्ट लिख दीजिये हम वहीं पर पढ़ लेंगे मगर फिर...

मेरे दो नयन, मेरे दो नयन
कौन है? सभी के ही नयन दो ही होते हैं।
मैं हूँ रंजू, और मैं अपने नयनों की नहीं अपनी नई कविता की बात कर रही हूँ। चर्चा कीजियेगा, नमस्कार!!!
जी जरूर, जरूर, नमस्कार!!!

...यकायक हमें गुरूदेव कि बात “फ़ुरसतिया जब बोलते हैं तब मात्र बोलते हैं इसलिए मात्र सुनना, व्यवधान डालने की कोशिश की तो अपनी अगली पोस्ट में सर्वनाश कर देंगे उनका गुस्सा “बुश” से भी ज्यादा ख़तरनाक है।” याद आ गई तो हमने समझाना छोड़ समझना ही उचित समझा...


भेदभाव, हूँउउउउउ
कौन हैं महाशय? और हमने कहाँ किसके साथ भेदभाव किया है?
अरे मैं हूँ कौल, और मैं भी अपनी पोस्ट के बारे में बता रहा था, चर्चा करनी है तो करो वरना अपन खुद कर लेगा।
जी करता हूँ श्रीमान!!!
...और हम नायालक मन को शांत कर मात्र उनके प्रवचनों मे ध्यान लगाने लगे। उन्होनें ज्ञान वर्षा करनी जारी रखी...


कविराजज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज, कविराजज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज
कौन?
मैं हूँ सागर, पता चला कि फ़ुरसतिया ने तुमको फ़ुरसत में देखकर फ़ुसलाया है और किसी और की टोपी तेरे सर पर रख दी है।
नहीं नहीं सागर भाई, कैसी बात कर रहे हो भाईसा, वो चिट्ठाजगत के पितामह ना सही चचामह तो है ही ना..
हाँ, हाँ, पसीना पौछ लो, लगता है पहली बार मेहनत करनी पड़ रही है।
जी शुक्रिया!!!
और यह लो, हमसे तुम्हारा दर्द देखा नहीं गया तो कुछ चर्चा टाईप करके लाया हूँ जोड़ दीजियेगा -


गिरिन्द्र नाथ जी सुना रहें है कन्हैयालाल नंदन जी की ग़ज़लें और वहीं पर टिप्पणी में फ़ुरसतियाजी कुछ अपने लिंक मुफ़्त में बांट रहे हैं। अनुराग मिश्राजी अक्षरग्राम चौपाल पर चढ़कर भौंपू बजा-बजा कर कह रहें है – “मैं वर्जीनीया टेक में भारतीय रेडियो कार्यक्रम पुनः शुरू कर रहा हूँ, हिन्दुस्तान में इसे शनिवार रात के ग्यारह बजे इन्टरनेट पर सुना जा सकेगा।”

अच्छा! और यह प्रभू नारद के खिलाफ नोटिस लिये कौन खड़े हैं?


कविराज बीच में मत टोका करो, वरना मैं तुम्हारी मदद करने से सन्यास की घोषणा कर
दूँगा, अब आगे जोड़िये कि रविन्द्रनाथ जी भारतीय ने भारतीयता का परिचय देते हुए
जबरदस्ती पाठकों को खींचने की कोशिश की मगर फिर भारतीय होनें के नाते क्षमा भी मांग ली। मोहल्ले वाले अविनाशजी “शमीम तारिक़जी” का आलेख “ज़बां बिगड़ी तो
बिगड़ी थी
” पढ़वा रहें थे तो रतलामी जी बोले – “स्माल ब्रदर पर कोई बवाल नहीं” सो “यू नीड नो एक्शन मैन!” और लगे व्यंज़ल सुनाने -


मेरा दिमाग मुझसे रुठिया गया है
और नहीं तो जरूर सठिया गया है

सोचता बैठा रहा था मैं तमाम उम्र
अब तो जोड़-जोड़ गठिया गया है

जैसे कभी आपने नालायक मन की बात की थी वैसे ही तपस जी अचेतन मन के बारे में बता रहें है और भाटियाजी अपने बचपन में लौटते हुए बालमन की कल्पनाओं के बारे में बता रहे हैं “मानव, बुब्बू और टिम्मी” के जरिये। बीबीसी से आभार अफ़लातूनजी बता रहें है कि वेब पत्रकारिता का भविष्य उज्ज्वल है तो मन गुरू के बाद अब बुध की स्थिति बतला रहा है, क्षितिज जी लेकर आये हैं कुरिल की तबाही के दिल दहला देने वाले दृश्य तो भुवनेशजी अन्तर्जाल पर हिन्दी की समृद्धि के लिए एक अपील कर रहे हैं। प्रियदर्शन जी “एक करिश्में की उम्र” में बाला साहेब ठाकरे के बारे में बतला रहे है तो रामचन्द्र मिश्रजी प्रकृति की सुन्दरता दिखला रहे हैं। सुखसागर में जटासुर का वध हो गया है और उन्मुक्तजी बतला रहे है कि अब ओपेन कोर्सवेर आ गया है, अपने आलेख “ओपेन सोर्स से ओपेन कोर्सवेर तक” में। आपके गुरूदेव...

बस बहुत हो गया सागर भाई, अरे जब सबकुछ आप टंकित कर लाये हैं तो आप ही छाप दीजिये ना, हमें क्यों फ़सा रहे हो बीच में... (सागर भाईसा गुस्सा होकर चले गये)

हाँ तो हम बतला रहे थे कि फ़ुरसतियाजी ने ज्ञान वर्षा करनी जारी रखी और ग्रहण करते रहे।

“जिस प्रकार अर्जुन ने नहीं देखा कि सामने कौन हैं वैसे ही तुम मत देखो, अपने गुरू जी को निपटा दो, अपनी सफ़ाई दिये हैं वो, बहुत ही लचर बहाने लेकर आये हैं, घबराओ मत यह परीक्षा की घड़ी है, जीत हमेशा ही सत्य की हुई है, ख़ुलकर निपटा दो आज और यही हमारा आदेश भी है”

यह कहकर फ़ुरसतियाजी अंतर्ध्यान हो गये और हमारी समझ में आने लगा कि गुरूदेव क्यों बार-बार कहते हैं कि हम चुप हैं, हम कुछ नहीं कहेंगे... अब हम भी चुप ही रहेंगे कुछ नहीं कहेंगे।

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मध्यान्हचर्चा दिनांक : 20-01-2007

टी-ब्रेक हुआ ही था, धृतराष्ट्र अपने कक्ष में कदम रख रहे थे, चपरासी कोफी तैयार करने में लगा था. और संजय? वे तो पहले से ही कक्ष में मौजूद थे. लैपटोप पर संजाल का संचार हो गया था. भाषाकिय प्रतिबधता दिखाते हुए हिन्दी ब्राउज़र पर नेट को खंगाला जा रहा था. पहले से ही उपस्थित संजय को देख धृतराष्ट्र विस्मित हुए. फिर अपनी कुर्सी पर धंस गए.

धृतराष्ट्र : क्या बात है? आज समय से पहले ही... खैर सप्ताहांत है. देखो सब छुट्टी के मूड में हैं या दंगल में उतरे है?
संजय : नहीं काफी चिट्ठाकार दिख रहे हैं.

धृतराष्ट्र : अच्छा! पर यह उदास-उदास कौन दिख रहा है?
संजय : महाराज, ये मान्याजी है. किसी की याद में तन्हा हो कर सन्नाटे में गीत लिख रही है.
तथा साथ खड़े समीरलालजी अपनी तन्हा मोहब्बत पर सफाई दे रहे है.
इस पर मनीषजी कहते हैं की ये हौसला कैसे झुके, ये आरजू कैसे रुके.. जब भी दिल में मायूसियाँ अपना डेरा डालने लगें ये गीत आप अवश्य सुनें.

धृतराष्ट्र : ठीक है, सुन लेंगे. (कोफी का घूँट भरते हुए..) तुम आगे बढ़ो.
संजय : जी, महाराज. आगे अन्तर्जाल पर हिन्दी की समृद्धि के लिए एक अपील कर रहे है भुवनेशजी.
इस पर अफ्लातुनजी आशा जगाते हुए कहा की वेब पत्रकारिता में अंग्रेज़ी का प्रभुत्व बहुत दिन नहीं रहने वाला है.
एक आशा उन्मुक्तजी भी जगा रहे है, उनके अनुसार ओपेन सोर्स आंदोलन न केवल सॉफ्टवेर के क्षेत्र में नये आयाम खोल रहा है पर उच्च शिक्षा के दरवाजों पर भी दस्तक दे रहा है.

धृतराष्ट्र : समय तेजी से बदल रहा है.
संजय : हाँ महाराज, समय के साथ वृद्ध होते शेर की दहाड़ भी अपनी प्रासंगिकता खो रही है. बाल ठाकरे पर पते की बात कर रहे है प्रियदर्शन.
बतौर जोगलिखी यह बात और है की लोग हर हाल में गर्व करने के बहाने खोज ही लेते है.
मगर मानव होने पर हम कितना गर्व कर सकते है? जब हमारा व्यवहार पशुओं की तुलना में ऐसा हो. आईना दिखा रहे हैं भाटियाजी.
वहीं गिरिन्द्रनाथजी का अनुभव कहता है की गर्व आखिर क्यो न हो जब शादी ही इतनी खास है...

धृतराष्ट्र : शादी से पहले पूजा-पाठ के अलावा खूब ग्रह नक्षत्र आदि को शांत करवाया गया है.
संजय : अपनी अपनी मान्यताएं है, महाराज. प्रेमलताजी मन की बात को आगे बढ़ाते हुए आज बुध के बारे में जानकारी से रहीं है.
वहीं अंतरिक्ष के ग्रह नक्षत्रों के बारे में दूसरे दृष्टिकोण की जानकारी से रहे है, आशिषजी.

धृतराष्ट्र : लगे हाथ फोटोग्राफरों को भी टटोल लो.
संजय : जी महाराज. कुरिल की तबाही की तस्वीरे लेकर आए है, क्षितिजजी.
तो मिश्रजी दिखा रहे हैं मनोहारी कैमेरिनो विश्विद्यालय का कार्बनिक रसायन (शास्त्र) विभाग के पास का क्षेत्र.
छायाचित्रकार सुनिलजी इसबार ले जा रहे हैं हुमायुं के मकबरे पर.

महाराज, आज के लिए इतना ही. मैं करता हूँ सत्रांत. होता हूँ लोग-आउट.

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शुक्रवार, जनवरी 19, 2007

मध्यान्हचर्चा दिनांक : 19-01-2007

धृतराष्ट्र कक्ष में कोफी का आनन्द ले रहे थे. मध्यान्हचर्चा का क्रम टूटा हुआ था, आजभी संजय के आने की उम्मीद उन्हे कम ही थी, इसलिए टी-टाइम में अक्षरग्राम के नए अवतार का अवलोकन कर रहे थे. तभी संजय ने कक्ष में कदम रखा. बगल में लैपटोप दबाए हुए थे.

धृतराष्ट्र: आइये..आइये. कहाँ अटके हुए थे?
संजय : महाराज मित्र के विवाह समारोह में गया हुआ था, छुट्टी के लिए आवेदनपत्र भी दिया था.
धृतराष्ट्र : ठीक है, अब देखो कौन क्या लिख रहा है? लिख भी रहे हैं या शिल्पा शेट्टी के पक्ष में नारे लगाने में ही व्यस्त है.
संजय : नारे तो नहीं लगा रहे है, हाँ इस प्रकरण पर लिख जरूर रहे हैं. हालाकी शिल्पा के अलवा जगमें और भी हैं आँसू. खैर सबका हाल बताने से पहले यह हिन्दी का ब्राउज़र उतार लेता हूँ, भाट्टीयाजी ने कड़ी दी है. कहीं ऐसा न हो अंग्रेजी वाला प्रयोग करने पर शिरॉक बिगड़ जाए की ज़बां बिगड़ी तो बिगड़ी...

धृतराष्ट्र : हाँ, यह फ्रांसिसी थोड़े-से ज्यादा स्वभाषा-प्रेमी होते है.
संजय : महाराज, बात भाषा की ही नहीं लिपि की भी हो रही है. अंतर्मन को लगता है की इंडिया के रोम-रोम में रोम रम गया है! क्या हिन्दी रोमनागरी में लिखी जाएगी.
लेकिन निराश होने की आवश्यकता नहीं है. वर्जीनीया टेक में भारतीय रेडीयो कार्यक्रम फिर से शुरू हो गए है.

धृतराष्ट्र : ठीक है सुन लेंगे भाई. अब आगे देखो.
संजय : आगे अफ्लातुनजी शैशवकाल के संस्मरण सुनाते हुए आक्रमण के भारतीय प्रतिकार यानी अंहिसक प्रतिकार की बात कर रहे है. तो युद्ध के देवता के बारे में बता रहे हैं आशीष.
इधर दिल्ली विश्वविद्धालय की एक खासियत की वजह से गिरिन्द्रनाथ जी को एक प्ले देखने का मौका मिला है.

धृतराष्ट्र कोफी की आखरी चुस्कियाँ का आनन्द ले रहे थे.
संजय : महाराज, अब आप आँवले के आचार के साथ दैनिक जुगाड़ो का आनन्द लें. मैं करता हूँ ‘सत्रांत’. लोग-आउट कहूँगा तो शिरोन नाराज हो सकते है.

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नैतिकता कोने में पड़ी चौकी है...

सारांश -

कल गुरूवार, दिनांक 18 जनवरी 2007 को अधिकांश चिट्ठाकार चिंतनशील नज़र आए। जहाँ एक ओर चन्द्रप्रकाश जी, मिडिया युग और प्रतिक जी “बिग-ब्रदर और शिल्पा शैट्टी” को लेकर अपने-अपने नज़रिये से चिंतित दिखे तो दूसरी ओर संजय जी स्वास्तीक को लेकर। शायरी/ग़ज़ल/कविता करने वालों की भी संख्या ठीक-ठाक रही मगर कहानी में रचनाकार पर असगर वजाहत अकेले ही दिखे। व्यंग्य में अनुराग जी इंगलिस इस्कूल (?) का दूसरा भाग लेकर हाज़िर हुए तो रागदरबारी के भाग 12 व 13 एक साथ प्रकाशित हुए। विज्ञान/तकनीकी भी अछूते नहीं रहे, एक ओर जहाँ भाटियाजी ब्राउजर से हिन्दी की प्रगति के बारे में जानकारी दे रहें है तो आशीश श्रीवास्तवजी विशालकाय गुरू ग्रह के बारे में तो उन्मुक्तजी वैज्ञानिक और कलाकार में सम्बन्धों की जानकारी दे रहें है। सुखसागर के साथ-साथ आज महाशक्ति भी आध्यात्मिक रूप लेकर अर्ध कुम्भ स्नान करने लगे तो ज्योतिष मन में मंगल का प्रभाव दिखाने लगा। इतिहास के पन्नों को खंगालते हुए अफ़लातून जी “बापू की गोद में” का १८ भाग लेकर आये तो नारायणजी धरोहरों को सहजते नज़र आये, धीरे-धीरे नारायणजी पूरे राजसमन्द को ही अंतरजाल पर लाते दिख रहे हैं, अच्छा प्रयास है। और अंत में अक्षरग्राम की चौपाल पर बैठकर अफ़लातून जी बता रहे हैं कि ऑनलाईन प्रतिवेदन कैसे दिया जाये।

चिंतन -

1. और भी हैं आंसू - चन्द्रप्रकाश
2. मौत की आग - चन्द्रप्रकाश
3. टीवी की बिगब्रदर 'शिल्पा' - मिडिया युग
4. एक बार फिर - सागरचन्द नाहर
5. बिग ब्रदर में शिल्पा शेट्टी - प्रतिक पांडे
6. स्वास्तीक पर प्रतिबन्ध यानी सभ्यलोगो की असहिष्णुता - संजय बैंगाणी
7. दलदल वाली टांग! - ई-स्वामी



शायरी/ग़ज़ल/कविता -

1. यह सिर्फ एक छाते की कहानी नहीं है - विनय सौरभ
2. बिन दुल्हन लौटे बाराती - गीतकार
3. दिल्लीनामा - गिरधर राठी
4. तेरे बगेर - रंजू
5. इंतज़ार - रंजू
6. गुमनामियों मे रहना, नहीं है कबूल मुझको.. – नीरज


कहानी -

1. कुत्ते - असगर वजाहत

व्यंग्य -

1. इंगलिस इस्कूल - भाग 2 - अनुराग श्रीवास्तव
2. वह एक प्रेम पत्र था - श्रीलाल शुक्ल
3. नैतिकता कोने में पड़ी चौकी है - श्रीलाल शुक्ल

विज्ञान/तकनीकी -

1. इस ब्राउजर से हिंदी की होगी प्रगति - जगदीश भाटिया
2. कलाकार बनाम वैज्ञानिक - उन्मुक्त
3. महाकाय गुरु - आशीष श्रीवास्तव

आध्यात्म दर्शन/ ज्योतिष -

1. भीम हनुमान भेंट - सुखसागर
2. अर्ध कुम्भ दर्शन भाग - १ - महाशक्ति
3. मंगल - मन

इतिहास/धरोहर -

1. बापू की गोद में (१८) : दूसरा विश्व-युद्ध और व्यक्तिगत सत्याग्रह - अफ़लातून
2. कांकरोली का गुप्तेश्वर महादेव मंदिर - नारायण
3. कांकरोली का साक्षी गोपाल मंदिर - नारायण
4. जाली (हमायूँ का मकबरा, नई दिल्ली भारत) - छायाचित्रकार
5. मैसूर का बाघ - सुनील दीपक

ज्ञान/सूचना -

1. ओनलाइन प्रतिवेदन - अफ़लातून

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गुरुवार, जनवरी 18, 2007

अक्षरग्राम के दरवाजे खुले

कल तक पतंगबाजी कर रहे जीतेंद्र आज अपने मेसेज बाक्स के आगे अक्षरग्राम के दरवाजे खुलने का नोटिस चस्पां किये थे। जिन साथियों ने अभी हाल में ब्लागिंग शुरू की उनकी जानकारी के लिये बता दें कि अक्षरग्राम चौपाल के रूप में सूचनाऒं के आदान-प्रदान का अड्डा रहा है। अनुगूंज के आयोजन की समीक्षात्मक पोस्ट यहीं लिखी जाती थी। बुनो कहानी, निरंतर आदि अनेक आयोजनों के लिये चर्चा यहीं होती रही। आशा है कि अब यह फिर से जीवंत चर्चा का मंच बन सकेगा।

आशीष श्रीवास्तव ने लगभग तीन महीने गायब रहने के बाद फिर से लिखना शुरू किया। इस बीच वे अपने घर गये और एक ही दिन में तीन गुरुजनों से मिले। तीनों से मिलने का उनका अंदाज-अलग था। इस बारे में अपनी सोच बताते हैं:-
मेरे मन मे शिक्षक के लिये हमेशा सम्मान रहा है और रहेगा। लेकिन आज मेरा व्यवहार तिनो शिक्षकों के लिये अलग अलग था। एक के मैने पांव छुये, दूसरे से मैने हाथ मिलाये, तीसरे से मैने अभिवादन तक नही किया ! ऐसा भी नही कि ऐसा करने से पहले मैने कुछ सोचा,सब कुछ अपने आप होते गया।

कुराहे गुरूदेव ने अपना हाथ मेरे सर की ओर बढ़ाया और मेरा सर उनके चरणॊ मे झुक गया। प्रो धारसकर ने हाथ बढ़ाया , मेरा सर झुका और मैने हाथ भी मिलाया लेकिन प्रो मिश्रा से मैने अभिवादन तक नही किया ऐसा क्यों ?
क्यों का जवाब आप सोचिये और अपने जवाब का मिलान आशीष की पोस्ट के जवाब से करिये। इसके बाद आशीष ने खाली-पीली के पुरस्कारों के बारे में जानकारी देते हुये पोस्ट लिखी।

रमन कौल जानकारी देते हुये बताते हैं बुरका और बिकनी के मेलजोल या कहें कि घालमेल से नयी पोशाक बनी है -बुरकीनो! इसके बारे में जानकारी बकौल डिजाइनर ही लीजिये:-
आहीदा ज़नेती, जो बुरक़ीना की डिज़ाइनर हैं, कहती हैं, “केवल मुसलमान ही पर्दा नहीं करते। और भी शर्मदार लड़कियाँ होती हैं, जो बीच पर जाना चाहती हैं, पर बिकीनी नहीं पहनना चाहतीं… और फिर यह स्विमसूट केवल हया के लिए ही नहीं, यह आप की त्वचा को धूप, रेत, आदि से भी बचाता है।” आप का क्या कहना है? क्या शर्मसार ग़ैर-मुस्लिम महिलाएँ बुर्क़ीनी को आज़माएँगी, या इसे बुरक़े का ही एक रूप समझ कर इस से पर्दा करेंगी। वैसे, भारतीय समेत कई समाजों की ग़ैर-मुस्लिम महिलाओं को स्विमिंग पूल या बीच पर बिकिनी पहनने से परहेज़ होता है, और कई बार वे कपड़े पहन कर पूल में उतरने से भी मज़ाक का कारण बनती।

डिवाइन इंडिया में जहां एक तरफ़ साथी शीर्षक कविता में बयान किया है:-
अकेला ही खड़ा था...सफर की राह पर
अपनी मौजो में तेरा रुप तेरे अहसास का पल लिये
मगर नसीम की रुसवाईयों में वह भी बह गया
तकता-तकता राह मैं तेरी निराशा से भींग गया,
वहीं समीरलालजी भी कम तड़पू नहीं हैं। आग का दरिया है और डूब के जाना है कि सफ़ाई पेश करते हुये और अपने को चिरकुट चक्रम बताते हुये वे लिखते हैं:-

सिसक सिसक कर तन्हा तन्हा, कैसे काटी काली रात
टपक टपक कर आँसू गिरते, थी कैसी बरसाती रात.
इसकी सिसकियों की जानलेवा आवाज से पता चला है कि इनकी तन्हाई करीब चार-पांच महीने की उमर की है। तबसे उसे सटाये हुये हैं और कुछ खूबसूरत लम्हे भी हैं इनकी यादों के खाते में:-
राहें वही चुनी है मैने, जिस पर हम तुम साथ रहें,
क्यूँ कर मुझको भटकाने को, आई यह भरमाती रात.

समीरजी के यादें, तन्हाई, तड़पन से एकदम अलग तेवर की बात रचनाजी अपनी कविता जीवन में करती हैं। इनके सामने जीवन का सच है:-
जीवन मे हम सबको यूँ ही बस आना है,
थोडा ठहर करके फिर सबको जाना है.
थोडा-सा हँसना, और् थोडा-सा रोना है,
अपने-अपने कर्म हम सबको करना है.

सीधी-सीधी भाषा में अपनी बात कहने वाली रचनाजी धीरे से शाश्वत सच का दायरा बढा़ते हुये कहती हैं:-
तारों को हर रात यूँ ही टिमटिमाना है,
चंदा को हर पल यूँ ही घटना-बढना है.
सदियों से आज तक सबने ही माना है,
निश्चित है सब यहाँ! ना कुछ बदलना है!

अब जब बात कविता की हो रही है तो मोहल्ले की इस कविता को क्यों न देखा जाये। अपने समाज की तल्ख सच्चाई बयान करते हुये मोहल्ले वाले अविनाश विनय सौरभ की कविता सुनाते हैं:-
जिसके पास विज्ञापन की सबसे अच्छी भाषा थी
...वह बचा
वह औरत बची
जिसके पास सुंदर देह थी
और जो दूसरों के इशारे पर रात-रात भर नाचती रही

कुछ औरतें और मर्द... जिनमें खरीदने की हैसियत थी
और वे सारे लोग बचे
जो बेचने की कला जानते थे

रविरतलामी नये ब्लागर में साइडबार में कड़ियां बनाने की तरकीब बताते हुये सलाह भी देते हैं कि इसका इस्तेमाल करने के पहले टेस्टिंग करना न भूलें। गिरीन्द्रनाथ झा प्रख्यात कथाकार, उपन्यासकार फणीश्वर नाथ 'रेणु' की कथा भूमि कोसी के इलाके के बारे में जानकारियां देते हैं:-
इस बाजार से जब आगे बढा तो एक बोर्ड पर मेरी नज़र ठहर गयी.. लिखा था...."राजेन्द्र मेहता,खाद के अधिकृत विक्रेता.चम्पानगर..आवास-प्राणपट्टी."प्राणपट्टी पढते ही मैं चौंक पडा ! अरे ये तो रेणु के "परती परिकथा" का प्राणपट्टी है... जितू का इलाका.... उपन्यास का संपूर्ण पात्र मेरे जहन मे शोर मचाने लगा. अब मै प्राणपट्टी की ओर जाने का बना लिया..

गांधीजी के शुरुआती दिनों की जानकारी देने वाले ब्लाग शैशव में गांधी के बारे में बताते हुये अफलातून जानकारी गांधीजी के बारे में भी देते हैं:-
आश्रम में भोजन परोसने का काम बापू करते थे । भोजन-सम्बन्धी अपने तरह-तरह के प्रयोगों की जानकारी वे मेहमानों को देते जाते ।

इसके बाद बा के बारे में बताते हुये वे लिखते हैं:-
नयी - नयी चीज सीखने की हविस में बा को कभी बुढ़ापा छुआ नहीं। एक बालक के जितनी उत्सुकता से वह सीखने को तैयार रहती थीं । बा का अक्षर-ज्ञान मामूली था। इसलिए ज्ञान-विज्ञान के दरवाजे उनके लिए बन्द जैसे थे । बापू के साथ रहने में पढ़ाई का बड़ा मौका मिल सकता था यह बात सही है,लेकिन उनके साथ रहकर भी जड़ के जड़ रहे लोगों को भी मैंने देखा है । बा के बारे में यह बात नहीं थी । कुछ-न-कुछ नया सीखने के लिए उनका मन हमेशा ताजा था ।

आशीष ने अब अंतरिक्ष के बारे में भी लिखने का निश्चय किया है। आज वे नेप्च्यून के के बारे में जानकारी देते हैं:-
युरेनस के जैसे ही यह ग्रह पानी, मिथेन और अमोनिया से बना है और हायड्रोजन, हिलियम के एक मोटे आवरण से घिरा हुआ है। नेपच्युन का निला रंग इसके वातावरण की मिथेन के कारण है जो लाल रंग अवशोषीत कर लेती है।
इसके भी कई चन्द्रमा और वलय है।यह सूर्य की एक परिक्रमा पृथ्वी के १६५ वर्ष मे करता है। इसका अक्ष इसकी सूर्य की परिक्रमा के प्रतल से २९ अंश झुका हुआ है(पृथ्वी का अक्ष २३.५ अंश झुका हुआ है)।
नेपच्युन मे पूरे सौर मंडल मे सबसे तेज हवाये चलती है, कभी कभी २००० किमी प्रति घंटा की रफ्तार से !

नागरानीजी अपने गजल में बदलाव का जिक्र का करते हुये कहती हैं:-
स्वप्न आँखों में बसा पाए न हम
आँसुओं से भी सजा पाए न हम.

किस गिरावट ने हमें ऊंचा किया
कोई अंदाजा लगा पाए न हम.

इसके बाद अपने दिल का हाल बताते हुये वे लिखती हैं:-
यूं तो रौनक हर तरफ है फिर भी दिल लगता नहीं
क्या बताएं हम किसी को क्या कमी महफ़िल में है.

पूछो उससे बोझ हसरत का लिये फिरता है जो
क्या मज़ा उस ज़िंदगी में, गुज़री जो किल किल में है.

वंदेमातरम की यह प्रविष्टि लगभग तीन माह बाद आयी लेकिन जब आई तो बात किसी रोने-धोने की नहीं वरन गौरवपूर्ण सफलता की की गयी:-
आज इसरो आकाश से बातें कर पा रहा है क्योंकि उसकी नींव विक्रम साराभाई, सतीश धवन, ए.पी.जे. अब्दुल कलाम और अन्य वैज्ञानिकों के मजबूत कंधों पर रखी गयी है. अभी आने वाले समय में चन्द्रयान-१ और २, जी.एस.एल.वी. एम.के.-२,३,४ की परियोजनायें प्रमुख हैं. इसरो निश्चित ही विश्व-स्तर का कार्य कर रहा है. हमारे पास टी.ई.एस., कार्टोसेट - १ और २ ऐसे उपग्रह हैं जिनकी विभेदन क्षमता १ मीटर से भी बेहतर है, और गुणवत्ता की दृष्टि से इनसे ली गयीं तस्वीरें “गूगल अर्थ” की सर्वश्रेष्ठ तस्वीरों के आस-पास हैं.

अपनी कविता में बचपन की यादें सहेजते हुये सिलाई मशीन, चिट्ठी, कुर्सी, काला टीका, चारपाई का जिक्र करते हुये बेजीजी लिखती हैं:-
किताबों को पढ़कर चली कुछ बनाने....
सखी ने कहा बड़ा सुन्दर बना है...
तुझको दिया था बड़े प्यार से...
तू पहनेगी इसको इस अरमान से..
तूने उसको एक कोने में टाँगा........
तूने सोचा मैने देखा नहीं...
भरी आँख ले वहीं पर खड़ी थी....

शिल्पी जी ने आसाम की समस्या मद्देनजर दो लेख लिखे हैं-कैसे होगा पूर्वोत्तर की समस्या का हल। आसाम के निवासियों के असन्तोष का कारण बताते हुये उन्होंने लिखा:-
पूरे पूर्वोत्तर क्षेत्र में व्यापार-तंत्र पर नियंत्रण उन लोगों का है जो यहाँ दूसरे राज्यों से आकर बस गए हैं। स्थानीय मूल आबादी में इस स्थिति के खिलाफ धीरे-धीरे असंतोष फैलना शुरू हुआ और इसलिए जब 1980 के दशक में कई उग्रवादी संगठन अलगाववाद का नारा देकर क्षेत्र में सक्रिय हुए तो उन्हें जनसमर्थन भी आसानी से मिल गया।
अपने दूसरे लेख में इस समस्या के निदान के बारे में अपनी राय देते हुये शिल्पीजी ने लिखा:-
इसलिए, भारतीय संविधान के दायरे में यथासंभव स्वायत्तता प्रदान करते हुए उन्हें केन्द्रीय आर्थिक सहायता जारी रखना और साथ ही साथ उग्रवादी संगठनों के साथ सख्ती से निपटना ही पूर्वोत्तर की समस्या का सही समाधान है। लेकिन केन्द्र द्वारा दी जा रही आर्थिक सहायता का समुचित इस्तेमाल सुनिश्चित करने के लिए उसपर लगातार निगरानी रखे जाने की भी जरूरत है। उग्रवादियों के साथ कारगर तरीके से निपटने के लिए सेना एवं अर्धसैनिक बलों के साथ-साथ गुप्तचर एजेंसियों को पहले से अधिक चौकस भूमिका निभानी होगी।

उपरोक्त पोस्टों के अलावा सुनीलदीपक जी की पोस्ट है जिसमें उन्होंने तस्लीमा नसरीन की तारीफ़ की है। तमाम ज्ञान की बाते हैं जिनमें पैंट की जिप फंसने से लेकर बाल से च्विंगम छुड़ाने तक के जुगाड़ हैं। महाभारत कथा है और साथ में गिरीन्द्र नाथ झा के अनुभव:-
मैने पढा था,
परखना मत परखने से कोई अपना नही रहता.
उस समय केवल पढा था,
अब समझता हुं.
दर-दर भटक रहा हुं,
तो समझ रहा हुं.

आज की चर्चा में फिलहाल इतना ही। भूल-चूक, लेनी देनी।कल की चर्चा करेंगे गिरिराज जोशी।

आज की टिप्पणी:-


१.शायद यह आपबीती है। यदि नहीं है तब भी बेरोजगार युवक की मन:स्थिति को बखूबी बयाँ करती है। लेकिन संवेदना के साथ कविता का तत्व भी कुछ जोड़िए इसमें। सपाट कथन को बीच-बीच से तोड़ देने को कविता नहीं कहते।
सृजन शिल्पी
२.पहले शिल्पी महोदय...को..कविता मात्र
तुक्बंदियों का भावनात्मक वेग नहीं है..
कविता मात्र एक लय है जो मनोभावनाओं
से होकर गुजरती है...अत्यंत भावुक है भाई..
keep it up...it reveals a suppressed
sound of today's students.
डिवाइन इंडिया

३.वाह गुरूदेव, आपकी महिमा तो अपरमपार है!!!

काव्य में दर्द झलक रहा है, आप तन्हा-तन्हा लग रहें है और बधाईंयाँ (टिप्पणियों में) भी स्वीकार कर रहें है।

वाह!!! पहली बार देख रहा हूँ कोई किसी को तन्हा होने पर बधाई दे रहा है। :)

अब तो मैं भी अपनी तन्हाई चिट्ठे पर लाने वाला हूँ, शायद मुझे भी, बधाई के बहाने ही सही, ढ़ेर सारी टिप्पणियाँ मिल जायें :)

मेरी ओर से भी बहुत-बहुत बधाई!!!
गिरिराज जोशी

डिवाइन इंडिया

आज की फोटो:


आज की पहली फोटो आशीष के ब्लागअंतरिक्षसे
हीरो वाला नीला दानव

आज की दूसरी फोटो सुनील दीपक के ब्लाग छायाचित्रकार से
बंगलौर के शिवजी

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बुधवार, जनवरी 17, 2007

बसंती की अम्मा

कभी कभी दिल, आखिर दिल ही तो है, अपनी उड़ान भरने का मन बना ही लेता है और हमारी दिलेरी, कि हम अपने चैट द्वार पर उसका बोर्ड भी लगा दिये कि "एक आग का दरिया है और डूब के जाना है." हमारी ही सागर भाई भी अपना गाना टांगे थे "बेहुदा मजाक" .अरे, हम तो इस बारे में फिर पोस्ट लिख कर स्पष्ट कर देंगे मगर फुरसतिया जी खुब लपेटे. लपेटे तो लपेटे और कहे, पढ़ो. पढ़े, ये तो भला हो उपर वाले का कि हमारी बीबी ब्लाग में वही पढ़ती हैं जो हम उससे कह देते हैं. बस बच ही गये, नहीं तो न जवाब देते बनता न चुप ही रह पाते. आप भी पढ़ें, आग का दरिया, बसंती की अम्मा और कुछ हायकु, क्या तबियत से बात का बतंगड़ बनाया गया है एक सज्जन पुरुष( चोरी जब तक पकड़ी न जाये, चोरी थोड़ी कहलाती है) का, बल्कि एक का ही नहीं कईयों का.



बहरहाल जैसे घरों में लोग अपने नाम लिखते हैं वैसे ही लोग अपने नाम के आगे कुछ न कुछ संदेश लिख लेते हैं। जैसे रेलवे स्टेशन, एअरपोर्ट पर रिसीव करने वाले ड्राइवर तखती लगाकर आने वाले के स्वागत में खड़े रहते हैं। इसमें भी अजीब घपला है जो अपने यहां उपलब्ध की तखती लगाता है वह जवाब नहीं देता और जो व्यस्त रहता है वह सबसे ज्यादा गपियाता है। कहीं कनाडा में बर्फ गिरती है तो मानसी उसे अपने बक्से में सजा देती हैं। गिरिराज जोशी बहुत दिन तक सागर भाई को हंसाना है की तखती लगाकर रुलाते रहे।


और आगे:


सागर भाई के कल के गुस्से को देखकर मुझे शोले सिनेमा में पानी की टंकी पर चढ़े वीरू की याद आ गयी। सागर भाई वीरू की तरह धमकी दे रहे हैं और हम बसंती की अम्मा की तरह उनको उतारने में जुटे हैं। अब यह अलग बात है कि सागर भाई के निर्मल मन के कारण वे बसंती के लिये जिद नहीं करते और बसंती की अम्मा का ही कहना मान लेते हैं। लेकिन भैया ये बार-बार टंकी पर चढ़ना अच्छी बात नहीं! कहीं धोखे में एक और बसंती मिल गयी तो कंगाली में आटा गीला होगा!



मन घबराया तो भागे और मनीष भाई के दरवाजे पहुँचे. मालूम था पहले से कि अभी तो १७ गाने बजने है, तो कोई न कोई बज ही रहा होगा. सच में, १७ वाँ वाला रिकार्ड चालू था, मन बहल गया. बोले, सुबह सुबह ये क्या हुआ, हम कहे भईया, फुरसतिया जी ने हमें खुब लपेटा है, बस यही हुआ. बोले, चुप!! तुमसे नहीं पूछ रहे हैं, यही १७ वाँ गाना है. हम तो चुप हो गये मगर जीतू को चुप कराओ तब जानें. कभी कागज से, विडियो देखकर, खिलौने बनाओ और भी जाने क्या जुगाड़ लिये हल्ला मचा रहे हैं. इतने पर भी चैन कहाँ, अब ज्ञान भी लो कि कैरियर की यात्रा पर निकलते समय क्या क्या ले जाना है साथ वो बता रहे है और खुद की बात भूल गये. मोमबत्ती तो रखी ही नहीं सामान में या कि बाहर जाओगे तो जिप बोलेगी कि घर लौटो तब फसूँगी. लगे हाथ एक बेहद जरुरी ज्ञान, लगभग फ्री में, आशिष दे गये कि आप अपने कैसेट को एम.पी.३ में कैसे बदलें ,पसंद आया भाई!!

हम कन्फ्यूलिया गये तो सोचे यार कहीं कायदे से कविता वगरैह सुनें. तो ढ़ेर सारी चाँद तारा रोशनी दिखाई दी हिन्दी युग्म पर. हम सरल हृदय व्यक्ति, पूछ बैठे यार, है तो बेहतरीन मगर कितना और कब तक सुनाओगे-बोले जब तक ईनाम नहीं मिल जाता!! उनकी इच्छा, मंच तो सही है, लिखे भी अच्छा हैं, अब ईनाम में तो हमारा दखल है नहीं वरना दे देते. बस शुभकामना दे देते हैं.


चंद पत्थर के टुकडे दिखा कर
चाँद के पत्थर होनें का दावा करते हो
झूठे हो तुम
मैनें चाँद के सीनें में सिर रख कर धडकनें सुनी हैं
और बाहों में आ कर तो चाँद मोम हो जाता है...


अच्छा तो अब समझे, अगर कभी जीतू भाई वाले जुगाड़ में मोमबत्ती न मिले और चाँद निकला हो, तो उसे बाहों में भरने से भी काम चल सकता है. जीतू भाई, अपने ज्ञान वाले पिटारे में इस कविता को भी जोडिये.

और चलते हैं राकेश भाई की नई ताजा तरीन गज़ल सुनने, आधी लिखी रुबाई सा:

आँखों में रहता था मेरी, पलकों की परछाईं सा
आँखों से वो चला गया, चौराहे की रूसवाई सा


और फिर सुनाये आस्था घुल रही आज विश्वास में


ताल में ज्यों कमल पत्र पर से फिसल
ओस की बून्द लहरें जगाने लगी
नाम तेरे ने मेरे छुए जो अधर
सरगमें बज उठी हैं मेरी सांस में


वाह, वाह..बहुत खुब.

अंतरीक्ष जी लाये हैं एक ऐसा ग्रह जो सूर्य की परिक्रमा लुढ़क लुढ़क के कर रहा है, तो सुनील भाई भी विशालकाय गणपति जी महाराज की प्रतिमा ही ले आये. कोई क्यूँ रुके, इसी तर्ज पर मनीषा जी अतुल्य भारत की तस्वीरें दिखाने लगीं.

उपस्थित जी भी हमारा हाल देख कर एक जबरदस्त कविता सुना गये, प्रेम पगे छंद और मनोज भावुक जी ने एक से एक भोजपुरी गीत और गज़लें.

अफलातून जी बता रहे हैं कि कैसे एक भारतीय - मूल के अमरीकी नागरिक ने गांधीजी पर एक ‘व्यंग्य - विडियो ‘ बना कर यू-ट्यूब पर डाल दिया । भारत के कम - से - कम दो टेलिविजन चैनलों ने इस वीडियो को भरपूर दिखाया । इस सन्दर्भ में सम्बन्धित मंत्री को सम्बोधित याचिका पर आप भी अपनी सहमति और दस्तखत दे सकते हैं-कृप्या यहाँ जाकर लिंक देखें.

चलो यह सब करने के बाद जब आगे निकले तो देखते है कि क्षितिज भाई हिंसक युवा से परेशान है और अनुराग भाई, इनका तो कहना ही क्या, अपने तीन साल के बेटे के पीछे ऐसा पड़े हैं कि कुछ पूछो मत. यहाँ तक कि गाँधीगिरि के इस युग में अपनी पत्नी को भी हिंसा पर उतारु कर लिये है और वजह वही विदेशी कि लड़के को अंग्रेजी स्कूल में ही पढ़ाऊँगा. सोचो जरा, अगर आपके साथ भी यही जोर जबदस्ती की जाती तो आप ऐसे निकलते- अरे, हिन्दी ब्लाग लिखने को तरस कर रह जाते. मन के भाव मन में ही कौड़ी के भाव निलाम हो रहे होते. खैर, लिखे झक्कास हो और क्रमशः देखकर तसल्ली है कि अभी और लिखोगे एवं अंग्रेजी के लगाव के चलते यह आखिरी पोस्ट नहीं है. कम से कम एक और तो आयेगी ही. आप भी इंगलिस इस्कूल :


“मियाँ, बुरा मत मनना, ये कमबख़्त अंग्रेज़ी स्कूल ठीक से तालीम नहीं देते हैं। महज़ अंग्रेज़ी बोलना सिखा देते हैं। नींव पुख़्ता नहीं बनाते – हमारे और आप के मुकाबले में अंग्रेज़ी स्कूल के पढ़े लोग खड़े ही ना हो पायेंगे। अंग्रेज़ी भी काफ़ी गलत-सलत बोलते हैं और लिखते तो इतनी ख़राब हैं कि, मियाँ लाहौल विला कुव्वत, सिर्फ़ तरस ही आती है। आप हमारे ज़ाकिर साहब के भतीजे से नहीं मिले हैं, ताउम्र उन्होंने मदरसे में तालीम पायी और अब लंदन में रहते हैं और माशा अल्लाह क्या अंग्रेज़ी बोलते हैं कि गोरे भी पानी भरें!”


फिर प्रतीक भाई मिलवाये हालीवुड का रजनीकांत से और डॉ प्रभात टंडन जी पूरी डिटेल के साथ फोटू वगेरह के समेत सरवाईकल स्पान्डयलोसिस पर व्याख्यान दे रहे हैं.

अब जब चलने का वक्त आया, हमेशा की तरह विदा के समय आँख भरने लगी है तब आप बैठें नये साल की पहली गुलजार चौपाल पर .बहुत आन्नदित करता स्थल है, न मजा आये तब बताना.

अब चलें, नमस्कार!!


आज का चित्र:

अतुल्य भारत





गणपति जी महाराज:


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