सोमवार, नवंबर 30, 2009

स्त्री विमर्श, नायिका भेद और हिमालय यात्रा

image मैं आपसे ही पूछता हूँ इस धन्य-धन्य वातावरण में
जंगल से घास काटकर आती
थक जाती
ढलानों पर सुस्ताती
और तब अपनी बेहद गोपन आवाज़ में
लोकगीत सरीखा कुछ गाती आपकी वो प्रतिनिधि औरत
आखिर कहाँ हैं ....

शिरीष कुमार मौर्य की यह कविता दुनिया के तमाम स्त्री विमर्शों  में अनुपस्थित स्त्री की दास्तान है।

इसी क्रम में वैज्ञानिक चेतना संपन्न डा.अरविन्द मिश्र का नायिका आख्यान चालू आहे। अरविन्द जी अपने पाठकों को नायिका भेद का पाठ पढ़ाते हुये अन्यसंभोगदु:खिता नायिका की जानकारी देते हैं।

ये नायिका भेद जिन विद्वानों के दिमागों की  उर्वर /चिरकुट उपज रही होगी उनके लिये स्त्री मात्र एक आइटम रही होगी। स्त्री विरोधी इन वर्णनों में नायिका के शरीर और  येन-केन-प्रकारेण नायक का साथ हासिल कर लेने की चेष्टाओं तक ही सीमित है स्त्री का समस्त कार्य व्यापार। इनमें स्त्री का उसकी देह से अलग कोई अस्तित्व नहीं है। ऐसा लगता है कि स्त्री के समस्त अस्तित्व को उसकी जवानी और उसके जीवन के सारी संवेदनाओं को यौन चेष्टाओं में विनजिप करके धर दिया गया है जिसे रीतिकालीन शब्दवीरों ने तफ़सील से खोला है। इस नायिकाओं में समाज के आधे हिस्से के जीवन के  न जाने कितने जीवनानुभव सिरे से नदारद हैं। इस नायिका भेद में उदयप्रकाश का जीवन बचाने वाली स्त्री शामिल नहीं होगी जिसके बारे में उन्होंने अपने एक लेख में लिखा :

सोन नदी के जल में मेरी वह अंतिम छटपटाहट अमर हो जाती। मृत्यु के बाद। लेकिन नदी के घाट पर कपड़े धो रही धनपुरिहाइन नाम की स्त्री ने इसे जान लिया। नदी की धार में तैरकर, खोजकर उसने मुझे निकाला और जब मैं उसके परिश्रम के बाद दुबारा जिंदा हुआ, तो उसे इतना आश्चर्य हुआ कि वह रोने लगी।

तब से मैं स्त्रियों को बहुत चाहता हूं। सिर्फ़ स्त्रियां जानती हैं कि किसी जीव को जन्म या पुनर्जन्म कैसे दिया जाता है!

इस नायिका भेद में वह लड़की किस रूप में शामिल होगी जिसने बचपन में रमनकौल की जान बचाई और बाद में उनकी जीवन संगिनी बनी जिसके बारे में उन्होंने लिखा:

बाद में पता चला कि किनारे बैठी एक लड़की ने मुझे डूबते देख कर शोर मचाया था, और मेरे मौसा जी के भाई ने मुझे डूबने से बचाया था। मैं नदी के बीचों बीच पहुँच चुका था, और बहाव की दिशा में भी काफी नीचे चला गया था।वह लड़की जिसने मुझे बचाने के लिए शोर मचाया, अब रोज़ मुझ से झगड़ती है, कि ग्रोसरी कब जाओगे, ब्लाग पर ही बैठे रहोगे या बच्चों को भी पढ़ाओगे। हालात वहाँ से यहाँ तक कैसे पहुँचे, यह तो शायद पिछली अनुगूँज में कहना चाहिए था पर..

दिल के लुटने का सबब पूछो न सब के सामने
नाम आएगा तुम्हारा यह कहानी फिर सही।

नायिका भेद की कहानी अभी जारी है। देखना है कि उसमें आजकल की नायिकाओं का भी जिक्र हो पाता है कि नहीं जो पुरुष से किसी तरह कम नहीं हैं और जिनका काम सिर्फ़ पलक पांवड़ें बिछाकर नायक की प्रतीक्षा करना ही नहीं है।

क्या पता कृष्ण बिहारी जी इस स्थापना में उनके मन में किस तरह की नायिकायें रही होंगी। शायद इसी तरह के नायिका भेद उनके मन में यह समझने के बीज डालते होंगे जैसा उन्होंने लिखा:

मैं यहां यह भी कहना चाहता हूं कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर महिला पुरूष बदलने के मामले में वेश्याओं से भी आगे है और ज्यादा आजाद है. नब्बे-पंचानबे प्रतिशत स्त्रियां ज़िंदगी भर सती-सावित्री होने का ढोंग जीती हैं. ये करवा चौथी महिलाएं चलनी से चांद देखने के बाद ही अन्न-जल ग्रहण करती हैं.

आज राहुल गांधी एक युवा नायक के रूप में चर्चा में हैं। उनमें भारत के भावी प्रधानमंत्री की संभावनायें देखी जा रही हैं। इसी बहाने भारत के तमाम जननायकों की पड़ताल करते हुये कृष्ण कुमार मिश्र राहुल गांधी के बारे में अपनी राय जाहिर करते हैं:

मुझे शक है कि जनाव ने अपने नाना का भी बेहतरीन साहित्य नही पढ़ा होगा जो उन्हे जमीनी तो नही किन्तु किताबी ही सही हिन्दुस्तान और दुनिया की झलकें दिखा सकता था, और महात्मा का भी नही क्योंकि वो सारी चीज़े नदारत है आप में।

हिमालयी यात्रा के किस्से सुनाते हुये अशोक पाण्डे को पढिये। वे लिखते हैं:

घन्टे बीतते जा रहे हैं और बर्फ़ ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही. हमारी दिक्कतें बढ़ती जा रही हैं और अक्ल भी काम करना बन्द कर रही है. हम दोनों बमुश्किल बातें करते हैं पर जब भी ऐसा होता है हमारी भाषा में गुस्से और उत्तेजना का अंश मिला होता है. जाहिर है जयसिंह भी थक गया है और इस संघर्ष के समाप्त होने का इन्तज़ार कर रहा है.
मैं अचानक फिसलता हूं और कम्र तक बर्फ़ में धंस जाता हूं. मुझे अपनी हथेलियों पर कुछ गर्म गीली चीज़ महसूस होती है. दोनों हथेलियों से खून की धारें बह रही हैं. मैं जहां धंसा था वहां बर्फ़ के नीचे की ज़मीन ब्लेड जैसी तीखी थी. पूरी तरह गिर न जाने के लिए मैंने अपनी हथेलियां नीचे टिका ली थीं. खून देखकर मुझे शुरू में अजीब लगता है. इसके बाद की प्रतिक्रिया होती है - असहाय गुस्सा.

अब शरद काकोस की भी सुन लीजिये:

आलोचक को बैलगाड़ी के नीचे चलने वाले कुत्ते की उपमा  दिये जाने का युग शेक्स्पीयर के साथ ही समाप्त हो चुका है । आज आलोचना अपने आप में एक महत्वपूर्ण रचना कर्म है । ब्रिटेन की छोड़िये हमारे यहाँ भी कहा जाता था कि असफल कवि आलोचक बन जाता है लेकिन आज देखिये बहुत से महत्वपूर्ण कवि आलोचना के क्षेत्र में हैं । वैसे कुत्ते वाली उपमा में यदि हम बैलगाड़ी को रचना मान लें,गाड़ीवान को कवि,उसके नीचे चलते हुए भौंकने वाले कुत्ते को आलोचक मान लें तो पाठक बैल ही हुए ना । लेकिन सबसे महत्वपूर्ण भी वे ही हैं यदि वे गाड़ी को खींचना बन्द कर देंगे तो बैलगाड़ी,गाड़ीवान और कुत्ता क्या कर लेंगे ? अत: अच्छी रचना का स्वागत करें तथा कवि और आलोचक को अपना काम करने दें ।

और चलते-चलते ये मिलन भी देख लीजिये--मिलना रस्सी में बाँध कर पकौड़ी छानने वाले से . .

और अंत में: आज अभी फ़िलहाल इतना ही। बकिया आगे आता है। कब ई नहीं कह सकते। आपका दिन झकास शुरू हो और शानदार बीते।

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रविवार, नवंबर 29, 2009

पुरुष, मेरा मन करता है कि तुम्हारा एक झाड़ू बनाऊँ और उससे अपने कमरे को बुहारूं…

बचपन

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सामने जो एक नाला है ना, गिर नहीं जाना उसमें, ठीक?

गिरने से क्या होगा?

अरे! गिरने से क्या होगा? एक हज़ार नौ सो छिपकलियाँ एक के बाद एक नाले के कीचड़ से निकलेंगी, फिर पानी में तैरकर तुम्हारे ऊपर चढ़कर आस्ते आस्ते तुम्हारे मुंह तक पहुंचकर अपने तेज़ नुकीले दाँतों से ... चीखो मत!

मुझे घर जाना है।

क्या? क्यूँ?

मुझे घर जाना है!

पर घर तो नाले के उस पार है।

---

पुरुष

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पुरुष मेरा मन करता है

तुम्हारा एक ब्रश बनाऊं

उससे अपने कमरे को बुहारूं,

अपने गंदे कपड़ों को साफ़ करूं,

दांत ब्रश करूं, कोटे साफ करूं,

बालों पर ब्रश करूं

और फिर उसे उठा कर अलमारी में रख दूं........

---.

(यदि आपको लगता है कि चर्चा में कमी-बेसी रही - बिना किसी भूमिका के रही, छोटी रही, अच्छी रही या न रही इत्यादि इत्यादि, तो स्पष्टीकरण प्राप्त करने हेतु यहाँ  जाएं :) )

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शनिवार, नवंबर 28, 2009

विज्ञान चर्चा - डार्विन का विकासवाद

नमस्कार, विज्ञान चर्चा में आपका स्वागत है. सबसे पहले एक सूचना विज्ञान चर्चा अब हर माह की अंतिम शनिवार को होगी.पिछली चर्चा में मैंने दो महत्वपूर्ण विज्ञान चिठ्ठाकारों के ब्लॉग का उल्लेख नही किया, आज की चर्चा में मुख्यतः उन्ही दो चिठ्ठों की चर्चा होगी डार्विन के विकासवाद के सापेक्ष.



मैंने अपने चिठ्ठे में ईश्वर की अवधारणा से सम्बंधित एक लेख में "विकासवाद" का सन्दर्भ दिया...कई लोगों के मेल और टिप्पणियाँ ऐसी भी आईं की पहले विकासवाद क्या है वह बताएँ...तब मुझे लगा की हो सकता है, मित्रों ने विकासवाद पर पहले अच्छी सामग्री प्रकाशित की है वो सबकी नज़रों में आने से रह गई हों ..इसलिए आज मैं सिर्फ उसी से सम्बंधित ब्लॉग पोस्टों का जिक्र कर रही हूँ.

विकासवाद पर जो दो अच्छी लेखमालाएं मेरी नज़रों से गुजरी उसमे से एक मेरे मित्र और "भारतीय भुजंग" ब्लॉग में मेरे सह-लेखक श्री अरविन्द मिश्र जी द्वारा रचित है, और दूसरी मेरे प्रिय चिठ्ठाकार उन्मुक्त जी द्वारा. इस लिए आप यहाँ मुझपर पूर्वाग्रह का आरोप लगाने को स्वतंत्र है.

सबसे पहले साईं ब्लॉग पर डार्विन से सम्बंधित जो लेख मुझे उल्लेखनीय लगे वो हैं...


- भूमिका
- इस पोस्ट में आपको डार्विन के जन्म और बचपन की जानकरी मिलेगी.
- नेचुरल सेलेक्सन का सिद्धांत सही है कोई अनुकूलन नही हुआ?!
- बीगल की यात्रा (1831-1836)-मशहूर जलपोत एच0एम0एस0 बीगल पूरे पाँच वर्षों (1831-1836) तक समुद्री यात्रा पर रहा जहाँ डार्विन ने प्रकृति के विविधता भरे रुप को शिददत के साथ देखा-परखा.
- आखिर कितनी प्रजातियाँ हैं जीवों की धरती पर?
- जीवाश्मिकी के सापेक्ष विकासवाद के प्रमाण.
- डार्विन की मृत्यु (19 अप्रैल, 1882).
- मानव एक नंगा कपि है.
- जब धर्म ने मानी अपनी गलती.



कोई शक नही मित्र अरविन्द जी ने डार्विन के जीवन और उसके कार्यों पर एक शानदार लेखमाला लिखी ..अब दूसरी लेखमाला की ओर चलते हैं. उन्मुक्त जी का मंतव्य (जहाँ तक मुझे समझ आया) विकासवाद और मजहबी विवाद को सामने रखने का रहा ..उनके चिठ्ठे के वो लेख जो डार्विन के विकासवाद और उसपर हुए मुकदमों की जानकारी देते हैं , वो हैं ..(आशा है लेखों का क्रम बिगड़ने के लिए वो मुझे क्षमा कर देंगे).


- डार्विन, विकासवाद, और मज़हबी रोड़े - (भूमिका)
- श्रंखला की इस कड़ी में, डार्विन के शुरुवाती जीवन के बारे में चर्चा है.
- इस चिट्ठी में चर्चा का विषय है डार्विन का व्यक्तित्व
- डार्विन का विश्वास, बाईबिल से, क्यों डगमगाया?
- बहस - ३० जून, १८६० को, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के संग्रहालय में थॉमस हक्सले और बिशप सैमुअल विलबफोर्स के बीच.
- यदि विकासवाद जीतता है तो इसाइयत बाहर हो जायगी
- 'इंटेलिजेन्ट डिज़ाईन'- सृजनवादियों का नया पैंतरा. अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय से दो बार हार जाने के बाद भी मज़हबी कट्टरवादियों ने हार नहीं मानी। उन्होनें अपना पैंतरा बदल दिया। इस चिट्ठी में उनकी इस चाल और उस पर टैमी किट्ज़मिलर बनाम डोवर एरिया स्कूल डिस्ट्रिक्ट मुकदमें में हुऐ फैसले की चर्चा है.
- डार्विन के विकासवाद सिद्धांत को पढ़ाने पर स्कोपस् के विरूद्व बीसवीं शताब्दी में दाण्डिक मुकदमा चला। इसे मन्की ट्रायल (Monkey trial) के रूप में भी जाना जाता है.
- सृजनवादियों के अनुसार, विकासवाद उष्मागति के दूसरे नियम का उल्लंघन करता है.


अब कुछ सामग्री दो अन्य चिठ्ठों से -



- विकासवाद के सिद्धांत का विरोध करने वालों में एक अहम नाम है हरवर्ट स्पेंसर का जिन्होंने ‘सरवाइवल ऑफ द फीटेस्ट’ का सिद्धांत देकर डार्विन का विरोध किया.

- रचनाकार पर डार्विन की आत्मकथा.


..शेष फिर कभी आज के लिए इतना ही ..फिर मिलते हैं अगले माह की अंतिम शनिवार को ..यदि मुझे मनोविज्ञान पर लिखने का वक्त मिला अगली चर्चा का विषय शायद वही हो. आपका दिन सार्थक हो.

- लवली.

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शुक्रवार, नवंबर 27, 2009

स्मृतिशिलाएं और पत्थरों की ढेरियॉं

अनूपजी ने अल्‍ल सुबह की पोस्‍ट में चिट्ठाचर्चा के चर्चादर्शन को साफ करते हुए एक फुरसतिया पोस्‍ट ठेली है। चर्चाकार बिरादरी की जनसंख्‍या में बढ़ोतरी की भी घोषणा की गई है-

इस बीच डा.अनुराग आर्य, श्रीश शर्मा मास्टरजी उर्फ़ ई पण्डित और प्राइमरी वाले मास्टर प्रवीण त्रिवेदी को भी चर्चा सुपारी भेज दी गयी है। डा.अनुराग के यहां तो सुना है चर्चा उनके लाइव राइटर पर सजी-संवरी धरी भी है। बस उसके मंच पर आने भर की देर है (आ भी गई अब तो भाई! और क्या खूब आई है) । श्रीश शर्मा तकनीकी पोस्टों की चर्चा (विज्ञान चर्चा से अलग) करेंगे और मास्टर प्रवीण जी अपनी मर्जी से जब मन आये तब वाले अंदाज में चर्चा क्लास लेंगे

अनूप की पोस्‍ट का एक लाभ तो ये हुआ कि देबाशीष की पोस्‍ट जो पढ़ने से छूट गई थी उसे पढ़ पाए.. दूसरा ये कि चर्चाकर्म के बहाने जो तमाम हरकतें हम करते हैं उन्‍हें तर्कसंगत ठहराने के लिए हमें पर्याप्‍त नए-पुराने तर्क मिल पाए मसलन देबाशीष ने सुझाया

चिट्ठा चर्चा की निरंतरता और सतत लोकप्रियता का एक कारण तो मुझे स्पष्ट दिखता है और वह है पूर्ण स्वतंत्रता। इंटरनेट पर और (शायद आम जीवन में भी) सामुदायिक कार्यों में भागीदारी बढ़ाने और बनाये रखने के तरीकों में एक महत्वपूर्ण अव्यय है कि सदस्यों को अपना काम करने की खुली छूट हो।

 

तथा अनूपजी ने भी कहा-

इस मसले पर खाली यही कहना चाहते हैं कि चिट्ठाचर्चा का कोई गुप्त एजेंडा नहीं है कि  इनकी चर्चा होनी है, इनकी नहीं होनी है। चर्चाकारों को  जो मन आता है, जैसी समझ है उसके हिसाब से चर्चा करते हैं। इस मसले पर चर्चाकारों में आपसै में मतैक्य नहीं है। हर चर्चाकार का अलग अंदाज  है। हर चर्चाकार अपने चर्चा दिन का बादशाह होता है।

तो तय हुआ कि हम आज के दिन के बादशायह हैं ओर अगर किसी चिट्ठे की चर्चा करना उसे जागीर बख्‍शने जैसा है तो कुछ जागीरें बांटना चाहेंगे। मसलन लंबी कुंभकर्णी नींद के बाद सुजाता ने ईडियट की स्‍पेलिंग सीखी है और तमाम ईडियटपन का व्‍याकरण वे सामने रखती हैं-

गोल गोल घुमाऊंगी नही बात को। चोखेरबाली स्त्री मुक्ति की झण्डा बरदारों की राजनीतिक पार्टी नही है। जिस राजनीतिक विचरधारा पर पार्टी चलाते हो उसके पुरोधाओं की पुस्तक भी पढी है या पूंजी के दास हो केवल ?
अब तक ऐसी स्त्रीवादी पार्टी नही बनी है सो यह सवाल नही उठता है ।बार बार यह बताने की ज़रूरत नही कि देखो , मै पहली महिला जिसने फलाँ फलाँ किया उसे जानती हूँ , भीखाई जी कामा हंसा मेंहता,राजकुमारी अमृत कौर,सरोजनी नायडू,अम्मू स्वामीनाथन, दुर्गाबाई देशमुख,सुचेता कृपलानीके बारे मे पढा है मैने या वर्जीनिया वूल्फ ,उमा चक्रवर्ती , निवेदिता मेनन को पढा है ....इससे मुझे हक है कि मै अपने मन की बात लिखूँ !

कुछ जागीर समीरजी की बनती ही है क्‍यों ये अनूपजी ने बताया ही। तो समीर आज नेता के अस्‍ितत्व का प्रयोजनमूलक अध्‍ययन कर रहे हैं-

image मनमानी है तो बलात्कार है
बलात्कार है तो पुलिस है
पुलिस हैं तो चोर हैं
चोर हैं तो पैसा है
पैसा है तो बिल्डिंगें हैं
बिल्डिंगे हैं तो बिल्डर हैं
बिल्डर हैं तो जमीन के सौदे हैं
जमीन के सौदे हैं तो घोटाले हैं
घोटाले हैं तो नेता हैं.

 

इस रेवड़ी वितरण के पश्‍चात हम यानि जिल्‍ले सुभानी यानि आज के दिन बादशाह सोचते हैं कि और किस किस को जागीरें बख्‍शी जाएं... दे दनादन मुंबई पर मीडिया की सहानुभूति व क्रोध की मार्केटिंग पर पोस्‍टें हैं पर सच कहें तो हम तो अपनी सारी बादशाहत जिस पर लुटाने को आतुर है वह अशोक पांडे की कबाड़खाने पर आ रही एक हिमालयी यात्रा सीरीज-

सन १९९५,१९९६,१९९७,१९९९ और २००० में उत्तराखण्ड के सुदूर हिमालयी क्षेत्र में स्थित व्यांस, चौदांस और दारमा घाटियों में कुल मिलाकर तकरीबन ढाई साल रहकर सबीने और मैंने इन घाटियों में रहनेवाली महान शौका अथवा रं जनजाति की परम्पराओं और लोकगाथाओं पर शोधकार्य किया था. भारत-चीन युद्ध से पहले शौका जनजाति को तिब्बत से व्यापार में एक तरह का वर्चस्व प्राप्त था. ये घुमन्तू लोग गर्मियों में तिब्बत जाकर वहां से नमक, सुहागा, ऊन वगैरह लेकर आते थे और जाड़ों में निचले पहाड़ी कस्बों, गांवों और मैदानी इलाकों में व्यापार किया करते थे.

इस श्रंखला में अब तक तीन पोस्‍ट आई हैं। पहले हिस्‍से में सिनला की दिशा में तैयारी वाला हिस्‍सा है-

मैं उनकी तरफ़ देखता भी नहीं क्योंकि उनकी आवाज़ बता रही है वे जमकर पिए हुए हैं. वे ऐसी अंग्रेज़ी बोल रहे हैं जिसे खूब दारू पीकर अंग्रेज़ी न जाननेवाले धाराप्रवाह बोला करते हैं. हम बिना रुके, बिना इधर-उधर देखे चलते जाते हैं - वे चीखते रहते हैं. मुझे अपनी पीठ पर सैकड़ों निगाहों की गड़न महसूस हो रही है.

दूसरा हिस्‍सा हताशा में उत्‍साह के क्षणों को पा जाने की शानदार दास्‍तान है-

मैं पागलों की तरह इस बचकाने खेल को घन्टों तक खेलता रहता हूं - सबीने खीझती रहती है. जब भी एक बम मेरी कार पर गिरता है, एक तीखी इलेक्ट्रॉनिक महिला आवाज़ निकलती है: "रौन्ग! रौन्ग! रौन्ग!" मशीन के भीतर कुछ तकनीकी गड़बड़ है और स्पीकर से आने वाली आवाज़ कर्कश और असहनीय है: "वाआआआन्ग्ग! वाआआआन्ग्ग! वाआआआन्ग्ग!" जब भी ऐसा होता है सबीने कोशिश करती है मैं गेम को छोड़ दूं. पर मुझे हर हाल में इस लेवल से आगे जाना है

इसी क्रम में तीसरा हिस्‍सा

वापस आने की मजबूरी और फिर आगे जाने के साहस ओर उमंग की कथा है-

सबीने को यह जानने में एक सेकेन्ड लगता है कि उसने क्या पिया है. वह चीखना शुरू ही करती है कि मैं भागकर नंगे ही पैर आंगन में भाग जाता हूं. वह भी स्लीपिंग बैग से बाहर आकर चीखना शुरू कर चुकी है. भाग्यवश पूनी को अंग्रेज़ी ज़रा भी नहीं आती. मुझे अचानक उनके ज़ोर-ज़ोर से हंसने की आवाज़ सुनाई देती है.

हमारी नजर में यात्रा संबधी विवरण सदैव ही एक अच्छी ब्लॉग पोस्‍ट बनते हैं तिस पर अगर किसी के पास अशोकजी जैसी दृष्टि भी हो तो जो चीज तैयार होती है उसका उदाहरण है ये सीरीज।   

इस स्‍लाइडशो की सभी तस्‍वीरें डा. सबीने के कैमरे से हैं तथा कबाड़खाने से ली गई हैं।

अब शाम होने को है इससे पहले कि बादशाहत का दिन जाए इस चर्चा को पोस्‍ट कर देते हैं। नमस्कार

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गुरुवार, नवंबर 26, 2009

आखिर कितने तकाज़े कर सकता है कोई महबूब??


कहने वाले   कहते है के   आने वाले दौर में   जब इस डीसेंसटाईज होती दुनिया में "संवेदनायो  या  तो डिस्कवरी  चैनल  पर नुमाया होगी    या उन  पर डॉक्यूमेंटरी बना करेगी ..फिर भी कुछ चेहरे ऐसे है जो बरसो बाद भी  उतने  ही मुकम्मल  है जितने बरसो पहले थे मां का चेहरा ऐसा ही है  ....कहते है ...एक उम्र के बाद सारी मांये एक दूसरे की जीरोक्स कोपी हो जाती है . ...


ममता सिंह भी मां को जाने के बाद टटोलने की कोशिश करती है

बार-बार लगता है—‘मां जिस रूप में भी थीं, चाहे जितनी बीमार थीं, थीं तो एक संबल के रूप में । बहुत बड़ा सहारा थीं वो । पूरे परिवार को एक सूत्र में जोड़ने वाली थीं । उनके जाने से वो संबल टूट गया । वो सूत्र भी कमज़ोर हो गया, जिससे पूरा परिवार जुड़ा हुआ था । परिवार में किसी की किसी से खटपट हो जाए तो वे जोड़ने का काम करती थीं । उस शख़्स की अनुपस्थिति में समझाती थीं कि फलाना मन का बहुत अच्‍छा है । उसको फ़ोन कर लिया करो, बातें कर लिया करो । उनका भले ही किसी ने दिल दुखाया हो, लेकिन वो किसी का दिल नहीं दुखाती थीं । एक बार भैया की तबियत ख़राब हो गयी थी, जिनके साथ वो इलाहाबाद में रह रहीं थीं ।

भैया को हैजा हो गया था, मां खुद भी बीमार चल रही थीं । भैया को असंख्‍य उल्टियां हो रही थीं । और मां अपनी बीमारी को, अपनी जर्जर अवस्‍था को अनदेखा करते हुए घर से निकलीं और दौड़ पड़ी डॉक्‍टर को बुलाने । डॉक्‍टर नहीं मिले, तो रिक्‍शा ले आईं ताकि भैया को किसी और डॉक्‍टर के पास ले जाया जा सके । फिर तो भाभी और परिवार के लोग जमा हो गये, लेकिन तुरंत जो हिम्‍मत बीमारी के बावजूद उन्‍होंने दिखाई उससे भैया का स्‍वास्‍थ्‍य तुरंत ठीक किया जा सका ।

वो कौन सा जिरहबख्तर है जिसे मां एक बार पहनने के बाद ताउम्र नहीं उतारती ....मसलन ......आगे वे लिखती है ......

बड़ी जीवट की थीं मेरी मां । उनकी इच्‍छा-शक्ति बेहद मज़बूत थी इसलिए कई बार वो गंभीर-अवस्‍था तक पहुंचकर भी पुन: स्‍वस्‍थ हो गयीं । घर-परिवार के लोगों की बीमारी में रात-रात भर अपनी नींद गंवा देने वाली मेरी मां ने जाने से पहले वाली रात बैठकर बेचैनी में बिताई । सोईं नहीं रात भर । जिस दिन वे गईं, हॉस्पिटल जाने से पहले अपना दैनिक-कर्म स्‍वयं किया । यहां त‍क कि नहाना-धोना भी अपने हाथों से किया । घर वालों के सहारे से । इतनी बड़ी बीमारी के बावजूद, जैसे कहीं जाने के लिए अपने-आप तैयार होती थीं, उसी तरह से तैयार हुईं । और घर से डॉक्‍टर के पास गयीं ।




...तो क्या  सूचनाओ की आंधी  के इस युग में   सूचना वाहक सच को  अपनी सहूलियत के सच ओर अपने हिस्से के सच में बांटने लगा है  ?
.हमारे दृष्टिकोण क्या विचारधारा पर आधारित हो या व्यक्ति विशेष  पर.....


विनीत कुमार गाहे बगाहे में  मीडिया   के  लिए एक सवाल उठाते है
आप अपनी  सहमति  असहमति   वहां दर्ज  करा सकते है ...

लेकिन एक सवाल तो बनता ही है कि क्या एनडीटीवी इंडिया जैसा चैनल लियोपोर्ड के इस तीन सौ रुपये के पैग और मग का विरोध इसलिए नहीं करता कि वो शिव सेना को उत्पाती दिखाना चाहता है? अगर उसने भी इसके विरोध में एक लाइन भी कहा होता तो शिव सेना के समर्थन में खड़ा नजर आता? मामला चाहे जो भी हो लेकिन लियोपोर्ड का समर्थन इसलिए ज्यादा जरुरी और बाजिब है क्योंकि वो भी वही कर रहा है जो कि चैनल के लोग कर रहे हैं। अपने-अपने स्तर से भुनाने की कोशिश। ऐसे में निष्पक्ष होकर बात करने की गुंजाइश ही कहां बच जाती है?


कुछ तजुर्बे उम्र को कई साल पहले खीच लाते है ....उन्ही  अनदेखे  भीड़ में  गुम हुए  चेहरों में  से एक का खाका   अफलातून  सामने रखते है ...इस लघुकथा का निष्कर्ष  वे  पाठको पर छोड़ देते है .... …

उस दिन सरदारजी की जलेबी की दुकान के करीब वह पहुँचा । सरदारजी पुण्य पाने की प्रेरणा से किसी माँगने वाले को अक्सर खाली नहीं जाने देते थे । उसे कपड़े न पहनने का कष्ट नहीं था परन्तु खुद के नंगे होने का आभास अवश्य ही था क्योंकि उसकी खड़ी झण्डी ग्राहकों की मुसकान का कारण बनी हुई थी । ’सिर्फ़ आकार के कारण ही आ-कार हटा कर ’झण्डी’ कहा जा रहा है । वरना पुरुष दर्प तो हमेशा एक साम्राज्यवादी तेवर के साथ सोचता है , ’ विजयी विश्व तिरंगा प्यारा , झण्डा ऊँचा रहे हमारा’ ! बहरहाल , सरदारजी ने गल्ले से सिक्का निकाला। उनकी नजर उठी परन्तु लड़के की ’झण्डी” पर जा टिकी। उनके चेहरे पर गुस्से की शिकन खिंच गयी । उसने एक बार सरदारजी के गुस्से को देखा , फिर ग्राहकों की मुस्कान को और फिर खुद को – जितना आईने के बगैर देखा जा सकता है। और वह भी मुस्कुरा दिया । इस पर उसे कुछ और जोर से डाँट पड़ी और उसकी झण्डी लटक गई । ग्राहक अब हँस पड़े और लड़का भी हँस कर आगे बढ़ चला।



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मेरिलिन जुकरमन की कविताएं अनुनाद  से .......
एक लड़ाई जिसमे कोई मरा नहीं
संवावदाता ने कहा
पुल पर नहीं
उस रेलगाड़ी में भी नहीं
जो उदा डी गयी
क्यूकी उसके वहां  होने की
उन्हें उम्मीद न थी
न तो कोसोवो  में
वे ग्रामीण ही
ट्रेक्टर पर जो बैठे थे सैनिको  के बीच
न ही इराकी  औरते ओर बच्चे
जिन्होंने उस जगह पनाह ली थी
जिसे पायलटों ने गुप्त सैनिक अड्डा समझ लिया था
या फिर
उतरी वियतनाम के वे हलवाहे
जिन्हें
उन्होंने दशहतगर्द करार दिया था



imageकभी कभी  आप सोच में पड़ जायेंगे कितने हजारो बेतरतीब विचार है इस आदमी के पास .....ओर उन्हें  संजो  कर रखने की एक अपनी शैली....कभी कभी विद्धता का आंतक उनकी लेखनी में मिलता है ....पर यक़ीनन  वे ब्लॉग जगत  के  बेहद  पठनीय लेखक है .उनकी एनेर्जी की इन्टेसटी   कई लोगो को शर्मिंदा कर सकतीहै

अज़दक की भाषा .....


सुनती हो सुन रही हो, कविता? रिक्शे का कोना लिये, गोद में दोना, बात-बात पर मुँह फुलाती, वस्त्र यही पहनूंगी और भाषा मेरी बेस्ट फ्रेंड है उससे प्रॉपरली बिहेव करना के तानों का गाना गुनगुनाती किस दुनिया बहलती, बहती रहती हो, कविता? यही होगा, यही, और ‘यही’ के बाद ‘वही’ की बही के बस्तों पर कब तक गाल की लाली करोगी, ज़ुबान की जुगाली, हूं? कुछ बहकन आती है समझ, बात और वक़्त का बीहड़? फिसलन की ढलान, अंधेरों में छूटे कितने, कई सारे बाण? घुप्प अंधेरिया रात की अचानक कौंधी बिजलियां, करियाये लाल के कई दिनों की जख़्मसनी पसलियां? कि सिर्फ़ अपनी सहूलियत का चिरकुट लैमनचूस चूसना जानती हो, मोहल्ले की गली और गुमटी की रंगीनी में खुद को पहचानना?


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सड़क के बीच डिवाइडर का लोहा हम नहीं छोड़ते। यहां-वहां खराब पड़े लैम्प पोस्टों का लोहा हम बाप का माल समझ बेच डालते हैं। यहां तक कि सरकारी इमारतों का बांउड्री ग्रिल भी हम उखाड़ लेते हैं और कोई हमारा कुछ नहीं उखाड़ पाता। इस पर भी मुझे ज़्यादा शिकायत नहीं है। मेरी आपत्ति ये है कि इतना लोहा खाने के बाद भी ये देश एक भी गैर विवादित लौह पुरूष नहीं पैदा कर पाया।



कई सवालों के लिए यह साबित किया गया कि इनका हल संभव ही नहीं है तो कई अन्य के लिए ये कि ऐसे कई सवालों का हल एक ही है और इनमें से किसी एक को भी हल किया गया तो सारे हल  हो जायेंगे. टोपोलोजी में मात्रा या परिमाण(क्वांटिटी) मायने नहीं रखते पर उनके गुण मायने रखते हैं.  जैसे पुणे और दिल्ली के बीच में कहीं से कर्क रेखा गुजरती है या नहीं ऐसे सवालों के जवाब टोपोलोजी के दायरे में आयेंगे. कहाँ से गुजरती है ये टोपोलोजी के लिए मायने नहीं रखता.
काश जिंदगी और मानवीय सोच भी गणित की तरह होते और उन्हें एक सूत्र में पिरोया जा सकता ! टोपोलोजी जैसे गणित ज्यादा पढने वाले शायद यही सब सोच कर फिलोस्फर (पागल?) हो जाते हैं.





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पीली आंख और बेरौनक चेहरे के  साथ अकेले न्रत्‍य करते रहने की यातना के बीच ही मैंने शीश्‍ो का खाली फ्रेम उतारकर नीचे रख दिया है...। तुम्‍हारे साथ रहते हुए जीवित ही स्‍वर्ग के द्वार तक पहुंच जाने की चाह को भी सहेजकर रख देने से मुझे गुरेज नहीं है...। मैं एक बार भी तुम्‍हें शर्मिन्‍दा नहीं करूंगी वो सब याद दिलाकर जिस तुमने काल्‍पनिक और बेमानी कहकर कल ही चिंदी करते हुए फेंक दिया था। बस  एक बार सामने आकर कहो कि अर्थशास्‍त्र और सांख्यिकी की किताब के कौन से पन्‍ने पर तुमने अपने नफ़े का सवाल हल किया था...कैसे तय किया था कि हमारा नुकसान अलग-अलग हो सकता है, .ये कहना ही होगा तुम्‍हें, इसके बाद मैं मान लूंगी कि वाकई तुममें कुछ बेहतर पाने की चाह रही थी।



सिलेवार शब्दों का लगाना शायद उनका शौक है .विम्बो को नए अर्थो से कागज पर फेकना शायद उनकी फितरत....वे किसी घुसपेठिये  की माफिक .आपके दिल में घुसती है  .ओर कोल्हाहल मचाकर ख़ामोशी से निकल जाती है .पोस्ट के आखिर  में शेर कहना शायद उनकी दूसरी बुरी आदत है ..पर जिसका एडिक्शन पाठक को भी हो सकता है
कोई देता है दर -ए दिल से मुसल्सल आवाज,और फिर अपनी ही आवाज से घबराता है...अपने बदले हुए अंदाज का अहसास नहीं उसको ,मेरे बहके हुए अंदाज से घबराता है ..(- कैफी आजमी)



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अभी-अभी धूप थी ओर बस अभी बूंदा-बांदी शुरू ---पानी की हल्की बूंदों के पार खूबसूरत अंदाज में पिघलती कुछ सपाट आकृतियाँ आकार लेती है शाम की शुरुआत होना ही चाहती है,अध् पढ़ी कहानी का पृष्ट बिन मोड़े ही वो गोद में उलट देती है ..तुरंत ही गलती का अहसास ,अब फिर सिरा ढूँढना होगा दुबारा शुरू करने के पहले,-कहाँ छोड़ा था,क्या ये मुमकिन होगा शुरुआत से पहले छूटे हुए कथा सूत्र को पकड़ पाना,एक ख्याल गाथा नया सिरा पकड़ लेती है , उधेड़बुन के साथ -सच कुछ भ्रम भी जरूरी है अच्छे से जीने के लिए ..पर मन की तरह मौसम भी बेहद खराब है,यहाँ ..ओर वहां ?इस सवाल का जवाब उसे नहीं मिलना था जो नहीं होगा उस इक्छा की तरह ..मन की खिन्नता के बावजूद उसका इन्टेस चेहरा खिल उठा शायद मोबाईल के साइलेंट मोड़ में रौशनी जल-बुझ उठेगी बिन आहट सोचना ....लेकिन उम्मीद से थोड़ा ज्यादा किसी भी नतीजों पर ना पहुँचने वाले फैसले एक झिझके हुए दिन के साथ अनुनय करते समय के बरक्स .. उदास-निराश होकर रह जाते हेँ

 आखिर कितने तकाज़े कर सकता है कोई महबूब

आखिर कितने तकाज़े कर सकता है कोई महबूब
स्त्री किसी एक का भी नहीं करती है प्रतिवाद.
कितनी खुश हूँ मैं आज के दिन
रंगहीन बर्फ के तल में जल है गतिहीन
और नरम चमकदार कफ़न के बगल में
खड़ी मैं
पुकार रही हूँ - मदद करो मेरे ईश.
कोई है, जो मेरी चिठ्ठियों को बचा ले !
ताकि हमारे परवर्ती कायम कर सकें कोई राय
कि तुम कितने बहादुर और बुद्धिमान थे
उन्हें पूरी स्पष्टता के साथ
यह तो पता चले
कि तुम्हारी शानदार जीवनी में
शायद छोड़ दिए गए हैं कई अंतराल.
कितनी मीठा है यह दुनियावी मद्य
कितनी कसी हुई है यह प्यार के जाल की फाँस
ऐसा हो कि बच्चे किसी समय
अपनी पाठ्य पुस्तकों में पढ़ सकें मेरा नाम
और कुछ सीख सकें
इस दुखान्त कथा के बहाने
और मुस्कुरायें मंद - मंद....
चूँकि तुमने मुझको
न तो प्यार दिया है न ही शान्ति
इसलिए
बख्शो मुझे कड़वा ऐश्वर्य.







लैटिन क्वार्टर्स में सोर्बॉन वाला इलाका । सेन नदी के किनारे साँ मिशेल के ठीक बगल में, नात्र दाम के सामने । दुकान के दरवाज़े पर एक बड़े ब्लैकबोर्ड पर सफेद चॉक से लिखा है ..
" कुछ लोग मुझे लैटिन क्वार्टर्स का डॉन किहोते कहते हैं , इसलिये कि मेरा दिमाग कल्पनाओं के ऐसे बादल में रमा रहता है जहाँ से मुझे सब बहिश्त के फरिश्ते नज़र आते हैं और बनिस्पत कि मैं एक बोनाफाईड किताब बेचने वाला रहूँ , मैं एक कुंठित उपन्यासकार बन जाता हूँ । इस दुकान में कमरे किसी किताब के अध्याय की तरह हैं और ये तथ्य है कि तॉलस्ताय और दॉस्तोवस्की मुझे मेरे पड़ोसियों से ज़्यादा अज़ीज़ हैं .."


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पुरानी शहतीरों पर टिकी छत , लकड़ी की तीखे स्टेप्स वाली सीढ़ी , किताबें अटी ठँसी हुई , बेंचों के नीचे , सीढियों के बगल में , रैक्स पर , फर्श पर ..सब तरफ । कुछ वैसा ही एहसास जैसे आप लेखकों से वाकई मिल रहे हों ..कुछ उनकी दुनिया छू रहे हों ।
मैंने बताया उन्हें , मैं भी लेखक हूँ , हिन्दी में लिखती हूँ , शायद क्या पता कभी अगली दफा आने का मौका हो तो ... उन्होंने कहा आने के पहले बात ज़रूर करिये अगर जगह होगी ..क्यों नहीं । सचमुच क्यों नहीं ..किसी ऐसी दुनिया में खुलने वाली खिड़की हो ..क्यों नहीं

एक दुकान की बाबत .प्रत्यक्षा के..कुछ फलसफे
वे घटनाओं के विस्तार में कम यकीन रखती है .प्रतीकों से उनका लिखा अक्सर कोई कोलाज़ रचता  है 






३४ साला रामकुमार सिंह ठिठुरती यादो को ऐसे बांट रहे है ऐसी इमानदार यादे सर्दी की कोई गुनगुनाती   धूप का अहसास देती है 


टोपला लगाए गांव के सरकारी स्कूल में बैठा हूं। दरी बिछी है। आधे से ज्यादा बच्चों की नाक तार-सप्तक की तरह बज रही है। बीच में छींक और खांसी की लगातार आवाजें पूरी कक्षा में 'फ्यूजन पैदा कर रहे हैं। आज बाहर धूप भी नहीं है। स्कूल की बिना किवाड़ वाली खिड़कियों पर दरी के ही पर्दे लटकाए हैं लेकिन छन छन के शीत लहर आ रही है। समवेत ध्वनियां हैं, जोर जोर से, 'एक एक ग्यारहा, एक दो बारहा, एक तीन तेरहा, एक चार चौदह, एक पांच पन्द्रह।Ó बहाना है कि रटा लगा रहे हैं। सच्चाई है कि जोर-जोर से बोलने में सर्दी कम लग रही है।

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चूल्हे के सामने मां, बापू, चाचा, मौसी सब जमे हैं। दिसम्बर की सर्द रात है। आग अपनी शक्ल बदल रही है। कभी 'धपड़बोझ, कभी 'खीरे तो कभी 'भोभर। चूल्हे की चौपाल लंबी चलेगी। मुझे मेरे चचेरे भाई गोकुल के साथ हिदायत दी जाती है कि चुपचाप जाकर रजाई में घुस जाऊं। हम दस मिनट तक यही बहस करते हैं कि पहले तुम घुसो। रजाई इतनी ठंडी है। बर्फ सी लगती है। जो पहले घुसेगा वो गर्म तो पता नहीं कब होगा लेकिन ठिठुर जरूर जाएगा यह तय है। आखिरकार बीच का रास्ता मां ने तय किया था। एक दिन तुम घुसोगे, एक दिन गोकुल। मैं घर में सबसे छोटा था। मेरी मासूमियत गोकुल को अक्सर पिघलाती थी। वह पूरा पिघल ही नहीं जाए इससे बचने के लिए ठंडी रजाई में राहत पाता था।



 हफ्ते की टिपण्णी ......अपूर्व की
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अपूर्व एक रचनात्मक   हस्तक्षेप   है ....वे आपकी पोस्ट के डाइमेंशन को अच्छी तरह से नापते है .उनके अकस्मात स्केल लिखने वाले के बेलेंस के लिए जरूरी है ...
“कमाल है..अभी तीन दिन पहले ही कुमार विकल जी की एक लौह-तप्त कविता गर्म सलाखों सी छू गयी थी जेहन को..ऐसी ही...जिसे खोज कर यहाँ पर चेपने का लोभ संवरण नही कर पा रहा हूँ युद्ध एक शब्द— भयावह बिंबों का स्रोत जो मैंने— अपने शब्द—कोश से काट दिया था आज हवा में सायरन की आवाज़ों ने लुढ़का दिया है. युद्ध… . अख़बार बेचने वाला लड़का चिल्लाता है— —पिकासो नई गुएर्निका बनाएँगे पाल राब्सन सैनिक—शिविरों में शोक—गीत गाएँगे— लाशों के अम्बार पर बिस्मिलाह ख़ाँ— फौजी धुनें बजाएँगे. और धीरे—धीरे— चीज़ों के संदर्भ बदल जाएँगे. अर्थात— खेतों में बीज डालने वाले हाथ नरभक्षी गिद्ध उड़ाएँगे. अब खेतों से पकी हुई फ़स्लों की गंध नहीं आएगी बल्कि एक बदबू —सी उठकर नगरों—ग्रामों गली—मुहल्लों घर—आँगन देहरी—दरवाज़ों तक फैल जाएगी. बदबू… मेरे तुतलाते बच्चे ने पहला शब्द सीखा है— और उसके होंठों से दूध की बोतल फिसल गई है. युद्ध — एक शब्द… जो मैने— अपने शब्द-कोश से काट दिया था मेरे बच्चे के शब्द-कोश के— प्रथम शब्द का मूल स्रोत है.
प्रतीक गढ़ने मे तो आप उस्ताद हैं मानो.. पीर की मज़ार का रास्ता किधर है बिलबिलाकर सुरंग में घुसते हुए पूछेंगे आदमी शक्लें!!! हाँ कही-कही स्त्रीलिंग/पुल्लिंग का लफड़ा हो जाता है आपकी कविता मे..देख लेना...वरना स्त्री/पु्रुष-विमर्श वाले न घेर लें आपको..जेंडर इश्यू को ले कर ;-)



और खुद उनकी डाइमेंशन  मापने के स्केल पर उनकी ये कविता रखकर आप देख सकते है
हाँ
वह भी कोई वक्त ही हुआ करता था
जब तुम्हारे इंतजार की राह पर दौड़ती
मेरी मासूम बेसब्री के
नाजुक पाँवों मे चुभ जाते थे
घड़ी की सुइयों के नुकीले काँटे
और जब
पाँव के छालों की थकान से रिसते
नमकीन आँसू हमारी रातों को जगाये रखते थे

वह भी कोई रातें हुआ करती थीं
जब कि हम
एक जोड़ी खाली हाँथों को
एक जोड़ी खाली जेबों के हवाले कर
अपने पैरों की जवाँ थकान
आवारा सड़कों के नसीब मे लिख देते थे
और
रात के काँपते गीले होठों पर
फ़ड़फ़ड़ा कर बैठ जाता था
कोई नाम

वह भी कोई शामें हुआ करती थीं
कि न हो कर भी
तुम मेरे इतने करीब हुआ करते थे
कि वक्त एक शरारती मुस्कान दाँतो तले दबाते हुए
’एक्स्क्यूज़ मी’ कह कर
कमरे से बाहर निकल जाता था
दबे पाँव

आगे पढ़े


नन्दनी  औपचारिक कविताओ में विश्वास नहीं रखती ...महेन   ओर गौरव सोलंकी   की तरह ......न प्रतिक्रियाओ के लिए उनकी बैचेनी नजर आती है ..उनकी खासियत उनका मौलिक होना है .....

तुम्हारी हंसी .....

दिन के कोलाहल में
जब खो जाता है मेरा वजूद,
धमनियों की धौंकनी
हो जाती है पस्त समंदर सी,
इच्छाओं का विराट आकाश
सिमट जाता है पुराने बटुए में
तब भी
सिक्कों की तरह कहीं बजती है
तुम्हारी हंसी.
कितना अच्छा होता कि
तुम्हारी हँसी
किसी बरगद सी होती
जिसमे हर साल नयी जड़ें फूटती,
उन पर टांग दिया करती
मैं अपनी मुस्कुराती आँखें,
पर ये तो
नर्म फाहों सी उड़ती है
मेरे आस पास,
उड़ती है एक अनुभवी बाज़ सी...
मगर फिर भी
जब तुम, सिर्फ अपने लिए रोते हो
तब भी जाने क्यों
भुला देती हूँ तुम्हारी हंसी.



दर्शन बागी तेवरों के साथ ब्लॉग लिखते है ..यूं कहिये के कागजो में अपनी मर्जी से जीते है....अच्छा लगता है कोई  युवा जब बेझिझक अपने ख्यालो को अपने अंदाज से पिरोता है ...त्रिवेणी की एक बानगी………

हथियार जो पकडे हैं उसने छाले लाज़मी ही हैं,
मुझको मौत देते देते आज वो भी रो गया.
हे इश्वर !! भगवान के लिए, चुप हो जाओ.

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मेरी उम्र बड़ी तेज़ी से बढ़ रही थी.रोपवे का शायद सत्रहवां चक्कर था. 
 
हर चक्कर में सैलानी चढ़-उतर रहे थे. जो चौथे में ऊपर गए वो सत्रहवें में नीचे जा रहे थे ."अरे ये दोनों अब भी यहीं हैं?" वाली परदेसी नज़रें मुझे (और यक़ीनन तुम्हें भी) उस 'पल' पे घमंड करने के कितने 'पल' देती थी ना ?कोई हमें देखकर मुस्कुराता, कोई वापिस जाते वक्त हाथ हिलाता, किसी बूढ़े सैलानी ने शायद हमारी तस्वीर भी खीचीं थी. हम भी अपने सर से सर मिलाकर उन्हें मुस्कराहट का "souvenir" देते !!
एक जोड़ी मुस्कान....
...लेते जाओ !!




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विद्या भूषण  ....साहित्य की दुनिया का एक जाना माना नाम है ....शर्त उनकी कविता है.....उसे बांचिये ओर अंदाजा लगाये के क्या भाषा अपना रास्ता खुद तय करती है.....
एक सच और हजार झूठ की बैसाखि‍यों पर 


सि‍यार की ति‍कड़म
और गदहे के धैर्य के साथ
शायद बना जा सकता हो राजपुरूष,
आदमी कैसे बना जा सकता है।
पुस्तकालयों को दीमक की तरह चाट कर
पीठ पर लाद कर उपाधि‍यों का गट्ठर
तुम पाल सकते हो दंभ,
थोड़ा कम या बेशी काली कमाई से
बन जा सकते हो नगर सेठ।
सि‍फारि‍श या मि‍हनत के बूते
आला अफसर तक हुआ जा सकता है।
किं‍चि‍त ज्ञान और सिंचि‍‍त प्रति‍भा जोड़ कर
सांचे में ढल सकते हैं
अभि‍यंता, चिकित्सक, वकील या कलमकार।
तब भी एक अहम काम बचा रह जाता है
कि‍ आदमी गढ़ने का नुस्खा क्या हो।
साथी, आपसी सरोकार तय करते हैं
हमारी तहजीब का मि‍जाज,
कि‍ सीढ़ी-दर-सीढ़ी मि‍ली हैसि‍यत से
बड़ी है बूंद-बूंद संचि‍त संचेतना,
ताकि‍ ज्ञान, शक्ति और ऊर्जा,
धन और चातुरी
हिंसक गैंडे की खाल
या धूर्त लोमड़ी की चाल न बन जायें
चूंकि‍ आदमी होने की एक ही शर्त है
कि‍ हम दूसरों के दुख में कि‍तने शरीक हैं।




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सतीश पंचम अपनी हर दूसरी तीसरी पोस्ट में किसी न किसी बहाने रेणु को याद करते है ..अपनी ताजा पोस्ट    मुबई के रेड लाईट एरिया फॉकलैंड रोड ..से गुजरते हुए में वो कहते है .......
तभी मेरी नजर वैश्याओं के बीच बैठी एक बेहद सुंदर स्त्री पर पडी। शक्ल से वह कहीं से भी वैश्या नहीं लग रही थी. चेहरे पर मासूमियत, साडी के किनारों को उंगलियों में लपेटती खोलती और एक उहापोह को जी रही वह स्त्री अभी इस बाजार में नई लग रही थी। कुछ ग्राहक उसकी ओर ज्यादा ही आकर्षित से लग रहे थे। मेरे मन में विचार उठा कि आखिर किस परिस्थिती के कारण उसे इस नरक में आने की नौबत आन पडी होगी। इतनी खूबसूरत स्त्री को क्या कोई वर नहीं मिला होगा। मेरी लेखकीय जिज्ञासा जाग उठी। मन ने कहा........ यदि यहां की हर स्त्री से उसकी कहानी पता की जाय तो हर एक की कहानी अपने आप में एक मानवीय त्रासदियों की बानगी होगी। न जाने किन किन परिस्थितियों में यह स्त्रीयां यहां आ पहुँची हैं। कोई बंगाल से है, कोई तमिलनाडु से है तो कोई नेपाल से है। हर एक की कहानी अलग अलग है, पर परिणाम एक ही। हर एक पर कहानी लिखी जा सकती है। 


.घगूती जी ने कोमा में पड़े एक व्यक्ति के बारे में लिखा है ..."ओर वह फिर जी उठा "....
चलते चलते ...

आज छब्बीस ग्यारह है .जाहिर है आक्रोश भी है गुस्सा भी हताशा भी ....ये सोचना के के एक साल बाद हम कहाँ खड़े है ये महत्वपूर्ण  है ...देश के प्रधानमंत्री संयम रखने की अपनी घोषणा को सार्वजनिक करते हुए इसे उपलब्धि  के तौर पे गिन रहे है ..अलबत्ता आंतकवाद  के विरुद्ध  ट्रीटमेंट में  कोई बड़ा बदलाव अभी तक नहीं  दिखा है ...पाकिस्तान नेपाल श्रीलंका बंगलादेश चारो ओर ऐसे  अशांत पड़ोसियों से गिरे रहने के बावजूद हम अभी भी धर्म- मजहब ,जात -पात ,भाषा के झगड़ो से ऊपर नहीं उठे है....कही नक्सल वाद अपने पैर पसार रहा है तो कही  राज्य सरकारे केंद्र से अलग चल रही है ....... मधु कौड़ा जैसे लोग देश को दीमक की तरह चाट रहे है .ओर राज ठाकरे जैसे लोग राजनीति के पतन का एक वीभत्स चेहरा दिखा  रहे है ....कही से कोई उम्मीद नजर नहीं आती...तो क्या हमारा देश बरसो से वेंटिलेटर पर चल रहा है ?अपनी अपनी परिधि में  सीमित साधनों के भीतर रहते हुए भी प्रत्येक देशवासी अगर अपना काम ईमानदारी से  निभाये तो एक बहुत बड़ा योगदान कर सकता है .....





छब्बीस ग्यारह की पोस्टो के लिए एक अलग विस्तृत   चर्चा की आवश्यता होगी .आज के लिए इतना ही.....फिर मिलेगे

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बुधवार, नवंबर 25, 2009

…… नन्हें फूलों से महकी गलियाँ हैं

 

 

 

मराठी भाई लोग उत्तर प्रदेश वालों की हर जगह लगता है ऐसी कम तैसी करने पर आमादा हैं। सचिन भाई साहब को बाला साहब कुछ कहे-सुने तो सचिन उहां तो कुछ नहीं बोले। बोले भी तो होंगे तो हमें सुनाई नहीं दिया। लेकिन कानपुर में कल ग्रीन पार्क में उनके एक फ़ैन की बेइज्जती खराब कर दी तो सचिन भाई साहब तमतमा गये। फ़ैन का नाम है सुधीर कुमार निगम। उनको ब्लास्टर साहब एक ठो शंख दिये हैं जिसे वे हर मैदान में बजाते रहते हैं। कानपुर में पुलिस ने उनको दौड़ा लिया और शंख बजाने वाले का बाजा बजा दिया। इससे सचिन खफ़ा हो गये और देखिये अखबार कहता है--  “भारतीय टीम की हौसला आफ़जाई करने वाले सुधीर कुमार निगम की पुलिस के हाथों बेइज्जती सचिन को नागवार गुजरी।  सचिन को इसकी भनक लग जाने पर प्रशासन के हाथ-पैर फ़ूल गये। जानकारी मिलते ही आईजी व डीआईजी सक्रिय हुये और न केवल सुधीर को तिरंग व शंख वापस दिलाया बल्कि ससम्मान उन्हें स्टेडियम के भीतर ले जाया गया। आईजी ने मामले की जांच बैठी दी है। सचिन के माफ़ करने पर प्रशासन ने राहत की सांस ली है।”

सचिन असल में कानपुरियों को हड़काने का बहाना खोज रहे थे। मुंबई में ठाकरे उनको गावस्कर जी से तुलना करके चिढ़ाये तो सचिन भरे तो बैठे ही होंगे। कानपुर में मौका मिलते ही (गावस्कर के ससुरालियों) कानपुरियों को हड़का दिया। हिसाब बराबर हो गया। इसे कहते हैं धोबी से जीते न पावै गदहा के कान उमेठे।

मजे की बात पुलिस वालों के हाथ-पांव एक दिन पहले इस बात पर फ़ूले थे कि एक आदमी पिच तक पहुंच गया। अगले दिन उसके हाथ इस बात पर फ़ूल गये कि एक फ़ैन को मैदान पर नहीं जाने दिया। आफ़त है पुलिस की। घुसने पर भी हाथ पैर फ़ूले। न घुसने पर भी। पुलिस के हाथ-पैर रोज ब रोज फ़ूलते जाते हैं। इसीलिये लगता है वह अपराधियों को दौड़ा नहीं पाती।

बहरहाल बड़े लोगों की बड़ी बातें। हम चर्चा का काम करते हैं। न किये तो कोई इसी बात पर तमतमा सकता है और हमारे हाथ-पांव फ़ुला सकता है।

समसामयिक घटनाओं पर ब्लाग जगत में कुछ  बेहतरीन प्रतिक्रियायें होती हैं। कभी-कभी उतनी सटीक प्रतिक्रियायें अखबार  और टेलिविजन पर भी नहीं दिखतीं। ऐसी ही एक प्रतिक्रिया संजय बेंगाणी की थी जब उन्होंने हिन्दी पर शपथ लेने पर हुई मारपीट को हिंदी विरोध और  मराठी अस्मिता की लड़ाई के बजाय दो गुण्डों की आपसी राजनीतिक लड़ाई बताया। कुछ ऐसा ही मुझे विनीत की रपट देखकर लगा जब उन्होंने IBN7 पर शिवसैनिकों के हमले की निन्दा करते हुये अपनी बात कही----IBN7 पर हमला लोकतंत्र पर हमला नहीं है!  इस तरह के लेख देखकर ब्लाग जगत की परिपक्वता और समझ का अंदाजा लगताहै।

image मैं जिस तरह हिन्दु धर्म के लिए लंपट   भगवाधारियों के साथ खड़ा नहीं हो सकता है वैसे ही हिन्दी के लिए आजमी और मराठी के लिए राज के साथ खड़ा नहीं हो सकता. दोनो भाषाओं को ही इन जैसे लोगों की जरूरत नहीं है. संजय बेंगाणी

इसी क्रम में देखिये अनूप सेठी जी का लेख--भाषा को हमने जीवन में जगह नहीं दी


image देश की सत्तर फीसदी आबादी को जब पीने को पानी नहीं है, बच्चों के हाथों में स्लेट नहीं है, स्त्रियों की आंखों में सपने नहीं है – टेलीविजन पर कीनले है, विसलरी है, पॉकेमॉन है, बार्बी है, मानव रचना यूनिवर्सिटी है, लक्मे है, झुर्रियों को हटाने के लिए पॉन्डस है। एक धब्बेदार, बदबूदार और लाचार लोकतंत्र टेलीविज़न पर आते ही चमकीला हो उठता है। पिक्चर ट्यूब से गुज़रते ही देश का सारा मटमैलापन साफ हो जाता है। सवाल यहां बनते हैं कि टेलीविज़न के दम पर जो आइस संस्कृति (information, entertainment, consumerism) एक ठंडी संस्कृति के बतौर पनप रही है, क्या उसी लोकतंत्र पर हमला हो रहा है और उसी को बचाये जाने की बात की जा रही है?

विनीत कुमार

image चंदू  भैया कम क्या ब्लाग के हिसाब से बहुत कम लिखते हैं। कल जब लिखे तो भाषा विमर्श नुमा कर गये। चेतन भगत के हवाले से चंद्रभूषण जी कहते हैं:चर्चित उपन्यासकार चेतन भगत ने भारत में अंग्रेजी अपनाने वालों की दो किस्में बताई हैं। एक ई-1, यानी वे, जिनके मां-बाप अंग्रेजी बोलते रहे हैं, जिनका बोलने का लहजा अंग्रेजों जैसा हो गया है और जो सोचते भी अंग्रेजी में हैं। दूसरे ई-2, यानी वे, जिन्होंने निजी कोशिशों से अंग्रेजी सीखी है और जिनका अंग्रेजी बोलना या लिखना हमेशा अनुवाद जैसा अटकता हुआ होता है। भगत का कहना है कि वे अपने पाठक ई-1 के बजाय ई-2 में खोजते हैं, और भारत में अंग्रेजी का भविष्य भी इसी वर्ग पर निर्भर करता है। हिंदी, अंग्रेजी के कई क्रमचय-संचय बताने के बाद वे अपने परिवार के भाषाई ताने-बाने की जानकारी देते हैं:किसी धौंस, अनुशासन या मजबूरी के तहत नहीं, सहज जीवनचर्या के तहत अंग्रेजी अपना कर उसी में सोचने-समझने और मजे करने वाली कोई पीढ़ी मेरे परिवार में अब तक नहीं आई है। अमेरिका, इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया में रह रहे सबसे नई पीढ़ी के छह-सात लड़के, लड़कियां और बहुएं अंग्रेजी में लिखते-पढ़ते जरूर हैं, लेकिन इसके लिए मेरे चाचा और उनके बेटे-बेटियों की तरह कई साल तक सचेत ढंग से हिंदी से कटकर अंग्रेज बनने की जरूरत उन्हें कभी नहीं पड़ी। वे इंजीनियर, डॉक्टर या सीए होकर ग्लोबल हुए हैं, अंग्रेज होकर नहीं। उन्हें पता है कि अंग्रेजी का दखल उनकी जिंदगी में कहां शुरू होता है और कहां पहुंच कर खत्म हो जाता है।
image हावर्ड फ़्रास्ट का उपन्यास स्पार्टाकस में रोम के गुलामों के विद्रोह की कहानी है। कम्युनिष्ट विचारधारा के मानने वालों के बीच बेहद लोकप्रिय इस उपन्यास का बेहतरीन हिन्दी अनुवाद अदि विद्रोही के नाम से अमृतराय ने किया है। इस अनुवाद को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। शरद कोकास जी इस स्पार्टाकस की कहानी सुनाते हैं आज की अपनी पोस्ट में। वे गुलामों के जीवन के बारे में जानकारी देते हुये लिखते हैं:

फिर सुबह होगी नगाड़े की आवाज़ के साथ ..सबको ज़ंजीरों में बान्धकर ले जाया जायेगा ।वे अपना प्याला और कटोरा साथ रखेंगे ...ठंड से काँपते हुए अपने नंगे बदन को हाथों से ढाँपने की कोशिश करते हुए वे अपनी जानवरों से भी बदतर ज़िन्दगी के बारे में सोचेंगे और फिर उन चट्टानों पर कुदाल और हथौडे चलायेंगे जो उनके मालिकों को सोना देती हैं । पसीने से तरबतर गुलाम जो महीनों से नहाये नहीं हैं ,चार घंटे बिना रुके काम करेंगे ,हाथ रोकते ही उन्हे कोड़ों से पीटा जायेगा .. इस तरह चार घंटे तक उनके शरीर का पानी पसीना बनकर निकल चुका होगा , उन्हे खाना और पानी दिया जायेगा , जो गट गट पानी पीने की गलती करेगा पछतायेगा क्योंकि पेशाब बनकर पानी निकल जाने के बाद काम खत्म होने तक दोबारा नहीं मिलेगा ..लेकिन इस प्यास का क्या करें ..कैसी मजबूरी है यह .. पानी पिये तो भी मौत नहीं पियें तो भी मौत ...।

अजित वडनेरकर ने इस पोस्ट पर टिपियाते हुये लिखा:

आदि विद्रोही याद आ गई। हर सम्प्रभुता बर्बर ही होती है।
दुखद यह है कि श्रम को भी बर्बरता का गुण समझा जाता रहा है। श्रम प्रबंधन को संस्कृति का नाम दिया गया।
चाहे श्रमप्रबंधन के तरीके अमानुषिक ही क्यों न रहे हों।
सलाम है उन मूक-मानवों को जिनके पसीने की बूंदें, हथोड़ी की धमक और बेडियों की कड़कड़ाहट आज एक से एक खूबसूरत स्मारकों में तब्दील हो चुकी है। बर्बरता का दूसरा रूप यह है कि इन स्मारकों पर निर्माणकर्ता के तौर पर उन्हीं साम्रज्यवादियों के नाम अंकित हैं जबकि आज लोकतांत्रिक शासन लगभग सब कहीं है।

image समीरलाल ने तय किया है कि वे अब कुछ दिन कनाड़ा के मौसम बने रहेंगे। ठंडे उदास। उस पर भी ठ्सका ये कि सवाल पूछकर उदासी --- 
मायूस होना अच्छा लगता है क्या? मतलब कि मैं पीता नहीं पिलाई गयी है वाले अंदाज में कहते हैं कि हम कोई अपने मन से उदास थोड़ी हैं। वाह भाई!

अरविन्द मिश्र इनकी इस पोस्ट पर फ़र्माते हैं----यह आत्म प्रवंचना ,आत्मालाप क्यूं इन दिनों प्रायः -सब कुछ ठीक ठाक तो हैं ना ?

वहीं अभिषेक ओझा कहते हैं: आज बहुत दिनों के बाद फिर अपने दिल की बात मिली. मायूस और मिस करने वाली बात ! जब टेम्पो, चलाने वाले की गाली और उसमें बजने वाले १०रुपये वाले कैसेट के गाने तक इंसान मिस करता है तो क्या कहूं. वो सब जिसे कभी गाली दिया करते थे आज मिस करते हैं ! बताइए तो.

image जिस कनाडा में समीरलाल उदासी का पल्लू थामे हैं उस धरती पर मानसी फ़ूल जैसे बच्चों के बीच खिलती हुई सी कहानियां लिख रही हैं! बच्चों के किस्से सुनाते हुये वे लिखती हैं:मुझे हँसी आई, और मैंने कहा, "व्हाट इज़ इट हनी? " तो उस बच्ची ने अपनी किताब दिखाई, परी कथा थम्बलीना की कहानी में, आखिरी पन्ने पर राजकुमार और राजकुमारी पास-पास खड़े थे। वो कहने लगी, "दे आर किसिंग" । मैंने कहा, :" नो दे आर नाट..., दे आर स्टैंडिंग"। बच्ची ने थोड़े ध्यान से उस तस्वीर को फिर देखा और मुझे समझाते हुए कहा," येस, बट दे आर गोंइंग टु किस आफ़्टर" - (बस मन में यही कह पाई- जी अच्छा दादी अम्मा)

आप देखिये तो सही कित्ते तो फ़ूल खिले हैं इस खूबसूरत पोस्ट में। समीरलाल को भी कुछ दिन खाता-बही छोड़कर बच्चों के बीच रहना चाहिये। न खाता न बही, जो बच्चे कहें वो सही।
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बच्चे दुनिया की तमाम चीजों को अपने नजरिये से देखते हैं। सैकड़ों सालों से चले आ रहे मिथकों पर सवाल उठाते हैं। गांधारी अपने पति जैसा बनने के बजाय अपने बच्चों को अच्छी तरह पालती-पोसती तो शायद ज्यादा अच्छा रहता। राम सीता के ऊपर लांछन लगने पर उनको त्यागने के बजाय लांछन लगाने वाले से पूछताछ करते/समझाइस या दंडित करते तो बेहतर होता। ये सब बातें बच्चे सुझाते हैं। सुधा सावंत के लेख को प्रस्तुत किया है कविता वाचक्नवी जी ने। देखिये-
समस्या का समाधान बच्चों का दृष्टिकोण! इस पोस्ट पर !

जन्मदिन मुबारक
आज हमारे दो चर्चाकार साथियों का जन्मदिन है। वे साथी हैं नीलिमा और पंकज। उनके फोटो यहां हैं। साथियों को जन्मदिन की मंगलकामनायें। नीलिमा तो अभी लिखती रहती हैं कभी-कभी लेकिन पंकज बेंगाणी गुम से हो गये हैं।

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नीलिमा  शायद अगली पोस्ट का मसौदा सोच रही हैं। लेकिन जन्मदिन मुबारक कहने के लिये तो उनको डिस्टर्ब किया ही जा सकता है।
image पंकज बेंगाणी ब्रांड डिजाइन तथा वेब डेवलपमेंट कम्पनी छवि के सीइओ तथा तरकश नेटवर्क के सीइओ एवं सम्पादक हैं. वे हिन्दी एवं अंग्रेजी में ब्लॉगिंग भी करते हैं. ये परिचय लिखा है पंकज के प्रोफ़ाइल में। वे पहले गुजराती चिट्ठों की चर्चा भी करते थे। अब लगता है भौत बिजी हैं और चर्चा के लिये बिल्कुल समय नहीं निकाल पा रहे हैं।
पंकज को जन्मदिन मुबारक।

एक लाईना

  1. फ़ोरेनरों को उनके देश से पढ़ा के भेजा जाता है कि “भारतीय चोर होते हैं”, और वे खुद…:भारतीय जैसा बनने के लिये झपट पड़ते हैं।
  2. क्या हिंदी व्याकरण के कुछ नियम अप्रासंगिक हो चुके हैं?: नियमों की नियति ही है भैया-अप्रासंगिक हो जाना। पुराने अप्रसांगिक होंगे तभैइऐ ने नये बनेंगे।
  3. आस्था आदर्श पर ...: तुक मिलाने के लिये खून के धब्बे फ़र्श पर
  4. आँचल और घूंघट: दोनों में कपड़ा लगता है भाई!
  5. चाय तो रोज ही पीते होंगे आप... पर क्या आप जानते हैं कि चाय के पेड़ की उम्र कितनी होती है?: हमें चाय पीने से मतलब है अवधियाजी उमर आप देखें।
  6. श्लील और अश्लील: देखने पर लगा कि अश्लील लिखने में ज्यादा मेहनत होती है। होने में भी होती है क्या?
  7. एक ब्लॉग, ब्लोगर द्वारा, ब्लोगर्स के लिए.: क्या-क्या गुल खिलाये जाते हैं भैया।
  8. खामोश रात में तुम्हारी यादें: बहुत हल्ला मचाती हैं,कवितायें लिखवाती हैं।
  9. और हमारे संचार माध्यम कब सुधरेंगे ?: वे कहते हैं--- हम नहीं सुधरेंगे क्या कल्लोगे?
  10. हमारे सांसद, हमारे बच्चे...खुशदीप: सच में? कोई तो कह रहा था कि खुशदीप ब्लागर हैं।
  11. एक जरुरी सुचना सभी कवि लोगो के लिये: अगला शुक्रवार वे कविता का महाभारत रच सकते हैं।
  12. क्या अजय झा और बी.एस.पाबला में पिछले जन्म का कोई रिश्ता है?: काहे को गड़े मुर्दे उखड़वा रहे हो भाई!
  13. ब्लॉगिंग के कीड़े के कारण अपने सारे कमिटमेंन्ट्स की वाट लग गई…: कम से कम अभी दोष देने के लिये कोई कारण तो है।
  14. आज निर्मला कपिला तथा पंकज बेंगाणी का जनमदिन है: नीलिमा को कहां छोड़ दिये भाई!
  15. चाय के बारे में वह सब जो आप नहीं जानते...: वह क्या इस पोस्ट को बांचकर जान जायेंगे।
  16. कविता के सूनसान, मैदान, में..: भाषा के बेस्ट फ़्रेंड से कहा-सुनी।

 

और अंत में: फ़िलहाल इतना ही। आपको आजका दिन मुबारक हो। मौज मजे से रहें। बाकी जो होगा देखा जायेगा।

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सोमवार, नवंबर 23, 2009

प्रेम न हाट बिकाय

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आज की चर्चा करने के लिए जी भर कोशिश करनी पड़ीं है| यात्रा पर निकलने से पूर्व चर्चा की मनःस्थिति बना पाना बड़ा ही दुष्कर होता है| पर आप तो जानते हैं कि कुछ चीजें दायित्वबोध के चलते भी निभाई जाती हैं, निभाई जानी चाहिएँ भी, जब जितना बन पड़े| सो, हम आप से गिने चुने कुछ लेखों की ही चर्चा करेंगे; वह इसलिए नहीं कि संकलक खंगालना समय माँगता है अपितु इसलिए भी कि कुछ मुद्दे गंभीर विमर्श की अपेक्षा करते हैं|


सब से पहले मैं चिट्ठाचर्चा परिवार और हिन्दी नेट समुदाय की ओर से स्वर्गीय कल्याण मल लोढ़ा जी को श्रद्धांजलि  अर्पित करती हूँ | हिन्दी के इन सुप्रतिष्ठित विद्वान का अतुल अमूल्य योगदान आने वाली पीढ़ियों की धरोहर है| 






Prof.Kalyanmal Lodha
हिंदी के सुविख्यात विद्वान तथा उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्यपाल आचार्य विष्णुकांत शास्त्री कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर लोढ़ा के शिष्य रहे. सन १९७९ से ८० तक आप राजस्थान के जोधपुर विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त किये गए. एक वर्ष के पश्चात आप पुनः कलकत्ता आ गए फिर सन १९८६ में आपने कलकत्ता विश्वविद्याला से अवकाश ग्रहण किया. प्रोफ़ेसर लोढ़ा ने ५० से अधिक शोध निबंध लिखे. आपने दर्जनों पुस्तकों की रचना की, जिनमे प्रमुख हैं- वाग्मिता, वाग्पथ, इतस्ततः, प्रसाद- सृष्टी व दृष्टी , वागविभा, वाग्द्वार, वाक्सिद्धि, वाकतत्व आदि. इनमे वाक्द्वार वह पुस्तक है, जिसमे हिंदी के स्वनामधन्य आठ साहित्यकारों - तुलसी, सूरदास, कबीर, निराला, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी के साहित्यिक अवदानों का सुचिंतित तरीके से मूल्याङ्कन किया गया है. प्रोफ़ेसर लोढ़ा ने प्रज्ञा चक्षु सूरदास , बालमुकुन्द गुप्त-पुनर्मूल्यांकन, भक्ति तत्त्व, मैथिलीशरण गुप्त अभिनन्दन ग्रन्थ का संपादन भी किया. प्रोफ़ेसर लोढ़ा को उनके साहित्यिक अवदानों के लिए मूर्ति देवी पुरस्कार, केंद्रीय हिंदी संसथान-आगरा से राष्ट्रपति द्वारा सुब्रमण्यम सम्मान, अमेरिकन बायोग्राफिकल सोसाइटी अदि ने सम्मानित किया. आप अपनी ओजपूर्ण वाक्शैली के लिए देश भर जाने जाते थे. विविध सम्मेलनों में आपने अपना ओजश्वी वक्तव्य देकर हिंदी का मान बढाया. आप के के बिरला फाउन्डेसन, भारतीय विद्या भवन, भारतीय भाषा परिषद्, भारतीय संस्कृति संसद सरीखी देश की सुप्रसिद्ध संस्थावों से जुड़े हुए थे. प्रोफ़ेसर लोढ़ा के निधन से साहित्य जगत में शोक की लहर है. उनका अंतिम संस्कार रविवार २२ नवम्बर को जयपुर में किया जा रहा है.












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साहित्य अकादमी पुरस्कारों के सम्बन्ध में एक नई व अनोखी सूचना मिलने पर  हिन्दी-भारत याहू समूह  में जो परिचर्चा छिड़ी, उसे बाँचना स्वयं में दो विचारपक्षों में से किसी एक विचार की पक्षधरता मात्र नहीं है अपितु साहित्य से जुड़े ऐसे अति महत्व के प्रश्नों पर भविष्य में देश में क्या होने जा रहा है, क्या होना चाहिए और क्यों होना चाहिए की पक्षधरता भी है| दोनों ही मत-विमत अपनी अपनी जगह सही और सटीक हैं| परिचर्चा इतनी महत्वपूर्ण, रोचक, सामयिक व विचार- उर्वर है कि आप में से प्रत्येक भाषा और साहित्य से सम्बद्ध पाठक को एक बार अवश्य देखना पढ़ना और उस पर अपनी राय देनी चाहिए थी, किन्तु  हाय री आदान-प्रदान की श्रृंखला!! 



· यदि हम सैमसंग की सहायता से पुरुस्कार की राशि बढा सकें तो क्या यह लेखकों के लिये अच्छा नहीं होगा ? नोबल पुरुस्कार की महत्ता का एक कारण यह भी है कि उस के साथ एक बड़ी पुरुस्कार राशि जुड़ी होती है । · यदि एक ’अल्फ़्रेड नोबल’ अपने निजी धन से एक ऐसा पुरुस्कार स्थापित कर सकता है जिसे पूरी दुनिया सम्मान से देखे और वह पुरुस्कार आने वाले वर्षों में कभी किसी पर निर्भर न रहे तो ऐसा पुरुस्कार हमारे अम्बानी , बिरला या मित्तल क्यों नहीं स्थापित कर सकते ? हमें किसी विदेशी कम्पनी सैमसंग पर निर्भर नहीं रहना होगा । · इस दुनिया में कुछ भी मुफ़्त नहीं मिलता । हम मुफ़्त ’टेलीविज़न’ भी तभी देख पाते हैं जब प्रायोजक उस के लिये पैसा देते हैं । किसी भी पुरुस्कार को बनाये रखने के लिये धन की ज़रूरत होती है और वह कहीं न कहीं से आना ज़रूरी है । धन का स्त्रोत जो भी होगा कुछ सीमाएं और बंधन तो ले कर आयेगा ही । हमें देखना यह है कि किस में हम अपनी स्वतंत्रता को कम से कम खोते हैं ।


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गत सप्ताह  और मेरे हृदय की धक्-धक् पूछती है– वह कौन  पर एक टिप्पणी का यह अंश देखें -
ऋषभ  ने कहा…
महाराष्ट्र विधानसभा के चपत-समारोह को भावुकता के बजाय इस तरह भी देखने की ज़रुरत है कि इस बहाने एक उद्दंड नेता ने हिन्दी को जानबूझकर अपमानित कराया है..... उकसावा भी आपराधिक कृत्य है.


यह टिप्पणी बताती है कि हिन्दी के सम्मान के नाम पर  जिस प्रकार के दाँव पेंच खेले गए हैं, उनसे हिन्दी का  अपमान ही हुआ है| इसमें हिन्दी को दुत्कारने वाला जितना दोषी है, उस से बड़ा दोषी उसका सम्मान करने के नाम चाँटा खाने की सहानुभूति और महिमा मंडन पाने वाला है| उसके ऐसे कृत्य पर उसकी भर्त्सना के स्थान पर हिन्दी वालों ने यकायक पहली नज़र में उसे भले हिन्दी के लिए सार्वजनिक अपमान तक झेल जाने वाला नायक बना कर प्रस्तुत किया हो, मान  लिया हो; किन्तु उद्वेग उतरते ही उस आपराधिकता की पोल खुलते दीखने लगी है|



राजनीति की बजबजाती गंदगी को हिंदी की पैकिंग लगाकर उस बजबजाती राजनीति को सहेजने के लिए अपने-अपने पक्ष की सेना तैयार करने की कोशिश थी
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समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अबू आजमी के रिश्ते देश के दुश्मन दाऊद इब्राहिम से होने की खबरों के ठंडे हुए अभी बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ और न ही इसे ज्यादा समय बीता होगा जब मराठी संस्कृति के नाम पर भारतीय संस्कृति तक को चुनौती देने वाले राज ठाकरे गर्व से पॉप स्टार माइकल जैकसन की गंधाती देह के दर्शन के लिए आतुर थे।



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बन्दूकधारियों और हताहतों के अपने शब्दों के माध्यम द्वारा  मुम्बई आतंक की अकथ कथा के छिपे रहस्यों की जो वास्तविकता उजागर हुई है, उस कथा को उसके पूरे रूप में पहली बार पुरस्कृत  फिल्मकार  Dan Reed  ने कई अनजाने पक्षों के साथ खरा-खरा प्रस्तुत किया है,  ... एक ऐसी  कथा जिसे सुन देख कर आप सिहर उठेंगे .... अवाक हो जाएँगे ...





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गत दिनों मुझे एक अजीबोगारीब लेख देखने पढ़ने का अवसर मिला| लेख क्या था, मानो अपनी कुंठाओं की अभिव्यक्ति थी|  कृष्ण बिहारी जी के इस 5 नेट पन्नों में फैले लेख को आप भी स्वयं पढ़ें और विचारें| 

लेखक लिखते हैं


प्रेम नहीं सेक्सप्रेम. यह शब्द जितना सम्मोहक है उतना ही भ्रामक भी. एक विचित्र-सी मनोदशा का नाम प्रेम है. यह कब होगा, किससे होगा और जीवन में कितनी बार होगा, इसका कोई अता-पता किसी को नहीं होता. जब-जब मुझसे किसी ने इसके बारे में सवाल किया है या मैंने खुद से पूछा है कि आख़िर यह मामला है क्या, तो मुझे केवल एक उत्तर ही देते बना है कि प्रेम वासना से उपजी मनोस्थिति है.
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असल में इस झूठ को वह इस तरह जीती है कि उसे यह सच लगता है कि किसी के साथ हमबिस्तर हो चुकने के बाद भी वह पाकीजा है. मैं नब्बे-पंचानबे प्रतिशत स्त्रियों की बात कर रहा हूं न कि उन पांच दस प्रतिशत की जिन्होंने समाज को ठेंगा दिखा दिया है. ये ठेंगा दिखाने वाली महिलाएं आर्थिक रूप से या तो स्वतंत्र हैं या फिर वेश्याएं हैं. वेश्या सबसे अधिक स्वतंत्र होती है.
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कहने का मतलब है कि रोज की दाल-रोटी है सेक्स, प्रेम का कहीं अता पता नहीं यह सच एक बड़ा सच है. मैं यदि देहधारी नहीं होता तो क्या कोई स्त्री मुझे प्रेम करती, यदि कोई अपने वज़ूद के साथ मुझे न बांधता तो क्या मैं उसके बारे में सोचकर अपना समय नष्ट करता. अशरीरी प्रेम को बहुत महत्व देने वालो, ऐसा कौन सा अशरीरी रिश्ता है जो तुम्हारे साथ ज़िंदा है
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इसका सीधा अर्थ है कि जिस्म है और पहुंच में है तो जहान है नहीं तो कुछ भी नहीं है.
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प्रेम एक ऐसा मर्ज़ है जो सबको जुकाम की तरह पकड़ता और छोड़ता है. कुछ लोगों को यह बार-बार पकड़ता और छोड़ता है. अगर यह उनकी आदत न बनी हो तो उन्हें हर बार पहले से ज्यादा दुखी करता है. प्रेम पहला हो या उसके बाद के किसी भी क्रम पर आए, होने पर पाने की छटपटाहट पहले से ज्यादा होती है और टूटने पर पहले से भी तगड़ा झटका लगता है. यह टूटना इनसान को बिखरा और छितरा देता है.जिनकी आदत ओछेपन की होती है और जो अवसर पाते ही अपना मतलब पूरा करने में लग जाते हैं उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता. उनको ही क्रमश: लम्पट और छिनाल कहा जाता है. इस प्रवृत्ति के लोग प्रेम नहीं करते.ये एक किस्म की अलग लाइफ स्टाइल जीते हैं.
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प्रेम ईर्ष्यालु, शंकालु और हिंसक होता है. प्रेम ही एक मात्र ऐसा मानवीय व्यवहार है जिसमें सबसे अधिक अमानवीयता है. प्रेम बनाता नहीं, बरबाद करता है. यह अलग बात है कि बरबाद करने वाले की कोशिश कभी कभी नाकाम हो जाती है. मैं कभी नहीं मान सकता कि रत्नावली या विद्योत्तमा ने तुलसीदास या कालिदास को अमर कर दिया
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मैं जब इस लेख को लिखते हुए अपने परिवेश में इसकी चर्चा कर रहा हूं तो इस सभ्य समाज के लोग इसे मेरा व्यक्तिगत मत कहते हुए मुझे ख़ारिज करने में लगे हैं कि प्रेम कतई दैहिक नहीं है. प्रेम आत्मा की बात है. वासना का इससे कोई लेना-देना नहीं. प्रेम ही है कि दुनिया बची हुई है. मेरा मन इसे स्वीकार नहीं कर रहा. मैं समझता हूं कि करूणा है जिससे दुनिया बची हुई है. प्रेम और करूणा में अन्तर है .करूणा का जहां असीम विस्तार है, वहीं प्रेम एक संकरी गली है. प्रेम राजपथ नहीं है कि उस पर एक साथ और सबके साथ दुनिया चले. प्रेम में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है.




यदि प्रेम केवल देह से देह का सम्बन्ध ही होता और देह पाने तक,  पा चुकने तक की यात्रा तक ही प्रेम की यात्रा होती तो किसी से भी प्रेम करने के बाद उसे ही पाने की लालसा क्यों रहती| देह तो लुके छिपे किसी की भी पा लेने वाले लोग सदा इस समाज में रहे हैं ना !!


अर्थात्  a को यदि यदि b से प्रेम है और वह उस के लिए तड़प रहा / रही है तो उसे तड़पने की क्या आवश्यकता है? वह  b से इतर किसी अन्य के देह को माध्यम क्यों नहीं बना लेता ? उसी की देह की अनिवार्यता क्यों रहती है ( यदि देह ही मूल कारक है तो)| और  गृहस्थ के बुढापे में आपसी प्रेम को आप ऐसे ही ख़ारिज करते चले जाएँगे ?

आप खारिज कीजिए, क्योंकि आप के खारिज करने के अपने कारण हैं |


कहना शोभा तो नहीं देता किन्तु पूरे लेख से एक देह लोभी पुरुष की देह लोभी होने के कारण हुई दुर्गत से उपजी मानसिकता का दिग्दर्शन होता है| वैसे बूढ़े तोतों को पढ़ाने का लाभ  हम नहीं देखते, इसलिए लेख पर तर्क वितर्क करने तक से ऊब हुई| 



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इधर  हिन्दी  ब्लॉग  जगत्  में बच्चों के ब्लॉग बनाने का उत्साह भी दिखाई देता है, जो स्वागत योग्य है| ये ब्लॉग उन ब्लॉग से हट कर हैं जो बच्चों के विषयों पर अथवा उन्हें केंद्र में रख कर लिखे जा रहे हैं क्योंकि मैं उन ब्लॉग की बात कर रही हूँ जो बच्चों के नाम से उनके मातापिता अथवा परिवारीजनों द्वारा चलाए जा रहे हैं| अभी एक दो दिन पूर्व प्रवीण जाखड जी के ब्लॉग के माध्यम से हिन्दी में सबसे छोटी आयु की बच्ची का भी एक ब्लॉग देखा था|


 खैर, बच्चों के या किसी बच्चे विशेष के ब्लॉग का लिंक या उल्लेख करना यहाँ मेरा उद्देश्य नहीं है| मेरा उद्देश्य इस बात को यहाँ उठाने का दूसरा है| वह यह कि जब भी कोई रचना किसी पात्र - विशेष  के माध्यम से व्यक्त होती है तो वह उस पात्र की भाषा और उसी की भंगिमा लेकर आती है, आनी चाहिए| साहित्य इसका प्रमाण है| प्रेमचंद के हर पात्र की भाषा और भंगिमा उसके समाज, वय, लिंग, शिक्षा, अनुभव, स्तर, भाषिक पृष्ठभूमि आदि आदि आदि कई स्तरों का निर्वाह करती है| प्रेमचंद ही क्यों, सारा हिन्दी साहित्य, संस्कृत साहित्य, अन्य भाषाओं का साहित्य, पंचतंत्र..... जाने क्या क्या गिनाऊँ ! और तो और, बोलचाल में भी लोग जब बच्चे की भूमिका में कभी  संवाद करते हैं तो तुतला कर बोलना, ... आदि शैली को अपना लेते हैं| अभिप्राय यह कि  वाणी और शब्दों का चयन वक्ता अथवा पात्र के अनुसार होना भाषा की अनिवार्य शर्त है|


आज मुझे दुःख हुआ यह देख कर कि हम अपने बच्चों के मुँह में  कैसी भाषा आरोपित कर रहे हैं| स्वप्निल नाम की इस बच्ची का ब्लॉग यों तो सराहनीय है, प्यारा है किन्तु आज के संवाद में एक शब्द "चुड़ैल" के प्रयोग में ऐसी असावधानी हुई है कि लगा जैसे हम अपने बच्चों को अपनी  वान्छओं से आरोपित कर रहे हैं| उन पर  उनकी उम्र से बड़ी चतुराई और उस चतुराई की भाषा बोलना लाद रहे हैं| 


मुझे पक्का विश्वास है कि यह भाषा स्वप्निल कदापि नहीं बोलती होगी| बोलनी चाहिए भी नहीं| ऐसे में जो भी स्वप्निल बन कर इस ब्लॉग को लिख रहे हैं,  उन्हें चाहिए कि शब्द चयन में सावधानी बरतें| बच्चे की भाषा और भावना से सामंजस्य न रखने वाले एक शब्द के गलत चयन व प्रयोग से बच्चे की पूरी छवि धूमिल हो जाती है| बच्चों के पास उनका बचपन अधिकतम सुरक्षित रहने दें| मेरी इस बात को तर्क वितर्क का मुद्दा बना कर  मुझे खेद में न डालें| मैं किसी दुर्भावना वश ऐसा नहीं लिख रही हूँ| फिर भी यदि मेरी सलाह पर किसी को आपत्ति हो तो वह/ वे अपने बच्चों के लिए निर्णय लेने में स्वतन्त्र तो हैं ही |



स्वप्निल
My Photoअचानक पापा के कम्प्यूटर में मैंने एक फोटो देखी। फोटो में पापा एक लड़की के साथ शूट में खड़े हैं। मैंने सोचा मेरे पापा कब से फिल्मों में काम करने लग गए और ये चुडैल कौन है? जो मेरी मम्मी के स्थान पर पापा के साथ खड़ी है। पापा से पूछा तो पापा ने बताया कि बेटा ये तेरे पापा नहीं है, ये तो राजीव तनेजा अंकल के ब्लाग में किया गया कमाल है। यह जानकर मुझे अच्छा लगा कि चलो पापा न तो किसी फिल्म में काम कर रहे हैं और न ही मेरे मम्मी के स्थान पर कोई और है।  आप एक चित्र के साथ हुई चुहल में हमें पहचाने की कोशिश कीजिए तब तक हम आप से अगली बार मिलने के लिए विदा ले लेते हैं|




वैसे यह तो सच है कि राजीव तनेजा जी की तकनीकी चित्रकारी ने ब्लॉग जगत् के लोगों को क्या से क्या बना दिया है|

अब यही देखिए -

 हम आपसे  अगली बार मिलने से पूर्व आपके मंगलमय भविष्य की कामना करते हैं.


fvwegwe

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