गुरुवार, अप्रैल 30, 2009

एक टेंशनीय चिट्ठाचर्चा

टेंशन के दिन हैं. वैसे दिन तो चुनाव और क्रिकेट के भी हैं. लेकिन जो मज़ा टेंशन लेन-देन में है, वो क्रिकेट में कहाँ? वैसे भी क्रिकेट में अब मज़ा नहीं रहा. क्रिकेट में तो केवल शाहरुख़ और शिल्पा शेट्टी बाकी बचे हैं. कहते हैं पैसा-वैसा भी है लेकिन हमें तो लगता है कि अब वो ज़माना नहीं रहा जब क्रिकेट में पैसा होता था.

अब तो पैसे में क्रिकेट है.

आज अभय जी बी सी सी आई नामक पॉवर हाउस के बारे में लिखा है. कभी-कभी लगता है कि वहां जाकर आदमी पॉवर वाला हो जाता है कि पॉवर वाला रहता है इसलिए वहां पहुँचता है?

अभय जी ने इस पॉवर हाउस की अश्पृश्यता के बारे में लिखा. वे लिखते हैं;

"आखिर क्या है बी सी सी आई? ये कोई राजसत्ता है? पैसा पैदा करने वाला एक कॉर्पोरेशन है? किसी व्यक्ति या कुछ लोगों की इजारेदारी है? क्या है? एक आम समझ यह कहती है कि देश करोड़ो-करोड़ो दिलों में बसे खेल का प्रबन्धन करने वाली संस्था का मुख्य काम देश में क्रिकेट का पोषण और संरक्षण करना होना चाहिये। मगर ऐसा सचमुच है क्या?"


अब इसके बारे में क्या कहा जाय? यह तो हमारी उस नीति की वजह से हुआ है जिसके तहत इस देश में क्रिकेट को धर्म माना जाता है. जिस चीज को धर्म मान लिया गया, उसकी ऐसी-तैसी तय है. वैसे ही इस पॉवर हाउस की ऐसी-तैसी हो रही है.

क्रिकेट की इस गवर्निंग बॉडी में जमे लोगों के बारे में अभय जी लिखते हैं;

"पवार साहब का क्रिकेट से क्या सम्बन्ध है, इस सवाल को पूछने की गुस्ताखी कौन कर सकता है भला? पवार साहब की पुरानी तमन्ना है कि वो इस देश का प्रधानमंत्री बने। अपनी इस महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए वे हर तिकड़म, हर जुगाड़ बैठाने को तैयार हैं। शिव सेना से लेकर माकपा तक जोड़-तोड़ चल रही है। प्रधानमंत्री बन कर पवार साहब इस देश में कैसी अर्थव्यवस्था और कैसी न्याय व्यवस्था की स्थापना करेंगे इस का नमूना आप को बी सी सी आई की गतिविधियों में मिल जाएगा।"


आप अभय जी के इस लेख को पढें और आने वाले दिनों के बारे में कल्पना करें. कल्पना ठीक से हो जाए, तो एक-आध कविता लिख मारें.

आपने ब्लागिंग के खतरों के बारे में कभी सोचा है? भैया हमने तो नहीं सोचा. खामखा टेंशन हो जाएगा.

लेकिन अभिषेक ने ब्लागिंग के खतरों के बारे में न सिर्फ सोचा बल्कि लिखना भी शुरू कर दिया. वे लिखते हैं;

"हमारे धंधे में रिस्क या जोखिम उन चीजों में निकाला जाता है जहाँ लाभ और घाटा दोनों होता है. और दोनों में से कब कौन, कैसे और कितना हो जाएगा ये पता नहीं होता है. बिल्कुल जुए जैसी बात, और वो भी अपनी औकात से कई गुना कर्ज लेने की क्षमता के साथ जुआ खेलने वाली बात. अब युद्धिष्ठिर कर्ज ले लेकर जुआ खेल सकते तो क्या होता? कर्ज नहीं ले सकते थे तब तो क्या हाल हुआ ! खैर हमारे धंधे में लोग कहते हैं कि हम वही बता देंगे जो बताना संभव ही नहीं है. अरे क्या ख़ाक बताएँगे जब कृष्ण जैसे खतरा मैनेजर युद्धिष्ठिर को नहीं रोक पाए तो कोई और क्या खतरे बता पायेगा ! तो अगर मैं कहूं की ब्लॉग्गिंग में बस ये ही खतरे हैं और इसके अलावा कुछ नहीं हो सकता तो ये एक शुद्ध झूठ के अलावा और कुछ नहीं होगा. *"


युधिष्ठिर कर्ज लेकर जुआ खेलते तो और क्या होता, द्रौपदी के साथ-साथ दो-चार मिलियन डॉलर और हार जाते. बकौल परसाई जी; "हमारे यहाँ जुआ खेलने वालों को धर्मराज कहा जाता है."

द्रौपदी को जुए में हारने के बाद भी धर्मराज ही कहलाये. कर्ज लेकर जुआ खेलते तो भी धर्मराज ही कहलाते.

आज तो अभिषेक ने केवल भूमिका बांधी है. भूमिका के बाद वाली कहानियों के लिए सब प्रतीक्षारत हैं. आप भी भूमिका पढिये और कतार में लग जाइये.

जिन लोगों को बेनामी टिप्पणियों से टेंशन है, उन्हें समझाते हुए गगन शर्मा जी पूछते हैं;

बेनामी टिप्पणियों से टेंशन क्यों लेना?


"समीर जी, भटिया जी, शास्त्री जी, द्विवेदी जी, किसको नहीं सहने पड़े ऐसे कटाक्ष। पर इन्होंने सारे प्रसंग को खेल भावना से लिया। ये सब तो स्थापित नाम हैं। मुझ जैसे नवागत को भी शुरु-शुरु में अभद्र भाषा का सामना करना पड़ा था। वह भी एक "पलट टिप्पणी" के रूप में। एक बेनामी भाई को एक ब्लाग पर की गयी मेरी टिप्पणी नागवार गुजरी और वह घर के सारे बर्तन ले मुझ पर चढ बैठे थे। मन तो खराब हुआ कि लो भाई अच्छी जगह है, न मैं तुम्हें जानता हूं ना ही तुम मुझे तो मैंने तुम्हारी कौन सी बकरी चुरा ली जो पिल पड़े। दो-एक दिन दिमाग परेशान रहा फिर अचानक मन प्रफुल्लित हो गया वह कहावत याद कर के कि "विरोध उसीका होता है जो मशहूर होता है" तब से अपन भी अपनी गिनती खुद ही मशहूरों में करने लग पड़े।"


अब तो इस बात के लिए एक ब्लॉगर कमीशन बैठाया जाय कि अपने ब्लॉग पर बेनामी टिप्पणियां करके तो लोग मशहूर नहीं हो रहे हैं? लेकिन जाने दीजिये ऐसा करने से टेंशन बढ़ने का चांस रहेगा. इसलिए मस्त रहें. पोस्ट लिखें, टिप्पणियां करें और व्यस्त रहें.

किसी महान गीतकार ने लिखा है; "टेंशन काई कू लेना का?" जवाब आया; "सही बोलता है, सही बोलता है."

इसलिए बेनामी, अनामी, सुनामी टिप्पणियों से टेंशन न लें. आप शर्मा जी की पोस्ट पढिये और उन्हें इस सलाह के लिए धन्यवाद दीजिये.

लेकिन गाने से टेंशन दूर हो जाता तो फिर बात ही अलग होती. महान गीतकार के लिखे इस गाने को फिल्म उद्योग वाले ही नहीं याद रखते. पंकज शुक्ल जी भी टेंशनग्रसित है.

पंकज जी के टेंशन की वजह है आई पी एल. वे लिखते हैं;

"साउथ अफ्रीका में चल रहे आईपीएल के जश्न के बीच देसी मनोरंजन उद्योग का मर्सिया भी पढ़ा जा रहा है। जी हां, भले क्रिकेट मैच के शोर में हिंदी सिनेमा का ये शोक गीत किसी को सुनाई ना दे रहा हो, लेकिन जिन्हें इस उद्योग की चिंता है, वो नब्ज़ पर लगातार हाथ रखे हैं।"


समझ में नहीं आता कि क्या कहें? आधे से ज्यादा आई पी एल की टीम तो उनलोगों की है, जो फिल्म उद्योग से खुद हैं.

खैर, आप पंकज की पोस्ट पढिये. और कुछ सुझाव दीजिये जिससे फिल्म उद्योग का भला हो. देखिये आई पी एल तो साल में एक बार होता है. लेकिन फिल्में तो साल भर चलती हैं.

टेंशन की वजह से तनातनी लगी ही रहती है. डॉक्टर कुमारेन्द्र सिंह सेंगर जी लिखते हैं;

"अभी पिछले दिनों ब्लाग पर कुछ तना-तनी दिखी, एक टिप्पणी को लेकर। सवाल साहित्यकार को लेकर उठा जो एक विवाद के रूप में सामने आया। किसी ने उसे अपने स्वाभिमान पर लिया तो किसी ने साहित्यकार शब्द पर ही संशय कर डाला।"


डॉक्टर साहब साहित्य के विद्यार्थी हैं. अब जैसा कि विद्यार्थी सवाल पूछता है, डॉक्टर साहब भी सवाल पूछते हैं. क्या कहा? कैसा सवाल? उन्ही से सुनिए;

"चूँकि हम हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी हैं और एक सवाल हमेशा हर उस व्यक्ति से पूछते हैं जो अपने को साहित्य से जुड़ा बताता है कि ‘‘साहित्य किसे कहेंगे?’’ इस सवाल ने हमेशा हमें परेशान किया है। उपन्यास, कहानी, कविता, ग़ज़ल, लघुकथा, नाटक आदि विधायें ही साहित्य हैं? साहित्य में संस्मरण, आलेखों को भी स्थान दिया जाता है, बस यहीं पर आकर सवाल फँसा देता है कि किस प्रकार के आलेखों को साहित्य में शामिल करेंगे?"


अपनी पोस्ट का समापन करते हुए डॉक्टर साहब लिखते हैं;

"पहले साहित्य का मर्म समझो, साहित्यकार की साधना समझो फिर अपने को साहित्यकार कहलवाने का दम पैदा करो। अपनी दैनिक चर्या को लिख देना, कुछ इधर-उधर की बकवास को चाशनी लगाकर लिख देना, सुंदरता, विमर्श की चर्चा कर देना, समाचारों को आधार बनाकर ब्लाग को रंग देना, तमाम सारी टिप्पणियों को इस हाथ दे, उस हाथ ले के सिद्धांत से पा लेना ही साहित्य की तथा साहित्यकार की पहचान नहीं।

जरा साहित्य पर दया करिए, हिन्दी साहित्य पर दया करिए साहित्यकारों का सम्मान कीजिए। यदि इतना कर सके तो ठीक अन्यथा साहित्य एवं साहित्यकार की लुटिया न डुबोइये।"


वैसे पोस्ट का समापन करने से पहले बहुत सारे सवाल किये हैं डॉक्टर साहब ने. आप सवालों की सूची उन्ही के ब्लॉग पर पढिये. और हो सके तो उनकी शंका का समाधान कीजिये. वैसे यहाँ मैं बता दूं कि उनके सवालों के जवाब की जगह सवाल आया है. वो भी समीर भाई से. समीर भाई ने अपनी टिप्पणी में लिखा;

"लुटिया तो बाद में डू्बेगी अव्वल तो हमें इतना पढ़ने पर भी स्पष्ट नहीं हुआ कि साहित्यकार कौन? कोई तो स्पष्ट परिभाषा होगी-हम तो साहित्य के विद्यार्थी नहीं रहे, आप ही बतायें न भई.

बेनिफिट ऑफ डाउट तो मिलना ही चाहिये-इस बेस पर तो आदमी मर्डर में छूट जाता है तो यहाँ तो पुरुस्कार की बात है. :)"


क्या नेताओं और लोकतंत्र पर आम आदमी का विश्वास कम होता जा रहा है?

यह प्रश्न पूछा है श्री बच्चन सिंह जी ने. नेताओं के खिलाफ जूतामार अभियान के बारे में लिखते हुए वे पूछते हैं;

"क्या इस तरह की घटनाओं और मतदान में लगातार आ रही कमी के बीच कोई संबंध है? क्या नेताओं और लोकतंत्र की विश्वसनीयता दिन प्रतिदिन कम हो रही है और आम आदमी का इस व्यवस्था से मोहभंग हो रहा है? वास्तविकता यही है। लोकतंत्र का मुखौटा लगाए सामंतवाद और परिवारवाद देश में तेजी से पांव पसार रहा है। आम जनता मुसीबतों में उलझती जा रही है और नेता मालामाल हो रहे हैं। नामांकन पत्र के साथ जब कोई प्रत्याशी अपनी संपत्ति का ब्यौरा दाखिल करता है तो मतदाताओं की आखें फटी रह जाती हैं। वह यह देखकर हैरान रह जाता है कि कोई प्रत्याशी अपनी लखपति से कम नहीं है। करोड़पति भी है और अरबपति भी।"


आप बच्चन सिंह जी की यह पोस्ट ज़रूर पढिये. बहुत ही बढ़िया पोस्ट है.

अनिल रघुराज जी ने आज बताया कि;

नेता को नुमाइंदा नहीं आका मानते हैं हम.


इस बात की जानकारी देते हुए वे लिखते हैं;

"अगर स्थानीय निकाय का चुनाव होता तो मैं आंख मूंदकर सोमैया को ही वोट देता। लेकिन क्या राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी को गलत मानने के बावजूद उसके लोकसभा प्रत्याशी को वोट देना इसलिए सही होगा क्योंकि स्थानीय स्तर पर उसने अच्छे काम किए हैं? ये माया किसलिए, यह छलावा किसलिए? कोई दादी की साड़ी पहनकर छल कर रहा है, कोई दलालों की बूढ़ी पार्टी का युवा चेहरा बनकर। कोई अंग्रेजी को गाली देकर तो कोई अभिनेताओं, अभिनेत्रियों का मजमा जमाकर। अरे भाई, खुलकर क्यों नहीं सामने आते? नकाब क्यों लगाकर आते हो?"


नकाब बड़े काम का पहनावा है. पहनने वाला हमें देख पाता है लेकिन हम उसे नहीं देख पाते. अनिल जी की पोस्ट पढिये. आप भी देख पायेंगे नकाब लगाने वालों को. फिर कोई टेंशन बाकी नहीं रहेगी.

शादी की सालगिरह बहुत सी बातों को पीछे मुड़कर देखने के लिए उकसाती है. ब्लॉग बनाने के लिए भी....:-)

शादी की दसवीं सालगिरह पर रचना त्रिपाठी जी ने अपना ब्लॉग शुरू किया. आप उन्हें शादी की सालगिरह की मुबारकबाद टिप्पणी करके दे सकते हैं.

अनुराग अन्वेषी जी ने ब्लॉगर साथियों से एक अपील की है. जहाँ रचना जी ने शादी की सालगिरह पर अपना ब्लॉग शुरू किया, वहीँ अनुराग जी के भांजे अभिनीत ने अपना ब्लॉग शुरू किया जिसका नाम है; "गिरह". अनुराग जी के अनुसार;

"अभिनित मेरा भांजा है. उम्र से महज १२ साल, पर बुद्धि से २१ साल वालों बड़ा."


आप अभिनीत का स्वागत करें.

आज आदित्य के चाचा की शादी है.....मतलब यह कि आदित्य ने आज चाचा की शादी के बारे में लिखा है. फोटो वगैरह के साथ. आप आदित्य को टिप्पणी और उसके चाचा को बधाई से नवाजें.

ताऊ जी ने आज श्री नितिन व्यास का परिचयनामा छापा है. आप पढें और नितिन जी के बारे में जानें. ताऊ जी को प्रस्तुति के लिए बधाई दें.

अनिल कान्त जी आज प्रेम से अलग कुछ सप्रेम कह रहे हैं. आप ही पढिये, क्या कह रहे हैं वे.

आज के लिए बस इतना ही.

चर्चा से अगर बोरियत की प्राप्ति हो तो उसे शाम को न्यूज चैनल पर चुनावोपरांत की गई भविष्यवाणियों को देख-सुन कर दूर करें.

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बुधवार, अप्रैल 29, 2009

ब्लॉगजगत की हवेली के अनगिनत दरवाज़े

पहली बार अनायास ही हमारे द्वारा की गई चिट्ठाचर्चा आप सबके सामने आ गई या यूँ कहिए कि रविरतलामीजी का कहा टाल न सके और अनूप शुक्ल जी ने झट से मंच पर धकेल दिया... लेकिन मंच पर आकर कुछ पल दिल धड़का फिर आप सब के प्रोत्साहन ने सामान्य कर दिया

कभी कभी हमें ब्लॉग जगत हवेली लगती है जिसके हज़ारों चोर दरवाज़े भी हैं...उन्हें खोल कर अन्दर जा कर उनका रहस्य जानने के लालच को रोक नहीं पाते ... यह ऐसी हवेली है जिसमें हर रोज़ कुछ न कुछ नया निर्मित होता ही रहता है...नए नए ब्लॉग बनते रहते है...

पुराने का मोह बना रहता है तो नए का आकर्षण भी कम नहीं होता... वक्त जितना साथ दे उतना ही आनन्द ले लिया जाए. यह सोचकर जब भी मौका मिलता है किसी भी दरवाज़े को खोल कर अन्दर जा पहुँचते हैं....

हवेली में दाखिल होते ही पहला दरवाज़ा जो खुला वहाँ देखा कि हिमांशुजी टिप्पणीकार की विस्तार से विवेचना कर रहे हैं... हम चुपचाप बिना कुछ कहे ब्लॉगजगत की हवेली के अन्य कमरों में चक्कर लगाने निकल गए..... जी तो बहुत चाहता है कि कमरे में पसरी धूल मिट्टी को हटा दें, लेकिन हाथ से कुछ नाज़ुक सा छूट कर टूट न जाए , बस इसी डर से कुछ भी छूने की हिम्मत नहीं कर पाते....

अगले कमरे का दरवाज़ा खोला तो घुप अन्धेरा पाया.... कैसे कोई अन्धेरे में किसी पर वार कर सकता है बिना डरे..... किसी को भी गहरी चोट लग सकती है......ऐसे में चोट तो लगती है पर उसकी दवा भी कहीं न कहीं से मिल ही जाती है... कटु शब्दों में टिप्पणी देने वाले भी जानते हैं कि वे किसी को दुखी कर रहे हैं इसीलिए तो वे बेनाम रहते हैं...
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कटु वचन बहुत बुरे होते हैं और उनकी वजह से पूरा बदन जलने लगता है। जबकि मधुर वचन शीतल जल की तरह हैं और जब बोले जाते हैं तो ऐसा लगता है कि अमृत बरस रहा है।
कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।

मन बोझिल होने लगा तो ‘ब्लॉगर पहचान पहेली’ सुलझाने के लिए अगले दरवाज़े को खोल दिया...अचानक काली बिल्ली म्याऊँ म्याऊँ करती दिखाई दी..... ध्यान से देखा तो हमारा माउस उसके माथे पर था... फिर तो माउस भाग भाग कर कभी पूँछ को छेड़े तो कभी उसके गले में पड़े पट्टे पर नाम के लॉकेट को हिलाए....बिल्ली की गुर्राहट सुनते ही वहाँ से खिसक लिए...
वहाँ से पहुँचे बाल उद्यान जहाँ योग मंजरी के साभार बहुत अच्छी कहानी को पढ़ने को मिली...

किसान ने ढिबरी को जलाकर पूछा -"बताईये इस ढिबरी में प्रमुख वस्तु क्या है?"
"प्रकाश" राजा का उत्तर था
"आख़िर यह प्रकाश आता कहाँ से है?", किसान ने फिर पूछा
"बत्ती के जलने से"
"क्या बत्ती अपने आप जलती है?"
" नही, उसका कारण तेल है"
" तेल कहाँ है?"
" ढिबरी के अन्दर"अबकी बार किसान मुस्कुराया
बोला- "राजा जी, आपके सवाल का जवाब मिल गया........!!!!!
क्या जवाब हो सकता है !!!!

ज्ञान जी कहते हैं कि भारतीय बाल कहानियां और भारतीय बाल कवितायें यहां का वैल्यू सिस्टम देते हैं बच्चों को। वे मछली का शिकार नहीं सिखाते। बल्कि बताते हैं – मछली जल की रानी हैऔर उधर उन्मुक्त जी मछली पकड़ने के सुन्दर काँटे की वीडियो दिखा रहे हैं... मछली जल की रानी है और उसे पकड़ने के लिए सुन्दर काँटा भी है.....

यह पढ़ कर नानी का कहा याद आ गया --- "जीव जीव का रक्षक है , जीव जीव का भक्षक है"...
शिवजी कहते हैं कि परीक्षा देना और लेना, दोनों बहुत महत्वपूर्ण काम है. परीक्षा के लेन-देन का यह कार्यक्रम तब से चला आ रहा है, जब देवता लोग मनुष्य को दूर बैठे देख पाते थे. ऊपर बैठे देवता मनुष्यों को देखते रहते और जब इच्छा होती परीक्षा ले डालते।
उधर द्विवेदी जी कहते हैं... देव और दानव किताबों में खूब मिलते हैं। लेकिन पृथ्वी पर उन के अस्तित्व का आज तक कोई प्रमाण नहीं है। निश्चित रूप से जिन लोगों का देव और दानवों के रूप में वर्णन किया गया है, वे भी इन्सान ही थे।

अगर यह सच है तो अपने वजूद को बचाने के लिए इंसान को कितनी मुश्किल होती होगी...क्योंकि कभी अन्दर के देव को बाहर लाने की कोशिश और कभी दानव से मुकाबला॥
मानव प्रकृति यही है...

अनूपजी द्वारा की गई चर्चा में आई इस टिप्पणी ने ध्यान खींचा ......... Arvind Mishra
कुछ और शंकाएँ दूर कर दें तो उपकार होगा -शिव भाई तो मौन ले लिए अब पूरी उम्मीद आपसे ही है ।क्या नर्गिस नाम का फूल अनाकर्षक होता है ? क्या आपने नर्गिस का फूल देखा है ? क्या हजारों साल में ऐसा भी होता है कभी कि यह सुन्दर /आकर्षक हो उठता है ? कोई लाख अपनी बेनूरी पर रोता रहे क्यों कोई दीदावर हो पैदा ? दीदावर तो किसी खास चाह को लेकर ही प्रगट होगा ? क्यों वह हजारो साल से किसी निस्तेज सी पडी चीज को देखने के लिए एक जन्म बर्बाद करेगा ? ये सारे प्रश्न इमानदारी से पूंछे गए हैं ! कोई मेरी मंशा /शेर को न समझ पाने की मूर्खता पर जरा भी शक न करे इस शेर ने अपने को ठीक से न समझा पाने के जद्दोजहद में मेरे जीवन के तीन दशक बर्बाद किये हैं ! अब आप मिल गए हैं तो समझ के ही छोडूंगा ! नरगिस की खूबसूरती और उसकी गज़ब की खुशबू से एक अजब सा नशा छा जाता है। मौसी के घर कुल्लू जब भी जाते तो नरगिस के फूलों का एक गुच्छा तो दिल्ली ज़रूर लेकर आते. हज़ारो साल से नरगिस अपनी बेनूरी पर क्यों रो रही है...इस शेर को सुनकर हमने भी यही सवाल किसी से पूछा था ॥ तो उन्होंने यह शेर सुना दिया.....

नरगिस तुझमें तीन गुण, रूप, रंग और बास
अवगुण तेरा एक है, भ्रमर न बैठे पास !!

हवेली के कुछ कमरों की नई सजावट देखी

चाँद पुखराज में 'वेव लैंथ'
निर्मल आनन्द के इस्लाम पर खरी खरी
ह्रदय गवाक्ष के परिन्दे घोंसला बना न सके
संवाद शीर्षकहीन (जैसे हो खाली कमरा )
यायावरी में माँ के ह्रदय का स्नेह वरण

सात समुन्दर पार बेचैन माँ 'जन्मदिन मुबारक हो मम्मी' सुनकर धन्य हो गई....माँ की ममतामयी साँसों की खुशबू यहाँ तक महसूस हुई.... माँ की ममता का यही रूप है....हमें भी एक बेटे से मिलने की खुशी और दूसरे से विछोह की तड़प हो रही है...

सफ़र की तैयारी करते करते आज की चर्चा हो पाई.... शाम तक हम अपना देश छोड़ दूर खाड़ी देश पहुँच चुके होगें....!

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मंगलवार, अप्रैल 28, 2009

पुस्तक चर्चा, टिप्पणी चर्चा

कल पुस्तकचर्चा के अंतर्गत दो पोस्टें छूट गयीं थीं। एक पुस्तक की चर्चा नीरज गोस्वामीजी ने की थी। उन्होंने राजेश रेड्डी के गजल संग्रह उड़ान का जिक्र करने से पहले राजेश रेड्डी के बारे में जानकारी दी! येल्लो भैया नीरजजी भी तालेबाज हो गये। आप उनके ब्लाग पर ही आगे की पुस्तक चर्चा बांच लीजिये। हम न खुटखुटाने वाले अब आगे।


मार्कोपोलो का सफ़रनामा
दूसरी पुस्तक की चर्चा अजित वडनेरकर के ब्लाग पर हुई। मार्कोपोलो का सफ़रनामा किताब का जिक्र करते हुये उन्होंने पहले मंगोलों के बारे में बताया:
वे लोग दस दिन बिना खाना खाए घुड़सवारी करते रहते थे और अपनी शारीरिक शक्ति बनाये रखने की लिए घोड़े की कोई नस खोल कर खून की धार को अपने मुंह मे छोड़ देते। मंगोल सैनिकों की इसी शारीरिक शक्ति ने उन्हें संसार का सबसे बड़ा अर्धांश जीतने में सहायता दी। असली मंगोल लोग इसी तरह की होते थे।



अबीर
सन्मार्ग प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित इस किताब के मूल लेखक मॉरिस कॉलिस और अनुवादक उदयकांत पाठक हैं। यह पुस्तक चर्चा की है पंद्रह वर्षीय अबीर ने जो भोपाल के केन्द्रीय विद्यालय में 11वीं कक्षा के छात्र हैं। इतिहास, भूगोल में बहुत दिलचस्पी रखते हैं। मानचित्र-पर्यटन के शौकीन हैं। पिछले दिनों हमारे संग्रह से मार्को पोलो पुस्तक इन्होंने पढ़ी तो अजितजी ने उनसे समीक्षा झटक ली। आशा है अबीर आगे भी इस तरह की समीक्षायें लिखते रहेंगे।


मार्कोपोलों के बारे में जानकारी देते हुये अबीर लिखते हैं:

मार्कोपोलो की इस यात्रा का प्रारंभ 1271 में सत्रह वर्ष की उम्र में होता है। वेनिस से शुरू हुई उसकी यात्रा में वह कुस्तुन्तुनिया से वोल्गा तट, वहां से सीरिया, फारस, कराकोरम, कराकोरम से उत्तर की ओर बुखारा से होते हुए मध्य एशिया में स्टेपी के मैदानी से गुज़रकर पीकिंग पहुंचता है, जहां उसके पिता और चाचा कुबलाई खां के दरबार में अधिकारी हैं। इस पूरी यात्रा में साढ़े तीन वर्ष लग जाते हैं और इस अवधि में वह मंगोल भाषा सीख लेता है।


अजितजी के ब्लाग की साज-सज्जा देखकर दिल खुश हो जाता है। सर्वांग सुन्दर ब्लाग। आज तो वे गोलगप्पे खिला रहे हैं जी लपक लें।

कल काफ़ी टिप्पणी चिंतन हुआ। आज कुछ झलक और देख लें जी। कबाड़खाना हिंदी ब्लाग जगत के बेहतरीन ब्लागों में से एक है। इसके माध्यम से हमें अपनी भाषा में संसार के बेहतरीन लेखन की जानकारी मिलती रहती है। पिछले दिनों कुछ अशोभनीय टिप्पणियों के चलते अशोक पाण्डेयजी ने इस पर कमेंट माडरेशन चालू किया। शिरीष कुमार मौर्य का इस पर कहना था:
सही समय पर लिया गया एक बिलकुल सही फैसला. कबाड़खाने का सदस्य होने के नाते मैं भी पिछले कुछ समय से चाह रहा था कि हम इस बारे में कोई ठोस क़दम उठाएं. हमारे ब्लॉग की गरिमा हमारे लिए सर्वोपरि है और कबाड़खाना की ब्लॉगजगत में क्या हैसियत है, इसे कौन नहीं जानता ! आपके इस निर्णय का मैं स्वागत करता हूँ.

कल शिरीषजी ने कबाड़खाना पर अपनी पोस्ट में लिखा :
पिछली पोस्ट पर मेरी टिप्पणी पर मुनीश जी की इस टिप्पणी और इसके प्रकाशन पर मैं कबाड़खाना छोड़ रहा हूँ। उम्मीद है मेरे इस फैसले से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। ये एक मूर्ख की विदाई है ! इसे इससे ज़्यादा कुछ न समझें ! सभी दोस्तों से मुआफी !

मेरी टिप्पणी : समकालीन हिन्दी साहित्य संसार के लिए ये सपनों सरीखी बातें हैं। बहुत बढ़िया पोस्ट- बहुत बढ़िया सपना ! "सपनों के सौदागर" ! मुझे लगता है कई सालों से प्रकाशित हो रही ये किताब इस साल पुस्तक मेले में आ जाएगी।
मुनीश जी की टिप्पणी : Some of them may be ur friends , but i feel the most unwanted people in the realm of literature are none but critics! Who are they to instruct people what to read and what not to! This 'kaum' has strangulated many a budding talent in the spring of their lives . Not everyone had the nerves of steel like Marquez.


शिरीषजी ने बाद में अपने ब्लाग पर भी कबाड़खाना छोड़ने की सूचना दी।

मुनीश ने अपनी सफ़ाई देते हुये कहा कि वे शिरीष के निर्णय से हतप्रभ हैं। नीरज रोहिल्ला ने भी लिखा- Good for you. Although, I didn't see how the comment was offensive

सच तो यह है कि मुझे भी यह समझ में नहीं आया कि मुनीश की टिप्पणी में आहत होने की कौन सी बात थी। लेकिन शिरीष जी संवेदनशील हैं उन्हें जो बात बुरी लगी होगी शायद उस तक मेरी पहुंच ही न हो। मुझे एक बार फ़िर ब्लाग माडरेटर की बेचारी स्थिति का एहसास हुआ। अशोक पाण्डेयजी ने मुनीश की टिप्पणी प्रकाशित कर दी शायद उनको उसमें कोई असहज बात नहीं लगी होगी। लेकिन शिरीष को खराब लगा और वे अशोक पाण्डेयजी से खफ़ा होकर कबाड़खाना छोड़ गये।

हालांकि यह अशोक पाण्डेयजी और शिरीष के बीच की बात है और इस बारे में मेरा कुछ कहना सही नहीं लगता लेकिन आम पाठक की हैसियत से मुझे कि शिरीष जी का निर्णय उचित नहीं लगता। एक टिप्पणी से आहत होकर आप उस ब्लाग को छोड़कर चल दिये जिसे एक हफ़्ते पहले आप अपना ब्लाग बताते थे और उसकी गरिमा को सर्वोपरि मानते थे।

मेरा अपना ब्लागिंग का चार साल से कुछ अधिक जितना अनुभव है उसके अनुसार सामूहिक ब्लाग के माडरेटर की स्थिति शंकर जी के बरात के संयोजक की सी होती है। सदस्यों में तालमेल रखना मुश्किल काम होता है। अगर कबाड़खाना के संयोजक अशोक पाण्डेय जी की जगह शिरीष कुमार मौर्य होते तो वे इस मुनीश की टिप्पणी से शायद इतने आहत नहीं होते और न कबाड़खाना छोड़ने/बंद करने की बात करते। ब्लाग अभिव्यक्ति का माध्यम है। खुले ,त्वरित संवाद का एक जरिया। लेकिन इस माध्यम ने यह नहीं कहा कि आप अपने संवाद के अन्य माध्यम का उपयोग बन्द कर दें। कबाड़खाना छोड़ने न छोड़ने की पोस्ट लिखने से पहले ब्लाग माडरेटर से संवाद कर लेना शायद बेहतर होता।

नानक जी की बात याद आती है जो उन्होंने कुछ भले लोगों से कही थी कि तुम सब उजड़ जाओ, अलग-अलग हो जाओ। अच्छे लोग बहुत दिन साथ नहीं रह पाते। छुई-मुई संवेदन उनको आदर सहित अलग-अलग कर देती है और जिस उद्देश्य के लिये वे साथ-साथ चले थे वो इसका खामियाजा भुगतता है।

टिप्पणी को लेकर ही मुंबई टाईगर ने एक पोस्ट लिखी थी- हिन्दी ब्लोग जगत मे टीपणीकारो का भयकर अभाव :व्यग इस पर किसी अनामी टिप्पणीकार ने टिपियाया-
naam tiger kam gidad ka. ye jo nam likhe hain, inko tel lagane se behtar hai naye ane walo ka swagat karo. badiya parosoge to naye log judege. in namo ki chamachagiri karane se kuchh nahi milanewala.


एक बहादुर की तरह मुंबई टाईगर ने अनामी ब्लागर की टिप्पणी प्रकाशित की और सवाल पूछा- क्या ज्ञानदत्तजी,समीरजी,भाटीयाजी,शास्त्रीजी,ताऊ, बैगाणीजी,मिश्राजी, फुरसतियाजी को मैने तेल लगाया ? अब बताइये ई बात का कौन जबाब है?

कल शिवबाबू अपने ब्लाग पर एक ठो शेर ठेल दिये-

हजारों साल 'नर्गिस' अपनी बेनूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा


तमाम लोग इसका अर्थ लगाते पाये गये। हमें लगता है कि कवि यहां कहना चाहता है कि कोई नर्गिस है जो हज्जारों साल रोती रहती है कि उसे कोई देखने नहीं आता है। वह अपने को बेनूर समझने लगती है। तब कवि नर्गिस को कवि समझाता है कि चमन में ऐसे लोग बड़ी मुश्किल से पैदा होते हैं बोले तो बर्थ लेते हैं जिनके दीदे माने बड़ी आंखें होती हैं। मतलब कवि आशावादी है और नर्गिस को समझाता है तू रो मत दीदे फ़ाड़ के देखने वाला देर से पैदा होता है लेकिन थोड़ा समय लगता है।

टिप्पणी/प्रतिटिप्पणी:


कल हिमांशु ने टिपियाया:और यह टिचन्न रहें, कौन सा मुहावरा है? कहीं इसका मतलब टिप्पणी चितन्न से आछन्न रहें तो नहीं !
टिचन्न रहें का मतलब यह भी समझ में आ रहा है कि टिप्पणी चिन्तन से सन्न रहें ।

हिमांशुजी जब कोई व्यक्ति बतियाता है तो उसकी शारीरिक भावभंगिमायें (बाडी लैन्गुयेज )भी बहुत कुछ संप्रषित करती है। कभी -कभी ये बाडी लैन्गुयेज भाषा से अधिक संप्रेषण करती है। ऐसे ही शब्दों की भी बाडी लैन्गुयेज होती है। ई किसी शब्दकोश में या मुहावरा कोश में न मिलती है। बस समझ में आने वाली बात है। गूंगे का गुड़ टाइप। ऐसे ही टिचन्न शब्द भी है। बस ऐसे ही निकल पड़ा। जैसे कहते हैं कि अ मैन इज नोन बाई द कम्पनी ही कीप्स ऐसे ही शब्द किसके साथ आ रहा है उससे उसका अर्थ ध्वनित होता है। मैंने लिखा -आपका हफ़्ता चकाचक शुरू हो! प्रसन्न रहें, टिचन्न रहें। मुस्कराते रहें, मस्त रहें। इससे मतलब लगाया जा सकता है कि टिच्चन का मतलब कुछ उल्लास मय ही होगा। जैसे रागदरबारी में छोटे पहलवान कहते हैं- हम यहीं चु्र्रैट हैं। इससे अन्दाज लगता है कि वे कहना चाहते हैं वे जहां हैं मजे में हैं। आपको कुछ और मजेदार शब्द संयोजन देखना चाहें तो कानपुर के अविस्मरणीय व्यक्तित्व मुन्नू गुरू के बारे में पढ़ें।

अनिल पुसदकर ने लिखा:चर्चा से ज्यादा तो लगता है,मुझे आपकी मेहनत की तारीफ़ करनी चाहिये।काश ये लगन और ये मेहनत करने का ज़ज़्बा हमारे पास भी होता।सलाम करता हूं आपको।

अनिलजी आपकी तारीफ़ का शर्माते हुये शुक्रिया। असल में हमारे अभी चर्चाकार साथी जुटे रहते हैं और चर्चा होती रहती है। चर्चा करने का कभी-कभी मन नहीं होता कि क्या चर्चा करना? जिसको जो पढ़ना है पढ़ ही लेगा लेकिन जैसे ही लैपटाप खुलता है, खुटुरपुटुर होने लगती है। यह हमारे हर चर्चाकार साथी के साथ होता है।


अन्य सभी साथियों की टिप्पणियों का भी शुक्रिया। डा.बन्धुओं सर्वश्री अनुराग-अमर जी के दिये ब्लाग पोस्टों का जिक्र कर नहीं पा रहा हूं लेकिन साथियों से अनुरोध है कि वे इन पोस्टों को पढ़ें। लप्पूझन्ना तो एकदम तैयार उपन्यास है जस का तस छपने के लिये।

और अंत में

आज चर्चा देर से शुरू कर पाये इसीलिये कम पोस्टों का जिक्र हो पाया। लेकिन संभव हुआ तो शाम को फ़िर कुछ लिखेंगे। कल की चर्चा मीनाक्षी जी करेंगी।

फ़िलहाल इतना ही। आपका दिन शुभ हो।

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सोमवार, अप्रैल 27, 2009

जूता, जोरा-जामा, मुखौटा और गिरगिट

चुनाव सभाओं में अभी जूते चलने बन्द नहीं हुये हैं लेकिन इष्टदेव सांकृत्यायन ने अथातो जूता जिज्ञासा की आखिरी किस्त पेश कर दी। उन्होंने आवाहन किया
अपने संपर्क में आने वाले हर शख़्स को यह समझाने की ज़रूरत है कि एक बोतल, एक कम्बल, एक सौ रुपये के लिए अगर आज तुमने अपने पास का खड़ाऊं बर्बाद कर दिया, झूठे असंभव किस्म के प्रलोभनों में अगर आज तुम फंस गए, तो उम्र भर तुम्हें इसकी क़ीमत चुकानी पड़ेगी. जाति-धर्म-क्षेत्र-भाषा के जाल में फंसने जैसा महापाप अगर आज तुमने किया तो इसका प्रायश्चित तुम्हारी कई पीढ़ियों को करना पड़ेगा. इसलिए सिर्फ़ इस पाप से बचो. निकालो अपना-अपना खड़ाऊं और दे मारो उन माननीयों के मुंह पर जो आज तक तुम्हें भांति-भांति की निरर्थक बातों से बहकाते रहे हैं.

हिमांशु आजकल टिप्पणी चिंतन में लगे हैं। उन्होंने लिखा
टिप्पणीकारी का महत्व इस बात में निहित है कि वह प्रविष्टि के मूलभूत सौन्दर्य को अक्षुण्ण बनाये रखते हुए उस प्रविष्टि के रिक्त स्थान को भरे और श्रृंखला को अविरल बनाये रखे ।


अनिल ने आदर्श टिप्पणीकार संहिता पेश कर दी कि टिप्पणी कैसे करें! मौका का फ़ायदा उठाते हुये ज्ञानजी ने अपनी एक पुरानी पोस्ट का लिंक ठेल दिया जिसमें उन्होंने स्थापना दी थी-देश में प्रजातंत्र है। हिन्दी ब्लॉगिंग में टिपेरतंत्र!

जनहित में बता दें कि हमारी जानकारी में ब्लागजगत में पहला टिप्पणीचिंतन जीतेन्द्र चौधरी ने किया था। टिप्पणी के बारे में अलग-अलग लोगों के अलग-अलग विचार होंगे। मेरा अपना मानना है कि आपके ब्लाग पर टिप्पणियां आपके लेखन, आपकी नेटवर्किंग ,आपके व्यवहार और अन्य तमाम बातों पर निर्भर करती हैं। मेरा मानना है कि:
  • टिप्पणी को अपने प्रति प्रेम का पैमाना न बनायें। बहुत लोग हैं जो आपसे बहुत खुश होंगे लेकिन आपके ब्लाग पर टिपियाते नहीं। टिप्पणी तो क्षणिक है जी। प्रेम शाश्वत है। आराम से प्रकट होगा।

  • टिप्पणी किसी पोस्ट पर आयें या न आयें लिखते रहें। टिप्पणी से किसी की नाराजगी /खुशी न तौले। मित्रों के कमेंट न करने को उनकी नाराजगी से जोड़ना अच्छी बात नहीं है। मित्रों के साथ और तमाम तरह के अन्याय करने के लिये होते हैं। फ़िर यह नया अन्याय किस अर्थ अहो?



  • वैसे रविलामी ने टिप्पणी पाने का फ़ंडा बताया है- स्मार्ट दिखो, अच्छे और ढेर टिप्पणी पाओ
    जगदीश भाटिया हमेशा की तरह पोस्ट लिखने में अब भी लेटलतीफ़ हैं। बताइये वे लोकसभा चुनाव" के प्रत्याशी के लिए आदर्श आवेदन पत्र अब पेश कर रहे हैं जबकि तमाम जगह वोट पड़ गये। लेकिन आप देख लीजिये न वे इस आवेदन पत्र में क्या-क्या सूचनायें मांग रहे हैं। कुछेक तो यहीं देख लें:
  • राजनैतिक पार्टी: ____________ _________
    * आप अभी तक जिन दलों में शामिल थे उनमें से केवल पिछले पांच दलों का नाम दें

  • पिछली पार्टी छोड़ने के कारण (एक या अधिक को सर्कल करें ) :

    A-भीतरघात

    B- निष्कासित
    C-खरीद लिये गये
    D ऊपर से कोई नहीं
    E सभी

  • चुनाव लड़ने के लिए कारण (एक या अधिक को सर्कल करें ) :
    A-पैसा बनाने के लिए
    B- अदालत के मुकदमे से बचने के लिए
    C- सत्ता का घोर दुरुपयोग करने के लिए
    D-जनता की सेवा करने के लिए
    E-मैं नहीं जानता
    (यदि आपका उत्तर D है तो अपनी विवेकशीलता के लिये एक मान्यता प्राप्त सरकारी मनोचिकित्सक से प्रमाणपत्र संलग्न करें)

  • द्विवेदीजी जनतन्तर कथा पेश किये जा रहे हैं। लोग पढ़े जा रहे हैं।


    रीताजी-ज्ञानजी
    अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का प्रयोग करते हुये कल ज्ञानजी ने खुदै आत्मप्रचार कर डाला और बताया- आज से उनतीस साल पहले यह पारम्परिक जोरा-जामा-मुकुट पहन कर रीता के साथ मैं विवाह सूत्र में बंधा।
    ज्ञानजी ने एक और खुलासा किया उस समय के हिसाब से भी मैं बड़ा कंजरवेटिव था। अन्यथा इस जोकरई पोशाक को उस समय भी स्वीकार नहीं करते थे युवा लड़के!

    यहां ज्ञानजी से हमारा मतभेद है। दूल्हा और जोकरई आज भी एक दूसरे के पर्याय हैं। आधुनिक दूल्हे की एक झलक देख ली जाये जरा फ़िर से
    जब मैं किसी दूल्हे को देखता हूं तो लगता है कि आठ-दस शताब्दियां सिमटकर समा गयीं हों दूल्हे में।दिग्विजय के लिये निकले बारहवीं सदी के किसी योद्धा की तरह घोड़े पर सवार। कमर में तलवार। किसी मुगलिया राजकुमार की तरह मस्तक पर सुशोभित ताज (मौर)। आंखों के आगे बुरकेनुमा फूलों की लड़ी-जिससे यह पता लगाना मुश्किल कि घोड़े पर सवार शख्स रजिया सुल्तान हैं या वीर शिवाजी । पैरों में बिच्छू के डंकनुमा नुकीलापन लिये राजपूती जूते। इक्कीसवीं सदी के डिजाइनर सूट के कपड़े की बनी वाजिदअलीशाह नुमा पोशाक। गोद में कंगारूनुमा बच्चा (सहबोला) दबाये दूल्हे की छवि देखकर लगता है कि कोई सजीव बांगड़ू कोलाज चला आ रहा है।


    कबाड़खाना में आज गिरगिट के विविधरूप देखिये। ब्लाग लेखक को गिरगिटजी कवी टाइप के जीव दिखे। प्रमाणार्थ कवितायें भी हैं फ़ोटो के साथ।

    प्रतिभाजी का विश्वास है
    घटनाएं अब हादसों में तब्दील हो चुकी हैं,
    यातनाएं आदत में ही गई हैं शुमार।
    दरख्तों पर चिडिय़ा नहीं
    भय बैठता है इन दिनों।
    खत्म हो रहा है सब कुछ
    धीरे-धीरे और
    ऐसे में हम लिख रहे हैं कविताएं
    क्योंकि इस नष्ट होती धरती को
    कविता ही बचायेगी एक दिन
    देख लेना....


    ज्ञानजी की एक टिप्पणी से शुरू हुई पर घुघुतीजी ने नाम महत्व/महिमा पर अपने विचार पेश किये। स्वप्नदर्शी ने आगे छद्मनाम की परम्परा और ब्लोग्गेर्स के लिए पहेली पेश की। परमजीत बाली ने छद्मनाम से लिखे या अपने असली नाम से पर चिंतन किया। नटखट बच्चे ने लिखानाम में ही सब कुछ रखा है नटखट बच्चे के लेख पर टिप्पणी करते हुये सिद्धार्थ जोशी ने मुस्कराते हुये कहा-अपना दिमाग कुछ कंस्‍ट्रक्टिव काम में क्‍यों नहीं लगाते! लेकिन घुघुती बासूतीजी ने नटखट बच्चे को बाहर से समर्थन प्रदान कर दिया।

    छ्द्म नाम से लिखने की उपयोगिता के बारे में मसिजीवी ने काफ़ी पहले एक लेख लिखा था....मुझे मुखौटा आजाद करता है ! इस लेख में मुखौटे की उपयोगिता पर विचार किया गया था। इस लेख के डेढ़ साल बाद ज्ञानजी ने आवाहन किया आइये अपने मुखौटे भंजित करें हम! लेकिन कोई सुने तब न!

    कल की चर्चा रविरतलामीजी ने की थी। अगर आपने न पढ़ी हो अवश्य पढिये। इसमें आपको अनेक ऐसे ब्लागों के लिंक मिलेंगे जिनको देखकर पढ़कर आप आनन्दित होंगे।

    और अंत में

    सप्ताह के प्रारम्भ में फ़िलहाल इतना ही! आपका हफ़्ता चकाचक शुरू हो! प्रसन्न रहें, टिचन्न रहें। मुस्कराते रहें, मस्त रहें।

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    रविवार, अप्रैल 26, 2009

    मिलिए, दिल्ली हंसोड़ दंगल चैम्पियन से...

    चलिए, इस चर्चा में कुछ अत्यल्प या अचर्चित से चिट्ठों की चर्चा करते हैं. अचर्चित इसलिए भी कि इनमें बहुत से चिट्ठे मूलत: अंग्रेजी में हैं, परंतु इनमें इक्का दुक्का प्रविष्टियाँ हिन्दी में भी हैं. हम इन्हीं हिन्दी प्रविष्टियों की चर्चा करेंगे.

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    अजयेन्द्र राजन – ‘दोस्तों का दोस्त’ बढ़िया तस्वीरें छांटकर दिखाते हैं. तस्वीरों से ज्यादा बढ़िया तस्वीरों के शीर्षक या उनके वर्णन होते हैं. जैसे कि उनकी पोस्ट – जिंदगी मौत न बन जाए संभालो यारों से लिया गया ये चित्र:

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    ….,

    मेरे गीत के गीतकार गोदियाल ने अपने प्रोफ़ाइल में लिखा है –

    मेरी आंतरिक इच्छा है कि मैं लोगों को मुझसे भी अच्छा लिखने हेतु प्रेरित कर सकूं...

    और फिर वे अपने आप से पूछते हैं –

    तू सच क्यों बोलता है ?

    छल और कपट है जिस जग में

    अंहकार भरा हर रग-रग में !

    उस जगत की सब चीजों को तू

    एक तराजू में ही क्यों तोलता है ?

    झूठ-फरेब भरी इस दुनिया में

    गोदियाल, तू सच क्यों बोलता है ?

    जहां कदम-कदम पर मिथ्या धोखे

    बंद हो गए सब सत्य झरोखे !

    वहाँ इंसान को आज भला तू

    अपने भाव से ही क्यों मोलता है ?

    झूठ-फरेब भरी इस दुनिया में

    गोदियाल, तू सच क्यों बोलता है ?

    --.

    जेन हिन्दी सीख रही है. कम से कम उनके चिट्ठे की इस प्रविष्टि से तो यही लगता है –

    http://lerite.livejournal.com/712247.html?view=2064951#t2064951

    मैँ सोना चहती हुँ, लेकिन भी Dungeons and Dragons खेलना चाहती हुँ ।

    मैं ने देवनागरी keyboard setting को मिलता है । माजेदार है, लेकिन शबध लेखना मुशकिल है ।

    मेरा नाम एलिजबेथ जेन है । मुझे सोना पसांद है । मैं खाना बनाना नाहीँ सकती हुँ । मैं खाना बनाना सकना चहाती हुँ । मुझे मेरे पती को बहुत महातविपुरन हैं ।

    मैं टीख हुँ ।

    - एलिजाबेथ जेन

    ----.

    मल्लिका शेरावत भी ब्लॉग लिखती हैं? ये शायद कोई और मल्लिका हैं.

    संदीप कोठारी फैन क्लब की! और, पोस्ट तो बड़ा गंभीर है -

    clip_image006

    http://sandeepkotharithepoet.blogspot.com/2009/04/blog-post_20.html

    सृष्टि का सार

    रंगों की मृगतृष्णा कहीं

    डरती है कैनवस की उस सादगी से

    जिसे आकृति के माध्यम की आवश्यकता नहीं

    जो कुछ रचे जाने के लिये

    नष्ट होने को है तैयार।।

    स्वीकार्य है उसे मेरी,

    काँपती उंगलियों की अस्थिरता

    मेरे अपरिपक्व अर्थों की मान्यतायें

    मेरे अस्प्ष्ट भावों का विकार॥

    - मल्लिका शेरावत

    ---.

    बहुभाषी ब्लॉगर संकेत बारोट हिन्दी में भी ब्लॉग लिखते हैं. हिन्दी कुछ-कुछ गुजराती मिश्रित स्थानीय पुट लिए हुए है -

    http://loveablepoet.blogspot.com/2009/04/blog-post_3725.html

    शहर की इस दौड़ में दोड़ के करना क्या है..?

    गर यही जीना है तो फिर मरना क्या है...!!?

    पहली बारिश में ट्रेन लेट होने की फ़िक्र है...,

    भूल गए भीगते हुए टेहेलना क्या है..!!

    सीरियल के किरदारों का सारा हाल है मालुम..,

    पर माँ का हाल पूछने की फुर्सद कहा है..!!

    अब रेत पे नंगे पाँव टहलते क्यों नहीं..?

    १०८ है चैनल पर दिल बहेलते क्यों नहीं..??

    इन्टरनेट से दुनिया के तो टच में है..,

    लेकिन पड़ोस में कौन रहता है जानते तक नहीं..!!

    संकेत बारोट का गुजराती ब्लॉग भी है. एक प्रविष्टि का आनंद देवनागरी लिपि में लें :

    आ मानवी

    आ मानवी केवो निष्ठुर छे

    बोले छे कांई, विचारे छे कांई,

    अने करे छे कांई

    विचारे छे कपटी छुं केटलो

    कोण जुए छे हृदय मांही

    आ मानवी...

    संबंधोमां शोधे छे फायदा

    धंधामां करे छे वायदा

    अने रोज नवा करे छे तायफा

    आ मानवी...

    पैसाथी तोले छे संबंधोने

    खोट जाय तो तोडे छे संबंधोने

    संबंधोनो वेपार करी लीधो

    आ मानवी...

    चहेरा पर खंधु स્मित

    अने हृदयमांही शकुनि झरतो

    लालच अने कपटने साथ राखतो

    ईश्वर ने बदनाम करी दीधो

    आ मानवी...

    (गुजराती लिपि से देवनागरी परिवर्तन – इंडीनेटर द्वारा)

    संकेत बारोट का एक तकनीकी ब्लॉग अंग्रेज़ी में भी है. एक प्रविष्टि (http://jmdcomputer.blogspot.com/2009/03/folder-lock-without-any-software.html ) में वे आसानी से फोल्डर लॉक करने की विधि बता रहे हैं.

    ---.

    clip_image008

    मोहम्मद अली वफा का बहु-भाषी ब्लॉग – बागे वफा शेरो-शायरी से भरपूर है. आप उर्दू तथा हिन्दी दोनों लिपि में नामी ग़ज़कारों के मशहूर ग़ज़लों का संग्रह कर रहे हैं. अहमद फराज की ग़ज़ल नोश फरमाएँ -

    हुई है शाम__अहमद फराज़

    हुई है शाम तो आँखों में बस गया फिर तू

    कहाँ गया है मेरे शहर के मुसाफ़िर तू

    बहुत उदास है इक शख़्स तेरे जाने से

    जो हो सके तो चला आ उसी की ख़ातिर तू

    ---

    अब मिलिए दिल्ली हंसोड़ दंगल चैम्पियन से. आपका प्रोफ़ाइल कुछ यूं है –

    clip_image010

    About Me

    Dr.T.S. Daral

    medical doctor, nuclear medicine physician,gold medal for research on ORS- the jeevan rakshak ghol,extensive study of epidemic dropsy- a disease caused by consumtion of contaminated mustard oil- devised a diagnostic critera for the disease- first of its kind-led to presentation of STATE AWARD by the govt. of GNCT in 2008. I believe in living the life to the fullest.Life is too short to waste it in petty issues.My mantra in life is-Hanste raho,hansate raho.Jo log hanste hain, voh apna tanav door karte hain,jo hansate hain voh doosron ke tanav bhagate hain.yahi junoon mujhe le gaya DELHI AAJ TAK in Dec.2007 to become DELHI HANSOD DANGAL CHAMPION.apne aas paas ghatit hone wali ghatnaon se prabhavit hokar likhta hun aur hasya-vyang ke jariye apne udgar prakat karta hun.

    हम्म... इतने इम्प्रेसिव प्रोफ़ाइल के हंसोड़ डाक्टर ने ऐसा पोस्ट लिखा है कि पाठक पेट पकड़ कर हँस रहे हैं –

    आज सोचा तो ---

    वो उसके दिल का राजा था, वो उसके दिल की रानी थी।

    शिरी फरहाद से ऊंची, उनकी प्रेम कहानी थी।

    वो उसको छोड़ कर भागा कोई तो थी ये मजबूरी ,

    उस चाँद पे था दाग फ़िजा, तुझ पे खिजा तो आनी थी।

    ----.

    कुमारअमृत पर अंकित यूं तो अंग्रेज़ी में पोस्टें लिखते हैं, परंतु उन्होंने राजनीति पर कुछ सुविचार संकलित किए –

    राजनीति

    "पॉलीटिक्स" दो शब्द- पॉली और टिक्स से बना है। ‘पॉली’ का अर्थ बहुत और ‘टिक्स’ का मतलब खून चूसनेवाला परजीवी (पैरासाइट)।

    - लैरी हार्डिमैन

    सब कुछ बदल गया है। लोग हास्य-अभिनेता को गंभीरता से लेते हैं और राजनेता को मजाक में।

    - विल रोजर्स

    राजनीति में हिस्सा नहीं लेने का यह खामियाजा भुगतना पड़ता है कि आपको घटिया लोगों के हाथों शासित होना पड़ता है।

    - प्लेटो

    बल का सीधा प्रयोग किसी समस्या का इतना कमजोर समाधान होता है कि इसे छोटे बच्चे और बड़े देश ही अपने प्रयोग में लाते हैं।

    - डेविड फ्रायडमेन।

    ----.

    राम मैरी और अल्ला सब एक हैं फिर क्यों करते हो हल्ला – इस टैगलाइन वाले चिट्ठे की चिट्ठाकारा रिना56 के अनुसार संसार की परिभाषा कुछ यूं है

    सागर के इस पार

    सोच रही हूँ,कहाँ है भिन्नता

    यह ही है तकरार

    जाना तो है सबको एक जगह

    न कर भाई इंकार

    येहीं पर है, सबका क्रीडांगन

    अलग नहीं है, यह संसार

    ----.

    अंग्रेजी में चिट्ठा लिखने वाले विशाल अपने पिता द्वारा अग्रेषित हिन्दी के ईमेल फारवर्ड कारपोरेट गीता को साझा करते हैं –

    हे पार्थ !! (कर्मचारी),

    इनक्रीमेंट अच्छा नहीं हुआ, बुरा हुआ…

    इनसेंटिव नहीं मिला, ये भी बुरा हुआ…

    वेतन में कटौती हो रही है बुरा हो रहा है, …..

    तुम पिछले इनसेंटिव ना मिलने का पश्चाताप ना करो,

    तुम अगले इनसेंटिव की चिंता भी मत करो,

    बस अपने वेतन में संतुष्ट रहो….

    तुम्हारी जेब से क्या गया,जो रोते हो?

    जो आया था सब यहीं से आया था…

    तुम जब नही थे, तब भी ये कंपनी चल रही थी,

    तुम जब नहीं होगे, तब भी चलेगी,

    --- (>>आगे पढ़ें)

    ----.

    लास्ट इन स्पेस में अपनी पुत्री शैलजा के लिए उनकी मां प्रोमिला सरस्वती लिखती हैं -

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    (शैलजा)

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    (शैलजा और उनकी माता जी)

    मेरी बेटी

    जो नन्हे हाथ जरा चोट लगने पर

    आकर सिमट जाते थे मेरी बाँहों में

    पता ही नही चला कब थाम लिया

    उन्ही हाथों ने मेरा हाथ

    जब में थी अकेली असहाय एस संसर में

    पता ही नही चला कब इस मासूम ने

    ---.

    उद्गार.इन पर सुधांशु गुप्ता अपने सीनियर्स को याद कर रहे हैं. लगता है सुधांशु को बढ़िया सीनियर्स मिले. भगवान सभी विद्यार्थियों को ऐसे ही सीनियर्स दें.

    हमारे सीनियर्स के लिए………. बी.टेक. की यादें !

    राह देखी थी इस दिन की कबसे,

    आगे के सपने सजा रखे थे ना जाने कब से .

    बड़े उतावले थे यहाँ से जाने को ,

    ज़िन्दगी का अगला पडाव् पाने को .

    पर ना जाने क्यों …दिल में आज कुछ और आता है ,

    वक़्त को रोकने का जी चाहता है .

    जिन बातों को लेकर रोते थे, आज उन पर हंसी आती है ,

    न जाने क्यों आज उन पलों की याद बहुत आती है .

    ….,

    अभय डेविड फ्रॉस्ट के बारे में मालूमात करते हुए बताते हैं कि कोई भी व्यक्ति विज्ञान की दुनिया में तमाम बातें कभी भी नहीं जान सकता. उसकी उतनी क्षमता ही नहीं है. इसी बात को वे अपनी एक विज्ञान कविता में बताते हैं –

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    (अभय)

    विज्ञान के धरातलों पर घूमता फिरा हूं मै

    रसायनों के चक्करों में था कभी

    कम्प्यूटरों की भूमि में भटका भी था

    और कभी कैंसर ने घसीटा अपनी खोज में

    भौतिकी यंत्रों का मै कायल रहा

    और भी कितने ही विषय विज्ञान के

    है आज भी मुझको निमंत्रण दे रहे

    सोचता हूं और समझता भी हूं मै इस अपवाद को

    हो नही सकता है कोई विश्व के विज्ञान में

    भेद सारे जान पाये विश्व के विज्ञान के

    है कठिन पथ खोज का सब जानते हैं

    फिर भी जो इसमें रमें सब मानते हैं

    इससे बढकर है नही आनंद कोई विश्व में

    ज्ञान की सीमा बढाना हे अभय

    ---.

    लगता है चर्चा कुछ ज्यादा ही लम्बी हो गई, जबकि ऐसे अचर्चित चिट्ठों की तो कतारें लगी हैं. चलिए, उनमें से कुछेक की चर्चा करेंगे अगले हफ़्ते.

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    शनिवार, अप्रैल 25, 2009

    सांगीतिक चुनावी चिट्ठा चर्चा : सब ताज उछाले जाएंगे सब तख्त गिराए जाएंगे

    तकरीबन महिने भर बाद आप सबसे इस मंच पर मुलाकात हो रही है। पिछली बार माहौल था होली का और अब इन झुलसाती गर्मियों मे चुनावी हवाएँ जोर मार रही हैं तो फिर इस बार की इस सागीतिक चर्चा का रंग चुनावी क्यूँ ना हो। आम भारतीय की प्रवृति गाने गुनगुनाने और बात बात पर जुमले बनाने की रही है फिर चुनाव का मौसम भला इनसे अछूता कैसे रह जाए। अगर ये बात नहीं होती तो जन जनार्दन को लुभाने के लिए कांग्रेस पार्टी जय हो .. जैसे गीतों का सहारा नहीं ले रही होती और उस विज्ञापन के तुरंत बाद बाद आप भाजपा की पैरोडी भय हो.. नहीं सुन रहे होते। खैर, इन गीतों और जुमलों से वोटिंग ट्रेंड पर क्या प्रभाव पड़ता है ये तो पता नहीं पर चुनाव में चुनावी माहौल पैदा करने में ये जरूर सफ़ल होते हैं।

    माँ बताती है कि जब वो कॉलेज में थीं तो नारायण दत्त तिवारी के पक्ष में कुछ इस तरह के नारे लगा करते थे

    नर है ना नारी है , नारायण दत्त तिवारी है

    अब आज के युग में कोई ऍसा नारा लगाए तो पता नहीं रासुका के आलावा क्या क्या लग जाए :)। तो इससे पहले कि मैं इस सांगीतिक चुनावी चिट्ठा चर्चा को आगे बढ़ाऊँ चुनावी जुमलों से जुड़े एक किस्से को आप के साथ जरूर बाँटना चाहूँगा जिसे हाल ही में मैंने एक पुस्तक में पढ़ा था। बात १९७७ के चुनावों की है जहाँ पर एक क्षेत्र के उम्मीदवार थे कोई रामदेव। कहते हैं कि वोटरों को उनसे शिकायत थी की नसबंदियों की ज्यादतियों के दौरान उन्होंने जनता की कोई मदद नहीं की। बस फिर क्या था लोगों ने बना दिया जुमला

    जब कट रहे थे कामदेव, तब तुम कहाँ थे रामदेव !

    तो आइए इस हफ्ते चिट्ठाजगत में पेश किए गए कुछ गीतों को इस चुनावी माहौल में एक वोटर की नज़र से देखें। सबसे पहले चलें पुराने गीतों की इस महफिल में जहाँ सागर नाहर आशा ताई की आवाज में मीराबाई का ये मधुर भजन सुना रहे हैं

    फागुन के दिन चार होली खेल मना रे॥
    बिन करताल पखावज बाजै अनहद की झंकार
    बिन सुर राग छतीसूं गावै रोम रोम रणकार रे॥

    पर भाई अगर मीराबाई आज हमारे बीच होतीं तो टीवी चैनलों में चल रहे विज्ञापनों की तरह वोटरों को यही संदेश देतीं।

    चुनावन के दिन चार वोट दे दे मना रे
    बिना काज के नेता बाँचें वादों की झंकार॥
    चुनावन के दिन चार वोट दे दे मना रे


    अफ़लू भाई तो ठहरे फुल टाइम चुनावी कार्यकर्ता तो आगाज़ पर चुनावी गीत तो बजना ही है। सो वो उम्मीदवारों के स्वागत में आँधी फिल्म का गीत लेकर आए हैं।
    सलाम कीजिए .. जनाब आए हैं

    हिंदी युग्म ने इस हफ्ते हमें पुराने गीत भी सुनाए, शक्ति सामंत की फिल्मों के गीतों की चर्चा भी की पर मुझे सबसे ज्यादा लुत्फ दिया विश्व दीपक तनहा के गुलज़ार पर लिखे लेख ने।

    अब गुलज़ार की इन पंक्तियों को लोकतंत्र के परिपेक्ष्य में देखें तो हर पाँच सालों बाद हमारा ये आम वोटर आशाओं के भँवर में डूबते उतराते हुए भी अपने मताधिकार का प्रयोग करता है। कितनी बार उसकी आशाओं पर तुषारपात होता है पर तरह तरह की बाधाओं को पार कर वो फिर पहुँचता है अपना वोट देने। इन हालातों में गुलज़ार यूँ भी कहते तो गलत नहीं होता ना..

    वोटर बुलबुला है पानी का
    और पानी की बहती सतह पर टूटता भी है, डूबता भी है,
    फिर उभरता है, फिर से बहता है,
    न समंदर निगला सका इसको, न तवारीख़ तोड़ पाई है,
    वक्त की मौज पर सदा बहता - वोटर बुलबुला है पानी का।


    पिछले हफ्ते राँची में पीनाज़ मसानी का आगमन हुआ तो मैं भी जा पहुँचे उनका कार्यक्रम सुनने। पर ग़ज़लों की रंगत की जगह सिर्फ फिल्मी गीतों का तड़का मिला। हार कर श्रोताओं को ही बोलना पड़ गया कि अब कुछ ग़ज़लें भी सुना दीजिए। फिर आज जाने की जिद ना करो से लेकर यूँ उनकी बज़्म ए खामोशियाँ सुनने को मिलीं। पीनाज़ की गाई इस ग़ज़ल कहाँ थे रात को हमसे ज़रा निगाह मिले को अगर आज के नेताओं से पूछे जाने वाले प्रश्न में बदलें तो मतला कुछ ऍसा नहीं होगा क्या...

    कहाँ थे आज तक हमसे जरा निगाह मिले
    अब तक की कारगुजारियों का कोई तो हिसाब मिले


    इस सांगीतिक चुनावी चर्चा को अंत करने से पहले विख्यात ग़ज़ल गायिका इकबाल बानों के देहांत पर विनम्र श्रृद्धांजलि। इस सिलसिले में हिंद युग्म, इरफान भाई और कबाड़खाना पर फ़ैज की लिखी और उनकी गाई मशहूर नज़्म हम देखेंगे,लाजिम है कि हम भी देखेंगे को पेश किया गया। कबाड़खाने पर अशोक पांडे ने उन पर लिखा

    इक़बाल बानो का ताल्लुक रोहतक से था. बचपन से ही उनके भीतर संगीत की प्रतिभा थी जिसे उनके पिता के एक हिन्दू मित्र ने पहचाना और उनकी संगीत शिक्षा का रास्ता आसान बनाया. इन साहब ने इक़बाल बानो के पिता से कहा: "बेटियां तो मेरी भी अच्छा गा लेती हैं पर इक़बाल को गायन का आशीर्वाद मिला हुआ है. संगीत की तालीम दी जाए तो वह बहुत नाम कमाएगी."
    ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल के लिए उनकी आवाज़ बेहद उपयुक्त थी और
    उन्होंने अपने जीवन काल में एक से एक बेहतरीन प्रस्तुतियां दीं.मरहूम इन्कलाबी शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब की नज़्म "हम देखेंगे" की रेन्डरिंग को उनके गायन कैरियर का सबसे अहम मरहला माना जाता है. ज़िया उल हक़ के शासन के चरम के समय लाहौर के फ़ैज़ फ़ेस्टीवल में उन्होंने पचास हज़ार की भीड़ के आगे इसे गाया था.
    प्रस्तुत है इस उत्प्रेरक नज़्म का एक हिस्सा
    हम देखेंगे
    जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
    सब बुत उठवाए जाएंगे
    हम अहल-ए-सफा, मरदूद-ए-हरम
    मसनद पे बिठाए जाएंगे
    सब ताज उछाले जाएंगे
    सब तख्त गिराए जाएंगे

    बस नाम रहेगा अल्लाह का
    जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
    जो नाज़िर भी है मन्ज़र भी
    उट्ठेगा अनल - हक़ का नारा
    जो मैं भी हूं और तुम भी हो
    और राज करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
    जो मैं भी हूँ और तुम भी हो


    लोकतंत्र में ऍसी नज़्म लिखने वालों की सख्त जरूरत है जो आवाम में अपने शब्दों के तेज़ से जन जागृति की मशाल को जलाए रखें।

    तो अब दीजिए मुझे इस चुनावी सांगीतिक चर्चा को खत्म करने की इजाजत। फिर आपसे मुलाकात होगी अगले महिने। तब तक के लिए राम राम !

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    शुक्रवार, अप्रैल 24, 2009

    जो "आज की पसन्द" पर टकटकी लगाए नही खड़े हैं

    हिन्दी लिखने ,पढने , जीने वालों की हमेशा से यह एक दिक्कत रही है कि वे हमेशा से एक चौपालनुमा स्पेस गढते रहना चाहते हैं। जहाँ घर-बार ,नौकरी ,बाल-बच्चे की चिंता घरवालियों पर छोड़कर , चन्द पगड़ीधारी , चारपाइयाँ बिछा -बिछा कर  इस गली के उस नम्बर वाले की ऐसी तैसी करते हैं या फलाने नमबर वाली की खिड़की के भीतर ताक झांक करते हुए कमेंटियाते रहते हैं।इस समाज सेवा की आदत से हिन्दी की सेवा तो क्या खाक होती है , बस इतना भर होता है कि चारपाई पर विराजमान रहने वाले सरपंची के स्वभाव मे आवाज़ उठा उठा कर एक दिन गली-कूचे  के दादा हो जाते हैं।

    खैर, हिन्दी ब्लॉगिंग अपने इस चौपाल-चर्चा ,चारपाई-टॉक की आदत  के कारण भी विशिष्ट तो  है।फिलहाल आज मै ऐसे ब्लॉग ढूंढने की कोशिश मे हूँ जिनका ब्लॉग दूसरों के पढे जाने और स्वीकृत सहमत होने के इंतज़ार मे"आज की पसन्द " पर टकटकी लगाकर नही खड़ा है।जिसे फर्क नही पड़ता कि कौन उसे पढने, सराहने या गाली देने आएगा।और दुर्भाग्य से ब्लॉगिंग की इस मूल फितरत से मेल खाते ब्लॉग हिन्दी मे उंगली पर गिने जा सकने के ही काबिल हैं।

    ऐसा ही एक ब्लॉग है जिसे मै पढती आई हूँ , कभी शायद ही कमेंटियाई हूँ - अखाड़े का उदास मुदगर।यहाँ टैगलाइन है- प्यार की 100 मुश्किल कहानियों के बाद लगता है कि एक दिन बाकी 463 भी पूरी हो जाएंगी.. नफरत की कहानियों का कोई नंबर नहीं।
    वाकई प्यार की कहानियाँ लिखना एक मुश्किल काम है वह भी ऐसी प्रेम कहानियाँ जो अपने कथ्य-शिल्प मे प्रेम की बहुप्रचारित ग्लैमरपूर्ण छवि से कदापि मेल नही खातीं।सूरज का सातवाँ घोड़ा पढते हुए बार बार यही अहसास होता है कि प्रेम कोई दैवीय लोक की चीज़ नही है वह इसी संसार -जिसमे भूख,लाचारी,कपट,आर्थिक विषमताएँ हैं ,के बीच जन्मता है और बमुश्किल ही फलता फूलता है या नही भी फलता फूलता है।विशुद्ध प्रेम जैसा यहाँ इस ब्लॉग की किसी कहानी मे भी नही दीखता।
    यहाँ एक पोस्ट की शुरुआत मे लिखा गया है - लिखना हम सबके अकेले होने की निशानी है. और अच्छा लिखना बहुत अकेले होने की।
    भीड़ जुटाने ,तालियाम बजवाने की कि - 'वाह ! क्या धोया ! 'की और यह कहलवाने की मंशा कि मेरा विचार सर्वोत्तम है शायद ही ब्लॉगिंग के लिए हितकारी हो ।
    इससे परे एक ब्लॉग और दिखता है - अनुराग आर्या का।इसी की तर्ज़ पर आज कुश की भी कलम चल निकली।ब्लॉगिंग का यह डायरीनुमा स्टाइल खास भाता है।एक बार को धोखा हुआ था कि अनुराग को ही पढ रहे हैं। फिर खुशी हुई कि वाह ! आज कुश ने अपने बचपन की यादों का पिटारा खोला है- ज़िन्दगी अब पुरानी जींस लगती है। 

    ये सब्जी मुझे अच्छी नहीं लगती मैं नहीं खाऊँगा.. और मम्मी दूसरी सब्जी बना देती थी.. और अब अगर चावल
    कच्चे भी हो तो मैं खा लेता हूँ सोचता हु इतनी गर्मी में दोबोरा कौन एक सी टी और लगायेगा.. 
    झंकार बीट्स फ़िल्म का एक डायलोग है... ' दुनिया गोल है और हर पाप का एक डबल रोल है '
    मम्मी के खाना बनाते वक़्त मैंने कभी मम्मी के सर पर जमी पसीने की बूंदों पर गौर नहीं किया.. 
    सोचता हूँकितनी बार मैंने कहा होगा खाना अच्छा नहीं बना.. कितनी बार मैंने थाली में खाना छोडा होगा.. 
    अब मम्मी तोखाना बनाती नहीं है पर जब भी घर जाता हूँ भाभी के बनाये खाने की जम कर तारीफ़ करता हूँ.
    मैं उनके लिएइतना तो कर ही सकता हूँ..
     
    कुश की डायरी के ये पन्ने किसी स्त्री विमर्श से जा जुड़ेंगे शायद कुश ने सोचा न होगा पर इस स्वीकारोक्ति को चोखेरबाली मे संग्रह कर लिया जाना चाहिए।
    ऐसे ही पिछली पोस्ट है - जिंदगी कब लाईफ बन गयी पता ही नहीं चलापहले हम इससे खेलते थे अब ये हमसे खेलती है.. ज़िन्दगी का फेवरेट गेम छुपम छुपाई.।यूँ उन्होने स्वीकारा ही है कि कुछ स्टाइल अनुराग जी से उधार लिया है :) 
    फिर भी बहुत खूब  !!

    लिखना और लिखते लिखते खुद को पाना-पहचानना , यही ब्लॉग की असली ताकत है जो लगातार क्षीण हो रही है क्योंकि हर चिट्ठा अपनी छवि बना और उसमे कैद हो रहा है।आज़ादी का माध्यम जेल हो रहा है।दूसरे की ओर देख कर लिखने की प्रवृत्ति बढती जा रही है।

    मै कौन हूँ का प्रश्न ब्लॉग के लेखन की मूल प्रेरणा नही रह पाई है।मेरे लिखने की उपयोगिता क्या हो  यहकोई स्वयम ही कैसे तय करके चिपका सकता है पाठको पर। यह तय करना इतिहास के हाथों छोड़ देना चाहिए।लगातार अपने लघुता को स्वीकार करके लिखने वाला लेखक ही बड़ा लेखक हो सकता है।
    शब्दों का सफर भी इसी तरह जारी है।और आज तो पूरी कचौरी की कहानी के साथ।

    पूरी के मूल में है संस्कृत धातु पूर् जिसमें समाने, भरने, का भाव है। इससे ही बना है पूर्ण शब्द जिसका अर्थ होता है भरना, संतुष्ट होना। समझा जा सकता है कि सम्पूर्णता में ही संतोष और संतुष्टि है। व्यंजन के रूप में पूरी नाम के पीछे उसका पूर्ण आकार नहीं बल्कि उसकी स्टफिंग से हैं। गौरतलब है की आमतौर पर बनाई जाने वाली पूरी के अंदर कोई भरावन नहीं होती है जबकि पूरी या पूरिका से अभिप्राय ऐसे खाद्य पदार्थ से ही है जो भरावन से बनाया गया है। पूरी बनाने के लिए आटे या मैदे की लोई में गढ़ा बनाया जाता है और फिर उसे मसाले से पूरा जाता है। यही है पूरना। इस तरह पूरने की क्रिया से बनती है


    एक डायरीनुमा पोस्ट यह भी - असमंजस , क्या हम सही हैं?


    ब्लॉगिंग मे किसी लेखक की पहचान उसके लेखन के स्टाइल और कथ्य से ही बनती है यह बार बार स्वीकारा जा चुका।इसमे भी खास बात यह कि निजता का संस्पर्श किसी ब्लॉग को पढने का सबसे बड़ा आकर्षण है।यह डायरीनुमा लेखन , निजता का संस्पर्श जितना ही अधिक होगा हिन्दी के संसार मे उतना की बेहतर होगा।

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    गुरुवार, अप्रैल 23, 2009

    निर्वाचन के ऊपर हावी चुनाव, चरणों वाला मतदान और नया दामाद

    बड़ी गर्मी है जी. मंदी की मारी दुनियाँ और गर्मी का मारा भारत, दोनों लस्त-पस्त हुए जा रहे हैं. मंदी की मारी दुनियाँ में तमाम विद्वान कंज्यूमर कांफिडेंस इंडेक्स को निहार रहे हैं. गर्मी का मारा भारत चिंतित है. चिंता इस बात की है कि गर्मी का मारा १६ मई के बाद कहीं चुनाव का मारा न निकले.

    माहौल बड़ा चकाचक है. गाडियाँ दौड़ रही हैं. लाऊडस्पीकर भाषण दे रहे हैं. सडकों पर राजनीतिक दलों के झंडे वैसे ही लहलहा रहे हैं जैसे पकने के बाद खेतों में धान और गेंहू लहलहाते हैं.

    उम्मीदवार उम्मीद से हैं. जो उम्मीदवार नहीं हैं, उनके लिए उम्मीद की कोई वजह नहीं. वे या तो गाली दे रहे हैं या फिर वोट.

    अपने नक्सली भाई लोग भी इस बार पूरा जोर लगाकर राष्ट्र की मुख्यधारा में 'लौक' रहे हैं. अभी कल ही इनलोगों ने एक रेलगाड़ी अगवा कर ली थी. इनके लिए मुख्यधारा में आने का मतलब यही है. या तो ट्रेन की पटरी उड़ा दो या फिर उससे भी आगे जाकर ट्रेने हाईजैक कर लो. बीच में पुलिस-उलिस वाले मिल जाएँ तो उनको सलटा कर राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल हो जाओ.

    अब बात आगे निकल गई है. आचार संहिता टूटन के दिनों से आगे. पहले चरण का मतदान हो चुका है. मतलब पहले चरण का पूजन संपन्न. अब दूसरे चरण के लिए मतदान किया जा रहा है. जैसे ही दूसरे चरण के लिए मतदान संपन्न हो जायेगा, हम मान लेंगे कि दूसरे चरण का पूजन भी संपन्न.

    (आप मानें या न मानें, टेलीविजन चैनल पर पहले चरण का मतदान, दूसरे चरण का मतदान वगैरह सुनकर यही लगता है कि किसी विराट धार्मिक अनुष्ठान की बातें हो रही हैं. जैसे किसी देवता के चरण वगैरह पूजे जाने की बातें हो रही हैं.)

    लेकिन यह तो चुनाव की बात है. चुनाव इंसान जैसा नहीं होता. उसके केवल दो चरण नहीं होते. चुनाव तो कई चरणों वाला होता है. तीसरा चरण...चौथा चरण...पांचवां चरण.

    मतलब चुनाव केवल चार चरणों वाला जानवर नहीं है. उससे भी आगे कुछ है.

    दो चरणों वाला वोटर न जाने कितने चरणों वाले चुनाव (?) पर "जोर लगा के हई सा" करते हुए पिल पड़ा है. अब चुनाव में खैर नहीं. (चुनाव में खैर नहीं?)...

    चलिए, लिख देते हैं कि चुनाव की खैर नहीं.

    अरविन्द मिश्र जी लिखते हैं;

    "मन में क्षोभ था कि बनारस जैसी बुद्धिजीवियों की नगरी में महज ४४ प्रतिशत लोगों ने मतदान किया. विश्वविख्यात शिक्षा के केन्द्र बनारस हिन्दू विश्विद्यालय के परिसर में ही बने मतदान केन्द्र पर भी केवल १८ फीसदी लोगों -प्रोफेसरों ने मतदान किया जहाँ एक आदरणीय ब्लॉगर अफलातून जी भी रहते हैं ।"


    बुद्धिजीवियों के लिए मतदान करने का शायद कोई कारण नहीं होगा. आखिर संविधान में तो क्या किसी कानून में नहीं लिखा गया है कि वे मतदान नहीं करेंगे तो उनका बुद्धिजीवी वाला सर्टिफिकेट खारिज हो जायेगा. उनकी 'बुद्धिजीवियत' जाती रहेगी.

    खैर, अरविन्द जी के मन उपजे इस क्षोभ की वजह से क्या हुआ, उन्ही से सुनिए. वे लिखते हैं;

    "इन स्थितियों से उपजे क्षोभ ने मुझे आत्मपीडा भी सहकर वोट देने को वह भी एक सामान्य मतदाता के रूप मे मजबूर कर दिया."


    सामान्य मतदाता के रूप में मजबूर हुए अरविन्द जी जा पहुंचे अपने पैत्रिक गाँव और वोट दे डाला. गोपनीयता का मान रखते हुए उन्होंने बताया कि;

    "मैंने तो एक राष्ट्रीय पार्टी के पक्ष में मतदान किया है मगर परिवार के दूसरे लोगों ने किस के पक्ष में मतदान किया यह मुझे नही मालूम है -मतदान की गोपनीयता बरकरार है और इस गोपनीयता का सम्मान भी किया जाना चाहिए."


    हमें उनकी यह पोस्ट बहुत प्रेरणादायक लगी. मतदान करने के बाद जो ख़ुशी मिलती है, उसका अंदाजा आप अरविन्द जी का फोटो देखकर लगा सकते हैं. वो फोटो जो उनकी भतीजी, स्वस्तिका ने उतारी है. स्वस्तिका ने अरविन्द जी के साथ बैठकर हम चिट्ठाकारों से अपील भी की है कि हम मतदान ज़रूर करें.

    चाहे जिस चरण में करने को मिले.

    निर्वाचन शब्द के ऊपर चुनाव शब्द बहुत भरी पड़ता है. कारण है आम जन और संचार माध्यमों द्बारा ज्यादातर चुनाव शब्द का इस्तेमाल किया जाना. निर्वाचन की जगह चुनाव शब्द का इस्तेमाल क्यों किया जाता है? यह जानने के लिए अजित जी की आज की पोस्ट पढिये.

    पोस्ट का समापन करते हुए वे लिखते हैं;

    "निर्वाचन पर गौर करें तो इस शब्द की व्याख्या उसी तर्क प्रणाली पर आधारित जान पड़ती है जो इलेक्शन की है। इलेक्शन शब्द की रिश्तेदारी लैक्चर शब्द से है जिसमें पुस्तक से पाठ चुनने का जो भाव है वही भाव निर्वचन से बने निर्वाचन में आ रहा है यानी बहुतों में से एक को चुनना। विडम्बना है कि निर्वाचन जैसे गूढ़ दार्शनिक भावों वाले इस शब्द और प्रकारांतर से प्रक्रिया को वोट देने जैसी औपचारिकता का रूप दे दिया गया है। राजनीतिक पार्टियां ही प्रत्याशी तय करती हैं। वहां निर्वाचन के पवित्र अर्थ का ध्यान नहीं रखा जाता। भ्रष्ट-अपराधी अगर उम्मीदवार है तो उसका पार्टी स्तर पर उसका निर्वाचन सही कैसे कहा जा सकता है? महान राजनीतिक दलों को बहुतों में से एक परम सत्य के रूप में अगर अपराधी और दागी चरित्र के लोग ही जनप्रतिनिधि के रूप में विधायी संस्थाओं में देखने है तो यह निर्वाचन शब्द की घोर अवनति है। दो हीन चरित्रों वाले प्रत्याशियों में से किसी एक के निर्वाचन से देश में शांति, स्थिरता और समृद्धि कैसे आएगी, जिन्हें पाने के लिए लोकतंत्र के इस यज्ञ का आयोजन होता है? "


    बहुत ही बढ़िया पोस्ट है. आप ज़रूर पढें. केवल अंश पढ़कर इस पोस्ट के महत्व को समझना मुश्किल है.

    भारत किसानों का देश था. नेताओं का देश हुआ. सुरेश चिपलूनकर जी की मानें तो धीरे-धीरे अब 'दामादों' का देश हो लिया है. हमारी संस्कृति में दामादों को बहुत मान-सम्मान मिलता है. सुरेश चिपलूनकर जी के अनुसार शायद इसी संस्कृति रक्षा कार्यक्रम के तहत ही महान आतंकवादी अजमल कसाब को भी यही सम्मान मिल रहा है.

    देश की आतंरिक सुरक्षा से ज्यादा सुरेश जी का ब्लॉग सुरक्षित है. इसलिए लेख का अंश देना मुमकिन नहीं. आप पूरी पोस्ट उनके ब्लॉग पर ही पढिये.

    मोह-माया क्या केवल इंसानों के साथ हो जाती है? शायद नहीं.

    यही बता रही हैं राधिका जी. शायद घर केवल अच्छी और चमकदार चीजों से नहीं बनता. चीजों के अलावा भी बहुत सारी बातें हैं जिनसे एक घर का निर्माण होता है.

    आप राधिका जी की यह पोस्ट पढिये. बहुत प्यारी पोस्ट है. वे लिखती हैं;

    "कुछ ऐसी चीजे जो घर में बरसो सिर्फ़ रखी रहती हैं,उनका कोई उपयोग नही होता लेकिन उनका मोह भी नही छूटता ।

    कुछ आधे अधूरे शब्द लिखे कागज़ ,कुछ सूखे हुए फुल ,कुछ सालो पुराने गहने ,कुछ फटी किताबे और न जाने कितनी अनुपयोगी वस्तुए । बड़े शहरो में इंसानों के रहने के लिए घर नही,चार चार लोग एक कमरे के घर में जैसे तैसे अपना जीवन गुजारते हैं ,ऐसे में इन सब चीजों को सम्हाल कर रखना ......!!लेकिन कभी कभी इंसानों से ज्यादा प्यारी कुछ चीजे होती हैं न ।"


    कबाड़खाना पर आज अशोक पांडे जी ने गुलाब बाई के बारे में लिखा है. दीप्ति प्रिया मेहरोत्रा द्बारा लिखी किताब 'गुलाब बाई: द क्वीन ऑव नौटंकी थियेटर' का जिक्र करते हुए अशोक जी लिखते हैं;

    "'लैला मजनूं' में लैला, 'राजा हरिश्चन्द्र' में तारामती, 'बहादुर लड़की' में फ़रीदा और 'शीरीं फ़रहाद' में शीरीं जैसे रोल निभाने वाली गुलाब बाई सन १९४० तक आते आते अपनी लोकप्रियता के चरम पर पहुंच चुकी थीं. १९४० के दशक के आते आते गुलाब बाई की तनख़्वाह सवा दो हज़ार रुपये प्रति माह के आसपास थी, जो उस ज़माने के हिसाब से अकल्पनीय रूप से बड़ी रकम थी."


    आप पोस्ट पढें. और अगर प्रेरणा मिले तो किताब भी पढें. अशोक जी के मुताबिक

    "ख़ैर छोड़िये, इन तफ़सीलात के बारे में जानना हो तो किताब खोज कर पढ़ें. मैं कोशिश में हूं कि किसी तरह इस किताब के अनुवाद के अधिकार हासिल कर लूं और जल्द से जल्द हिन्दी के पाठकों के सम्मुख इसे रख सकूं. यह मास्टर फ़िदा हुसैन नरसी के लिए मेरी व्यक्तिगत श्रद्धांजलि भी होगी और गुलाब बाई के जीवन वृत्त के माध्यम से लोग क्रूरतापूर्वक बिसरा दी गई एक विधा का इतिहास हिन्दी में पढ़ सकेंगे.
    आमीन!"


    अशोक जी को हमारी तरफ से शुभकामनाएं. हमें विश्वास है कि वे अपने इस संकल्प में सफल होंगे.

    कल शास्त्री जी ने अस्मत लुटाने के फार्मूले बताये. शास्त्री जी के फार्मूलों वाली इस पोस्ट पर कई टिप्पणियां आईं. इसी पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए अरविन्द मिश्र जी ने लिखा;

    पक्ष विपक्ष तो हो गए अब निष्पक्ष भी विचार आने चाहिए !


    पता नहीं इसके बाद जो विचार आये वे निष्पक्ष थे या नहीं. लेकिन शास्त्री जी ने कुछ टिप्पणियों में की गई आलोचनाओं का जवाब देते हुए आज फिर पोस्ट लिख दी है.

    ऐसी पोस्ट के प्रीक्वल पर ध्यान न देने की वजह से ही शायद ऐसी पोस्ट के सीक्वल लिखने की ज़रुरत होती है. शास्त्री जी ने लिखी भी है. आप पढिये और पक्ष, विपक्ष और निष्पक्ष टिप्पणी दीजिये.

    जब ब्लागिंग नहीं करते थे, तब छुट्टी का मतलब होता था आफिस से निकले. दो-चार दिन कहीं रहे. वापस आये और आफिस ज्वाइन कर डाला. लेकिन जब से ब्लागिंग आई है, छुट्टी का मतलब चेंज हो गया है. अब छुट्टी पर जाना है उससे पहले एक पोस्ट. छुट्टी से वापस आये तो कई पोस्ट.

    अभिषेक छुट्टी पर गए थे. छुट्टी के दिनों का हिसाब दे रहे हैं. एक से बढाकर एक मजेदार किस्से. आप ज़रूर पढिये. और अगली छुट्टी आने का इंतजार करें. जब पोस्टें बनेंगी.

    हिंदी के लिए देह धारण किया उन्होंने. हिंदी के लिए ही कवि बने. आगे चलकर महाकवि बने. उससे काम नहीं बना तो वाया कहानीकार समीक्षक तक बन लिए. लेकिन इतना सबकुछ बनने के बाद भी दुखी और परेशान हैं. उपेक्षा से इतने तंग हुए कि नाम बदलने का मन बना लिया है.

    शायद शेक्सपीयर जी की बात गांठ बांध ली है उन्होंने. क्या कहा कौन सी बात? अरे वही कि; "नाम में क्या रखा है?"

    शेक्सपीयर बाबू को गलत साबित करने के लिए नाम बदलने पर आमादा है. बोधिसत्व जी ने कुछ नाम सुझाए हैं.

    आप भी नामदान कर डालें. उससे पहले इन सज्जन के बारे में अनुमान ज़रूर लगईयेगा. सब लगा रहे हैं.

    काल चक्र पर धूमिल की कविता प्रजातंत्र पढिये. पढ़कर पता चलेगा कि धूमल और धूमिल में फरक क्या है.

    रवि कुमार स्वर्णकार जी की कविता "हमारी आँखें लुप्त हो रही हैं" पढिये.

    ताऊ जी के ब्लॉग पर मेजर गौतम राजरिशी का परिचयनामा पढिये और उनके बारे में जानिए. बहुत ही पठनीय है. ताऊ जी को धन्यवाद मेजर राजरिशी से परिचय करवाने का.

    आज के लिए बस इतना ही. थोडी देर में कुछ एक लाइना लिखकर गुरुदेव को भेजूंगा. अगर उन्होंने आज ही सुधार कर दिया तो रात को पोस्ट कर डालूँगा.

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    बुधवार, अप्रैल 22, 2009

    अब भी खिले फूल के अन्दर खुशबू होती है


    माइक्रो फ़ाइनेन्सिंग
    कल की स्टार पोस्ट ज्ञानजी के अखाड़े से आई। उनका कैमरा कल माइक्रो फ़ाइनेन्सिंग से खरीदे गये नये-नवेले आरामदेह रिक्शे पर टूट पड़ा और यह धांसू ब्लागरीय पोस्ट बन गयी। वे इसके बारे में जानकारी देते बताते हैं:

    रिक्शे के डिजाइन और उसके माइक्रोफिनांस की स्कीम से मैं बहुत प्रभावित हुआ। रिक्शे के पीछे इस स्कीम के इलाहाबाद के क्रियान्वयनकर्ता – आर्थिक अनुसंधान केन्द्र का एक फोन नम्बर था। मैने घर आते आते उसपर मोबाइल से फोन भी लगाया। एक सज्जन श्री अखिलेन्द्र जी ने मुझे जानकारी दी कि इलाहाबाद में अब तक २७७ इस तरह के रिक्शे फिनान्स हो चुके हैं। अगले महीने वे लोग नये डिजाइन की मालवाहक ट्रॉली का भी माइक्रोफिनांस प्रारम्भ करने जा रहे हैं। रिक्शे के रु. ६५०x१८माह के लोन के बाद रिक्शावाला मुक्त हो जायेगा ऋण से। उसका दो साल का दुर्घटना बीमा भी इस स्कीम में मुफ्त निहित है।


    उनकी पोस्ट पर आलोक पुराणिक कहते हैं:
    माइक्रोफाइनेंस से बड़ी उम्मीदें हैं जी। इसने बता दिया कि गरीब ईमानदारी से छोटी रकम से बड़े धंधे खड़े कर देता है और अमीर अगर बेईमानी पर उतर आये, तो बड़े से बड़े संगठन का भी राम नाम सत्यम कर देता है। जमाये रहिये।
    सच्ची की ब्लागिंग तो आप ही कर रहे हैं। दुनिया जहान पर जाने कहां कहां से आइटम निकाल लाते हैं।


    आजकल जंगल लकड़ी के लिये कट रहे हैं और चट्टाने सीमेंट के लिये टूट रही हैं लेकिन खलील जिब्रान की बताई और लवली द्वारा सामने लाई गई प्यार की परिभाषा में ये दोनों मौजूद हैं:
    जब प्यार तुम्हे पुकारे तुम उसके पीछे चल दो. चाहें उसके रास्ते घने जंगलों से दुर्गम और सीधी चट्टानों से दुरूह हों।
    हम अपनी मोटरसाइकिल में पेट्रोल भराये इंतजार कर रहे हैं न जाने किधर से पुकार आ जाये।

    प्रवासी लोगों को एक सुविधा बड़ी बढ़िया है कि जब मन आया देश को याद कर लिया। भावुक हो लिये। कवि होने के नाते समीरलाल जी को ज्यादा भावुक होने का अधिकार है। वीआईपी भावुक। देश से निकलते ही तड़ से जड़ से कटने की पीड़ा में डूब गये। खुद तो डूबे ही अब तक छप्पन को डुबा चुके हैं।

    ब्लाग जगत के सीनियर ब्लागर होने के नाते जीतेन्द्र चौधरी चार साल पहले ही जड़ से कट लिये थे और लिखे थे:
    हम उस डाल के पन्क्षी है जो चाह कर भी वापस अपने ठिकाने पर नही पहुँच सकते या दूसरी तरह से कहे तो हम पेड़ से गिरे पत्ते की तरह है जिसे हवा अपने साथ उड़ाकर दूसरे चमन मे ले गयी है,हमे भले ही अच्छे फूलो की सुगन्ध मिली हो, या नये पंक्षियो का साथ, लेकिन है तो हम पेड़ से गिरे हुए पत्ते ही, जो वापस अपने पेड़ से नही जुड़ सकता।


    नीरज रोहिल्ला पूछते हैं-क्या नाईकी (Nike) का ये विज्ञापन अश्लील है । आप देखिये और बताइये। इस सवाल के जबाब को देने के लिये समीरलाल ने अश्लीलता की परभाषा बताने आ अनुरोध किया है और मुनीश ने इसे TITALLlATING बताया है। इसी क्रम में सुनील दीपक जी की पोस्ट देखियेगा। इसमें उन्होंने स्पेन्सर ट्यूनिक की फ़ोटोग्राफ़ी का परिचय देते हुये लिखा था:
    नग्नता और अश्लीलता के बीच अंतर की रेखा बारीक़ होती है। कलात्मक सौंदर्य को समर्पित आंखें इस फ़र्क को समझने में ज़रा भी वक़्त नहीं लगाती। दूसरी ओर नैतिकता और मध्ययुगीन मान्यताओं पर भरोसा रखने वाले इन्हें पचा नहीं पाते।


    स्पेन्सर ट्य़ूनिक के काम के बारे में बताते हुये उन्होंने लिखा था:
    स्पेन्सर ट्यूनिक की ख़ासियत है कि वे दुनियाभर की मशहूर इमारतों और सड़कों पर बड़े पैमाने पर पूरी तरह नग्न हुए जनसमूह की तस्वीरें खींचते हैं। समन्दर किनारे लहरों के आकार, ऊंचे पुलों पर तनी कमान की शक़्ल में बनी कतारें, ऊंची इमारतों की दीवार तो पिरामिड-सा आकार बनाए सैकड़ों नग्न लोग इस फ़ोटोग्राफ़र स्पेन्सर की कला का अहम हिस्सा हैं।


    कविगणों के बारे में बहुत कुछ सुन रखा होगा आपने। तपन शर्मा एक और बात बता रहे हैं। उनके अनुसार ब्लागजगत के कवि अहंकारी होते जा रहे हैं। वे बताते हैं :
    ब्लॉगजगत पर आजकल एक अजीब सा ट्रैंड दिखाई देने लगा है। कवि एक दूसरे में गलतियाँ निकालने में रहने लगे हैं। उदाहरण देखिये एक ये और एक यहाँ। कोई कहता है कि "मेरी कविता उससे अच्छी", तो कोई कहता है कि फ़लां व्यक्ति की कविता छपने लायक ही नहीं थी। कभी कोई दोष तो कभी कोई। जिस तरह हमारे देश में हर कोई क्रिकेटरों को क्रिकेट सिखाने में लगा रहता है, ठीक उसी तरह ब्लॉग की दुनिया में हर "कवि" दूसरे को सिखाने में लगा हुआ है। क्योंकि हर कोई कहता है कि उसने खूब साहित्य पढ़ा है, इसलिये वो ही ठीक है।


    इसी क्रम में लेख राजकुमार ग्वालानी का लेखलेखन का धंधा-मत करो गंदा पठनीय और विचारणीय है।

    सुजाता ने ब्रांट बहनों की कहानी की पहली किस्त पोस्ट की। अगली किस्त आती ही होगी।

    नारी ब्लॉग की सदस्य फिरदौस जी अब अंतर्राष्ट्रीय न्यूज़ एंड व्यूज़ वेबसाइट की संपादक का कार्यभार संभाल रहीं हैं। आप उनको बधाई दे सकते हैं।

    अल्पनाजी ने अपने सुपुत्र तरुण का १३ वां जन्मदिन मनाया। तरुण को आशीष और मंगलकामनायें। इस मौके पर अल्पनाजी ने यह गीत भी लिखा:

    तरुण को आशीष और मंगलकामनायें
    तुम कामयाब हो न सकोगे तब तलक,
    जब तक तुम्हारी आँखों में न कोई आस हो,

    तो उठा लो क़दम अपने ,एक साथ तुम,
    उम्मीद की लौ ,अपनी आँखों में बाल लो,

    फिर देखना सफलता कैसे क़दम चूमेगी,
    होगी विजय पताका तुम्हारे ही हाथ में,

    होगी विजय पताका तुम्हारे ही हाथ में,

    ओ नौनिहाल देश के ,है जागना तुमको,
    हो हर तरफ अमन ,है दुआ मांगनी तुमको



    नवगीत के बारे में जानकारी देने के लिये नवगीत की पाठशाला खुली है। यहां आप नवगीत के बारे में जानिये और अपना नवगीत 30 अप्रैल तक लिखकर भेजिये। लीजिये आप एक नवगीत पढ़ भी लीजिये:
    दुनिया बदली
    मगर प्यार का रंग न बदला

    अब भी
    खिले फूल के अन्दर
    खुशबू होती है
    गहरी पीड़ा में अक्सर हाँ
    आँखें रोती हैं
    कविता बदली, पर
    लय-छंद-प्रसंग नहीं बदला



    पाकिस्तान की प्रख्यात गायिका इक़बाल बानो* का कल निधन हो गया। भारत में सन 1935 में जन्मी इक़बाल बानो* विवाह के बाद 1952 में पाकिस्तान चलीं गयीं। उनका निधन संगीत जगत के लिए यह एक अपूरणीय क्षति है। इक़बाल बानो* को हमारी श्रद्धांजलि।

    कबाड़खाने पर आप इक़बाल बानो* जी की अवाज में गजल के कुछ शेर सुनिये।

    *गलती से इकबाल बानॊ की जगह नूरबानो टाइप हो गया था। पाबलाजी के बताने पर संशोधन किया गया। पाबलाजी को शुक्रिया।


    एक लाइना




      काजल कुमार
    1. मैं अभागा!! जड़ से टूटा!!:कोई मुझे फ़ेवीकोल दिला दे

    2. उम्मीद देश की :व्योम के पार से

    3. अहंकारी होते ब्लॉगी कवि :बढ़ते जा रहे हैं

    4. किसी ने जब मुझसे पूछा "प्यार क्या है" बता सकोगी? : हम बोले कईसे बतायें सिलेबस से बाहर की चीजों के बारे में

    5. मेरे चिट्ठे का पता इतना अजीब क्यों है? : चिट्ठाकार से मैचिंग होगी

    6. खुशवंत सिंह की अतृप्त यौन फ़ड़फ़ड़ाहट : पर एक और बड़बड़ाहट

    7. आंखों की चमक और होंठों की मुस्कान पर पसरा जादू.: मिलकर साझा सरकार बनाने पर आमादा

    8. चुनावों के बीच एक बात कहनी है :किनारे आ के कहो, आचार संहिता लगी है

    9. घर में इक सत्संग हुआ है: ऊपर वाला दंग हुआ है

    10. इ कौन-सी डिमोक्रेसी है सरजी : इहां तो यही डिमोक्रेसी है स्टाक में

    11. इस देश की हालत कभी नहीं सुधरेगी :शुभ- शुभ बोलो जी

    12. क्या नाईकी (Nike) का ये विज्ञापन अश्लील है : व्हाट एन आइडिया सर जी! वाली जनता की राय लेनी पड़ेगी

    13. शेरू महाराज को गीदड सेक्रेटरी की तलाश :इच्छुक लोग बायोडाटा के साथ आवेदन करें

    14. चुराए हुए ज़ेवर छोड़ कर भागा चोर :बोला कोरियर से भेज देना

    15. पहाड़गंज में बेहोश शेरा:2010 से पहले होश ना आने का

    ऊपर का कार्टन काजल कुमार की पोस्ट से साभार!

    टिप्पणी/प्रतिटिप्पणी


    पिछली चर्चा में कुछ टिप्पणियां थीं उनके बारे में अपने विचार कर रहे हैं|
    1. रचनासिंह जी ने पूछा था:कल की चर्चा मे एक जानकारी और भी दी गयी थी
      " "भारत के अन्य प्रसिद्ध चिट्ठाकारों की एक सम्यक सूची आप यहाँ देख सकते हैं।"
      वो लिस्ट मात्र एक
      एक ब्लॉग directory हैं
      या उसका कोई आधार भी हैं ???? अगर आधार हैं तो कृपा कर स्रोत बताये!

      रचनाजी, मेरी जानकारी के हिसाब से यह एक सूची मात्र है। इसका ब्लाग की प्रसिद्धि से कोई लेना-देना है। जिनके नाम वहां दिये हैं उनमें से कई लोगों ने बहुत दिनों से कोई पोस्ट नहीं लिखी।

    2. डा.अनुराग ने कहा:अनूप जी . ...बावजूद शानदार अग्र्रिगेटर के ....हमारे यहाँ एक पोस्ट की कुल उम्र २४ घंटे से ज्यादा नहीं रहती...इस कारण कुछ बेहतरीन पोस्ट कई बार पढने से वंचित रह जाती है ...उदारहण के लिए पूर्व के कई ब्लोगर के शायद ऐसे लेख होगे जो दिलचस्पी के पायदान पे आज भी अपनी उपस्थिति ठोक बजा रहे होंगे पर उन तक पहुंचे कैसे ?
      तो फिर क्या किया जाये कुछ पोस्ट के संग्राह के लिए ?यक्ष प्रश्न है ?

      डा.साहब पोस्ट संग्रह के जुगाड़ मौजूद हैं। कल ही तरुण ने एक पोस्ट लिखी है-अपनी मनपसंद पोस्ट और आलेख संजों के रखें डेलिशियस की मदद से । अपने तकनीकी वीरों की मदद से शायद हम लोग जल्द ही इसकी सहायता से चिट्ठाचर्चा में भी मनपसंद पोस्टों को संजो सकें।


    3. डा.अमरकुमार जी की तीसरी टिप्पणी है: गूगल गोंसाँई की दया से यहाँ टिप्पणियों में बढ़ोत्तरी होती रहे ..
      आज पहली बार " क़ाफ़ी का कप " देखने गया ।
      पाया कि उड़ी बाबा, अनूप जी जनता को मेरे लिये पहले से ही चेता चुके हैं
      " चिट्ठाचर्चा के मामले में उनके रहते यह खतरा कम रह जाता है कि इसका नोटिस नहीं लिया जा रहा । वे हमेशा चर्चाकारों की क्लास लिया करते हैं ।"
      क्या मैं ऎसा डैंज़र थिंग हूँ ? लोकतंत्र में अपोज़िशन का होना ज़रूरी होता है, शायद इसीलिये वह आगे यह भी फ़रमाते हुये पाये जाते हैं..
      " डा.अमर कुमार की उपस्थिति ब्लाग जगत के लिये जरूरी उपस्थिति है ! "
      अब मुझे रोने की मोहलत तो देयो,
      धन्यवाद अनूप भाई, आपसे पार पाना मुश्किल है !


      डा. साहब पहली बात तो यह कि हमसे पार पाने की बात काहे करते हैं। हम लोग अपने से पार पा ले वही बहुत। हम आपको रोने का कोई मौका नहीं देंगे। हम तो कहते हैं आप सदा खिलखिलाते रहें और हम ऊ वाला शेर दोहराते रहें (फ़िट बैठने न बैठने की चिंता से ऊपर उठकर)-
      अपनी हंसी के साथ मेरा गम भी निबाह दो,
      इतना हंसो कि आंख से आंसू छलक पड़ें।


      बकिया काफ़ी के कप में हम यह भी कहे थे-
      रात को दो-तीन बजे के बीच पोस्ट लिखने वाले डा.अमर कुमार गजब के टिप्पणीकार हैं। कभी मुंह देखी टिप्पणी नहीं करते। सच को सच कहने का हमेशा प्रयास करते हैं । अब यह अलग बात है कि अक्सर यह पता लगाना मुश्किल हो जाता कि डा.अमर कुमार कह क्या रहे हैं। ऐसे में सच अबूझा रह जाता है।
      आपकी टिप्पणियां में अक्सर सच के इतने पहलू होते हैं कि एक बार में यह पता लगाना कठिन हो जाता है कि सच क्या है!
      अब आप जो लिखे उस दिन
      काशी साधे नही सध रही, चलो कबीरा मगहर साधें
      सौदा सुलुफ कर लिया हो तो, चलकर अपनी गठरी बाँधें ।

      जैसा " लिखने वाले श्री मिश्रा जी " अब हमारे बीच नहीं रहे !
      तो हम सोचते रहे कि क्या यह सच है कि मिसिरजी
      नहीं रहे। बाद में आपने बताया कि केवल इस पोस्ट पर ध्यानाकर्षण की उपादेयता जाँचने के लिये ही किया गया था ।और.. यह देख भी लिया गया ! इसके लिये मैं भारतेन्दु जी को पहले ही ई-मेल कर चुका हूँ ! अब आप पोस्ट की उपादेयता जांचने के लिये मिसिर को मेल करके निपटा दिये! ई त कहिये कि मनोज मिश्र जी की नजर इस टिप्पणी पर नहीं पड़ी काहे से कि वे आजकल जौनपुर का इतिहास ए पार जौनपुर -ओपार जौनपुर लिखने में व्यस्त हैं नहीं तो वे आपको ब्लाग धारा तीन सौ प्लस समथिंग के अंतर्गत दौड़ा लिये होते।

      बकिया आप विघ्नसंतोषी अपने लिये होंगे। हमारे लिये तो आप विघ्नविनाशक ,मंगलमय हैं और हमारी कामना है ऐसे ही बनें रहें।


    4. यह विवरण मुझे कविताजी ने मेल से भेजा था। कविताजी ने इस पोस्ट पर यह टिप्पणी की थी:
      भारत के झंडे को ब्ळोग के चरणों में अवस्थित देख कर दु:ख हुआ। इस विजेट को ब्लॊग के ऊपरी कोने में भी तो लगाया जा सकता है। या फिर हटा ही दें। यह सम्वैधानिक रूप से ध्वज - अपराध है।
      इस पर विनय प्रजापतिजी ने यह कविताजी को जबाब भेजा था
      respected mam,
      Aap ke jnaan ke baare men maudgil saahab se kafii sun rakhaa hai. aapse yah ghalati kaise hui, mujhe baat samajh nahiin aayi. aap agar computer desktop ko deewar ki tarah dekhti hain to aapki baat sahi ho sakti hai lekin yadi aap ise is tarah samajhe ki layers ke upar layers hain jise computer bhashha mein z-index kahatein hai to bharat kaa flag sabase upar hai... aur ismein koI apmaan ke baat nahi. agar main apmaan ki baat karne lagoon to ek baat to main saabit hi kar doonga ki aap hazaron baar aise apmaan kar chuki hain aur poora desh aisa apamaan saal mein do baar to karta hi hai... kyon lakho flags 15 aug aur 26 jan ke baad naaliyon mein pare rahte hain aur aap unhein uthaakar kabhee use maan nahi detii hain.

      thanks for writing comments, but I am going to delete it.

      vinay prajapati

      अब तकनीक की जानकारी मुझे नहीं है। तकनीक के जानकार बता सकते हैं इसे। लेकिन अगर पन्द्रह अगस्त और छब्बीस झण्डे जमीन नालियों में पड़े रहने के तर्क के आधार पर अपने को सही साबित करने का प्रयास तो अच्छी बात नहीं है।


    और अंत में

  • कल मीनाक्षी जी ने चर्चा शुरू की। चर्चाकार के रूप में उनका जुड़ना हमारे लिये उपलब्धि है। आशा है कि अगले सप्ताह से वे सप्ताह में एक दिन नियमित चर्चा करेंगी।


  • बाकी सब चकाचक। कल की चर्चा शिवकुमार मिश्र पेश करेंगे। परसों आपसे रूबरू होंगे मसिजीवी। इसके बाद शनिवार को मनीष कुमार संगीत चर्चा करेंगे। इतवार को मिलेंगे रविरतलामी । अब अगले हफ़्ते का हिसाब अभी से क्या बताया जाये?


  • चर्चा पोस्ट करने के पहले आपको एक लेख का लिंक देने का मन है। किशन पटनायक समाजवादी चिंतक रहे हैं। उन्होंने समाज की दशा-दिशा पर विचार करते हुये अनेक बेहतरीन लेख लिखे हैं। विकल्पहीन नहीं है दुनिया उनके बेहतरीन लेखों में से एक हैं। अफ़लातूनजी किशन पटनायक जी के लेख समय-समय पर पढ़वाते रहते हैं। इसी कड़ी में किशन पटनायक जी के लेख आज़ाद अख़बार , पराधीन पत्रकार और किरानी , पत्रकार पठनीय च संग्रहणीय हैं। इन लेखों को पढ़ेंगे आप तो आजके मीडिया जगत की स्थिति और उनमें पत्रकारों की भूमिका के बारे में आपको अंदाजा लगेगा किशन पटनायक जी लिखते हैं:
    नई पीढ़ी के पत्रकारों के मामलों में यह जोखिम नहीं है । वे लेखक या विचारक के रूप में नहीं , शुरु से ही पत्रकार के रूप में प्रशिक्षित हो रहे हैं । यहाँ विचारों को दबाने के लिए अधिक भत्ता देना नहीं पड़ता है - सिर्फ इस काम को आकर्षक बनाने के लिए खूबसूरत वेतन - भत्ते का प्रबन्ध रहता है । यह वेतन - भत्ता विशिष्टजनों के लायक है । इस वेतन-भत्ते के लायक होने के लिए प्रतिबद्धताविहीन बुद्धिजीवी होने का प्रशिक्षण उन्हें मिलता रहता है ।


  • फ़िलहाल इतना ही। जहां हैं जैसे हैं की हालत में मस्त रहें ,खुशहाल रहें।
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