मंगलवार, जुलाई 27, 2010

चर्चा में चंद एक लाईना

एक लाईना


  1. वर्धा में ब्लॉगर सम्मेलन की तिथि दुबारा नोट कीजिए…:और उनके बदले जाने का इंतजार करिये!

  2. आपके ब्लॉग का नाम क्या होना चाहिए :झकास.ब्लॉगस्पाट.काम

  3. जन्मदिन के किस्से..हैप्पी बर्थडे मोमेंट :):जाओ जाके धरती की शोभा बढ़ाओ अब

  4. जब तुम होगे साठ साल के............. घुघूती बासूती :होंगी पचपन की

  5. लड़कियां खुद देती है यौन संबंध बनाने के आफर :बेचारे कोच लोगों को उनके आफ़र स्वीकार करने पड़ते हैं

  6. मेरा मोहल्ला मोहब्बत वाला :मिश्रित संस्कृति वाला, हाथों में हाथ का ताला- झिंगालाला

  7. राजनीतिक स्वार्थ ........! :पूरे कीजिये।महंगाई का ब्रेकफास्ट,आश्वासनों का लंच कीजिये ,

  8. सौंदर्य जब शबाब पर होता है...तो वह इकतीस का होता है:पोस्ट लेखक की उम्र बावन वर्ष

  9. तो तुम याद आती हो.... :ये याद कमबख्त चीज़ ही ऐसी है :)

  10. हीरो या जीरो....? :एक्कै बात है।

  11. जीवन के ये 17 मूल आधार :मुफ़्त में पाइये

  12. ये पोस्ट bharat भारती की है क्रप्या इसे पढ़कर टिपण्णी ज़रूर दो :भगवान आपका भला करेगा

  13. अपनेब बच्चे,बच्चे और दूसरों के मुसीबत : होते तो अपने बच्चे भी मुसीबत ही हैं लेकिन कहें कैसे वे सुन लेंगे!

  14. ….जिंदगी का एक इतवार :मंगलवार तक पसरा है


  15. आया सावन झूम के ...
    :ठुमके लगाये घूम के

  16. ये मुंबई आमा हल्दी..............सतीश पंचम नाम लिखने लगे पोस्ट में ताकि लोग देखते ही बांचने लगें

  17. चप्‍पलें खूब खुश हैं (अविनाश वाचस्‍पति) :के हवाले से

  18. सावधान, आजकल ईमेल की हेकिंग हो रही है शुक्र है हम ईमेल नही हैं। वैसे परसों क्या बन्द हो जायेगी हैकिंग!

  19. एक डुबकी गंग धार में :कांवर के त्यौहार में


  20. नितीश जी के बिहार में बाढ़ नियंत्रण और आपदा प्रबंधन सिर्फ और सिर्फ भ्रष्टाचार का प्रबंधन करता है ....
    :कहां नहीं करता है?

  21. स की शमश्या!! : शे मुकाबला करिये!

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सोमवार, जुलाई 26, 2010

सोमवार (26.07.2010) की चर्चा

नमस्कार मित्रों!

मैं मनोज कुमार सोमवार की चर्चा लेकर हाज़िर हूं। शनिवार को तरुण जी आ रहे हैं। तो अब से मैं सोमवार को ही आया करूंगा।

 

तो आइए चर्चा शुरु करते हैं।
अबूझमाड़ के आदिवासिओ के बीच बिताये पल

भड़ास blog पर Akhilesh जी की एक चित्रात्मक पोस्ट है, जो नक्सलवाद के चलते भोले-भाले अबुझ्मद के आदिवासी विषम परिस्थितियो में कैसे जीवन बिता रहे है, उसको बहुत ही सजीवता से प्रस्तुत करती है।. अखिलेश जी ने विगत दिनों इन आदिवासिओ के बीच एक दिन बिताया। और आज वो प्रस्तुत कर रहे हैं उनके जीवन की कुछ तस्वीरें। एक तस्वीर मैं यहां दे रहा हूं, बाक़ी आप उनके पोस्ट पर देखिए।

स्वयं उतारी ताड़े और सल्फी पीकर आनंद में मस्त रहते है।

यह पोस्ट उस आदिवासी इलाक़े का टोटल प्रभाव उत्पन्न करता है।

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डोली पर बैसल कनिया ( Bride going to her husband's house )

आपको मैथिली आती हो या नहीं इस पोस्ट को ज़रूर देखें। यह Kohbar पर Jyoti Chaudhary की प्रस्तुति है। इसमें एक छवि है जिसमें डोली पर बैठी दिल्हन को  चित्र के द्वारा दिखाया गया है। मधुबनी या मिथिला चित्रकला शैली  में बनाया गया है यह चित्र। पहले दुल्हन की विदाई महफा(डोलॊ)  पर होती थी। साथ में रास्ते के लिए पानी आदि दिया जाता था। चित्र को देखिए और सराहे बिना न रह पाएंगे आप।

है ना अद्भुत! इन सब लोक कलाओं को जीवित रखना हमारा फ़र्ज़ है।

इंसानियत कि पाठशाला व संस्थान कि आज इस देश को सख्त जरूरत है ....क्या आप खोलना चाहेंगे ऐसी पाठशाला....?

My Photoयह प्रश्‍न पूछ रहे हैं honestyprojectrealdemocracy पर honesty project democracy जी। कहते हैं “हमारे देश और समाज कि अवस्था बेहद दर्दनाक व भयानक होती जा रही है | सामाजिक परिवेश इस तरह दूषित हो चुका है कि ह़र कोई विश्वास का गला घोंटकर अपना स्वार्थ साधने को अपनी काबिलियत व योग्यता समझने लगा है|”

आगे कहते हैं,

इन सारी बातों को देखते हुए आज जरूरत है हर शहर में इंसानियत के पाठशाला और संस्थानों कि जो सच्ची इंसानियत कि पाठ पढ़ाने का दुष्कर कार्य को अंजाम दे सके ,क्या आप खोलना चाहते हैं ऐसी  पाठशाला व संस्थान ..? मैंने तो सोच लिया है ऐसा एक पाठशाला या संस्थान चलाने कि इसमें हमें सरकारी सहायता कि आशा तो नहीं है लेकिन सच्चे और इमानदार इन्सान के हार्दिक सहयोग कि मुझे पूरी आशा है |

इरादा नेक है। आपको सफलता मिले।

My Photoबदल जाएगा तकनीकी शिक्षा का चेहरा!

बता रहे हैं भाषा,शिक्षा और रोज़गार पर शिक्षामित्र। कहते हैं कि तकनीकी पेशेवरों की फौज तैयार करने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय कई नए कदम उठाने की तैयारी में है। इसके लिए परंपरागत रूप से दी जा रही तकनीकी शिक्षा का चेहरा बदलने की कोशिश की जा रही है। अभिभावकों और छात्रों को स्कूली शिक्षा से तकनीकी शिक्षा की तरफ शिफ्ट करने की कोशिश की जा रही है।

आगे बता हैं

एक पहल तकनीकी शिक्षा के लिए साइंस की पढ़ाई की अनिवार्यता खत्म किए जाने की तैयारी हो रही है। यानी किसी भी पेशेवर कोर्स में प्रवेश के लिए भविष्य में न्यूनतम शैक्षिक योग्यता में पढ़ाई के कुल वर्ष देखे जाएंगे न कि 11-12वीं में पढ़े गए विषय।

बहुत ही रोचक जानकारी प्रस्तुत किया है आपने।

आवारा हूँ ...

जी ये एक आलसी का चिठ्ठा है गिरिजेश राव द्वारा प्रस्तुत किया गया है। जब कोई यह ऐलान करेगा कि आवारा हूं तो यह तो कहेगा ही कि आवारगी हमेशा बुरी नहीं होती। तब जब ब्लॉग जगत में यूँ ही निरुद्देश्य घूमा जाय तो यह बहुत अच्छी हो जाती है। हिन्दी सिनेमा को गिरिजेश जी निरर्थक मनोरंजन की एक विधा मानते थे।

पूर्वग्रह जब मस्तिष्क पर काई सा बैठ जाय और पसरता हुआ जड़ जमा जाय तो घातक रोग में तब्दील हो जाता है।

My Photoभीड़ और फ़ितरत

संवादघर पर संजय ग्रोवर प्रस्तुत कर रहे हैं एक लघुकथा।

मुझे देखकर उन डूबती निगाहों में उम्मीद और विश्वास की जो चमक कौंधी, उसने मुझे बदल डाला।

मैं कूद पड़ा दरिया में। भंवर मुझे तैरना सिखाने लगा। लहरें बोलीं मामूली काम है, डरते क्या हो ! तूफ़ान ने पैग़ाम भेजा कि तुम अपना काम कर लोगे तभी मैं उस तरफ़ आऊंगा। मैंने उसे बचा लिया।

भीड़ के चरित्र पर अच्छा कटाक्ष है इस लघुकथा में!

My Photoसंडे के दिन पत्नी के बजाय जब मैंने डोसा बनाया... कुछ रोचक राजनीतिक अनुभव हुए .....जाना कि डोसा बनाना भी एक कला है....आखिर देश एक तवा जो ठहरा.........सतीश पंचम

सफ़ेद घर में सतीश पंचम जी बताते हैं कि आज sunday वाली छुट्टी के दिन जब घर में डोसा बनाया जा रहा था तब उसी वक्त पीने का पानी भी आ गया। अब या तो डोसा बनाया जाय या पानी भरा जाय यह दुविधा थी। ऐसे में पत्नी को उन्होंने कहा कि आज तुम पानी भरो और मैं डोसा बनाता हूँ।

यह देश एक डोसा मेकिंग एक्टिविटी  की तरह है....नीचे से आँच तो नेता लोग लगाते ही रहते हैं.....लेकिन हर मसला समय बीतने के साथ या तो खुद ब खुद सुलझ जाता है या सख्त होकर कभी न सुलझने के लिए काला पड़ जाता है ।

अब जब डोसे बनाने में आपको देश दिखने लगने लगा, देश देख लीजिये, हालात साँभर जैसी है।

My Photoमॉडर्न भौतिकी और सुंघनी

मानसिक हलचल: विफलता का भय पर ज्ञानदत्त पाण्डेय जी कहते हैं वे जवान और गम्भीर प्रकृति के छात्र हैं। विज्ञान के छात्र। मॉडर्न भौतिकी पढ़ते हैं और उसी की टमिनॉलॉजी में बात करते दीखते हैं। अधिकांशत: ऐसे मुद्दों पर बात करते हैं, जो मुझे और मेरी पत्नीजी को; हमारी सैर के दौरान समझ में नहीं आते। हम ज्यादातर समझने का यत्न भी नहीं करते – हमें तो उनकी गम्भीर मुख मुद्रायें ही पसन्द आती हैं।

अगर भारत समृद्ध होता और उन्हें सिविल सेवाओं की चाहत के लिये विवश न करता तो भारत को कई प्रीमियर वैज्ञानिक मिलते – कोई शक नहीं। पर उसे मिलेंगे सेकेण्ड-ग्रेड दारोगा, तहसीलदार, अध्यापक और कुछ प्रशासनिक सेवाओं के लोग।

 

My Photoगुरू पूर्णिमा पर ओशो नमन !!

कर रहे हैं Samvedana Ke Swar पर सम्वेदना के स्वर।

मैं चाहता हूं तुम्हें निर्भार करना -
ऐसे निर्भार कि तुम पंख खोल कर
आकाश मे उड़ सको.
मैं तुम्हें हिन्दू,मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध
नहीं बनाना चाहता
मैं तुम्हे सारा आकाश देता हूं.

मैं गुरु इस मायने में ही हूं
                  कि मेरी साक्षी में तुमने
                  स्वयम् को जानने की
                  यात्रा आरम्भ की है,
                  इससे आगे मुझसे उम्मीद मत रखना.

 

ओशो की बात ही निराली है! उनकी व्याख्या गुरु पूजा के कुछ नये आयाम खोलती है ! गुरु को समर्पित आपकी पोस्ट सच में कमाल है ! गुरु पर्व की बहुत बहुत बधाई!!

My Photoआ कर छू लो कोरा है मन ( गठरी ब्लाग)

गठरी पर अजय कुमार की प्रस्तुति।

तन्हां तन्हां मैं रहता हूं ,आलम है तन्हाई का ।
आती है आवाज ,तुम्हारी यादों में शहनाई का ॥
रिमझिम रिमझिम , बरसे सावन ।
तुमको पुकारे , अब मेरा मन ।
तुम बिन , सूना सूना सावन ।
दिल में आग लगा ही देगा , मौसम ये पुरवाई का ॥
इस बारिश में , भीग रहा तन ।
आकर छू लो , कोरा है मन ।
बिन सजनी के , कैसा साजन ।
आ भी जाओ फेंक के अपना , चोला ये रुसवाई का ॥

भाषा की सादगी, सफाई, प्रसंगानुकूल शब्दों का खूबसूरत चयन, भाषिक अभिव्य्क्ति में गुणात्मक वृद्धि करते हैं।

(title unknown)  पंजाबी कहानी - पठान की बेटी - सुजान सिंह

संस्कृति सेतु पर समवेत स्वर द्वारा कहानी श्रृंखला – 8 के अंतर्गत इस पंजाबी कहानी की अनुवादक हैं नीलम शर्मा ‘अंशु’।
ग़फूर पठान जब भी शाम को अपनी झोपड़ी में आता तो उन झोंपड़ियों में रहने वाले बच्चे ‘काबुलीवाला’ - ‘काबुलीवाला’ कहते हुए अपनी झोंपड़ियों में जा छुपते। एक छोटा सा सिक्ख लड़का बेखौफ वहाँ खड़ा रहता और उसके थैले, ढीली-ढाली पोशाक, उसके सर के पटे और पगड़ी की तरफ देखता रहता। गफ़ूर को वह बच्चा बहुत प्यारा लगता था। एक दिन उसने लड़के से पठानी लहज़े वाली हिंदुस्तानी ज़बान में पूछा - ‘तुमको हमसे डर नहीं लगती बाबा ?’

पठान कह रहा था - ‘ज़ालिम को बच्ची नहीं देने का। बचाओ! बचाओ! ये लोग मार डालेगा। मेरा बेटी को, ये जालिम.....कसाई।’

थानेदार कड़क कर बोला, ‘तो तू इसको बचाने के लिए उठा कर ले गया था?’ चारों तरफ हंसी का ठहाका गूंज उठा। कोई कह रहा था, ‘शैदाई है।’ कोई कह रहा था, ‘बनता है।’ परंतु ग़फूर रोए जा रहा था।

एक बहुत ही अच्छी प्रस्तुति। सरस अनुवाद।

My Photoसरकारी अनुदान

बेचैन आत्मा पर बेचैन आत्मा की कविता।

झिंगुरों से पूछते, खेत के मेंढक
बिजली कड़की
बादल गरजे
बरसात हुयी
हमने देखा
तुमने देखा
सबने देखा
मगर जो दिखना चाहिए
वही नहीं दिखता !
यार !
हमें कहीं,
वर्षा का जल ही नहीं दिखता !
एक झिंगुर
अपनी समझदारी दिखाते हुए बोला-
इसमें अचरज की क्या बात है !

आपकी बैचेनगी काफी तीखे व्यंग करती है। बरगदी वृक्ष और साँप के बिल के माध्यम से जो आपने व्यंजक अर्थ दिए हैं गजब हैं। 'सरकारी अनुदान' नाम की यह रचना भविष्य में हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा गया तो उसमें इस रचना का उल्लेख किया जाना अवश्य चाहिए।

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रविवार, जुलाई 25, 2010

बरसाती ब्लॉग


एनीमेशन - साभार पिम्प मायस्पेस

 

नौरंगी बारिश


अब साहित्य के नौ रससे रंगी ये बारिश .....
शांत रस बनकर टिप टिप कर बरस जाती है
श्रृंगार रस बन सज जाती है हरी चद्दरसी धरती का आँचल बन ...
गरज बादल की कोई लड़ाकेकी वीर रस की झलक दे जाती है
छिपकर किसी कौनेसे सूरज की नटखट किरन
बादल के केनवास पर मेघधनुषका अद्भुत नज़ारा दे जाती है .....
बचपन गूंजता है गलियोंमें शहर की हास्य रस बनकर
छापक छै करता बचपन नहाता है जब भरपूर सावनमें ....
तोड़ती है किनारों का बंधन ये बहती नदी
सैलाब बनकर इंसानकी आँखोंमें करुण रसमें भीगे अश्क ले आती है .....

बाकी के रंग आगे पढ़ें>>

 

बारिश : चार मन:स्थितियाँ

01-

कविता में क्या है-
शब्द ?
रूप ?
गंध ?

प्रकृति के कोरे कागज पर
बारिश लिख रही है छंद।

02-

बारिश आई
याद आई छतरी
याद आए तुम
याद आया घर।

ओह ! कितनी देर से
भटक रहा हूँ बाहर
इधर – उधर।

और दो मनःस्थितियाँ पढ़ें>>

 

आ कर छू लो कोरा है मन…

रिमझिम रिमझिम , बरसे सावन ।
तुमको पुकारे , अब मेरा मन ।
तुम बिन , सूना सूना सावन ।
दिल में आग लगा ही देगा , मौसम ये पुरवाई का ॥

दिल को अच्छी लगीं , फुहारें ।
गुलशन में आ गयीं , बहारें ।
धड़कन तेरा नाम , पुकारें ।
एक झलक दिखला दो अपनी , मस्ती भरी अंगड़ाई का ॥

इस बारिश में , भीग रहा तन ।
आकर छू लो , कोरा है मन ।
बिन सजनी के , कैसा साजन ।
आ भी जाओ फेंक के अपना , चोला ये रुसवाई का ॥

मन और भी कोरा है… आगे देखें >>

 

धरासार धरा पर…

इस    छोर  से उस  छोर  तक,

मेघों   का    श्यामल   फैलाव।

पवन  के  प्रबल    वेग  से  उड़े,

धरती  को  सरस  करती छांव।

पल में घन उमड़-घुमड़ आते,

ज्यों बरसाती घास।

वारिद-विद्युत   विभूषित  व्योम,

मोह – जनित     भव - दारुण।

प्रीति   रस   से  भरा   घनमाल,

रिमिर-झिमिर वर्षा, मृदु गर्जन।

मेघगीत    का   हर्षित   स्वर है

जन-जन में विश्‍वास।

धरासार जारी है… >>

 

बारिश भी अखरती है…

बेइंतिहाँ मोहब्बत की है तुझसे मैने
इकरार तो करुँ, मगर जालिम जुबाँ अटकती है

आफ़ताब समंदर की चादर ढक कर सो गया है
मुलाकात जो कल खत्म हुई, वो आज खटकती है

वो जो चंद लम्हें, गुज़रे थे इक चादर मे
बरस गुज़र गये ,मगर चादर अब भी महकती है

वही पुराना अच्छा मौसम है, सिर्फ़ तुम नही हो
अब बहार अखरती है तो बारिश भी अखरती है

पूरा पढ़ें>>

 

बरसात की बात

मौसम के इस बदलते मिजाज से
हमारी बरसात से जुड़ी खुशियां बहुगुणित हो
किश्त दर किश्त मिल रही हैं हमें
क्योकि बरसात वैसे ही बार बार प्रारंभ होने को ही हो रही है
जैसे हमें एरियर
मिल रहा है ६० किश्तों में

मुझे लगता है
अब किसान भी
नही करते
बरसात का इंतजार उस व्यग्र तन्मयता से
क्योंकि अब वे सींचतें है खेत , पंप से
और बढ़ा लेते हैं लौकी
आक्सीटोन के इंजेक्शन से

बाकी की बरसाती बात में भीगें>>

 

कल ऐसी बरसात नहीं थी

झूले भी थे आंगन भी था तूफानों की बात नहीं थी

कल ऐसी बरसात नहीं थी।

भीगे आँचल में सिमटी सी बदली घर-घर घूम रही थी

आसमान के झुके बदन को छू कर बिजली झूम रही थी

घुटी हवाएं उमस भरे दिन और अँधेरी रात नहीं थी

कल ऐसी बरसात नहीं थी।

और, कल ऐसी बरसात होगी?>>

 

बरसात पर परवीन शाकिर की एक गजल


तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ-साथ
ऐसी बरसातें कि बादल भीगता है साथ-साथ

बचपने का साथ है, फिर एक-से दोनों के दुख
रात का और मेरा आंचल भीगता है साथ-साथ

वो अजब दुनिया कि सब खंजर-ब-कफ फिरते हैं और
कांच के प्यालों में संदल भीगता है साथ-साथ

चंद और बरसाती शेर इधर>>

 

बरसात

घना फैला कोहरा
कज़रारी सी रात
भीगे हुए बादल लेकर
फिर आई है ‘बरसात’;

   अनछुई सी कली है मह्की
   बारिश की बूंद उसपे है चहकी
   भंवरा है करता उसपे गुंजन
     ये जहाँ जैसे बन गया है मधुवन;

बारिश की झड़ी जारी है>>

 

झाया बरसात

(I have tried to type in Hindi & I don’t know much about it, sorry for errors)
कुछ अरसे पहले की बात है,
जब हम अपने आपमें मदहोश रहते थे,
ज़माने की फ़िक्र तो हमे कभी न थी,
वोह वक़्त था,
जब हम सब नज़रअंदाज़ किया करते थे.

कुछ सपने हमने भी संजोये थे,
और उन्हीमें ज़िन्दगी ढूंडा करते थे,
बूंदाबांदी तोह तभी हुआ करती थी,
हम वोह नासमझ थे,
जो आपनी प्यास पानी से बुजाया करते थे.

बरसाती कहानी अभी जारी है>>

 

बरसात की एक शाम...


इस मौसम की सबसे जोरदार बरसात
अबके नहीं आई मुझे तुम्हारी याद ......क्यों?
क्या इसलिए
कि मै
अब तक
अपने घर के निचले तल से
पानी निकालने में व्यस्त था
या फिर अब तक
घर न लौटे भाई की
चिंता सता रही थी मुझे
या फिर…

बारिश जारी है और साथ में चिंता भी>>

 

सच बरसात का!


फ़लक पे झूम रही सांवली घटायें हैं,
बदलियां हैं या, ज़ुल्फ़ की अदायें हैं।

बुला रहा है उस पार कोई नदिया के,
एक कशिश है या, यार की सदायें हैं।

बाकी के बरसाती सच जानना नहीं चाहेंगे?>>

 

रिमझिम के तराने लेके आई बरसात

"आज फिर तेरी याद आई बारिश को देख कर,
दिल पर ज़ोर ना रहा अपनी बेक़सी को देख कर,
रोए इस क़दर तेरी याद में,
कि बारिश भी थम गई मेरी अश्कों के बारिश देख कर।"

"गिरती हुई बारिश के बूंदों को अपने हाथों से समेट लो,
जितना पानी तुम समेट पाए, उतना याद तुम हमें करते हो,
जितना पानी तुम समेट ना पाई, उतना याद हम तुम्हे करते हैं।"
"कल शाम की बारिश कितनी पुरनूर रही थी,
जो बूंद बूंद तुम पर बरस रही थी,
मुझे भी मधोश कर देने वाली तुम्हारी,
ख़ुशबू से महका रही थी,
मुझे ऐसा लग रहा था जैसे
इस धरती पर अम्बर तले सितारों की हदों तक सिर्फ़
दो ही वजूद बस रह गए हैं,
एक मैं और एक तुम।"

शेष तराने सुनें और बारिश में झूमें>>

 

लो आया बरसात का मौसम


लो आया बरसात का मौसम
रूमानी जज़्बात का मौसम।
दिलवालों के साथ का मौसम
अंगड़ाई की रात का मौसम।।

मद्धम मद्धम बूंदा बांदी
प्रेम रंग में भीगी वादी
दो दिल नजदीक आ रहें
ये शीरी फ़रहाद का मौसम।
लो आया बरसात का मौसम।।

दूर हुई सबकी नासाज़ी
शुरु दिलों की सौदेबाज़ी
उसका ले लो अपना दे दो
फिर देखो क्या ख़ास है मौसम।
लो आया बरसात का मौसम।।

बरसात का मौसम अभी गया नहीं है>>

 

बरसात

     जड़ चेतन  सब झूम रहे है
        मिल कर गाते मेघ मल्हारें
        बिना रुके तुम बरसो बादल
        छा जाओ मन मंडल पर
मन में आता है की पंक्षी सा हम खूब नहाये,
        खेतों  में फसलें लहलायें
        कृषकों के चहरे मुसकाएं
        झूमे गाँव आज फिर मस्ती में
       और ख़ुशी भारत की हर बस्ती में

बरसात की फुहार में और भीगें>>

 

चुनरी भीगल, चोली भीगल… भीगे रे जुल्मी जवानी !

image

फिल्मों में बरसात का चित्रांकन पैसे, समय व तकनीक के लिहाज से सदैव चुनौतीपूर्ण कार्य रहा है, असली बरसात में गाना या दृश्य फिल्माना तकनीकी दृष्टिकोण से मुश्किल रहा है चुनांचे फिल्म वाले इसके लिए कृत्रिम बारिश करवाते हैं, पर भोजपुरी निर्माताओं के लिए यह मशीनी बारिश करवाना इतना आसान नहीं क्योंकि इसमें काफी पैसे, समय व तकनीक की जरूरत होती है और हिंदी फिल्मों की तरह यहां धन भी कम ही बरसता है, संभवत: इसीलिए भोजपुरी फिल्मों में भी गिने-चुने बारिश के गीत या दृश्य हैं, पर इनमें से भी कुछ गाने तो अद्भुत बन पड़े हैं जो मन में कोमल भाव जगाने के लिए काफी हैं

बाकी बरसाती शूटिंग के लिए कैमरा रोल कर रहा है. इधर>>

 

जीत

गड़ गड़ गड़ गड़ गड़. आवाज़ सुनकर अचानक लल्ला डर गया. फिर संभलकर मुस्कुराया और बोला- क्युटू! तुझे पता है ये किसकी आवाज़ है??

तुझसे ज्यादा पता है, तेज़ तर्रार क्युटू ने जवाब दिया.

तो बताओ क्या पता है?

बादल गरज रहे हैं, उल्लू!!

बादल क्यों गरजते हैं??

अरे तुझे नहीं पता? जब कोई खेलते वक्त चीटिंग करता है ना भगवान् जी उसको बहुत सारे मुक्के मार्ते है, इसलिए वो आवाज़ बादल गरजने जैसी होती है उल्लू!!

अरे तो छिपकली ये भी बता दे फिर बरसात  कैसे होती है?

बरसाती कहानी आगे पढ़ें>>

 

वर्षा मंगल तरही मुशायरा

बड़ी ही शोख तेरी मस्त ये अदाएं हैं
इसी में डूब के महकी हुई हवाएं हैं

न जाने कितने दिन के बाद भींगा मौसम है

हरी-हरी-सी लगी बाग़ की लताएँ हैं
तुम्हारा प्यार बरसता अषाढ़ बनकर के
हरेक बूँद में जैसे तेरी सदाएं हैं

मचल रहा है मेरा दिल किसी से मिलने को
फलक पे झूम रहीं सांवली घटाएँ हैं
तुम्हारे प्यार में पागल हुआ है दिल मेरा
मेरी दिवानगी की अब कई कथाएँ हैं
न जाओ दूर, करो तुम न ऐसी बतियाँ भी
विरह की बात मुझे हर घड़ी रुलाएं हैं
तुम्हारे पास है दौलत फरेब की लेकिन
हमारे पास बुजुर्गों की बस दुआएं हैं
तेरी वफ़ा को नज़र ना लगे ज़माने की
यहाँ तो नाच रही हर तरफ ज़फाएं हैं
तुम्हारा साथ मिला इसलिए लगा पंकज
हमेशा दूर रही मुझसे हर बलाएँ हैं

बरसाती मुशायरा अभी तो शुरू ही हुआ है>>

 

अबके सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई -------


मनवा में , आज कुछ बातें मौसम की आप कहेगें की मन की बात करने वाला " मनवा " आज मौसम की क्यों बात करने लगा - दोस्तों बात दरअसल मन की ही है बस शुरू मौसम से करते हैं आप सभी बरसात के इंतजार में है लेकिन बादल ना जाने क्यों रूठे हुए है वो आते तो है किसी आतुर प्रेमी की तरह बरसने के लिए लेकिन ना जाने क्यों इस धरती को अपनी झलक दिखा कर दरवाजे से ही लौट जाते है मानो कह रहे हों आज समय नहीं है ज़रा काम में व्यस्त है फिर कभी देखेगे और धरती फिर इक बार बादलों की इस चतुराई और सयाने पन को समझ कर मुस्कुरा देती है वो जानती है ये बादल जरुर कहीं न कहीं बरसने ही गए है लेकिन धरती के किस टुकड़े को मेघों की कितनी जरुरत है ये बादल कभी जान ही नहीं पाते हैं…

बरसात की शरारत खत्म नहीं हुई है अभी

 

बरसाती ग़ज़ल

मेरी आँखों में छाए घटा शर्म की
तेरी आँखों में रिमझिम है बरसात है

..

मेरे आंगन जो बरसे फ़क़त आब है
तेरे आंगन जो बरसे वो बरसात है

बरसात के बाद के चंद शेर और भी हैं>>

 

दिल्ली में छपाक.. छई..

दिल्ली शहर में जब बारिश हुई तो झमाझम हुई.. बदरा बरसे तो जी भरकर बरसे.. आसमान में काली घटा ऐसी छाई, कि फिर तो रातभर बारिश ने मूसलाधार रूप अख्तियार कर लिया... बादलों ने तन और मन भिगो कर रख दिया.. लेकिन इस शहर और अपने गांव में यही फर्क है, कि यहां बारिश का मज़ा लेने के बजाए लोग चाहरदीवारी में ही कैद होकर रह जाते हैं।

और एक अपना गांव है, जहां बारिश में जमकर भीगो, कोई रोक-टोक नहीं... दिल्ली में बारिश झमाझम हो रही थी.. लेकिन ये क्या... एक घंटे बाद टीवी ऑन किया, तो हर चैनल पर डूबती-उतराती दिल्ली की तस्वीरें नज़र आ रही थी... शहर में कई-कई फुट पानी भर चुका था, गाड़ियों की लंबी-लंबी कतारें लगी थीं, दिल्ली जाम से दो-चार हो रही थी, और दिल्ली वाले बारिश से तरबतर। राजधानी की हालत पर तरस आ रहा था.. लेकिन क्या करें, बदहाली के लिए भी हम लोग ही ज़िम्मेदार हैं.. घर में नहीं हैं दाने और अम्मा चली भुनाने की तर्ज़ पर लोन लेकर गाड़ियों का अंबार लगाने पर तुले हैं.. और फिर जब घुटनों पानी से मशक्कत करके घर पहुंचते हैं, तो सरकार को कोसते हैं... सड़कें भी आखिर क्या करें... फैलकर बड़ी तो नहीं हो सकती न...

दिल्ली की छपाक छई जारी है>>

 

बहाने बनाता बरसता शेर

प्यासी धरती मांग रही कब से थोड़ी बारिश लेकिन,
मेघों की साहूकारी में सिर्फ बहाने मिलते हैं.

बाकी के उफनती नदी जैसे शेर>>

 

सरकारी बरसात

झिंगुरों से पूछते, खेत के मेंढक

बिजली कड़की
बादल गरजे
बरसात हुयी

हमने देखा
तुमने देखा
सबने देखा

मगर जो दिखना चाहिए
वही नहीं दिखता !

यार !
हमें कहीं,
वर्षा का जल ही नहीं दिखता !

एक झिंगुर
अपनी समझदारी दिखाते हुए बोला-

इसमें अचरज की क्या बात है !

कुछ तो
बरगदी वृक्ष पी गए होंगे

कुछ
सापों के बिलों में घुस गया होगा

सरकारी बरसात पर अनुदान मिल रहा है>>

 

ब्लॉग बरसात जारी है… बाढ़ आने की पूरी संभावना है. सावधान रहें…

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शनिवार, जुलाई 24, 2010

शनिवार (24.07.2010) की चर्चा

नमस्कार मित्रों!

मैं मनोज कुमार एक बार फिर से शनिवार (24.07.2010) की चर्चा के साथ हाज़िर हूं।

समयाभाव के कारण इस बार संक्षिप्त चर्चा।

 

ब्लॉग‘

पोस्ट / लिंक एक लाइना
अज़दक

न खत्‍म होने वाली बारिश की उस रात..

बनते-बनते बिगड़ गई बात…!
चला बिहारी ब्लॉगर बनने

अ-कबिता

दू गो बच्ची और एक ठो पिता

हजारों महाकव्य से बढकर है

ऐसन एक ठो  अ-कबिता ।

मेरी भावनायें...  रश्मि प्रभा...

जल्दी आओ ...

एक चाय भी बिना तू तू मैं मैं के कहाँ स्वादिष्ट होती है!

धान के देश में! : जी.के. अवधिया

बुढ़ापे में जवानी के रोमांस की याद भी जीवन में रस घोलती है

अवधिया जी सच बताना आजकल आपका किसके साथ चक्कर चल रहा है?"

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति 
अनिल कान्त :

ओ रे मनवा तू तो बावरा है

तो एक काम कीजिए एक बिना नाम-पते वाली चिट्ठी उस लाल बक्से में डाल ही आइए।

ज्योतिष की सार्थकता

पं.डी.के.शर्मा"वत्स"

इन वैदिक उपायों से मन भी मान जाता है........(ज्योतिष उपाय Jyotish Remedies)

जब इस प्रकार की बातें सुनने को मिलती हैं तो लगता है कि मन ही सब कुछ है!

शिक्षामित्र

इंटरव्यू टिप्स

अगर आप सही मायने में बिना किसी दबाव के इंटरव्यू देना चाहते हैं तब तयशुदा समय से थोड़ा पहले चले जाएँ।

बना रहे बनारस

शैलेन्द्र नेगी

प्रतिभा कटियार

‘वेरा’ निकोलाई की कैद से निकल भागी है।

निकोलोई चेर्नीवेश्की के उपन्यास व्हाट इज टु बी डनकी पात्रवेरा’, समय, काल, इतिहास की कैद से मुक्त हो चुकी है।

गर पकड़ी गयी तो !!

घुघूतीबासूती

Mired Mirage

चाहें तो कई युग लग सकते हैं चाहें तो कुछ पल भर ही!

अगर सादगी से विवाह किया जाए,तो इस तरह की परेशानियां सर ही ना उठायें!

Rhythm of words...

Parul

क्यों दिखती नहीं वो..

'जिंदगी पहले तो रोज मिल जाती थी' ॥

Abhivyakti -- अभिव्यक्ति

शोभना चौरे

जान लेवा .....सच क्या है ??

अब तो बस कुछ ही सांसे बची है बाकि तो सब जानलेवा ही है!

लहरें

Puja

हमेशा के लिए अधूरा हो जाना

.इसका अधूरापन कुछ जियादा ही साल रहा है!

हिन्दी साहित्य मंच

डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

सामाजिक सरोकारों का संरक्षण आवश्यक है

हम स्वयं आकलन करें कि समाज के सरोकारों को तोड़कर हम किस प्रकार के समाज का निर्माण करना चाहते हैं?

भड़ास

lokendra singh rajput

सचिन की आत्मकथा से करोड़ो प्रशंसकों को निराशा

35 लाख रुपए एक किताब के लिए खर्च करना आपके बस की है भी तो भी आप नहीं खरीद सकते क्योंकि ये सभी दस किताबों अभी से बुक हो चुकी हैं।

शब्द-शिखर

आकांक्षा

एस. एम. एस.

शब्द छोटे होते गए
भावनाएं सिमटती गई!

शिवकुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पाण्डेय का ब्लॉग

Shiv

एक मुलाकात कृषि मंत्री के साथ

इस साक्षात्कार के ट्रांसक्रिप्ट आपको कहाँ मिले?

sarokaar

arun c roy

समय की कसौटी

जब लेती है परीक्षा कहाँ खड़ा हो पाया कोई!

कडुवा सच

श्याम कोरी 'उदय'

गुरुमंत्र ..... कुत्ता बना आदर्श !

एक ऎसा गुरुमंत्र जिससे सफ़लता की सौ प्रतिशत गारंटी!

ज़ख्म

वन्दना

मानव! व्यर्थ भूभार ही बना

खाली हाथ आया
और खाली ही
चल दिया!

उड़न तश्तरी

Udan Tashtari

हर शाख पर उल्लू बैठा है

अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा!
मनोज
परशुराम राय

स्वरोदय विज्ञान (अंक-1) आचार्य परशुराम राय

हम एक वैज्ञानिक प्रणाली की खोज करते हैं तो उसके अन्दर अनेक वैज्ञानिक प्रणालियाँ कार्यरत दिखती हैं।

do patan ke bich 
रंजीत

सुनो तो क्या कहती हैं ये पागल नदियां

जंगलों की कटायी तत्काल बंद करनी होगी और वृक्षारोपण अभियान चलाना होगा। कार्बनडाइआक्साइड गैस के उत्सर्जन में कमी लाकर हिमालय के ग्लैशियर को बचाय जा सकता है।

साजिद की कलम 
sajid

नाग विदेशी डसता...............................................साजिद

आस्तीन के साँपों! तुमको
हमने जी-भर दूध पिलाया
ज़हरीलो! तुमने डस-डस कर
भारत का क्या हाल बनाया

स्पंदन SPANDAN 

shikha varshney

इसरार बादल का

आ ले उडूं तुझे मैं, बस पाँव निकाल देहरी से बाहर जरा सा.

चला बिहारी ब्लॉगर बनने 
चला बिहारी ब्लॉगर बनने

नींद क्यूँ रात भर नहीं आती

सिरहाने सलिल के आहिस्ता बोलो

ई बकबक करके, अबके सो गया है.

बुरा भला 
शिवम् मिश्रा

भगवान् का लाख लाख शुक्र है !

भगवान् का लाख लाख धन्यवाद की उसने कार्तिक की रक्षा की ! भगवान् के आशीर्वाद से उसको ज्यादा चोट नहीं आई हैं और वह अब सदमे से भी बाहर है !

Samvedana Ke Swar 
सम्वेदना के स्वर

गुमशुदा ब्लॉगर्स की तलाश

हमें टिप्पणियों की गिनती तो याद रहती है, टिप्पणियाँ देने वालों की गिनती हम भूल जाते हैं, टिप्पणियों की परवाह तो हम करते हैं, टिप्पणियाँ लिखने वालों की परवाह नहीं होती.

AKHILESH POEMS 
akhilesh

कोई हमे इश्क करना सिखला दे

बोल ख़ामोशी के,

भाषा बिन बोलो की,

भाव दिलों के,

धुन प्रेम भावों की,

अश्क ख़ुशी के,

गाथा खामोश आसूंओ की,

बिन जुबां के हमको भी दिल का हाल

सुनाना सिखला दे,

मेरे भाव 
मेरे भाव

ओस

पल भर को सजना
शरमाई शबनम की तरह
एक ही क्षण में बिखरना
ठुकराई दुल्हन की तरह

' हया ' 
लता 'हया'

बन्दर क्या जानें अदरक़ का स्वाद

ये मुहब्बत तो मौला की सौग़ात है

वर्ना मै क्या हूँ क्या मेरी औक़ात है

गर है जन्नत ज़मीं पे तो बस है यहीं

आप हम है,ग़ज़ल है,हसीं रात है

उच्चारण 
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक

"गुलों की चाह में-.." (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

अपना चमन बरबाद कर डाला।

चैन-औ-अमन बरबाद कर डाला।।
स्व प्न रं जि ता  Mrs. Asha Joglekar

क्रूझ शुरू – मॉन्टेकार्लो (फ्रान्स)

मॉन्टे कार्लो ये इतालवी नाम है इसका मतलब है चार्ल्स पर्वत (Mount Charles) । ये मोनेको के राजा चार्ल्स III के नाम पर पडा है । मोनेको अपने आप में एक देश है भले ही ये जयपुर से भी छोटा हो ।

ज्ञानवाणी 
वाणी गीत

आखिर यह भी तो हमारे देवी -देवताओं का अपमान ही है ...!

प्यार और सम्मान तो हम अपने अभिभावकों का भी करते हैं पर क्या उनकी तस्वीरों का इस तरह सार्वजनीकरण कर अपमानित होतेदेख सकते हैं ?

अनामिका की सदाये... 
अनामिका की सदायें ......

दो नयन..

मौन....
किन्तु चंचल, गहरे, सुन्दर
और विषैले,
चन्दन से शीतल भी,
और अंगारों से ऊष्ण भी..

सफ़ेद घर 
सतीश पंचम

एनडीटीवी के कमाल खान को मिले पुरस्कार के मायने.........सतीश पंचम

वह कोई विरला ही होता है जो बरसाती नालों को देख  कहता है  - यह दरिया है लोकतंत्र का....संभलकर जईयो। 

काव्य मंजूषा 
'अदा'

आत्ममुग्धता हमारी हार का कारण है....

भारत का भला तभी हो सकता है जब...एक क्रांति की लहर आएगी...

विदेशियों के कुछ अच्छे गुणों को अपनाया जाए...जैसे ईमानदारी, समय का सदुपयोग,  नेतागन  स्वयं को जनता के  सही मायने में सेवक समझें और अपना काम नौकरी की तरह, तनखा पर करें!

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मचल के जब भी आँखों से छलक जाते हैं दो आँसू

मैं पिछले एक साल से ब्लोगजगत से पूरी तरह दूर था और अब भी सिर्फ सप्ताहंत में कुछ चिट्ठे देख लेता हूँ। इस चर्चा को पढ़ने के बाद इसकी सार्थकता की बहस में पड़े, उससे पहले ही बता दूँ कि हो सकता है इसमें ज्यादातर उन पोस्ट का जिक्र हो जो पुराने हो चुके हों, जिनका पहले ही किसी चर्चा में जिक्र हो चुका हो। अभी पिछली २-४ चर्चा पढ़ने के बाद ऐसा महसूस हो रहा है हिंदी ब्लोगजगत में महिला ब्लोगरों का प्रतिनिध्त्व बढ़ रहा है जो अच्छा समझा जाना चाहिये।

मैंने जितना पहाड़ो को देखा है उन्हें जिया है मैं यही समझता था कि पहाड़ियों में फैला सफेद धुँधलका बादलों का ही होता है लेकिन मेघालय की पहाड़ियों को देखकर गीताश्री का कहना कुछ और ही है, वो बताती हैं -
मेघालय की पहाडिय़ों पर कितना बादल है और कितना धुंआ....इसका अंदाजा अब लगाना मुश्किल है। ठंडी हवाओं में तंबाकू की गंध पैठ गई है। जहां जाइए, वहां धुंआ उड़ाते, तंबाकू चबाते, खुलेआम तंबाकू बेचते खरीदते लोग..कानून की धज्जियां उड़ाते लोग-बाग।

एक बात तो माननी पड़ेगी कि भारत के कानून में दम काफी है, कब से लोग-बाग धज्जियाँ उड़ाने में लगे हैं और ये कानून में अभी भी इतना दम है कि आप अभी भी इसकी धज्जिया उड़ा सकते हैं वरना तो इसको चिंदी चिंदी तार-तार हो जाना चाहिये था। गीताजी ने एक ऐसा विषय उठाया है जिसके लिये बहुत जागरूकता फैलाने की अभी भी जरूरत है।

बूढ़ा होना शाश्वत है, बिल्कुल आपके मेरे दादा, पिता-माँ की तरह। इसी बात को अनवर सुहैल हिंदी युग्म में कहते हैं -
तुम बूढ़े हो गये पिता
कि तुम्हारा इस रंगमंच में
बचा बहुत थोड़ा सा रोल
जरूरी नही कि फिल्म पूरी होने तक
तुम्हारे हिस्से की रील जोड़ी ही जाय

मैं भी हो जाऊँगा
एक दिन बूढ़ा
मैं भी हो जाऊँगा
एक दिन कमजोर
मैं भी हो जाऊँगा
अकेला एक दिन

तभी तो शायद किसी ने खूब लिखा है कि ये दुनिया आनी जानी है। इसे पढ़ने के बाद सोचा, समय से पहले कम से कम कहानी लिखनी तो आ जानी चाहिये। टीचर की खोज की तो हिमाँशु मोहन मिल गये जो कहानी लिखना ही सिखा रहे थे, ज्यादा कुछ तो नही सीख पाया लेकिन एक बात गाँठ बाँध ली-
"अरे तुम समझते नहीं हो, ब्लॉग-जगत में बहुत सेंसिटिव हो जाते हैं लोग, बड़े-छोटे के सवाल पर। सेंसिटिव समझते हो न? "

आप चाहें तो कोशिश कर सकते हैं कहानी लिखना सीखने की।

हमारा कहानी सीखने में अभी वक्त लगेगा तब तक आप प्रतिभा कटियार का लिखा मार्फत शैलेंद्र नेगी बाँचिये, लेकिन क्या? यही "पहला प्रेम क्या इतनी आसानी से हाथ छोड़ता है", अगर आपको ये मौका मिला हो तो जरूर बताईयेगा।
दूर होने की हर कोशिश प्यार के समंदर में एक और डुबकी सी मालूम होती है. पाब्लो नेरूदा का पहला प्रेम हो या चेखव का सब यही सच उजागर करते हैं कि जिससे लागे मन की लगन उसे क्या बुझायेगी चिता की अगन. मुस्कुराहटों में या आंसुओं में, इंतजार में या मिलन में, प्रेम में या आक्रोश में बात वही है बस प्यार.....

क्रूज का सफर बहुत मजेदार होता हैं फूलटू मस्ती से भरा, हमने किया है इसलिये कह सकते हैं और आप विस्तार से जानना चाहें तो आशा जोगलेकर की मान्टोकार्लो के सफर का विवरण पढ़ियेगा।

निशांत फादर एंथोनी डी’मेलो की कहानी का अनुवाद करके सबसे अच्छी चाय की बात बता रहे हैं, बहुत अच्छी लघु कथा है पढ़ना और फिर सीखना ना भूलें।

देशनामा में खुशदीप सहगल का लिखा "भारत को आखिर ठीक कौन करेगा" पढ़ रहा था जो उन्होंने अजित गुप्ता की किसी पोस्ट के जवाब में लिखा है।
अजित जी और उनकी पोस्ट पर आए विचारों को पढ़कर मेरा ये विश्वास मज़बूत हुआ है कि हिंदी ब्लॉगिंग ने सार्थक दिशा की ओर बढ़ना शुरू कर दिया है...मेरा मानना है कि अजित जी के इस प्रयास को अंजाम तक पहुंचाने के लिए हम बाकी सब ब्लॉगर्स भी अपनी भूमिका निभाएं...मेरे विचार से एक-एक कर हम सब अपनी पोस्ट पर देश के मुंहबाए खड़े किसी मुद्दे को उठाए और विचार मंथन करे कि उसके निदान के लिए क्या-क्या किया जा सकता है

ये सब पढ़कर मुझे हिंदी ब्लोगिंग के ३-४ साल पुराने दिन याद आ गये, जब हम इसी तरह का विचार विमर्श अनुँगूज के तहत करते थे। जिसमें एक विषय के ऊपर साथी ब्लोगरस अपने अपने विचार रखते थे। वो एक सार्थक पहल थी जो कि जारी रहनी चाहिये थी पर रह ना सकी। ऐसा फिर से शुरू हो सकता है बिल्कुल यहाँ इस चर्चा में, अगर कुछ लोग लिखने को तैयार हों।

मैं ये कभी नही समझ पाया कि दो लोगों की शादी में ३००-४०० लोगों का क्या काम लेकिन बात सिर्फ यहाँ पर ही खत्म नही होती। इसी बात पर विस्तार से बात कर रही हैं घुघूती जी, चाहें तो कई युग लग सकते हैं चाहें तो कुछ पल भर ही!
कन्यादान भी वही लेते हैं। सो याचक कौन है यह समझना कोई कठिन नहीं है।

इसके अतिरिक्त यह भी कारण है कि बेटी को इसी विपक्ष के बीच जाकर रहना है वह भी बिना तलवार या ढाल! सो उनसे पंगा लेकर उन्हीं के घर असहाय बिटिया को कैसे भेजा जा सकता है? सो बेहतर है कि मक्खन लगाए जाओ और मनाए जाओ कि बिटिया सुरक्षित रहेगी।

पल्लवी त्रिवेदी की इस पुरानी पोस्ट का जिक्र सिर्फ इसलिये कर रहा हूँ क्योंकि अपनी जिंदगी में भी किताबों का असर जादू सा है और ये भी एक कारण है हमारी ब्लोगजगत से दूरी का। अगर आपने अभी तक नही पढ़ तो ये रहा लिंक।

अभिषेक ओझा जब भी न्यूयार्क आते हैं उनसे मिलना जरूर होता है, आज उनको भी काफी अरसे बाद पढ़ा जो कि एक सूत्र पर चर्चा कर रहे हैं, सूत्र है - आई = आई+2, मुझे लगता है इसे ऐसे भी लिखा जा सकता है आई+2=व्ही लेकिन ये तभी संभव है जब कोड बगैर किसी त्रूटि के कंपाइल हो जाय। अभिषेक के इस दोस्त का कोड हमेशा आई+2 में अटक जाता है। कुछ पल्ले नही पड़ा ना, कोई बात नही यहाँ जाकर पढ़िये सब समझ आ जायेगा।

अनुराग मेरे पसंदीदाओं में से एक हैं उनकी मोरल आफ द स्टोरी आज पढ़ी यही नही उनको पढ़ा भी काफी अरसे बाद, मोरल आफ द स्टोरी वही है जो हलक से दो घूँट जाने से पहले और उसके बाद अलग अलग होती है। इनकी लिखी त्रिवेणी का कोई जवाब नही हार्ट अटैक पर क्या खूब लिखा है -
कोई दो महीने पहले महंगे रंगीन धागों से रफू हुआ था
कहते है रफू करने वाला शहर का सबसे काबिल रफूगर है .....
कल आधी रात कोई एक जिद्दी धागा बगावत कर गया

अगर हम कुमाँउनी चेले हैं तो शैफाली पांडे कुमाँऊनी चेली, इनकी पोस्ट पढ़ रहा था लाल, बॉल और पॉल ....... पोस्ट के टाईटिल से मुझे याद आ गया जब हम शान से कहा करते थे, अल्मोड़ा में ३ चीजें बड़ी प्रसिद्ध हैं - बाल (मिठाई), माल (रोड) और पटाल (घरों की छत और सड़को, सीढियों में लगे पत्थर)। आक्टोपस जी अभी तक खबरों में बने हुए हैं -
हे आठ पैरों वाले प्राणी ! यहाँ तुम्हारी भविष्यवाणी कभी गलत साबित नहीं होंगी, अगर कभी गलत हुई भी तो तुम कह सकोगे कि तुम्हारी भविष्यवाणी तो सही थी पर जातक की कुण्डली ठीक नहीं बनी थी पंडित ने जल्दबाजी करके कुण्डली बनाई है सारा दोष उस पंडित पर मढ़ कर हम उसकी नई कुण्डली बनाएँगे, और उसके अलग से पैसे वसूलेंगे

आज के लिये इतना ही, जाने से पहले अगर आप आँखों पर लिखे कुछ गीत जानना चाहें तो ये रहा हमारी ताजा ताजा पोस्ट का लिंक -
मचल के जब भी आँखों से छलक जाते हैं दो आँसू,
सूना है आबसारों को बड़ी तकलीफ होती है।


हमारी पिछले शनिवार की छोटी सी जिंदगी जीने वाली चर्चा पर अपने विचार रखने वाले सभी साथियों को शुक्रिया। मनोज की शनिवारी चर्चा अपने निर्धारित समय ६ बजे से ९ मिनट पहले प्लेटफार्म चिट्ठाचर्चा पर पहुँचेगी।

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गुरुवार, जुलाई 22, 2010

गुलामी जेहन की बड़ी मुश्किल से जाती है

कुछ पोस्टों के अंश


  1. गुलामी जिस्म की रहती है जंजीर कटने तक
    गुलामी जेहन की बड़ी मुश्किल से जाती है |
    वसीम बरेलवी धीरू सिंह के ब्लॉग दरबार में

  2. मतलब यही कि इस नियमन-प्रबंधन के पीछे आखिरकार किस तरह की नगरीय दृष्टि काम करती है. बडे स्‍केल पर फ्लाईओवरों व सडकों की चौडाई के काम अंजाम हुए मगर उनके आजू-बाजू गरीब बस्तियों के लोगों के लिए ऐसा कोई वैकल्पिक इंतजाम न खडा किया गया कि वे हाईवे की तेजी से आती-जाती गाडियों के बीच हाथ में बाल्‍टी-कनस्‍तर लिये अदबदाकर सडक पार करने की बेवकूफी व हिंसा से बचें. यह महज भ्रष्‍टाचार है या एक ज़ाहिल जनविमुख व्‍यवस्‍था के बीमार कारनामे?
    प्रमोद सिंह तीन साल पहले एक पोस्ट में

  3. इस शान्त और सोच समझ कर बात करने वाले बच्चे को लेकर मुझे कभी कभी उलझन होती कि यह घोर कलयुग मेरे गाँधी बाबा के लिए ठीक नहीं।
    आभा अपने घर में

  4. बादल कुछ शर्म से तथा बाकी बेशर्मी से बोला,’साहब बरसने का मजा तो मुंबई में ही है। वहां तो हीरो-हीरोइनों तक को भिगोने का मौका-मजा मिलता है। मुझे जब आपने झांसी भेजा तो स्टेशन से बरसने की शुरूआत का डौल लगा ही था ,भूरा रंग कर लिया था,हवा चला दी। मेढक की टर्र-टर्र का इंतजाम कर लिया,कौन झोपड़ी गिरानी है यह भी तय कर लिया।कौन सा नाला उफनायेगा,कहां सड़क में पानी भरेगा सब प्लान कर लिया। हम बस ‘एक्शन’कहने ही वाले थे कि साहब हमें पुष्पक एक्सप्रेस दिख गयी। सो साहब अपना दिल मचल गया। पिछले साल की याद आ गई। दिल माना नहीं और हम लटक लिये ट्रेन में और जाकर मुंबई में बरस आये। अब आप जो सजा देओ ,सो सर माथे। ‘सजा सर माथे’ सुनते ही इन्द्र भगवान ने अपना सर और माथा दोनों पकड़ लिया।’
    ….बरखा रानी जरा जम के बरसो

  5. खिड़कियों के शीशों पर छोटी बूंदें बजती रहती है सारी रात. जैसे जेब में ज़रा सा पैसा बजता है. जैसे मेरे ज़रा से शब्‍द. ताव खाते रहते हैं. शब्‍दों से दूर खड़ा मैं कभी देख पाता हूं कि बज रहा हूं. अपने लघुकायपने में सारंगी जैसा सिरजने की कोशिश सा करता कुछ. सन्‍नाटे में छोटी आवाज़ें घन्-घन् घूमती कोई पुकार बुनती रहती हैं.
    प्रमोद सिंह

  6. मेरी जिंदगी में ऐसा जादू कोई न जगा पाया जैसा की किताबें जगाती हैं! कल के अखबार में रस्किन बोंड ने किताबों के बारे में कुछ लिखा था!तब से मेरा भी मन कर रहा था कि मैं भी किताबों से अपने रिश्ते के बारे में कुछ लिखूं! पिछले एक हफ्ते से खूब किताबें पढ़ मारी हैं! जिस किताब को पढो लगता है खुद एक दर्शक बनी बैठी हूँ और किताब की कहानी को जीने लगी हूँ!
    किताबों का असर मेरी जिंदगी पर ....जादू जैसा -पल्लवी त्रिवेदी

  7. मेरा जोश
    अब ठंडा पड़ गया है...
    अब मेरे भीतर कई विचार
    एक साथ नहीं चल पाते
    शायद ....
    मेरे विचारों पर धारा
    एक सौ चव्वालिस
    लागू होती जा रही है...
    महफ़ूज अली


  8. कविता निकल गयी है मुझसे
    जो कवि में
    चुन-चुन कर प्रेम संजोती है,
    आशा रोपती है
    और जरिया बनती है कवि होने के लिए

    मैं पूरा कर आया हूँ
    वह वक़्त
    जिसके बाद एक कवि
    बलात्कारी हो जाता है,
    पेंड काटता है
    और पैसे कमाता है
    ओम आर्य

  9. क्या आपने कभी सोचा है कि अगर आपकी आँखें न होतीं, तो? सोच कर ही बदन सिहर सा जाता है। लेकिन यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि हमारे देश में लगभग सवा करोड़ आँख की रौशनी से महरूम हैं। इनमें से लगभग 30 लाख लोग कार्निया की गड़बड़ी के कारण इस अवस्था में जी रहे हैं। और इनमें बच्चों की संख्या 25 प्रतिशत से अधिक है। इस समस्या का निपटारा नेत्र दान से संभव है, लेकिन नेत्रदान सम्बंधी चेतना का अभाव होने के कारण पूरे वर्ष में हमारे देशमें सिर्फ 12 हजार नेत्र ही प्रत्यारोपित हो पाते हैं।
    जाकिर अली रजनीश नेत्रदान के बारे में जानकारी देती पोस्ट में

  10. क्या हुआ जो हमारे पास विश्वस्तरीय शिक्षण संस्थान, शोध सुविधायें, ट्रेनिंग सुविधायें, कोच, ट्रेनर, फैकल्टी,खेल के मैदान, संसाधन, सर्वश्रेष्ठता को प्राप्त करने का आत्मविश्वास, हौसला व जुनून आदि आदि नहीं हैं....
    हमारे पास गर्भाधान व पुंसवन संस्कार तो हैं न!
    प्रवीण शाह अपनी पोस्ट -पेंसिल के छिलके और दूध, चांदनी रात में रबड़ का बनना... गर्भाधान संस्कार व पुंसवन...मनचाही संतान ??? में

  11. ऐसा लगता है कि हमारे स्‍वाभिमान को सोच-समझकर नष्‍ट करने का प्रयास किया जा रहा है। कोई राजनीति से घृणा करना सिखा रहा है तो कोई मीडिया से। कोई हमारी शिक्षा पद्धति को खराब बता रहा है तो कोई बारिश से ही बेहाल हो रहा है। हमारी चिकित्‍सा प्रणाली को तो कूड़े के ढेर में डालने की पूरी कोशिश है। इसलिए आप सभी के चिंतन का विषय है कि क्‍या भारत को हम उस राजकुमार की तरह त्‍याग दें या फिर उसे पुन: स्‍वस्‍थ और सुंदर बनाने में सहयोगी बने।
    अजित गुप्ता

  12. हमारे समाज में यह भ्रान्ति है की एलोपैथ ही सब कुछ है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। समाज का double standard शर्मनाक है।
    दिव्या

  13. दिल्ली और मुंबई की बारिश का राष्ट्रीय चरित्र हो गया है। चार बूंदें गिरती हैं और चालीस ख़बरें बनती हैं। राष्ट्रीय मीडिया ने अब तय कर लिया है जो इन दो महानगरों में रहता है वही राष्ट्रीय है। मुझे अच्छी तरह याद है,बिहार की कोसी नदी में बाढ़़ आई। राष्ट्रीय मीडिया ने संज्ञान लेने में दस दिन लगा दिए, तब तक लाखों लोग बेघर हो चुके थे। सैंकड़ों लोग मर चुके थे। राहत का काम तक शुरू नहीं हुआ था। वो दिन गए कि मल्हार और कजरी यूपी के बागों में रची और सुनी जाती थी। अब तो कजरी और मल्हार को भी झूमने के लिए दिल्ली आना होगा। वर्ना कोई उसे कवर भी नहीं करेगा।
    रवीश कुमार

कुछ टिप्पणियां


  • इलाहाबाद में पूर्वी उत्तर प्रदेश के दूरस्थ ग्रामीण अंचल से आने वाले छात्र अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में भेंट कर देते हैं। जिन्हें सफलता मिल जाती है उन्हें तो दुनिया सलाम करती है लेकिन जो असफल होकर ३५-४० की उम्र में घर लौटते हैं उनका जीवन नारकीय हो जाता है। उनसे साधारण श्रम आधारित कार्य भी नहीं हो पाता और दूसरी छोटी नौकरियाँ भी हाथ से निकल जाती है।

    प्रशासनिक पदों पर चयन के लिए उम्र की जो अधिकतम सीमा निर्धारित सीमा है उससे पुष्पराज जैसे इक्का-दुक्का लोगों को तो लाभ हो जाता है लेकिन एक बहुत बड़ी संख्या इस दौड़ में आखिरी समय तक शामिल होने के बाद अपना जीवन घनघोर कष्ट में बिताने के लिए अभिशप्त हो जाती हैं। आजकल पीसीएस में चयन के लिए कड़ी मेहनत और अच्छी प्रतिभा के साथ-साथ अच्छे भाग्य की जरूरत भी पड़ रही है।
    सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी अनंत अन्वेषी के ब्लॉग पर

  • अब हम क्‍या लिखें, आप लोग ही सितम ढा रहे हैं और आप ही जनता के आँसू भी पोछ रहे हैं। बरसात को तो विलेन बनाकर रख दिया है मीडिया ने। ऐसा लग रहा है कि इस देश की जितनी दुर्दशा की जा सकती है उसका एक-एक पहलू ढूंढकर उस पर काम किया जा रहा है। लेकिन यह मीडिया भूल जाता है कि यह देश उनका भी है। चलो कोई तो सच बात लिख रहा है चाहे ब्‍लाग पर ही सही।
    अजित गुप्ता


  • मेरी पसन्द


    साँप,

    यदि अब भी साँप की तरह ही होते
    तो अब तक उग आते पँख उनके
    और दादी की किस्सों की तरह उड़ने लगते
    आसमान में

    जब से,
    परियाँ आसमान से
    नही उतरी ज़मीन पर
    और मेरे पास वक्त नही बचा
    न दादी के लिये और न अपने लिये
    साँप,
    पहनने लगे हैं इन्सानी चेहरा
    और बस्तियों में रहने लगे हैं
    बड़ा खौफ बना रहता है
    किसी इन्सान के करीब से गुजरते हुये
    मुकेश कुमार तिवारी

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    मंगलवार, जुलाई 20, 2010

    बशर्ते सावधान रही हो वह भी प्रणय निवेदनों से

    प्रमोद सिंह अपने एकदम नये लेख में बारिश भीगे हैं और अपने दोस्त माधव को अपने यहां आने से बरज रहे हैं:
    माधव मत आना उस रात, तीन पाये और चार ईंटों पर टिके तखत की इस दुनिया का सब सन्‍तुलन तोड़ जाओगे, मैं आईने के सामने खड़ा सी‍टी बजाने से फिर कतराता फिरुंगा, वैसे भी उस रात न खत्‍म होने वाली बारिश बरसती होगी, छत के टपरे से ज़्यादा दिलों पर बजती, किसी और घर रात काट लेना, माधव, यहां मत आना. मेरी हर बात पर हंसने लगते हो, ईश्‍वर के लिए उस रात बख्‍शना.

    तीन पाये और चार ईटों पर टिके इस तखत की कथा तो आप आराम से बांचियेगा लेकिन इसके पहले आप प्रमोद जी का लेख सिनेमा का गल्प बांचिये।

    सिनेमा की हमारी नजर बहुत सीमित है। किसी सीन पर सुबुकने लगने और किसी पर ताली पीटने की सहज आदत तक सीमित। कोई गम्भीर बात अगर देखनी होती है तो वही देखते हैं जिसे समीक्षक दिखाते हैं। मजाल है किसी फ़िलिम को कोई सिनेमाखोर अच्छा कहे और हम उसको कह सकें न भैया आप ये कह रहे हैं ऊ सही न है। ये तो हम आजतक कह ही नहीं सकते कभी कि फ़लाना सिनेमा ढिकाने की नकल है।

    प्रमोद जी बचपने से ही सिनेमा देखने लगे थे। ऐसा उनके इस खुलासे से पता लगता है:
    बच्‍चे थे जब बाबूजी अपनी लहीम-शहीम देह सामने फैलाकर, बंदूक की तरह तर्जनी तानकर हुंकारते, ‘जाओ देखने सिनेमा, बेल्‍ट से चाम उधेड़ देंगे!’ चाम उधड़वाने का बड़ा खौफ़ होता, मगर उससे भी ज्यादा मोह खुले आसमान के नीचे 16 एमएम के प्रोजेक्‍शन में साधना, बबीता और आशा पारेख को ईस्‍टमैनकलर में देख लेने का होता

    इसके बाद लेख में भारतीय सिनेमा के कुछ नास्टेल्जिक किस्से हैं जिनमें उन सिनेमाओं की यादे हैं जिनको देखकर बहुत तमाम सिनेमा प्रेमी पगलाये और प्रौढ़ और बूढे होते गये लेकिन उन सिनेमाओं की हसीन यादें दिल में कैद हैं तिरछी नजर की तरह:

    तिरछी नजर का तीर है मुश्किल से निकलेगा
    गर दिल से निकलेगा तो दिल के साथ निकलेगा।

    इन यादों की ही कशिश है कि लेखक कहता है:
    पता नहीं क्‍या होता है सिनेमा कि जीवन में इतने धक्‍के खाने के बाद अब भी ‘आनन्‍द’ के राजेश खन्‍ना को देखकर मन भावुक होने लगता है, जबकि बहुत संभावना है स्‍वयं राजेश खन्‍ना भी अब खुद को देखकर भावुक न होते होंगे.

    शुरुआती भावुकता में एकाध डुबकी लगाने के बाद शुरू होता है समकालीन सिनेमा का हिसाब-किताब और आज के सिनेमा की सोच के बारे में कहा जाता है:
    अच्‍छाई के दिन गए. जीवन में नहीं बचा तो फिर सिनेमा में क्‍या खाकर बचता. जो बचा है वह पैसा खाकर, या खाने के मोह में बचा है. बॉक्‍स ऑफिस के अच्‍छे दिनों की चिंता बची है, अच्‍छे दिनों की अच्‍छाई की कहां बची है, क्‍योंकि आदर्शों को तो बहुत पहले खाकर हजम कर लिया गया

    भारतीय सिनेमा का आजमाया फ़ार्मूला भी देखते चलिये इसी लेख में:
    अच्‍छे रुमानी भले लोगों का इंटरवल तक किसी बुरे वक़्त के दलदल में उलझ जाना, मगर फिर अंत तक अच्‍छे कमल-दल की तरह कीचड़ से बाहर निकल आना के झूठे सपने बेचने की ही हिंदी सिनेमा खाता है.

    अच्छे सिनेमा कैसे बनते हैं पता नहीं लेकिन सवाल तो हैं ही:

    कोई वज़ह होती होगी अपने यहां हीरोगिरी की हवा छोड़ने वाले ढेरों एक्‍टर मिलते हैं, कोई जॉर्ज क्‍लूनी या शान पेन नहीं होता जो सिर्फ़ अपने स्‍टारडम की ही नहीं खाता, समय और अपने समाज के बारे में साफ़ नज़रिया भी बनाता हो. इव्‍स मोंतों जैसी कोई शख्‍सीयत नहीं मिलती जिसके चेहरे की हर लकीर, हर भाव बताते कि बंदे ने सख्त, एक समूची ज़िंदगी जी है. दुनिया में डिज़ाइनर कपड़ा पहनने आए थे और टीवी के लिए सजीली मुस्‍की मुस्कराने की अदाकारियां मिलती हैं, परदा अभिनय की भव्‍यता और मन जीवन की उस समझ के आगे नत हो जाए, एक्‍टिंग की जेरार् देपारर्द्यू वाली वह ऊंचाई नहीं मिलती.



    आगे इसी बात को और खोलकर कहा जाता है:

    अपने यहां एक्‍टर चार पैसे कमाकर एक दुबई में और दूसरा अमरीका में फ्लैट खरीदने के पैसे जोड़ता है, दूसरी ओर चिरगिल्‍ली भूमिकाओं की ज़रा सी कमाई को जॉन कसेवेट्स ऐसी अज़ीज़ फ़ि‍ल्‍मों को बनाने, बुनने में झोंकता है जो फ़ि‍ल्‍म नहीं, लगता है हमसे जीवन की अंतरतम, अंतरंग गुफ़्तगू कर रही हों. तुर्की का स्‍टार अभिनेता यीलमाज़ गुने अपने विचारों के लिए जेल जाता है, जेल में रहकर फ़ि‍ल्‍में बनाता है, हमारे यहां स्‍टार होते हैं, राजनीति में वह भी जाते हैं, कभी दूर तो कभी अमर सिंह को पास बुलाते हैं. कोई वज़ह होती होगी कि अपने यहां फ़ि‍ल्‍मों से जुड़े लोगों को हम जो इज़्ज़त देते हैं, क्‍यों देते हैं.


    इसके बाद सिनेमा के बारे में बहुत सारी बातें हैं उनके टुकड़े यहां सटाने से आपको मजा न आयेगा। आप पूरा लेख बांचिये तभी मजा आयेगा और लगेगा कि सिनेमा के गल्प लेख लिखने की क्या वजह है। अपनी बात खतम करने से पहले प्रमोद जी कहते हैं:
    कविता की ऊंचाइयां, समझ की गहराइयों तक, उड़ने, उड़ाये जाने का काम बखूबी करती है सिनेमा, सवाल है फ़ि‍ल्‍म बनानेवाला निर्देशक जीवन से, व अपने माध्‍यम से ऐसे गहरे संबंध रखता हो, फ़ि‍ल्‍म देखनेवाले दर्शक सिनेमा में जीवन को मार्मिकता से उतरता देखने का मान, ऐसे अरमान रखते हों..


    इस लेख में भारतीय सिनेमा की दुनिया के सिनेमा से तुलना करते हुये प्रमोदजी बार-बार भन्नाते हैं कि हम कुछ सीखने और डूबकर अपने समाज के अनुरूप सिनेमा बनाने की बजाय नकल के दम पर पैसा पीट लेना ही जानते हैं।

    सिनेमा की बिल्कुल भी समझ न होने के बावजूद लेख मुझे बहुत अच्छा लगा। इसलिये सोचा आप लोगों को भी पढ़ा दिया जाये सिनेमा के गल्प

    अनंत अन्वेषी जी के माध्यम से मिलिये पी सी एस परीक्षा में टॉप करने वाले पुष्पराज सिंह से। पुष्पराज सिंह ने उप्र पीसीएस परीक्षा में टॉप किया। अपनी मेहनत और लगन और विश्वास से उन्होंने जो सपना देखा था उसे पूरा किया। स्कूली पढ़ाई में सेकेन्ड और थर्ड डिवीजन लाने के बाद लगातार सफ़लता के लिये जुटे रहना और सफ़ल होना अपने आप में एक मिसाल है। आप पुष्पराज सिंह से यह मुलाकात पढिये और अपने आसपास के लोगों को पढ़ाइये। एक सवाल के जबाब में पुष्पराज सिंह कहते हैं:
    गाँव में रहते हुए, अधिकारियों की हनक, ग्लैमर, पावर देखी थी | गावों में यह सब चीजें अधिक होती हैं | मैं भी इससे बहुत प्रभावित था और मुझे प्रेरणा मिली कि मुझे भी समाज में अपना स्थान अलग बनाना है और फिर बी.ए.प्रथम वर्ष में यह निश्चित किया कि मुझे तैयारी करनी है |
    बाद में मुझे इस बात का एहसास हुआ कि मैंने काफी समय नष्ट कर दिया है - माहौल, जागरूकता, संसाधनों, मार्गदर्शन और दिशानिर्धारण के अभाव में | लेकिन फिर मैंने तय किया कि मैं मेहनत करूंगा, इलाहाबाद आने का निश्चय किया और सब कुछ, सारी तैयारी नये सिरे से शुरू की | खुद के अनुभवों से सीखा और खुद में निरन्तर सुधार किया | यही सब कारण रहे जो मुझे यह सफ़र तय करने में 10-12 वर्ष लग गये |

    अपने तैयारी के अनुभव बताते हुये उन्होंने लिखा:
    मैं यही कहना चाहूँगा कि इस प्रतियोगिता का कोई शार्टकट नहीं है | यह 100 मीटर की रेस नहीं है अपितु मैराथन दौड़ है | सिर्फ 10-15 प्रतिशत प्रतियोगी ही इसमें 2-3 सालों के प्रयास में सफल हो पाते हैं बाकी 90 प्रतिशत को सफलता के लिए इन्तजार करना पड़ता है, उन्हें समय लगता है | पहली चीज धैर्य बनाये रखें | पूरे मनोयोग, तन्यमता से लगे रहें | नकारात्मकता को मन में बिलकुल स्थान न दें, आलोचनाओं से घबराएँ नहीं | आलोचकों की बातों को भी सकारात्मकता से लें, उससे तैश में न आएं | जिस दिन आपकी आलोचना हो उस दिन 2 घण्टे ज्यादा पढ़ें | अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित रहें | पढ़ें ज्यादा दिखाएँ कम | ज्यादा से ज्यादा पढ़ें | पढाई को समय में न बाधें कि मैं 10 या 12 घण्टे पढूंगा, इससे दिमाग पर अनावश्यक तनाव बनता है | जिस दिन आप उस समय सीमा को किसी भी कारणवश पूरा नहीं कर पाएंगे, तो तनावग्रस्त होंगे | पढाई का लक्ष्य रखें, समय का नहीं | अपने आप पर विश्वास करें, ईश्वर पर आस्था रखें, कटिबद्ध रहें, अपने लक्ष्य पर समर्पित रहें | सफलता जरूर मिलेगी |


    स्तुति आमतौर पर हल्की-फ़ुल्की पोस्ट लिखती हैं। लेकिन कल उन्होंने ऐसी पोस्ट लिखी जिसको पढ़कर मन दुखी हो गया। उन्होंने अपनी सहेली से जुड़ी कई यादें साझा करते हुये उनकी मां की हत्या के बारे जानकारी दी। सहेली राशि की मां का नाम सिन्धु था जिसे स्तुति मौसी कहती थीं। स्तुति लिखती हैं:
    करीब १८ साल पहले सिन्धु मौसी की हत्या कर दी गयी थी. उनके पति ने उन्हें जला कर मार डाला. रिपोर्ट से ये भी पता चला था उनके जले हुए शरीर पर चीनी चिपकी हुई थी. राशी तब बहुत छोटी थी, लेकिन उसे ये अच्छी तरह याद है की जब उसकी मम्मी जल रही थीं, तब उसके "पापा" उनपर चीनी छिड़क रहे थे. आरा में केस दर्ज किया गया, मेरी मम्मी भी गवाह की लिस्ट में मौजूद थीं. पापा और मम्मी ने पटना-आरा का कई सालों तक बहुत चक्कर लगाया. हत्यारे को मात्र ४ साल की सज़ा हुई.


    कुछ पोस्टों के अंश


    1. बाहर बारिश अभी भी जारी है। रिया और लैम्पपोस्ट की रोशनी के बीच बारिश की कुछ बूँदें आ जाती हैं। रिया उन्हे पकड़ने के लिये हथेली खोलती है… हथेली पर रोशनी की एक चादर सी है और उस चादर में बारिश की बूँदें इकट्ठी होने लगती हैं… वो धीरे धीरे मुट्ठी बंद कर लेती है…

      वो उस बारिश मे जमकर भीगना चाहती है… वो कमरे से बाहर आकर आसमान की तरफ़ देखते हुये अपने हाथों को पंख जैसे फ़ैला लेती है… सारी बारिश को खुद में समा लेना चाहती है… वो खुद एक ’मुट्ठी’ बन जाना चाहती है… पंकज उपाध्याय

    2. आज कल क्रोस ब्रीडिंग से अच्छी नस्ल के जानवर , फल और सब्जियां तो उगा रहे हैं, लेकिन अफ़सोस है कि उत्तम गुणों से युक्त संतान प्राप्ति के लिए बहुत विरले लोग ही प्रयासरत हैं। दिव्या

    3. खुशबू मेरे तन का हिस्सा
      हर रंग मुझी से बावस्ता
      ना जाने कब किस क्यारी में
      रजनीगंधा बन महक उठूँ सोनल रस्तोगी

    4. खुश रहना बहुत सीधी-सादी बात है पर सीधा-सादा बनना बहुत मुश्किल है! जी.के.अवधिया

    5. वह आई साड़ी पहनकर
      चाय की ट्रे में लिये आस

      सभी ने बान्धे तारीफों के पुल
      अभिनय प्रतिभा का किया गुणगान

      चले गये लोग
      वह हुई नाराज़
      उसने दी धमकी
      बन्द कर दी बातचीत

      घरवालों ने नाटक नहीं छोड़ा । शरद कोकास

    6. बेचैन उमंगो का दरिया
      पल पल अंगडाई लेता है
      आकर फिर सहला दो ना
      छु कर के अपनी सांसो से
      मेरे हिस्से का चाँद कभी
      मुझको भी लौटा दो ना सीमा गुप्ता

    7. जब साथ मिला तो खूब कमा लिया
      लक्ष्य दृढ़ रहे तो मुकाम भी पा लिया
      जो कल तक दूर थे, वे पास आने लगे
      कांटे बिछाते थे कभी, फूल बरसाने लगे
      बिन बादल आसमां भी कहाँ है बरसता
      यूँ ही अचानक कहीं कुछ भी नहीं घटता कविता रावत

    8. बचपन की तुम्‍हे फिर से बड़ी याद आयेगी
      तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ

      पुरपेच मुहब्बत की हैं गलियां बड़ी 'नीरज'
      गर लौटने का मन है तो मत पाँव बढ़ाओ नीरज गोस्वामी

    9. अब हमारी परंपरा है कि हवलदार से जमादार तक को अपनी पावर दिखाने का हक़ है .तो कुछ फर्ज़ तो उनका भी बनता है विदेश में देसी परंपरा निभाने का. सामने बुड्ढा हो या बच्चा ,पढ़ा - लिखा हो या गँवार, उनकी अफसरशाही में कोई बदलाव नहीं ला सकता. एक गुट निरपेक्ष देश है हमारा सबके प्रति समान व्यवहार . शिखा वार्ष्णेय

    10. चाहती हूँ नहाना
      सिर से पाँव तक
      तुम्हारी बारिश में,
      तुम्हारे शब्दों की परतों में
      चाहती हूँ फैल जाना
      शबनमी छुअन बनकर सुशीला पुरी

    मेरी पसन्द


    मेरे सामने जो तौलिया टंगा है
    अर्शिया लिखा है उस पर और कानपुर

    न कानपुर को जानता हूं मैं
    न किसी अर्शिया को जानता हूं जानने की तरह
    वे कविताओं में आती हैं जैसे कभी-कभार
    ज़िंदगी में भी अक्सर नितांत अपरिचित की ही तरह

    जिस इकलौती परिचित सी लड़की का नाम था उसके सबसे करीब
    कालेज़ के दिनों में थी वह मेरे साथ
    प्रणय निवेदन के जवाब में कहा था उसने
    ‘बहुत ख़तरनाक हैं मेरे ख़ानदान वाले
    कभी नहीं होने देंगे हमारी शादी
    हो भी गयी तो मार डालेंगे हमें ढ़ूंढ़कर’

    मैं बस चौंका था यह सुनकर
    शादी तब थी भी नहीं मेरी योजनाओं में
    और अख़बारों में इज़्जत और हत्या इतने साथ-साथ नहीं आते थे…

    उन दिनों तौलिये एक कहानी थी किसी कोर्स की किताब की
    जिससे शिक्षा मिलती थी
    कि परिवार में हरेक के पास होनी ही चाहिये अपनी तौलिया

    मुझे नहीं याद कि उस कहानी के आस-पास था किसी तौलिये का विज्ञापन
    यह भी नहीं कि क्या थी उन दिनों तौलिये की क़ीमत

    आज सबसे सस्ता तौलिया बीस रुपये का मिलता है
    और रोज़ बीस रुपये से कम में ही पेट भर लेते हैं
    सबसे देशभक्त सत्तर फीसदी लोग
    उनके बच्चे यक़ीनन नहीं पढ़ेंगे वह कहानी



    कानपुर तक जाता रहा हूं तमाम रास्तों से
    भगत सिंह के पीछे-पीछे
    शिवप्रसाद मिश्र[1] की रोमांच कथाओं सी स्मृतियों के रास्ते
    कमाने गये रिश्तेदारों की कहानियां जोड़ती-घटाती रही इसमें बहुत कुछ
    सींखचों के पीछे क़ैद सीमा आज़ाद[2] की रिपोर्ट
    थी आख़िरी मुलाकात उस शहर के साथ मेरी
    जिसमें कथा थी उसके धीरे-धीरे मरते जाने की
    और नाम था हत्यारों का

    पता नहीं उनके आरोप पत्र में
    शामिल था भी कि नहीं यह अपराध

    ख़ैर
    अरसा हुआ दंगे नहीं हुए कानपुर में
    तो ठीक ही होगी जो भी है अर्शिया
    बशर्ते सावधान रही हो वह भी प्रणय निवेदनों से
    अशोक कुमार पाण्डेय

    और अंत में


    फ़िलहाल इतना ही। आपका दिन शुभ हो।

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    रविवार, जुलाई 18, 2010

    बाल सजग – ईंट भट्टों पर काम करने वाले मजदूरों के बच्चों का एक अतिसुंदर कोना

    image

    हिन्दी चिट्ठों में अब नए, नायाब और विशिष्ट प्रयास हो रहे हैं. बाल सजग इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है.

    बाल सजग के बारे में चिट्ठे पर लिखा गया है -

     

    “बाल सजग एक हकीकत भरा प्रयास... जिसके लिए हम सभी बच्चे कोशिश में लगे हैं...हमारे सपने... हमारी उमंगें हमको भी चाहिए एक जमीन जो हमारी हो...जिसके लिए किसी का मुहँ न देखना पड़े...हम भी लिखना चाहते हैं...सोचना चाहते हैं और घिसी-पिटी पढाई को छोड़ नया कुछ पढ़ना चाहते हैं...जो हमारे दोस्तों ने लिखा हो...जो हमने लिखा हो... बाल सजग एक ऐसा ही प्रयास है... हम सभी ईट-भठ्ठों पर काम करने वाले प्रवासी मजदूरों के बच्चे हैं... हमारे बचपन का अधिकतर समय ईट की पथाई में गुजरा है...दहकतियों भठियों में झुलसा है...भाठ्ठों की तपिश में न मालूम मासूम बचपना कहाँ खो गया...हमको नहीं मालूम की जांत- पात, उंच - नीच क्या होती ...हम जानना भी नहीं चाहते हैं ... हम जानना चाहते हैं कि शेर खीरा ककड़ी क्यों नहीं खाता... आसमान के तारों पर कौन रहता है...हम सब कुछ जानना चाहते हैं जो हमारे मन में आते हैं...तमाम ख्वाब आपके हैं... पर कुछ हमारे भी है...हम अपने खवाबों को आपके साथ जीना चाहते हैं.....”

    बाल सजग में बच्चे फरवरी 2009 से लगातार अपनी रचनाएँ प्रकाशित कर रहे हैं. रचनाओं में वैसे तो बाल-कविताओं की भरमार है, मगर गाहे बगाहे लेख और कहानियाँ भी बच्चों ने लिखी हैं. पिछले वर्ष 169 रचनाएँ बच्चों ने लिखीं और इस वर्ष अब तक आंकड़ा 131 तक पहुँच चुका है.

    बच्चों ने हर संभावित विषय पर अपनी लेखनी चलाई है. जून के महीने में गर्मी पर तो जुलाई की बरसात में बरसात पर. बच्चों ने चप्पल पर भी कविता लिखी है तो साबुन पर भी.

    बरसात पर कक्षा 7 के सागर कुमार की कविता पोस्ट हुई है -

    बरसात का मौसम
    बरसात का मौसम बड़ा सुहाना ।
    देता शीतल हवा और ठंडक ॥
    बरसात का अब मौसम आया ।
    बादल गरजा बरसा पानी ॥
    खूब मजे से बच्चे नहाए ।
    बरसात का मौसम बड़ा सुहाना ॥
    देता शीतल हवा और ठंडक ।
    पानी बरसा हरियाली फैली ॥
    घर-घर में खुशहाली आयी ।
    बरसात का मौसम बड़ा सुहाना ॥

    कक्षा 6 के आदि केशव ने चप्पल पर ये कविता लिखी है -

    प्यारी चप्पल

    कितनी प्यारी चप्पल है

    रबर की बनी होती है

    कोई होती काली और कोई पीली

    लेकिन सब होती एक जैसी

    जो चप्पल नही पहनते

    उनके पैर में लगते है कांटे

    जो चप्पल जूते पहनते

    उनके पैर में कभी नही लगते कांटे

    कितनी प्यारी चप्पल है

    वह रबर की बनी होती है

    इधर आदित्य पांडे ने मजेदार हास्य कविता ‘नेताजी के मुँह में मच्छर’ लिखी है -

    नेता जी के मुंह में मच्छर
    आज सुनी मैंने गजब ख़बर।
    नेता के मुंह में अटक गया मच्छर॥
    नेता जी भागे खांसते - खांसते।
    दौड़े पतली गली के रस्ते॥
    पहुँच गए डाक्टर घसीटे के पास।
    उसने सोचा दिन है मेरा खास॥
    तभी नेता जी टप से तब बोले।
    जल्दी से अपना मुंह खोले॥
    मुंह के अन्दर मेरे मच्छर।
    फंस गया है वो उसके अन्दर॥
    पकड़ा डाक्टर ने चिमटे से मच्छर।
    जोर लगाया उसने कसकर॥
    निकल गया फ़िर गले से मच्छर।
    फ़िर भी मच्छर रहा सिकंदर॥
    डंक टूट गया गले के अन्दर।
    नेता जी फ़िर बन गए बन्दर॥
    खांस - खांस कर हुए बेहाल।
    याद आया उनको ननिहाल॥

    और, ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं बाल सजग में.

    ब्लॉग पर बाजू पट्टी में पिकासा का स्लाइड शो गॅजेट भी लगा हुआ है जिसमें बच्चों के बनाए पेंटिंग के चित्र प्रदर्शित होते हैं. ऊपर का चित्र इसी एलबम का है.

    तो, आइए, क्यों न आज छुट्टी का दिन बाल सजग पर, बच्चों के साथ बिताएँ?

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    शनिवार, जुलाई 17, 2010

    शनिवार (17.07.2010) की चर्चा

    नमस्कार मित्रों!

    मैं मनोज कुमार एक बा फिर हाज़िर हूं शनिवार की चर्चा के साथ।

    मंगलवार को चर्चा मंच पर एक पोस्ट आई। प्रस्तुत किया था संगीता स्वरूप जी ने। वो सप्ताह भर की कविताओं से सजी पोस्ट थी। इसने मुझे भी प्रेरित किया एक कविताओं से सजी पोस्ट तैयार करने के लिए। तो आज पेश है कुछ पोस्ट कविताओं के।

    कवि अपनी बाते शब्दों में कहता है। शब्द और अर्थ जब मिलते हैं तो काव्य का सृजन होता है। यों कहें कि हमारी सृजनात्मक अभिव्यक्ति का आरंभ काव्य के रूप में ही हुआ तो ग़लत नहीं होगा। आदि काल से ही हमारे सुख-दुख के मनोभावों की अभिव्यक्ति का माध्यम कविता ही बनी रही। कवि-कर्म एक शाब्दिक निर्मिति है। कवि शब्द  ’कु’ धातु में अच प्रत्यय (इ) जोड़कर बना है। ’कु’ का अर्थ है व्याप्ति, सर्वज्ञता। यानी कवि द्रष्टा है, स्रष्टा है, संपूर्ण है, सर्वज्ञ है। जहां न पहँचे रवि, वहां पहुँचे कवि। ऐसा व्यक्ति अपनी अनुभूति में सब कुछ समेटने की क्षमता रखता है। कवि द्वारा जो सृजन होता है उसके मूल में मनवीय संवेदना सक्रिय तो रहेगी ही। ये विचार राजभाषा ब्लॉग पर व्यक्त किए गये हैं कविता क्या है शीर्षक आलेख में

    कवि वही बड़ा होता है जो सामान्य भाषा की शक्ति-सामर्थ्य को कई गुना बढ़ा सकता है, जहां उसकी भाषा ही काव्य हो जाती है। उसका गद्यात्मक संगठन भी कवितापन से सिक्त हो जाता है। कविता में मार्मिक स्पर्श उसकी बुनावट में चार-चांद लगा देते हैं।

    न दैन्यं न पलायनम्   पर प्रवीण पाण्डेय जी की पोस्ट 28 घंटे पढ़कर ज्ञानदत्त पांडेय जी कहते हैं

    यह पोस्ट पढ़ कर मुझे लगा जैसे नव विवाहित कवि हृदय गद्य में कविता लिख रहा हो!!

    और ज्ञान जी सही भी हैं, देखिए ना इन पंक्तियों को पढकर लगता नहीं कि यह एक कविता की पंक्तियां हैं

    आज तुमने अपनी यात्रा छोटी कर ली है । तुम्हे मंजिल पाने की शीघ्रता है । तुम्हारा निर्णय था हवाई यात्रा का । तुम हवाई जहाज की तरह उड़ान भरना चाहती हो, मैं ट्रेन की दो पटरियों के बीच दौड़ता, लगातार, स्टेशन दर स्टेशन । मेरे टिकट पर एक और सीट तुम्हारी राह देखती रही पूरे 28 घंटे ।

    आज तुमने अपनी यात्रा छोटी कर ली है

    तुम्हे मंजिल पाने की शीघ्रता है

    तुम्हारा निर्णय था

    हवाई यात्रा का

    तुम हवाई जहाज की तरह

    उड़ान भरना चाहती हो,

    मैं ट्रेन की दो पटरियों के बीच दौड़ता,

    लगातार,

    स्टेशन दर स्टेशन

    मेरे टिकट पर एक और सीट

    तुम्हारी राह देखती रही

    पूरे 28 घंटे।

     

    आइए अब चर्चा शुरु करें

     

    My PhotoJ0148798अविनाश चंद्र की, चाहे कविता लंबी हो या छोटी, एक अलग शैली है। विषय कहने में वे अनूठे हैं। और सबसे बड़ी बात कि वो दूसरों से भिन्न फॉर्मेट अपनाते हैं, । कविता का सलीका, तरीक़ा, रखरखाव, उनका अपना है। नई विधि-प्रविधि, व्याकरण की शैली जिसमें उनका चरित्र झांकता है। यह कविताकार मौलिक सर्जक है। अपूर्ण अनुच्छेद... जो .....मेरी कलम से..... पर प्रस्तुत उनकी कविता इसका प्रमाण है।

    शलभ समान अक्षर,
    जो थे सने-नहाए,
    धूसरित धूल में.
    पुलकित हुए देख,
    तुम्हे ज्योतिशिखा
    .
    ***

    फिर कहीं से आई,
    भौतिकता की वल्लरी.
    लपेटती रही-नापती रही,
    समास-संधि-क्रिया.

    जिस मनुज ने नेह का व्याकरण कंठस्थ कर रखा हो, उसे यह संज्ञा से अव्यय तक के व्याकरण कहाँ लुभा सकते हैं... सब विस्मृत हो जाता है जब प्रेम का प्रत्यय या उपसर्ग लग जाता है जीवन के साथ, एक अविभाज्य अंग बनकर, जिसे “ सिर दे सो लो ले जाई” के मंत्र को सिद्ध करने वाला ही अनुभव कर सकता है...!!!

     

     

    PH01046J  धरती शीर्षक कविता स्वप्न मेरे ................ पर दिगम्बर नासवा जी प्रस्तुत करते हुए कहते हैं

    ना चाहते हुवे
    कायर आवारा बीज को
    पनाह की मजबूरी
    अनवरत सींचने की कुंठा
    निर्माण का बोझ
    पालने का त्रास

    इसमें वर्णन और विवरण का आकाश नहीं वरन् विश्लेषण, संकेत और व्यंजना से काम चलाया गया है। प्रयुक्त प्रतीक व उपमाएं नए हैं और सटीक भी। आपकी इस कविता में निराधार स्वप्नशीलता और हवाई उत्साह न होकर सामाजिक बेचैनियां और सामाजिक वर्चस्वों के प्रति गुस्सा, क्षोभ और असहमति का इज़हार बड़ी सशक्तता के साथ प्रकट होता है। तभी तो कवि कहता है

    अथाह पीड़ा में
    जन्म देने की लाचारी
    अनचाही श्रीष्टि का निर्माण
    आजन्म यंत्रणा का अभिशाप
    ये कैसा न्याय कैसा स्रजन
    प्राकृति का कैसा खेल
    धरती का कैसा धर्म ....

    नासवा जी, अपकी कविता ने फ़ादर माल्थस की याद दिला दी... कहीं कोई हल नहीं!! धरा की यह व्यथा यह कराह कौन सुनता है. धरती का एक नाम क्षमा भी है ! यह इसकी क्षमाशीलता है ! अब तक की सबसे बड़ी साक्षी यही है न !

     

    J0384888 मंजरियाँ शीर्षक कविता मेरे भाव पर मेरे भाव की प्रस्तुति है। इनकी कविता पढ़ने पर लू में शीतल छाया की सुखद अनुभूति मिलती है।

    आम्र पर बौर आये हैं
    लगता वसंत की अगुवाई है
    कोकिल ने छेड़ी मधुर तान
    बजी ऋतुओं की शहनाई है ।

     

    लेटे हुए जमीन परJ0386485 रवानी में अज़दक पर प्रमोद सिंह कहते हैं

    रवानी में बसे-धंसे बाबू बहे चलो
    मगर यह लरबोर बुझायेगा साथी, सुझायेगा?
    नीले आसमान के नीचे तिरी दुनिया

    ढीठ समय के सात सुर, हाथ आयेंगे?

    उनकी इस कविता में अज्ञात की जिज्ञासा, चित्रण की सूक्ष्मता और रूढ़ियों से मुक्ति की अकांक्षा परिलक्षित होती है।

    गोड़ की डोरी और ख़यालों की लोरी
    गुड़ुप, पानी में सर डुबाये
    कलेजे में तीली जलाये
    भाषा की धधकती चिमनियों के पार
    कहीं पहुंचाएंगे?
    जाएंगे जाएंगे बाबू, आंख खुली रखो
    लरबोरी के पार सुर-सुधा बनायेंगे.

    ऐसा सामर्थ्य कम कवियों के पास होता है और जिन के पास होता है वे ही दिदावर कहलाते हैं। कहना होगा कि प्रमोद सिंह ऐसे ही कवि हैं।

    J0148757  सांवर दइया की हिंदी कविताएं आखर कलश पर नरेन्द्र व्यास जी प्रस्तुत कर रहे हैं। साँवर दइया आधुनिक राजस्थानी साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। हां वही सुख, यह देह ही, नए साल की सुबह : एक चित्र, सपना संजो रहे, अपने ही रचे को , रचता हुआ मिटता, सुनो मां !, सच बता…. कविताएं इस बात का सबूत हैं कि कवि की निगहबान आंखों न तो जीवन के उत्सव और उल्लास ओझल हैं और न ही जीवन के खुरदुरे यथार्थ। बदली हुई आवाज़ों के बरक्स अपनी आवज़ के जादू के साथ सन्नाटों के कई रंग इन कविताओं में मौज़ूद हैं।

    कितना अच्छा था वह दिन

    भले ही अनजाने में लिखे थे

    और अक्षर भी ढाई थे

    लेकिन उनमें समाई दिखते थी

    पूरी दुनिया

    और आज

    कितना स-तर्क होकर

    रच रहा हूं पोथे पर पोथे

    झलकता तक नहीं जिसमें

    मन का कोई कोना

    सच बता यार !

    ऐसे में क्या जरूरी है मेरा कवि होना ?

    इनकी कविता की भाषा सीधे-सीधे जीवन से उठाए गए शब्दों और व्यंजक मुहावरे से निर्मित हैं। ये कवितएं एक विलुप्त होती कला की केवल पहचान दर्ज़ करने की कोशिश नहीं बल्कि क्षरणशील एवं छीजती संवेदनशीलता की शिनाख़्त हैं।

     

    My PhotoJ0382959 यह अकारण नहीं है कि मुहब्बत में फ़िदा होने वाली ज़िन्दगियों की दास्तान के साथ कवयित्री को याद आता है कि किसी का साथ पाने की उद्विग्नता याद दिलती है उनके अधूरेपन का। निर्वाण अनामिका की सदाये... पर अनामिका की सदाये...... कुछ इसी तरह ख़्यालात लेकर आई हैं।

    तुम्हारा साथ पाने की

    उद्विग्नता ...

    हड्डियों के ढांचे से

    चिपके मांस में

    छिपी रक्त धमनियों को

    उकसा देती है .

    चाहतें परछाइयाँ बन कर

    पीछा नहीं छोडती...

    मानो तिल की तरह

    शरीर पर पड कर

    याद दिलाती रहती हैं...

    अपने अधूरेपन का.

    आख़िरी कुछ पंक्तियां बरक्स ध्यान खींचती हैं।

    आज मैं ..

    पागल व्यक्ति की तरह

    विस्मृतियों में जाकर

    खुद को

    भुला देना चाहती हूँ.

    मैं भी योगियों की तरह

    समाधि की तरफ

    अग्रसर हो....

    सांसारिक कर्मों और

    योनियों के

    आवरणों से विरत हो ..

    निर्वाण पा लेना चाहती हूँ.

    इस असार संसार का बोध, निर्वाण और समाधि की अवस्था...प्रश्न सुख की कामना न होने से दुःख का अनुभव न होना नहीं, एक ऐसी अवस्था प्राप्त करना है जहाँ सुःख क्या और दुःख क्या का भेद ही समाप्त हो जाता है... सच कहा है आपने ऐसी स्थिति सिर्फ पागल ही होकर पाई जा सकती है... उस प्रियतम को पा लेने का पागलपन...बहुर सुंदर रचना, बहुत सुंदर भाव!

     

    मेरा फोटोJ0382963 औघट घाट पर नवीन रांगियाल की कविता चाय के दो कप को पढकर यह जाना जा सकता है कि लोक संवेदना की प्रस्तुति ही इसकी प्रमुख विशेषता है।

     

    केबिन मै चाय के दो कप
    आज सुबह केबिन में
    एक जिन्‍दगी
    अचानक घुस आई.
    कुछ पल ठहरीं
    और एक युग रिस गया.

    यह कविता जीवन की हमारी बहुत सी जानी पहचानी, अति साधारण चीजों का संसार भी है। यह कविता उदात्ता को ही नहीं साधारण को भी ग्रहण करती दिखती है।

    मेरा फोटोVista18 "जीवन की अभिव्यक्ति!” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘‘मयंक’’) उच्चारण पर डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक की एक ऐसी कविता है जिसके बारे में यह कह देना सर्वथा ज़रूरी है कि आज कविता में आए शुष्क एवं रुक्ष गद्य की बाढ़ के विरुद्ध ये कविता बेहद सुकून देती है।

    क्या शायर की भक्ति यही है?
    जीवन की अभिव्यक्ति यही है!

    शब्द कोई व्यापार नही है,
    तलवारों की धार नही है,

    राजनीति परिवार नही है,
    भाई-भाई में प्यार नही है,
    क्या दुनिया की शक्ति यही है?
    जीवन की अभिव्यक्ति यही है!

    मौजूदा हालात को बयां करती है आपकी रचना बेहद शानदार है। ये केवल शब्द नहीं हैं, बल्कि पारस्परिकता की बुनियाद पर टिकी उस संस्कृति एवं सभ्यता का आईना है जहां राग और कर्म एक ही संधि स्थल पर खड़े दिखाई देते हैं।

    मेरा फोटोVista09 यात्रा शीर्षक कविता के द्वारा sarokaar पर arun c roy कहते हैं

    यात्रा
    सब करते हैं
    शब्द भी
    तुम तक
    जो शब्द पहुँचते हैं
    उनकी यात्रा
    रूमानी होती है
    उन शब्दों के एहसास
    मधुर होते हैं

    आप इस कविता की भाषा की लहरों में जीवन की हलचल साफ देख सकते हैं।

    शब्द और तुम
    कर आओ ए़क यात्रा
    मेरे ह्रदय की झील में

    सच में, जब शब्द इन सुन्दर भावों को पिरोते हैं तो बड़े भाग्यशाली होते हैं। शब्दों का सफ़र लाजवाब है ... बिन कहे यहाँ से वहाँ शब्द ही पहुँचते हैं !

    Vista11 संगीता सेठी की बैठक बन्द रहती है मिट्टी के डर से कविता हिन्द युग्म प्रकाशित हुई है। अपनी इस कविता के लिए वो किसी भारी-भरकम कथ्य को नहीं उठाती, फिर भी अपने काव्यलोक की यात्रा करते हुए कुछ ऐसा अवश्य कह गयी हैं, जिसे नया न कहते हुए भी हल्का नहीं कहा जा सकता।

    नहीं आता है अब
    कोई मेहमान
    समय की कमी के कारण
    कोई आता भी है जल्दी में
    तो बैठा दिया जाता है
    दालान में...आहाते में
    या खड़े-खड़े ही
    विदा कर दिया जाता है
    महल जैसी बैठक में
    बैठने के
    नियम तय किए हैं
    हर कोई तो
    नही बैठाया जाता
    उन गद्देदार सोफों पर
    इसलिए
    ना सजते हैं काजू प्लेटों में
    ना बादाम-शेक परोस पाती हूँ
    महँगी क्रॉकरी
    शो-केस में सजी रहती है
    और बैठक बन्द रहती है
    मिट्टी के डर से

    समय कोई भी हो, कविता उसमें मौज़ूद जीवन स्थितियों से संभव होती है। वही जीवन- स्थितियां, जिनसे हम रोज़ गुज़रते हैं। संगीता जी  की यह रचना इसी के चलते हमें अपनी जैसी लगती है। इसमें निहित यथार्थ जैसे हमारे आसपास के जीवन को दोबारा रचता है।

    मेरा फोटोVista08 आजकल की कविता की एक और पहचान है – संवादधर्मिता, कथ्य और रूप दोनों स्तरों पर। कवयित्री कहीं स्वयं से  संवाद करती है, कहीं दूसरों से। यों ये दोनों स्थितियां परस्पर पूरक ही कही जाएंगी। कुछ तो है मेरी भावनायें... पर रश्मि प्रभा... जी की रचना इसी का मिसाल है।

     

    नहीं जानती - सत्य और असत्य

    सही और गलत

    स्वप्न और यथार्थ

    पर कुछ तो है

    जो मेरी धडकनें सुनाई देने लगी हैं

    कुछ तो है

    तभी तो

    आत्मा परमात्मा को छू लेने को व्याकुल है

    दार्शनिक सोच के साथ इस मनोरम प्रस्तुती में अज्ञात की जिज्ञासा, चित्रण की सूक्ष्मता और रूढ़ियों से मुक्ति की अकांक्षा परिलक्षित होती है। तीव्र संवेदनशीलता उन्हें प्रकृति के हर रंग-रूप में स्त्रीत्व का पता बताती है।

    My Photoअब और नहीं शिनाख़्त करो खुद की जज़्बात पर M VERMA की कविता काफी अर्थपूर्ण है, और ज़्यादा समकालीन। इस कविता के द्वारा वर्तमान स्थिति में जहां भी सार्थक एवं दिशावान जनांदोलन हैं वहां अपनी आशा और आस्था का बीजारोपण करें, समर्थन दें, कवि ये चाहता है।

     

    आसमाँ की बुलन्दियों पर
    तुम्हारी पहचान उभरेगी
    तुम अपनी मुट्ठियाँ
    हवा में लहराकर तो देखो

    आज इसकी सख्त जरूरत है। हर किसी की पहचान खोती जा रही है इस भाग-दौर भरी दुनिया में! क्योकि भ्रष्ट लोगों ने सामाजिक असंतुलन की भयावहता खरी कर दी है सरकारी खजाने को बुरी तरह लूटकर जिसके खिलाफ सबको मुट्ठियाँ एकजुट होकर हवा में लहराने की जरूरत है!

    My Photoबच गया मैं गीत............... पर संगीता स्वरुप ( गीत ) जी की ज़िंदगी का गणित कविता को पढने के उपरांत लगा कि उनकी कला साधना और भी गंभीर तथा परिपक्व हुई है। यह कविता एक ऐसा प्रश्‍न खड़ा करती है कि उत्तर देने में सदियां बीत जाएं और शायद तब भी प्रश्‍न का उत्तर अधूरा रह जाए।

    कोणों में बंटी

    ज़िंदगी

    कब कितने

    डिग्री का एंगल

    बन जाती है

    पाईथागोरस  प्रमेय

    की तरह .

    लोग

    यूँ ही तो

    नहीं कहते

    कि  गणित

    कठिन होता है  |

    जीवन के गणित को समर्पित इस कविता को पढकर यह समझ आया कि विकट समस्‍याओं का आसान हल ढूँढ निकालना सबसे मुश्किल काम है। ज़िंदगी के गणित को बहुत सुलझे हुए भावों के साथ समझाती यह कविता, बहुत सरल बना देती है एक ऐसे विषय को जिसे हमेशा कठिन माना जाता है। बस आवश्यकता है बुने हुए स्वेटर के एक खुले सिरे के पकड में आने की, हाथ आया तो कठिन से कठिन गणित उधड़ता चला जाता है।

    मेरा फोटोआफ़त-1 बारिश? शीर्षक कविता अमिताभ पर अमिताभ श्रीवास्तव द्वारा प्रस्तुत की गई है। इस कविता की भाषा सीधे-सीधे जीवन से उठाए गए शब्दों और व्यंजक मुहावरे से निर्मित हैं। आज का दौर विचलनों का दौर है। विचलनों के इस दौर में कविताओं में धरती दिखाई नहीं देती। लेकिन यह दिलचस्प है कि इनकी रचना में धरती और आकाश का दुर्लभ संयोग दिखता है।

    पहाड टूटना बस एक मुहावरा भर है
    कोई सचमुच थोडी टूट जाता है माथे पर।
    और अगर टूट भी जाये तो
    यकीन रखो तुम्हारे माथे पर तो नहीं ही गिरेगा।
    तब लगता है हां
    निश्चित ही बारिश का मौसम होगा।

    यह कविता बरसात के पहले लोगों द्वारा अपना घर सहेजने की प्रक्रिया मत्र नहीं है बल्कि कंक्रीट युग के बरक्स पूरी एक संस्कृति इस कविता में दृश्यमान हो उठी है।

    जब भंवर लयबद्ध नहीं होती
    जीवन की दिशायें एक सीध खो देती हैं
    मुहफेरी की खिडकियों से
    झांकने लगते हैं दोस्त,
    पीठ के पीछे छूरा घोपने की घटनायें आम हो जाती हैं,
    मुंह के सामने मीठी छुरियों का बाज़ार लगने लग जाता है
    और वे कन्धे ऊंचे व बडे हो जाते हैं एक दम से
    जिनके सहारे गले में हाथ डाला जाता था
    तब लगता है बारिश सावन की चमक खो चुकी है

    कविता में मुहावरों लोकोक्तियों के प्रासंगिक उपयोग, लोकजीवन के ख़ूबसूरत बिंब कवि के काव्य-शिल्प को अधिक भाव-व्यंजक तो बना ही रहे हैं, दूसरे कवियों से उन्हें विशिष्ट भी बनाते हैं। मनुष्य होने और बने रहने की बिडंबनाएं अमिताभ जी की इस कविता में जगह-जगह मौज़ूद हैं। कवि जब बरसात को कल्पित करता है तो जैसे मौसम को ही नहीं, ख़ुद को भी उदास पाता है। इस संदर्भ में ही इस कविता को देखा जा सकता है।

    My Photoदर्द विछोह पर्याय हैं मेरे.... कविता काव्य मंजूषा पर 'अदा' जी की प्रस्तुति है। यह कविता नारी पराधीनता अथवा उससे संबंधित कड़वे सच को बयान करती है।

    दूर जाना यूँ माँ से है

    जाँ का जाना जानो

    झुकते हैं कभी बिछते हैं

    मानो या न मानो

    याद की कलसी

    फिर छलकी है 

    आँख का आँचल भीगा है

    ये दुनिया क्या समझेगी

    तुम धैर्य की चादर तानो

    मैं बेटी

    किस्मत मेरी है

    दूरी की ही जाई

    दर्द विछोह पर्याय हैं मेरे

    मान सको तो मानो....!!

    एक नारी द्वारा रचित नारी विषयक इस कविता में उनकी स्वानुभूति और सहानुभूति का मसला यहां प्रधान है। कविता सीधे-सादे सच्चे शब्दों में स्वानुभूति को बेहद ईमानदारी से अभिव्यक्ति करती है। इसमें सदियों से मौज़ूद स्त्री-विषयक प्रश्‍न ईमानदारी से उठाया गया हैं।

    My Photo04092008145-001 पुरानी खांसी कविता बिगुल पर राजकुमार सोनी ने प्रस्तुत की है। जब से सोनी जी कविताएं प्रस्तुत करने लगे हैं उनका असल व्यक्तित्व उभर कर सामने आया है। यह ग्रामगंधी कविता नहीं बल्कि गांव या लोक जन जीवन से पगी कविता है।

    कहते हैं कि यह देश किसानों का देश है, लेकिन दुनिया के पेट को रोटी देने वाला किसान जिस तरह से भूखा रहता है। दाने-दाने को तरसता है, उसे देखकर नहीं लगता है कि वास्तव में यह देश किसानों का सम्मान करना भी जानता है।

    अब क्या बताऊं आपको
    अचानक दोनों छोटी लड़कियों के
    कपड़े छोटे पड़ गए
    मजबूरी थी
    पीले करने पड़ गए उनके हाथ

    गिरवी रखना पड़ा
    हीरा-मोती को
    अरे.. हीरा.. मोती .. नहीं.. नहीं बाबू

    हीरा-मोती तो बैल का नाम है.

    किसान की स्थिति के मार्मिक शब्दचित्र इस कविता में मौज़ूद हैं।

    इतना सब कुछ बताते-बताते
    किसान ने बंडी से बीड़ी निकाली

    और सुलगाते हुए कहा-
    अरे.. बाबू.. बड़े लोगों को
    होती है
    बड़ी बीमारी

    अपनी खांसी तो पुरानी है
    बस जाते-जाते जाएंगी

    इस कविता को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि सोनी जी किसानों के जीवन को उसकी विस्तृति में बूझने का यत्न करने वाले कवि हैं। जो मिल जाए, उसे ही पर्याप्त मान लेने वाले न तो दुनिया के व्याख्याता होते हैं और न ही दुनिया बदलने वाले। दुनिया वे बदलते हैं जो सच को उसके सम्पूर्ण तीखेपन के साथ महसूस करते हैं और उसे बदलने का साहस भी रखते हैं। यह कवितामहज़ एक समय कवि द्वारा किसन से मिलने का बयान भर नहीं है। इसमें ऐसा कुछ है जो इसे संश्लिष्ट और अर्थ सघन बनाता है। ऐसा इसलिए है कि सोनी जी तथ्यो, चीज़ों और घटनाओं को सतह पर ही मूल्यांकित कर परम संतोष पा जानेवाले अघए हुए कवि नहीं हैं।

    20100517100240-1-1 title unknown)

    भड़ास blog पर अजित त्रिपाठी की इस छोटी कविता में मनुष्य होने और बने रहने की बिडंबनाएं मौज़ूद हैं।

    उसे शौक है
    गीली मिट्टी के घरौंदे बनाने का
    सजा सजा कर रखता जा रहा है
    जहां का तहां
    निश्चिंत है न जाने क्यूं,
    अरे!
    कोई बताओ उस पागल को
    कि
    सरकार बदलने वाली है।

    कविता काफी अर्थपूर्ण है, और ज़्यादा समकाली। ये हमारी श्रमजीवी समाज के चरित्र हैं – अपने बहुस्तरीय दुखों और साहसिक संघर्ष के बावज़ूद जीवंत।

    image4564059567_509b46413f खुली आँखों के सपने कविता मनोज करण समस्तीपुरी की पेशकश है। यह कविता इस बात का सबूत है कि कवि की निगहबान आंखों न तो जीवन के उत्सव और उल्लास ओझल हैं और न ही जीवन के खुरदुरे यथार्थ। बदली हुई आवाज़ों के बरक्स अपनी आवज़ के जादू के साथ सन्नाटों के कई रंग इस कविता में मौज़ूद हैं।

    आज मेरी आँखें खुली हैं,

    बिलकुल खुली !

    और मैं देख रहा हूँ,

    खुली आँखों से सपने !!

    जिनमें हैं कई चेहरे,

    कुछ धुंधले,

    कुछ साफ़,

    कुछ गैर,

    और बहुत से अपने !!

    कविता सीधे-सादे सच्चे शब्दों में स्वानुभूति को बेहद ईमानदारी से अभिव्यक्ति करती है।

    एक और सपना देख रहा हूँ,

    मैं सपनों में !!

    परन्तु ये आँखें फिर भी खुली हैं,

    और

    प्रतीक्षा कर रही हैं,

    कि

    कब आयेगी वह भोर ?

    जब हर चेहरे में होगी,

    सच्चाई की चमक !

    विश्वास की झलक !!

    आपकी जागी आँखों का ख़्वाब बहुत ही हसीन था... दर्द भी हसीन होते हैं, क्योंकि मांजते हैं इंसान को ताकि उनकी चमक और बढे.!!

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