सोमवार, जून 28, 2010

ब्लॉगिंग के पांच साल, पहली किताब और ट्रेड मार्क बत्तीसी के किस्से

विवेक रस्तोगी ने आज ब्लॉगिंग के पांच साल पूरे किये। आज की अपनी पोस्ट में उन्होंने इस दौरान हुये अपने अनुभव बताये। उन्होंने उस समय के कुछ ब्लॉगरों के नाम याद करते हुये लिखा:
उस समय के कुछ चिठ्ठाकारों में कुछ नाम ओर याद हैं, ईस्वामी, मिर्चीसेठ, रमन कौल, संजय बेंगाणी, उड़नतश्तरी, अनुनाद सिंह, उनमुक्त, रवि रतलामी। और भी बहुत सारे नाम होंगे जो मुझे याद नहीं हैं, पर लगभग सभी का सहयोग रहा है इस सफ़र में और मार्गदर्शन भी मिला।
इनमें से मिर्ची सेठ उर्फ़ पंकज नरूला ( जिन्होंने अक्षरग्राम और नारद की शुरुआत की थी)को छोड़कर लगभग सभी कभी-कभी लिखने से जुड़े हुये हैं। रमनकौल ने अपनी ताजी पोस्ट में गूगल की हिन्दी के बारे में लेख लिखा गूगल की उर्दू – कराची मतलब भारत

विवेक रस्तोगी ने जब लिखना शुरू किया तब वे 80 वें ब्लॉगर थे। 535 पोस्ट लिखने के बाद वे बताते हैं कि आज से पांच साल पहले ब्लॉगिंग की दिक्कतें क्या थीं। उस समय आज की तरह हिन्दी सपोर्ट नहीं था। देखिये विवेक कैसे टाइप करते थे:
पहले कृतिदेव फ़ोंट में हिन्दी में लिखते थे फ़िर ब्लॉगर.कॉम पर आकर उसे कॉपी पेस्ट करते थे, इंटरनेट कनेक्शन ब्रॉडबेन्ड होना तो सपने जैसा ही था, एक पोस्ट को छापने में कई बार तो १ घंटा तक लग जाता था। अब पिछले २ वर्षों से हम हिन्दी लिखने के लिये बाराह का उपयोग करते हैं, फ़ोनोटिक कीबोर्ड स्टाईल में। पहले जब हमने लिखना शुरु किया था तो संगणक पर सीधा लिखना संभव नहीं हो पाता था, पहले कागज पर लिखते थे फ़िर संगणक पर टंकण करते थे, पर अब परिस्थितियाँ बदल गई हैं, अब तो जैसे विचार आते हैं वैसे ही संगणक पर सीधे लिखते जाते हैं, और छाप देते हैं। अब कागज पर लिखने में परेशानी लगती है, क्योंकि उसमें अपने वाक्यों को सफ़ाई से सुधारने की सुविधा नहीं है, पर संगणक में कभी काट-पीट नहीं होती, हमेशा साफ़ सुथरा लिखा हुआ दिखाई देता है।


विवेक जी को बधाई! आगे उनका सफ़र शानदार चलता रहे और नये आयाम जुडें उनकी ब्लॉगिंग में।


आजकल विश्वकप फ़ुटबाल का बुखार चढ़ा है दुनिया भर में। अभय तिवारी इसके बहाने खेलों के आधार की बात बताते हुये लिखते हैं:
असल में फ़ुटबाल समेत दुनिया के सभी गोल-प्रधान खेलों का आधार शुद्ध सेक्स है। ये सारे खेल गर्भाधान का विस्थापन हैं। कैसे? गोल ओवम/डिम्ब है और खिलाड़ी स्पर्म/शुक्राणु। पूरी गतिविधि का उद्देश्य डी एन ए पैकेट को ओवम तक पहुँचाना है। यौन क्रिया में करोड़ों की संख्या में शुक्राणु होते हैं, यहाँ इस खेल में ग्यारह/आठ. छै/ पाँच हैं। यौन क्रिया में एक ही ओवम होता है यहाँ दो विरोधी दलों के लिए दो अलग-अलग ओवम हैं मगर डी एन ए पैकेट के रूप में मौजूद गेंद एक ही है। असल में यह क़बीलाई समाज में रहने वाले मनुष्य के भीतर की संजीवन-वृत्ति की विस्थापित अभिव्यक्ति है। जिसमें एक दल का अस्तित्व दूसरे दल के अस्तित्व का साथ लगातार टकरा रहा है, और दोनों अस्तित्व की इस लड़ाई में एक-दूसरे को मात दे देना चाहते हैं।


अब देखिये आपके भी कुछ विचार हैं क्या इस मसले पर।

अभय तिवारी की पोस्ट देखकर याद आया कि उनकी किताब कलामें रूमी हिन्द पाकेट बुक्स से छपकर आ गयी है। अपनी पहली किताब के छपने का श्रेय अभय ब्लॉगिंग को देते हैं। बताते चलें कि उन्होंने अपनी पोस्टों में रूमी के बारे में पोस्टें अपने ब्लॉग में लिखीं और बाद में रूमी के बारे में लिखने के लिये अपना अलग रूमी ब्लॉग बनाया। देखिये इस ब्लॉग को और जानिये रूमी के बारे में और किताब के लिये हिन्द पाकेट बुक्स से संपर्क करिये। हिन्द पाकेट बुक्स देश में सबसे सस्ती किताबें छापने वालों में से हैं। पेपरबैक संस्करण की अवधारणा हिन्द पाकेट बुक्स वालों ने ही शुरू की। अभय की किताब छपने के लिये बधाई! एक किताब और एक पिक्चर हो गयी उनके नाम। आगे यह संख्या बढ़े इसके लिये शुभकामनायें।


आगे देखिये ट्रेडमार्क बत्तीसी के किस्से बजरिये पंकज उपाध्याय। किस्सों के कुछ अंश तो पढ़ा ही दें आपको।

  • कहीं मेरी शक्ल किसी और से नहीं मिलती न…?? न!, ये मेरे साथ तो नहीं हो सकता… ये मेरी किस्मत तो नहीं हो सकती कि हल्की हल्की बारिश हो… एक अन्जान लड़की हो… और वो भी एक रिक में जाने के लिये तैयार… नहीं नहीं … शी इज़ मिस्टेकिंग मी विथ समबडी…

  • दिखने में तो बहुत सामान्य है… आँखों पर स्पेक्स हैं और शरीर पर एक बहुत ही नोर्मल सा सलवार सूट… मुस्कराती है तो सारे दांत दिखते हैं… कम्बख्त दांत भी एकदम करीने से लगे हुये हैं… और मेरे…… जैसे जहाँ जिसको जगह मिली निकल लिया और जगह कब्जिया कर बैठ गया…

  • बंदियां कितना कुछ तो डायरेक्ट पूछ लेती हैं… लगती तो बैचलर है लेकिन सेल बार बार देख रही है जैसे कोई इंतज़ार कर रहा हो… माईट भी मैरिड… माईट भी बोयफ़्रेन्ड… हू नोज़?… कहीं वो ये तो नहीं चाहती कि मैं उससे उसका नंबर मागूँ…


  • और आखिर में क्या कहते हैं लेकिन बेहतर हो कि आप खुद ही देंखें ट्रेड मार्क बत्तीसी के किस्से और इसके बाद पढिये गल्प के शिल्पी सॉल बैलो के बारे में जिसका कहना था-
    ‘लोग अपनी जिंदगी पुस्तकालयों में खत्म कर सकते हैं। उन्हें सावधान करने की जरूरत है।’


    प्रीति बड़्थ्वाल ने ने तीन महीने के अन्तराल के बाद फ़िर लिखना शुरू किया। आज की कविता देखिये उनकी:
    कहना है आसान,
    मगर....,
    वो शब्द नहीं आते,
    दिल दे दिया उन्हें,
    यही हम....,
    कह नहीं पाते।


    उनकी कविता आगे पढिये यहां पर!

    मेरी पसंद



    जिन्दगी चलती रही,
    ख्वाब कुछ बुनती रही,
    कुछ पलों की छांव में,
    अपना सफ़र चुनती रही।



    पैर में छाले पङे,
    पर न डगमग पांव थे,
    पथ के हर पत्थर में जैसे,
    शबनमों के बाग़ थे।



    गरदिशों की चाह में,
    हर सफ़र है तय किया,
    हर मुश्किल का सामना,
    हर क़दम डट कर किया,



    है तमन्ना अब के मंजिल,
    जिन्द़गी को मिल जाए,
    और फिर हो सामना,
    खुद का,
    खुदी के आईने से........
    प्रीति बड़थ्वाल 'तारिका’

    और अंत में


    फ़िलहाल इतना ही। बकिया फ़िर कभी। आपका हफ़्ता चकाचक शुरू हो, झकाझक बीते।

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    रविवार, जून 27, 2010

    ब्लॉग ऑफ ए थिंकिंग डॉग

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    ये धोबी का कुत्ता (भई, ब्लॉग पता में तो यही लिखा है - http://washermansdog.blogspot.com ) तो बहुत बढ़िया भौंकता है. इनकी एक लंबी सी, मगर बेहद मार्मिक पोस्ट माँ को गए 3 वर्ष हो गए पर पढ़िये.

    इधर बिहारी बाबू ब्लॉगर बनने चले हैं-

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    इनके सारे पोस्ट यूँ तो लाजवाब हैं, मगर एक खास पोस्ट कर्ज कलकत्ता पर आप निगाह अवश्य मारें.

    अगर आपके पास थोड़ा टाइम है तो आज आप शन्नो की एक छोटी सी कहानी बलदेव हलवाई भी पढ़ सकते हैं.

    एक अंग्रेज़ी ब्लॉग साइट है – पोस्टसीक्रेट.कॉम. इसमें जनता अपने सीक्रेट पोस्टकार्ड में लिखकर ब्लॉग प्रबंधक को भेजते हैं, और उस स्कैन कर पोस्ट हर इतवार को सनडे सीक्रेट नाम से डाला जाता है. कुछ बेहद मजेदार होते हैं तो कुछ ऊटपटांग, अजीब. साइट चूंकि अमरीकी है, अतः आपको अमरीकी संस्कृति के दर्शन मिलेंगे. कुछ तस्वीरें अश्लील भी हो सकती हैं, अतः इसे देख समझ कर स्वयं के रिस्क पर खोलें. हाल ही में पोस्ट सीक्रेट (http://postsecret.blogspot.com   ) पर मदर्स डे  तथा फादर्स डे पर विशेष रूप से भेजे गए पोस्टकार्डों को संकलित किया गया. यह प्रकल्प इतना अधिक लोकप्रिय है कि इसमें शामिल पोस्टकार्डों को किताबों के रूप में संकलित कर प्रकाशित किया गया है और किताबों के 4 वॉल्यूम छप चुके हैं. चूंकि पोस्ट सीक्रेट में प्रकाशित पोस्टकार्डों को किताब रूप में संकलित कर प्रकाशित किया जाता है अत: पुराने पोस्टों को हटा दिया जाता है अत: आपको वहां सिर्फ 1 नया ताजा पोस्ट ही दिखाई देगा.

    मदर्स डे पर प्रकाशित कुछ पोस्ट सीक्रेट

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    फादर्स डे पर प्रकाशित कुछ पोस्ट सीक्रेट

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    क्या हिन्दी में ऐसा प्रयास नहीं किया जा सकता है?

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    शनिवार, जून 26, 2010

    शनिवार (25/06/2010) की चर्चा

    नमस्कार मित्रों!

    मैं मनोज कुमार एक बार फिर हाज़िर हूं शनिवार की चिट्ठा चर्चा के साथ।

    तो चलिए अब चर्चा शुरु करते हैं।

    आलेख

    कारोबारी हितों के नीचे दबा है मीडिया बता रहे है भड़ास blog पर V I C H I T R A। स्रोत हैं आर वैद्यनाथन, साभार:- बिजनेस भास्कर। बताते हैं कि 500 स्नातकोत्तर विद्यार्थियों की एक सभा को संबोधित करते वक़्त जब उनसे जब यह पूछा गया कि उनमें से कितने मीडिया (प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक) का भरोसा करते हैं। इस जवाब में दस से भी कम हाथ उठे। आज की तारीख में सकरुलेशन बढ़ी और अखबारों की बिक्री भी। लेकिन क्या पठनीयता भी बढ़ी है? बहुत से लोग अखबार खरीदते हैं लेकिन हमेशा पढ़ते नहीं। इसकी दो वजहें है। पहली- निजी सौदेबाजी और दूसरा पेड न्यूज।

    कोई मीडिया हाउस उस कंपनी में हिस्सेदारी खरीदता है जो शेयर मार्केट में पहले से सूचीबद्ध है या सूचीबद्ध होने जा रही है। बदले में मीडिया हाउस कंपनी के पक्ष में कवरज करता है। कंपनी के बार में नकारात्मक खबरों को दरकिनार कर दिया जाता है। करोड़ों में खेलने वाली सैकड़ों कंपनियां आजकल मीडिया फ्रैंडली बनी हुई हैं। मीडिया ने भी समझौतावादी रुख अपना लिया है। महाराष्ट्र में हाल में हुए चुनाव में पेड न्यूज के कई उदाहरण दिखे।

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    डा. महाराज सिंह परिहारशब्दों की आक्रामकता का विचार-बिगुल बजा रहे हैं डा. महाराज सिंह परिहार। कहते हैं कि ब्लॉग दुनिया अब इतनी विस्त्रित हो गई है कि उसमें तीखे स्वर भी शब्दायित हो रहे हैं। किसी भी मुद्दे पर ब्लॉगर की सपाटबयानी से संप्रेषणीयता सहज हो रही है। शब्दों के मकड़जाल वाले ब्लाग अब कम पसंद किए जा रहे हैं। इनमें रचनाधर्मिता के साथ ही समसामयिक संदर्भों को भी प्रभावशाली तरीके से उकेरा जा रहा है। जीवन के विविध रंगों की झलक इनमें साफ देखी जा रही है। परिवर्तन के स्वर भी यदा-कदा प्रतिबिम्बित होते हैं।

    अपनी पसंद के कुछ ब्लॉग की विस्तृत समीक्षा करते हुए वे इसके विभिन्न पहलुओं से हमें अवगत कराते हैं।

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    My Photoदेवदास बंजारे के साथ बिगुल पर राजकुमार सोनी जी हमें कुछ पल बिताने को आमंत्रित कर रहे हैं। कहते हैं देश में पंथी नृत्य को खास पहचान दिलाने वाले देवदास बंजारे भले ही अब इस दुनिया में नहीं है लेकिन आज भी जब लोग किसी पंथी दल का कार्यक्रम देखते हैं तो उन्हें बरबस ही देवदास बंजारे की याद आ जाती है।
    1 जनवरी 1947 को धमतरी जिले के गांव सांकरा में जन्मे देवदास बंजारे ने कभी जीवन में नहीं सोचा था कि वे पंथी नृत्य करेंगे लेकिन शायद किस्मत को यही मंजूर था। देवदास के घर का नाम जेठू था। एक बार जब जेठू गंभीर तौर पर बीमार हुआ तो उनकी माता ने उसके खुशहाल स्वास्थ्य के लिए देवताओं से मनौती मांगी। ढेर सारे लोगों की जरूरी प्रार्थनाओं के बीच जब देवताओं ने एक मां की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया तो जेठू का नाम भी देवदास हो गया। देवदास यानी देवताओं का भक्त.. दास।

    अंतरराष्ट्रीय मंचों पर लगभग सौ से ज्यादा प्रस्तुतियां दे चुके देवदास बंजारे कभी हबीब तनवीर के ग्रुप से भी जुड़े हुए थे। जब-जब नाटकों को गति देने के लिए पंथी का उपयोग होता था दर्शक झूम उठते थे। कई बार तो इतने मंत्र मुग्ध हो जाते थे कि वंस मोर.. वंस मोर की आवाजें आने लगती थी। हबीब तनवीर को कला का मालिक और स्वयं को मजदूर मानने वाले श्री बंजारे जब तक जीवित रहे तब तक यह बात बड़े गर्व के साथ कहते रहे कि गांव के एक सीधे-सादे लड़के को दुनिया दिखाने वाले हबीब तनवीर उनके खेवनहार थे।

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    My Photoसाहित्य में फिक्सिंग पर प्रकाश डाला जा रहा है संवादघर में संजय ग्रोवर जी द्वारा। बताते हैं कि साहित्य में फिक्सिंग अभी उस स्तर तक नहीं पहुंची जिस स्तर तक क्रिकेट में पहुंच गयी लगती है। यहां मामला कुछ अलग सा है। किसी नवोत्सुक उदीयमान लेखक को उठने के लिए विधा-विशेष के आलोचकों, वरिष्ठों, दोस्तों आदि को फिक्स करना पड़ता है। अगर वह ऐसा नहीं कर पाता तो उसके उदीयमान लेखक होने की संभावनाएं अत्यंत क्षीण हो जाती हैं। यहां तक कि उसे समाज से कटा हुआ, जड़ों से उखड़ा हुआ, जबरदस्ती साहित्य में घुस आया लेखक करार दिया जा सकता है।

    शायद क्रिकेट में भी खिलाड़ी से कप्तान बने व्यक्ति के साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही होता हो। मगर क्रिकेट में जैसे ही राज़ खुलने लगते हैं तो कुछ दिन तो खिलाड़ियों को जनता को मुंह दिखाना मुश्किल हो जाता है। मगर साहित्य में ऐसा कुछ नहीं है। जो जितना ज्यादा विवादास्पद है उतना ही ज्यादा मशहूर है। तिस पर साहित्य में न तो अम्पायर होते हैं न कंट्रोल बोर्ड। अगर आलोचक को हम अम्पायर मानें तो मानना होगा कि फिक्सिंग साहित्य के खेल का एक अनिवार्य तत्व है।

    क्या बात है………………यहाँ भी फ़िक्सिंग ? जायें तो जायें कहाँ समझेगा कौन यहाँ दर्द भरे साहित्यकार की जुबाँ………।

    सोना बनाने की रहस्यमय विद्या। के बारे में जानना चाहते हैं तो TSALIIM पर जाकर प्ढिए ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ का आलेख। बताते हैं कि सोना आखिर सोना होता है। वह सिर्फ महिलाओं को ही नहीं, आदिकाल से पुरूषों को भी आकर्षित करता रहा है। यही कारण है कि प्राचीन काल से सोना बनाने के लिए लोगों के द्वारा अनेकानेक प्रयोग किये जाते रहे हैं। ऐसे ही कुछ प्रयोगों और विधियों के बारे में बात कर रहे हैं इस बार।

    सोना बनाने के जितने भी किस्से और विधाएँ सुनने में आती हैं, वे सभी तर्कहीन और मानव मन की उड़ान ही हैं। इसके पीछे कारण सिर्फ इतना है कि सोना हर काल, हर समय में बहुमूल्य धातु रही है और अधिकाँश मनुष्य बिना कुछ किए बहुत कुछ पाने की इच्छा रखते हैं। मनुष्यों की इसी कमज़ोरी का फायदा उठाकर चालाक और धूर्त लोग 'पारस पत्थर' और 'रहस्यमयी विद्या' के नाम पर आम जनता को बेवकूफ बनाते रहे हैं। जबकि सच सभी लोग जानते हैं कि न तो ऐसी कोई वस्तु कभी कहीं अगर पाई गयी है, तो वह सिर्फ कल्पना और किस्सों में ही।

    मेरा फोटोनदिया के पार , एक जीवन को जीती पिक्चर , चंद जुडी यादें ..... लेकर आए हैं कुछ भी...कभी भी.. पर अजय कुमार झा जी। इस फ़िल्म के साथ हम लोगों ने सहीं मायनों में एक जीवन जिया था। उस समय की बड़ी हिट फ़िल्मों को टक्कड़ दी थी इस फ़िल्म ने।

    झा जी कहते हैं पिक्चर देखते जा रहे थे और उन लम्हों को जीते जा रहे थे । याद आ गया वो जमाना , रेल की बिना आरक्षण वाली यात्राएं , और तब सफ़र में सुराहियां चलती थीं जी । अजी लाख ये कूलकिंग के मयूर जग और बिसलेरी की बोतलें चलें मगर सुराही और छागल के ठंडे मीठे पानी का तो कोई जवाब ही नहीं था । थकान भरी यात्रा के बाद सुबह सुबह ही स्टेशन पर उतरना और फ़िर वहां से तांगे पर निकलती थी सवारी ।

    मैं सबसे बेखबर ....एक जीवन को जीने में लगा होता हूं ....क्योंकि जानता हूं कि ....अब शायद उस गुजरे हुए जीवन को फ़िर दोबारा उस तरह तो नहीं ही जी पाऊंगा ।

    कविताएं

    My Photoछज्जा... शीर्षक कविता .....मेरी कलम से..... पर प्रस्तुत करते हुए Avinash Chandra जी कहते हैं

    मेरे पुराने टूटे,
    जीर्ण नहीं कहता.
    बाबू जी के स्नेह,
    माँ के चावलों,
    संग रहा है,
    जीर्ण कैसे हो?
    हाँ टूटा है,
    मेरी धमाचौकड़ी से.
    उसी टूटे छज्जे,
    पर आज भी.
    आ बैठती है,
    आरव आरुषी नित्य.

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    उसी छज्जे पर,
    माँ के चावलों,
    का मूल्य लौटाने,
    कोई चोखी चिड़िया.
    संवेदना भरे सुदूर,
    निकुंज से ले आई,
    पीपल के बीज.
    नासपीटे वृंत ने,
    न दिए होंगे,
    पुष्प-पराग कण.
    लो!
    मरने से पहले,
    काई ने भी,
    पुत्र मान सारी,
    आद्रता कर दी,
    उस बीज के नाम.
    श्रेयस, अर्ध-मुखरित,
    नव पल्लव आये हैं,
    पीले-भूरे जैसे,
    बछिया के कान हों.
    और दी ले आयीं,
    एक उथला कटोरा,
    पानी का, जून है,
    भन्नाया सा.
    क्रंदन-कलरव-कोलाहल.
    लो पूरा हुआ,
    मेरे छज्जे का,
    लयबद्ध-सुरमयी कानन.

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    My Photoइश्क पर लिखूंगी कुछ कहानियाँ,कुछ नज्में पर Sonal Rastogi का कहना है।

    इश्क पर लिखूंगी ,
    हुस्न पर लिखूंगी
    दिलों के होने वाले,
    हर जश्न पर लिखूंगी

    इस कविता (नज़्म) में भावावेग की स्थिति में अभिव्यक्ति की स्वाभाविक परिणति दीखती है। देखिए

    खिड़की पर लिखूंगी
    मैं झलक पर लिखूंगी
    रात भर ना सोई
    उस पलक पर लिखूंगी
    जब तक है धड़कन
    और गर्म है साँसे
    मोहब्बत मोहब्बत
    दिन रात मैं लिखूंगी

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    शार्टकट : दानवता सत्तासीन यह कविता प्रस्तुत की गई है चरैवेति चरैवेति पर अरुणेश मिश्र जी द्वारा। कहते हैं --

    ओ मेरे मन !
    कोई शार्टकट मारो ।
    किसी महापुरुष की
    आरती उतारो ।

    किसी महापुरुष की आरती उतारने का नेक ख़्याल उन्हें किस्लिए आया है वह भी बयान कर रहे हैं -

    औपचारिकता
    घर घर आसीन ।
    कृत्रिमता पदासीन ।
    मानवता उदासीन ।
    दानवता सत्तासीन ।

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    मेरा फोटोचलो भाई
    बड़े हो गए हैं
    हम
    अब कर लेते हैं
    बटवारा

    कविता की इन चंद पंक्तियों ने ही लगा जैसे नश्तर चुभो दिया हो छाती में। पर सच तो यही है। और इस सच से हमें रू ब रू करा रहे हैं बंटवारा शिर्षक कविता के द्वारा sarokaar पर arun c roy जी। बात को आगे बढाते कहते हैं

    माँ के दूध का
    हिसाब लगा लेते हैं
    बड़े ने कितना पिया
    मंझले ने कितना पिया
    और छुटकी को
    कितना पिलाया माँ ने दूध

    सिर्फ़ मां के दूध का बंटवारा नहीं पिता के प्यार का भी हिसाब किताब लगाया जा रहा है

    पिता के
    खेत खलिहान तो हैं नहीं
    सो बांटने के लिए बस है
    उनका प्यार
    परवरिश
    दिए हुए संस्कार

    आगे जाकर और भी बातें संजीदा और संवेदनशील हो जाती है

    बतकही और
    बहसबाजी
    बाँट लो उन पलों को
    हंसी के ठहकाओं को
    उनसे उपजी ख़ुशी को

    जाते जाते कवी कवि अपनी दुर्बलताओं को खोल कर सामने रखता है तथा अपने प्रेम की पावनता को दृढ़ता के साथ प्रमाणित करता है।

    अंतिम क्षणों में
    बहुत रोये थे पिताजी
    सब बेटो और बहुओं के लिए
    कुछ आंसूं के बूँद
    मोती बन गिरे थे
    मेरे गमछे में
    बस मैं नहीं बाँट सकता हूँ इन्हें

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    कर्मफल प्रस्तुत कर रही हैं अनामिका की सदाये...



















    आज अंतस के भीतर
    कहीं गहरे में
    झाँक कर देखती हूँ
    और फिर
    उस लौ तक पहुँचती हूँ
    जो निरंतर जल रही है,
    मुस्करा रही है,
    अठखेलियाँ कर रही है ...
    जीवन-पर्यंत मिलने वाले
    क्षोभ में भी .
    यह बात निर्विवाद सत्य है कि संतुष्टि ही हमें सच्ची प्रसन्नता देती है। जीवन एक नाटक है। यदि हम इसके कथानक को समझ लें तो सदैव प्रसन्‍न रह सकते हैं।


    ग़ज़लें

    My Photoनीरज गोस्वामी जी का थम सा गया है वक्त किसी के इन्तजार में! अब तो लगता है इंतहा हो गई इंतज़ार की, तभी तो कहते हैं

    ये रहनुमा किस्मत बदल देंगे गरीब की
    कितनों की उम्र कट गयी इस एतबार में

    अब तो बस यादों का सहारा है! जब-जब यादो की पुरवाई चलती है देखिए क्या होता है …

    जब भी तुम्हारी याद ने हौले से आ छुआ
    कुछ राग छिड़ गये मेरे मन के सितार में

    न सिर्फ़ इस ग़ज़ल के सारे शे'र एक से बढ़कर एक हैं बल्कि इन्होंने इसमें कुछ अछूते बिंबों का भी प्रयोग किया है। जैसे इस शे’र में है मछली बज़ार में इत्र की तलाश !

    होगी तलाशे इत्र ये मछली बज़ार में
    निकले तलाशने जो वफ़ा आप प्‍यार में

    एक वो भी ज़मान था था जब लोग उम्र काट देते थे किसी की याद में। इश्क़ के लिये भी वक्त चाहिये वक्त बे वक्त इश्क़ नही फ़रमाया जा सकता और किसी की याद मे डूबने वाले ज़माने तो ना जाने कहाँ खो गये। कितनी बख़ूबी इस भाव को उन्होंने क़लमबंद किया है इस शे’र में

    दुश्वारियां इस ज़िन्दगी की भूल भाल कर
    मुमकिन नहीं है डूबना तेरे खुमार में

    क्या एक-से-बढकर-एक मोतियों को पिरोया है आपने इस हार में। इतनी शानदार गजल पढ कर जो खुशी मिली, उसे बयाँ नहीं किया जा सकता।

    My Photoझूठ का इक सूर्य बन कर ढल रहा है आदमी .... ग़ज़ल प्रस्तुत कर रही हैं काव्य मंजूषा पर 'अदा' जी।

    ज़मीर का एक सलीब ढोए चल रहा है आदमी

    ताबूत में हैवानियत के पल रहा है आदमी

    हुस्न से यारी कभी, दौलत पर कभी है फ़िदा

    और कभी ठोकर में इनकी पल रहा है आदमी

    क्या रखा ग़ैरत में बोलो क्या बचा है उसूल में

    हर घड़ी परमात्मा को छल रहा है आदमी

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    एक और इम्तिहान है-गज़ल जो प्रस्तुत है ग़ज़ल के बहाने-gazal k bahane पर और प्रस्तुत कर्ता हैं श्याम सखा 'श्याम' जी।

    है जान तो जहान है

    फ़िर काहे का गुमान है

    क्या कर्बला के बाद भी

    एक और इम्तिहान है

    इतरा रहे हैं आप यूं

    क्या वक्त मेहरबान है

    हैं लूट राहबर रहे

    जनता क्यों बेजुबान है

    है ‘श्याम ’बेवफ़ा नहीं

    हाँ इतना इत्मिनान है

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    मेरा फोटोएक ग़ज़ल जंगल में गा रहे हैं कोना एक रुबाई का पर स्वप्निल कुमार 'आतिश'।

    कुछ अफ़साने महक रहे हैं जंगल में
    तितली तितली भटक रहे हैं जंगल में
    सीधे सादे बाहर बाहर लगते हैं
    सारे रस्ते बहक रहे हैं जंगल में
    वो पेड़ों से लटक रहे हैं जंगल में
    थोड़ी आँच ज़रा रौशनी और धुआँ भी
    आतिश के संग भटक रहे हैं जंगल में

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    बस आज इतना ही।

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    बुधवार, जून 23, 2010

    कुछ पोस्टों के अंश बस ऐसे ही

    1. यदि किसी भूल के कारण कल का दिन दु:ख में बीता, तो उसे याद कर आज का दिन व्‍यर्थ न गँवाइए।राजभाषा हिन्दी

    2. ई गोरकी सब्बे लोकनी के हरान कई देहलस.... अबहीं उपरे की सीट पर शकीरा का गाना सुन रही है, अऊर ओकरे आई-पोड की आवाज इहां तक आ रही है बे। गजब की आईटम है बे। मेरी दुनिया मेरा जहां....

    3. ललकारती-गरियाती पोस्टें लिखना सबसे सरल ब्लॉगिंग है। परिवेश का वैल्यू-बढ़ाती पोस्टें लिखना कठिन, और मोनोटोनी वाला काम कर पोस्ट करना उससे भी कठिन! :-) मानसिक हलचल

    4. बिजली की तरह ही प्रेम को भी बाँधा नहीं जा सकता है । इस दशा में दोनों का ही प्रेम बहता और बढ़ता है बच्चों की ओर । अब इतना प्यार जिस घर में बच्चों को मिले तो वह घर स्वर्ग ही हो गया । न दैन्यं न पलायनम्


    5. पूपला से प ध्वनि को गायब कर दें तो उपला ही हाथ लगता है। पर सवाल है कि सिर्फ ध्वनि गायब करने से एक खाद्य पदार्थ अखाद्य में कैसे बदल सकता है? शब्दों का सफ़र

    6. विश्व के चौधरी ने खाप लगाकर फ़तवा जारी कर दिया है कि खबरदार! होशियार! इराक के बाद अब बारी ईरान की है! हमज़बान

    7. कुतुबमीनार से गुड़गांव तक शुरु हुई मेट्रो में बैठे सबों के माथे पर तिलक लगे थे। ट्रेन चलने के पहले हवन हुआ और फिर नारियल फोड़े गए। क्या सार्वजनिक कही जानेवाली मेट्रो या फिर ऐसे दूसरे कामों की शुरुआत टिपिकल हिन्दू रीति से होना जायज है,तब भी हम धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करते रहें। विनीत कुमार

    8. ब्लॉग जगत के लिए हमारीवाणी नाम से एकदम नया और अद्भुत ब्लॉग संकलक बनकर तैयार है। इस ब्लॉग संकलक के द्वारा हिंदी ब्लॉग लेखन को एक नई सोच के साथ प्रोत्साहित करने के योजना है। हमारीवाणी.कॉम

    9. एक कविता जो बेतकल्लुफ़ी से धूप के जले गालों को पकड़कर हिला देती है और सहसा ही बादल उमड़-घुमड़ आते हैं खुली-सी एक छोटी बालकोनी में...एक कविता जो ठिठक कर बैठ जाती है फिर कभी न उठने के लिये असम के वर्षा-वनों से उखाड़े गये जंगली बाँसों को तराश कर बुने हुये किसी सोफे पर...एक कविता जो किचेन के स्लैब पर चुपचाप निहारती है चाय के खौलते पानी से उठते भाप को...एक कविता जो भरी प्लेट मैगी को पेप्सी में घुलते हुये देखती है...एक कविता जो तपती दोपहर की गहरी आँखों वाली पलकों पर काजल बन आ सजती है...एक कविता जो पुराने एलबम की तस्वीरों में अपना बचपन ढूंढ़ती है धपड़-धपड़... गौतम राजरिशी

    10. ईमानदारी यहाँ के आम जीवन का हिस्सा है। आम तौर पर लोग किसी दूसरे के सामान, संपत्ति आदि पर कब्ज़ा करने के बारे में नहीं सोचते हैं। भारत में अक्सर दुकानों पर "ग्राहक मेरा देवता है" जैसे कथन लिखे हुए दिख जाते हैं मगर ग्राहक की सेवा उतनी अच्छी तरह नहीं की जाती है। बर्ग वार्ता

    11. मैं एक नियमित खून दाता ( ओ प्लस ) हूँ और दिल्ली के कई हास्पिटल में अपना नाम लिखवा रखा है कि अगर किसी को मेरे खून की जरूरत पड़े तो मुझे किसी भी समय बुलाया जाए, मैं उपलब्द्ध रहूँगा ! सतीश सक्सेना

    12. लाइफ में रखिए सदा, पॉज़ीटिव ऐप्रोच ।

      ओल्ड थॉट्स को बेचकर, ब्रिंग होम न्यू सोच ॥ स्वप्नलोक

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    मंगलवार, जून 22, 2010

    चिमनी के धुंये से ११ लाइन की ऊंचाई पर नल शरणागत वीर ब्लॉगर


    ये ब्लॉगरी का ही कमाल च धमाल है कि एक पॉवर प्लांट की धुंआ उगलती चिमनी से मात्र ११ लाइन (पंक्ति) की ऊंचाई बैठा ब्लॉगर नीचे से चिमनी की गरमी से और ऊपर से सूरज की गर्मी का मुकाबला करते हुये नल के नीचे शरणागत पोस्ट का मसौदा सोच रहा है-अनवरत। विवरण यहां देखें!


    एक लाईना


    1. जरा सा बखान, कुछ तस्वीरें और एक लघु कथा : में ही निपट गये आज!!!

    2. पितृदिवस के बहाने कुछ पोस्टों की चर्चा :चर्चा में भी बहानेबाजी!

    3. चटकों का एक सच ये भी है : कि कभी न लगाने वाले सफ़ाई दे रहे हैं

    4. थम सा गया है वक्त : फ़िर धकियाया जायेगा कमबख्त

    5. जब तक ब्लॉगवाणी कॉमा में है, स्वर्ग-नर्क का फ़र्क समझिए...खुशदीप : की जिद पर

    6. 'पेड़ न्यूज' के चंगुल में पत्रकारिता :छुड़ाने के लिये फ़िरौती मांगेगी क्या?

    7. इंसानों से बेहतर है चिम्पैंजियों की याद्दाश्त? : क्योंकि वे ब्लॉग नहीं लिखते!

    8. मेरे छाता की यात्रा कथा और सौ जोड़ी घूरती आंखें!! : सोच रही थीं कि ये छाता क्यों नहीं लगाता

    9. उफ...ये शिष्ट बच्चा...सिर झुका कर...अपशब्द कहता है ! :इसे कहते हैं संस्कार!!

    10. ऐसा रहा हमारा हवाई सफ़र :इसमें व्योम बालायें अप्सराओं सी दिखीं!

    11. अगर यही आपके साथ हो तो क्या करेंगे आप ....?? : जब हमारे साथ होना ही है तो हम करेंगे क्यों...??

    12. जरूरी थोड़े ही है कि हर कोई मुझे पढ़े : समझे और टिपियाये!

    13. कुलटा बन गई पतुरिया : बेबात में!

    14. प्रेम से तुमने देखा जो प्रिय !!! :मन मयूर उन्मत्त हो गया.

    15. दीपक शर्मा की एक ग़ज़ल और एक नज़्म :और आठ टिप्पणियां

    16. सीढी :को लात मार कर नीचे नही गिराना ।

    17. खनक तो पैसे में ही होती है :उत्‍तमं काव्‍यम् ।।उत्‍तमा भावाभिव्‍यक्ति: ।।

    18. कल ही दाह संस्कार किया गया उसका ~~ : और आज पोस्ट लिख दी गयी! कमाल है~~

    19. धड़कनों पर संकट :मंडराया, नुक्कड़ पर पोस्ट भी दिखी !!

    20. बिजली महादेव : हिल स्टेशन पर

    21. गरमी की भीषणता के बीच एक रात और दिन : और चिमनी के धुंये से ११ लाइन की ऊंचाई पर नल शरणागत वीर ब्लॉगर

    22. आगरा में जुट रहे हैं आज हिन्‍दी ब्‍लॉगर :शहर में ब्लॉगर मीट की आशंका

    23. ऐसे मोड पर संकलकों की कुछ बातें, ब्लोग्स पढने के कुछ उपाय : लेकिन चश्मा अपना लेकर आयें!

    24. भटक जाते हैं कदम-जब साथ न दे हमदम :कविता में संगत दे रहे हैं -गम,रम,हम,सनम और जनम!

    25. आज नदी बिलकुल उदास थी: उसे भी nice सुनने की आस थी

    26. इनको अब पता चला की भोपाल वाली गैस कितनी खतरनाक hai :मुकदमे के पोस्टमार्टम के पहले कैसे पता चल सकता था भाई!!

    27. आर्सेनिक से भरे बोरो धान पर लगेगी पाबंदी:मिलावट का नया उपाय सोचना होगा लोगों को!


    आज की तस्वीरें


    संयुक्त परिवार का यह चित्र सुब्रमणियन जी की पोस्ट से


    नीरज जाट जी की पोस्ट से एक फोटो


    और अंत में



    कल आदित्य के पापा ने जिद की कि एकलाइना पेश किये जायें तो उनके अनुरोध को सच मानकर आज एकलाइना ही लिखने की कोशिश की। डरते-डरते। डर इस बात का कि न जाने कौन किस बात का बुरा मान जाये और लिखना बंद करने की घोषणा कर दे।

    दो दिन पहले डा.अमर कुमार ने अपना विचार व्यक्त करते हुये लिखा
    मैं एक बार फिर दोहराऊँगा कि, इस मँच के लिये लिंक-चयन पर पाठकों की सहभागिता आमँत्रित की जानी चाहिये ।


    मैं डा.अमर कुमार जी का ध्यान चिट्ठाचर्चा की पहली पोस्ट की तरफ़ दिलाना चाहूंगा। उस समय चर्चा का कोई रूप तय न था। लेकिन हमने लिखा था अगले अंक में अपने चिट्ठे के बारे में चर्चा के लिये टिप्पणी में अपनी पोस्ट का उल्लेख करें. बाद में कई पाठक अपने लिंक देते रहे हैं। कुछ लोग मेल करते रहे, कुछ लोग ऐसे बताते रहे। चिट्ठों का हरसंभव जिक्र होता रहा। और भी मामलों में पाठकों की राय का उपयोग करने के प्रयास हुये। आगे भी करते रहेंगे। वैसे जो चर्चाकार चर्चा करने के लिये पोस्टें चुनते हैं वे भी अपने नजरिये से या किसी फ़ीडबैक से ही पोस्टें तय करते हैं। संकलकों से देखकर पोस्टों पर पाठकों के रुझान से भी पोस्टें तय की जाती रहने के चलते पाठकों की रुचि की अप्रत्यक्ष भादेदारी तो हो ही जाती है पोस्टें चुनने में। बाकी आप आगे बतायें कैसे पाठकों की सहभागिता बढाई जाये?

    निर्मला कपिला जी ने लिखा -चिठा चर्चा मे कुछ कहते हुये दर लगता है। आगे झेल चुकी हूँ। निर्मलाजी से यही अनुरोध है कि कम से कम यहां अपनी बात कहने में न डरें। अपनी राय, सहमति, असहमति खुले मन से व्यक्त करें। हम उनकी बात को सही अर्थ में लेकर अपनी बात रखने की कोशिश करेंगे।

    फ़िलहाल इतना ही। बकिया फ़िर कभी। तब तक
    आप मौज से रहिये
    मस्त और बिन्दास
    गर्मी भले है झकास
    पर बादल भी हैं आसपास
    गर्मी को गेटआउट बोलेंगे
    बुझायेंगे धरती की प्यास।


    पोस्टिंग विवरण


    शुरू हुये छह बजकर पन्द्रह मिनट पर। पोस्ट का बटन दबा रहे हैं अभी आठ बजकर पच्चीस मिनट पर। इस बीच दो कप चाय पिये। एक बैठे हुये दूसरी लेटकर चर्चचियाते हुये। लैपटॉप की बैटरी बैठ गई तो अपने सर पर चपत लगाते हुये बिजली का कनेक्शन लगाया और बुझा लैपटाप फ़िर से खिल उठा। बिजली मिलने से कोई भी खुश होकर खिल उठता है भाई!
    अब और कुछ कहना उचित नहीं होगा। आप बोर होकर बुरा मान सकते हैं, कहें चाहे भले न शराफ़त के दिखावे के चलते। इसलिये अब फ़ाइनल बस्स! ओके? टेक केयर!! बॉय!!

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    सोमवार, जून 21, 2010

    पितृदिवस के बहाने कुछ पोस्टों की चर्चा

    कल फ़ादर्स डे के मौके पर लोगों ने पिता से जुड़ी अपनी यादें ताजा की। पिताओं की खूबियों को याद किया। इनमें से कुछ पोस्टों को पढ़कर तो पाठकों को अपने-अपने पिता याद आ गये। देखिये उनमें से कुछ पोस्टें:

    डॉ आराधना चतुर्वेदी ने अपने पिता को याद करते हुये उनके बुजुर्ग हो जाने पर उनको देखने के बाद की अपनी मन:स्थिति बताते हुये लिखा:
    सबका जाना और हमदोनों का रह जाना, सब बर्दाश्त कर लिया. पर सच, अपने पिता को बुढाते देखना ज़िंदगी का सबसे बुरा अनुभव होता है. जिन उँगलियों ने आपको पकडकर चलना सिखाया वो अब अखबार पढते हुए कांपती हैं… जिन हाथों ने हमें सहारा दिया, अब उनमे एक सोंटा होता है… छह फिट लंबा भारी-भरकम शरीर सिकुड़कर आधा हो गया है… गोरे-चिट्टे लाल चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गयी हैं…

    डॉ आराधना की इस पोस्ट पर कई लोगों ने अपने मां-पिता को याद किया। उन्होंने पहले भी अपने मां-पिताजी के बारे में मार्मिक और सहज संस्मरण लिखे हैं। उनके लेखन का अंदाज इतना सहज है कि कहीं से यह नहीं लगता कि अपनी बात को प्रभावशाली बनाने के लिये उन्होंने कुछ अतिरिक्त प्रयास किये हों। ऐसे ही एक संस्मरण में आराधना ने अपने पिताजी के बचपन के किस्से लिखते हुये बताया था कि कैसे वे अपने बच्चों के लिये हर संभव सुख-सुविधा जुटाते हुये यह भी प्रयास करते थे कि बच्चे सुविधाओं के आदी न हों जायें:
    पिताजी ने हमलोगों को जितना हो सका, कठोर परिस्थितियों को झेलने के लिये तैयार किया. उन्होंने बचपन में जिन चीज़ों की कमी झेली थी, हमें कभी भी नहीं होने दी. पर उन्होंने हमें जानबूझकर सुख-सुविधाओं की आदत नहीं लगने दी. वे ऐसे व्यक्ति थे कि कूलर इसलिये नहीं लिया कि हम इतने सुविधाभोगी न हो जायें कि गाँव में न रह पायें. फ़्रिज़ इसलिये नहीं लिया कि हमें ताज़ी सब्ज़ियाँ खाने की आदत रहे और खुद बाज़ार से जाकर रोज़ हरी सब्ज़ी ले आते थे. पर हमारे खाने-पीने, पढ़ाई और अतिरिक्त गतिविधियों के लिये उनका हाथ हमेशा खुला रहता था. पिताजी ने अपने बचपन में परीक्षा के लिये कभी पढ़ाई नहीं की और इसीलिये हमलोगों पर कभी परीक्षा में अच्छे नम्बर लाने के लिये दबाव नहीं डाला. ये बात अलग है कि कोई दबाव न होने पर भी मैं हमेशा टॉपर रही.


    आराधना का संस्मरण पढ़ते हुये प्रत्यक्षाजी का अपने पिताजी को याद करते हुये लिखा गया एक संस्मरण याद आया। चार साल पहले अपनी एक पोस्ट में अपने पापा को याद करते हुये प्रत्यक्षा ने लिखा था :
    ये पैकेट जब खोला , तस्वीरें देखीं तो आँखें भर आईं. बस आँसू उमडते गये. बच्चे परेशान हैरान. संतोष उस वक्त घर पर नहीं थे, वरना मुझे संभाल लेते. खूब रोयी उस दिन. पता नहीं क्या लग रहा था . कुछ छूटने का सा एहसास था, कुछ पाने का सा एहसास था, एक मीठी उदास सी टीस थी. फ़िर कुछ देर बाद जी हल्का हुआ. रात में संतोष ने उन्हें फ़ोन किया और हँसते हुये मेरे रोने के बारे में बताया. मैं क्यों रोई ये मैं उन्हें क्या बताती पर शायद उन्हें पता होगा .

    पापा ने उन तस्वीरों के साथ एक पत्र भी भेजा था,

    इन फ़ोटुओं में से एक यहां मौजूद है। प्रत्यक्षा द्वारा लिखे संस्मरण पढ़कर उनके पिताजी ने अपनी प्रतिक्रिया लिखते हुये लिखा:
    " संस्मरण पढ कर मज़ा आया.कविताओं को धीरे धीरे (अपनी कुछ कवितायें भी उन्हें भेजी थीं ) जुगाली करते हुये पढता हूँ . वैसे खामोश चुप सी लडकी बहुत अच्छी लगी .दुबारा तिबारा पढने की कोशिश करता हूँ.
    फ़ोटोग्राफ़ भी भेज रहा हूँ. आम छाप (इस तस्वीर में उनकी शर्ट पर आम के मोटिफ़ बने हुये थे और हम हमेशा इस तस्वीर को आमछाप तस्वीर बोलते ) और ७२ का जोडा भी ( ये तस्वीर उनके जवानी के दिनों की है )
    'जूते की चमक ' वाला फ़ोटो ( ये उनके बचपन की तस्वीर ) बडा एनलार्ज नहीं हो सका . फ़ोटो तब की है जब मैं ६-७ साल का था. मैं अब 'नितांत अकेला ' सर्वाइवर हूं "


    मेरे पापा को तो बर्दाश्त करना मुश्किल होता जा रहा है! में देखिये कुछ बच्चे अपने पिता के बारे में उम्र के हिसाब से कैसा सोचते हैं।

    नरेश चन्द्र बोहरा ने इस मौके पर अपने दिवंगत पिता को याद करते हुये उनको नमन किया वंदन किया। यशवन्त मेहता ने सौवें फ़ादर्स डे पर सौंवी पोस्टपेश की और डबल सैंचुरी मारी। बधाई!

    खुशदीप ने फ़ादर्स डे का इतिहास बताते हुये अपने मन की बात कही:
    लेकिन ये सब उस युग की देन है जहां माता-पिता के लिए वक्त ही नहीं होता...सिर्फ एक दिन फादर्स या मदर्स डे मनाकर और कोई गिफ्ट देकर उन्हें खुश करने की कोशिश की जाती है...लेकिन ये भूल जाते हैं कि मां के दूध का कर्ज या बाप के फ़र्ज का हिसाब कुछ भी कर लो नहीं चुकाया जा सकता...ये फादर्स डे या मदर्स डे के चोंचले छोड़कर बस इतनी कोशिश की जाए कि दिन में सिर्फ पांच-दस मिनट ही बुज़ुर्गों के साथ अच्छी तरह हंस-बोल लिया जाए...यकीन मानिए इससे ज़्यादा और उन्हें कुछ चाहिए भी नहीं...



    मां की जगह बाप ले नहीं सकता, लोरी दे नहीं सकता गाना उनकी पोस्ट पर सुनिये। लेकिन इस शीर्षक को पढ़कर यह भी लगा कि किसी को याद करने के लिये उसके द्वारा न किये जा सकने वाले काम करने की बात करना कौन सा चोचला है भाईजी !!! वैसे बाप लोगों ने भी बहुत गाने/लोरियां बच्चों को सुनाई होंगी। वो कौन सी पिक्चर का गाना है जी-
    तुझे सूरज कहूं या चन्दा, तुझे दीप कहूं या तारा
    मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राजदुलारा।


    अपनी पोस्टों में अक्सर अपने मां-पिताजी के कम उमर में चले जाने के कारण उनकी सेवा करने से सुख से वंचित रह जाने के अफ़सोस को सतीश सक्सेनाजी अपनी पोस्टों में अक्सर व्यक्त करते रहते हैं। कई जगह बुजुर्गों को देखकर उनको अपने मां-पिता याद आ जाते रहे हैं। कल उन्होंने अपने पिताजी को याद करते हुये लिखा-मेरे भविष्य के लिए पिता ने अपना इलाज नहीं कराया

    जादू ने अपने पिताजी को हैप्पी फ़ादर्स डे कहा लेकिन उनके पिताजी ने जादू को शुक्रिया बोलने में पूरे नौ घंटे लगा दिये।

    पाखी ने भी अपने पापा को याद किया अपनी कविता के द्वारा। फ़ोटो में पापा साथ में हैं:

    पापा मेरे सबसे प्यारे
    मुझको खूब घुमाते हैं
    मैं जब करूँ शरारतें
    प्यार से समझाते हैं।
    मुझको स्कूल छोड़ने जाते
    होमवर्क भी करवाते हैं
    उनकी पीठ पर करूँ सवारी
    हाथी-घोड़ा बन जाते हैं।
    आफिस से जब आते पापा
    मुझको खूब दुलराते हैं
    चाकलेट, फल, मिठाई लाते
    हमको खूब हँसाते हैं।


    आदित्य फ़ादर्स डे के दिन भी सिर्फ़ मां का राजदुलारा बना है। फ़ोटो देखें।

    पुराने संस्मरणों में विनीत कुमार की पोस्ट का जिक्र फ़िर से जिसमें वे अपने पापा की याद करते हुये अपने मन की बात करते हैं:
    फिलहाल तो मन कर रहा है- इस्किया की सीडी या डीवीडी खरीदूं,लिफाफे में बंद करुं और उस पर लिखकर- पापा तुस्सी ग्रेट हो उनके पते पर स्पीड पोस्ट कर दूं।..


    यह चर्चा पोस्ट करते हुये मुझे प्रशान्त की लिखी तमाम पोस्टें याद आ रही हैं जिनमें उन्होंने अपने मम्मी-पापा को बड़ी शिद्दत से याद किया है। बेहतरीन संस्मरण लिखे हैं पीडी ने अपने मम्मी-पापा के बहाने अपने बारे में भी लिखते हुये। उनके दो बजिया वैराग्य में ये सब आते रहे हैं। ऐसे ही एक वैराग्य मोड में वे लिखते हैं:
  • पापाजी की समझ में जब से मुझे(हमें) अच्छे-बुरे का ज्ञान हुआ तब से उन्होंने कुछ कहना छोड़ दिया.. बस समय आने पर कम शब्दों में मुझे समझा दिया करते हैं.. कक्षा आठवीं की बात याद है मुझे, जब मैंने परिक्षा में चोरी की थी और पापाजी को बहुत बाद में पता चला था.. उस समय भी उन्होंने कुछ नहीं कहा, और तब भी उन्होंने कुछ नहीं कहा जब उन्हें पता चला कि मैं चेन स्मोकर हो गया हूं.. उन्हें मेरी इन बुरी बातों का ज्ञान है बस इतना ही काफी होता था मुझे अपने भीतर आत्मग्लानी जगाने के लिये..

  • कभी-कभी पापाजी मुझे धिरोदात्त नायक भी कहा करते हैं.. मुझे बहुत आश्चर्य भी होता है उनकी इस बात पर.. मेरे मुताबिक तो मैं नायक कहलाने के भी लायक नहीं हूं.. फिर धिरोदात्त नायक तो बहुत दूर की कौड़ी है.. शायद यह इस कारण से होगा कि सभी मां-बाप अपने बच्चों को सबसे बढ़िया समझते हैं.. उनकी नजर में उनके बच्चे सबसे अच्छे होते हैं, सच्चाई चाहे कुछ और ही क्यों ना हो..


  • इस मौके पर अपने बेटे का मां-पिताजी के बारे में लिखा लेख याद आयाहै जिसमें उसने लिखा था:
    माता-पिता का हमारे जीवन में भगवान समान स्थान है। माता-पिता हमारे लिये सब कुछ होते हैं। अगर वो न होते तो हम न होते। मुसीबत के वक्त वह हमेशा हमारी मदद के लिये होते हैं। वह बहुत मेहनत करके कमाते हैं सिर्फ़ हमारी खुशी के लिये। वह हमें बहुत प्यार करते हैं और कभी हमें निराश नहीं देखना चाहते हैं। अगर हम किसी भी चीज के लिये हिम्मत हार जाते हैं तो वह हमारे अंदर जीतने का भरोसा जताते हैं।


    पिताजी ब्लॉग पर लोगों ने समय-समय अपने पिताजी से जुड़े संस्मरण लिखे हैं।

    मेरी पसंद


    पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थे
    वे हर मिलने वाले से कहते कि
    बहुत नहीं दो साल तीन साल और मिल जाता बस।

    वे जिंदगी को ऐसे माँगते थे जैसे मिल सकती हो
    किराने की दुकान पर।

    उनकी यह इच्छा जान गए थे उनके डॉक्टर भी
    सब ने पूरी कोशिश की पिता को बचाने की
    पर कुछ भी काम नहीं आया।

    माँ ने मनौतियाँ मानी कितनी
    मैहर की देवी से लेकर काशी विश्वनाथ तक
    सबसे रोती रही वह अपने सुहाग को
    ध्रुव तारे की तरह
    अटल करने के लिए
    पर उसकी सुनवाई नहीं हुई कहीं...।

    1997 में
    जाड़ों के पहले पिता ने छोड़ी दुनिया
    बहन ने बुना था उनके लिए लाल इमली का
    पूरी बाँह का स्वेटर
    उनके सिरहाने बैठ कर
    डालती रही स्वेटर
    में फंदा कि शायद
    स्वेटर बुनता देख मौत को आए दया,
    भाई ने खरीदा था कंबल
    पर सब कुछ धरा रह गया
    घर पर ......

    बाद में ले गए महापात्र सब ढोकर।

    पिता ज्यादा नहीं 2001 कर जीना चाहते थे
    दो सदियों में जीने की उनकी साध पुजी नहीं
    1936 में जन्में पिता जी तो सकते थे 2001 तक
    पर देह ने नहीं दिया उनका साथ
    दवाएँ उन्हें मरने से बचा न सकीं ।

    इच्छाएँ कई और थीं पिता की
    जो पूरी नहीं हुईं
    कई और सपने थे ....अधूरे....
    वे तमाम अधूरे सपनों के साथ भी जीने को तैयार थे
    पर नहीं मिले उन्हें तीन-चार साल
    हार गए पिता
    जीत गया काल ।

    रचना तिथि- १३ अक्टूबर २००७
    बोधिसत्व

    और अंत में


    ब्लॉगवाणी पर पोस्टें फ़िलहाल अपडेट नहीं हो रही है। कुछ तकनीकी समस्या होगी। सिरिल बाहर हैं। जल्द ही लौटकर वे शायद इसे सही कर सकेंगे।

    मौके के हिसाब से तमाम लोगों ने पोस्टें भी लिखीं इस बारे में। मुझे अच्छी तरह याद है लोगों ने जिद करके पसंदगी का जुगाड़ लगवाया इसमें। इसके बाद खास तरह की पोस्टें जब ऊपर जाने लगीं तो नापसंदगी का बटन जुड़वाया। अब उससे दुखी होकर उसको हटवाने के लिये हलकान हैं लोग। इससे एक बार फ़िर लगा कि मनुष्य बड़ी खोजी प्रवृत्ति का होता है , अपने दुखी होने के कारण तलाश ही लेता है और दुखी हो ही लेता है।

    महीने-दो महीने संकलक देखने पर पोस्टों के बारे में समझने का सलीका आ जाता है। इसके बाद लेखक के अन्दाज से पता चल जाता है। एक ब्लॉग संकलक सिर्फ़ पोस्टों के लिंक दे सकता है आपको। इसके अलावा उसको पढ़ने न पढ़ने और उसके बारे में आगे राय बनाने का काम तो पाठक को करना होता है।

    एक संकलक से यह आशा करना कि वह आपके दिमाग में सब कुछ आपकी मर्जी के हिसाब से सहेज सकेगा उसके साथ नाइंसाफ़ी तो है ही आपके अपने हित में भी नहीं है।

    जब तक ब्लॉगवाणी की सेवायें चालू नहीं होती तब तक दूसरे संकलकों से काम चलाइये। मस्त रहिये, मुस्कराये। चटका लगाने के लिये तैयार करने के लिये उंगलियां चटकाइये।

    फ़िलहाल इतना ही। बकिया फ़िर कभी।

    पुनश्च: नीचे कुछ फोटो इस मौके पर देखिये इसके पहले पिताजी से को स्मरण करती हुयी इन बेहतरीन पोस्टों को भी देखते चलें यह लिंक पंकज उपाध्याय के सौजन्य से मिले!
  • वो बरगद का पेड़ मुझे अब भी छाया देता है

  • हमारे पिताजी!!

  • My Idol, My डैड
  • :







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