गुरुवार, मार्च 29, 2007

कहाँ गया नारद?

चिट्ठाचर्चा सूनसान पड़ा, चर्चा कहाँ गायब
अनुपजी से बतलाया यूँ, तुम ही करो अब
जीतू का टर्न था, वे गये छूट्टियाँ मनाने
फ्री तो हूँ ‘कविराज’, पर नहीं मेरा मन
तुम्ही हो कर्णधार इसके, कहकर फुसलाया
ख़बर लेने का मौका है, धिरे से समझाया
उनकी यह चाल अनोखी मैं समझ न पाया
ऐसे वक्त में नारद ने भी मुझे अंगुठा दिखलाया

इस बुरे वक्त में गुरूदेव ने धैर्य न खोने का संदेश भेजा, जिसमें लिखा था कि वे मेरे साथ हैं। मैने अपने आपको हल्का महसूस किया और सोचा गुरूदेव निश्चय ही 70 फिसदी चर्चा लिखकर भेज देंगे। मगर उन्होने जो मेल भेजा, उसमें यह निकला :(

नारद को फिर देखिये, नज़र लगी है आज
चिट्ठाचर्चा किस तरह, होगी अब कविराज
होगी अब कविराज कि कुछ तो रस्ता होगा
हिन्दी-ब्लॉग का आज ही पूरा सुख भोगा
कहे कविराज धन्य हैं प्रतीक को पा कर
चर्चा तो कर पायेंगे, जब नदारत रहें नारद.
(गुरूदेव के सौजन्य से...)
हिन्द-युग्म पर सामूहिक कविता लेखन का प्रयास हुआ है। एक ही विषय पर दस रचनाकारों द्वार लिखी रचनाएँ कहीं ना कहीं एक दूसरे से गुंथी हुई नज़र आ रही है। शैलेशजी जरूर थोड़े अलग-थलग दिखाई दे रहे हैं। काव्य-पल्लवन नाम से शुरू किया गया यह प्रयास कितना सफल हुआ है यह तो पाठक तय करेगा मगर प्रयास अच्छा है। गुरूदेव के शब्दों में कहूँ तो प्रयास हमेशा ही अच्छा होता है, कैसा भी हो, प्रयास होना चाहिये।

अब तू ही बता ,
तेरे कृष्ण की बंसी
जैक्सन की चिल्ल-पों के आगे
क्या है ?
गोकुल की सारी गोपियाँ
संस्कृति के उबाऊ कपड़े
फाड़-फेंककर
' बेब' हो गयीं
और तू,
राधिका, गँवार हो गयी।
कमल शर्माजी तेल के खेल पर अच्छा लेख लिखे हैं और राजेश कुमारजी समुन्द्र तट के कुछ शानदार पोज लेकर लाये है। आशीष शर्मा जी प्रेम-प्रेरित-कविता लेकर आये हैं –

प्रेम में सबकुछ अच्‍छा लगता है
बेगाने भी अपने लगते हैं
और प्रेम में सब दिवाने लगते हैं
सब मर्ज की एक दवा
करो प्रेम सभी से
पड़ोसी से लेकर पड़ोसी मुल्‍क तक
बातें हो सिर्फ प्रेम
कविराज हेल्प-हेल्प करते दौड़ रहें है, समस्या भी अजीब दिखती है मगर उससे भी अजीब है ओसामा के हाथ में कमण्डल!, बच्चा है क्या करें? बड़ी-बड़ी दाढ़ी देखकर बाबा समझ बैठा और थमा दिया। बहुत ही रोचक काव्य-प्रस्तुति है दूबेजी की

उसने आज भी
चित्र बनाये हैं-
बापू के हाथ में लाठी की जगह फरसा
सुभाष के हाथ में
हथगोला
और लादेन के हाथ में
कमन्डल और माला।
शायद बडी हुई दाढी ने
उसे भ्रमित किया है।
अन्य प्रविष्टियाँ -

टाईमपास में पाकिस्तानी क्रिकेटरों के कार्टून।

कॉफी हाऊस में दो दिन का रोमांच बिलकुल मुफ्त क्योंकि बसंत दस्तक दे रहा है

गीतकार अपने अनुठे अंदाज में परिवार की बातें कर रहे हैं।

मनिषाजी बता रही हैं कि सरकारी नौकरियों का रूतबा घटने लगा है।

पत्रकार बनाम चिट्ठाकार अभी तक सिरियल चालू है अब इसे छुट-पुट पर देखा जा सकता है।

आइना पर झा साहब के साहब के माध्यम से कहीं भाटियाजी हमारे अंदर तो नहीं झांक रहे? यह सवाल आपके मन में भी आयेगा, पढ़े, झा साहब लेपटॉप खरीद रहे हैं

पियूष 1991 का एक किस्सा बता रहें है अपनी मजेदार पोस्ट “टिड्डे की भैंस ही बड़ी थी” में।

अंतर्मन में मनमोहक तस्वीरों के साथ-साथ सुन्दर कविता भी चहक रही है।

महावीरजी एक मार्मिक कहानी लेकर आये हैं, “मेरा बेटा लौटा दो

गीतकार पर परिवार को इक्ट्ठा कर मुक्तक महोत्सव फिर से शुरू कर दिया गया है।

आशीष बतला रहें है कि दर्द होता है जब कोई अपना छोड़कर जाता है

बीस बरस बाद ब्लॉग की अट्ठारवीं और उन्नीसवीं कड़ी भी आ चुकी है।

सेठ होसंगाबादी की पारंपरिक दुकान तेल उबल रहा है शायद खाद्य तेलों का मूल्य क्रूड तेलों पर भी निर्भर करता है।

अनामदासजी पत्रकारिता के धर्म, मर्म और शर्म को समझने का प्रयास कर रहे हैं।

टिप्पणियाँ कितनी कारगर होती है यह ज्ञानदत्त जी के चिट्ठे पर जाकर पता चला, जहाँ वे एक टिप्पणी के प्रतियूत्तर में बतला रहें है कि निरालाजी ने इलाहाबाद में कैसे समय बिताया, अच्छी जानकारी है।

जोगलिखी पर भारत सरकार की शर्मनाक हरकत

अनुवाद में संदीप खरे की कविता – “पल भर को सांसो का भर आना

प्रेम में डूबी देवेशजी की कविता – “होली वाटर

असग़र वजाहत का यात्रा संस्मरण – भाग तीन

सन्यास का सही समय कौनसा है? देखें क्रिकेट पर कटाक्ष – सन्यास का समय
ई-स्वामी के ब्लॉग पर नटखट तस्वीरें

दस्तक पर सागरजी की बचपन की यादें शुरू होती है जो यहाँ तक फैली है :)

सुरेश चिपलूनकर का क्रिकेट स्वप्न

कमल शर्मा बता रहे हैं राजस्थान पुलिस की संवेदनहीनता

आशीष और रतलामीजी के रिस्ते का सम्पूर्ण खुलासा – ब्लॉगिंग में भी रिस्ते बनते हैं

अनहद नाद में मंगलेश डबराल की एक खूबसूरत कविता

मुफ़्ती मोहम्मद को सबक सिखाते नितिन भाई।

मटरगशती में तरह-तरह की पेन ड्राइव

नारद की अनुपस्थिति में जितने चिट्ठे दिखे उनकी चर्चा का प्रयास मैने किया है मगर मैं जानता हूँ कि बहुत से चिट्ठे छूट गये हैं, इन चिट्ठों को कल सवेरे सागर भाई कवर करने का प्रयास करेंगे, क्यों! सागर भाई करेंगे ना?


आज की तस्वीर छायाचित्रकार से साभार :

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बुधवार, मार्च 28, 2007

कहाँ रहें राम?

सभी पाठकों को रामनवमीं की शुभकामनायें. इस अवसर पर संबंधित लेखन लेकर आये हमारे संजय भाई, कहते हैं हैप्पी बर्थ डे, रामजी, अभय तिवारी जी कहते हैं कहाँ रहें राम? और इसी अवसर पर यह भी खुब रही पर प्रयास अनुठे रामभक्त हनुमान के विषय में.

खैर, यह उत्सव तो पूरा हुआ, मगर दूसरा उत्सव, गीतकार का मुक्तक महोत्सव के रुकने से उड़न तश्तरी दुखी हो गई और पूछ रही है कि क्या भाई!! अकेला देख हड़काते हो? समर्थन में साथी टिप्पणियों के माध्यम से गीतकार जी को उत्सव नये फारमेट में फिर से शुरु करने की गुहार कर रहे हैं. इस पर गीतकार जी ने कहा- मुक्तक नहीं, एक प्रश्न और फिर गीत कलश पर हम किसको परिचित कह पाते :


हम अधरों पर छंद गीत के गज़लों के अशआर लिये हैं
स्वर न तुम्हारा मिला, इन्हें हम गाते भी तो कैसे गाते

अक्षर की कलियां चुन चुन कर पिरो रखी शब्दों की माला
भावों की कोमल अँगड़ाई से उसको सुरभित कर डाला
वनफूलों की मोहक छवियों वाली मलयज के टाँके से
पिघल रही पुरबा की मस्ती को पाँखुर पाँखुर में ढाला....................


खैर, मुझे लगता है (वैसे तो मालूम है) कि कल से गीतकार जी रुका महोत्सव नये फार्मेट में फिर से शुरू होगा मगर उनका नैतिकता के आधार पर लिया गया निर्णय चिठ्ठा जगत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज किया जायेगा, यह मेरा विश्वास है.

माना सब इसी तरह के बनाये गये मानकों से सीखेंगे मगर यह भी तय है, बकौल अभिनव, कि ज़िन्दगी भी बहुत से दाँव सिखा देती है :


हर सबक कैद नहीं होता है किताबों में,
ज़िन्दगी भी बहुत से दाँव सिखा देती है।


वैसे भी अभिनव इतनी सुंदर कविता रचता है कि अगर वो लिखे और हम जिक्र न करें, यह संभव नहीं. लिखते तो और भी लोग बहुत प्यारा है और हम उन्हें पुनः न प्रस्तुत कर सुन सुना चुके हैं मगर भईया, मान जाओ, बिना कट पेस्ट के हम कोशिश कर भी उनके अंश नहीं पेश कर पाते, जैसे कि आज हिन्द युग्म पर :

आमचो बस्तर, किमचो सुन्दर था...राजीव रंजन

देश निकाला- मोहिन्दर कुमार

यह कवि महोदय, चर्चा के लिये अपनी साईट पर इन्हें कट एण्ड पेस्ट के लिये खुला छोड़ दें तो हम वहाँ से ले लेंगे. अच्छा बुरा जो लगे लगा करे, मगर यार, हम फिर से टाईप न कर पायेंगे...और जो हमसे इस उम्मीद को लगाये बैठे हैं वो खुद चर्चा लिखने के आग्रह से शरमाये बैठे हैं और आगे आते ही नहीं और गुनाहों पे लज्जत कि सलाह हजारों हैं.

आज बहुत अंतराल के बाद अनामदास को इत्मिनान से पढ़ा...बिना इसके मजा भी तो नहीं. वाकई आनन्द आ गया. नियती और कर्मठता को आंकता उनका आलेख काबिले तारिफ है, इसी को तौलते.. वो बताते है कि कैसे निबू खरीदकर वो पत्रकार बन गये, वाह भाई, ऐसी साफगोई तो शायद ही आगे भी देखने को मिले, पहले भी नहीं देखी.. बहुत खूब. उनको सुन, बेजी भी अपनी एक पुरानी रचना सुना रहीं हैं, जो कि एक पोस्ट होने की काबिलियत रखती है. बेजी से उम्मीद है कि वो इसे एक अलग पोस्ट के माध्यम से भी प्रेषित करें:


गुब्बारे में भरी हवा का भार क्या है ?
माँ की साँसो की गुनगुन का सुरताल क्या है ?
वो आँसू जो आँखों मे सूखा उसका माप क्या है ?
मिट्टी की सौंधी खुशबू का नाम क्या है ?
बुलबुले के जीवन का अर्थ क्या है ?
उसमें तैरते इन्द्रधनुष की जरूरत क्या है


चलो, अब बेजी की जो इच्छा हो मगर आजकल लावण्या जी बड़ी सक्रियता से लिख रही हैं: आज उन्होंने मानवता के बारे में लिखा और हमारे निठल्ला चिंतक ले कर बैठे है अपने द्वारा निर्मित शो..प्रेटी वूमेन ...सृजनता और कल्पनाशीलता बहुत खूब है.

मगर उससे क्या होता है, यूँ तो सीमा जी भी निफ्ट की तस्वीरें दिन भर बदल बदल कर दिखाती रहीं और हमारे मनीष भाई, फैज की कल्पनाजगत की सैर कराते रहे मनीष भाई को बहुत बधाई, उनकी प्रस्तुति क्षमता अपने आप में अनोखी है और हम उसके कायल.

उपमा जैसे व्यंजन को मां के प्यार और मम्त्व से बांध देने का सफल प्रयास किया भाई रितेश ने और हमारी घघुती बसुती जी एक अलग अंदाज में अपनी दुख भरी दास्तां सुना रहीं हैं.

इन सब से बेखबर, हमारे प्रतीक भाई लाये हैं, लॉफ्टर चैलेंज वाली पारिजाद की तस्वीरें :)

अभी कोई जरुरी समाचार आ गया और मुझे जाना होगा....आना होगा में वादा करके संजय नहीं आये तो जाने में हम काहे शरमाये मगर जाते जाते एक जरुरी बात बता जायें:

तरकश हाटलाईन पर इस बार पेश हैं कटघरे में रवि रतलामी और साथ ही सुनिये उनकी पत्नी रेखा रतलामी से अंतरंग बातचीत.

मै संजय भाई से आग्रह करुंगा कि वो बचा और छुटा हुआ हिस्सा सुबह कवर कर लें..ताकि अगला चर्चाकर निश्चिंत हो उसका हिस्सा कवर करे.

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सोमवार, मार्च 26, 2007

पिघली हुई गज़ल और बीमार चाँदनी

फिर आई रुत चर्चा की

वाह मनी, माडल नाओमी
किसके उतरे कपड़े
टिंचर का उपयोग कहां है
कुछ बातें सूरज से

कहां कहां पर गईं कटारें
क्या है लिये तुम्हारे
कौन किसे देता शाबासी
खोल ह्रदय के द्वारे

हिन्दी ल्के चिट्ठे देखो
है हिन्दी का सम्मेलन
एक डायरी, किन्तु सत्य का
करता कौन विवेचन

इन्द्रधनुष में खबर
कोश में कविता के हैं आँसू
धर्म, साम्प्रदायिकता की
आध्यात्मिकता है धांसू

खेद रुका है एक महोत्सव
महाकुम्भ मुक्तक का
यहां पढ़ें, कारण क्या क्या थे
कहां कहां क्या अटका

देखें कहाँ हुए हैं नर्वस
अपने रवि रतलामी
क्या क्या मन की बात बताते
किसको करें सलामी


फ़ुरसितियाजी ने बतलाईं
थीं आयुध की बातें
बजट कटे तो क्या होता है
चित्र बोलता बातें:-


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नए बावर्ची का चिट्ठाचर्चा कोरमा

लीजिए हाजिर है कैफे चिट्ठा-चर्चा के इस नए बावर्ची की यह पाक विधि जिसमें मैं आपको बताउंगा कि चिट्ठा चर्चा कोरमा कैसे तैयार किया जाता है। लेकिन उससे पहले आज की सारी पोस्‍टों के पकवानों की सूची यहाँ देंखें।

हाँ तो पेश है - चिट्ठाचर्चा कोरमा

सबसे पहले बीस साल तक पराठें में भिंडी लपेट कर रखें इससे आम आदमी तैयार हो जाएगा। 100 ग्राम चुटकले लें और उन्‍हें सपनों में भिगोकर एक ओर रख दें। इससे कोई पंगा न लें नहीं तो परांठें में रोटी सा स्‍वाद आएगा और आपको कहना होगा-


रोटी समस्या नही

रोटी तो बँट जाएगी


इसके बाद के.एफ.सी. का चिकेन मेरे यहॉं से मँगा लें, पर सावधानी बरतें, क्‍यों- ये तो देबाशीष बता ही रहे हैं
(अरे भई ध्‍यान से रेसिपी सुनिए ओर भूलने का डर हो तो स्‍याही में लिख लें जिसका इस्‍तेमाल अब इंक ब्‍लॉंगिंग में होता है सागर साहब कर चुके हैं जहाँ श्रीष ने बताया कि वे चूक गए)
हाँ तो जब तक पाक सामग्री तैयार हो आप या तो सपने ले सकते हैं या फिर सुहाने सफर पर निकल सकते हैं जहॉं स्‍पगेटी टॉप और नाभि के काफी नीचे की स्‍कर्ट सब कुछ है। या आप कविताएं पढ़ लीजिए, रंजना की-


ज़िंदगी भर जो होता साथ हमारा तो मेरा दिल यूँ ना होता बंजारा

या राज गौरव की (पोस्‍ट स्‍लग किया करो मित्र)

जीना.. तेरे बिना जीना.. मौत लगे.. हम तो जिये तेरे बिन..

आजा अब तो आजा, तू कहीं से..




आपका सारा ज्ञान बेकार है, आपका अखंड ब्रह्मचर्य व्यर्थ है

आपकी वीरता बेमानी है, आपकी पितृभक्ति अनुकरणीय नहीं है

आप किसी काम के नहीं हैं




यह सब करने का मन ना हो तो जो मन हो वह करें मसलन बकरी की लेंड से उत्‍सर्जित जुगुप्‍सा का आनंद लें। अन्‍यथा यदि आप पत्रकार हैं तो जाहिर है सोचना छोड़ चुके होंगे इसलिए जरा सोचें। लेकिन समय ना भी कट रहा हो तो भी ताव में आकर गड़बड़ ना करें वरना आपकी भी कहानी भंड हो जाएगी जैसे कि पीयुष की हो गई थी।

हाँ तो तैयार स्‍वप्‍न सिक्‍त चुटकले व भिंडी लिप्‍त आम आदमी को लेकर तल लें, मुर्ग भून लें इस तैयार चिठ्ठाचर्चा कोरमा को लें और ज्ञानदत्‍त पांडेय जी की बैटरी वाली साईकल पर बैठकर हमारे यहाँ आ जाएं। इस साईकल के लिए पैसे का एप्रोवल उन्‍हें मिल गया है क्‍योंकि धन के लिए गुरू अरविंद ने कहा ही कि

धन एक विश्वजनीन शक्ति का स्थूल चिन्ह है. यह शक्ति भूलोक में प्रकट हो कर प्राण और जड़ के क्षेत्रों में काम करती है. बाह्य जीवन की परिपूर्णता के लिये इसका होना अनिवार्य है. इसके मूल और इसके वास्तविक कर्म को देखते हुये, यह शक्ति भगवान की है. परंतु भगवान की अन्यान्य शक्तियों के समान यह शक्ति भी यहां दूसरों को सौप दी गयी है।



हमारे यहाँ हम आपके साथ इस नौसिखिए बावर्ची के सिखाए चिठ्ठाचर्चा कोरमा को खाएंगें और सृजनजी की संगत में चर्चा के साथ समीक्षा करेंगे। इस बात को भी सराहेंगे कि सार्वजनिक संसाधनों की सार्वजनिकता के लिए गीतकारजी ने मुक्‍तक समारोह फिलहाल रोक दिया है-


इन्हीं सब बातों पर चिंतन करते हुये हम ने निर्णय लिया कि यह महोत्सव, जो कि पाठकों की फरमाईश पर मनाया जा रहा था, उसका स्वरुप उन्हीं पाठकों की सहूलियत और संसाधनों की सीमितता को देखते हुये बदल दिया जाये ताकि सभी को नारद के इस्तेमाल का बराबरी का मौका मिले.

इस कोरमा को डकारते हुए हम इराकी फिल्‍मों और भगत सिंह नास्तिक होने और राजकिशोर की भगत सिंह पर राय पर भी दिमाग लगाएंगे।

इस पाकविधि से बने चिट्ठाचर्चा कोरमा को खाने के बाद यदि बावर्ची से खुश हों तो डकार लें और आगे बढ़ें लेकिन स्‍वाद पसंद ना हो तो नीचे टिप्‍पणी में उगल दें। :)

चित्र उन्‍मुक्‍त के चिट्ठे से

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इक सुनहरी किरण पूर्व में आ गई


प्रकृति

अपने ब्रेक को ब्रेक करके हम फिर से आपके सामने हाजिर हैं। पहले आज प्रकाशित हुये सारे चिट्ठे देख लें यहां!

इसके बाद कुछ कविता-सविता हो जाये।
तो भैया कविता तो एक बड़ी धांसू लिखी है तन्हा कवि ने-
अश्कों से इश्क की है यारी , क्या कहें,
यही शौक , है यही दुश्वारी , क्या कहें।

कीमत खुदा की बेखुदी में भूलता रहा,
उसने भी की रखी थी तैयारी , क्या कहें।

भैये तन्हाई का ये रोना तो होगा ही। इससे अच्छा तो उड़ने की कोशिश करो तुषार जोशी की तरह फिर चाहे गिर ही पड़ो। मान्या ने अपने दोस्त को शुक्रिया अदा करते हुये बहुत अच्छी कविता लिखी। उस पर जीतू ने किसी की कविता सुना दी यह कहते हुये कि दोस्तों को शुक्रिया नहीं दिया जाता।

कविवर गिरिराज जोशी ने हिंद युग्म की लोकप्रिय कवियत्री अनुपमा चौहान के जन्मदिन पर शुभकामनायें देते हुये एक कविता पेश की। आप भी अनुपमाजी को हैप्पी जन्मदिन करिये न!

तुषार,गिरिराज,तान्या की कवितायें कापी नहीं हो पायीं लिहाजा नमूने के लिये इनकी साइट ही देखें।

गीतकार राकेश खंडेलवालजी आजकल मुक्तक वर्षा कर रहे हैं जनता की बेहद मांग पर। आज के मुक्तकों में से एक है-
भोर की पालकी बैठ कर जिस तरह, इक सुनहरी किरण पूर्व में आ गई
सुन के आवाज़ इक मोर की पेड़ से, श्यामवर्णी घटा नभ में लहरा गई
जिस तरह सुरमई ओढ़नी ओढ़ कर साँझ आई प्रतीची की देहरी सजी,
चाँदनी रात को पाँव में बाँध कर, याद तेरी मुझे आज फिर आ गई

और मुक्तकों का आनंद उठाने के गीतकार के पास आइये न!

बेजीजी ने सवाल उठाया था पत्रकार क्यों बने ब्लाकर ! आज वे अपने सवाल के निष्कर्ष बताती हैं। इसी क्रम में फुरसतिया पर पोस्ट के मजे से पढ़ती हुयी योगिता बाली प्रमोद सिंह को भी जबरियापढ़वा देती हैं फुरसतिया का लेख।

अनिल रघुराज सुनवाते हैं प्यार के दो बेहतरीन गाने और उठाते हैं भारतीय टीम की हार से जुड़ा एक अहम सवाल।

आपका लिखने में मन करता है लेकिन सूत्र वाक्य में लिखना चाहते हैं तो देबाशीष बताते हैं उपाय-टंबललाग। उधर रवि रतलामी बता रहे हैं मोबाइल ब्लागिंग के गुर और पेश कर रहे हैं देबाशीष के साक्षात्कार काहिंदी अनुवाद! रचनाकार में आज रवि रतलामीजी पेश करते हैं मनोज सिंह की रचना जिसमें सफलता के शिखर पर चढ़ते लोगों के अकेले पन के बारे में विचार व्यक्त किये गये हैं-
ऐसा कम ही होता कि जब आपको घेरे हुए लोग आपकी उंचाइयों को नि:स्वार्थ स्वीकार करें, आपकी प्रशंसा करें, आपसे प्रभावित हों, आपसे प्रेरित हों, आपको दिल से चाहें। और इसीलिए आपके शीर्ष से उतरते ही वे दूर हो जाते हैं। यह एक नग्न सत्य है। और इससे बड़ा सच है कि दोस्त तो कोई होता नहीं ऊपर से दुश्मनों की संख्या बेवजह असंख्य हो जाती है।


नंदीग्राम पर आजकल काफ़ी कुछ लिखा गया। आज ज्ञानचन्द पाण्डेयजी और रियाजुल हक़ इस पर कुछ जानकारी दे रहे हैं।

मसिजीवी २३ मार्च के बाद अपने बालकों को अंक प्रसाद बांट के खचेढू़ चाचा के पास टाइम पास करने चले गये इससे नीलिमाजी चिंतन करने लगीं-
व्यवस्था से संवेदना की उम्मीद नहीं की जा सकती बल्कि व्यवस्था हमें सिखाती है स्वयं की तरह ही संवेदनहीन होना। व्यवस्था के लिए व्यक्ति मात्र उपकरण होता है--व्यवस्था रुपी मशीन का यंत्र मात्र ।यंत्र के लिए जरुरी है --यांत्रिकता। संवेदनाओं का यहां काम ही क्या?व्यवस्था के लिए व्यक्ति नामहीन है या यों कहें कि उसके लिए व्यक्ति एक नंबर भर है ।
इस बीच सुरेश चिपलूनकर ने हारी हुयी भारतीय टीम को नोबेल पुरस्कार के लिये नामांकित कर दिया।

टेलीग्राम आज भले अप्रासंगिक हो गये हैं लेकिन कभी ये सूचना का सबसे तेज माध्यम रहे हैं। कमल शर्मालिखते हैं-
अब एसएमएस, ईमेल, मोबाइल, फोन सेवाओं के हुए तगड़े विस्‍तार ने टेलीग्राम को हमसे दूर कर दिया या लोग भूल से गए हैं। मुंबई, दिल्‍ली, कोलकाता, चेन्‍नई जैसे बड़े एवं मध्‍यम शहरों में जहां पहले तार घरों में लंबी लंबी लाइनें दिखाई देती थी, वहां अब दिन भर में मुशिकल से कोई आ पाता है। अमरीका के सैम्‍युल मोर्स ने 1844 में मोर्स कोड की खोज की थी तो संचार जगत में बड़ी क्रांति आ गई थी लेकिन ईमेल और एसएमएस ने तो समूची दुनिया ही बदल दी।

औरतों की पत्थर मार मार कर हत्या करने की प्रथा और उसके खिलाफ़ बनती हवा के बारे में जानकारी दे रहे हैं पंकज पारासर!

तरुण का नारद के बारे में सुझाव है कि इसकी फ़ीड को दो ग्रुपों में बांट दिया जाये उधर धुरविरोधी बता रहे हैं एक हिन्दी ब्लाग फीड एग्रिगटर!के बारे में।

आज प्रतीक टाइमपास में पढ़ा रहे हैं एक महिला का खत!

हिंदी ब्लागिंग में पहले से ही तमाम पंगेबाज हैं अब एक और पंगेबाज आ गये। स्वागत करें।

प्रमोद सिंह अपनी सिनेमा साइट में आज ईरान की फिल्मों के बारे में सच की अनगिन परते गिन रहे हैं।

भगतसिंह पर राजकिशोर के लेख का विरोध कर रहे हैं शब्दसंघर्ष!

कल के देबाशीष के आवाहन पर कुछ और चर्चाकार साथी जुड़े हैं!

मसिजीवी, नीलिमाजी और सृजन शिल्पी।

मसिजीवा और नीलिमाजी के लिये इतवार का दिन तय है। यह इन साथियों की जिम्मेदारी है कि ये आपस में बातचीत करके इतवार के चर्चा करें। कल के दिन रवि रतलामी बाहर रहेंगे इसालिये मसिजीवी अपनी पारी शुरू करेंगे।

नीलिमाजी पहली महिला चिट्ठाचर्चाकार हैं।

सृजन शिल्पी अनियमित समीक्षा करेंगे। जब उनकी मर्जी आयेगी तब। आज उन्होंने एक समीक्षा करके शुरुआत कर दी है।

अपने साथियों का स्वागत करते हुये हमें आशा है कि इन साथियों के जुड़ने से चिट्ठाचर्चा में गुणात्मक सुधार होगा।

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रविवार, मार्च 25, 2007

चर्चा के साथ-साथ अब समीक्षा भी

जब पढ़ने को बहुत कुछ हो और समय उस अनुपात में कम उपलब्ध हो तो क्या पढ़ा जाए और क्या छोड़ दिया जाए, यह तय करने के लिए फ्रांसिस बेकन का प्रसिद्ध स्वर्णिम नियम अत्यंत उपयोगी माना जाता है:

Some books are to be tasted, others to be swallowed, and some few to be chewed and digested; that is, some books are to be read only in parts; others to be read out curiously, and some few to be read wholly, and with diligence and attention.

(कुछ पुस्तकें स्वाद लेने के लिए होती हैं, कुछ निगलने के लिए और बहुत कम ही ऐसी होती हैं जो चबाकर पचाने लायक होती हैं अर्थात् कुछ किताबें आंशिक रूप में ही पढ़े जाने लायक होती हैं, कुछ अन्य उत्सुकतावश पढ़ी जा सकती हैं और बहुत कम ही ऐसी होती हैं जिन्हें समग्रता में परिश्रमपूर्वक और सजग होकर पढ़ना जरूरी होता है।)


यह नियम मुझे नारद पर लगातार अपडेट होते रहने वाली प्रविष्टियों में से पठनीय का चयन करने में बहुत मदद करता है। ऐसा नहीं है कि इस नियम का पालन मैं कोई सचेत भाव से करता हूँ। दरअसल, संपादन के क्षेत्र में कई वर्षों के प्रशिक्षण, अभ्यास और अनुभव से यह एक सहज आदत बन चुकी है। फिर भी, अपने चिट्ठे पर अपनी सुविधा के लिए मैंने पठनीय चिट्ठों की एक सूची बना ली है जिसे समय-समय पर अपडेट करता रहता हूँ। तेजी से बढ़ रही चिट्ठों की संख्या और चिट्ठाकारों द्वारा दिखाई जा रही सराहनीय सक्रियता को देखते हुए पठनीय चिट्ठों का चयन करना जरूरी भी हो गया है। संख्या के साथ-साथ गुणवत्ता की भी फिक़्र करना हमारे लिए बहुत जरूरी है। वरना, कुछ लोग इस नतीजे पर पहुँचते ही रहेंगे कि "अभी हिंदी में कोई बात करने लायक ब्लॉग नहीं है"। भले ही इस नतीजे पर वे अपनी गफ़लत या मुगालते की वजह से पहुँचें।

चिट्ठों की पठनीयता और गुणवत्ता को लेकर अपनी फिक़्रमंदी यदा-कदा मैं चिट्ठा चर्चा के मंच की भूमिका के संदर्भ में जाहिर करता रहा हूँ। चिट्ठा चर्चा का जो स्वरूप रहा है उसमें चिट्ठाकारों को उनके लेखन की गुणवत्ता को बेहतर बनाने हेतु सहज भाव से प्रेरित कर सकने की गुंजाइश नहीं है। हालांकि चर्चाकारों की टीम में एक से एक प्रतिभावान और अनुभवी चिट्ठाकार शामिल हैं और इसके लिए वे सभी एक नियमित क्रम में प्रतिबद्धतापूर्वक समयदान भी करते हैं। फिर भी, कई चिट्ठाकारों को, जिनमें मैं भी शामिल हूँ, यह महसूस होता रहा है कि इस मंच की भूमिका का और अधिक विस्तार किए जाने की जरूरत है और चिट्ठों की चर्चा के साथ-साथ उनकी समीक्षा का प्रयास भी होना चाहिए। लेकिन जैसी कि कहावत है, पर उपदेश कुशल बहुतेरे - दूसरों को उपदेश देना जितना आसान है, खुद कुछ करके दिखाना उतना ही कठिन। जो दूसरों को सुझाव देने के मामले में आगे रहता है उसे आगे बढ़कर जिम्मेदारी भी लेनी चाहिए। अनूप शुक्लाजी कई बार चिट्ठा चर्चाकार मंडली में शामिल होने के लिए मुझे कहते भी रहे हैं। लेकिन समयाभाव और दूसरी प्राथमिकताओं के चलते अब तक यह टलता ही रहा था। लेकिन अब मैंने अपने आप को इस भूमिका के लिए तैयार कर लिया है और उनके आमंत्रण को स्वीकार करते हुए इस मंडली में शामिल हो चुका हूँ। मेरे साथ कुछ अन्य चिट्ठाकार साथी भी इस मंडली में शामिल हुए हैं -- मसिजीवी और नीलिमा। प्रियंकर जी भी इसमें शीघ्र शामिल होने वाले हैं।

चिट्ठा चर्चा का मूल स्वरूप तो पहले की तरह ही रहने वाला है, लेकिन उसमें एक फीचर अब बढ़ जाएगा। अब उस पर चिट्ठा-प्रविष्टियों की समीक्षा भी हुआ करेगी। प्रियंकरजी कविताओं की समीक्षा किया करेंगे और मैं वैचारिक लेखों की। मेरी इच्छा है कि तकनीकी और हास्य-व्यंग्य की श्रेणियों के लिए भी दो चिट्ठाकार आगे आएँ ताकि हम नारद पर आने वाली सभी तरह की चिट्ठा-प्रविष्टियों को वैचारिक, कविता, तकनीकी और हास्य-व्यंग्य की चार श्रेणियों में बाँटकर उनकी विस्तृत समीक्षा कर सकें। आज तो बस यह भूमिका ही सामने रख रहा हूँ। समीक्षा का नियमित क्रम अगले सप्ताह से शुरू हो जाएगा।

आओ सिंहावलोकन करें

'पत्र' और 'चिट्ठा' शब्द आपस में लगभग समानार्थी हैं। 'लगभग' इस अर्थ में कि एक में तत्सम का अभिजात्य झलकता है तो दूसरे में देशज ठाठ। लेकिन जब ये 'कार' से जुड़कर क्रमश: 'पत्रकार' तथा 'चिट्ठाकार' बनते हैं, तो एक बहुत बड़ी बहस के निमित्त कैसे बन जाते हैं, यह हम पिछले सप्ताह चली हिन्दी चिट्ठाकारों की बहस में देख चुके हैं। यदि हम आज से लगभग पचास वर्ष पहले बालमुकुंद गुप्त (1922-1964) द्वारा लिखित शिवशंभु का चिट्ठा की भाषा, शैली और शिल्प को देखें तो ऐसा लगता है कि आज के हिन्दी चिट्ठाकारों द्वारा लिखे जा रहे चिट्ठे उसी की परंपरा में ही हैं। केवल माध्यम बदल गया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा हिन्दी साहित्य का इतिहास में उद्धृत शिवशंभु का चिट्ठा के एक अंश पर गौर फरमाएँ:

इतने में देखा कि बादल उमड़ रहे हैं। चीलें नीचे उतर रही हैं। तबीयत भुरभुरा उठी। इधर भंग, उधर घटा -- बहार में बहार। इतने में वायु का वेग बढ़ा, चीलें अदृश्य हुईं। अँधेरा छाया, बूंदे गिरने लगी। साथ ही तड़तड़ धड़धड़ होने लगी। देखा ओले गिर रहे हैं। ओले थमे, कुछ वर्षा हुई, बूटी तैयार हुई। बमभोला कहकर शर्माजी ने एक लोटा भर चढ़ाई। ठीक उसी समय लालडिग्गी पर बड़े लाट मिंटो ने बंगदेश के भूतपूर्व छोटे लाट उडबर्न की मूर्ति खोली। ठीक एक ही समय कलकत्ते में यह दो आवश्यक काम हुए। भेद इतना ही था कि शिवशंभु शर्मा के बरामदे की छत पर बूँदें गिरतीं और लार्ड मिंटों के सिर या छाते पर।

भंग छानकर महाराजजी ने खटिया पर लंबी तानी और कुछ काल सुषुप्ति के आनंद में निमग्न रहे। हाथ पाँव सुख में, पर विचार के घोड़ों को विश्राम न था। वह ओलों की चोट से बाजुओं को बचाता हुआ परिंदों की तरह इधर उधर उड़ रहा था। गुलाबी नशों में विचारों का तार बंधा था कि बड़े लाट फुरती से अपनी कोठरी में घुस गए होंगे और दूसरे अमीर भी अपने अपने घरों में चले गए होंगे। पर वही चील कहां गई होगी? हाँ, शिवशंभु को इन पक्षियों की चिंता है, पर वह यह नहीं जानता कि इन अभ्रस्पर्शी अट्टालिकाओं से परिपूरित महानगर में सहस्रों अभागे रात बिताने को झोपड़ी भी नहीं रखते।


उपर्युक्त अंश को पढ़ते हुए फुरसतिया, लाईफ इन ए एचओवी लेन, मेरा पन्ना, आईना, बिहारी बाबू कहिन, अज़दक, आदि कई हिन्दी चिट्ठे मेरे जेहन में तैरने लगे। तभी मेरे मन में ख्याल आया कि 'ब्लॉग' के लिए 'चिट्ठा' शब्द का पहली बार प्रयोग करते हुए आलोक जी के मन में क्या रहा होगा। इसकी पड़ताल के लिए आज बहुत दिनों बाद हिन्दी के पहले चिट्ठे 9-2-11 पर गया, जो 21 अप्रैल, 2003 को अस्तित्व में आया था और वहाँ इतिहास को कुछ इस तरह दर्ज पाया, जब उन्होंने पहली बार इस शब्द का इस्तेमाल किया था:

रविवार, अगस्त 24, 2003

जाल चिट्ठा, यानी वॅब्लॉग? ... यह अनुवाद कैसा है? पता नहीं। वैसे मुझे तो सिर्फ़ चिट्ठा ही जम रहा है। तो इस चिट्ठे को आगे बढ़ाएँ।

आलोक जी ब्लॉगस्पॉट के मुफ्त खाते पर बने पहले हिन्दी चिट्ठे को छोड़कर 28 नवम्बर, 2003 को उसी नाम से अपने स्थायी पते पर स्थानांतरित हो गए। जब-जब उनके चिट्ठे पर गया हूँ, कंप्यूटर के लिए हिन्दी के नए-नए औज़ारों की तलाश और उनके प्रयोग को लेकर उनके मन में चलने वाला कौतूहलपूर्ण आह्लाद मुझे हर्ष से भर देता है।

अगले माह 21 अप्रैल, 2007 को हिन्दी चिट्ठाकारी के चार वर्ष पूरे हो जाएंगे। मेरा प्रस्ताव है कि तरुण द्वारा आयोजित किए जा रहे वर्तमान अनुगूँज की अवधि (31 मार्च, 2007) बीत जाने के बाद अगली अनुगूँज चिट्ठाकारी के चार वर्ष पूरे होने के अवसर पर आयोजित हो। इससे जहाँ पुराने चिट्ठाकारों को अब तक के सफर पर विहंगम दृष्टि डालने का महत्वपूर्ण अवसर मिलेगा, वहीं नए चिट्ठाकारों को चिट्ठाकारी के विकास-क्रम और अब तक की विरासत को समझने का मौका भी मिलेगा।

चिट्ठा चर्चाकारों तथा तमाम चिट्ठाकारों के सुझाव सादर आमंत्रित हैं।

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जस्ट कूल ड्यूड, कुछ पॉजिटिव तो ढूंढ


जिया खान

कल का दिन भारत के विश्वकप से निकलने पर स्यापे के नाम रहा। स्यापा टसुये बहाकर नहीं खिलखिलाते हुये किया गया।
यह आधा भरा हुआ गिलास देखने की आशावादी नजर थी। साथियों ने भारत की हार में अच्छाइयां तलाशी। सबसे पहले निद्रा प्रेमी मृणाल ,जो कि आमतौर पर सबेरे चार बजे तक नेट पर दिखते हैं, ने इससे नींद के घंटे बढ़ जाने के खुशी जाहिर की। तरुण बोले जो हारा सो चुकन्दर। इस पर अनुनाद ने कहा -जीतने की कुछ टिप्स भी तो दो। आशीष को इंतजार है कि कब बीसीसीआई पर ताला लगे। इसी को देखते हुये संजय बसाक बो बीसीसीआई को बंद काहे नहीं कर देते? अरे ये संजय कनपुरिया हैं और अभी तक भेंटाये नहीं हमलोग! ये कैसा जुलुम है भाई। अपन मोहल्ला पता बताओ मिलते हैं।

बात मोहल्ले की चली तो देखिये मोहल्ले वाले भी दुखी हैं भारत के निकलने की खबर से। उमाशंकर सिंह सचिन और धोनी को शून्य पर आउट होने की बधाई देते हुये कहते हैं-
तुम जैसा खेल सकते थे, वैसा ही खेले। अपना बेहतरीन जो दे सकते थे, दिया। तुम्‍हारी इस भूल से अब हमें सीखने को मिलेगा। हम अब तुम्‍हें शायद इतनी जगह नहीं दे पाएंगे। दो चार दिन लानत मलामत झेल लो, फिर हम अपनी ज़ि‍म्‍मेदारियों पर आ जाएंगे। तुम भी अपने रेस्‍टोरेंट और बाकी के कारोबार में लग जाना। और कभी अच्‍छा क्रिकेट मत खेलना। तुम लोगों का ये खेल हमारी भूख भुला देता है, भ्रष्‍टाचार भुला देता है। तुम लोग तो हार के भी करोड़ों में खेलते हो, कभी कभार की तुम्‍हारी जीत में नाच कर भी करोड़ों भूखे सोते हैं।

अच्छी-अच्छी चीजें लिखने वाली मनीषा तो हारने के लिये एक अच्छा प्रस्ताव भी पेश करती हैं। लेकिन हार से सबसे तार्किक खुशी खोजी है अपने बिहारी बाबू प्रियरंजनझा ने।
इस हार को पाजिटिव तरीके से लेते हुये वे- कैसे बाल धूप में सफ़ेद हो सकते हैं से लेकर बच्चों का हित, आफिस में चैन , नींद के घंटे बचने की बात कहते हुये देश के काम के करोड़ों घंटे बचने की खुशी खोजते हैं-
और अब जबकि भारत विश्व कप से बाहर हो गया है हमारे-आपके जैसे करोड़ों लोग क्रिकेट को भूल अपने काम को ढंग से अंजाम दे पाएंगे, यानी क्रिकेट के निठल्ले चिंतन से बचने का मतलब है देश के लिए श्रम के करोड़ों घंटे बचा लेना! है न खुशी की बात! आखिर इससे आप ही के देश की प्रगति होगी न।

हमें डर है कि कौनौ मंत्री ई पोस्टवा देख लिहिस तो कहो अनाउंस कर दे- देश के जे है न से करोड़ों घंटे बचाने के लिये हर साल बर्ल्ड कप इंडिया में कराया जायेगा। हर बार इंडिया हारकर करोड़ों घंटे बचायेगा। घंटे कम बचे तो साल में दू-दू बार बर्ल्ड कप कराया जायेगा।

अब ये रोना-गाना हो गया। इसके आगे की चर्चा के लिये देखते रहिये चिट्ठाचर्चा। आज ही करेंगे। कहीं जाइयेगा नहीं। वर्ना मिस हो जायेगा। फिर आपकी मिसेज हड़कायेंगी। फिर हमसे मत कहियेगा कि बताया नहीं।

तो फिर मिलते हैं ब्रेक के बाद! मिलेंगे न!

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शनिवार, मार्च 24, 2007

तकिये के नीचे पिस्तौल रखकर सोइयेगा

हिन्दी चिट्ठाकारी में पत्रकारों के पदार्पण पर अनूप के चिट्ठे ने मानो हम सब के मन की बात कह दी हो। मेरा ख्याल है कि अब इस कांड पर पटाक्षेप हो जाना चाहिये। ये पहला ऐसा मौका नहीं होगा जहाँ विधा का कद कलाकार से ज्यादा हो गया। चिट्ठाकारी की मूख्याधारा में मिडिया की च्रचा से काफी बवाल खड़ा हुआ पर सबसे हास्यास्पद बात लगी नारद पर लगाये नियमों की व्याख्या पर। नारद शब्द ही फसाद से जुड़ा है। मेरे ख्याल से ज़्यादातर लोगों ने खामख्वाह इस मुद्दे को पीटा ये जानते हुये भी कि नारद के संचालक जो चाहें वो नियम बनाने को स्वतंत्र हैं। ये बेसिरपैर का प्रलाप बंद करें, नंदीग्राम पर नहीं तो पास्ता के उपर ही लिखें।

अफ़लातून नंदीग्राम की घटना की विवेचना करते हुये लिखते हैं, "जो कम्युनिस्ट कल तक हर मामले में कारण-अकारण टाटा-बिड़ला को गाली देते थे, उन्हीं की सरकार आज टाटा के साथ गले में हाथ डालकर खड़ी है और किसानों-मजदूरों-बटाईदारों पर लाठी-गोली चला रही है।" चौपटस्वामी का आकलन है कि इसी लिए चाह कर भी जागृत और सचेतन बंगाल बुद्धदेव भट्टाचार्य को नरेंद्र मोदी होने नहीं देगा।

ब्लॉगजगत में नये हस्ताक्षरों में रवीश सबसे ज्यादा आकर्षित करते हैं। हर बार चर्चा के समय सोचता हूँ कि पेशेवर लेखकों को कम फुटेज देना चाहिये, जी ये मेरा एक पूर्वाग्रह है। पर रवीश के लेखन में कोई कैमोफ्लॉज नहीं है। मेरे ख्याल से वो स्वयं भी यह जानते हैं, अपना मन उढ़ेल कर रख देते हैं, कई बार पाठकों का मन नम करने के लिये। मीरा नायर की नई फ़िल्म नेमसेक के बारे में लिखा, समीक्षा नहीं वरन फिल्म की तर्ज़ पर। अपनी जड़ों से ये लगाव मेलोड्रामाटिक लगता है, बकौल रवीश "यह कोई साहित्यिक नोस्ताल्ज़िया नहीं है"। सचाई भी यह है कि कंक्रीट के जंगलों में गुम हम में से उन सब को ये दर्द सालता रहता है जो ऐसी जगहों से आये हैं जो महानगरों में एलएस कहलायेंगी, जंगल जहाँ पर बच्चे सुराही और गौरैया नहीं पहचानते, अमरूद के पत्तों का स्वाद नहीं जानते और न जानते हैं बेशरम की सूखी डंडी से साईकिल का टायर चलाना। सागर ने गुलज़ार की पंक्तियाँ क्या खुब उद्धत कीं
लवें बुझा दी है अपने चेहरों की, हसरतों ने
कि शौक पहचानता ही नहीं है।
मुरादें दहलीज ही पे सर रख कर मर गई हैं
मैं किस वतन की तलाश में यूँ चला था घर से
कि अपने ही घर में भी अजनबी हो गया हूँ आकर।
भारत के चुकंदर बनने से ख़ुमार कुछ उतरा होगा, मैं तो छटवां विकेट गिरने पर ही टीवी बंद कर बैठा था। यह खेल इंडिया का नया धर्म है, विज्ञापनदाताओं ने ये धर्मावतरण करवाया है। हम क्रिकेट फैनाटिक बन बैठे हैं। खीज ऐसी कि बीसीसीआई तक को भंग करवा दें। अब फिर किसी के घर को तोड़ेंगे और किसी की तस्वीर पर जूतों का हार चढ़ायेंगे। पर विज्ञापन चलते रहेंगे। सट्टेबाजों से लेकर प्रसारकों की तिजोरियों भर रही हैं। पैसे की ही बिसात पर बॉब वुल्मर जान दे बैठे। प्रमोद चैपल को मशवरा देते हैं, "हुज़ूर, होटल के कमरे में अकेले मत सोइयेगा, और सोना ही पड़े तो तकिये के नीचे एक पिस्तौल रखकर सोइयेगा"। रवीश को कहना पड़ा कि "कृपया क्रिकेट को धर्म या राष्ट्र मत बनाइये। इन दो रास्तों से सिर्फ धोखाधड़ी करने वाले घुसते हैं। जो ईमानदार हैं वो सीमा पर पहरा दे रहे हैं।"

कमल शर्मा रियेल्टी के निवेशकों को चेतावनी दे रहे हैं। लिखते हैं, "निवेश गुरु जिम रोजर्स का कहना है कि रियॉलिटी में काफी सट्टेबाजी हो चुकी है और सारी खरीद तो सट्टात्मक थी। यानी सच्चाई से दूर।" हमने निरंतर में काफी पहले ही इस बुलबुले के बारे में लिखा थाबायिंग फ्रेंज़ी के शिकार सुनें तब ना। सेठ होशंगाबादी ने अपनी कंटीजेंसी योजना का खुलासा किया,
मंदी की आशंका से सहमकर मैंने तो योजना बना ली है। बचत तो कुछ नहीं है, बस पीएफ का पैसा थोड़ा बहुत। सेठगिरी छोड़कर, बस दो भैंस व दो बकरी खरीदूंगा, शायद मंदी काट लूं।
भगत सिंह की जन्म शताब्दि पर तिर्यक विचारक लिखते हैं, "मुझे नहीं पता कि 23 मार्च को भारत के शहरी युवा क्‍या कर रहे होंगे...सोचता हूं इस बार पता करूं कि भगत सिंह को याद रखने वाले हमारे देश में कितने मुक्तिकामी नौजवान बचे हैं"। अनिल का मत है कि क्रांति कोई अचानक हुआ विस्फोट नहीं है। वह तो एक सतत प्रक्रिया है।

भारत की हर समस्या के नेपथ्य में जिस नाईं विदेश मंत्रालय इस्लामाबाद को देखता है वैसे ही लोकमंच विश्व के हर त्रास के पीछे इस्लामवाद को। अब डॉ. डैनियल पाइप्स को खींच लाये है खेमे में, जो लाख कुरेदने पर भी बोल पड़
"दीर्घकालावधि में समय-समय पर आतंकवाद इससे सम्बद्ध रहा है...परन्तु ऐतिहासिक रूप से आतंकवाद इस्लाम के साथ सम्बद्ध नहीं रहा है।"
और चलते चलतेः चिट्ठों की और खासकर अच्छे चिट्ठों की संख्या तेज़ी से बढ़ती जा रही है और मेरे ख्याल से चर्चा मंडळी मानेगी की काम काफी कठिन होता जा रहा है। निश्चित ही हमें और हाथों की दरकार है। यदि आप में से कोई चर्चादल में शामिल होना चाहता है तो टिप्पणी द्वारा संपर्क करें।

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शुक्रवार, मार्च 23, 2007

आह-हा! गाओ खुशी के गीत... चिठ्ठा चर्चा

गिरीराज जोशी पिछले कुछ समय से चर्चा नहीं कर पाये और उसकी कसर उन्होने अपन कल लिखे चिट्ठों की चर्चा में निकाल दी और आदरणीय फुरसतिया जी के लेखों से दो ढ़ाई इंच कम चर्चा लिख बैठे ।
उम्मीद करते हैं भविष्य में आप अनुपस्थित नहीं रहेंगे। :) इतनी लम्बी चर्चा लिखने के बाद भी चिट्ठे आते ही रहे और कविराज थक गये और उसी समय मेरा जीमेल पर आना हुआ झट से मुझे बाकी चिट्ठों की चर्चा करने का आदेश दे कर कट लिये (मुझे बोलने का मौका दिये बगैर साइन आउट कर लिये)।
वो कहते हैं ना अनाड़ी से दोस्ती जी का जंजाल..........ठीक है भाई दोस्ती की है तो निभानी भी पड़ेगी चलिये आदेश का पालन करने की कोशिश करते हैं।
अब जब चिट्ठा चर्चा लिखने बैठा हूँ तो चिट्ठे देखकर लग रहा है कि वाकई आज बहुत ही शानदार और पठनीय चिट्ठों की चर्चा का सौभाग्य मुझे मिला है। भारत के महान सपूत सरदार भगत सिंह का आज शहादत दिवस है और मैं उनको श्रद्धान्जली देता हूँ।
कल प्रकाशित हुए सारे चिट्ठों की पूरी सूचि आप यहाँ देख सकते हैं।
घुघुती बासुति ने मेरी पिछली चर्चा में मुझ पर दया कर कोई पोस्ट नहीं लिखी पर आज कह रही हैं ऐसा बार बार नहीं होगा। बासुती जी अपनी कविता में अपने बीती यादों के लिए कहती है
ये ही तो वे हैं जो ला डाल देती
गोद प्यारी नन्ही बिटिया को
ये ही तो लौटा लाती हैं फिर से
मेरे और उसके बीते बचपन को ।

सच है बासुति जी हम सब जब अपने बीते पलों को याद करते हैं तो कभी अधरों पर मुस्कान आ जाती है तो कभी पलकों पर आँखों में आँसू आ जाते हैं।

उनमुक्त जी आज बात कह रहे हैं लैंगिक न्याय की! साथ ही अलग अलग श्रेणी के लोगों के बारे में बता रहे हैं। उन्मुक्त जी अपने इस लेख को अपनी आवाज में सुना रहे हैं और इसे आप यहाँ सुन सकते हैं यह लगभग 7.09 Mb की ऑडियो फाईल है। अमित गुप्ता जी और रामचन्द्र जी के बाद उन्मुक्त जी; लगता है आने वाले दिनों में बहुत सारे चिट्ठाकार अपनी पोस्ट को पॉडकास्ट के रूप में सुनायेंगे। मुझे चिट्ठा पढ़ने की बजाय सुनना ज्यादा अच्छा लगा क्यों कि इस को सुनते हुए हम अपना दूसरा कार्य कर सकते हैं जब कि चिट्ठा पढ़ते समय हम अन्य काम नहीं कर सकते।

इन दिनों बहुत सारे नये चिट्ठाकार आये हैं और बहुत से विषयों पर लिख भी रहे हैं। ऐसे ही एक नये चिट्ठाकार है अनिल रघुराज! अनिल अपने बहुत सुन्दर लेख नोटों की नीति : जेब कटी हमारी, मौज हुई उनकी
में बता रहे हैं कि रिजर्व बैंक ने निर्यात को सस्ता बनाने के लिये अप्रैल 2006 से जनवरी 2007 के बीच सिस्टम में 56,543 करोड़ रुपये बाजार में डाले और किस तरह उनसे लाभ होने की बजाय नुकसान हुआ। इस लेख को पढ़ कर बहुत कम टिप्प्णीयाँ लिखते अतुल अरोड़ा जी बहुत प्रसन्न हो गये। और कह बैठे इसे कहते हैं चिट्ठाकारी!
इस तरह रिजर्व बैंक ने नोटों की जो नीति अपनाई है, उसका हश्र ये है कि न खुदा ही मिला, न बिसाले सनम। अमेरिका और यूरोप के ग्राहकों के लिए भारतीय माल को सस्ता रखने की कोशिश भारतीय ग्राहकों के लिए महंगाई का सबब बन गई है। हकीकत ये है कि आज भारतीय ग्राहक विदेशी ग्राहकों को सब्सिडाइज कर रहा है। अगर आज हमारी जेब कट रही है तो इस जेब से निकले नोटों का फायदा विदेशी ग्राहक को मिल रहा है। ये है हमारी सरकार और रिजर्व बैंक का भारत और भारतीयता प्रेम।

मैने कुछ बहुत पहले पढ़ा था कि किस तरह प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी की सरकार ने अनाप शनाप नोट छापे और मुद्रा का इतना अवमूल्यन हुआ कि जनता को मिट्टी का तेल या लकड़ी से खाना बनाने की बजाय नोट जला कर खाना बनाना ज्यादा सस्ता लगता था। एक अंडा और एक ब्रेड तक खरीदने के लिये करोड़ों रुपये अदा करने होते थे। खैर इसकी चर्चा फिर कभी करेंगे।

अनिल अपने दूसरे लेख में प्रसन्न होते हुए कह रहे हैं कि आह-हा! गाओ खुशी के गीत... अनिल इतने खुश क्यों है? आप जानना चाहेंगे? वे इसलिये खुश है कि देश में गरीब घट गए हैं। आबादी में उनका अनुपात घट गया है।
अगर मुंबई का कोई भिखारी दिन में 18 रुपए कमा लेता है तो वह गरीब नहीं है, उसकी गिनती गरीबी रेखा से नीचे की आबादी में नहीं हो सकती। इस तरह मुंबई से लेकर दिल्ली और चेन्नई के सारे भिखारी तक अब गरीबी रेखा से ऊपर आ गए हैं क्योंकि ये लोग दिन में कम से कम 20 रुपए तो कमा ही लेते हैं। गांवों में तो अब रोज 12 रुपए कमानेवाले भी गरीबों की राष्ट्रीय गिनती से गायब हो गए हैं।

मैं अनिल रघुराज को इतने सुन्दर लेखने के लिये बधाई देता हूँ।

नन्दीग्राम हत्याकांड पर ताऊ को लिखे पत्र पर मिली एक टिप्प्णी को धुरविरोधी अपने चिट्ठे पर बता रहे हैं , कि
यह वही सालिम ग्रुप है, जो इंडोनेशिया में 1965 कम्युनिस्टों के कत्लेआम के बाद अमेरिकी संरक्षण में फला-फूला. इसे भ्रष्ट सुहार्तो शासन ने विकसित होने में मदद की. अब सुदूर भारत में इसे एक ज़बरदस्त मददगार मिल गया है-बुद्धदेव भट्टाचार्य.

धुरविरोधी जी के इस पत्र पर और भी अच्छी टिप्पणीय़ाँ आई है।

बेजी जी आज कुछ अध्यातमिक मूड में है और अपनी कविता प्रयत्न में कह रही है कि
महसूस कर सको तो करो उस खुदा को...
साँस लेती हुई हर सदा को...
खामोश सी हर उस अदा को...
अहसास से जुड़ी भावना को...
रंगों को....रागों को....
कर सको तो करो समर्पण....
तन को...मन को....और रूह को...
अंदाज़ को...आवाज़ को....और अरमान को....
खुद को...खुदाई को....और अपने खुदा को....


तिर्यक विचारक आज भगत सिंह की शहादत दिवस पर देश की युवा पीढ़ी से बहुत चिंतित है और कह रहे हैं कि
...सोचिएगा कि आखिर 23 साल की अवस्‍था में भरपूर जवानी का बलिदान कोई कैसे कर सकता है...और हम क्‍या कर रहे हैं...एक सामूहिक आत्‍महत्‍या की तैयारी...बगैर किसी आततायी का सिर तक फोड़े हुए...कम से कम...

रचना जी भी आज कुछ चिंतित है कि अच्छा है मेरी समझ कमजोर है!! रचना अपनी इस कविता में पूछ रही है कि हम भारतीय क्या सार्थक बहस कर पाते हैं? और खुद के अलावा क्या किसी और की सुन पाते हैं? रचना जी माना कि हम भारतीय़ सार्थक बहस नहीं कर पाते पर मैं आपकी इन पंक्तियों से ज्यादा सहमत हूँ।

हर शख्स समझे, बस खुद ही होशियार है!
ज्ञानीयों के ज्ञान का हाय कैसा शोर है!!

तब क्या सार्थक बहस की कोई गुंजाईश शेष रह जाती है?

पाकिस्तान क्रिकेट टीम के कोच बॉब वूल्मर की हत्या पर बिहारी बाबू अपनी चिरपरिचित शैली में स्व. बॉब से कह रहे हैं
ठीक है कि टीम को बढि़या परदरशन करना चाहिए, लेकिन हारने के बाद आपको एतना सेंटियाने किसने कहा था? ई भारतीय उपमहाद्वीप है, यहां सरवाइव करना है, तो काम से मतलब कम रखिए औरो पोलिटिक्स बेसी कीजिए। आपके जैसन लोग, जो यहां बेसी प्रोफेशनलिज्म दिखाते हैं, सबको ऊपर का ही रास्ता चुनना पड़ता है, फिर चाहे ऊ हमरा दफ्तर हो या परधानमंतरी कार्यालय। यहां काम खराब कर शरमाने औरो सिर छुपाने की जरूरत नहीं पड़ती, बस गोटी बढि़या से फिट कीजिए, फिर देखिए आपको कोसने वाला शरमाकर खुदे छुप जाएगा।

काश बॉब, बिहारी बाबू की यह सलाह पहले ही मान लेते तो अपनी जान से हाथ ना धोते।

वार्षिक संगीतमाला लिखने से निवृत हुए मनीष अब लेकर आ रहे हैं फैज़ अहमद फैज़ की गज़लों और नज़्मों का सफर। मनीष इस सफर के पहले लेख में फ़ैज़ की जीवनी तथा उनकी कुछ गज़लों को पढ़वा रहे हैं। और लक्षमी नारायण जी बड़े दिनों के बाद आये हैं और आज एक मच्छर की व्यथा को अपने शब्द दे रहे हैं।


रैयाज़ उल हक अपने दो अलग अलग चिट्ठों पर एक साथ कई लेख प्रकाशित किये हैं। नन्दीग्राम लाल सलाम पर रैयाज ने नन्दीग्राम हत्या कांड के बाद के दृश्यों के अलग अलग वीडियो बताए हैं और अपने दूसरे चिट्ठे हाशिया पर सरदार भगत सिंह पर तीन लेख प्रकाशित किये हैं और एक लेख मे एक वीडियो दिखा कर दावा कर रहे हैं कि चांद पर मानव के जाने का अमरीका का दावा झूठा है। एल्लो इतना सफेद झूठ बोलकर अमरीका दुनियाँ को बेवकूफ बनाती रही और हमें पता ई नहीं चला!!!!

फ़िल्म दिखाती है कि क्यों चांद पर जा पाना तब संभव नहीं था और वह पूरा घटनाक्रम गढ़ा हुआ था. जो फ़िल्म हमें चांद की कह कर दिखायी गयी, वह दरअसल धरती पर ही की गयी रिकार्डिंग थी. फ़िल्म तीन वैग्यानिकों के शोध पर आधारित है.

चांद पर पहुँच मानव के पहुँच जाने के इतने वर्षों के बाद भी थोड़े थोड़े दिनों में स्वर उठता है कि यह सब झूठ है, यह बात ऐसी लगती है जैसे कई धार्मिक पुस्तकों में पृथ्वी का आकार गोल नहीं वरन चपटा दिखाया गया है और पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है आदि!! अगर प्रबुद्ध और पढ़े लिखे लोग भी इस बात को मानने में असमर्थ है तो आज तक की विज्ञान की तरक्की व्यर्थ गई।

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गुरुवार, मार्च 22, 2007

ब्लॉग पर कौन आये, कौन नहीं?

पिछले दो शुक्रवारों को अवकाश भोगने के पश्चात हम पुन: हाज़िर होते है। हमें अवकाश पर रहना अच्छा लगा, हम भविष्य में भी इस प्रकार अवकाश मनाते रहेंगे... आखिर भाईसा जैसे और भी धांसू चर्चाकारों को इस मंच पर जो लाना है ;) ... भाईसा (सागर चंद नाहर) की चर्चा शानदार रही, हम समय पर टिपिया नहीं पाये और बाद में टिपियाने पर गुरूदेव कहते हैं कि भाई काहे सोये मुर्दों को जगाते हो? अब गुरूदेव ने कहा है तो ठीक ही होगा, अपन मन मारकर टिपियाने से रूक गये। पिछली दो चर्चाएँ नहीं कर पाने की कसर हम आज निकाल देंगे। चर्चा की लम्बाई भले ही फुरसतियाजी की पोस्ट से दो-ढ़ाई इंच कम रह जाये मगर शिकायत का मौका किसी को भी नहीं दिया जायेगा। यह भी कोई बात हुई की चर्चा करें, अपनी रामायण सुनायें और चिट्ठों का मात्र लिंक थमा कर पाठकों को फुसला दें।

गुलज़ार नज़्म लिखते हुए क़लम ही तोड देते हैं, ऐसा मानना है चिट्ठे “कुछ सच्चे मोती” का जिस पर इस बार गुलज़ार साहब की यह खूबसूरत नज़्म प्रकाशित हुई है :

नज़्म उलझी हुई है सीने में
मिसरे अटके हुए हैं होंठों पर
उडते फिरते हैं तितलियों की तरह
लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं
कब से बैठा हूँ मैं जानम
सादे काग़ज़ पे लिखके नाम तेरा

बस तेरा नाम ही मुक़म्मल है
इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी
विनय (V9Y) सूचना लेकर हाज़िर हुए हैं कि RMIM पुरस्कार घोषित हो चुके हैं और ओमकारा को 'साल का एल्बम' चुना गया है साथ ही वें सभी वोटरों और सहयोगियों को धन्यवाद भी अदा कर रहें है, ले लिजियेगा :)

ज्ञानदत्त पाण्डेय की मानसिक हलचल आप सब के लिये कितनी उपयोगी है यह आप उनके चिट्ठे पर जाकर देखियेगा। उनका नौजवानों को गलती करने से रोकने का अंदाज भी खूब रहा, शुरूआत व्यंग्यात्मक हास्य से करने के पश्चात वे यकायक सिरियस मुद्रा में आ गये -

मैं धन के प्रति गलत अवधारणा को एक गम्भीर गलती मानता हूं. यह कहा जाता है कि आज का युवा पहले की बजाय ज्यादा रियलिस्टिक है. पर मैने अपने रेल के जवान कर्मचारियों से बात की है. अधिकांश को तो इनवेस्टमेंट का कोई खाका ही नहीं मालूम. ज्यादातर तो प्राविडेण्ट फण्ड में पैसा कटाना और जीवन बीमा की पालिसी लेने को ही इनवेस्टमेंट मानते हैं. बहुत से तो म्यूचुअल फण्ड और बॉण्ड में कोई अन्तर नहीं जानते. स्टाक की कोई अवधारणा है ही नहीं. मैं जब पश्चिम रेलवे के जोनल ट्रेनिंग सेण्टर का प्रधानाचार्य था तो नये भर्ती हुये स्टेशनमास्टरों/गार्डों/ट्रेन ड्राइवरों को पैसे का निवेश सिखाने की सोचता था. पर उस पद पर ज्यादा दिन नहीं रहा कि अपनी सोच को यथार्थ में बदलता.
ज्ञानदत्तजी ज्ञान की बातें कर ही रहे थे कि चौधरी चाचू आ धमके, बोले, “हम भी कुछ शानदार जुगाड़ लाया हूँ, बहुत काम के है”। हमनें समझाया कि तनिक रूकिये भाई, हम आ रहें आपके पास, पहले कुछ नये-नवेलें चिट्ठों में झांक लेता हूँ तो यकायक भड़क उठे, “तो क्या यह जुगाड़ मैं अपने लिये इक्कट्ठे करता हूँ, तुम समझते काहे नहीं हो भाई, यह नये लोगन के लिए ही है, ज्यादा ना नुकर की तो...”। हम तुरंत नत-मस्तक हो लिये उनके समक्ष, तो भय्या बीच में जुगाड़ घुसाने की मेरी मजबूरी आप समझ रहें हैं ना? तो यह लिजिये जुगाड़, खासकर संगीत-प्रेमियों, निवेशको और वायरस से परेशान पाठकों के लिये, चौधरी चाचू द्वारा सप्रेम भेंट के रूप में।

मैथिली गुप्त जी अपने हिन्दीगियर में तकनीकी ज्ञान का पिटारा खोल दिया है, स्केलबल वेक्टर ग्राफिक्स एडिटींग के लिये इंकस्केप नामक सॉफ्टवेयर के बारें में जानकारी दे रहे हैं जो विंडो और लिनक्स दोनों पर चलता है, हालांकि उनके कम्प्यूटर पर यह कुछ धीमा चल रहा है मगर फिर भी वे चाहते हैं कि आप भी प्रयोग करके देखें।

हिन्द-युग्म पर खुशियाँ मनाई जा रही है। २ अक्टूबर, १९६५ को रायपुर में जन्में हिन्दी और छत्तीसगढ़ी साहित्य के प्रति समर्पित तथा सृजनगाथा के प्रधान सम्पादक श्री जयप्रकाश मानस १० अप्रैल २००७ से हिन्द-युग्म के यूनिमीमांसक की भूमिका निभायेंगे। निश्चय ही मानसजी जैसे सृजनात्मक कवि का हिन्द-युग्म से जुड़ना हिन्द-युग्म के भविष्य के लिए अच्छे संकेत है, उनके आगमन की सूचना देते हुए लिखी पोस्ट में शैलेशजी मानसजी के संक्षिप्त परिचय के साथ बता रहे हैं कि उनके आगमन से हिन्द-युग्म को किस प्रकार काव्यबल मिलेगा -

कई पुरस्कारों से सम्मानित कवि, ललित निबंधकार श्री जयप्रकाश मानस हिन्द-युग्म पर प्रतिमाह प्रकाशित कविताओं की समीक्षा करने के लिए तैयार हुये हैं। इस वरिष्ठ साहित्यकार की काव्य-विवेचना से हिन्द-युग्म के कवियों को काव्यबल भी मिलेगा और दिशानिर्देश भी। कौन कवि या लेखक नहीं चाहता कि उसकी रचनाओं की मीमांसा मानस जैसा साहित्यकार करे!

काकेशजी (?) नैनीताल समाचार के नये अंक में छ्पी श्री मुकेश नौटियाल की कविता सुना रहे हैं। नर-नारी में भेद की करूण व्यथा को बहुत ही खूबसूरत कविता में पिरोया गया है, आप अवश्य पढ़ियेगा –

जब पढ़ोगी तुम इस कविता को
तो हंसोगी शायद
कि उत्तर आधुनिकता के ठीक पहले तक
अपने यहां की महिला डाक्टर
माफी माँगा करती थी बेटियाँ होने पर
और मेरे जैसे बाप
हारे हुए सिपाही समझे जाते थे
तुम्हारे होने पर…..
अज़दक पर प्रमोद भाई ने एक अच्छा मुद्दा उठाया है, ब्लॉग-जगत में लगातार बढ़ रही दूरियों को आपसी वार्तालाप से ही समाप्त किया जा सकता है , मैं क्षमा चाहूँगा कि यदि आप बोरियत महसूस कर रहें हो तो मगर इस पोस्ट की खुलकर चर्चा करने से मैं स्वयं को नहीं रोक पाऊँगा, हो सकता है कि इसके चक्कर में मेरी इस चर्चा की लम्बाई फुरसतिया की पोस्ट के समतुल्य हो जाये मगर यह आवश्यक है। ब्लॉग पर कौन आये, कौन नहीं के प्रश्न का हल खोजते हुए वे कहते हैं कि –

चिट्ठाकारी और ब्‍लॉगिंग क्‍या है. ऑन लाईन डायरी गुलज़ार की किताब को पा लेने के सुख, पास्‍ता का वर्णण और लिट्टी-चोखा का आस्‍वाद, अपनी कविताओं को सजा-छपा देखने की खुशी, किसी देखी गई फिल्‍म और उतारे गए फोटो पर हमारी-आपकी राय, मन की उधेड़-बुन और यार-दोस्‍तों की गपास्‍टक, इंटरनेट व हिंदी ब्‍लॉगिंग की तकनीक व नई जानकारियों को जानने-बांटने का उल्‍लास- के दायरों में ही रहे ऐसा हम क्‍यों चाहते हैं? क्‍या यह कक्षा में किसी नये छात्र के चले आने पर पैदा हुई बेचैनी है जिसका व्‍यवहार, रंग-ढंग ठीक-ठीक वैसा ही नहीं है जैसा सामुदायिक तौर पर हम देखते रहे थे? अपने बारे में आपकी राय मैं नहीं जानता मगर समुदाय में रवीश कुमार और अनामदास को पाकर आप प्रसन्‍न नहीं हैं? भाषा और विचारों की प्रस्‍तुति का उनका अंदाज़ आपको लुभावना नहीं लगता? ये दोनों पत्रकार हैं, मैं नहीं हूं, लेकिन दोनों के ही पोस्‍ट बड़े चाव से पढ़ता हूं, जबकि अनामदास की चिंतायें बहुत मेरे मिजाज़ के अनुकूल भी नहीं हैं. फिर भी. क्‍योंकि उनको पढ़ने में एक विशेष रस मिलता है.

आप फिर मुझे बड़बोला और सर्वज्ञानी की गाली देकर धिक्‍कारेंगे, दीजिये. वह ज्‍यादा अच्‍छा और स्‍वास्थ्‍यकर है बनिस्‍बत किसी फारुकी या नीलेश मिश्र के लिखे पर बम-गोला होने लगने के. भई, पत्रकार समीक्षा करेगा तो ज़ाहिर है अपनी बिरादरी को पहले याद करेगा. आप किसी तकनीकी फॉरम में चर्चा करेंगे तो तकनीकी बिरादरी के कामों की तारीफ करेंगे,
रवीश की लिखाई को याद करना शायद तब आपको याद न आए. इसमें ताजुब्‍ब और तकलीफ क्‍यों है? अंतत: तो आप भी मान ही रहे हैं अच्‍छे और सार्थक पोस्‍ट्स ही अपनी तरफ ट्रैफिक खींचेंगे, कोरा सेंशेनलिज्‍म नहीं. मेरी जानकारी इस विषय में कम है मगर हिंदी के अच्‍छे और बुरे ट्रैफिक में भी अभी फ़र्क कितना है? चार सौ? पांच सौ? सिलेमा वाले मेरे ब्‍लॉग पर औसतन पचास लोगों की आवाजाही होती है, कभी-कभी और भी कम. अभय अच्‍छा लिखते हैं मगर वह भी पचास पाठक पाकर सुखी हो लेते हैं. तो उसके लिए अभय और मैं पत्रकारों को तो दोष नहीं दे सकते. ढाई सौ की बिरादरी में जिनकी संख्‍या पंद्रह से ज्‍यादा तो कतई नहीं ही होगी, और उसमें भी हल्‍ला करनेवाला अकेला अविनाश है.

फिर आने वाले समय में चिट्ठाजगत में बाज़ारवाद के हावी होने की शंका उठाते हुए वे कहते हैं कि -

गंध तो आनेवाले दिनों में मचेगा. जैसे-जैसे सुलभता बढ़ेगी, नये खिलाड़ी आयेंगे. बाज़ार के विचार, सेक्‍स और सामान बेचनेवाले.

ब्‍लॉग में बात कम विज्ञापन ज्‍यादा होगा. हमारे गरीब टेप्‍लेट से ज्‍यादा चमकदार, ज्‍यादा प्रभावी होगा. वीडियो क्लिपिंग्‍स दिखाएगा, हिट गाने सुनाएगा. उनके ट्रैफिक के आगे हम कहीं नहीं टिकेंगे. फिर? तब क्‍या करेगा नारद? शायद तब तक नारद का और विस्‍तार हो, ज्‍यादा साधन-संपन्‍न बने, मगर जो बीस तरह की नई आवाज़ें होंगी और जिनके पास बाज़ार की ताकत और ज्‍यादा साधन-संपन्‍नता होगी वो चुप तो नहीं ही बैठेंगे. लुभावने ठाट-बाट के आकर्षण से लैस नए पोर्टल खोलेंगे. ट्रैफिक की नाटकीयता से हमें चकाचौंध कर देंगे. तब?
इस पोस्ट पर देबूदा और जीतु भाई द्वारा दी गई टिप्पणियों का जिक्र भी यहाँ करना आवश्यक प्रतित हो रहा है, हालांकि मैं जानता हूँ कि मुझे केवल ताजा प्रविष्टियों की चर्चा ही करनी चाहिये मगर इन टिप्पणियों का भी यहाँ जिक्र करना आवश्यक प्रतित हो रहा है। देबूदा पूर्वाग्रह को छोड़कर वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार अपनी राय तय करने में दिलचस्पी देते दिखे और अविनाशजी ने भी उनका समर्थन किया -

अविनाश आप ये तो मानेंगे कि पूर्वाग्रह दोनों तरफ ही रहे हैं। आपके हाल ही के स्पष्टिकरण जिसमें आपने मौज में लिखा कि चिट्ठाकारी से आप लोगों की नौकरी ही खतरे में है ने मुझे अपनी राय थोड़ा बदलने का मौका दिया। एहसास हुआ कि शायद मेरा कयास
वाकई पूर्वाग्रह ही रहा हो।

अब मैं आपसे कहूँ कि कुछ पूर्वाग्रह आप भी छोड़ें। "सामंती अनुशासन की नकेल" की बात आप केवल एक साईट के विषय में कह रहे हैं वो है नारद। नारद एक जालस्थल है, मुहल्ला की ही तरह, जैसे आप ये निर्णय लेते हैं की पूर्व प्रकाशित रचना स्वीकार नहीं करेंगे वैसे ही नारद के संचालक ये निर्णय लेते हैं की फलां फलां किस्म के ब्लॉग शामिल नहीं करेंगे। अगर आप अपना निर्णय सही मानते हैं तो नारद का भी मानें और ये निर्णय लेने की उनके हक को सम्मान दें। क्या मेरे द्वारा प्रेषित पैरिस हिल्टन की अधनंगी तस्वीर आप अपने चिट्ठे पर छापना चाहेंगे? आप कहेंगे ये मेरा निर्णय होगा, बिल्कुल! जिसकी साईट उसका निर्णय, इसको पूरी बिरादरी पर न थोपें।
अब जीतु भाई की टिप्पणी के कुछ अंश –

देखो भाई, ब्लॉग एक अलग तरह का माध्यम है। हमारी पहुँच, आकांक्षाए और सपने बहुत सीमित है। हम जहाँ भी है, वहाँ काफी खुश है। आज नही तो कल, हमारे प्रयासो को दुनिया देखेगी। हम इन्टरनैट पर हिन्दी ब्लॉगिंग को बढते हुए देखना चाहते है, लेकिन साथ ही प्रदूषण भी नही चाहते, ना ही गुटबाजी, राजनीति और किसी तरह का कलह।

ये सच है कि अभी तो शुरुवात है, कई तरह के लोग आएंगे। अभी तो दस परसेन्ट भी नही आए, तब शायद नारद को भी अपस्केल करना पड़े, या ऐसे कई नारदों की जरुरत रहे। लेकिन तब भी, हम अपने नारद को साफ़ सुथरा ही रखना चाहेंगे। आपके लिए नारद शायद एक माध्यम होगा, लेकिन हमारी भावनाएं जुड़ी है नारद से।

जिस तरह मोहल्ला वाले स्वतन्त्र है अपने मोहल्ले को साफ़ रखने मे, उसी तरह नारद के संचालक भी स्वतन्त्र है,नारद को स्वच्छ रखने में। हमने एक आम सहमति बनाने की कोशिश की थी, इस दिशा मे, लेकिन वो शायद नही पाई, लोगों ने उसे अलग तरीके से लिया, खैर। आपने यदि ब्लॉगिंग शुरु की थी तो नारद के भरोसे नही की थी, ना ही हमने कभी मीडिया की जरुरत महसूस की थी। नारद से शायद आपको कुछ ट्रैफ़िक मिलता होगा और हमे एक सुख, कि एक और भाई हमारे गाँव मे शामिल हुआ। लेकिन यदि किसी ब्लॉग विशेष से गाँव की शांति भंग होती है तो व्यवस्था देखने की जिम्मेदारी भी गाँव वालों की ही है। या तो आप साल छह महीने टिको, हमारे साथ घुलो मिलो, हमारा ही एक हिस्सा बनो, तब शायद हमे शंकाए ना रहे, लेकिन यदि आप आते आते ही हवा बदलने की कोशिश करोगे, तो हम भी सोचने पर मजबूर हो जाएं कि आप लोग किसी एजेन्डे के साथ आए हो।नए मीडिया चिट्ठाकारों ने जिस तरह अपने ब्लॉग का प्रचार करके, बाकी को दरकिनार किया, उससे इन शंकाओं को बल मिलता है। आप कहेंगे कि कुछ पत्रकारों ने ऐसा किया, तो मै पूछता हूँ, आपने प्रतिकार क्यों नही किया? आपने उनसे सवाल जवाब क्यों नही किये?
जोगलिखी पर संजय भाई एक आंग्ल भाषा का पत्र पढ़वा रहें है, पढ़वाने से पूर्व ही सबको चेता भी रहें है कि इसमें प्रयुक्त सभी शब्द गलत हैं मगर मुझे ताज्जुब हुआ जब मेरे जैसा आंग्ल भाषा का अल्पज्ञानी भी उसे एक सांस में पढ़ गया, ये रिसर्च वाकयी कमाल का है, मगर देवनागरी भाषा को भी इस प्रकार पढ़ा जा सकता है?, जी हाँ, पढ़ा जा सकता है। यकिं नहीं होता? यह देखिये दीप्ति पंत जी ने अपनी पोस्ट जीवन एक सफ़र में इसी प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया है और मुझे तो पढ़ने में कोई दिक्कत नहीं हुई –

जीवन कित्ना गह्ररा और कितना द्वन्द भरा है , पता नहि चल्ता..
लग्ता है आज हि
तोह मै एक लद्कि थि और आज मेरि बेति ब्यअह के कअबिल है.

मेरा मन बहूत हि
उच् श्रिंकहल है, पर विचआर उत्ने हि गह्रेरे है....
खेल्ते है मन से ,
उस्को इधर उगधर ले जाते है...
खेल मन का , विचरो से

जैसे पत्तो के
बीच से बह्ति है हवा...
जैसे एक उर्ज जो छोध् जाति एक रोश्नि , रस्ता खालि खाली
सा....
अपनि पएह्चन् खोज्ने निक्ले हम,

जाने कहा पहूचेंगे , और कब

कउछ पता नहि....

बेजीजी ने कल सवाल खड़ा किया था कि पत्रकार ब्लॉगर क्यों बने? उसके जवाब में आज प्रमोद सिंह के साथ-साथ अभय तिवारी नें भी अपनी राय जाहिर की। लगता है यह बहस अभी और लम्बी चलेगी। पत्रकारों की प्रतिक्रियाएँ आना अभी बाकि है तो उच्च क्षमतावान समझे जाने वाले चिट्ठाकार भी अभी शाँत है... खेर हमारी नज़र बनी रहेगी J

मानसीजी ने चंपक में छपी एक कविता में बदलाव कर एक नईं बाल कविता का निर्माण किया है... अफ़लातूनजी के प्रयास शैशव के बाद मुझे यह दूसरा चिट्ठा नज़र आया जिसमें बालमन के लिये एक प्रयास हुआ। भविष्य में बच्चे/किशोर भी हिन्दी चिट्ठाकारिता में उतरकर 56 इंच (लगभग) का घेरा साथ में लेकर उड़ने वाली तस्तरी को भी अपनी ओर खींच पानें समक्ष होंगे, ऐसी आशा है।

दिल का दर्पण में जाते ही पहले तो हम घबरा गये कि यह बड़े-बड़े अक्षरों में क्या लिखा आ रहा है? फिर ध्यान से देखा तो हमारा अतिथि क्रमांक था, इसके लिए मोहिन्दरजी का आभार। हमें हमारा अतिथि क्रमांक देने के बाद उन्होंने एक बहुत ही सुन्दर कविता “भौर का निमंत्रण” प्रस्तुत की -

भौर देती है निमन्त्रण
नव किरणों का
सोपान कर ले
रात्री के सुनहले
स्वपनों से निकल कर
आने वाले पलों का
एक और दिल के करीब कही जा सकने वाली पोस्ट रही विशाल सिंह जी के चिट्ठे अनहद पर, नंदीग्राम में हुए ताजा नरसंहार पर उनकी कलम इतिहास से वर्तमान तक हर पहलू को छूती है -

समाजवाद के महान आदर्श नारों तक ही क्यों रह जाते हैं। कुछ लोगों की स्वार्थपरकता समष्टि के हित पर भारी क्यों पड जाती है? स्टालिन के रूस और साम्यवाद के नाम पर अन्यत्र होने वाले अत्याचार यही बताते हैं कि का मनुष्य द्वारा शोषणा किसी व्यवस्था विशेष के फल नहीं हैं अपितु शोषण का ये क्रम तब तक चलता रहेगा जब तक मनुष्यमात्र में मनुष्यता के प्रतिआदर और आदर्शों के प्रतिनिष्ठा नहीं पैदा होती। अगर ब्रिटेन और अमेरिका में औद्योगिक क्रंति के दौरां श्रमिकों के साथ अन्याय हुआ, तो स्टालिं के रूस और छद्मसाम्यवादी चीन के हाथ भी ख़ून से रंगे हुए हैं जार्ज ओर्वेल की यह कहानी स्वार्थसिद्धि के लिये व्यवस्था के दुरुपयोग का शास्त्रिय वर्णन है । जार्ज ओर्वेल ने यह कहानी सोवियत रूस में स्टालिन से प्रभावित होकर लिखी थी, लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य में भी यह उतनी ही सही लगाती है। कहानी शुरु होती है, पशुओं के एक फ़ार्म से जिसके पशु अपने मालिक से इसलिये परेशान रहते हैं कि वो उनसे काम ज्यादा लेता है, लेकिन अपेक्षित बर्ताव नहीं करता है। पशुओं कि सभा होती है जिसका नेतृत्व ओल्ड मेजर(कार्ल मार्क्स से प्रेरित चरित्र) नाम का सुअर करता है, सभा में वह पशुओं को अपने सपने के बारे में बताता है कि एक दिन फर्म से मनुष्य चले जायेंगे और पशु शांति और समरसता से रहेंगे. तीन दिनों बाद ओल्ड मेजर मर जाता है तो स्नोबाल और नेपोलियन नाम के दो सूअर विद्रोह का निश्चय करते हैं. पशुओं में सबसे वृद्ध एक गधा कहता है कि उसने बहुत जिंदगी देखी है और वो जानता है कि अंततः कुछ नहीं बदलेगा, जवान पशु समझते हैं कि गधे के बुढे खून में क्रांति की कमी है और उसा पर ध्याना नहिं देते हैं। सारे पशु इस आशा से लडते हैं कि विद्रोह के बाद साम्यवाद आयेगा, सबको स्वधीनता और समता प्राप्त होगी। नियत समय पर युद्ध शुरु होता है, कुछ पशु शहीद होते हैं, कमांडर सहित कुछ को गोली लगती है लेकिन अंततः मालिक मारा जाता है और फ़ार्मा स्वतंत्र होता है। फ़ार्म का नाम "एनिमल फार्म " रखा जाता है।सारे पशु खुशियां मनाते हैं, भविष्य के लिये सात दिशानिर्देश तय होते हैं, जिनको फ़ार्म के बीचोबीच एक तख्ते पर लिखा जाता है।

सभी दोपाये शत्रु हैं।
सभी चौपाये मित्र हैं।
कोई पशु वस्त्र नहीं पहनेगा।
कोई पशु पलंग पर नहीं सोयेगा।
कोई पशु शराब नहीं पियेगा।
कोई पशु दुसरे पशु की हत्या नहीं करेगा।
सभी पशु समान हैं।
ज्ञानदत्त जी एक और अच्छी ख़बर लेकर आये हैं जिस पर प्रत्येक हिन्दुस्तानी को गर्व होगा। बीबीसी वल्ड सर्विस और ग्लोब-स्कान के २७ देशों मे २८००० लोगों से किये सर्वेक्षण में निकला है कि भारत ही एकमात्र देश है जिसने पिछले वर्ष में अपना कद व्यापक तौर पर बेहतर किया है. भारत की स्थिति में महत्वपूर्ण सुधार है. बस ही सुधार वर्ल्ड-कप में भी हो जाये तो क्या कहने :) । खालीपीली जी (आशीष श्रीवास्तव) 23 वीं अनुगूँज के लिए अपनी पोस्ट “अनुगूँज 23: ऑस्कर, हिन्दी और बॉलीवुड” लेकर हाज़िर हुए हैं। भारतिय सिनेमा को इतिहास से लेकर वर्तमान तक अपनी नज़रों से देखने का प्रयास किया है जिस आपको टिप्पणी केवल संयत भाषा में देने की इजाजत है। जागरण डोट कॉम में छपी एक ख़बर का हवाला देते हुए कमल शर्माजी बता रहें है कि सास-बहू के झगड़े का कोर्ट में क्या हुआ? तो अफ़लातूनजी झगड़ों से दूरी बनाते हुए अपनी “कम्युनिस्ट देश और उपभोक्तावाद” श्रृंख्ला का अंतिम भाग लेकर उपस्थित हुए। दिल्ली निवासी डॉ. शर्मा को रिस्तों का एहसास हो रहा है, जिसे उन्होंने सबके समक्ष कविता के माध्यम से प्रस्तुत किया है –

एक थोड़ी सी आशा बंधी
सरल सीधा सादा
दुनियादारी की चालाकियों से बेखबर
अपने मन में कुछ धीरजधर -
फिर -
साथ के पांव की ओर बड़े विश्‍वास से
ताका -
कहा -
यार, मेरे दोस्‍त,
कुछ मदद कर
मुझे इस संकट से मुक्‍त
कर
दूसरे पांव ने देखा - सुना
अनजान सा होकर मुंह फेर लिया

क्या आप रिस्तों से बाहर निकलकर जानना चाहेंगे कि टी.वी. की सात सबसे बड़ी ख़बरें कौनसी हैं? इसके लिये आपको सीएमएस मीडिया लैब जाना होगा, मगर हाँ सबसे बड़ी ख़बर क्रिकेट वर्ल्ड-कप ही है, आखिर पैसा भी तो इसी से मिल रहा है अभी :) । सिलेमा में देखिये एक रिपोर्ट फिल्म “हनीमून ट्रैवेल्‍स प्रा. लि.” के बारे में। कमल शर्मा जी सास-बहू की ख़बर देने के पश्चात सर्वे-रिपोर्ट पर कलम चला रहे हैं। देश में गरीब कम हो गए और अमीर ज्‍यादा। मगर कैसे? इसका जवाब वे सरकार से मांग रहें है। कहीं इसके पिछे यह नारा “गरीबों को हटा दो...गरीबी अपने आप हट जाएगी” तो नहीं?

मोहल्ले में अनीश अंकुर, योगेंद्र यादव जी का साक्षात्कार लेकर घुमते दिखे तो मनिषाजी अपनी चिट्ठी लेकर हाज़िर हो गई और अविनाशजी ने तुरंत मौका देखकर बहस समाप्ती की घोषणा कर दी। मुम्बई-ब्लॉग्स में नंदीग्राम-कांड पर लोकमंच के राजनीतिक संपादक राम लाल खन्ना जी के विचारों का प्रथम भाग पढ़ने को मिला। रचनाकार के अगले अंक में असग़र वजाहत का यात्रा संस्मरण : चलते तो अच्छा था की पहली किश्त - ‘मिट्टी का प्याला' पढ़ने को मिलेगी, ऐसा वादा किया जा रहा है। संभवतया हितोपदेश आज की सबसे लम्बी पोस्ट रही, संस्कृत और उसका हिन्दी अनुवाद के साथ-साथ प्रवाह युक्त कहानी भी बहुत शानदार रही। देवेश वशिष्ठ 'खबरी' एक खूबसूरत कविता उदासीनता का आँचल प्रस्तुत कर रहे हैं –

दूर-दूर तक उडती धूल,
चेहरा मेरा खिला कहाँ है?
कहाँ खिले दिल में दो शूल?
बतलाओगे कैसा सूखा ?
कैसी होती है कलकल ?
मैंने कब का ओढ लिया है
उदासीनता का आँचल।
घुघूती बासूती जी कविता के माध्यम से यादों में खोती नज़र आई -

ये ही तो वे हैं जो ला डाल देती
गोद प्यारी नन्ही बिटिया को
ये ही तो लौटा लाती हैं फिर से
मेरे और उसके बीते बचपन को ।

कुछ सिमटी सी कुछ लिपटी सी
यादें ही तो विरहा के गीतों में हैं
कुछ खट्टी किन्तु कुछ मीठी सी
ये तो प्रिय की हर धड़कन में हैं ।
शुभ्रा गुप्ता (?) की कविता पिता पुत्र संवाद भी बहुत खूबसूरत है, एक नज़र इस पर भी मार लिजियेगा -

पिता से गर कहना हो कुछ तो बेझिझक कह ओ नादान
लेकिन वाणी और मर्यादा का रहे हमेशा ध्यान
दोस्त नहीं हूँ तेरा जो तेरे स्तर पर उतर आऊँगा
तेरा हाथ अपने काँधे पर नहीं, हाथ तेरा अपने हाथों में थामूगाँ
नई पीढ़ी ने इस पावन रिश्ते को दी है एक गलत पहचान
हर रिश्ते की होती है अपनी ही एक मर्यादा और मान
यह रहे हमेशा ध्यान पिता के पद का होता है एक विशिष्ट सम्मान
इसीलिये अपनी मर्यादा का रहे तुम्हें भी ज्ञान
ताकि तू भी बता सके अपने पुत्र को इस रिश्ते की सही पहचान
चर्चा काफि लम्बी हो चली है इस कारण मैने आगे का प्रभार सागर भाईसा के कंधो पर डालकर खिसकने का मन बनाया ही था, इतने में गुरूदेव टहलते-टहलते आये (अब इतने भारी-भरकम शरीर से टहलना ही हो सकता है) और बोले, “बिना महाराज समीरानन्द के कोई कार्य कैसे पुरा हो सकता है, मेरी पोस्ट की भी चर्चा करों”। हमने निवेदन किया कि गुरूदेव आपने कुछ लिखा ही नहीं तो चर्चा कैसे करूँ, आप कुछ लिखें। मेरी मजबूरी को वे तुरंत भांप गये और फटाफट एक मेल उठाकर पोस्ट कर दिया। मुझे लिंक देकर बोले, “लो अब करो चर्चा”। गुरूदेव से हालांकि अच्छी पोस्ट की उम्मीद रहती है मगर पिछले कुछ समय से वे लय में नहीं दिख रहे, खेर उनका लेखन तो उम्दा है ही। वे ‘खेद हैं’ लिखते हैं तो भी हँसी फूट पड़ती है। खेर गुरूदेव के इस मेल रूपांतरण पोस्ट में लिखे आँकड़े पुन: अपने आप को दोहराएँ और भारत एक बार फिर से वर्ल्ड-कप जीत कर लौटे इसी शुभकामना के साथ मैं इस चर्चा को यहीं समाप्त करता हूँ।

आज की तस्वीर : हमारा संसार से साभार

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बुधवार, मार्च 21, 2007

मिलन, मुखौटे और आचार संहिता

आज आईना पर जगदीश भाटिया जी हमें दिखाये गुरु फिल्म के कुछ अनदेखे सीन . हम तो यह फिल्म देखे नहीं हैं तो कह दिये कि भाई , पूरी फिल्म भी दिखा डालते तो भी हमारे लिये तो अनदेखे ही सीन रहते. उसमें भाग ३ देखकर बड़ा खराब लगा. गुरु देसाई चुप्पे बैठे है और अपनी पत्नी के तमाम उलाह्नों के बाद वो रोने लगता है कि मुझे लड़ाई खत्म नहीं करना आता सिर्फ लड़ना आता है और अपनी पत्नी की बांहों में अपना अकेलापन छिपा लेता है. मुझे बहुत दुख हुआ. काश, गुरु देसाई का हिन्दी ब्लाग होता तो बेचारा अलग थलग और अकेला न महसूस करता. यहाँ तो वो मेजारिटी में होता. बहुत से साथी मिल जाते जिन्हें नहीं आता झगड़ा खतम करना.खैर, उसकी बदकिस्मती कि उसने चिट्ठा नहीं खोला, और फालतू के बिजनेस में पड़ा रहा, हम क्या कहें. वो जानें और उनकी पत्नी.

हम तो हमारे सागर भाई से टंकी पर चढ़ना सीखे ( अरे भाई, छोटों से भी तो सीख सकते हैं) , चढ़े भी. कोई उतारने ही नहीं आया. बल्कि शुभचिंतक पंकज ऐसे कि कहने लगे हम तो चाहते हैं कि लालाजी टंकी से छंलाग लगा दें. हालात बिगड़ते देख हम खुद ही उतर आये टंकी से. विवाद शांत मान चुपचाप सोचे लिखते रहेंगे, अगर न लिखेंगे तो बाहर का रस्ता तो सबहिं दिखा ही दिये हैं.

सागर भाई की चर्चा पर हुये थोड़े उल्लम-चुल्ल्म को शांत देख, वहाँ मकबरा बनवा दिया गया और समझे कि सब शांत. अब उस मजार पर कल फिर कोई फूल चढ़ा गया रात के अंधेरे में. आप लोगों को तो मालूम भी न चलता अगर हमारे जैसा आदिम और पुरातन चीजों को तलाशने वाला आपके बीच न होता.

आपको तो हिन्द-युग्म पर हुये जलसे की भी याद होगी. मगर अब तो भूल गये न उसे. जैसे ही भूले तो वहाँ तो मजार पर दो दो फूल चढ़े हैं. एक तो हमारे शिष्य गिरिराज खुद ही चढ़ाये हैं. खैर वो तो हमारा स्वभाव जानता है, बुरा नहीं मानता हमारी बात का. है तो काबिल.

अब हम जो कहना चाहते हैं कि बाकि कि आचार संहिता छोड़ो भाई लोगों. सबसे पहले अहम आवश्यकता है विवादों के लिये संहिता बनाने की. पोस्ट तो अगली पोस्ट आते ही हाशिये में चली जाती है. फिर वहाँ वो ही आता है जो अटका हो वरना सब भूल जाते हैं. तो चलते विवाद को हवा देना हो तो पोस्ट के माध्यम से दो, तब असरकारक हो, वहीं टिप्पणी करते रहोगे तो मजार में से उठकर भूत तो फूल देखने से रहा. कहीं तुम्हारी टिप्पणी बेकार न चली जाये और भविष्य मे जब कोई चिट्ठों का इतिहास देखे तो तुम्हें झूठमूठ वीर न मान बैठे कि तुम आखिरी टिप्पणी किये थे जिससे विवाद शांत हो गया जबकि तुम्हारा उद्देश्य तो उसे और भड़काना था जो नजर के आभाव में शांत हो गया. तो ऐसा न करो , मित्रों.

मेरी सलाह है कि एक ऐसा ब्लाग शुरु किया जाये जहाँ चिट्ठा जगत में हुये विवादों को कालजिवी बनाने के लिये दर्ज किया जाये. सारे लिंक और संबंधित टेकस्ट के साथ. ताकि सब एक जगह उपलब्ध रहे, लोग उसे पढ़ें और भविष्य में कुछ सीखें और पूर्व में उठ चुके विवाद फिर न उठायें और दर्ज को ही आगे बढ़ायें.

अब यह देखें, सीधे सादे हमारे राकेश भाई. कविता करते हैं, गीत रचते हैं और यहाँ तक की चिट्ठा चर्चा भी गीत में ही करते हैं. हड़म बड़म ने उन्हें भी विचलीत कर दिया. हिल गये साहब वो अंदर तक. बर्दाश्त न कर पाये और हुंकार सुन कविता और गज़लों की समीक्षा कर बैठे. हम तो पढ़ते ही कह दिये कि यह पोस्ट विवादित होने की संपूर्ण काबिलियत रखती है. मगर हद तो तब हो गई जब हमारे जैसे ज्ञानियों के अनुमान के विपरीत यह पोस्ट सराही गई. हम अकेले थोड़े आश्चर्य में थे, इसके रचयिता खुद आश्चर्य मे पड़ गये कि विवाद काहे नहीं हुआ, तब वो फिर से लिखे..चुप न रहो-कुछ तो बोलो देखो मेरे कितने प्रश्न अनुत्तरित रह गये हैं.

अनिल रघुराज कह्ते हैं कि न उदास हो मेरे हमसफर मगर कैसे न हों जब एक तरफ तो काम न होने का मानसिक तनाव हो और तिस पर से एक तरफ चक्कर फंसा हो मिलन, मुखौटे और आचार संहिता का:


अब तक की राम -कहानी मैंने आपको ज्यों-की-त्यों सुना दी। सारे तथ्य सिलसिलेवार ढंग से रख दिए। लेकिन मैं पूछना चाहता हूं कि हे मुखौटाधिपति महोदय, आप मेरी ऊर्जा को रचनात्मक कार्यों के लिए बचने दें, तब न मैं जासूसी छोड़कर कुछ सार्थक किस्म का काम कर सकूं। अब देखो न , आपके कारण मुझे इतनी लंबी पोस्ट लिखने में कितनी ऊर्जा व्यर्थ गँवानी पड़ी। इतने समय में तो मैं नेताजी पर लेख -शृंखला की अगली पोस्ट लिख सकता था। वैसे, मुझे मालूम है कि हिन्दी चिट्ठाकारी के भरतमुनि, भामह बनने चले इस ….. किस्म के मुखौटे के समर्थन में तमाम बुजुर्ग चिट्ठाकार उमड़े चले आएंगे और यदि कोई दूसरा नहीं आएगा तो एक ही परिवार में कई मुखौटे तो हैं ही पहले से, साथ देने के लिए।


खैर, बात अभी और होगी. तब फिर आपको खबर देंगे. हम तो बस चर्चा कर रहे हैं, कोई समीक्षा नहीं.

जिसका जो मन किया उसने वो लिखा. होना भी ऐसा ही चाहिये. हमने भी गाँधी जी अपनी जुआघर में हुई मुलाकात के बारे में लिखा, मिले है तो लिखेंगे:


लुक, हाऊ क्यूट इज दिस गाँधी!! कोई कहता-पुअर गाँधी, लुकिंग सो स्वीट!! वेरी सेक्सी! इन बातों को सुनकर भी बिना हिले डुले खड़ा लाचार गाँधी-सेक्सी गाँधी -क्यूट गाँधी. मैने यह नायाब नजारा देखा . जिस गाँधी की पाँच सौ रुपये के नोट पर तस्वीर अंकित है. लगभग उतने रुपये घंटा अर्जित करने के लिये खड़ा मजबूर गाँधी.


उसी तर्ज पर भाई प्रमेद्र प्रताप सिंग लाये भगवान झूलेलाल जयंती पर विशेष और फुरसतिया जी ने बताया आयुध निर्माणियां-विनाशाय च दुष्कृताम:


भारतीय आयुध निर्माणियाँ सबसे पुरानी एवं सबसे बड़ा औद्योगिक ढांचा हैं जो रक्षा मंत्रालय के रक्षा उत्पादन विभाग के अंतर्गत कार्य करती हैं। आयुध निर्माणियां रक्षा हार्डवेयर ( यंत्र सामग्री ) सामान एवं उपस्कर के स्वदेशी उत्पादन के लिए सशस्त्र सेनाओं को आधुनिकतम युध्दभूमि उपस्करों से सज्जित करने के प्रारंभिक उद्वेश्यों के साथ एकनिष्ठ आधार की संरचना करती हैं।


फिर हमारे अमित भाई से सुनिये कि कैसे हुआ टेक्नॉलोजी का उत्तम प्रयोग ब्लॉगर भेंटवार्ता में और भाई अभय तिवारी कैसे पहुँचे भाग कर ४० से १४ पर -बस सिगरेट छोड़ी और पहुँच गये.एक अच्छा संदेश लिये उनका संस्मरण.

क्रिकेट का वृतांत सुनें: सागर से आह क्रिकेट वाह क्रिकेट और शुएब तो खुदा को ही मैदान में उतार बैठे

प्रियंकर बाबू प्रयाग शुक्ल की कविता सुनवा रहे हैं तो मनीष बाबू महादेवी वर्मा की.

रचना बजाज जी अपनी विचारधारा बयान कर रही हैं कि उनके लिये

--- अब काफी रात हो गई, बहुत छूट गये संजय भाई की चर्चा के आभाव में, शायद कॉफी का कप न मिल पाया होगा. कल करेंगे मगर चर्चा वो तब बाकि को कवर कर लेंगे, बहुत ही सक्षम हैं.. :) हम चलते हैं.

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मंगलवार, मार्च 20, 2007

कैसीनो में गांधी और अचार (आचार) संहिता

क्या तुमने भी गांधी देखा ?
नोटों में फोटो में देखा
जनता की वोटों में देखा
बरसों से है मौन ओढ़ कर
राजघाट में खादी देखा
लेकिन कैसीनो में तुमने
करते कभी मुनादी देखा ?
देखो किसने गाँधी देखा

नदियों पर के पुल टूटे हैं
ये किस्से सारे झूठे हैं
पुल तो तभी टूटते, लगता
रिश्ते कुछ नाजुक टूटे हैं
सच में वे ही पुल टूटे हैं

कौन बनाता टेंक तोप है
कहाँ बन रही हैं बन्दूकें
कौन उड़ा चढ़ कर विमान पर
किसने बन्द करी सन्दूकें ?

नमो दैव्यं , टेक्नोलोजी
इकहत्तर की कर लो बातें
किस्सा कुरसी का, बेमतलब
रोने की बजार में रातें

देख किसी को पछताओ मत
रह रह कर दिल को समझाना
दस्तक दो तो खुल जायेगा
भेद, टाक का लिंक लगाना

कहाँ गई आचार संहिता ?
कहाँ काव्य है कहाँ गज़ल है
और कहाँ पर उठा फावड़ा
फूलों की कट रही फ़सल है.

शब्द डायरी भले विदेशी
हिन्दुस्तानी यहाँ डायरी
आत्म विलोड़न करते करते
लगे गद्य में हुई शायरी

किरकिट वाली बात यहां पर
बाब वूल्मर और कानपुर
होम्योपैथी और कम्प्यूटर
और विपिन का नया नया सुर

नई धूप में नई मानसी
घुघुती के प्रश्नों के उत्तर
गीतकलश पर नई कामना
शुभ लेकर आया संवत्सर


आगे देखो तो पीछे भी
ये सब हमको गया बताया
नजर बची तो क्या क्या होगा
यही चित्र में गया दिखाया :-



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सोमवार, मार्च 19, 2007

मध्यान्हचर्चा दिनांक : 19-03-2007

(आप सभी को भारतीय नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाऐं)

संजय कक्ष में प्रवेशते देख धृतराष्ट्र ने व्यंग्य किया,” आओ, संजय. नियमितता कोई तुमसे सीखे. संजय ने आँखें चुराते हुए लैपटॉप पर नजरे गड़ा दी.

घृतराष्ट्र : यहाँ वहाँ के टंटो में टाँग डालना बन्द क्यों नहीं कर देते? समय की बचत होगी तथा चर्चा सुनाने का समय भी निकलेगा. कुछ सलीके की एक-आध प्रविष्टी भी लिख सकोगे. खैर अभी तो चिट्ठा दंगल का हाल सुनाओ.
संजय : जी महाराज. प्रथम तो महाशक्ति द्वारा भारतीय नववर्ष की बधाई स्वीकारें.
साथ ही कानपुर में जन्मे बॉब वुल्मर जो क्रिकेट के आधुनिक कोच थे, उन्हे पंकज के साथ श्रद्धांजलि दें.
लाइन में खड़े काकेश चिट्ठाकारी की आचार संहिता से असहज है तथा ‘मैं या हम’ जैसी भाषा को लेकर भ्रमित दिख रहे है.
वहीं समीरलालजी को कोई भ्रम नहीं की दो भाईयों को जोड़ने वाला सेतु माँ होती है.
मगर अच्छे अच्छो को भ्रम में डाल देने वाले भाषा-इंडिया की भाषा की पोल खोल रहे है, रवि रतलामी.

घृतराष्ट्र : धन्य है ये भाषा इंडिया को चलाने वाले.
संजय : तथा धन्य है भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी. शर्मनाक हार के बारे में गिरीश सिहं की बात माने तो इसका करण है देश के खिलाड़ीयो का खेल के बजाए धन कमाने पर अधिक ध्यान एवं प्रसिद्धि बटोरने के फेर में पड़ जाना.

घृतराष्ट्र : जीत के लिए चाहिए कड़ा परिश्रम व जीतने की अदम्य इच्छा.
संजय : ऐसे ही मानव के परिश्रम व इच्छा शक्ति का परिणाम है वायेजर २ जो सबसे ज्यादा सुचनाएं प्राप्त करने वाला शोध यान है.
वैसे बीना परिश्रम के पुण्य कमाया जा सकता है, कैसे? नहा कर. बता रहे है, कस्बा निवासी रविश.
अब महाराज आप मानसी जी से ‘नेमसेक’ फिल्म की समीक्षा सुने तथा जुगाड़ का आनन्द ले. मैं होता हूँ लोग-आउट.

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रविवार, मार्च 18, 2007

ये भी सच है कि मोहब्बत में नहीं मैं मजबूर

अइयो अम चेन्नई से आशीष आज चिठठा चर्चा कर रहा है जे। अमारा हिन्दी वोतना अच्छा नई है जे। वो तो अम अमना मेल देख रहा था जे , फुरसतिया जे अमको बोला कि तुम काल का चिठ्ठा चर्चा करना। अम अब बचके किदर जाता। एक बार पहले बी उनने अमको पकड़ा था जे,अम उस दिन बाम्बे बाग गया था। इस बार अमारे पास कोई चान्स नई था जे और अम ये चिठ्ठा चार्चा कर रहा है जे।

अब सुक्लाजे को मालूम नई कि अमको चिठ्ठा चर्चा करने के लिये बोलना पाप है। अमारा अबी अबी एक लड़्की से शादी का बात चल रहा जे, अमने आज उसको फोन बी नई किया और ये चिठठा लिक रहा है। भाई लोगो इन को तोड़ा समजाओ जे।
मनोजय जे थोड़ा कनफुज हो रहा है, उनको समज मे नई आ रहा कि ये मानव शब्द किदर से आया।अपन तो अब भाषा शास्त्री है नई, किसी को मालुम हो तो मनोजय जी को बताइये न जे। वो बोलता कि
तो, कहां से आया 'मानव'? स्पष्ट है - 'मन' से. मन की इच्छा अनुसार जिसकी उपज हो वह मानव कहलाया. पूरी जिंदगी मन के अनुसार, (ना कि पूरी तरह निसर्ग अनुसार) गुजारने की क्षमता जिस में है, वह मानव कहलाया. समस्त प्राणिजगत में यही तो मानव की खासियत है.
भूपेन जी बेलुर मठ मे रम गया है, वो गा रहा है
भले ही कोई योद्धा पुकार ले उन्हें
वो हमेशा हाशिए पर मिलेंगे रणभूमि के
अनाम दासजी ने अभय तिवारी जी को कनफुज कर दिया हैजे। आत्मा परमात्मा , डायनासोर की खीचड़ी बना रहा है जे, अमको कुछ भी समज मे नई आ रहा है। आपके समज मे आये तो अमको भी समजाना ! अम सई बोलता जे, अमको रसम सांब्र और भात अच्छा लगता जे , खिचड़ी अम को नही भाता जे।

अपने आगमन के साथ ही बहुत सारे सवाल खड़े कर देने वाले अनामदास..और मैं... लगता है
हम एक ही राह के मुसाफ़िर हैं.. आपने जो बाते कहीं हैं.. वो मेरे भी दिमाग़ को चकराती रही हैं.. "लेकिन एक बात जो समझ में नहीं आई कि अगर आत्मा न पैदा होती है न मरती है तो दुनिया की आबादी कैसे बढ़ रही है? क्या भगवान के पास आत्माओं का स्टॉक है जो वह वक़्त ज़रूरत के हिसाब से रिलीज़ करता रहता है, क्या उसने तय किया है चीन और भारत
के लिए सबसे अधिक आत्माएँ एलोकेट की जानी चाहिए?" अनामदास का सवाल सोचने लायक है.. आत्मा होती है तो क्या होती है.. क्या हर शरीर की आत्मा अलग होती है.. जैसे उसके कपड़े.. एक के कपड़ों की तरह उसकी आत्मा भी दूसरा नहीं पहन सकता... या कपड़ों ही की तरह कोई भी पहन सकता है.. बस लिहाज़ में नहीं पहनता... या ये कोई स्कूलनुमा
सिस्टम है जहां आप चौरासी लाख योनियों में से गुज़र कर आखिर में महाबोध हासिल करके डॉक्टरेट की उपाधि से नवाजे जाते हैं..

इदर आत्मा परमात्मा की बाता चलता, उदर रवीश कुमार भविष्य मे जा कर पता नई क्या क्या खुरापात करता जे।

आज अमको फुरसतिया जे ने चिठ्ठा चर्चा करने फसांया तो सब लोगोने अमको परेशान करने को पता नही क्या कया लिक डाला अब ये देको ना अम अभी आत्मापरमात्मा से परेशान था, वहां से निकला तो रवीश कुमार ने अमको भविष्य मे भेजा, अब रचनाकार मे उत्तम पटेल जी ने उत्तर आधुनिकता के बारे मे क्या क्या लिक डाला । अब आप इसको पढो, नई अमको इसका मतबल नई समजाना।
उत्तर आधुनिकता विचार या दर्शन से अधिक एक प्रवृत्ति का नाम है। यह बीसवीं शताब्दी की मूल धारा है। यह संपूर्ण आधुनिक यूरोपीय दर्शन के प्रति एक तीव्र प्रतिक्रिया है-देकार्त, सार्त्र एवम् जर्मन चिंतकों के प्रति। पाउलोस मार ग्रगोरिओस के मतानुसार उत्तर आधुनिकता एक विचारधारा या लक्ष्य केंद्रित या नियम अनुशासित आंदोलन न होकर पश्चिमी मानवतावाद की दुर्दशा है। यह लक्ष्यों, नियमों, सरल रेखाओं तथा साधारण विचारों पर विचार नहीं करती। यह आधुनिक पाश्चात्य मानवतावाद की अग्रचेतना की एक स्थिति है। ल्योतार, रोर्टी, फूको एवम् देरिदा आदि के दर्शन मुख्य रूप से हेगल के प्रत्ययवादी (Idealist) विचारों की चेतन प्रतिक्रिया के रूप में विकसित हुए
हैं।
सुरेश चिपलुणकर वातावरण की चिंता करता है जे, वो सई बोलता है जे।
"हमें प्रकृति से वही लेना चाहिये जो वह हमें गर्व से और सहर्ष दे, यदि आप जोर-जबर्दस्ती से कुछ छीनना चाहेंगे तो प्रकृति स्वयं की संपूर्ति और आपकी आपूर्ति नहीं कर सकती" ।
इस बात मे बौत दम है जे, तोडा विचार करना जे।

रवि रतलामी जी मतबल की अमारा होनेवाला मामा ससुरजी ब्लागर और एजेक्स के बारे मे सबको बता ता है जे।

राजसमन्द वालो को एक चिठ्ठी मीला है जे, और वो सबको बता रहा है जे, आप बी उनका चिठ्ठी पढो़ जे
हर व्यक्ती दोडा जा रहा है एक प्रकार की अन्धी दौड में, जाने कहां ये रास्ता पहुंच रहा है, किसी को पता नहीं, हर कोई चरम पर जाना चाहता है, पर क्या कोई पहुंच पाया है। बहुत बडी माया है पेसे की, कहते है ना बाप बडा ना भईया, सबसे बडा रुपईया । वेसे देस की रोटी जेसे टापिक पर तो हम एक बडी सी कोपी भर सकते हें । एसी ही वेराग्य की फालतु बातें फिर कभी सहीं। क्यों ना नाम फिल्म से पंकज उधास का गाया हुआ वह प्रसिद् गीत सुना जाए "चिट्ठी आयी है" । आंखों से आंसु छलक ना पडे तो कहना ।
प्रतिक बाबू के पास बौत समय जे, ये जब देको तब सुंदर सुंदर लड़की का फोटो दिकाता केलोगो को बीगाड़्ता जे, अब ये पता नई किदर से १०० हाथ और १००० आंख लेके आया है जे।
पंकज पराशर जी आज फिराक गोरखपूरी को याद करता जे
ये भी सच है कि मोहब्बत में नहीं मैं मजबूर
ये भी सच है कि तेरा हुश्न कुछ ऐसा भी नहीं
दिल की गिनती न यगानों में न बेगानों में
लेकिन इस जल्वागाह-ए-नाज से उठता भी नहीं
आज का सबसे अच्छा चिठ्ठा अमको ये लगा जे, पंकज पराशर जी अमको बताया प्यार पहली नजर मे होता है। अम इसको पूरा सपोर्ट करता जे। अमारे साथ बी ऐसाच हुआ।अमने बी पहलीच बार मे लड़्की पसंद किया जे।
इस शोध करने वालों में से एक प्रोफ़ेसर आर्टिमियो रामिरेज़ कहते हैं, "हम सब किसी भी व्यक्ति को देखते ही सोच लेते हैं कि हम उससे किस तरह का रिश्ता रखना चाहते हैं. इससे पता चलता है कि हम वो रिश्ता बनाने के लिए कितना प्रयास करना चाहते हैं."
सागर जी सई बोलता जी, चिठ्ठा चर्चा करना आसान काम नई जी, बौत मेहनत का काम है जे।

दिप्ती पंत जी ने अपना नया चिठ्ठा बनाया है जे , सब भाई लोगो से अम निवेदन करता है जे उनका उतसाह बढाने का। वैसे अमको ये रालीभा का मतबल नई समजा।

कमल शर्मा जी झुमरी तलैया के लोगो को याद करता जे।

हिन्दूस्तान टाइम्स मे हिन्दी ब्लाग के बारे मे खबर छपा है जे। सब लोग इस के बारेमे लिका है। सब लोगो को इस खबर मे नारद के बारे मे नई छापने का दूख है। रविजी, संजय जी, धूरविरोधी जी सब इस बारे मे एक एक चिठ्ठा छापा है जे। आप बी खबर पढो जे।

शैलेश भारतवासी आप लोगो से एक निवेदन कर रहा है जे और योगेश जी आपसेकुछ मन की बात करना चाहता जे। योगेश जी चिठठा जगत के विवाद सेतोड़ा दूःखी है जे, उनको जा कर तोड़ा समजाने का जे।
मोहल्ला मे नया लफड़ा हो गया जे। मनीषा जी अमिताभ के बारे मे कुछ बोलता है, आप बी पढो जे। अम इदर साउथ मे तो अपना रजनीकांत और विजयकांत को भगवान मानता है जे।
उस देश में प्रतिभा और कलाकार की परिभाषा तय करने और उसे सम्‍मान देने का है, जहां कोई असगरी बाई का नाम भी नहीं जानता, बिस्मिल्‍ला खां बनारस की तंग गलियों में पूरा जीवन गुजार कर चले जाते हैं और कल के लौंडों को बाज़ार हमारे सामने खड़ा करके कहता है, ये हैं हमारे इंडियन आइडल, और देश की जनता आइडल के पीछे दीवानी हुई जाती है,यूथ पगला गया है। अभिजीत सावंत इज आवर आइडल।


सुनिल दीपकजी परदे के पिछे ताका झांकी करता जे, इनको तोड़ा समझाओ जे। इनके चिठ्ठे मे कमीलाह जानन रशीद बोलता है जे
अगर मैं कहती हूँ कि मैं हिजाब पहन कर भी मजे में हूँ और कोई बँधन नहीं महसूस करती, तो आप मुझसे इस तरह क्यों बात करने लगते हैं मानो कि मैं कोई बच्ची हूँ? आप मुझे यह यकीन क्यों दिलाना चाहते हें कि नहीं मैं धोखे में जी रही हूँ, ऐसा धोखा जिसमें मुझे स्वतंत्रा और दमन में अंतर समझ नहीं आता? सवाल यह कभी नहीं होता कि "कमीलाह का दमन हो रहा है?", क्योंकि मुझे मालूम है कि यह प्रश्न मेरे भले बुरे को सोच कर नहीं
पूछा जा रहा...


रंजु जी का हालत बी अमारे जैसा है जे। अम उनके दिल की बात समझता जे। वो अपना कविता मे अमारे दिल की बात करता जे
देखती रहूं उसे में यूँ ही ,जब तक जब तक ना हो मौत का सवेरा
तेरी बाहों में मरने को इस मौसम में दिल चाहता है अब यह मेरा
प्रमोद जी आज सलीमा मे शरीर की रचना के बारे मे बताता जे।
शायद हमें ‘रामचरितमानस’ की उक्ति याद आए – ‘छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित यह अधम सरीरा।।‘ पर यह पदार्थ (द्रव्य) (matter) की भिन्न अवस्‍थाओं (state)या लक्षणों का वर्णन है। ‘क्षिति’ से अभिप्राय ठोस पदार्थ (solid) है, ‘जल’ से द्रव (liquid),‘समीर’ से गैस, ‘पावक’ से ऊर्जा (energy) और ‘गगन’(space) से शून्यता । शरीर इन सभी से बना है। ये रासायनिक मूल तत्व (chemical elements) नहीं हैं।
ज्ञानदत्त पाण्डेय पांडे जी आपको अवसाद को दूर कर हंसने को बोलता जे, हंसो ना जे , कुल के हसंने का।

बस अब खत्म जे। कल का कहानी रविरतलामीजी बोले तो हमारा मामा सुसुर सुनायेगा!हमारा लीखने का तारीफ़ बी करेगा वो देख लेना! :)
आजका फोटो :इदर देको जी बौत बौत अच्छा है जे

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