शनिवार, जून 30, 2012

किन्तु एक रूप मुस्काता है गीतों में

कल की चर्चा के बाद हमको अपरोक्ष रूप से डांट पड़ी -हम बहुत मेहनत करते हैं। इसई चक्कर में हम आज फ़ुल आराम किये। वैसे कल अनूप सेठी की कविता देखे । जरा आप भी देखिये:
अबे! ओ!!कवि!!!
तू लिक्ख,
कागज को घोंच मत,
अच्छी कविता लिक्ख!
इसको ब्लॉगानुवाद रविरतलामी ने इस तरह किया:
अबे! ओ!! ब्लॉगर!!!
तू लिक्ख
कीबोर्ड को टकटका मत
अच्छे पोस्ट लिक्ख
चर्चा की भाषा में अगर कहें तो इसे कुछ यूं कहा जायेगा शायद:
अबे! ओ!!चर्चाकार!!!
तू चर्चिया
खाली लिंक में सटा
अच्छी चर्चा कर!

चर्चा करने बैठे तो अदाजी का सवाल भी सामने आकर खड़ा हो गया। वे कहती क्या हैं पूछती हैं:
ई बतावल जावे..चिटठा-चर्चा करे में आपहूँ कौनो पी.एच.डी. ऊ.एच.डी. कीये हैं का ???
अदाजी की अपनी अदा है बात कहने की। हां नहीं तो वाली अदाजी का कहने का मतलब है कि कुछ करना-धरना आता भी है चर्चा-उर्चा की खाली मेहनतै करते रहते हैं। :)
इसई बहाने हम पुराने दिन के किस्से याद करने लगे। कभी अदाजी अपनी खनकती आवाज में चर्चा करतीं थीं। कुछ के लिंक जो मिले वे आप भी देखिये/ सुनिये।

1.ब्लॉग समाचार ....ब्लागों की कहानी ...अदा की ज़ुबानी ....

2.ब्लॉग समाचार ...अदा की पसंद .....पाँच पोस्ट्स....(3)

3.ब्लॉग समाचार ....अदा की पसंद....पाँच ब्लॉग और कुछ कमेन्ट.....

4.ब्लॉग समाचार ......पोस्ट माला


जो लोग पाडकास्टिंग के झमेले जानते हैं ऊ लोग समझते हैं कि इसमें कित्ता मेहनत लगती है। लेकिन अदाजी ने काफ़ी दिन तक अपनी आवाज में चर्चा की और खूब पसंद की गयी उनकी चर्चा। तो हमको पी.एच.डी.देने का साजिश करेंगी अदाजी तो हम आपको आपके काम के हिसाब से डबल पी.एच.डी. थमा देंगे -हां नहीं तो कहकर।

इधर-उधर डोलते हुये आज पुरानी चर्चायें देख रहे थे तो सतीश पंचम एक पोस्ट में कुछ ज्यादा चमकते दिखे। सो उनको लिंक दुबारा थमा दिया। उन्होंने लौटती मेल से टिपिया दिया:
दो साल बाद इस चिट्ठाचर्चा को फिर से पढ़ना सुखद रहा। प्रियंकर जी की बात देखिये दो साल बाद भी एकदम टंच लग रही है।
उन्ही की बात कापी पेस्ट कर रहा हूं - हिंदी चिट्ठाकारी हिंदी समाज के पुराने कुएं में लगा नया रहट है. रहट की डोलचियों में पानी तो उसी समाज का है . उस बंद समाज की समस्याएं ही हिंदी चिट्ठाकारी की भी समस्याएं हैं. समाज बदलेगा,तभी चिट्ठाकारी का स्वरूप बदलेगा. तब हिंदी चिट्ठाकारी का पोखर इतना बड़ा महासागर होगा जिसे छोटे-मोटे दूषक तत्व प्रदूषित नहीं कर पाएंगे.
बड़ा बवाल है ये नास्टेल्जिया भी। हम कहां से कहां टहलन लगे:
आये थे करने चर्चा
लगे करने टाइम खर्चा

कल की चर्चा में अलीजी की प्रतिक्रिया थी
फेसबुक वाले छोड़ कर सभी लिंक देख पाये ! लिंक देखते हुए सहजै रहिबा तक भी पहुंचे , बेहतर कवितायें पर प्रतिक्रियायें ?

अपने ब्लॉगजगत का यही किस्सा है। बहुत सारा अच्छा पढ़ने से रह जाता है। आज ऐसे ही घूमते हुये सीतापुर के अरुणमिसिर के ब्लॉग तीन पत्ती पर पहुंचे। ये कविता देखिये:
झोपड़ी में
दस लोग खड़े थे
पाँच ने सोंचा पाँच ही होते
तो बैठ सकते थे
दो ने सोंचा दो ही होते
तो लेट सकते थे

एक ने सोंचा केवल मैं ही होता
तो बाकी जगह
किराए पर उठा देता !
इस कविता की व्याख्या के लिये काम भर की समझ नहीं है लेकिन कविता जमी बहुत। यह भी लगा कि कैसी-कैसी तो इधर-उधर की तुकबंदियों में टिप्पणियों की झड़ी लगा देते हैं हम लोग। लेकिन यहां कोई आया नहीं। हमें लगता है ब्लॉगर भी एकदम मध्यमवर्गीय आदतों वाला होता है। जानी-पहचानी जगहों पर जाता है। टिपियाता है चला जाता है। अनजान जगहों पर जाने में सकुचाता है।
खैर छोड़िये अगली कविता देखिये मिसिरजी की:
अपने घर को घुमा कर मैंने
उसका रुख समंदर की ओर कर दिया है
वह पोखर जो कभी घर के सामने था
पिछवाड़े हो गया है !


लगभग भूला ही रहता हूँ उसे अब
लेकिन कभी जब यूँही बे-इरादा
पीछे की खिड़की खोलता हूँ
हुमक कर आ जाता है
आधा चेहरा छिपाये सिर्फ एक आँख से देखती
उस दलित लड़की-सा
जो अभी तक मेरे वादों को सच मानती है !


आगे की कविता आप मिसिरजी की पोस्ट में बांचिये। और कवितायें भी उनके ब्लॉग पर देखिये। कुछ कवि्तायें उनकी धूप के गांव में भी हैं।
कल चर्चा में सिद्धार्थ जोशी ने एक लाईना की फ़रमाइश की। एक लाईना या्नी वन लाइनर के बड़े रोचक अनुभव रहे हैं। शुरुआती दौर में लोगों ने इनको बहुत पसंद किया। फ़िर कुछ लोगों को खराब लगा। कुछ लोगों ने इसमें चर्चाकार की प्रत्युत्पन्न मति देखी जबकि कुछ को व्यंग्यकार की धूर्तता। हालांकि इसे पसंद करने वाले ज्यादा थे लेकिन फ़िर यह कम होता गया। अब जो्शी जी ज्योतिषी हैं लेकिन उन्होंने नहीं बताया कि एक लाईनाम में हमारे लिये धिक्कार योग हैं सराहना का जुगाड़। बहरहाल हम अनुराग कश्यप मोड में जाते हुये (जैसा पाठक चाहते हैं वैसी चर्चा की जाती है) चंद एक लाईना पेश कर रहे हैं। जिस किसी को बुरा लगे बता दे , उसकी पोस्ट का लिंक हटा दिया जायेगा।
  1. आज जाकर देख पाया राऊडी राठौर : लेकिन समीक्षा लिखे बिना तो मानेंगे नहीं

  2. अनुराग अपनी फिल्‍मों में कब तक बचाये रख पाएंगे गीत?: गीत भी क्या पता कहके बचा लें?

  3. ताकि एस पी सिंह के आगे बाकी पत्रकार भी छाती कूट सकें: और आकर स्यापा कर सकें कि हाय आज मैंने राखी सावंत,पूनम पांडे के चक्कर में ये नहीं किया वो छोड़ दिया।

  4. मेरे मरने के बाद मुझपर रोना ना कि मेरे संग्रह को समेटने के लिए: संग्रह समेटने के लिये मूवर्स एंड पैकर्स वाले हैं न!

  5. कसाब बिरयानी ही खायेगा : पनीर उसको पसंद नहीं।

  6. इमेज बड़ी चीज़ है, मुंह ढंक के सोईए : इत्ती गर्मी में इमेज को भी पसीना आ जायेगा ढंकने से

  7. सफ़ेद घर....कुछ बातें....कुछ यादें : हांक लेन दो चार साल हो गये

  8. चन्द्रमा की हेयर-पिन: भोलेनाथ की जटाओं में

  9. प्यास औंधे मुंह पड़ी है घाट पर: बांच रहे इसे चित्त लेटे हुये हम खाट पर

  10. तुम जो नहीं होती, तो फिर ...? : मैं भी कहाँ मैं ही होता!

  11. बारिश में भीगते गर्मी के बिम्ब: बतासा की तरह गल गये।

मेरी पसंद

बहुत बार चाहा , में शूलों का दर्द कहूं
किन्तु एक रूप उतर आता है गीतों में.

जब भी मैं आया हूँ फूलों के मधुबन में ,
शूलों से भी मैंने रूककर बातें की हैं .,
फूलों ने अगर दिए मकरंदित स्वप्न मधुर ,
शूलों ने भी मुझको दुःख की रातें दी हैं.

बहुत बार चाहा दुःख सहकर भी मौन रहूँ ,
वरवस एक रूप गुनगुनाता है गीतों में,

मेरे मन पर यदि है जादू मुस्कानों का ,
आँसू की भाषा भी जानी पहचानी है ,
एक अगर राधा है ब्रज के मनमोहन की ,
दूजी तो घायल यह मीरा देवानी है.

बहुत बार चाहा है आँसू के साथ बहूँ ,
किन्तु एक रूप मुस्काता है गीतों में.

कृष्णाधार मिश्र, शाहजहांपुर

और अंत में

आज के लिये फ़िलहाल इतना ही। बाकी फ़िर कभी। नीचे का चित्र सुनील दीपक जी के ब्लॉग छायाचित्रकार से।

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शुक्रवार, जून 29, 2012

मेरे जीवन की आशा बन , थोड़ी देर और बैठो तुम !

कल की चर्चा में एक कविता का जिक्र और उस पर अदाजी और अनुराधाजी की टिप्पणियों का जिक्र था। इस बारे में हुई चर्चा के लिंक खोजते हुये शालिनी माथुर का लेख व्याधि पर कविता या कविता की व्याधि पढ़ने को मिला। लेख पढ़कर आशुतोष कुमार की बात दोहराने का मन हुआ-यह लेख दूसरे दस काम छोड़कर पढ़ने वाला है।

इसी पोस्ट पर एक टिप्पणी क्षमाजी की है। उससे उनके ब्लॉग सहजै रहिबा पर पहुंचा। एक कविता के अंश देखिये:
बेटियां बगावत नहीं करती
क्योकि ....
इज्ज़त की गठरी
उनका साथ नहीं छोडती
आजन्म ....

वे नाज़ुक शरीर में
मजबूत कंधे छुपाये रखती हैं
बे-वक़्त
आये तूफान में भी
खड़ी रहती हैं--चट्टान सी

बेटियां बगावत नहीं करती
क्योकि
उसकी कीमत
अंततः उनसे ही वसूली जाती है
बेटियां बगावत भले न करें लेकिन अपने खिलाफ़ होने वाली हिंसा का विरोध तो अवश्य करें। अमेरिका मे रह रहीं सुधा ओम ढींगरा जी ने एक लेख में यह बात विस्तार से समझाई है। इसमें घरेलू जीवन में महिलाओं पर होने वाली हिंसा की पड़ताल की गयी है। अंत में लेखिका का आह्वान है:
क्या आप चाहती हैं कि आप के बच्चों में हिंसक प्रवृत्ति पनपे | नहीं न.. तो उठिए..जागृति का पहला कदम उठाएँ...अपने ही घर में बहू या बेटी पर किसी मर्द का हाथ उठने से पहले उसके साथ खड़ी हो जाएँ और बचाएँ अपनी भावी पीढ़ी को ग़लत संस्कारों से,जो अनजाने ही बच्चों में पड़ जाते हैं .....
रश्मि रविजा ने भी अपने एक लेख में स्त्री-पुरुष भेदभाव दूर करने के लिये गलत चीज का विरोध करने के संस्कार देने का आह्वान किया:
तो आज जरूरत है..ऐसे ही माताओं-पिताओं की जो बचपन से ही अपनी लड़कियों का ऐसे पालन-पोषण करें कि वो अपनी आवाज़ पहचानें...'ना' कहना सीखें...विरोध करना जानें तब वे अपने ऊपर किए गए पहले जुल्म का विरोध कर पाएंगीं...और किसी को ये नसीहत देने का मौका नहीं देंगी कि 'पहली बार में ही किसी अत्याचार का विरोध करना चाहिए "
प्रो.अली अपने ब्लॉग उम्मतें में विभिन्न लोककथायें सुनाते हुये उसके बारे में विस्तार से लोककथा के समय और आज के परिप्रेक्ष्य में कथाओं की व्याख्या करते चलते हैं। कल उन्होंने सांसों से दालचीनी की खुश्बू बिखेरती नायिका के बारे में बताया तो आज योद्धा की प्रेयसी का आख्यान। इसके बारे में वे बताते हैं:
यह आख्यान मसाई कबीले के एक सुन्दर और बहादुर योद्धा का हृदय जीतने के यत्न में लगी आठ युवतियों से सम्बंधित है ! वे सभी उस युवक से विवाह की इच्छुक हैं और उसकी प्रशंसा में गीतों की रचना करके उसे आकर्षित करने का प्रयास करती हैं , किन्तु उनमें से सबसे छोटी युवती की कविता अत्यन्त हृदयस्पर्शी है , अतः वह इस बहुमूल्य प्रेमी का वरण करने में सफल हो जाती है ! उसके गीत में प्रेम की उद्घोषणा तथा एक चुनौती निहित है , उसने कहा...मैं जिस योद्धा से प्रेम करती हूं / जिसके लिये मैंने अपने पिता के पशु झुण्ड से मीठे दही और दूध की व्यवस्था की है और जिसके लिये मैंने अपने पिता के चर्बीयुक्त मेढ़े रख छोड़े हैं , कि वह उनकी बलि दे , उनका सेवन करे /
आगे उस योद्धा के घायल होने और फ़िर अपने परिश्रम और पराक्रम से उसे उस नायिका द्वारा उसे स्वस्थ करने और विजय प्राप्त करने का आख्यान है। जिसे अली जी कहते हैं- एक पराजित योद्धा की प्रेयसी का विजय अभिषेक ! यहां आठ युवतियों में से एक को चुनने का कारण युवती में सुन्दरता के साथ-साथ शौर्य का होना भी एक कारण रहा होगा। इस बात को गीतकार अंसार कंबरी अपने गीत में कहते हैं:
क्या नहीं कर सकूंगा तुम्हारे लिये
शर्त ये है कि तुम कुछ कहो तो सही।

पढ़ सको तो मेरे मन की भाषा पढो़
मौन रहने से अच्छा है झुंझला पढ़ो
मैं भी दशरथ सा वरदान दूंगा मगर
युद्ध में कैकेयी से रहो तो सही।
एक प्रेयसी भी चाहती है कि उसका साथी बहादुर हो। शायरा नसीम निकहत कहती हैं:
मिलना है तो आ जीत ले मैदान में हमको
हम अपने कबीले से बगावत नहीं करते

तूफान से लड़ने का सलीका है जरूरी
हम डूबने वालों की हिमायत नहीं करते।
शौर्य के इस सिलसिले के बीच अमित श्रीवास्तव का फ़ेसबुक पर सवाल दिखा:
महिलायें व्यंग लेखन कम करती हैं , क्यों ? किसी महिला व्यंगकार का नाम बताएं | ब्लागिंग में भी महिलाओं द्वारा 'हास्य-व्यंग' पर कम लिखा जाता है | कोई विशेष कारण ??
इस पर उनकी भतीजी शिल्पी श्रीवास्तव जबाब लिखा:
I think they are generally too sarcastic for men to understand their sense of humour :)
व्यंग्य को लोग बड़ी उठापटक विधा के रूप में देखते हैं। लोगों पर व्यक्तिगत प्रहार और उपहास को भी व्यंग्य के खाते में जमाकरके इससे बिदकते हैं। परसाईजी ने कहते हैं:
यद्यपि मैं व्यंग्य विनोद लिखता हूँ, पर वास्तव में मैं बहुत दु:खी आदमी हूँ, दुःखी होकर लिखता हूँ। मैं इसलिए दुःखी हूँ कि देखो मेरे समाज का क्या हाल हो रहा है, ये सब दुःख मेरे भीतर हैं, करुणा मेरे भीतर है….। मैं बहुत संवेदनशील आदमी हूँ। इस कारण करुणा की अंतर्धारा मेरे व्यंग्य के भीतर रहती ही है। जैसे मैं विकट से विकट ट्रेजडी को व्यंग्य और विनोद के द्वारा उड़ा देता हूँ, उसी प्रकार करुणा के कारणों को भी मैं व्यंग्य की चोट से मारता हूँ या उन पर विनोद करता हूँ।
अब अगर मैं यह कहूं कि महिलायें व्यंग्य लेखन कम करती हैं क्योंकि वे कम दुखी होती हैं तो यह कैसा बयान होगा? व्यंग्य, हास्य या एक हास्यास्पद बयान। ब्लॉगिंग और फ़ेसबुक के समय में हर संवेदनशील इंसान का कवि छलकता रहता है। कविता पंक्तियां:
एक लाइन से इधर से आये
एक लाइन उधर से आये
कालजयी कविता रच जाये

वाले अंदाज में प्रस्फ़ुटित होती रहती हैं। ऐसे कविता उर्वर माहौल में वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ऐसे कवि हैं जो कि कविता में ’कम’ के पक्षधर हैं। नरश सक्सेनाजी से हुई बातचीत आप यहां पढ़ सकते हैं। उससे पूछा गया एक सवाल और उसका जबाब देखिये:
आप इतनी कम कविताएं क्यों लिखते हैं?
देखिए, मेरे लिए कविता कोई आसान चीज नहीं है, लेकिन जो आसानी से कविताएं लिख लेते हैं, मुझे उनसे ईर्ष्या भी नहीं है, क्योंकि वैसी कविताओं में मेरी रुचि नहीं है। यदि वे सब कविताएं जो लगातार आने वाले काव्य संग्रहों में छप रही है, सचमुच कविताएं हैं तो निश्चित रूप से कम लिखना मेरी अक्षमता है। कभी-कभी एक कविता को पूरा करने में मुझे कई महीने या साल भी लग जाते हैं। चंबल एक नदी का नाम... एक ऐसी ही कविता है जो मैं कई महीनों से लिख रहा हूं, लेकिन अब तक अधूरी है। कविता की प्रारंभिक पंक्तियां या उसे जुड़ा कोई आइडिया एक फ्लैश में आ जाता है, लेकिन उसे पूर्णता देने वाली पंक्तियां कई बार महीनों बाद सूझती हैं। ऐसी कविताएं अधूरी कविताएं होती हैं जो अपने पूरे होने की जद्दोजहद में पड़ी रहती हैं।
इस बीच सतीश पंचम के सफ़ेदघर ने सौ पोस्ट पर साल के हिसाब से चार सौ पोस्ट का आंकड़ा छुआ। कुछ बातें कुछ यादें बांटते हुये उन्होंने लिखा! अब लिखा तो बहुत कुछ है लेकिन ये सलाह भी दी है देखिये:
ब्लॉगिंग में उतनी ही विनम्रता रखें, उतनी ही दर्शायें जितने की आवश्यकता हो। ज्यादा विनम्र होने पर लोग कान पकड़कर इस्तेमाल भी कर लेंगे और बाद में केवल हें हें करके खींस निपोरने के सिवा और कुछ न कर पायेंगे। इस बारे में मैंने पहले भी एकाध जगह लिखा है कि हम अपने जीवन में चाहें तो निन्यानबे फीसद विनम्र रहें लेकिन एक पर्सेट का दंभ जरूर रखें क्योंकि यही एक परसेंट का दंभ आपके बाकी निन्यानबे फीसदी विनम्रता की दशा और दिशा निर्धारित करता है। इसी दंभ के चलते जिसे जहां जैसा लगे मन की कहा जा सकता है, जिसे टरकाना हो टरकाया जा सकता है और जिसे डांटना हो बेखटके वहां डांटा जा सकता है लेकिन यह डंटैती भी तभी फबती है जब बंदा / बंदी अपने दम खम पर ब्लॉगिंग करता हो न कि हीही फीफी और नेटवर्किंग फेकवर्किंग के चलते। यहां मैं उन "सदा-सर्वदा उखड़ै हैं" टाईप ब्लॉगरों की बात नहीं कर रहा, ऐसे ब्लॉगर बंदे-बंदीयों के उखड़ने-पखड़ने की लोग अब वैसे भी परवाह नहीं करते। यह एक तरह से अच्छा संकेत है कि लोग किसी की निजी खुंदक, मतिमूढ़ता, धौंस आदि को ज्यादा तवज्जो नहीं देते। जिसे जैसा मन आये लिखता है, पढ़ता है। ऐसे में क्या दबना-दुबना।
अब ये सलाह मिल गयी फ़िर क्या। करिये धांस के ब्लॉगिंग! जो होगा देखा जायेगा।

मेरी पसंद

मेरे जीवन की आशा बन ,
थोड़ी देर और बैठो तुम !

सब आते जाते रहते हैं ,
भव नदिया में सब बहते हैं,
जीवन में अपनी पीड़ा को-
सब रोते हैं,सब कहते हैं!

मेरे गीतों की भाषा बन ,
थोड़ी देर और बैठो तुम !

इतनी भीड़ कहाँ होती है ,
अपना दोष नहीं धोती है,
चलते फिरतों की आंखें भी-
नम होती हैं औ रोती हैं !!

मेरी प्यासी अभिलाषा बन ,
थोड़ी देर और बैठो तुम !

होता कौन यहाँ अपना है ,
अपनापन केवल सपना है ,
नींद नहीं जाने क्यों आती?
किस आशा में फिर जगना है?

मेरे प्राणों की श्वांसें बन ,
थोड़ी देर और बैठो तुम !!

ओमप्रकाश’अडिग’,शाहजहांपुर

और अंत में

फ़िलहाल इतना ही। बाकी फ़िर कभी। तब तक मौज से रहिये। ऊपर का कार्टून इरफ़ान का बनाया हुआ है। नीचे फ़ोटो सतीश पंचम के ब्लॉग से :

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गुरुवार, जून 28, 2012

अति, अतिरेक, और अतिरंजनाओं के बीच ब्लौगिंग

इन दिनों बहुत से ब्लौगरों ने फेसबुक और ट्विटर की बढ़ती लोकप्रियता और सुविधाओं पर चर्चा की. सारी बातों का निचोड़ यह निकला कि फेसबुक और ट्विटर त्वरित और क्षणिक गतिविधि के रूप में अधिक उपयोगी हैं पर इनमें ब्लौगिंग जितनी व्यापकता और विमर्श की कमी है. यह सही है.  विधिवत ब्लौगिंग करने के लिए आपको कम्प्युटर की ज़रुरत होगी जबकि फेसबुक और ट्विटर का सञ्चालन मोबाईल पर भी भली-भांति किया जा सकता है. मेरे पास बाबा आदम के ज़माने का मोबाईल है जिसमें इंटरनेट नहीं आता इसीलिए मैं अभी तक फेसबुक और ट्विटर का उपयोग एक सीमा से अधिक नहीं कर पाया हूँ.  

मैं अक्सर ही बहुत विविध विषयों को इंटरनेट पर सर्च करता हूँ और सर्च के परिणाम स्वरूप मुझे अनेक  नए ब्लौगों के बारे में पता चलता है. यह भी देखने में आता है कि बहुतेरे ब्लौगर आइसोलेटेड होकर ब्लौगिंग कर रहे हैं और उनका कोई पाठक वर्ग नहीं है. यही कारण है कि ऐसे ब्लौगरों में से ज्यादातर ब्लौगर कुछ पोस्ट लिखने के बाद ब्लौगिंग करना छोड़ देते हैं. हिंदी में ऐसे अनेक बेजोड़ ब्लॉग हैं जिनमें पिछले चार-पांच सालों में एक भी पोस्ट नहीं लिखी गयी है. कल को ऐसा भी हो सकता है कि गूगल या अन्य ब्लॉग सेवा प्रदाता कम्पनियाँ ऐसे ब्लौगों को निष्क्रिय मानकर डिलीट कर दे. इसका एक ही समाधान है कि हम ऐसे ब्लौगरों से संपर्क साधकर उन्हें कभी-कभार एक पोस्ट लिखने के लिए प्रेरित करें. निष्क्रिय पड़े ब्लौगों के डिलीट हो जाने पर उनमें प्रस्तुत सामग्री हमेशा के लिए लुप्त हो जायेगी क्योंकि इन ब्लौगरों ने उसे संजो कर नहीं रखा होगा.

दो दिन पहले मैं संस्कृत साहित्य के एक आख्यान को याद करने का भरसक प्रयास कर रहा था और इसके लिए मैंने फेसबुक पर मित्रों की सहायता भी मांगी. स्मृति के आधार पर मैंने हिंदी में कुछ कीवर्ड गूगल पर डालकर सर्च किया तो मुझे एक ब्लॉग में संस्कृत का वह श्लोक मिल गया जो मैं खोज रहा था. वह श्लोक यह है:



विप्राअस्मिन् नगरे महान् कथय कस्तालद्रुमाणं गणः
को दाता रजको ददाति वसनं प्रातर्गृहीत्वा निशि
को  दक्षः  परवित्तदारहरणे सर्वोपि  दक्षो  जनः
कस्माज्जीवसि हे सखे! विषकृमिन्यायेनजीवाम्यहम्.
(चाणक्य नीति, अध्याय 12, श्लोक 9)
एक ब्राहमण से किसी ने पूछा, "हे विप्र ! इस नगर में बड़ा कौन है?" 
ब्राहमण बोला, "ताड़ के वृक्षों का समूह".
प्रश्नकर्ता ने पूछा, "दानी कौन है?" 
ब्राहमण ने कहा, "धोबी. वह प्रातः काल कपड़े ले जाता है और शाम को ले आता है."
प्रश्नकर्ता ने फिर पूछा, "यहाँ चतुर कौन है?" 
उत्तर मिला, "दूसरों की बीवी को चुराने में सभी चतुर हैं"
प्रश्नकर्ता ने आश्चर्य से पूछा, "तो मित्र ! फिर तुम यहाँ जीवित कैसे रहते हो?"
तो उत्तर मिला, "मैं तो ज़हर के कीड़ों की तरह बस किसी तरह जी ही रहा हूँ!"

कृपया हर कथा या आख्यान की भांति उपरोक्त श्लोक को ब्लॉग जगत की दशा/दिशा से जोड़कर नहीं देखें, अन्यथा इसकी गति भी लोमड़ी और शेर वाली निर्दोष कथाओं की भांति होगी. मैं यहाँ सिर्फ यह बताना चाह रहा हूँ कि जिस चीज़ को मैं यहाँ-वहां खोज रहा था वह सर्च करने पर मात्र पांच सैकंड में एक ब्लॉग पर मिल गयी. श्री अमित त्यागी के जिस पोस्ट में यह श्लोक उद्घृत है उसमें भारत की वर्तमान परिस्थितियों का खाका खींचा गया है. त्यागी जी लिखते हैं:


"एक सज्जन व्यक्ति बड़े से शोरूम के बाहर से गुज़रा। वह शोरूम को अंदर से देखना चाहता था। उसने गेट पर बैठे एक चौकीदार से पूछा क्या मैं अंदर जा सकता हू ? चौकीदार ने मना कर दिया। सज्जन व्यक्ति चुपचाप एक तरफ बैठ गया। तभी एक ‘कूल डूड’ आया और सीधा अंदर चला गया। सज्जन व्यक्ति ने चौकीदार से पूछा ? आपने उसको क्यों जाने दिया तो चौकीदार बोला उसने मुझसे पूछा ही कब था..?...  नियमों को मानने वालों की यही नियति होती है। संपूर्ण व्यवस्था में उनकी स्थिति एक एलियन से कम नही होती ? भ्रष्ट एवं कमज़ोर तंत्र की यह विचित्र विडंबना है कि ईमानदार एवं पाबंद व्यक्ति की गुजर यहॉ एक दिन भी संभव नही है। ...सब चलता है.... के कांसेप्ट ने ही आज हमें उस मुकाम पर ला खड़ा किया है जहॉ 121 करोड़ लोगों में अन्ना हजा़रे एंड पार्टी दूसरे ग्रह के प्राणी जैसे लगने लगे हैं।"


यहाँ यह स्पष्ट करना ज़रूरी होगा कि उपरोक्त श्लोक मुझे हिंदी व संस्कृत के अनेक ब्लौगों पर ही नहीं बल्कि मराठी और अंग्रेजी के ब्लौगों पर भी उद्घृत मिला. हिंदी और अंग्रेजी से इतर भी एक दुनिया है ब्लौगिंग की जो यकीनन समृद्ध होगी और शायद कई मामलों में बेहतर भी. इधर हम अपनी कूपमंडूकता में ही मस्त फन्ने खाँ बने जा रहे हैं.


बहरहाल, त्यागी जी की उपरोक्त पोस्ट का विषय है भ्रष्टाचार. इसपर अब इतनी बात हो चुकी है कि बहुतेरे लोग  उकता गए हैं. हम यह अपेक्षा करते हैं कि सभी का आचरण आदर्श हो जाए तो समस्या का समाधान हो जायेगा लेकिन यह होना मुश्किल है, जैसा फिल्म 'दीवार' के एक संवाद में कहा गया कि "आदर्श और उसूल... इनको गूंथकर दो वक़्त की रोटी नहीं बनती". फिर किया क्या जाए?


"हम भारतीय लोग कार्यो को अधूरा छोड़ देते हैं। कुछ समय काले धन एवं स्विस बैंक पर ध्यान लगाते हैं फिर खापों के तुगलकी फरमानों और अनावश्यक दिये जाने वाले फतवों का प्रतिकार करते हैं। कुछ समय महॅगाई पर भी चर्चा करते हैं। विश्व कप विजय का जश्न तो ऐसे मनाते हैं जैसे यह विजय हमारी समस्याओं के उपर समाधान की जीत हो। शायद हम कोई भी कार्य हाथ में लेकर एक सिरे से निपटाते नही हैं। समस्याए काफी उलझी हुयी हैं एवं रास्ता जटिल है। धरना प्रदर्शन करने वाले विपक्ष का कार्य भी सिर्फ सत्ता पक्ष का विरोध करना मात्र होता है मुद्दों को सुलझाना नही। मुद्दो के सुलझते ही सबकी राजनैतिक जमीन ही खिसक जायेगी।" (त्यागी जी की पोस्ट से)

डॉ. अरविन्द मिश्र जी ने भी अपनी ताज़ा पोस्ट भ्रष्टाचार के बिंदु पर लिखी है. इस समस्या का समाधान यद्यपि वह भी नहीं सुझा पाए. एक समाधान दिखता है सो उनकी ही पोस्ट में:


"गीता में कहा गया है - यद्यदाचरति श्रेष्ठः तद्देवो इतरो जनः स यतप्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्त्तते मतलब जैसा आचरण 'श्रेष्ठ ' लोग करते हैं वैसा लोग अनुसरण करते हैं। अगर ऊपर के लोगों का आचरण पारदर्शी निष्कलंक हो जाए तो नीचे तो अपने आप चीजें सुधर जाएं। ज्यादातर मुलाजिम ऊंचे ओहदों पर कार्यरत बॉस का ही तो अनुसरण करते हैं।"


भ्रष्टाचार रोग है, कोढ़ है, नासूर है, यह है, वह है... पिछले कुछ अरसे में यह सब पढ़-पढ़कर मन उकता गया है. फिर भी, मिश्र जी ने सरकारी सेवक होने के नाते अपनी दुविधा को भली प्रकार व्यक्त किया है. उनकी पोस्ट पर संजय अनेजा जी का बेहतरीन कमेन्ट पढ़िए. कमेन्ट की आखिरी लाइन अतिरोचक है:)


"मैं एक साधारण सा मुलाजिम हूँ और मैंने यह पहले दिन से तय कर रखा है कि मुझे घूस नहीं लेनी है, किसी से undue benefit नहीं लेना है और जब और जहां मौक़ा मिलता है अपने डीस्क्रीशन का अपनी समझ में जेनुईन जगह पर प्रयोग करता हूँ, उसके लिए नियमों को गीता-कुरआन नहीं मान लेता. ये वो बातें हैं जिन्हें मैं खुद पर लागू कर सकता हूँ और इस सबके लिए किसी अन्ना, केजरीवाल या किसी और मसीहा का इंतज़ार नहीं करता. सौ प्रतिशत ईमानदारी की गारंटी नहीं देता, सौ प्रतिशत प्रयास की गारंटी देता हूँ. घूस लेता नहीं हूँ लेकिन कई बार देनी जरूर पड जाती है :( 'सम्वेदना के स्वर' पर डा.पी.सी.चरक वाली कड़ियाँ आपने पढ़ी हैं? न पढ़ी हों तो पढ़ देखियेगा, जिस व्यवस्था के हम पुर्जे हैं उसका एक अलग ही नजरिये से अवलोकन है|
आपकी 'नारी देह नारी मन' विषय विशेषज्ञता से इतर यह पोस्ट पसंद आई|"


मुझे संजय भाई की कुछ दिन पुरानी वह पोस्ट याद आ गयी जिसमें उन्होंने ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने की प्रणाली का वर्णन किया था.

अनुराग शर्मा जी के ब्लॉग में फेसबुक और ब्लौगिंग में आयेदिन सामने आनेवाली परेशानियों का विमर्श किया गया है. ब्लौगिंग विषयक पोस्टों की यह विशेषता है कि उन्हें खूब पाठक और टिप्पणियां मिलतीं हैं, हांलांकि अनुराग शर्मा जी को पढ़ने और टिपियाने वाले कम नहीं हैं. उक्त पोस्ट पर बहुतेरे कमेन्ट भी पढ़ने लायक हैं. यदि सारे कमेंटों को निकालकर केवल डॉ. मिश्र के पहले कमेन्ट को ही रख दिया जाये तो भी बात वहीं रहेगी. बकौल मिश्र जी, "ग़म ही ग़म है मुई इस ब्लागिंग में".


कल की पोस्ट में अनूप जी ने फिल्म 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' पर आई अनेक पोस्टों की खोजखबर ली थी. हर चर्चित फिल्म को देखने की ख्वाहिश करता हूँ पर उसके बारे में इतना पढ़ लेता हूँ कि उसके लगभग हर पक्ष से परिचित हो जाता हूँ. ऐसे में अगर फिल्म देखने जाऊं भी तो लगेगा कि यह फिल्म ना जाने कितनी बार देखी जा चुकी है. 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' के साथ भी यही हुआ है. भिन्न-भिन्न अभिरुचियों और झुकाव वाले ब्लौगरों ने इसपर बहुत कुछ लिख दिया. इसी कड़ी में कबाड़खाना पर अनिल यादव का रिव्यू जैसा फेसबुक स्टेटस पोस्ट किया गया जो इस फिल्म की अतिरंजनाओं और अरुचिकर स्थापनाओं को बहुत अच्छे से बयान करता है. आश्चर्य है कि यह पोस्ट अधिकांश पाठकों की नज़र से चूक गयी. पोस्ट में अंत में जो कुछ कहा गया है उसे हम अच्छे/बुरे सिनेमा की स्तरीय परिभाषा भी मान सकते हैं: 


"हर बेहतर फिल्म निजी जिंदगियों की कहानी कहती है और इस तरह से विस्तार लेती है कि वह कहानी निजी न होकर सार्वभौमिक हो जाती है- कोई बड़ा सत्य उद्घाटित करती है (उदाहरण- रोमान पोलांस्की की पियानिस्ट, स्पाइडरमैन, बैटमैन सिरीज़ या फिर सलीम-जावेद की लिखी अमिताभ की फिल्में) यहां उल्टा है, इतिहास से चलती हुई कहानी अंत तक पहुंचते-पहुंचते एक व्यक्ति की निजी जिंदगी के फंदे में झूल जाती है.”

नारी ब्लॉग पर वंदना जी की एक कविता को लेकर विमर्श हुआ. वंदना जी की कविता में स्तन कैंसर से ग्रस्त स्त्री की शल्य चिकित्सा के बाद उसमें जनित अपूर्णता के विचार का अन्वेषण है  क्योंकि स्त्री के वक्ष उसके स्त्री होने और स्त्रीयोचित सौंदर्य का प्रतिमान हैं. वंदना जी की पोस्ट पर और नारी ब्लॉग पर इस तथाकथित अपूर्णता और सौन्दर्यबोध को लेकर खासा विमर्श हुआ जिसमें कई कमेंट्स पढ़ने लायक हैं. पोस्टों पर महत्वपूर्ण कमेन्ट करनेवाली ब्लौगर आर. अनुराधा कैंसर के इस प्रकार से पर विजय प्राप्त कर चुकी हैं. उन्होंने अपने अनुभवों पर एक किताब भी लिखी है जिसके बारे में डॉ. सुषमा नैथानी जी ने लिखा था. पूरी पोस्ट में मुझे अनुराधा और अदा जी के कमेंट्स बेजोड़ लगे:



अनुराधा - "दरअसल मुझे लगता है कि यह सारी समस्या महिमामंडन की, अतिरेक की है। मां का महिमामंडन, फिर इस बीमारी का और उससे होने वाले 'नुकसान' का। क्यों नहीं इसे भी एक बीमारी की तरह देखा जा सकता? इसका भी इलाज है, समस्याएं हैं और इसके साथ भी जीवन है। क्या दूसरी सैकड़ों बीमारियां इसी तरह अनिश्चित भविष्य वाली नहीं होती? क्या सिर्फ इसलिए कि पुरुषों को अपने खेल के 'खिलौने' में कुछ कमी हो गई लगती है, यह बीमारी इतनी बड़ी समस्या बन जाती है? 



अदा - "कोई उनसे जाकर पूछे जो इस दौर से गुजरतीं हैं, उन्हें अपना वक्ष प्रिय था या प्राण..

एक से एक सुन्दर इन्सान उम्र के साथ बन्दर हो जाता है, वो वक्ष जो प्राण लेने पर उतारू हो उसका नहीं होना ही ठीक है, और अगर इस कमी की वजह से कोई किसी को असुंदर दिखती है, तो देखने वाले के दिमाग ईलाज होना चाहिए, ख़ूबसूरती ३४-३२-३४ के इतर भी होती है...देखने वाली नज़र चाहिए..."

अंत में बेजोड़ चित्रकार और शानदार कवि रवि कुमार की कविता इस ब्लॉग से:

कोई यदि पूछेगा
सबसे बेहतर रंग कौनसा है
मैं कहूंगा मिट्टी का
यदि कोई पूछेगा
सबसे दिलकश गंध किसकी है
मैं कहूंगा पसीने की


कोई यदि पूछेगा
स्वाद किसका सबसे लज्जत है
मैं कहूंगा रोटी का


यदि कोई पूछेगा
स्पर्श किसका सबसे उत्तेजक है
मैं कहूंगा आग का
कोई यदि पूछेगा
किसकी आवाज़ में सबसे ज़्यादा खनक है
मैं कह उठूंगा मेरी ! तुम्हारी !

ज्ञानदत्त जी इस बीच अपने पुत्र का विवाह अत्यंत सादगी से संपन्न करा आये. उन्हें बहुत-बहुत बधाई. उनकी ताज़ा पोस्ट में सुशील और उसकी चाय की गुमठी का ज़िक्र है. पिछले कुछ समय से उनकी पोस्टों का क्रम कुछ टूटा था. उनके ब्लॉग पर इस बीच घटित हुई बातों का लेखाजोखा चित्रों के साथ पढ़ने को मिलेगा, इसी आशा के साथ. धन्यवाद.


पुनश्च: ज्ञानदत्त जी के फेसबुक स्टेटस से:



राजा ने दरवेश से पूछा, "मरने के बाद लोग कहां जाते हैं?" दरवेश बोला, "मुझे नहीं मालुम। मैं अभी मरा नहीं!"

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बुधवार, जून 27, 2012

चलो एक कप चाय हो जाये

कुछ दिन हुये अपन ने बजरिये पापुलर मेरठी बताया था:
मवालियों को न देखा करो हिकारत से
न जाने कौन सा गुंडा वजीर हो जाए
आज देखते हैं कि अपने शब्द-सरदार साहब अजित वडनेरकर जी ने इसकी तसदीक भी कर दी कि गुंडा मतलब उभरा हुआ मतलब लोगों से अलग मतलब नायक मतलब नेता। तसल्ली से बताते हुये अजित जी बताते हैं:
"कन्नड़ में गण्डा का अर्थ होता है मोटा आदमी । इसका एक अन्य अर्थ है शक्तिशाली पुरुष । ध्यान रहे उभार की अर्थवत्ता के चलते ही गण्ड में नायकत्व का भाव आया है अर्थात जो दूसरों से ऊपर दिखे ।"

अब नेता जो होता है अपने अनुयायियों से घिरा रहता है, सबसे अलग दिखता है। यही तत्व गुंडे में भी होते हैं। तो अगर नेताजी को कोई गुंडा कहता है तो उनको बुरा नहीं मानना चाहिये। लेकिन ऐसा होगा नहीं न! वे हरकतें गुंडों सरीखीं करते हैं लेकिन मानते नहीं अपने को गुंडा। काश वे शब्दों का सफ़र पढ़ते होते। वैसे जब भी कभी गुंडागीरी की बात होती है, मुझे जयशंकर प्रसाद की कहानी’गुंडा’याद आती है। देखिये उस समय के गुंडे कैसे होते थे:
समस्त न्याय और बुद्धिवाद को शस्त्र-बल के सामने झुकते देखकर, काशी के विच्छिन्न और निराश नागरिक जीवन ने, एक नवीन सम्प्रदाय की सृष्टि की। वीरता जिसका धर्म था। अपनी बात पर मिटना, सिंह-वृत्ति से जीविका ग्रहण करना, प्राण-भिक्षा माँगनेवाले कायरों तथा चोट खाकर गिरे हुए प्रतिद्वन्द्वी पर शस्त्र न उठाना, सताये निर्बलों को सहायता देना और प्रत्येक क्षण प्राणों को हथेली पर लिये घूमना, उसका बाना था। उन्हें लोग काशी में गुंडा कहते थे।
बहरहाल बात गुंडागीरी से शुरु हुई तो आपको तो पता ही होगा कि आजकल एक ठो पिक्चर बनी है कोयला माफ़िया के किस्से और राजनीति दिखाने के लिये। नाम धरा गया है -गैंग्स आफ़ वासेपुर। तमाम लोग इस फ़िलिम पर अपनी राय बता चुके हैं। रवीश कुमार की बतावन सबसे ज्यादा चर्चा में रही। वे कहते हैं- गैंग्स आफ वासेपुर-गुंडई का नया महाकाव्य है। अपनी बात का लब्बो-लुआब रवीश शुरुऐ में बता देते हैं:
जो लोग बिहार की राजनीति के कांग्रेसी दौर में पनपे माफिया राज और कोइलरी के किस्से को ज़रा सा भी जानते हैं वो समझ जायेंगे कि गैंग्स आफ वासेपुर पूरी तरह एक राजनीतिक फिल्म है और लाइसेंसी राज से लेकर उदारीकरण के मछलीपालन तक आते आते कार्पोरेट,पोलिटिक्स और गैंग के आदिम रिश्तों की असली कहानी है।
गौरव सोलंकी अपनी बात कहते हुये शीर्षक में ही सब कुछ कह देते हैं-वासेपुर की हिंसा हम सबकी हिंसा है जिसने कमउम्र फ़ैज़लों से रेलगाड़ियां साफ़ करवाई हैं! इसी सिनेमा के अभिनेता मनोज बाजपेयी फ़िलिम के अपने विचार लिखवाते हैं:
गैंग्स ऑफ वासेपुर की चर्चा उत्साहित करने वाली है। लेकिन, पता नहीं फिल्म को लेकर अति उत्सुकतावश क्या क्या लिखा जा रहा है। एक मायने में यह अच्छा है, लेकिन दूसरी तरफ कई गलतफहमियां भी फैलती हैं। आज सेंसर बोर्ड का सर्टिफिकेट मिल गया है। ए सर्टिफिकेट मिला है। यह बात हमें मालूम थी। हम सब संतुष्ट भी हैं। फिल्म के सेंसर बोर्ड में अटकने को लेकर जो अफवाहें थी, वो सही मायने में अफवाहें ही थीं।
मजे की बात है जिस वासेपुर के नाम पर फ़िलिम बनी वहां के लोग नाराज हैं इस बात पर कि उनके कस्बे को गलत तरीके से दिखाया गया है देखिये पंजाब केसरी की खबर :
जहां इस फिल्म को देश भर में सराहना मिल रही है तो दूसरी और धनबाद के वासेपुर में इस फिल्म का विरोध हो रहा है। वासेपुर के लोगों की शिकायत है कि फिल्म में उनके कस्बे को गलत तरीके से दिखाया गया है।
वासेपुर निवासियों के गुस्से के बारे में पढ़कर अपने गंगौली (गाजीपुर) वाले राही मासूम रजा साहब के गुस्से की याद आ गयी। फ़िलिम ’न्यू देहली टाइम्स’ में हिन्दू-मुस्लिम दंगे की कहानी दिखाने के लिये कस्बे का नाम रखा गया था गाजीपुर। राही मासूम रजा साहब ने इस पर सख्त एतराज जताया था यह कहते हुये कि गाजीपुर में कभी हिन्दू-मुस्लिम दंगा नहीं हुआ। देश में तमाम शहरों में दंगे होते हैं उनकी जगह गाजीपुर का नाम क्यों लिया गया। उनका एतराज फ़िलिम की इस लाइन के आगे अनसुना रहा गया- इस फ़िल्म में दिखाये गये सभी स्थान और पात्र काल्पपिक हैं। तहलका में छपी अनुपमा की रिपोर्ट में वासेपुर के लोगों की प्रतिक्रियायें बतायी गयी हैं। नईम मियां बताते हैं कि वासेपुर बसा कैसे:
वासे साहब के बारे में नईम मियां भी बताते हैं कि उन्होंने ही सबसे पहले डेढ़-दो सौ परिवारों को लाकर बसाया था. फिर तेजी से इस मोहल्ले का फैलाव होता गया और आज यह धनबाद का सबसे बड़ा मोहल्ला है. वासेपुर में हर कोई एक से बढ़कर एक बात बताता है. पता चलता है कि यहां छिनैती, रेप, चोरी, छेड़खानी जैसी घटनाएं कभी नहीं होतीं. लेकिन जब धनबाद में कोई घटना होती है तो कह दिया जाता है- अपराधियों को वासेपुर की राह भागते हुए देखा गया है.
इस मसले पर जब फ़िल्म के स्क्रिप राइटर से पूछा गया कि तो देखिये वे क्या कहते हैं:
फिल्म का नाम गैंग्स ऑफ वासेपुर होने की वजह से आपके मोहल्लेवाले ही नाराज हैं.
फिल्म में वासेपुर का सिर्फ नाम भर लिया गया है. कहानी धनबाद के कोयला माफियाओं की है. वैसे वासेपुर के आम लोग नाराज नहीं हैं. कुछ लोग अपना नाम चमकाने के लिए लोगों को उलटा-सीधा समझा रहे हैं. मैं वासेपुर का ही रहनेवाला हूं. मेरे मां-पिताजी वहीं रहते हैं. मुझे अपने मोहल्ले से बहुत प्यार है. भला मैं क्यों मोहल्ले को बदनाम करना चाहूंगा?
विनीत कुमार की नायिका का दर्द भी देखिये कुछ ऐसा सा है:
जिस धनबाद को लोग पढ़ने-लिखने और कल्चरली रिच टाउन मानते थे न, अब इसे गुंड़ों का शहर समझेंगे. एक बड़े सच को दिखाने के लिए ही सही पर इसने कल्चरली इसको बहुत डैमेज किया है. मेरे बचपन के शहर की धज्जी उड़ा दी रघु. मेरी सारी खूबसूरत स्म़तियों की चिद्दी-चिद्दी कर दी इस इंटल डायरेक्टर ने. वो जब लाल स्कूल ड्रेस में बच्चों को स्कूल जाते दिखा रहा था न तो लगा- अरे ये तो मैं हूं..लेकिन वो बच्चे गायब हो गए. क्या बासेपुर,धनबाद की एक भी लड़की कॉलेज नहीं जाती रघु ?
इस फ़िलिम के बारे में अनिल कुमार यादव का कहना कुछ अलग सा है देखिये:
अनुराग कश्यप चलती का नाम गाड़ी हो चुके हैं। सितारेदार प्री-पेड रिव्यूज का पहाड़ लग चुका है। वे अब आराम से किसी भी दिशा में हाथ उठाकर कह सकते हैं- इतने सारे लोग बेवकूफ हैं क्या? फिर भी इतना कहूंगा कि दर्शकों को चौंकाने के चक्कर में कहानी का तियापांचा हो गया है। कहानी की खामोश ताकत से अनजान निर्देशक गालियों और गोलियों पर ही गदगद है।

लेकिन जे एन यू के अमरेन्द्र का दर्द कुछ अलग तरह का है। पहला दिन पहला शो लपककर देखने वाले अमरेन्द्र ने जब फ़िल्म के निर्देशक का बयान सुना तो वे चौंके। अमरेन्द्र लिखते हैं:
अनुराग जी हिन्दी समाज में फिल्मों का स्तर गिरा होने का कारण दर्शकों को मानते हैं. वे दो टूक कहते हैं कि फिल्म कैसी आयेगी, यह दर्शक डिसाइड करता है. यानी खराब फ़िल्में आ रही हैं तो उसकी वजह निर्देशन-परिवेश कतई नहीं बल्कि दर्शक-परिवेश है.
अनुराग कश्यप के इस बयान पर अपनी राय जाहिर करते हुये अमरेन्द्र लिखते हैं:
फिलहाल बातचीत से यह समझने में आया कि सारी जद्दोजहद फन्ने-खाँ बन पाने तक ही है. ये (कला माध्यमों की) क्रांतिकारिता/परिवर्तनकामना ख़ास पायदान तक के पहले का मंगलाचरण हुआ करती है. उसके बाद तो बदलाव आता ही है. निर्देशक का व्याकरण/खेल-नियम बदल जाता है.
तो ये रही गुंडई का महाकाव्य नाम से चल रही पिक्चर गैंग्स आफ़ वासेपुर की चर्चा। अब देखिये तकनीक के किस्से। रविरतलामी बताते हैं एक एप्पलीकेशन के बारे में जो खरीददारी प्रेमी महिलाओं को बताता है कि वे कहां अपना पइसा खर्च कर सकती हैं। लेकिन रवि रतलामी के भीतर एक मध्यवर्गीय पति भी बसता है उसने अपनी बात धर दी सामने:
परंतु जब मैंने इस एप्प को ठोंक बजाकर देखा तो मुझे ये खास जमा नहीं. मेरे विचार में इस एप्प में एक फ़ीचर की कमी है. यदि ये फ़ीचर जुड़ जाए तो फिर यह एप्प एकदम परफ़ेक्ट हो जाए. वह फ़ीचर है – इसका स्वचालित खरीदारी अलार्म. जब भी स्त्रियाँ कोई नया ड्रेस खरीदने का विचार करें तो यह अलार्म बजा कर उन्हें आगाह करे कि आलमारी में जगह नहीं है, कोई बारह सौ ड्रेसेस का पहनने का नंबर पिछले साल भर से नहीं आया है और उनमें भी तीन दर्जन तो पूरे नए-नकोरे हैं – इत्यादि.

बधाई/मंगलकामनायें

अंतर्जाल में हिंदी के प्रचार-प्रसार में सबसे अग्रणी लोगों में से प्रमुख पूर्णिमा वर्मन जी को पिछले दिनों राष्ट्रपति द्वारा हिंदी सेवी सम्मान समारोह में पद्मभूषण डॉ. मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पूर्णिमा जी को हार्दिक बधाई।
“मुट्ठी भर संकल्पवान लोग जिनकी अपने लक्ष्य में दृढ आस्था है, इतिहास की धारा को बदल सकते हैं।” का दृढ़ विश्वास धारण किये दुनिया के हर कोने से हिंदी की आवाज को बुलंद करने के लिए तत्पर पूर्णिमा जी हिंदी का लोकप्रिय साहित्य नेट पर लाने के लिये सदैव प्रयासरत रहती हैं। संयोग से आज 27 जून को पूर्णिमा जी का जन्मदिन है। पूर्णिमाजी को अनेकानेक मंगलकामनायें।
इस मौके पर उनके बारे में लिखे लेख के साथ पढिये उनसे हुई बातचीत जिसमें वे अपनी पत्रिकाओं अभिव्यक्ति और अनुभूति के बारे में बताती हैं:
हिन्दी में शायद यह पहली पत्रिका होगी जहां संपादक एक देश में निदेशक दूसरे देश में और टाइपिस्ट तीसरे देश में हों। फिर भी सब एक दूसरे को देख सकते हों सुन सकते हों दिन में चार घंटे दो घंटे सुबह और दो घंटे शाम। वो भी तब जब एक की दुनिया में दिन हो और दूसरे की दुनिया में रात। हम आपस में अक्सर कहते हैं, “हम दिन रात काम करते हैं। इसी लिये तो हम दूसरों से बेहतर काम करते हैं”।

पूर्णिमा जी के जन्मदिन के मौके पर आज उनकी ही एक कविताचलो एक कप चाय हो जाये

मेरी पसन्द


पूर्णिमा वर्मन>
जन्मदिवस के इस अवसर से
थोड़ा सा तो न्याय हो जाए
गुमसुम से बैठे हैं हम तुम
चलो एक कप चाय हो जाए


धूम धड़ाका किया उम्र भर
जीवन जी भर जिया उम्र भर
आज सुखद यह शीतल मौसम
कल की यादों में डूबा मन
खिड़की में यह सुबह सुहानी
यों ही ना बेकार हो जाए
चलो एक कप चाय हो जाए

खुशबू जो हमने महकाई
देखो दुनिया ने अपनाई
जगह जगह लगते हैं मेले
हम क्यों बैठे यहाँ अकेले
नई तुम्हारी इस किताब का
जरा एक अध्याय हो जाए
चलो एक कप चाय हो जाए

फूल भरा सुंदर गुलदस्ता
देखो कहता हँसता हँसता
दुख का जीवन में ना भय हो
जन्मदिवस शुभ मंगलमय हो
नानखताई का डिब्बा खोलो
मुँह मीठा इक बार हो जाए
चलो एक कप चाय हो जाए
पूर्णिमा वर्मन

और अंत में

आज के लिये फ़िलहाल इत्ता ही। चलते-चलते देखिये शब्दों के सारथी अजित वडनेरकर का एक और रूप जिसके बारे में रवि रतलामी ने लिखा था :
क्या आप जानते हैं कि अजित वडनेरकर कभी अहमद हुसैन – मोहम्मद हुसैन के शिष्य हुआ करते थे और वे एक उम्दा गायक भी हैं? देखिए उनके लाइव परफ़ॉर्मेंस का वीडियो – जब से हम तबाह हो गए, तुम जहाँपनाह हो गए.
इसमें गायक हैं अजित वडनेरकर। तबले पर संगत भी अजित की है। बस तबले की जगह माचिस का प्रयोग किया गया।

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मंगलवार, जून 26, 2012

समझ का इकहरापन, जापान के किस्से और अच्छी लड़की

अक्सर एक तरह की किताबें पढने वाले, दूसरी तरह की किताबें पढ़ने वालों को ठीक तरह से समझ नही पाते...........:)   रचना बजाज
यह फ़ेसबुकिया स्टेटस रचना बजाज की दीवार पर दो दिन पहले दिखा। क्या ऊंची बात कह डाली रचनाजी ने। रचनाजी ब्लॉगिंग की दुनिया में अगस्त २००६ से हैं। छोटी-छोटी पोस्टें लिखती हैं। जिनमें छुटकी कवितायें ज्यादा होती हैं।  सहज-सरल टाइप। एक ये  देखिये:
एक दिन वो दिन भी आयेगा,
जब अंधियारे ये कम होंगे,
एक दिन वो दिन भी आयेगा,
जब ये संघर्ष खतम होंगे!

जब हम चाहें वैसा होगा,
थोड़ा सा मन जैसा होगा!
होठों पर खुशियां छायेंगीं,
ना फ़िर से नयना नम होंगे!
एक दिन वो दिन भी आयेगा,
जब ये संघर्ष खतम होंगे!
पता नहीं कब ऐसा होगा लेकिन फ़िलहाल तो हम उनकी ही तरह आशावान हैं। :)

बात फ़ेसबुक स्टेटस की चली तो अभय तिवारी के यहां ये लिखा मिला मुझे आज: 
पता नहीं कैसे लोग हैं हम..एक से हमदर्दी जताने के लिए दूसरे को गरियाने-लतियाने लगते हैं.. यानी या तो आपके साथ, या आपके ख़िलाफ़.. ऊपर से लोग चाहे जितने प्रगतिशील हों, भीतर उनके बुश की आत्मा का वास है.. अभय तिवारी 
 एक और स्टेटस दिखा  अभय तिवारी के यहां:
प्रतिबद्ध लोगो ने दुनिया का कम नुक़्सान नहीं किया है.. वे अपने आदर्शों के समाज को वास्तविक बनाने में सब कुछ झोंक देते हैं, अक्सर कई करोड़ लोगों की जानें.. हिटलर, स्टालिन, माओ, और ओसामा भी अपनी-अपनी तरह के प्रतिबद्ध लोग थे.. इतिहास को ग़ौर से पढ़े तो पाएंगे कि जब दुनिया बदल रही थी तो प्रतिबद्ध लोग अपनी लीक से बंधे रहे और बदलाव रोकने के लिए ख़ून-ख़राबा करते रहे..और अवसरवादियों ने पाला बदल लिया.. ये दीगर बात है कि प्रतिबद्धता के ऊँचे नैतिक मंच से अवसरवाद एक टुच्चा गुण दिखता हो..।
 ये सोचने की बात है। जिसको सही समझते हैं उसके उलट कोई करता है तो उसको निपटा देने की भावना रखना। अभय आजकल कहानी भी लिखते  हैं। रुपया कहानी में रुपये की व्याख्या सी करते हैं:
रुपया चीज़ ही ऐसी है। जितना सरल और समतल दिखता है वैसा है नहीं। रुपया एक ऐसी आभासी शै है जिस के ज़रिये आदमी अपने भौतिक अरमानों का संसार गढ़ता है। रुपये को न खाया जा सकता है, न पहना जा सकता है, न ओढ़ा और बिछाया जा सकता है मगर खाने, पहनने, ओढ़ने, बिछाने से लेकर आकांक्षाओं की सारी सम्भावनाओं अपने भीतर समाए रहता है। 
 लेकिन अब आप हियां की बातैं हियनैं छ्वाडौ औ अब जापान का सुनौ हवाल। रमाअजय शर्मा, जो शायद फ़िलहाल जापान में ही रहती  हैं, अपनी छोटी-छोटी पोस्टों के जरिये जापान के बारे में जानकारी देती हैं। खासकर वहां के स्कूलों के बारे में, साफ़-सफ़ाई के बारे में, अनुशासन के बारे में बताती हैं। जापान की पाठशाला के चित्र देते हुये वे बताती हैं कि कैसे बच्चे वहां पढ़ते हैं। ड्रेस का कोई बधन नहीं। अध्यापक से दोस्ती का रिश्ता। हर स्कूल की बिल्डिंग एक सी होती है।खेल का मैदान जरूरी है। सफ़ाई का पाठ सबसे जरूरी होता है। इस प्राथमिक पाठशाला जिसे शोगाक्को कहते हैं में अमीर-गरीब के बच्चे साथ पढ़ते हैं। कोई भेदभाव नहीं। शिक्षा निशुल्क। बच्चे लाइन से स्कूल जाते हैं। देखिये नीचे का दृश्य :
जापान के बारे में और भी बहुत सी जानकारी वे अपने ब्लॉग में देती हैं। कापी-पेस्ट प्रतिबंधित इस ब्लॉग को  पढना अच्छा अनुभव है। जापान नाम के अपने एक और ब्लॉग में जापान , जो कि हवाई सड़कों का देश कहलाता है,  को दुनिया का सबसे साफ़ देश बताती हैं। लेकिन रमाअजय सिर्फ़ जापान की ही बात नहीं करतीं। वे दिल की बातें भी करती हैं। दिल की सोच, दिल का दर्पण, दिल की हंसी भी हैं उनके यहां।  साखियां दिल से  ( जिसे पहले मैंने सखियां दिल से पढ़ा) में  सिख गुरुओं वे  सिख गुरुओं द्वारा दी गयी सीखों के बारे में बताती हैं।

जापान की बात से याद आया कि जापान के एक कोने म्स्तु भी जापान के बारे में रिपोर्टिग करते हैं। जापान में परमाणु दुर्घटना के साल होने के मौके पर वे  लिखते हैं:
हाँ, भूकंप के तुरंत बाद से कई हफ़्तों तक यहाँ की साधारण दैनिक जनजीवन कहीं ठप गई थी, जैसे परमाणु संयत्र दुर्घटना के परिणामस्वरूप बिजली संकट और विकिरण प्रसारण के भय से काफ़ी अफ़रा-तफ़री मची. शहर में हर जगह दुकानों के शेल्फों से कुछ खाद्य उत्पाद गायब हो गए और पेट्रोलियम पंपों पर लंबी लाइन लगी. मीडिया पर हर रोज़ आती थीं त्सुनामी तबाही की भयानक छवियाँ और प्रभावित क्षेत्रों के परिवारों की दर्दनाक कहानियाँ. अखबार पर छपने वाले मृतकों और लापता लोगों के सामयिक आंकड़े प्रतिदिन बढ़ते ही जाते रहे. फिर भी, तब मार्च महीने का मौसम तो ठंडी हवाओं के बीच कहीं ताप और नरमाहट पहुँचाने लग रहा था और पेड़ों की शाखाओं पर कलियाँ साफ़ नज़र आने लगी थीं.
म्त्सु ने दुर्घटना के समय के हालात और उस समय मीडिया की रिपोर्टिंग के अंदाज के बारे में अपने विस्तार से बात करने के बाद अपना निष्कर्ष लिखा:
खैर, जब पिछले महीने परमाणु संयंत्र संकट के खतरे पर हलचल मच रहा था, तभी कई मीडिया वालों ने ठीक से पत्रकार की अपनी भूमिका और सामाजिक दायत्व निभा नहीं पाई, कुछ ग़लती से, कुछ भयभीत मन से, या कुछ लाभ की चाह में. कारण जो भी, सबक़ के लिए याद रखनी होगी. 
जापानी  विभीषिका के समय डा.अरविन्द मिश्र ने जापानी जीवन दर्शन , घुघुती बासूती ने जापानी  चरित्र के बारे में अपने विचार व्यक्त किये। निशांत ने  10 बातें बताईं जो हम जापानियों से सीख सकते हैं! 

लेकिन उस समय जो दुर्घटना हुई थी और परमाणु रिएक्टेर के पिघलने की बात हुई उसको सहज-सरल तौर पर समझाने का काम किया था शिल्पा मेहता ने। शिल्पा अपने बारे में बताती हुई लिखती हैं:
मैं तो मैं हूँ - बस - कुछ कहने जैसा नहीं है | वैसे एक इलेक्ट्रोनिक्स इंजिनियर हूँ, एक इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ाती हूँ | पढने, पढ़ाने और बतियाने का बहुत शौक है :)
बहुत कुछ बतियाने की शौकीन का इतना संक्षिप्त परिचय! बहरहाल देखिये उन्होंने न्यूक्लियर मेल्ट डाउन के बारे में जो बताया।  पूरी प्रक्रिया को सरल चित्रों के बारे में बताने के बाद वे लिखती हैं:
{ fukushima japan (फुकुशीमा जापान ) में एक तो भूकंप और दूसरे सुनामी के चलते यही हुआ कि दोनों ही supply बंद हो गयीं और pump ने काम करना बंद कर दिया था । वहां के कई वर्कर्स ने अपनी जान की परवाह न करते हुए (रेडिओ एक्टिव एक्सपोज़र ) वहां से बाहर आने से इंकार कर दिया था और भीतर ही रह कर अपनी क़ुरबानी दे कर प्रयास किये कि डिजास्टर को टाला जाए । बाद में समुद्र में जहाजो से समुद्र का पानी pump कर के कोर को ठंडा किया गया । }
उनके इस लेख पर स्मार्ट इंडियन का कहना था:
जटिल परन्तु रोचक जानकारी के लिये आभार! ऐसे जानकारीपूर्ण आलेख इस विश्वास को बनाये रखते हैं कि हिन्दी ब्लॉगिंग में भी बहुत कुछ सार्थक हो रहा है।
आपको  भी अगर  कुछ कहना हो पहुंचिये शिल्पा मेहता द इलेक्ट्रानिक्स इंजीनियर के ब्लॉग रेत के महल पर।

मेरी पसंद
कहाँ थे तुम अब तक?
कि गाली सी लगती है
जब मुझे कहते हो 'अच्छी लड़की'
कि सारा दोष तुम्हारा है


तुमने मुझे उस उम्र में
क्यूँ दिए गुलाब के फूल
जबकि तुम्हें पढ़ानी थीं मुझे
अवतार सिंधु पाश की कविताएं


तुमने क्यूँ नहीं बताया
कि बना जा सकता है
धधकता हुआ ज्वालामुखी
मैं बना रही होती थी जली हुयी रोटियां


जब तुम जाते थे क्लास से भाग कर
दोस्त के यहाँ वन डे मैच देखने
मैं सीखती थी फ्रेम लगा कर काढ़ना
तुम्हारे नाम के पहले अक्षर का बूटा


जब तुम हो रहे थे बागी
मैं सीख रही थी सर झुका कर चलना
जोर से नहीं हँसना और
बड़ों को जवाब नहीं देना


तुम्हें सिखाना चाहिए था मुझे
कोलेज की ऊँची दीवार फांदना
दिखानी थीं मुझे वायलेंट फिल्में
पिलानी थी दरबान से मांगी हुयी बीड़ी


तुम्हें चूमना था मुझे अँधेरे गलियारों में
और मुझे मारना था तुम्हें थप्पड़
हमें करना था प्यार
खुले आसमान के नीचे


तुम्हें लेकर चलना था मुझे
इन्किलाबी जलसों में
हमें एक दूसरे के हाथों पर बांधनी थी
विरोध की काली पट्टी


मुझे भी होना था मुंहजोर
मुझे भी बनना था आवारा
मुझे भी कहना था समाज से कि
ठोकरों पर रखती हूँ तुम्हें


तुम्हारी गलती है लड़के
तुम अकेले हो गए...बुरे
जबकि हम उस उम्र में मिले थे
कि हमें साथ साथ बिगड़ना चाहिए था
पूजा उपाध्याय
और अंत में
आज फ़िलहाल इत्ता ही। नीचे का चित्र जापान के एक कोने  से। :)
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