सोमवार, मार्च 29, 2010

विवाह संस्था,धर्म और एक बोहेमियन औरत की डायरी

कल एक बहुत रोचक मुद्दा उठाया बेनामी जी ने और उस पर बहुत रोचक टिप्पणियां आईं! मुद्दा सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये एक निर्णय के परिप्रेक्ष्य में उठाया गया। सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में निर्णय देते हुये अपनी राय दी कि यदि वयस्क स्त्री-पुरुष अपनी मर्जी से बिना विवाह किये साथ रहना चाहें तो रहें। यह किसी कानून का उल्लंघन नहीं है। बेनामी जी अपनी पोस्ट में इसी मुद्दे पर बात शुरू की और अपना मत अपने पोस्ट शीर्षक में ही व्यक्त कर दिया-विवाह संस्था को अवैध घोषित किया जाय या कम से कम इसे मान्यता तो न दी जाय इस रोचक बहस में अब तक 122 टिप्पणियां आई हैं। लोगों ने टिप्पणी-प्रति टिप्पणी करते हुये अपने विचार पुनि-पुनि लिखे हैं।

इस पोस्ट में कुछ लोगों का मत है कि विवाह संस्था मूलत: स्त्री विरोधी है और इसकी शुरुआत नारी के खिलाफ़ पुरुष का मास्टर स्ट्रोक है। कुछ लोगों का मानना है कि तमाम खामियों के बावजूद इस संस्था का फ़िलहाल कोई विकल्प नहीं है। एक विचार यह भी आया कि विवाह संस्था समाप्त हो जाने के बाद बच्चों का हिसाब-किताब पालन-पोषण करने के लिये ट्र्स्ट बना दिये जायें जिनको चलाने के लिये कुछ पैसा समाज के लोगों से लिया जाये। जब यह विचार मैं पढ़ रहा था तब मुझे आजकल चल रहे अनाथालयों की व्यवस्थायें/अव्यवस्थायें याद आयीं। जिन बच्चों के मां-बाप का पता नहीं होता वे अनाथालय में ही तो पलेंगे।

विवाह संस्था की समाप्ति पर हुई इस रोचक बहस को पढ़ते हुये मुझे ओ.हेनरी की एक कहानी याद रही है। इसमें एक बुजुर्ग दंपति अपनी किचपिच से ऊबकर तलाक ले लेते हैं। तलाक ले लेने के बाद उनको लगता है कि वे एक-दूसरे के बिना रह नहीं पायेंगे। वे फ़िर जज के पास जाते हैं कि वह उनकी शादी करा दे। लेकिन जज की फ़ीस के लिये उनके पास पैसे नहीं होते हैं। शाम को जब जज घर वापस जा रहा होता है तब उसको वे बुजुर्ग दम्पति लूट लेते हैं और अगले दिन फ़िर से शादी कराने की अर्जी दाखिल कर देते हैं। जज देखता है कि नोट उसका ही लुटा हुआ नोट है लेकिन वह उनकी शादी करा देता है।

मेरी समझ में हर संस्था में खूबियां-खामियां होती हैं। विवाह संस्था में भी हैं। इसमें किसी का शोषण होता है और कोई मजे करता है। लेकिन सब मामले एक जैसे नहीं होते। संस्था में कुछ खामियां हैं तो उसको खतम करके जो नयी व्यवस्था बनाने की बात होगी वह एकदम त्रुटिहीन होगी इसकी क्या गारंटी? फ़िर अभी भी विवाह कोई जबरदस्ती तो नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दे ही दिया। रहा जाये मौज से और उसके परिणाम देखे जायें। अगर अनुकरणीय और आदर्श होगा तो लोग आयेंगे और संख्या बढ़ायेंगे। बच्चों का ट्र्स्ट बनने तक कोई न कोई इंतजाम हो ही जायेगा।

लेकिन ट्र्स्ट बनने और चलने के बाद शायद हिन्दी फ़िल्मों के भाई ,जुड़वां भाई जो मेले में खो जाते थे और बीस साल बाद मिलते थे और गले मिलकर रोने लगते थे वे शायद खतम हो जायें।

विवाह संस्था के आसपास आजके मानव समाज की धुरी घूमती है। नाम कोई दे लें लेकिन तमाम प्रेम,प्यार, राग,अनुराग, आदर्श की पाठशाला है यह संस्था। इसको खतम करके प्रस्तावित संस्था का माडल पेश किया जाये , कुछ दशक, सदी इसका परीक्षण हो तब कुछ सोचा जाये आगे।

एक और जानकारी परक च विचारोत्तेजक लेख में कृष्ण मुरारी प्रसाद ने धर्म का लब्बो और लुआब पेश करने के पहले बताया :
जीसस जन्म से क्रिश्चन नहीं ...यहूदी थे. ....पैगम्बर मोहम्मद जन्म से मुसलमान नहीं थे....भगवान बुद्ध जन्म से बौद्ध नहीं थे.....भगवान महावीर जन्म से जैन नहीं थे......गुरू नानक जन्म से सिक्ख नहीं थे....हिंदू धर्म में भी बहुत सी धाराएं हैं......कई वेद...कई पुराण....कई उपनिषद.....कई ग्रन्थ हैं......


अगर आपको कुछ बिन्दास लेखन पढ़ने का मन करता है तो आइए मनीषा पाण्डेय के ब्लॉग में। मनीषा एक बोहेमियन की डायरी लिखना चाहती हैं। वे कहती हैं-
मैंने नहीं देखी है आज तक कोई बोहेमियन औरत, लेकिन हमेशा से सोचती रही हूं कि काश कि जीवन ऐसा हो कि कल को अपनी आत्‍मकथा लिखूं तो उसका नाम रख सकूं – एक बोहेमियन औरत की डायरी। लेकिन चूंकि मैं जिस देश और जिस समाज में पैदा हुई, वहां ऐसे बेजा ख्‍यालों तक की आमद पर बंदिशें हैं तो मैं बोहेमियन की जगह बेदखल की डायरी से ही काम चला रही हूं।


अब इसके बाद के उनके किस्से देखिये। स्पीड वाले किस्से। हवा में उड़ता जाये मेरा लाल टुपट्टा मलमल का से आगे के किस्से हैं ये।
कमीने, हरामी की औलाद सब के सब। मैंने खुले दिल से गालियों की बौछार की। साले, खुद टी शर्ट उतारकर भी चलाएंगे तो किसी की नानी नहीं मरेगी। जरा कुर्ता उड़ गया तो उनकी आंतें उतरने लगीं। मैंने कहा, मरने दे उन्‍हें। तू आराम से बैठ। पीठ को हाइवे की हवा लग रही है न। लगने दे। पसीने में हवाओं की ठंडी छुअन। मस्‍त है यार। टेंशन मत ले। ससुरों के दिमागों तक को हवा नहीं लगने पाती। हमारी तो पीठ तक को लग रही है। पता नहीं क्‍या था कि हम किसी बात की परवाह करने को तैयार नहीं थे। हमने सचमुच किसी बात की परवाह नहीं की।


आप पूरा किस्सा पढिये और देखिये कि मीडिया और अंग्रेजी का गठबंधन कित्ता तो ताकतवर होता है।

पोस्ट में आयी टिप्पणियां भी मजेदार हैं। मनीषा, शायदा और प्रमोदजी के बहाने कई बार ससुर शब्द का प्रयोग है। संजीत की मनीषा का पीए बनने की अर्जी है। यह दो कमेंट भी हैं:

सिद्धार्थ जोशी का कहना है:
भय का एक नमूना यह भी है...

इंसान कहीं से भी अपने बचाव के लिए पर्याप्‍त ऑथिरिटी निकाल लेता है.. चाहे अंग्रेजी भाषा हो या लाल रंग का प्रेस का निशान..


अपूर्व कहते हैं:
बोहेमियन स्त्री..एक विरोधाभास!!..ऐसी प्रजाति कही होती है क्या इस मुल्क मे..अगर ऐसा कुछ है तो किसी धर्मस्थल के पीछे आराम फ़रमाते उस श्वान को पता नही चला क्या..जिसे समाज कहते हैं..कि ऐसा कुछ सूँघते ही जिसके बदन पर तमाम आँखें उग आती हैं..दरअस्ल ऐसी स्त्री हमारे मर्दवादी समाज के लिये एक चुनौती होती है..अपनी मर्दानगी साबित करने का एक आमंत्रण..और स्त्रियाँ भी कितनी भोली होती हैं..सिर्फ़ सांची फ़तेह कर के खुश होने वाली..मगर इतना कर के भी वह दूसरे ग्रह की प्राणी बन जाती है..अलग जुबान बोलने वाली..अलग गानों को गाने वाली..मगर इतनी सी आजादी की कीमत कितनी बड़ी है..कि आधी आबादी के अस्सी प्रतिशत को सपनों मे भी किसी राजकुमार के घोड़े पर ही जाना होता है ऐसी ट्रिप पर..


इसके पहले अनीताजी कह ही चुकीं:
मनिषा जी मेरी सीटी की आवाज सु्नाई दे रही है न? बहुत मजा आया आप की पोस्ट पढ़ के। वो गाने जो आप ने गाये वो चीप नहीं थे वो उस एनर्जाइसिंग थे उस समय के लिए एक दम फ़िट्।
लेकिन एक राज की बात बतायें…बम्बई में भी नयी नयी सीखी हुई लड़की को मर्दों की छेड़ाखानी का शिकार बनना पड़ता है, सब कुछ आत्मविश्वास पर निर्भर करता है। खास कर बेस्ट बस वाले(पब्लिक ट्रांस्पोर्ट) और ट्रक वाले नौसिखिया महिला को रोड से उतारने के लिए पूरी लगन से हूल देते निकलते हैं। और जब महिला डर जाती है तो खीसे निपोरते नजर आते हैं। हां जब वही महिला ड्राविंग में परांगत हो जाती है तो फ़िर बेफ़ि्क्री…।वैसे आप जब बम्बई-पूना के हाइवे का आनंद उठाने जाएं तो हम भी साथ हो लेगें अगर आप की इजाजत हो तो। आप कहें तो चीपो गानों का पिटारा साथ ले आयेगें…।:)


अब आपौ कुछ कह डालिये। मनीषा इसके बाद दो पोस्टें और लगा चुकी हैं। हम तो अभी बांच न पाये आप बांच लीजिये बेदखल की डायरी।

अब देखिये एक भले लड़के की क्या गत हुई। पीडी को आईडिया चोर बता दिया पूजा ने:
ढेर फिलोसफी बतिया रहे हो...सब ठीक है न? अच्छा लगता है जब भाग दौड की जिंदगी में कुछ पल अपने लिए मिल जाते हैं. उसमें सोचो, किताबें पढ़ो, दोस्तों से गप्पें मारो...ये कुछ पल सोच कर बड़ा अच्छा लगता है बाद में.
तुमने भी लगता है काफी कुछ जुटा लिया है अपने लिए इन दिनों.

और किताब की फोटो लगाने का आईडिया मेरे ब्लॉग से उठाया...चोर!

लेकिन भैया भले आदमी की हर जगह मरन है। देखिये शिवकुमार मिश्र ने यही तो पूछा था:
देखने की कोशिश करते हैं.

वैसे आपने कमीने और माय नेम इज खान के बारे में नहीं लिखा. दिल बोले हडीप्पा के बारे में भी नहीं लिखा. ऐसा क्यों?

इस पर ऊ कहते हैं:
@बाबू सी कुमार,
मैंने राखी सावंत के बारे में भी कहां लिखा. कभी-कभी तो सोचता हूं आपही के बोहेमियनपने के बारे में तीन लाइन लिखूं, मगर फिर यही होता है कि तीन शब्‍द के बाद नज़र लड़खड़ाने लगती है, और घरबराकर कंप्‍यूटर बंद करके एक ओर हट जाता हूं, तो त्रासदियां तो बहुत सारी हैं, ऐसे ही थोड़ी है कि खुद की बजाय दूसरों को दु:स्‍साहसी बुलाने की मजबूरी बनती हो, आं?


जब मैंने यह देखा तब मन किया कि पूछें कि अच्छा छोड़िये राखी सावंत जी को। आपने मल्लिका जी पर भी तो कुछ नहीं लिखा। मन तो यह भी किया कि वहां समीरलाल जी का कमेंट दिख जाये:
आपके लिए विशेष संदेश:

हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!

लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.

अनेक शुभकामनाएँ.

लेकिन नहीं दिखा। मन दुखी हुआ। यह सोचकर कि क्या प्रमोदजी का लेखन विशिष्ट लेखन नहीं है। जब ई लेखन विशिष्ट नहीं है त बाकियों से काहे मौज ली जा रही है। हम ही सीधे मिलें हैं!

फ़िलहाल इतना ही। बकिया फ़िर। आपका सबकुछ झकास हो। जीवन में हास हो/परिहास और उल्लास हो।

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रविवार, मार्च 28, 2010

ऐसी खबर है कि हिंदी ब्लॉग जगत मैच्योरिटी(बोल्डनेस) की तरफ़ बढ़ने ही वाला है….

image

जाहिर है, ये शीर्षक भी किसी पोस्ट के फुटनोट से उड़ाया गया है. और, लगता है सही भी है. पेश है हिन्दी ब्लॉगजगत के बोल्डनेस को बयान करते कुछ पोस्टों के शीर्षक व लिंक -

 

 

और, यदि आपको इन पोस्टों में कोई बोल्डनेस नजर नहीं आया हो, तो आखिर में बांचिए, एक बोल्ड कविता :

ओ मृगनैनी, ओ पिक बैनी,
तेरे सामने बाँसुरिया झूठी है!
रग-रग में इतना रंग भरा,
कि रंगीन चुनरिया झूठी है!

मुख भी तेरा इतना गोरा,
बिना चाँद का है पूनम!
है दरस-परस इतना शीतल,
शरीर नहीं है शबनम!
अलकें-पलकें इतनी काली,
घनश्याम बदरिया झूठी है!

…. (आगे पूरी कविता यहाँ पढ़ें)

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शुक्रवार, मार्च 26, 2010

क्योंकि नगर वधुएं अख़बार नहीं पढ़तीं


अभी तक माना ये जाता रहा है कि इन्टरनेट पत्रकारिता को रिडिफ़ाइन कर रहा है। दैनिक अख़बार की ख़बर पहुँचाने की परम्परागत भूमिका को टीवी चैनल पहले ही छीन चुके हैं। अपनी बात कहने के लिए अब कोई किसी अख़बार और पत्रिका के सम्पादक का मोहताज नहीं हैं। लोग न सिर्फ़ अपनी बात कह सकते हैं और चाहे तो मामूली से ख़र्चे के साथ छपास का सुख भी पा सकते हैं।

मगर फिर भी इन्टरनेट पर लिखी जा रही सामग्री को लोग साहित्य के ख़ाने में दाख़िला देने से मुकर रहे हैं। उसके पीछे सोच ये है कि इन्टरनेट का माध्यम लिखने वाले को एक क़िस्म की क्षणिकता, अधीरता, बेतरतीबी, फ़ौरीपन, परिवर्तनशीलता और पाठक को अरझाये रखने की बेचैनी से प्रेरित रहता है। जबकि साहित्य अभी भी ठहराव और धैर्य की व्यवस्था में धंसा हुआ अपरिवर्तनीय पाठ माना जाता है।

लेकिन फिर भी इन्टरनेट पर लिखी जा रही ‘कोटि-कोटि’ कविताओं के अलावा तमाम ब्लौगवीर ऐसे भी हैं जो कहानी पर भी हाथ आज़मा रहे हैं। ऐसे ही एक ब्लौगवीर है साथी अनिल यादव

अनिल पेशे से पत्रकार हैं, बनारस में अपनी शिक्षा-दीक्षा के बाद, उत्तर प्रदेश के तमाम शहरों में कई नौकरियों के बाद आज-कल पायनियर अख़बार में जमे हुए हैं। पिछले दिनों उनके ब्लौग हारमोनियम पर एक लम्बी कहानी कई हिस्सों में आती रही। कहानी का शीर्षक उन्होने दिया है :

‘क्योंकि नगर वधुएं अख़बार नहीं पढ़तीं.. (नहीं पढ़तीं, न पढ़ेंगी)’

बनारस शहर की एक बदनाम बस्ती में पैसे लेकर जिस्मफ़रोशी करने वालियों के बहाने नए भारत के बदलते स्वरूप में जो खेल चल रहे हैं, उन्होने उस पर से कपड़े उतारे हैं। इस कहानी का कैनवास बड़ा है, काफ़ी बड़ा है। पत्रकार, पुलिस, बिज़नेसमैन, नेता, सोशल वर्कर, धर्म के ठेकेदार, रण्डियां या नगरवधुएं, सब के बीच कहानी आती-जाती रहती है। क्योंकि कहानी किसी एक चरित्र की नहीं बल्कि एक समाज की है, जिसे एक पत्रकार ने अपने ही अन्दाज़ में ‘बयाना’ है।

अनिल की कहानी दिलचस्प है कई नज़रियों से। एक तो यही कि ये वेश्याओं के बारे में है और वो भी बनारस की। यूँ तो बनारस और रंडियों का रिश्ता इतना पुराना है कि उसकी दख़ल कहावतों में भी हो गई है। फिर रंडियों से जुड़े मामले हमेशा दिलचस्प होते हैं। न सिर्फ़ इसलिए कि वे हमारे स्वभाव की मूल वृत्ति से जुड़ा व्यापार करती हैं बल्कि इसलिए भी कि एक आम शरीफ़ आदमी को उनके जीवन के बारे में अधिक कुछ मालूम नहीं होता। जिज्ञासा अलबत्ता ज़रूर होती है। मंटो जैसे लेखक की सफलता के पीछे एक बड़ा राज़ यह भी था कि वो उन मसलों पर अपनी क़लम चलाते थे जो हाशिये पर पड़े लोगों से तअल्लुक रखते थे और जिनके बारे में मालूमात पढ़ने वालों में कम होती थी।

दूसरे ये कि अनिल ने वेश्याओ के मामले को महज़ वेश्याओं के मामले की तरह नहीं बरता है। वह पूरे समाज का मामला है और समाज के मुख़्तलिफ़ तबक़ों की तस्वीर उन की कहानी में बनती है या यूँ कहें कि बनती-बिगड़ती है। तीसरे ये कि आप की कहानी में कोई परम्परागत ढंग से नायक-नायिका नहीं है; एक घटनाक्रम है और उसका एक साक्षी है जो अपने आगे चल रहे तमाशे को उसकी जटिलताओं के समूचेपन में समझने की कोशिश करता रहता है।

कहानी कुछ इस अन्दाज़ में शुरु होती है: 

"छवि जिसे फोटो समझती थी, दरअसल एक दुःस्वप्न था। रास्ते में चलते-चलते अक्सर उसे प्रकाश के हाथों में एक चेहरा दिखता था और उसके पीछे अपने दोनों हाथ सीने पर रखे, कुछ कहने की कोशिश करती एक बिना सिर की लड़की...."

कहानी में आगे के कुछ अंश देखिये:

“उसी शाम बुर्के में चेहरा ढके एक अधेड़ औरत लगातार पान चबाते एक किशोर के साथ तीन घंटे से दफ्तर के बाहर खड़ी थी। वह एक ही रट लगाए थी कि उसे अखबार की फैक्ट्री के मालिक से मिलना है। दरबान से उसे कई बार समझाया कि यह फैक्ट्री नहीं है और यहां मालिक नहीं, संपादक बैठते हैं, वह चाहे तो उनसे जाकर मिल सकती है। औरत जिरह करने लगी कि ऐसा कैसे हो सकता है कि अखबार का कोई मालिक ही न हो और उसे तो उन्हीं से मिलना है। आते-जाते कई रिपोर्टरों ने उससे पूछा कि उसकी समस्या क्या है लेकिन वह कुछ बताने को तैयार नहीं हुई। रट लगाए रही कि उसे मालिक से मिलना है। काम भी कुछ नहीं है, बस सलाम करके लौट जाएगी। सी. अंतरात्मा की की नजर उस पर पड़ी तो देखते ही भड़क गए, ‘तुम यहां कैसे, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई प्रेस में आने की, भागो चलो यहां से। हद है अब यहां भी...”

“प्रकाश को यह बूढ़ा कभी-कभार एक सस्ते बार में मिला करता था और दो पैग के बाद पीछे पड़ जाता था कि वह एक पॉलिसी ले ले ताकि उसे बीमा एजेंट बेटे का टॉरगेट पूरा हो सके। प्रकाश उससे हमेशा यही कहता था कि फोकट की दारू पीने वाले उस जैसे पत्रकारों को इतने पैसे नहीं मिलते कि वे बीमा का प्रीमियम भर सकें लेकिन कई साल बाद भी बूढ़े ने अपनी रट नहीं छोड़ी।”

“कार में बैठे-बैठे उन्होंने सबसे पहले कई राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय ठप्पों वाली टी -शर्ट पहनी, दो कंडोम खोलकर दोनों कानों में लटका लिए, जो हवा चलने पर सीगों की तरह तनने लगते थे वरना बकरी के कानों की तरह लटके रहते थे। कई कंडोमों को थोड़ा सा फुलाकर एक धागे में बांधकर उनकी माला गले में डाल ली। वे ऐसे अंगुलिमाल लगने लगे, जिसने किसी पारदर्शी दानव की उंगलियां काटकर गले में पहन ली हों।”

“एक बलिदानी हिन्दू युवक ने संकल्प कर लिया कि अगर मकर संक्रांति तक काशी को वेश्यावृत्ति के कलंक से मुक्त नहीं किया जाता, तो वह सूर्य के उत्तरायण होते ही जलसमाधि ले लेगा। मुंडित सिर, जनेऊधारी यह युवक गले में पत्थर की एक भारी पटिया बांधकर गंगा में ही एक नाव पर रहने लगा।”

पूरी कहानी पढ़ कर मैंने पाया कि किसी एक पात्र या चरित्र के आत्मालाप के चकल्लस में अनिल नहीं उलझते और ये बात उन की कहानी की विशेषता है कि उन्होने आप ने एक मामले के कई सारे पहलुओं को गिरफ़्त में लिया है। निजी तौर पर मुझे आप की कहानी में और भी अधिक रस आता अगर इस कहानी की गति को थोड़ा मद्धम और ठहरीला कर दिया होता। इतने सारे दिलचस्प चरित्रों को और क़रीब से जानने और उनके साथ अधिक समय गुज़ारने की इच्छा होती है।

आख़ीर आते-आते कहानी की रंगत गहरी हो जाती है और एक सर्रियल अंजाम की ओर उन्मुख होती है। कहानी का अद्भुत अन्त एक बड़ी सनसनीखेज़ मगर एक सम्भावित सच्चाई की तरह कचोटता रहता है।

इन्टरनेट पर प्रकाशित होने वाली ये शायद पहली इतनी लम्बी कहानी होगी। हर पहलौठे की जिस उत्साह से आव-भगत होती है, इसकी नहीं हुई। दोस्तों से अनुरोध है कि थोड़ा धीरज दिखायें और इन्टरनेट पर साहित्यिक संस्कृति को विकसित करने में अपना योगदान दें।

लगभग पूरी कहानी यहाँ देखी जा सकती है.. नीचे से ऊपर के क्रम में.. 

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बुधवार, मार्च 24, 2010

...और ज़िन्दगी को जी भर के जियें!


आज रामनवमी है। आप सभी को रामनवमीं मुबारक। खासकर उनको जिनकी आज छुट्टी है। हमें तो आज भी ऑफ़िस जाना है सो सिर्फ़ मुबारकबाद देकर निकल लेंगे। वैसे आप मीनू खरे जी के ब्लॉग पर चलिये उन्होंने आपके लिये पोस्ट किया है:
श्री रामचँद्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणम्।
नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर कंज, पद कंजारुणम्।।

कंदर्प अगणित अमित छबि, नवनील-नीरद सुंदरम्।
पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक-सुतानरम्।।

भजु दीनबंधु दिनेश दानव-दैत्य-वंश-निकंदनम्।
रघुनंद आनँदकंद कोशलचंद दशरथ-नंदनम्।।

सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणम्।
आजानुभुज शर-चाप-धर, संग्राम-जित-खर-दूषणम्।।

इस भजन को मैं जब भी याद करता हूं तो यह जरूर याद आता है कि इसे ही अपनी पत्नी मनोहरादेवी के मुख से सुनकर सुर्जकुमार ,सूर्यकांत त्रिपाठी’निराला’ बनने की राह पर चले:
सुर्जकुमार को लग रहा था ,पत्नी उनके अधिकार में पूरी तरह नहीं आ रहीं। एक दिन उनका गाना सुना। मनोहरादेवी ने भजन गाया-

श्री रामचन्द्र क्रपालु भजु मन हरण भव भय दारुणम
कन्दर्प अगणित अमित छवि नवनीलनीरज सुन्दरम।


मनोहरादेवी के कंठ से तुलसीदास का यह छन्द सुनकर सुर्जकुमार के न जाने कौन से सोते संस्कार जाग उठे। सहित्य इतना सुन्दर है, संगीत इतना आकर्षक है, उनकी आंखों से जैसे नया संसार देखा, कानों ने ऐसा संगीत सुना जो मानो इस धरती पर दूर किसी लोक से आता हो। अपनी इस विलक्षण अनुभूति पर वे स्वयं चकित रह गये।अपने सौन्दर्य पर जो अभिमान था, वह चूर-चूर हो गया। ऐसा ही कुछ गायें, ऐसा कुछ रचकर दिखायें, तब जीवन सार्थक हो। पर यहां विधिवत न संगीत के शिक्षा मिली न साहित्य की। पढाई भी माशाअल्लाह-एन्ट्रेन्स फेल!


कल नक्सलबाड़ी आन्दोलन के नेता कानू सान्याल नहीं रहे। लोगों का कहना है कि उन्होंने आत्महत्या कर ली। नक्लस आंदोलन के भटकाव को देखकर उनका मन दुखी था। इस बारे में नक्सल आंदोलन से जुड़े लोग शायद बेहतर बता सकें। कानू सान्याल को याद करते हुये प्रभात गोपाल ने लिखा
रोजी-रोटी के नाम पर जिस संघर्ष का आह्वान किया जाता है, वह कितना सच है, ये सोचिये। कभी भी क्या समानता का रूप साकार हो सकता है? क्या एक समान पूंजी का वितरण संभव है? क्या शोषण का पूरी तरह से अंत संभव है? हमारा मानना है कि हर पीढ़ी का अपना मत होता है। वह मत उस पीढ़ी के साथ खत्म हो जाती है। कानू सान्याल या अन्य कोई जितने भी कम्युनिस्ट नेता हुए, उन्हें लेकर ये सवाल जरूर खड़ा किया जायेगा कि सुरक्षित जीवन देने के लिए उन्होंने कौन से प्रयास किये। एक बात तो साफ है कि बंदूक के सहारे समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता है। कानू सान्याल को लेकर कई सवाल मन में उठ रहे हैं, शायद कभी जवाब मिल जाये।

कानू सान्याल के बारे में जानने के लिये पढिये डॉ शशिकांत का यह लेख।
अपूर्व की पोस्ट से पाश की यह कविता खासकर शहीदों की याद में और पाश को याद करते हुये:
उसकी शहादत के बाद बाकी लोग
किसी दृश्य की तरह बचे
ताजा मुंदी पलकें देश मे सिमटती जा रही झांकी की
देश सारा बच रहा साकी
उसके चले जाने के बाद
उसकी शहादत के बाद
अपने भीतर खुलती खिड़की में
लोगों की आवाजें जम गयीं
उसकी शहादत के बाद
देश की सबसे बड़ी पार्टी के लोगों ने
अपने चेहरे से आँसू नही, नाक पोंछी
गला साफ़ कर बोलने की
बोलते ही जाने की मशक की
उससे संबंधित अपनी उस शहादत के बाद
लोगों के घरों मे
उनके तकियों मे छिपे हुए
कपड़े की महक की तरह बिखर गया
शहीद होने की घड़ी मे
वह अकेला था ईश्वर की तरह
लेकिन ईश्वर की तरह निस्तेज नही था ।


एक लाईना


  1. ईर्ष्या करो, विनाश पाओ! :चलो शुरू हो जाओ

  2. पाकिस्तान : तख़्तापलट की तैयारी! :खटिया खड़ी करने के लिये

  3. जब याद आपकी आती है :एक छुटकी से पोस्ट निकल आती है।

  4. आईपीएल में भी हो महिला आरक्षण : करा देंगे चिंता मत करो!

  5. किस्सा कोताह ये कि...:पोस्ट ज्ञानवर्धक है

  6. जब जब असभ्य इरविन कोई इठलाएगा..तब तब यह भारत,भगतसिंह बन जाएगा :और फ़ांसी पर चढ़ जायेगा?

  7. ब्लॉग + कबड्डी = ब्लोगड्डी :चलिये शुरु करते हैं!

  8. भारत का लोकतंत्र और दिल्ली की महंगाई :मिलकर आफ़त करे हैं भाई!

  9. लव.. सेक्स.. धोखा. और सच :एक साथ पिक्चर हौल में दिखे

  10. नहीं लड़की, तुम मुझे कवि ना कहना :वर्ना लोग मुझे सीरियसली नहीं लेंगे

  11. कामयाब होना है, घर की चीज़ों की बात सुनिए...खुशदीप :की नहीं

  12. परीक्षाओं से डरे नहीं,हंसकर सामना करें:परिणाम आने पर रोने की व्यवस्था करें

  13. कुछ बुलबुले:फ़ूट गये

  14. सही रंग: की तलाश जारी आहे

  15. मेट्रो मैन की लड़कियां :भी पोस्ट लिखवा ही लेती हैं

  16. "मेरे पिताजी का स्कूटर" :फ़िर से चल पड़ा

  17. दुनिया का सबसे महंगा टीवी, कीमत 10.33 करोड़ रुपए :मिलेगा एक किलो चीनी के साथ मुफ़्त में -जरा इंतजार करो भाई!

  18. आओ शहीद भगत सिंह जी के शहीदी दिवस पर उनके बताए मार्ग पर चलने का प्रण करें। :लेकिन चलें कैसे सारे रास्ते में तो जाम लगा है।

  19. तमीज से बात कर बे.....कस्टमर से ऐसे बात करते :थोड़ी और बत्तमीजी मिला जरा लगा के स्माइली :)

  20. क्या यही है देशभक्ति ? :बताओ भैया आपै से पूछा जा रहा है!

  21. सिर्फ इक्कीस बरस का जीवन जिसने जिया .. :बाकी का हमारे लिये छोड़ दिया


मेरी पसंद

जिंदगी यूँ ही गुज़र जाती है
बातों ही बातों में
फिर क्यों न हम
हर पल को जी भर के जियें,


खुशबू को
घर के इक कोने में कैद करें
और रंगों को बिखेर दें
बदरंग सी राहों पर,


अपने चेहरे से
विषाद कि लकीरों को मिटा कर मुस्कुराएँ
और गमगीन चेहरों को भी
थोड़ी सी मुस्कुराहट बाँटें,


किसी के आंसुओं को
चुरा कर उसकी पलकों से
सरोबार कर दें उन्हें
स्नेह कि वर्षा में,


अपने अरमानों की पतंग को
सपनो कि डोर में पिरोकर
मुक्त आकाश में उडाएं
या फिर सपनों को
पलकों में सजा लें,


रात में छत पर लेटकर
तारों को देखें
या फिर चांदनी में नहा कर
अपने ह्रदय के वस्त्र बदलें
और उत्सव मनाएँ,


आओ हम खुशियों को
जीवन में आमंत्रित करें
और ज़िन्दगी को जी भर के जियें!
नीलेश माथुर

और अंत में


फ़िलहाल इतना ही। आजकल मार्च के महीने में बलभर व्यस्त चल रहे हैं। लिखने-पढ़ने में सारे कस-बल ढीले पड़ रहे हैं लेकिन मौज-मजे चालू आहे।

आप भी व्यस्त रहिये-मस्त रहिये।

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मंगलवार, मार्च 23, 2010

काश! तूझे जिंदगी में इरेज़र की जरूरत ही ना पड़े

और ये इरेज़र है...
शिवी का अगला सवाल था
इरेज़र क्या होता है,
मैंने कहा
जब लिखते वक्त कोई
गलती हो जाती है
तो इरेज़र से उसे मिटा देते हैं,
शिवी बोली- मिटाकर दिखाओ,
उसे दिखाने के लिए
पहले पन्ने पर आड़ी तिरछी लाइनें खींची
फिर उन्हें मिटा कर दिखाया
खुश हो गई शिवी, बहुत खुश
मैं मन ही मन सोच रहा था
मेरी लाड़ली
काश! तूझे जिंदगी में
इरेज़र की जरूरत ही ना पड़े

यहां ऊपर दी हुई बातचीत शिवेन्द्र-शिवी संवाद के अंश हैं जो आपके सामने कविता के रूप में पेश किये गये। ऊपर की फोटो शिवी की है जो कि अब दो साल 6 महीने की हो गई है,19 तारीख को उसका मुंडन हुआ है! शिवी के बारे में और अधिक जानकारी हम न दे पायेंगे काहे से कि हमको चर्चा करनी है! आपको जि्ज्ञासा हो तो आप यहां जाकर देख लीजिये-सवालों की बौछार हो रही है यहां!

आज बलिदान दिवस है। आज के ही दिन भगतसिंह और उनके साथियों को फ़ांसी दी गयी थी। इस अवसर पर कविताजी ने भगतसिंह और अन्य बलिदानी शहीदों से जुड़े ये दुर्लभ चित्र : जिन्हें देख कर आप अवश्य भावुक हो उठेंगे अपने ब्लॉग पर लगाये हैं!

पंकज समय ने भगत सिंह को याद करते हुये लिखा:
जिस उम्र में हम निरुद्देश्य घूमते हैं उस उम्र में उन्होंने फांसी के फंदे को चूम लिया. 23 मार्च 1931 को फांसी के समय वे केवल 24 साल के थे. उस समय वह गाँधी जी से भी ज्यादा लोकप्रिय थे और अपने समय के यूथ आइकोन थे. आज के फिल्म स्टारस से कहीं बडे. उन दिनों के युवा उन जैसे बनना चाहते थे.


भगतसिंह के काम करने के अंदाज के बारे में बताते हुये उन्होंने आगे लिखा:
भगत सिंह से हमारी पीढ़ी जो सीख सकती है उसमें सबसे खास बात यह है कि उन्होंने कुछ भी उत्तेजना में नहीं किया. उनके सब काम चाहे वह सांडरस की हत्या हो या एसैम्बली में बंब फेंकना, एक सोची समझी योजना का हिस्सा थे. वे एसैम्बली में बंब फेंक कर भाग सकते थे पर उन्होंने गिरफ्तार होना पसंद किया. उनका उद्देश्य था, कोर्ट की कार्यवाही को अपने विचार देश के युवाओं में फैलाने के माध्यम के रूप में प्रयोग करना.

मनोज गोयल ने भी इस मौके पर शहीदे आजम को नमन किया है।

दर्शन शाह ने भगतसिंह की पंक्तियां पेश की:उसे यह फ़िक्र है हरदम तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है
हमें यह शौक है देखें सितम की इंतहा क्या है
दहर से क्यों ख़फ़ा रहें,
चर्ख से क्यों ग़िला करें
सारा जहां अदु सही, आओ मुक़ाबला करें ।
तर्ज़-ए-ज़फ़ा = अन्याय दहर = दुनिया चर्ख = आसमान अदु = दुश्मनइसके बाद कवि भगतसिंह से गुफ़्तगू करने लगे:
ओ मेरे कवि !!
मैं तुझसे प्रभावित होना चाहता हूँ...
'तू' हो जाने की हद तक.

अनगिनत सवाल हैं भगतसिंह से पूछने के लिये दर्पण के पास वे पूछते हैं और आखिर में कहते हैं:
पूछना चाहता हूँ तुझसे और भी बहुत कुछ...
जैसे कि...
....
....
....
...चल छोड़ यार !
क़ाश तू जिंदा होता


अजीत मिश्र ने भगतसिंह के बारे में लिखी श्री चमन लाल जी का चिरस्मरणीय भगत सिंह के लेख पर टिप्पणी पेश कीं:
कोई दारु में मर गया, कोई ऐश्वर्या पर मर गया
कुछ राजनीति में पर गये कुछ बहस में मर गये
पैसे,धर्म के लिए कुछ आपस में लड़मर गये
देखते होगे भगत सिंह जब स्वर्ग से तो कहते होगें
सुखदेव हम भी किन सालों के लिए मर गये।


गौरैया दिवस के बहाने तमाम साथियों ने गौरैया को याद किया। डा.देवेन्द्र अपने लेख में गौरैया और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के लुप्त होते जाने के पीछे बाजार की भूमिका का जिक्र करते हुये लिखा:
गौरैया सिर्फ़ किसी पक्षी का नाम नही है, वे ढेर सारी चीजों, जो हमारे बीच से एक-एक कर गायब होती जा रही हैं, उनकी शक्ल, सूरत उनकी आदतें गौरैयों से मिलती-जुलती होती हैं। गाँवों की सबसे बड़ी त्रासदी है, चरागाहों और पोखरों के निशान मिट जाना। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि अब वहाँ झुण्ड के झुण्ड बकरियां, गाय, भैंसे, नही दिखतीं। ये सब गाँव के सामुदायिक जीवन की रीढ़ थे। वहीं गौरैया फ़ुदकती थी। उनके सहवास और मैथुन की आदिम गंध से बंसत महकता था। धीरे-धीरे और एक-एक कर वहाँ से वे सारी चीजें, जो पेड़ों और चिड़ियों को आदमी से जोड़ती थी, विस्थापित होती जा रही हैं। विकास और सभ्यता ? के इस क्रूर दस्तक से डरी-सहमी गौरैया अब न तो कभी हमारी स्मृतियों में चहचाती है, न सपनों में फ़ुदकती है। ढेर सारी मरी हुई गौरैयों और परियों के पंख हमारे विकास पथ पर नुचे-खुचे, छितराये पड़े हैं। सभ्यता के तहखाने में बन्द हमारी उदासी हमारी सांसों में भरती जा रही है। शायद अब कभी इन मुड़ेरों पर गौरैया नही आयेगी।


भारत में नारीवाद की क्या आवश्यकता है??? में अपनी बात रखते हुये मुक्ति ने लिखा:
नारीवाद का मुख्य उद्देश्य है नारी की समस्याओं को दूर करना. आज हमारे समाज में भ्रूण-हत्या, लड़का-लड़की में भेद, दहेज, यौन शोषण, बलात्कार आदि ऐसी कई समस्याएँ हैं, जिनके लिये एक संगठित विचारधारा की ज़रूरत है. जिसके लिये आज लगभग हर शोध-संस्था में वूमेन-स्टडीज़ की शाखा खोली गयी है. नारी-सशक्तीकरण, वूमेन स्टडीज़, स्त्रीविमर्श इन सब के मूल में नारीवाद ही है


कोई आपसे कहे कि आप हिन्दी को रोमन में लिखा करें! हिन्दी जो कि हर तरह से एक वैज्ञानिक भाषा है को लिपि के लिये रोमन का मोहताज होना पड़े जिसमें लिखी जाने वाली अंग्रेजी में बहुत कुछ साइलेन्ट होता है या फ़िर लिखा कुछ जाता है, पढ़ा कुछ जाता है तो आपको कैसा लगेगा। सुलग जायेंगे या मारे खुशी के किलकने लगेंगे। आपकी बात आप जानें लेकिन इसी तरह के एक प्रस्ताव पर राजकिशोर जी का क्या सोचना है आप देखिये इधर-रोमन कथा वाया बाईपास अर्थात हिंदी पर एक और आक्रमण

आप कविता लिखना चाहते हैं लेकिन लिख नहीं पा रहे हैं। कोई बात नहीं आपके लिये कविता की रेसिपी तैयार है:
इस लोंदे में
मिश्रित करो
अपनी प्रेरणाओं का ख़मीर।

इसे खूब गूँदो
प्यार के पानी संग।

अब
इसकी लोई बनाओ।
इस काम में खर्च कर दो
अपनी पूरी ताकत।

अरे आप तो शुरु हो गये। चलिये देखिये कैसी बनती है कविता।

कुछ लिखना है लेकिन मन नहीं बन रहा इसलिए यह लिख दिया में गिरिजेश राव ने पोस्ट लिखने के बाद पोस्ट छपने के बाद से लेकर पहली टिप्पणी आने तक ही लेखक को यह सुविधा मिलनी चाहिए कि वह पोस्ट में परिवर्तन कर सके। उसके बाद नहीं। से शुरु करके कुछ बातें लिखीं। उन्होंने टिप्पणीकर्ता के लिये भी कुछ सुविधाओं के लिये विचार किया।

आप भी देखिये आपके भी कुछ विचार होंगे इस पर। वैसे जानकारी के लिये बतायें कि जब आज से चार पांच साल पहले
हमने लिखना शुरु किया था तब इस बारे में ब्लॉगिंग से संबंधित कुछ लोगों ने अपने विचार जाहिर करते हुये लिखा था कि जो कुछ नया जोड़ा जाये पोस्ट में उसको अलग तरह से (इटैलिक करके या अलग रंग के फ़ॉंट में) पेश किया जाये ताकि यह पता चल सके कि लेखक ने क्या नया जोड़ा।

टोपोलाजी अभिषेक का प्रिय विषय है शायद । आज इसी की शुरुआत के बारे में जानकारी देते हुये उन्होंने लेख लिखा है देखिये-कोनिसबर्ग के पुलों वाली पहेली और टोपोलोजी की शुरुआत लेख रोचक है। अब पहेली है तो उसके अंश क्या पढ़ायें आपको। वहीं उनके ब्लॉग पर चलियॆ।

इसी क्रम में हमारे पसंदीदा लेकिन बहुत कम लिखने वाले हिन्दीब्लॉगर की पोस्ट देखिये। यह पोस्ट उन्होंने पाई के 22 वें जन्मदिवस( जो कि प्रख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन का भी जन्मदिन है) पर लिखी थी। इनके माध्यम से ही मुझे पता चला कि पाइ का 27 खरब अंकों वाला मान उपलब्ध है! लेकिन आप अगर पाई का मान याद रखना चाहते हैं तो उसका भी सरल तरीका है तो अंग्रेज़ी के इस वाक्य की सहायता लें- How I want a drink, alcoholic of course, after the heavy lectures involving quantum mechanics! इस वाक्य के हर शब्द के अक्षर का नंबर लिखें जैसे How-3, I-1, Want-4 और इसी तरह आगे. ऐसे में जो नंबर बनेगा उसमें बायें से एक अंक के बाद दशमलव लगाने पर Pi का मान आएगा:- 3.14159265358979

समीरलाल बिखरे भाव समेटते हुये लिखते हैं:
बगिया बगिया घूम के देखा
फूल तोड़ना सख्त मना है..
कांटो की रक्षा की खातिर
कभी न कोई नियम बना है.

नेहरूजी और सिगरेट में देखिये बजरिये दीपक गर्ग एक फोटो जिसमें नेहरूजी के होंठों के बीच सिगरेट है लेकिन सिगरेट वाला विज्ञापन नदारद है- सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है।

एक लाईना


  1. जला है कोई और मैं आग लगाने लगा हूँ :अब भाई लोकाचार में इतना तो करना ही पड़ता है!

  2. मेरी बीवी….उसकी बीवी :अलग-अलग हैं भाई!

  3. काम का प्रतिफल मिलने की खुशी :हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!

  4. देवी कैटरीना की स्तुति में कविराज अक्षय की रचना की संदर्भ सहित व्याख्या...खुशदीप :पुस्तक प्रकाशन, नोयडा कृपया किताब के लिये आर्डर बुक करायें!

  5. कॉलर को थोड़ा ऊपर चढ़ा के ....सिगरेट के धुएं का छल्ला बनाके :लिख भाई कविता ...इधर की बात उधर सटा के

  6. द्रविड़ की दीनता या दिलेरी :बूझो तो जानें

  7. नरक को भी चाहिए नायक!! :अपनी उम्मीदवारी का पर्चा भेजिये

  8. ये डीज़ल लगा-लगा कर थक़ गया आज तक़ किसी ने पलट कर देखा तक़ नही,सोचता हूं अब पर्फ़्यूम बदल ही लूं,ऐक्स इफ़ेक्ट कैसा रहेगा? :अभी तक किसी ने पलट के नहीं देखा एक्स इफ़ेक्ट के बाद देख के पलट लेंगी

  9. बाप का जूता..... :अदा जी की पोस्ट पर

  10. दुनिया की कुछ सबसे पहली और सफल इंटरनेट कंपनियों को शुरू करने में मददगार डॉटकॉम :की सिल्वर जुबली मनी आज! अरे आज नहीं भाई 15 मार्च को मन चुकी देखते भी नहीं ठीक से लिखने के पहले!

  11. स्त्री की भिन्नता का आख्यान :के टीकाकार हैं श्री जगदीश्वर प्रसाद चतुर्वेदी

  12. भारत में नारीवाद की क्या आवश्यकता है??? :अरे बहस-मुबाहिसे के लिये कुछ तो होना चाहिये भाई!

  13. रोमन कथा वाया बाईपास अर्थात हिंदी पर एक और आक्रमण :आक्रमण में सहयोगी की भूमिका निभाई है एक हिन्दी देवक ने

  14. पहाड़ की औरतें उदास सी लगती हैं :तीस की उम्र में पचास की लगती हैं

  15. बबूल और बांस: लेकर पधारे हैं ज्ञानजी

  16. समेटना बिखरे भावों का- भाग १: भाग लो!

और अंत में


हिंदी में सुमन जी nice गोली बांटते रहते हैं। गोली छोटी है और सबको बराबर मिलती रहती है। समीर जी आजकल बड़ी पुड़िया बांट रहे हैं इसका भी असर जोरदार है वे बताते हैं:
हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!

लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.

अनेक शुभकामनाएँ.

ज्ञानजी ने एक अपनी एक पोस्ट में इसी तरह के हिन्दी को बढ़ावा देने वाली समीरजी की टिप्पणी को प्रकाशित करके कमेंट बन्द कर दिये थे क्योंकि उनको हिन्दी ब्लॉगरी को बढ़ावा देने का श्री समीरलाल का अभियानात्मक प्रवचन पसन्द नहीं आया था। कल की पोस्ट में ज्ञानजी ऐसा नहीं कर पाये। इससे हिन्दी की बढ़ती ताकत का अंदाजा लगता है। हिंदी प्रचार अभियान पर किसी किसिम की बंदिश बहुत दिन तक नहीं लगाई जा सकती।

कल एक लाईना पेश करते-करते भी नहीं कर पाये। आज इसीलिये कोई वायदा नहीं।

आपका दिन झकास बीते। खुश रहें ,मस्त रहें। और सब तो चलता ही रहता है।

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सोमवार, मार्च 22, 2010

जल दिवस, कविता दिवस और गौरैया दिवस


आजकल रोज कोई न कोई दिवस हो जाता है। आज विश्व जल दिवस है। कल कविता दिवस निकल गया। इसके पहले पहला विश्व गौरैया दिवस मनाया गया। सबसे पहले बात आज की जाये। विश्व जल दिवस के मौके पर सचिन मिश्र ने पानी बचाने का आवाहन करते हुये पानी रिचार्ज करने की जरूरत पर जोर दिया। उन्होंने रोजमर्रा के कार्यकलापों में होने वाले पानी के अपव्यय का विववण दिया जिए बचाया जा सकता है:-
स्नान करने के क्रम में लगातार झरना बहाने से नब्बे लीटर पानी बहता है। साबुन लगाते समय झरना बंद कर देने से सत्तर लीटर पानी बचाया जा सकता है।
-ब्रश करते समय चलता हुआ नल पांच मिनट में पैंतासील लीटर पानी बहाता है। मग का इस्तेमाल कर 44.5 लीटर पानी की बचत की जा सकती है।
- हाथ धोने के दौरान खुला नल दो मिनट में 18 लीटर पानी बहाता है। हाथ धोने में मग के इस्तेमाल से 17.75 लीटर पानी बचाया जा सकता है।
- शेविंग के वक्त बहता हुआ नल दो मिनट में 18 लीटर पानी बहाता है। मग से शेविंग कर 16 लीटर पानी की बर्बादी रोकी जा सकती है।

सोनल रस्तोगी ने इसी बात को पानी से संबंधित कुछ मुहावरे पेश करते इस अंदाज में कहा:
अभी तो ये पानी क्या क्या रंग दिखाएगा
पानी ही नहीं होगा जो बंधू
तू कैसे धोएगा और कैसे नहायेगा


इसके पहले विश्वगौरैया दिवस पर आई पोस्टों में अधिकतर लोगों ने गौरैया के साथ जुड़ी अपनी यादों के बारे में बताते हुये गौरैया की कम होती संख्या पर चिंता करते हुये पोस्टें लिखीं हैं। देखिये:
नित्या शेफ़ाली गौरैया कविता में लिखती हैं:
रोज सुबह आती गौरैया
गीत नये गाती गौरैया
उठ जाओ तुम नित्या रानी
कह के मुझे जगाती गौरैया।

चीं चीं चूं चूं मीठी बोली
दाना मांग रही गौरैया
अम्मा जल्दी दे दो चावल
भूखी है प्यारी गौरैया।


हेमंत कुमार गौरैया को वापस लौट आने का आवाह्न करते हैं इस वायदे के साथ
लौट आओ फ़िर से हमारे
आंगन और खपरैलों पर
मैं तुम्हें कर रहा हूं आश्वस्त
अब नहीं कहेंगी मां तुम्हें कभी
ढीठ गौरैया
नहीं रंगेंगे पिताजी
तुम्हारे कोमल पंखों को
गुलाबी रंग से
नहीं डांटेगा
तुम्हें कोई भी
शैतान गौरैया कहकर।

हेमंत जी का एक कविता संग्रह है-“बया आज उदास है”! लेकिन बात यह है कि जब हम पक्षियों को देखेंगे ही नहीं तो उसकी उदासी को कैसे महसूस करेंगे! यही शायद कृष्ण कुमार यादव की चिंता है:
प्रकृति को
निहारना तो दूर
हर कुछ इण्टरनेट पर ही
खंगालना चाहते हैं।
आखिर
इन सबके बीच
गौरैया कहाँ से आयेगी ?

लेकिन मनोज मिश्र ऐसे नहीं हैं। उनका गौरैया का साथ लगातार बना हुआ है। मनोज लिखते हैं:
मुझे अपने पर बड़ा गर्व भी हो रहा था वह इसलिए कि बचपन से अब तक, मेरे घर में एक साथ विभिन जगहों पर एक-दो-तीन नहीं बल्कि कई दर्जन गौरैया रह रहीं हैं.जब से जाननें-समझनें की समझ विकसित हुई तब से अपनी भोजन की थालियों के आस-पास उन्हें मंडराते देखा है. अभी -अभी शाम को मैंने इनकी गिनती की ,अभी भी ये १४ की संख्या में घर में हैं.हम सब के यहाँ परम्परा से, एक लोक मत इस चिड़िया को लेकर है वह यह कि -जिस घर में इनका वास होता है वहाँ बीमारी और दरिद्रता दोनों दूर-दूर तक नहीं आते और जब विपत्ति आनी होती है तो ये अपना बसेरा उस घर से छोड़ देती है


सलीम खान के लेख का शीर्षक ही सब कुछ बता देता है कि उन्होंने क्या लिखा है! शीर्षक देखिये-जब 'गौरैया' ने हमारे घर में घोंसला बनाया था, ऐसा लगा मानो घर में कोई मेहमान आया था: "विश्व गौरैया दिवस" पर विशेष अब बाकी का किस्सा उनकी पोस्ट पर देखिये। वहां गौरैया के फ़ोटो भी हैं। वैसे फ़ोटो तो मनोज मिश्र की पोस्ट पर भी देखने वाले हैं।

गिरीश पंकज लिखते हैं :
आँगन में जब आती चिड़िया
मेरे मन को भाती चिड़िया

मै उससे बातें करता हूँ,
मुझसे भी बतियाती चिड़िया

बड़े प्रेम से चुन-चुन कर के,
इक-इक दाने खाती चिड़िया

जल, छाँव और मुझे बचाओ
हरदम यह बतलाती चिड़िया

जल, छांव और मुझे बचाओ मतलब जल, पेड़ और गौरैया। जब ये बचेंगे तब ही मानव बचेगा।

पूजा अग्रवाल ने भी गौरैया के बारे में बताया और उसको बचाने का आवाहन किया। यहां बालसभा में गौरैया की चिंता के बारे में बताया गया है। देखिये।

पूनम श्रीवास्तव गौरैया के दर्द को इस तरह बयान करती हैं:
रोज बाग में आती थी गौरैया
इक इक दाना चुगती थी
दाने अपने मुख में भरकर
बच्चों का पेट वो भरती सारे।
अब गौरैया बैठी दीवारों पर
ले बच्चों को बिलख रही
जाऊं तो जाऊं कहां
छोड़ के बच्चे प्यारे प्यारे।

अम्बरीश श्रीवास्तव भी गौरैया के लुप्त होते जाने से चिंतित हैं और आज के परिवेश में एक प्रश्न सभी से पूछते हैं!

अपनी एक पुरानी कविता को गौरैया के बहाने ठेलते हुये अनूप शुक्ल गौरैया के माध्यम से समाज में महिलाओं की स्थिति के बारे में लिखते हैं :
कभी-कभी मुनिया गौरैया से कहती होगी -
अम्मा ये दरवाजा खुला है,
आओ इससे बाहर निकल चलें,
खुले आसमान में जी भर उड़ें।

इस पर गौरैया उसे,
झपटकर डपट देती होगी-
खबरदार, जो ऐसा फिर कभी सोचा,
ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।


इसकी देखा-देखी विवेक ने भी कविता लिख मारी दस मिनट में:
दिन यह तेरे नाम कर दिया
बहुत बड़ा यह काम कर दिया
तुझको आज सलाम कर दिया
पंख जरा फैला गौरैया
एक बार फिर आ गौरैया

तेरी बहुत याद आती है
यूँ तो रूठ न जा गौरैया


पाखी गौरैया से जुड़ी अपनी यादों को ताजा करते हुये बताती हैं :
मुझे गौरैया बहुत अच्छी लगती है। उसकी चूं-चूं मुझे खूब भाती है. कानपुर में थी तो हमारे लान में गौरैया आती थीं. उन्हें मैं ढेर सारे दाने खिलाती थी. दाने खाकर वे खुश हो जातीं और फुर्र से उड़ जातीं. हमारे लान में एक पुराना सा बरगद का पेड़ था, उस पर गौरैया व तोते खूब उधम मचाते. वहीँ एक बिल्ली भी थी, वह हमेशा उन्हें खाने की फ़िराक में रहती. उस बिल्ली को देखते ही मैं डंडे से मारने दौड़ती.


संजीव तिवारी इस मौके पर सवाल करते हैं-तेजी से कांक्रीटमय होती शहरी धरती में कहीं कोई पेड भी है जिसे मैंनें लगाया है.

साधना वैद इस मौके पर कविता लिखती हैं:
रंग बिरंगे तेरे डैने मेरे मन को भाते हैं ,
मैं भी तेरी तरह उड़ूँ ये सपने मुझको आते हैं ,
आसमान में अपने संग मुझको भी लेकर उड़ जा तू !

प्यारी चूँ-चूँ आ जा तू भोली चूँ-चूँ आ जा तू !
सबका दिल बहला जा तू नन्हीं चूँ-चूँ आ जा तू !


राजेश भारती अपने बीते समय को याद करते हैं:
गर्मियों की छुट्टियों में जब मैं अपनी नानी के गांव जाता था, तो वहां पर भी गौरेया का झुंड सुबह से ही चहचहाने लगता था। ऐसा लगता था जैसे कि मानों संगीत की मधुर धुनें बज रही हैं, जिन्हें प्रकृति अपने हाथों से सारेगामापा का स्वर दे रही है। जब भी मैं स्कूल से लौटकर घर आता था, तो अक्सर मेरी पहली मुलाकात मेरे घर के पेड़ पर रहने वालीं गौरेया और गिलहरियों से होती थी। गिलहरियों को हम सब (मेरे घर से सदस्य) गिल्लो कहकर बुलाते थे। एक आवाज़ पर ही सभी गिल्लो चीं...चीं...चीं... करती हुईं पेड़ से उतरकर नीचे आ जाती थीं और हमारे साथ बैठकर खाना खाती थीं। मेरी गली के लोग भी कहते थे, 'आपके द्वारा पाली गईं गिलहरियों को देखकर विश्वास नहीं होता कि ये लोगों से इतनी घुलमिल सकती हैं।'


नवीन की तमाम यादें और कुछ चिंतायें हैं:
अब यह सब सिर्फ यादों में है। मेरे बच्चे गौरैया को नहीं पहचानते। उनके बचपन में गौरैया का खेल और चहचहाना शामिल नहीं रहा। नीची छतों और आंगन विहीन घरों में गौरैया नहीं आती। बहुमंजिला अपार्टमेण्ट्स के आधुनिक फ्लैटों में गौरैया की जगह नहीं और इन फ्लैटों के बिना हमारा ‘विकास’ नहीं।

गौरैया को बचाने की, घरों में उसे लौटा लाने की नेक और मासूम पहल का साधुवाद। लेकिन गौरैया की चीं-चीं-चीं किस खिड़की, किस रोशनदान, किस आंगन और किसी धन्नी से हमारे घर में लौटेगी?


देवेंद्र मेवाड़ी जी गौरैया के बारे में लिखने बैठे लेकिन देखिये गौरैया उनके सामनेक्या कर गयीं :
लो, इतनी देर में देखते ही देखते दो गौरेयां सूखी मिट्टी भरे मेरे गमले में धूल-स्नान भी कर गईं। चुपके से मुझे लिखते हुए देखा। देखा, मुझसे कोई खतरा नहीं है। गौरेया आई, गमले में उतरी और बीच-बीच में सिर उठा कर देखते हुए जम कर धूल-स्नान कर गई। वह हलके भूरे रंग की मादा थी। शायद उसी ने बताया हो, उसके बाद नर गौरेया आ गई। सिर, चौंच से लेकर छाती तक काली। भूरी पीठ पर काली लकीरें। उसने भी पहले भांपा, फिर गमले में उतर कर धूल-स्नान कर लिया।


देवेंद्र जी के दोनों लेख बहुत सुन्दर हैं देखियेगा। अब जब हमारे यहां गौरैया दिवस मनाया जायेगा तो भला पड़ोस कैसे अछूता रहेगा इससे। सो पड़ोसी
देश पाकिस्तान में भी मनाया गया यह दिवस। देखिये काजल कुमार की कार्टून रपट बगल में नत्थी है।

नवीन जोशी के इस फोटो को गूगल अर्थ के लिये सुना गया है! बधाई! पोस्ट की शुरुआत का फोटू यही है।

एक लाईना


  1. रीठेल : हमारी छुट्टी का विवरण :ले झेल

  2. वक़्त वक़्त की बात है :अब अध्यापक शिक्षक कम और कस्टमर केयर के डेस्क पर बैठे ज्यादा लगते हैं

  3. :

  4. :

  5. :

और अंत में


फ़िलहाल इतना ही। एक लाईना अभी जुड़ते रहेंगे शाम तक। आइये पलट के देखने।
आपको आजका दिन मुबारक। आपका हफ़्ता झकास शुरू हो।

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रविवार, मार्च 21, 2010

2009 के टॉप #10 सड़ियल, भयानक ब्लॉग

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ठंड रखिए, धीरज धरिए. आपको अभी बताते हैं. पर, क्या आप पचा पाएंगे? जब टॉप / शीर्ष के अच्छे ब्लॉगों के बारे में बताया जाता है तो तब इतना  भयंकर जूतम पैजार, हो हल्ला मचता है हिन्दी ब्लॉग जगत में, ऐसे में हिन्दी के टॉप #10 सड़ियल ब्लॉगों की सूची यदि हम (चाहे जितने भी जेनुइन तरीके से,) यहाँ पेश करेंगे, तो चिट्ठाचर्चा समेत चर्चाकार को तो फिर लोगबाग नेट पर कहीं गाड़ ही देंगे.

लिहाजा, ऐसे किसी भी एडवेंचर को सिरे से ख़ारिज करते हुए हम आपको विश्व के टॉप #10 सड़ियल ब्लॉगों की सूची यहाँ देते हैं. और, जानते हैं, सूची में सबसे पहले नंबर पर किसका ब्लॉग विद्यमान है?

पेरिस हिल्टन का.

पूरी, श्रेणीबद्ध सूची वैसे तो यहाँ है, और कैसे किस तरह से बनाई गई, यह ऑथेंटिक प्रक्रिया भी वहीं दी गई है. मगर आपको शायद टॉप #10 सड़ियल ब्लॉगों की सूची में ज्यादा दिलचस्पी हो तो सूची ये रही -

  1. Perez Hilton (आपकी सूचना के लिए बता दें कि इस चिट्ठे को पूरे वोटों में से आधे से अधिक वोट मिले,)
  2. Daily Kos
  3. Huffington Post
  4. I Can Has Cheezburger
  5. TMZ
  6. Think Progress
  7. My Life is Average
  8. Talking Points Memo
  9. Wonkette
  10. Drudge Report

 

आपने सड़ियल ब्लॉगों को तो देख लिया. भयानक ब्लॉगों के बारे में क्या विचार है? आप कहेंगे कि हिन्दी में तो भयानक ब्लॉगों की लाइन लगी हुई है. ठीक है, हिम्मत है तो जरा ऐसी सूची पेश कर बताएँ. मेरी हिम्मत तो ख़ैर, नहीं ही है, भले ही आप मुझे ताली बजाने वाला समझ लें. मगर मैं आपको (अंग्रेज़ी के) भयानक ब्लॉगों की सूची की ये कड़ी जरूर टिकाता हूं. विचरण करें और देखें कि कैसे कैसे भयानक ब्लॉग हो सकते हैं! और, अगर आपको आज की ये चर्चा भयानक, सड़ियल लगी हो तो आप इसी स्थल पर पंजीकृत होकर इस चिट्ठे को वहां दर्ज कर दें. दीगर पाठकों को पता तो चले…

चलते चलते – कुछ निहायत अलग किस्म के ब्लॉगों पर नजर यहाँ डालें.

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शनिवार, मार्च 20, 2010

हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर!

हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर

नमस्कार मित्रों! मैं मनोज कुमार एक बार फिर चिट्ठा चर्चा के साथ हाज़िर हूँ।

अधिकतर यह आवश्यक नहीं होता कि हम गद्य या पद्य पर कुछ कहें ही। इस मंच से जब मैं जुड़ा तो मुझे लगा कि मेरा काम है कुछ चिट्ठॊं को आप तक इस तरह पहुँचाऊँ ताकि आप उसे पढने को प्रेरित हो जाएं। पोस्टों में प्रस्तुत विचार, अभिव्यक्ति और शिल्प हमें अभिप्रेरित कर दे कुछ लिखने या कहने के लिए, यह अलग बात है। और अगर ऐसा होगा तो मैं सीधे उस ब्लॉग पर जाकर करूँगा। इस मंच से नहीं।

आजकल ब्लॉग रचनाएं ह्रासमान मानवीय मूल्यों का चित्र ही नहीं उकेरती बल्कि उन मूल्यों की रक्षक पीढ़ी की वेदना को भी समानान्तर चित्रित करती चलती है। प्रेम के बदले उपेक्षा और उपकार के बदले तिरस्कार से आहत वर्ग अपने अन्तर्द्वद्व, दुःख और कष्ट को आशा, स्नेह और उपकार के आवरण से ढके रहता है। इन सबके मूल में है वह सुख जो दूसरों की आँखों में देखने की चाह में बहुत कुछ सहने के लिए प्रेरित करता है और दूसरों की आँखों में दिखने पर वह अपार हो जाता है।

भौतिकवाद की गणित में हर चीज को तौलने वाले अभिमानी-अहंकारी वर्ग की न तो उन मूल्यों तक पहुँच है और ना ही उसके पीछे छिपी संवेदना की समझ। क्योंकि उसने विविध प्रकार के आग्रहों की ऊँची-ऊँची दीवारों से स्वयं को घेर रखा है। इसीलिए उसे संवेदना की उस भाषा की अनुभूति ही नहीं होती। समाज में व्याप्त संकुलित संवेदनहीनता से रचनाकार आहत तो है लेकिन निराश नहीं है और उसे सत्य से साक्षात्कार के लिए हृदय से निकली भाषा अधिक प्रभावशाली जान पड़ती है।

हम सर्वसाधारण जन सीधे तौर पर विभिन्न विधाओं में रचित साहित्य का आनन्दम लेना चाहते हैं। सीधी लकीर खींचना एक टेढ़ा काम होता है!शायद चर्चाकार के लिए भी यही मानदण्‍ड होता है।

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तो चलिए चर्चा शुरु करते हैं।

एक सतत युद्धक ज्ञान जी के मनसिक हलचल का कारण बना हुआ है। वह हतप्रभ हैं इस गांधीवादी साइट के अटैक करने से! ये सज्जन उनके कम्प्यूटर पर हमला करते हैं, वह भी छिप कर, उन्हें शर्म नहीं आती! अरे, हमला करना ही है तो बाकायदे लिंक दे कर पोस्ट लिख कर करें, तब वे बतायेंगे कि कौन योद्धा है और कौन कायर! यह बगल में छुरी; माने बैक स्टैबिंग; हाईली अन-एथिकल है! शायद ज्ञान जी को नहीं पता कि सज्जन लोग कहीं लिंक नहीं देते। न उधर न इधर! लिंक देने से ब्लॉग का विकास जो ठहर जायेगा!

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हिन्दी अकादमी, दिल्ली के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब केदारनाथ सिंह सहित कुल सात साहित्यकारों ने पुरस्कार लेने से इनकार कर दिया। हिन्दी अकादमी की ओर से कृष्ण बलदेव वैद को शलाका सम्मान से वंचित रखने के मामले को लेकर हिन्दी साहित्य जगत में ऐसी स्थिति पैदा हो गई है। साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने भी केदारनाथ सिंह के निर्णय का समर्थन करते हुए कहा कि शलाका सम्मान की परंपरा को ही खत्म करना चाहिए। इस विषय पर जानकारी देते हुए अमित कुमार जी प्रश्‍न करते हैं कि यह हिंदी का उद्धार है या हिंदी का मजाक?

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एक विचारोत्तेजक आलेख प्रस्तुत करते हुए आकांक्षा जी बताती हैं कि लगता है हिंदी के अच्छे दिन नहीं चल रहे हैं। अभी तक हम हिंदी अकादमियों का खुला तमाशा देख रहे थे, जहाँ कभी पदों की लड़ाई है तो कभी सम्मानों की लड़ाई। अब तो सम्मानों को ठुकराना भी चर्चा में आने का बहाना बन गया है। साहित्य कभी समाज को रास्ता दिखाती थी, पर अब तो खुद ही यह इतने गुटों में बँट चुकी है कि हर कोई इसे निगलने के दावे करने लगा है। आगे कहती हैं हिन्दी की तलाश अभी जारी है, यदि आपको दिखे तो अवश्य बताईयेगा !!

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शेफाली जी पूछ रही हैं पता नहीं सोने को आदिकाल से लोगों ने अपने सर पर क्यूँ चढ़ा रखा है? अब सोना तो सोना है! कनक कनक ते सौ गुना मादकता अधिकाई । उहि खाए बौरात जन इतिं पाए बौराई ॥ जिसको पाने से ही लोग बौरा जाते हैं तो ज़ाहिर है कि सोना पीढ़ियों से लोगों को तोड़ने का काम करता आया है। इसके कारण कभी तिजोरियां टूटतीं हैं, तो कभी ताले! सास अपने जेवरों को तुड़वा - तुड़वा कर बहुओं और बेटियों के लिए जेवर बनवाती है। कमर के साथ-साथ वह खुद भी टूट जाती है, और जब जेवर बांटती है, तो क्या बेटी क्या बहू , दोनों के दिल टूट जाते हैं हर कोई यही समझता है कि दूसरे को ज्यादा मिला है। साथ ही एक और राजनीति चल रही है, नोटों के माला पहनने और पहनाने की। इस आलेख के साथ साथ उन्होंने एक बहुत ही ख़ूबसूरत नोट ग़ज़ल भी प्रस्तुत की है

फिर छिड़ी रात, बात नोटों की

बात है या बारात नोटों की.

नोट के हार, नोट के गजरे

शाम नोटों की, रात नोटों की.

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गौरैया हमारे जीवन का एक अंग है मनुष्य जहाँ भी मकान बनता है वहां गौरैया स्वतः जाकर छत में घोसला बना कर रहना शुरू कर देती है। विश्‍व गौरैया दिवस पर सुमन जी एक सूचनाप्रद आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं। साथ ही यह संदेश भी दे रहे हैं कि मनुष्य जाति को इससे सबक लेना चाहिए कि पक्षी अपने बच्चो की निस्वार्थ सेवा कर योग्य बनते ही मुक्त कर देते हैं और हम पीढ़ी दर पीढ़ी दूसरों का हक़ मार कर बच्चो को बड़े हो जाने के बाद भी आने वाली पीढ़ियों के लिए व्यवस्था करने में लगे रहते हैं जिससे अव्यस्था ही फैलती है और असमानता भी ।

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संगीता पुरी जी एक सार्थक आलेख के द्वारा समझा रही हैं कि केमद्रुम योग कोई योग ही नहीं , जिससे कोई अनिष्‍ट होता है। ज्‍योतिष के इन्‍हीं कपोल कल्पित सिद्धांतों या हमारे पूर्वजों द्वारा ग्रंथों की सही व्‍याख्‍या न किए जाने से से ज्‍योतिष के अध्‍येताओं को ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो पाती है और वे ज्‍योतिष को मानने तक से इंकार करते हैं। आज भी सभी ज्‍योतिषियों को परंपरागत सिद्धांतों को गंभीर प्रयोग और परीक्षण के दौर से गुजारकर सटीक ढंग से व्‍याख्‍या किए जाने हेतु एकजुट होने की आवश्‍यकता है , ताकि ज्‍योतिष की विवादास्‍पदता समाप्‍त की जा सके और हम सटीक भविष्‍यवाणियां करने में सफल हो पाएं !!

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जी.के. अवधिया जी ने एक सार्थक बहस के ज़रिए यह कहा है कि परतन्त्रता में तो हिन्दी का विकास होता रहा किन्तु जब से देश स्वतन्त्र हुआ, हिन्दी का विकास तो रुक ही गया उल्टे उसकी दुर्गति होनी शुरू हो गई। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद शासन की नीति तुष्टिकरण होने के कारण हिन्दी को राष्ट्रभाषा के स्थान पर "राजभाषा" बना दिया गया। विदेश से प्रभावित शिक्षानीति ने हिन्दी को गौण बना कर अग्रेजी के महत्व को ही बढ़ाया। हिन्दी की शिक्षा धीरे-धीरे मात्र औपचारिकता बनते चली गई। दिनों-दिन अंग्रेजी माध्यम वाले कान्वेंट स्कूलों के प्रति मोह बढ़ते चला गया और आज हालत यह है कि अधिकांशतः लोग हिन्दी की शिक्षा से ही वंचित हैं। हिन्दी के साथ जो कुछ भी हुआ या हो रहा है वह "जिस थाली में खाना उसी में छेद करना" नहीं है तो और क्या है? इस आलेख में विषय को गहराई में जाकर देखा गया है और इसकी गंभीरता और चिंता को आगे बढ़या गया है।

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आखर कलश पर पढिए एक-से-बढकर एक दिनेश कुमार की पांच ताज़ा ग़ज़लें। कुछ शे’र देखिए

शहर डूबा है कैसी ख़ुशी में

हादसे हो रहे हैं गली में.

इस क़दर सीधा लगा कि दिल का आँगन हिल गया

किसके हाथों के निशाँ हैं देखना इस तीर में.

मेरे दिल की सूनी हवेली में अकसर

उतरती हैं परियाँ ग़ज़ल गुनगुनाने.

कभी क़हक़हे रख दिए रू-ब-रू

हँसी ही हँसी में रुलाया गया.

फस्ले-गुल में ये उदासी कैसी

इन दरख्तों को हिलाकर देखो.

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जिनमे जज्बा हो, लगन हो, ईमानदारी हो, और जो परिश्रमी हों, उन्हें थोड़ी सी अच्छी किस्मत का साथ मिले तो , सफलता उनसे दामन नहीं छुड़ा पाती। रश्मि रविजा जी एक अच्छा और प्रेरक प्रसंग प्रस्तुत कर रही हैं देवा की। पढ़कर आपको भी यक़ीं नहीं होगा कि आज के युग में भी ऐसे ईमानदार लोग होते हैं। इस प्रसंग पर अविनाश जी का कहना है रश्मि जी आपकी पारखी नजर को सलाम है। अब सतयुग आने ही वाला है। चाहे कितने ही नोटों की मालाएं नेताओं को पहनाई जाएं पर वे हार ही पहनेंगे और ईमानदार सदा ही जीतेंगे जीवन के प्रत्‍येक मोर्चे पर नेकता के साथ।

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थोड़े महँ जानिहहिं सयाने।

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देखना हो यदि आपको बर्फ़ और बर्फ़बारी

तो चले जाएं पराया देश बिना किसी तैयारी॥

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अमीर धरती ग़रीब लोग पर आपको मिलावा दें।

सीजन परीक्षा का, गैस पेपर और ख़ूबसूरत यादें॥

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सरस पायस पर रवि जी की सजी हुई फुलवारी है।

हर कलियां मुस्का कर कह्ती मेरी शोभा प्यारी है॥

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सुखदा कथा का अंत भला तो सब भला

वीर बहुटी पर लेकर आई दीदी निर्मला॥

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कांधे मेरे तेरी बंदूक के लिये नहीं है।

कह रही वाणी जी, जहां प्रेम है शांति वहीं है॥

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बच्चे अपने स्वाभाविक बाल सुलभ बचपन से हो गये हैं दूर

अजय कुमार झा का यह विचारोत्तेजक अलेख पढिए ज़रूर॥

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वंदना कर रही वंदना, जिससे दूर हो ब्लॉगरों की परेशानी।

जो कोई मनसे गाए मन वांछित फल पाए ॐ जय ब्लोग्वानी॥

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शायद ही कोई विषय बचा हो शास्त्री जी की कलम से

श्यामपट पर कविता लेकर हैं मुखातिब आज वो हम से॥

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ज़माने की हक़ीक़त अलग सा यहां है।

माँ का हाल पूछ्ने की फ़ुर्सत कहाँ है?

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स्वागतम ... नए चिट्ठे

आज 17 नये चिट्ठे जुड़े हैं चिट्ठाजगत के साथ। इनका स्वागत कीजिए।


1. Amazon.com (http://amazon-dotcom.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: Jerry Jose

2. टक्कर (http://takkkar.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: Pawan Rana

3. हिंदी हैं हम.. (http://tulishri.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: Astha Deo

4. Janbharat Mail Hindi Daily (http://janbharatmail.wordpress.com)
चिट्ठाकार: janbharatmail

5. han log badal jate hain (http://hanlogbadaljatehain.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: हाँ लोग बदल जाते हैं...

6. rjanand.blogspot.com (http://rjanand.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: rjanand.blogspot.com

7. Degloor by Sushant Mundkar (http://sushantmundkar.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: Sushant Mundkar

8. HINDI POEMS (http://hindipoemsfan.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: www.vikasblog.com

9. Time pass (http://bajajra.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: Ramawatar

10. bahinabai chaudhari (http://bahinabai.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: प्रेमहर्षल

11. Badri-Kedar yatra (http://badrikedaryatra.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: Puneet

12. mujhe kuch khna hai (http://sneha-mujhekuchkhnahai.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: sneha

13. " NO RULE" Is My Rule. " (http://sarojnanda.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: Big Dreams

14. रांचीनामा (http://ranchi-darpan.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: मुकेश कुमार

15. मेरी आवाज़ में थोड़ा सच (http://aawajdeepika.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: DEEPIKA SHARMA

16. विचारों के बुलबुले... (http://vikrantkasafar.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: Vikrant

17. मेरे हमदम (http://merehamdam.blogspot.com/)
चिट्ठाकार: Ratnesh

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आज का सबसे ज़्यादा पसंदीदा

चिट्ठा जगत पर दिख रहे सबसे अधिक टिप्पणियों के आधार पर ...

भजलकार ताऊ एण्ड पार्टी की दूर हुई उदासी रे।

टिप्पणी दीजो पाठकनाथ उनकी पोस्टवा प्यासी रे।।

भजल कीर्तन भी सब कर रहे लेकर प्रभु का नाम।

रघुपति राघब राजाराम ब्लाग नगरिया पावन धाम॥

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हमारी पसंद

आज की हमारी पसंद है हिमांशु जी की पोस्ट।

हिमांशु जी अपनी पोस्ट कह दिया मैंने द्वारा अत्यंत सारगर्भित विचार पेश कर रहे है। विचारों का जीवन में विशेष महत्‍व है। उच्‍च, सद्विचारों से मनुष्‍य संघर्षों से जूझ सकता है। इस असाधारण शक्ति के पद्य की बुनावट जटिल तो है पर विषय को कलात्‍मक ढंग से प्रस्तुत करती है। उनकी इस काव्यात्मक अभिव्यक्ति में सत्य की तलाश स्पष्ट है। इस कविता में अज्ञात की जिज्ञासा, चित्रण की सूक्ष्मता और रूढ़ियों से मुक्ति की अकांक्षा परिलक्षित होती है।

मेरी अपनी एक ज़िद है
रहने की, कहने की
और उस ज़िद का एक फलसफ़ा ।

यूँ तो दर्पण टूट ही जाता है
पर आकृति तो नहीं टूटती न !

उसने मेज पर बैठी मक्खी को
मार डाला कलम की नोंक से
क्या मानूँ इसे ?
विगत अतीत में
दलित हिंसा की जीर्ण वासना का
आकस्मिक विस्फोट ?

पुरुषार्थ क्या इक्के का टट्टू है
असहाय, संकल्पहीन ?
बरज नहीं तो गति कैसी,
विरोध नहीं तो उत्कर्ष कैसा !

प्राण में प्राण भरना
आदत हो गयी है मेरी

इसके मूल में परिवर्तन है,
वही परिवर्तन
जो प्रकृति में न घटे
तो प्रकृति प्राणहीन हो जाय

साधन कितने बढ़ गये हैं आजकल
रावण के मुख की तरह,
पर मन तो
एक ही था न रावण का !
विविधता का मतलब आत्मघात तो नहीं ?

जिस असंगति पर
उसका खयाल नहीं
मुझे पता है उसका,
यांत्रिक संगति से
काम नहीं होता मेरा,
प्राण-संगीत की लय पर
झूमता है मेरा कंकाल,
जानता हूँ श्रेष्ठतर मार्ग
पर
हेयतर मार्ग पर चलता हूँ ..
क्योंकि
जानता हूँ
कर्म और सिद्धांत की असंगति ।

बस मेरे खयाल में न्याय है
हर किस्म का,
हर मौके,
हर तलछट का न्याय
क्योंकि
न्याय
सामाजिक व्यवस्था से
कुछ ऊपर की चीज है मेरे लिये,
भोग है एक आन्तरिक,
रसानुभूति है !

*** *** ***

चलते-चलते

कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥

*** *** ***

भूल-चूक माफ़! नमस्ते! अगले हफ़्ते फिर मिलेंगे।

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