रविवार, जनवरी 31, 2010

सचमुच, काम के ब्लॉग

अभी तो अक्खा हिन्डी ब्लॉग जगत् ब्लॉग ब्लॉगर ब्लॉगेस्ट खेल रही है. ब्लॉगर-ब्लॉगवाणी-चिट्ठाजगत् जिन्दाबाद! तो इनमें काम का ब्लॉग ढूंढे से कहीं मिलेगा? आप कहेंगे, समुद्र में मोती तो बहुत पड़े हैं ढूंढने वाला चाहिए. चलिए एक कोशिश कर देखते हैं. पर मामला तो भूसे के ढेर में सुई ढूंढने जैसा लग रहा है!

यूरेका! एक ब्लॉग मिल गया. मिक्स बैग वाला. भई इसमें हिन्दी में दो-चार पोस्टें हैं तो हम इसे आंशिक हिन्दी वाला तो मान ही लेते हैं. ब्लॉग का नाम है – सिटिजन एसबीआई http://citizensbi.blogspot.com/

. वैसे तो यह भारत की सबसे बड़ी बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का कुछ कुछ आधिकारिक किस्म का ब्लॉग प्रतीत होता है, मगर यहाँ ऐसा कोई दावा नहीं किया गया है, बल्कि सिटिजनशिप की महत्ता और स्टेट बैंक में वर्क कल्चर को डेवलप करने संबंधी बहुत सी प्रेरक घटनाओं को यहां संजोया गया है.

इस ब्लॉग के एक पोस्ट – सुपर सिटिजन में एक ऐसी ही प्रेरक कहानी को पढ़कर मेरे भीतर का अपना सिटिजन जागा, और मैंने दन्न से एक कमेंट वहाँ दागा.

आप जानते हैं क्या हुआ? कमेंट तो प्रकाशित नहीं हुआ, अलबत्ता सुखद आश्चर्य स्वरूप स्टेट बैंक से एक उत्तर जरूर प्राप्त हुआ. (हालांकि यह मेरे मेल बक्से में मिला है, मगर मामला चूंकि ब्लॉग पर टिप्पणी का था, और संभवत: विषय-वस्तु से मेल नहीं खाती टिप्पणी को प्रकाशित भले न किया गया हो, मगर उसे यहाँ, सार्वजनिक प्रकाशित करने में स्टेट बैंक को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए. यदि उन्हें समस्या होती है तो इसे यहाँ से सखेद हटा लिया जाएगा) प्रश्नोत्तरी आप भी बांचें:

Dear Mr  Ravi,
The two old ATMs are being replaced by a set of six new ATMs this week. Sorry for the inconvenience caused to you. Regards,
J S Bisht, AGM, SBLC, Indore.


Date: Tue, 26 Jan 2010 20:18:48 -0800
From: ra*****i@gmail.com
To: co*****ht@hotmail.com
Subject: [Citizen SBI] New comment on
सुपर सिटिज़न.
Raviratlami has left a new comment on your post "सुपर सिटिज़न":
आदरणीय,
मैँ भी एक सिटिजन हूं, एसबीआई खाताधारक. यहाँ भोपाल के न्यूमार्केट में स्टेटबैंक के दो एटीएम महीनों से बंद पड़े हैं. उनके दरवाजे पर लिखा है कि तकनीकी खराबी के कारण बंद हैं. तो क्या स्टेट बैंक के पास इन दो एटीएम मशीनों की तकनीकी खराबी को तत्काल दूर करने के लिए कोई संसाधन नहीं है? हद है!
इसी कारण दूसरे एटीएम मशीन पर बेहद भीड़ लगी रहती है. कृपया इन दो मशीनों को जल्द से जल्द ठीक करवाएँ.
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Posted by Raviratlami to Citizen SBI at January 27, 2010 9:48 AM

चलिए, हमारा एक छोटा सा काम तो हो गया. इस प्रकरण के तुरंत बाद न्यूमार्केट एटीएम मशीन स्थल पर कार्य में जरा तेजी आई है और रात-बेरात भी वहां काम हो रहे हैं. जैसा कि बताया गया है, उम्मीद है कि इस सप्ताह हम नए मशीन में हाथ साफ कर सकेंगे. काश कि ऐसे काम के ब्लॉग और भी तमाम सरकारी-गैर सरकारी एजेंसियों के होते जिसमें जानकारियों से लोग-बाग अपडेट भी होते और लोग-बाग अपनी समस्याओं का समाधान भी टिप्पणियों के थ्रेड के जरिए प्राप्त कर सकते.

--

चलते चलते,

अठन्नी अठन्नी से गुल्लक में दस करोड़ कैसे जोड़ लिए, ये कहानी :

http://myindiamycause.wordpress.com/2010/01/29/अठन्नी-अठन्नी-से-दस-करोड़/

यहीं पर एक कहानी और है – छठी पास बन गया इंजीनियर

इधर आपकी नजरों से भी काम के कुछ पोस्ट तो गुजरे होंगे? तो उन्हें साझा कीजिए! दुनिया सचमुच काम के ब्लॉगों, ब्लॉग पोस्टों को ढूंढ रही है.

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शनिवार, जनवरी 30, 2010

विज्ञान चर्चा - विज्ञान की परिभाषा और निहितार्थ

नमस्कार , विज्ञान चर्चा में मैं लवली आपका हार्दिक अभिनन्दन करती हूँ. पिछले माह की अंतिम शनिवार को ब्लॉग जगत का माहौल असह्य हो गया था मेरे लिए इस कारन मैं समय पर विज्ञान चर्चा नही कर पाई, इसके लिए पाठकों से क्षमा चाहूंगी.

आज हम विज्ञान की परिभाषा और उसके निहितार्थों पर बात करेंगे. कई बार ऐसा देखा गया है की विज्ञान अथवा वैज्ञानिक खोजों का नाम लेते ही हमारे कई मित्रों के मन में परमाणु बम और लड़ाकू जहाजों की छवि ही उपस्थित होती है, इससे इतर विज्ञान को वे देख नही पाते.

पहले विज्ञान की परिभाषा के बारे में थोड़ी चर्चा कर लें. सबसे सटीक परिभाषा जो अब तक मेरी नज़रों से गुजरी वह यह है "मानव की उन्नति के लिए अनिवार्यता की खोज ही विज्ञान है". लोगों की सामाजिक जरूरतें पूरी करने की कोशिशों के बीच ही विज्ञान का जन्म हुआ है. यह कोई ऐसा विषय नही है जिसे किसी प्रकार की विलासिता को ध्यान में रखते हुए प्रोत्साहित किया गया, जब नए समाज की वर्गीय संरचना में यह आवश्यक हुआ तभी इसका जन्म हुआ. यानि कहा जा सकता है की उत्पादन में लगने वाले समय को किसी प्रकार कम किया जा सके,मनुष्य के भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति सरलता से की जा सके इसी प्रयास ने विज्ञान को जन्म दिया.

छिटपुट प्रयासों के बीच से गुजरते हुए यन्त्र युग में आकर विज्ञान की पहचान बनी. आधुनिक समाज में विज्ञान के जिस रूप को हम देख रहे हैं वह उसी यंत्र युग की देन है. इसी कारण विज्ञान के सह -उत्पाद के रूप में उपरोक्त साम्राज्यवादी उपक्रमों को हम विज्ञान के उपर हावी हुआ देखते हैं, किन्ही कारणों से हमारा ध्यान इस कुव्यवस्था पर न जाकर सीधे-सीधे इसके परिणामो पर जाता है और परिणाम पर दृष्टि पड़ते ही हम विज्ञान को दोषी ठहरा देते हैं, जो किसी प्रकार सही नही है...उन महान वैज्ञानिकों की दिन-रात की मेहनत का अपमान है जो उन्होंने अपनी सुख -शांति, विलासिता, परिवार, धन, स्वस्थ्य और जीवन को नजरंदाज करके मानव के कल्याण के लिए की है. जिन्होंने मानव सभ्यता के लिए अपना सब कुछ होम कर दिया उनमे से कई जीवन के अंतिम समय में भी भयंकर आर्थिक समस्याओं से घिरे रहे. अतः मेरा आप सब से विनम्र अनुरोध है की किसी प्रकार के निष्कर्ष पर पहुँचाने से पहले इन बातों को ध्यान में रखें.

विज्ञान के बारे में कुछ निर्विवाद तथ्य हैं जैसे की - किसी उपक्रम के लिए प्रत्यक्षता और व्यावहारिकता ही वैधता है, जिस क्रियाकलाप में यह नही है वह विज्ञान नही है, जहाँ हम कारण और परिमाण में सम्बन्ध नही देख सकते उसे विज्ञान अथवा वैज्ञानिक क्रियाकलाप की श्रेणी में नही रखा जाता. पदार्थ के गुणधर्म की प्रत्यक्ष जाँच/पड़ताल ही विज्ञान है. विज्ञान में सिद्धांत और व्यवहार को अलग नही किया जा सकता. इच्छित परिणाम तक पहुँचाने के लिए विज्ञान में प्रयोग होते हैं..हम उन प्रयोगों और उनके परिणामों के बीच स्पष्ट सम्बन्ध देखते हैं..विश्लेषित करते हैं और उसके आधार पर आगे बढ़ते हैं. कई असफल प्रयोगों के बाद मिली सफलता को व्यावहारिकता की कसौटी पर जांचा जाता है फिर उस तकनीक को सार्वजनिक किया जाता है और सिद्धांत को धरोहर के रूप में रखा जाता है जिससे की अगर कोई उस प्रयोग को दोहराय तो उसे वही परिमाण हासिल हो.

इस प्रकार हम देखते हैं की विज्ञान प्रयोगों का संग्रह मात्र नही है. किसी प्रयोग के सिद्धांत बनाने की शर्त का मार्ग उसकी व्यावहारिकता, प्रमाणिकता और उपयोगिता से होकर गुजरता है. कहा जा सकता है कोई उपक्रम तब तक विज्ञान का सिद्धांत बनाने योग्य नही है जब तक उसने किसी विवादास्पद मत को सुलझा नही लिया, किसी समस्या का परिणाम नही ढूंढ़ लिया. इसके बाद ऐसा समझा जाता है की सिद्धांत/प्रयोगों की व्याख्या होगी उसके अनुप्रयोगों की खोज होगी, जिससे की दोहराय बिना भी हम उसके परिणामो का अनुमान तार्किक ढंग से लगा सकेंगे...इसलिए हम कह सकते हैं की विज्ञान की किसी खोज का महत्वपूर्ण होना उसकी सामाजिक उपयोगिता पर ही निर्भर है, अन्यथा उस क्रियाकलाप में लगा श्रम और समय निरर्थक है.

यंत्र युग ने इस आधुनिक विज्ञान की नई परिभाषा गढ़ी है, इससे मुक्त होना ही विज्ञान के लिए सबसे बड़ी समस्या है..अब सवाल है यह कैसे संभव हो? कोई भी समाजोपयोगी कार्य करने वाला सिर्फ प्रेरणा के आधार पर कार्य नही कर सकता उसे भी जीवित रहने के लिए भौतिक साधनों की जरुरत होती है. यहीं से मध्यम वर्ग और समाज के उस हिस्से का कार्य आरम्भ होता है जो जनसंख्या की दृष्टि से इस समाज का एक बड़ा हिस्सा है और जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद थोडा समय और उर्जा समाज के सापेक्ष अपने दायित्व के लिए लगा सकता है. यही वह वर्ग है जो अपनी आवश्यकताओं और रुचियों में परिवर्तन करके विज्ञान का रुख समाज की नीव की ओर मोड़ सकता है. ऐसा तब तक संभव नही जब तक की उसे अपनी सामाजिक सापेक्षता और दायित्व बोध का ज्ञान न हो. यह आसान नही है, पर इतना कठिन भी नही. इसके लिए जिस बाजारवाद ने आज समाज के विशाल तबके को चपेट में ले रखा है उसकी निरर्थकता का ज्ञान आवश्यक है.

आज छोटे बच्चे इस बाजार द्वारा प्रायोजित प्रतियोगिता का शिकार होकर आत्महत्या कर रहे हैं, हर ओर फूहड़ द्विअर्थी संवादों और अश्लील विज्ञापनों की धुंध छाई हुई है. रंग -बिरंगी रोशनिओं के बीच सामाजिकता कहीं गम हो चुकी है लोग व्यक्तिगत विलासिताओं में उलझकर अपनी सामाजिक सापेक्षता को विस्मृत कर बैठे हैं. यह भविष्य के लिए अच्छे संकेत नही कहे जा सकते, पर सत्य यही है इसे आंखें खोलकर देखना ही इसके प्रति बदलाव की इच्छा को जन्म दे सकता है.

बात जब आरंभ होती है अपना विस्तार पा ही लेती है ...क्षमा कीजिएगा इसपूरी चर्चा में "चिठ्ठा चर्चा" नही हो पाई ..और न हो कोई ऐसा चिठ्ठा दिखा(एक-दो छोड़ कर, उसकी चर्चा अगली बार की जाएगी) जो उपरोक्त शर्तों को
पूरा करे विज्ञान चर्चा में अपना स्थान पाने के लिए...तो, अगर आपको कोई मिले इधर टिप्पणी में उसका लिंक प्रेषित करें इस विचार को ध्यान में रखते हुए की "सूचनाएं विज्ञान नही होती"...न ही ऐसे किसी चिठ्ठे की चर्चा मुझसे हो सकेगी जिसमे विज्ञान के नाम पर छद्मविज्ञान अथवा अधकचरा ज्ञान परोसा जा रहा हो.....अगर मेरे चर्चा के अंदाज में कोई समस्या दिख पड़ी हो ..मैं अपने पाठकों और इस ब्लॉग के मोडरेटर से अनुरोध करुँगी की वे अपना मंतव्य जाहिर करें ..जिससे की चर्चा में अपेक्षित सुधार लाया जा सके. आज के लिए इतना ही, अब विदा ..फिर आपकी सेवा में प्रस्तुत होउंगी अगले माह के अंतिम शनिवार को.. आपका दिन सार्थक हो.

- लवली

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शुक्रवार, जनवरी 29, 2010

एक शब्दमेघ चर्चा: वाशिंग्‍टन पोस्‍ट इश्‍टाईल

आज के हिन्‍दुस्‍तान टाईम्‍स में (दरअसल पूरी स्‍टोरी वाशिंगटन पोस्‍ट से उधारी ली गई है) अमरीकी संसद में ओबामा की स्‍पीच का विश्‍लेषण करने के लिए शानदार तकनीक अपनाई है। ओबामा की स्‍पीच का वर्ड क्‍लाउड बनाया गया यानि कीवर्ड्स का उनके भाषण में कितनी बार इस्‍तेमाल हुआ है के आधार पर उनका आकार तय करते हुए पूरी स्‍पीच का क्‍लाउड(बादलनुमा एक आकृति) बनाया गया इससे उनकी चिंताओं व सरोकारों का खाका दृश्‍य में प्राप्‍त हो गया। बाद में इसकी तुलना उनके पिछले भाषणों और पिछले राष्‍ट्रपतियों के भाषण से भी की गई है। इस लिहाज से देखें तरीका लाजबाव है.. आखिर हम अपनी बात शब्‍दों में ही तो कहते हैं अत: शब्‍द सघनता हमारे सरोकारों को व्‍यक्त करती ही है। वैसे तकनीक का इस्‍तेमाल हम ब्‍लॉगर अरसे से करते आ रहे हैं... टैग क्‍लाउड, वर्ड क्‍लाउड इसी तकनीक के उदाहरण हैं। हमने आज चर्चा के लिए इसी तकनीक का इस्तेमाल करने जा रहे हैं। आज की पोस्‍टों के शब्‍दमेघ यानि वर्ड क्‍लाउड सामने रख रहे हैं ताकि आपको पता चल जाए कि पोस्‍ट में शब्‍द सघनता किस ओर है इससे ये अनुमान आपको सहज ही हो जाएगा कि पोस्‍ट लेखक के मन पर फिलहाल क्‍या हावी था :)

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  सबसे पहले तो देखें कि कुल मिलाकर हिन्‍दी ब्‍लॉगजगत के दिमाग में आज कया चल रहा है यानि खुद ब्‍लॉगवाणी मुखपृष्‍ठ का शब्‍दमेघ । ये चलने पर इतना बलाघात क्‍यों यारो ? गनीमत है पुस्‍तक भी कुछ बड़ा है :) आगे के शब्दमेघ किन पोस्‍टों के हैं ये जानना मनोरंजक खेल हो कता है, मसलन ये मेघ देखें

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और अनुमान लगाऍं। क्‍या आप जानना नही चाहेंगे कि किसके पोस्‍ट-व्‍यक्तित्‍व के केंद्र में अपन/पोस्‍ट/ जानकार है :)   अनुमान लगाइए और फिर मेघ पर क्लिक कर देखें कि आपका उत्‍तर ठीक था कि नहीं, इसी बहाने आपको उनकी पोस्‍ट का केंद्रीय विचार तो हाथ लग ही गया- अपन। तो इसी खेल को नीचे के सभी रंग बिरंगे शब्‍द-मेघों के साथ खेलें, हर छवि पर संबंधित पोस्‍ट का लिंक दे दिया गया है- 

 

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प्रयुक्‍त औजार: वर्डल  (पोस्‍ट विशेष के यूआरएल भरने पर शब्‍दमेघ तैयार होते हैं फिर उसे मनचाहे आकार की छवि में लेने के लिए मैंनें स्‍क्रीन कैप्‍चर का शार्टकट अपनाया है, लिंक देने का काम मैन्‍युअली किया गया है)

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गुरुवार, जनवरी 28, 2010

जामे कुटुम समाय घराने की एक चर्चा

बसंत आ गया. कोहरा बसंत के साम्राज्य को आगे बढ़ने से रोकने के लिए अपना दम लगाये है. लोग बसंत पर कम और कोहरे पर ज्यादा कविता लिख रहे हैं. संत सिंह चटवाल पद्मभूषण हो गए हैं. प्रधानमंत्री के डॉक्टर साहब भी पद्मभूषण हो लिए. कुछ लोग पद्मभूषण होते-होते बच गए. अमर सिंह जी राज्यसभा से इस्तीफ़ा देने से मना कर दिया.

इन सब के बीच एरिक सीगल नहीं रहे. लव स्टोरी नामक किताब के लेखक. तमाम प्रेमियों को अपनी भाषा से प्रभावित करने वाले एरिक. आज गौतम राजरिशी जी एरिक सीगल पर एक पोस्ट लिखी है. पढ़िए वे क्या लिखते हैं;

"love means not ever having to say you are sorry"...हम जैसे कितने ही आशिकों के लिये परम-सत्य बन चुकी इस पंक्ति के लेखक एरिक सिगल की मृत्य हो गयी इस 17 जनवरी को और मुझे इस बात का पता चला बस कल ही।"


एरिक को श्रद्धांजलि देने वालों में हमारे नीरज भैया भी हैं. उन्होंने अपनी टिप्पणी में लिखा;

"लव स्टोरी एक जादू जगा देने वाली किताब है, मैंने अपने कालेज के दिनों के बाद पढ़ा था, इतनी छोटी सी किताब इतना बड़ा असर डालती है की क्या कहूँ...बिना इसे पढ़े नहीं जाना जा सकता...हमारी भी श्रधांजलि."

आज श्री जाकिर अली रजनीश ने ब्लॉगर भाइयों का आह्वान किया और बताया कि; "ब्लागिंग को हल्के में न लें, अगले महीने एक और धमाके के लिए रहे तैयार.."

धमाका क्या है? इसके बारे में बताते हुए जाकिर साहेब लिखते हैं;

"साथियो, आप सबको बताते हुए अत्यंत प्रसन्नता हो रही है हिन्दी में प्रकाशित होने वाली विज्ञान केन्द्रित चर्चित पत्रिका "विज्ञान प्रगति" के फरवरी अंक में विज्ञान ब्लॉगिंग पर डा0 अरविंद मिश्र एक विस्त़ृत आलेख प्रकाशित हो रहा है। यह आलेख ब्लॉग की उपयोगिता और महत्ता को रेखांकित करने का एक और प्रयास है। आप सब इस लेख को अवश्य पढिएगा और अपनी प्रतिक्रिया से हमें जरूर अवगत कराइएगा। "


आशा है, जाकिर साहेब के आह्वान के बाद अब हम ब्लागिंग को हल्के में न लेंगे.

श्री रूपचंद्र शास्त्री 'मयंक' की कविता पढ़िए. सुन्दर कविता उन्होंने कुहरे पर लिखी है. वे लिखते हैं;

भूरा-भूरा नील गगन है,
गीला धरती का आँगन है,
कम्बल बना बसेरा!
देखो हुआ सवेरा!


मनीष कुमार जी अपनी केरल यात्रा की दास्तान पढ़वा रहे हैं. मुन्नार में बिठाये उनके दिन और रात सबसे खूबसूरत थे. इसके बारे में मनीष बताते हैं;

"वापस रास्ते में सूर्य अपनी रक्तिम लालिमा लिए पहाड़ों की ओत में जाता दिखाई दिया.हमारे दुमंजिला कॉटेज की ऊपरी बालकनी पश्चिम दिशा की और खुलती थी. इसलिए हम सभी जल्द से जल्द वहां पहुंचकर इस मनोरह दृश्य को कैमरे में कैद कर लेना चाहते थे."


और क्या खूब फोटो निकाली हैं मनीष जी ने अपने कैमरे से. आप खुद देखिये. मेरे कहने से नहीं मानेंगे. यहाँ क्लिकियाइए.

जसवीर की बहुत ही प्यारी कविता पढ़िए जो उन्होंने मास्टर गोकुलचंद के नाम लिखी है. जसवीर लिखते हैं;

"मंदिर वाले स्‍कूल में
जिसे उस वक्‍त विद्या-मंदिर नहीं
कहा जाता था
और न ही उसमें पढ़ाने वाले
बूढ़े मास्‍टर गोकुलचन्‍द
को सर या टीचर।
उनकी आंखें पत्‍थर की थीं
हाथ में छड़ी रहती थी
धोती पहनते थे गंदी-सी
आवाज कड़क थी
गणित उनके लिए खेल था
बच्‍चे उनका जीवन थे।"


अब कविता पढ़ रहे हैं तो रजनी भार्गव जी की यह कविता पढ़िए. वे लिखती हैं;

"लम्हे, गुल्लक में
रेज़गारी से खनकते हैं
हर दिन रुई से भरी दोहड़
के लिए ललकते हैं।
एक लम्हा,
जब आँखें उस पर टिक जाती हैं,
लाल, पीले फूलों वाली,
किस, किस पगडंडी से गुज़रती है"


पूरी कविता पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक कर दीजिये और देखिये हम आपको कितनी बढ़िया कविता पर ले जाते हैं.

कविताओं की चर्चा को आगे बढ़ाते हुए पहुँचते हैं डॉ. मनोज मिश्र द्वारा प्रस्तुत स्व. पंडित रूप नारायण त्रिपाठी जी की रचना. एक नमूना देखिये;

"तुम्हारे पास बल है बुद्धि है विद्वान भी हो तुम
इसे हम मान लेतें हैं बहुत धनवान भी हो तुम
विधाता वैभवों के तुम इसे भी मान लेते हम
मगर यह बात कैसे मान लें इंसान भी हो तुम।"


आज समीर भाई की माताजी की पुण्यतिथि है. इस मौके पर समीर भाई ने बहुत ही भावुक कर देने वाली पोस्ट लिखी है. माताजी को याद करते हुए वे लिखते हैं;

"मैं उसके नाम के साथ स्वर्गीय लगाने को हर्गिज तैयार नहीं आज ५ साल बाद भी. वो है मेरे लिए आज भी वैसी ही जैसी तब थी जब मैं उसे देख पाता था. तुम न देख पाओ तो तुम जानो.

माँ कभी मरती है क्या...वो एक अहसास है, वो एक आशीष है, वो मेरी सांस है...उससे ही तो मैं हूँ..वो मेरी हर धड़कन में है..वो कोई एक तन नहीं जो मर जाये और हम उसे भूल जायें पिण्ड दान कर पुरखों में मिला कर."


बहुत ही प्यारी पोस्ट है. पोस्ट का महत्व उसके अंत में कविता की वजह से और बढ़ गया है.

हम सब की तरफ से माताजी को श्रद्धांजलि.

जहाँ एक और जाकिर साहेब कह रहे हैं कि ब्लागिंग को हल्के में न लें...वहीँ राजकुमार ग्वालानी जी के एक मित्र ने उनसे पूछ लिया; "तुम्हारे ब्लॉग की औकात ही क्या है?"

अपने मित्र के सवाल का जवाब देते हुए राजकुमार जी लिखते हैं;

"हमें इतना मालूम है कि आने वाले समय में ब्लाग का स्थान बहुत ऊंचा होने वाला है। इसको आज पांचवें स्तंभ के रूप में देखने की शुरुआत हो चुका है। अगर भविष्य में ब्लाग अखबारों के लिए खतरा बन जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। ऐसे में ब्लाग लिखना फायदेमंद है, इसकी औकात की बात करना गलत है।"


गणतंत्र साठ का हो गया. कवितायें लिखी गईं. परेड हो गई. हथियार निकाल कर दिखा दिए गए. और गणतंत्र दिवस मना लिया गया. इसी मौके पर पढ़िए प्रोफ़ेसर आनंद प्रधान का लेख. प्रोफ़ेसर प्रधान लिखते हैं;

"क्या यह सिर्फ एक संयोग है कि जिस समय गणतंत्र साठ का हो रहा है, देश में 'पेड न्यूज' यानि पैसा लेकर खबरों की शक्ल में विज्ञापन छापने पर तीखी बहस चल रही है? क्या यह भी सिर्फ संयोग है कि जिस संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके जरिये मीडिया की आज़ादी की गारंटी की गई है, उसके साठ साल के होने के मौके पर देश में मीडिया को 'रेगुलेट'(नियंत्रित) करने की मांग को लेकर बहस तेज हो रही है? निश्चय ही, यह सिर्फ संयोग नहीं है. ये दोनों ही मुद्दे एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं और उनका सीधा सम्बन्ध मुख्यधारा के मीडिया उद्योग की मौजूदा दशा-दिशा से है."



नीरज रोहिल्ला
नीरज रोहिल्ला ने ह्यूस्टन मैराथन में हिस्सा लिया. उसकी रिपोर्टिंग भी की. रिपोर्टिंग के शुरू में ही उन्होंने डिस्क्लेमर दे दिया. लिखा; "लम्बी और भावनात्मक पोस्ट". अब इस डिस्क्लेमर की वजह से अगर आपने पोस्ट न पढ़ी हो तो मैं कहूँगा कि पढ़ आइये. कमाल की पोस्ट है.

नीरज लिखते हैं;

"दौड़ के शुरू होने पर भी हमारा दिमाग ठिकाने पर नहीं था लेकिन हमने सोचा कि अब जो भी होगा दौड़ के बाद ही देखा जाएगा, घुटने का जायजा लिया तो यदा कदा किसी कदम के साथ थोडा सा दर्द था लेकिन कुछ ख़ास नहीं| बार बार अलग अलग ख्याल आ रहे थे और दौड़ पर ध्यान नहीं था| लेकिन शुरुआती ६ मील पलक झपकते ही कट गये | हर साल की तरह इस साल भी ह्यूस्टन निवासी धावकों का हौसला बढ़ने के लिए सड़क के दोनों ओर खड़े थे|"


आज एक और ब्लॉग पर चिट्ठाचर्चा हुई. यहाँ क्लिक कीजिये.

तो यह थी "जामे कुटुम समाय" घराने की चिट्ठाचर्चा. आपसब का दिन-रात सब मौज में बीते एही कामना है.

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मंगलवार, जनवरी 26, 2010

गणतन्त्र ठिठुरते हुये हाथों की तालियों पर टिका है


गणतंत्र दिवस
आज अपने देश साठवां गणतंत्र दिवस मना रहा है। बकौल खुशदीप गणतंत्र सीनियर सिटीजन बन गया आज जिस पर अपनी बात कहते हुये गिरिजेश राव लिखते हैं--
रघुवीर सहाय का 'हरचरना' याद आता है जो 'फटा सुथन्ना' पहने राष्ट्रगान के बोलों में 'जाने किस भाग्यविधाता' का गुन गाता रहता है!
इसी तर्ज पर कभी धूमिल ने लिखा था-
क्या आज़ादी तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई ख़ास मतलब होता है


आज सुबह कड़ाके की ठंड में राजधानी में झंडा फ़हराने का कार्यक्रम हर वर्ष आठ बजे की जगह इस बार दस बजे से हुआ। इस मौके पर अनायास परसाई जी का ठिठुरता हुआ गणतंत्र याद आया:
गणतन्त्र ठिठुरते हुये हाथों की तालियों पर टिका है। गणतन्त्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलतीं हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिये गर्म कपडा़ नहीं है।
विडंबना है कि परसाई जी की ये पंक्तियां आज भी उतनी ही बल्कि और ज्यादा प्रासंगिक हैं। जब परसाई जी के इस लेख की ये पंक्तियां पढ़ीं:
इस देश में जो जिसके लिये प्रतिबद्ध है, वही उसे नष्ट कर रहा है। लेखकीय स्वतंत्रता के लिये प्रतिबद्ध लोग ही लेखक की स्वतंत्रता छीन रहे हैं। सहकारिता केलिये प्रतिबद्ध इस आन्दोलन के लोग ही सहकारिता को नष्ट कर रहे हैं। सहकारिता तो एक स्पिरिट है। सब मिलकर सहकारितापूर्वक खाने लगते हैं और आन्दोलन को नष्ट कर देते हैं। समाजवाद को समाजवादी ही रोके हुये हैं।

लेखकीय स्वतंत्रता के लिये प्रतिबद्ध लोग ही लेखक की स्वतंत्रता छीन रहे हैं। का उदाहरण हाल ही में ब्लॉगजगत में भी देखने को मिला जब अविनाश वाचस्पति को किसी लेखक ने ही इस बात पर धमकी दी जब उन्होंने उसके द्वारा चोरी की गयी रचना को चोरी ही मानकर उसकी आलोचना की।


वन्दना अवस्थी
बहरहाल आज देश भर में गणतंत्र दिवस मनाया जा रहा है। उल्लास के साथ। इस मौके पर साथियों ने पोस्टें लिखीं। वन्दना अवस्थी तो अतीत में टहल आईं और देख दाख आईं कि कैसे वे कड़क प्रेस करके स्कूल जातीं थीं:
इधर २५ जनवरी आती , और उधर हमारी यूनिफ़ॉर्म तैयार होने लगती. खूब कड़क प्रेस किया जाता. प्रेस करने का काम मेरी छोटी दीदी करतीं, और मैं वहीँ खड़े हो , अपनी प्रेस हो रही शर्ट का कॉलर छू - छू के देखती की खूब कड़क हुआ या नहीं. स्कर्ट की एक-एक प्लेट सहेज के प्रेस की जाती
.आगे उनकी पोस्ट में आज की पीढ़ी के इन राष्ट्रीय पर्वों से उदासीन होने के कारण भी तलाशती हैं।

सतीश पंचम गाजीपुर के ८६ पार लेखक विवेकी राय के लेख के बहाने बीते जमाने के सपने और आज की हकीकत की बात करते हैं। उनकी पोस्ट का शीर्षक बहुत कुछ कह जाता है: देश की तिकोनी चौकोनी कटी दरारों के बीच की बरफी पर गदहे घूम रहे हैं, बकरीयां उछल-कूद कर रही हैं। कौए सीपियों में खाना ढूँढ रहे हैं।

बिखरे गणतंत्र को बसाना है ! यह आवाहन है निपुण पाण्डेय का।

कल गुजरात हाईकोर्ट ने अपने एक निर्णय में कहा कि हिंदी को राजभाषा का दर्जा तो दिया गया है, लेकिन क्या इसे राष्ट्रभाषा घोषित करने वाला कोई नोटिफिकेशन मौजूद है? इस मसले पर विस्तार से देखिये- देवेश की पोस्ट-बिन भाषा के गूंगे-बहरे राष्ट्र में काहे का गणतंत्र

गिरिजेश अपनी द्विपदियां इस मौके पर लिखते हैं जो उदास हैं। देखिये:
जिस दिन खादी कलफ धुलती है।
सजती है लॉंड्री बेवजह खुलती है।

फुनगियों को यूँ तरस से न देखो,
उन पर चिड़िया चहक फुदकती है।



विनीत कुमार
तुम्‍हारे पास कांव-कांव, हमारे पास कट्ठा कट्ठा अखबार! में विनीत कुमार मृणाल पांडेजी की नेटमीडिया और नेटस्पेस पर लिखने वाले लोगों के बारे में बनी सोच और उसके कारणों की पड़ताल करते हैं। विनीत का सवाल है:
अब ऐसे में वो ब्लॉगर और वेबसाइट के लोगों पर इस बात का आरोप लगाती हैं कि सब अपनी-अपनी भड़ास निकाल रहे हैं और जजमेंट देती हैं कि इन सुरों में दम नहीं है तो सवाल तो किया ही जाना चाहिए कि आप कॉलम का इस्तेमाल इनसे अलग किस रूप में कर रही हैं?



हरकीरत’हीर’ से बातचीत करा रहे हैं कुलवंत हैप्पी! इसमें हरकीरत कलसी के हरकीरत’हीर’ बनने की कहानी और अन्य बातें हैं।

क्रिकेट का गणतंत्र में रवीश कुमार की ये दो फ़ोटुयें सारी बातें कहती हैं।

क्रिकेट का गणतंत्र

क्रिकेट का गणतंत्र
इन तस्वीरों में हर तरह से साजो-सामान से लैस बच्चों की पीठ दिख रही है और अद्धे-गुम्मे वाले बच्चे सीना कैमरे के सामने किये हैं। पता नहीं यह अनायास है कि सायास। प्रमोद सिंह इस पर टिपियाते हैं:
"धरती पर रखे जाते ही अहिल्या की तरह विकेट में बदल जायेंगे।"

"जब दूसरी तस्वीर को ब्लैकबेरी से क्लिक कर रहा था तो मेरे द्वारा पंद्रह बार देखी जा चुकी ग़ुलामी का डॉयलॉग याद आ गया। देख रहा हूं जगत की मां के सर पर फूल है और मेरी मां के सर पर जूते।"

इसके आगे रवीश एंथ्रॉपॉलॉजी कहां चहुंपती है, बहुतै जल्‍दी स्‍टम्पिन हो गया.

प्रमोदजी के लिये आज का दिन भी रोज के किस्से जैसा ही है:


रोज के किस्से
फिर भी जाने क्‍या आवारापन, कुहरीला मन है, तुम्‍हारे मलिन मन की खिड़कियों पर बगाहे भटके गोरैया की तरह फुदकता, चहकता मिलूंगा, तुम छनौटा खींचकर मारोगी तो उनींदे तुम्‍हारे सपनों के होंठ, अपने होंठों से सील दूंगा. मीठे, मार्मिक थोड़े उन सुहाने क्षण हम एक-दूसरे को कितना जान लेंगे, लेकिन यह भी ग़ज़ब होगा कि फिर जल्‍दी ही, उतनी ही निष्‍ठुर, निर्ममता से, अपने-अपने अकेलेपन की चादरें तान लेगे.


सैमसुंग-साहित्य अकादमी पुरस्कारों के खिलाफ मानव श्रृंखला में जन संस्कृति मंच द्वारा बहुराष्ट्रीय उपभोक्ता उत्पाद कंपनी सैमसुंग के साथ मिलकर साहित्य अकादमी द्वारा टैगोर साहित्य पुरस्कार दिए जाने के विरोध में सोमवार को मानव श्रृंखला खला बनाये जाने और आगे के विरोध के विवरण हैं!

अपने पिता के साथ बिताये आखिरी तीन दिन में पिता की याद करते हुये उनको समर्पित कविता पेश की वाणी ने:
बहुत आती है घर में कदम रखते ही
पिता की याद...
पिता के जाने के बाद
ड्राइंगरूम की दीवारों पर रह गए हैं निशान
वहां थी कोई तस्वीर या
जैसे की वो थे स्वयं ही
बड़ी बड़ी काली आँखों से मुस्कुराते
सर पर हाथ फेर रहे हो जैसे
जो की उन्होंने कभी नही किया
जब वो तस्वीर नहीं थे ..स्वयं ही थे


कथाकार सूरजप्रकाश जी से दस सवाल पूछे गये। उनमें से तीन के अंश यहां दिये जा रहे हैं:

सूरज प्रकाश
  • आज जीवन के हर क्षेत्र में यही हो रहा है। सब कुछ जो अच्‍छा है, स्‍तरीय है, मननीय है, वह चलन से बाहर है। कभी स्‍वेच्‍छा से, कभी मजबूरी में और कभी हालात के चलते। आज हमारे आस पास जो कुछ भी चलन में है, वह औसत है, बुरा है और कचरा है। हम उसे ढो रहे हैं क्‍योंकि बेहतर के विकल्‍प हमने खुद ही चलन से बाहर कर दिये हैं।


  • आज की पीढ़ी के पास सबकुछ है लेकिन धैर्य या संतोष नहीं है1 बात मूल्‍य बदलने की भी है। हमारी पीढ़ी तक शादी के बाहर या इतर या शादी से पहले सैक्‍स बहुत खराब बात मानी जाती थी। आज सैक्‍स जीवन की एक शैली है, बस, सुरक्षित तरीके से कीजिये। ये खूबियां दुनिया से हमारे पास आ गयीं, अब क्‍या देस और क्‍या परदेस।


  • आप आने वाले कल की बात नहीं कर सकते। दस साल बाद की क्‍या कहें। बेशक हम चांद पर हो सकते हैं लेकिन व्‍यक्ति का सुकून, अपनापन आत्‍मीयता और परिवार सब बलि चढ़ जायेंगे। आदमी और अकेला और मशीनी होता जायेगा।


  • आमतौर पर कहा जाता है, पब्लिक स्कूलों में जहां कहीं भी सरकारी पैसे से रूफवाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाए गए हैं, पैसे की बर्बादी ही हुई है। इसके बावजूद भी चिकमगलूर जिले में तो कहानी ही दूसरी है। बांचिये तो सही।


    चंद्रभूषण
    चंद्रभूषण भैया के किस्से हम बकलमखुद में बांच रहे हैं। अपने सबसे ताजे किस्से में उन्होंने बजरिये एक इजराइली कहानी की नायिका बताया-
    जब किसी से प्यार करो तो उसे अपना सर्वस्व कभी मत सौंपो, क्योंकि उसके बाद तुम्हारे पास अपना कुछ नहीं रह जाता। कुछ नहीं, यानी ऐसा कुछ भी नहीं, जिसके सहारे आगे जिया जा सके।

    आज उन्होंने समाजवादी नेता स्व.जनेश्वर मिश्र से सुना हुआ डा.राम मनोहर लोहिया से जुड़ा एक किस्सा सुनाया। डा.लोहिया की समझाइस थी-
    अगर तुम किसी को अपनी मर्जी से कुछ देना चाहते हो तो उसे सबसे अच्छी चीज दो। खराब चीज का देना तो अपना बोझ उतारना हुआ, देना नहीं हुआ।


    संगीता पुरी जी ने 2008 में गणतंत्र दिवस के मौके पर राजपथ पर हिन्‍दी ब्‍लॉग जगत की झांकी निकाली थी !! देखिये तो सही।



    आपकी खबर
    यहां ग्रामीण चलाते हैं रेलवे स्टेशन देखिये क्या व्यवस्था है:
    स्टेशन पर पूरी व्यवस्था ग्रामीणों के हाथों में है। पानी से लेकर बैठने, टिकट बांटते वक्त लोगों को एक कतार में रखने और खुल्ले पैसे तक का जुगाड़ भी यहां तैनात ग्रामीण ही करते हैं। स्टेशन की व्यवस्था देख रहे चैलासी गांव के 65 वर्षीय बजरंग जांगिड कहते हैं कि हम इस स्टेशन को पूरे देश का आदर्श रेलवे स्टेशन बना देंगे। बकौल जांगिड, रेलवे स्टेशन तो आसानी से बन गया। अब सबसे ज्यादा चुनौतीभरा काम है, स्टेशन को व्यवस्थित करना।


    वर्ष २००९ में हिंदी साहित्य: एक नज़र में देखना चाहते हैं तो इधर पहुंचिये।

    दो दिन पहले बालिका दिवस के मौके पर एक विज्ञापन में एक भूतपूर्व पाकिस्तानी सेना अधिकारी की फोटो गलती से छपी। पाकिस्तानी सेना अधिकारी ने इसे मासूम भूल कहा, प्रधानमंत्री कार्यालय और महिला एवं बाल विकास मंत्री ने इस चूक पर माफ़ी मांग ली। लेकिन रचना जी का एतराज एकदम अलग है। उनका सवाल है कि मां की महत्ता केवल बेटा पैदा करने तक ही है?

    मुद्दे की इस बात पर कन्या भ्रूण हत्या रोकने के वैकल्पिक कारण बताते हुये घुघुती बासूतीजी ने लिखा:
    कन्या भूण हत्या इस लिये भी रोकी जाए ताकि कल यदि पति , भाई, पिता ही नहीं यदि जवाँई राजा को भी गुर्दे की आवश्यकता पड़े तो कोई देने वाली तो हो! और तब तक रोकी जाए जब तक पुत्र पैदा करने के लिए कोख का कोई विकल्प न मिल जाए और गुर्दों का भी!


    रचनाजी की बात के समर्थन में कुछ लोगों ने अपनी प्रतिक्रियायें दीं। लेकिन अनुराधा का मानना अलग है। वे कहती हैं:
    मैं सहमत नहीं हूं। मेरा विचार है कि यह विज्ञापन पुरुषों को संबोधित है, इसलिए सभी पुरुष महानुभावों की तसवीरें एक बार को ठीक लगती हैं। दरअसल, (यह मेरा विचार है) यहां contrast पैदा करने की कोशिश की गई है कि हे पुरुषों, अगर तुम्हारी मांएं न जन्मी होतीं तो तुम भी यह सब अचीव करने के लिए इस दुनिया में अवतरित न हुए होते।

    दूसरे, अगर लड़कियों का महत्व दूसरी तरह से कहा जाना होता तो विज्ञापन में सफल महिलाएं होतीं और कैप्शन होता कि अगर ये महिलाएं पैदा न हुई होतीं तो देश कैसे उनकी देन को नमन कर पाता...। हालांकि यह विज्ञापन के लिए एक पिटा हुआ आइडिया है।

    इस तरह मुझे यह विज्ञापन थीम के लिहाज से गलत नहीं लगा, मंशा का तो सरकार ही जाने।


    इस पोस्ट की ही बात इस पोस्ट में भी की गयी है! देखियेगा।

    शिवकुमार मिश्र के यहां आज गणतंत्र दिवस के दिन वैवाहिक संविधान लागू हुआ। चौदह साल निकाल दिये सकुशल। शिवकुमार मिश्र की शादी के बारें सत्यकथा यहां उपलब्ध है। मिश्र दम्पति को हमारी मंगलकामनायें।

    आज के ही दिन मानसी के मां-बाबा ने अपने वैवाहिक जीवन के पचास वर्ष पूरे किये। ग्यारह दिन पहले अपना जन्मदिन मनाने वाली मानसी ने अपने मां-बाबा के बारे में लिखते हुये लिखा-
    आज २६ जनवरी को उनकी शादी की सालगिरह है। बचपन से ही मां को कभी भी कोई काम इन्डिपेन्डेन्ट्ली करते नहीं देखा है, बाबा ने मां का एक राजकुमारी की तरह ख़याल रखा है हमेशा। आज भी जब सुबह मां को फ़ोन किया, तो पता चला बाबा इस अवसर पर मां की पसंद की मिठाई लेने गये थे दुकान।
    मानसी के मां-बाबा को हमारी तरफ़ से बधाई और मंगलकामनायें।

    आज सत्यनारायण भटनागर जी और अमिताभ त्रिपाठी को भी उनके जन्मदिन के मौके पर शुभकामनायें।

    कविताजी आजकल भारत प्रवास पर हैं। पिछले दिन उनकी मुलाकात हैदराबाद में चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी से हुई। चंद्रमौलेश्वर जी अस्वस्थ हैं और आंतों में अल्सर की समस्या से जूझ रहे हैं। चंद्रमौलेश्वरजी के स्वास्थ्य के लिये मैं शुभकामनायें देता हूं।

    एक लाईना




      ब्लॉगर मीट
    1. जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना गोपालदास "नीरज" : कि तेल बरबाद कहीं हो न जाये

    2. सारे जहाँ से अच्छा.... : ये यादिस्तान हमारा

    3. गणतंत्र दिवस जब आता है, :हम सबका मन हरसाता है।

    4. मकबरा कहो या कहो ताज महल तुम, : अंदर घुसने के टिकट के दाम एक्कै हैं

    5. क्रिकेट का गणतंत्र: चलाने के अद्धे-गुम्मे भी उत्ते ही जरूरी हैं जित्ते बैट-बल्ले।

    6. अंग्रेज़ चले गए लेकिन अंग्रेजी विरासत में छोड़ गए :उसी से काम चल रहा है, अपनी भाषा की जरूरत ही नहीं पड़ी।

    7. सिर्फ़ ब्लोग्गिंग ही सब कुछ नहीं है , अगली ब्लोगर्स बैठक की घोषणा : भी तो जरूरी है!

    8. साठ का गणतंत्र : बोले तो साठा में पाठा

    9. मराठी सीख

    10. क्या कैटरीना 2012 में विवाह करेंगी : त का कौनौ मैरिज हाल बुक कराने को बोली हैं?

    11. ६० साल के संविधान में ९४ पैबंद:शतक से सिर्फ़ ६ पैबंद दूर

    12. मानव समाज का सबसे निकृष्ट संविधान :साठ साल चल गया ससुर

    13. बथुआ प्रेम की पराँठा परिणति :कुहरीले जाड़े की साजिश की आड़ में

    14. सड़क भी इनके बाप की....!!शहर भी इनके बाप का.....!! :हमरे बाप तो खाली वसीयत में चरैवेति-चरैवेति छोड गये हैं।

    15. परेड की एक झलक : में फ़ोटो की अपेक्षा न करें!

    16. कोचिंग पुराण: बच्चों के सर पर जबरिया एक पहाड़


    मेरी पसंद

    आपत्ति फ़ूल को है माला में गुथने में,

    गणतंत्र दिवस
    भारत मां तेरा वंदन कैसे होगा?
    सम्मिलित स्वरों में हमें नहीं आता गाना,
    बिखरे स्वर में ध्वज का वंदन कैसे होगा?

    आया बसंत लेकिन हम पतझर के आदी,
    युग बीता नहीं मिला पाये हम साज अभी,
    हैं सहमी खड़ी बहारें नर्तन लुटा हुआ,
    नूपुर में बंदी रुनझुन की आवाज अभी।

    एकता किसे कहते हैं यह भी याद नहीं,
    सागर का बंटवारा हो लहरों का मन है,
    फ़ैली है एक जलन सी सागर के तल में,
    ऐसा लगता है गोट-गोट में अनबन है।

    नंदलाल पाठक

    ...और अंत में


    पिछली नौ जनवरी को चिट्ठाचर्चा के पांच साल पूरे हुये। चर्चा शुरू करने और पांच साल पूरे होने के किस्से कई बार सुना चुके हैं। चर्चा की पहली पोस्ट लिखने के तीन दिन पहले की पोस्ट में (जब चर्चा जैसी चीज का कोई ख्याल नहीं था मन में) मैंने लिखा था:
    भारतीयब्लागमेला(वर्तमान) का उपयोग तो सूचनात्मक/प्रचारात्मक होता है.किसी चीज को पटरा करने के दो ही तरीके होते हैं:-

    1.उसको चीज को टपका दो(जो कि संभव नहीं है यहां)

    2.बेहतर विकल्प पेश करो ताकि उस चीज के कदरदान कम हो जायें.

    चिट्ठाचर्चा उस समय के कुछ अंग्रेजी से ब्लागरों से मिले झटकों की प्रतिक्रिया स्वरूप शुरू हुआ था। इस बारे में मैंने लिखा था:
    झटकों में ऊर्जा होती है.उसका सदुपयोग किया जाना चाहिये.बात बोलेगी हम नहीं.ऐसे अवसर बार-बार नहीं आते.पता नहीं अगली मिर्ची कब लगाये कोई.


    आज अंग्रेजी चिट्ठों का भारतीय ब्लॉग मेला बंद हो गया। लेकिन उससे मिले झटके से शुरु हुआ चिट्ठाचर्चा अभी भी चल रहा है।

    पांच साल से अधिक समय तक चिट्ठाचर्चा नाम के ब्लाग से जुड़े रहने के चलते इससे जुड़े डोमेन से लगाव सहज/स्वाभाविक बात है लेकिन यह लगाव मेरे लिये मात्र कौतूहल की बात ही रही। दोस्तों ने इसके फ़ायदे गिनाये तब भी। जब छत्तीसगढ़ के साथियों ने इसे लिया तब भी मेरी रुचि इस बात तक ही रही कि देखें कैसी चर्चा करते हैं साथी लोग। कल संजीत की पोस्ट पर इसका जिक्र देखकर अच्छा लगा कि कुछ लोग हैं जो ऐसा सोचते हैं।

    चिट्ठाचर्चा से मेरा जुड़ाव किसी बड़े तीस मार खां टाइप उद्देश्य के चलते नहीं है। न ही मुझे हिन्दी सेवा जैसा कोई मासूम भ्रम है कि इसके चलते हम हिन्दी की स्थिति में कोई उचकाऊ सेवा कर रहे हैं। अपनी बोल-चाल की भाषा होने के चलते इसमें अभिव्यक्ति से मुझे सुख मिलता है। मजा आता है। आनन्द मिलता है। पैसा-कौड़ी की कोई चाह इससे नहीं है मुझे। न ही कोई अन्य व्यापारिक उद्देश्य। अपने आनन्द के लिये जब समय मिलेगा तब चर्चा करते रहेंगे। जब तक मिलेगा करते रहेंगे।

    हमेशा की तरह आगे भी चिट्ठाचर्चा से जुड़े किसी भी मसले पर कोई भी निर्णय साथी चर्चाकारों की आमसहमति से ही होगा। लेकिन इस चिट्ठाचर्चा.कॉम नाम से जुड़ा कोई भी नैतिक/सामाजिक अधिकार का रोना हम नहीं रोयेंगे। कानूनी/व्यवसायिक अधिकार तो बनते ही नहीं। चिट्ठाचर्चा.कॉम जिसके नाम से लिया गया वह हमसे बाद की पीढ़ी का है। अपने से छोटों की उन्नति की किसी भी राह में रोड़ा बनकर हम अपनी नजर में छोटे नहीं होना चाहेंगे।

    फ़िलहाल इतना ही। आपको एक बार फ़िर से गणतंत्र दिवस मुबारक।

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    सोमवार, जनवरी 25, 2010

    ....जो छलके हर पग पर ऐसे घड़े बनो तुम

    सचिन ने आज एक दिवसीय मैचों और टेस्टमैच को मिलाकर नब्बेवां सैकड़ा ठोंक दिया और आज ही उनके कोच रमाकांत अचरेकरजी को पद्यश्री पुरस्कार देने की घोषणा की गई। टी.वी. पर सन 1988 में रचा गीत मिले सुर मेरा तुम्हारा बच रहा है। उत्तर भारत कोहरे की चपेट में ट्रेनों/हवाई उड़ानों को लेट होते और निरस्त होते देख रहा है। द्रविड़ का जबड़ा शतक बनने के बाद टूट गया है और वे भारत वापस हो गये हैं। गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर महामहिम राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल जी अपना संदेश दे चुकी हैं। मौसम विभाग की सूचना के अनुसार कल कोहरा कमा रहेगा। ऐसे में ब्लॉग जगत की कुछ कड़ियां लेकर आपके सामने आये हैं जी।

    चर्चा की शुरुआत शरद कोकास की कविता से :

    शरद कोकास
    नंगे पाँव रेत पर चलने का सुख
    सिर्फ उन्हे महसूस होता है
    जो कभी नंगे पाँव नहीं चलते ।
    बाक़ी के लिये
    सुख क्या और दुख क्या ?

    शरद कोकास की कविताओं पर अमरेन्द्र त्रिपाठी की टिप्पणी है--
    अनुभव तो सब करते हैं लेकिन कविता का जामा
    कलाकार ही बैठते हैं ,, यहाँ दिल्ली में रोशनी की
    इसी महानता (?) से मैं भी बावस्ता होता रहता हूँ ,, पढ़कर अच्छा लगा आभार


    अमरेन्द्र जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधछात्र हैं। अवध का यह बबुआ अपने ब्लॉग अवधी के अरघान
    में नियमित रूप से कौवा-बगुला संवाद करता है। इसके अलावा अवधी की प्रमुझ रचनाओं से परिचित कराने का प्रयास करते हैं अमरेन्द्र। मकर संक्रांति के अवसर पर इस त्यौहार की जानकारी अवधी में देते हुये अमरेन्द्र लिखते हैं:

    अमरेन्द्र
    ई गजब कै संजोग है कि कमोबेस यही समय पूरे भारत मा तिउहार मनावा जात है ..
    हाँ अलग -अलग नाम भले हुवैं तिउहार कै , मसलन तकरीबन यही समय ( यकाध दिन आगे
    पीछे) जम्मू, हरियाणा, पंजाब मा 'लोहड़ी' मनाई जात है , गुजरात औ महाराष्ट्र मा यहिका 'हडगा '
    के रूप मा मनावत हैं, असम कै उल्लास 'बिहू' के रूप मा सामने आवत है , बंगाल कै 'गंगासागर
    कै मेला' तौ बेजोड़ होबै करत है , तमिलनाडु मा 'पोंगल' अउर आन्ध्र मा 'उगादी' के मनावै कै
    जोरसोर से चलन अहै,छत्तीसगढ़ मा यहिका 'खिचड़ी अउर तिलगुझिया के तिहार' के तौर पै मनावत हैं सब,
    उत्तर प्रदेस बिहार, मध्य प्रदेस आदि जगहन 'खिचडी' ही मुख्य रूप से कहा जात है ई तिउहार,
    उत्तराँचल मा 'घुघुतिया या कालाकौवा' कै चलन अहै, बुंदेलखंड मा 'सुकरात' कहत हैं ... यहितरह
    भारत के विभिन्न भागन मा ई परब मनावा जात है


    अमरेन्द्र की इस रचना पर शिखा वार्ष्णेय का कहना है--थोड़ी मशक्कत करनी पड़ी पढने में ..पर जानकारी अच्छी लगी. अपनी कविता में शिखा लिखती हैं:

    शिखा वार्ष्णेय
    नजरें कुछ और कह रही
    लब की अलग कहानी है
    देते आगे से मिश्री और
    पीछे हाथ में आरी है

    कोई बड़ा हुआ है कैसे
    और कोई कैसे चढ़ा हुआ है
    खींचो पैर गिराओ भू पर
    ये किस की शामत आई है.
    इस कविता संगीता स्वरूप जी की प्रतिक्रिया है--आज के माहौल के अनुरूप रचना लिखी है....सच है कि आज के वक्त में दोस्ती से ज्यादा दुश्मनी पर भरोसा रहता है ..क्यों कि ये पता होता है कि कम से कम दुश्मन है...संगीताजी अपने ब्लॉग में मुक्तक सरीखी कविता लिखती हैं:

    संगीता स्वरूप
    ख़ामोशी के घुंघरू भी
    करते हैं बहुत शोर
    कभी कभी
    महफ़िल में भी
    तन्हाई होती है
    चारों ओर .

    अविनाश वाचस्पति अपनी गिरफ़्तारी के किस्से खुद ही सुना रहे हैं-... और एक हिन्‍दी ब्‍लॉगर अविनाश वाचस्‍पति गिरफ्तार

    उधर बालकिशन जी को न जाने कहां से बोध प्राप्ति हो गयी और वे कवि जयराम’आरोही’ को ले आये और कविता सुनवाये:

    बालकिशन
    अगर नहीं कुछ लिख सकते तो बड़े बनो तुम
    जो छलके हर पग पर ऐसे घड़े बनो तुम
    घड़े बनो और बांटो ब्लागिंग के रहस्य हो
    फिरो रात-दिन दो कमेन्ट तुम हर सदस्य को
    फिर देखो कैसे चलती तुम्हरी दूकान है
    इसी नींव पर खड़े हुए कितने मकान हैं


    कल हुये छ्त्तीसगढ़ ब्लॉगर सम्मेलन की बेबाक रपट संजीत त्रिपाठी पेश करते हैं। अनिल पुसदकर के बयान की जानकारी देते हुये संजीत लिखते हैं:

    संजीत त्रिपाठी
    अब तक इंटरनेट पर छत्तीसगढ़ को लेकर नकारात्मक बातें ही ज्यादा दिखाई देती हैं। इसलिए ब्लॉगर साथियों को अपने प्रदेश की छवि सुधारने की दिशा में कोशिश करनी होगी। उन्होंने आगे कहा कि कुछ लोग अपने ब्लॉग में छत्तीसगढ़ के विषय में दुष्प्रचार करने की कोशिश कर रहे हैं। छ्द्म नामों से लिखे जा रहे इन ब्लॉग्स की वजह से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छत्तीसगढ़ की छवि खराब हो रही है। उनके ब्लॉग से यह संदेश जा रहा है कि यहां भुखमरी, तबाही और नक्सली हिंसा के अलावा कुछ नहीं है। पुसदकर जी ने ऐसे दुष्प्रचारों का जवाब देने के लिए राज्य के सभी ब्लॉगरों का एक कम्युनिटी ब्लॉग बनाने की जरुरत पर जोर दिया।


    संजीत की इस पोस्ट में चिट्ठाचर्चा डोमेन नाम लेने पर उनकी राय और अन्य लोगों के विचार भी हैं। बैठक के मुख्य निर्णय रहे:

    1 छत्तीसगढ़ के ब्लॉगर्स एक कम्युनिटी ब्लॉग पर जरुर लिखेंगे।
    2 एक कार्यशाला आयोजित की जाएगी।
    3 राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन आयोजित किया जाएगा।


    संजीत को काफ़ी दिन बाद फ़िर से लिखने देखना सुखद रहा।

    अमरसिंह जी के ब्लॉग पर हिन्दी ब्लॉगर साथियों की टिप्पणियां काफ़ी होती हैं कारण कि वे हिन्दी में लिखते हैं।


    डा.अनुराग अपनी पोस्ट को किसी के भी ब्लॉग पर पोस्ट कर दें बिना कोई शीर्षक दिये तब भी उनके प्रेमी पाठक शायद पहचान लें कि यह अनुराग की ही पोस्ट है। अपनी पिछली पोस्ट में डा. ने लिखा:

    डा.अनुराग आर्य
    किसी पगले कवि ने पुजारी को “धार्मिक दिहाड़ी मजदूर “कहा है...मेरा ओर्थोपेडिक दोस्त अक्सर बहक कर अकेले में हमारे तबके को" पॉलिश्ड कमीनो की जमात " कहता है...भरे पेट की थ्योरी अलग होती है ……..”.हम साले स्वेच्छा से हिप्नोटाइज लोगो का समूह है “... डिक्शनरी ऐसे शब्द एक्सेप्ट नहीं करती ...ये "ऑफ दी रिकोर्ड"...... शब्द है ....वैसी आधी दुनिया ऑफ दी रिकोर्ड ही चलती है ....नैतिकता का मेनिफेस्टो ऐसा ही है ....कोई भी इसे हाइजेक कर सकता है ...यू भी कृत्रिम नैतिकताओं" के डाइमेंशन बड़े फ्लेक्सेबल है ...किस दरो-दीवार की ऊंचाई कितनी रखनी है कब किसको खींच कर बड़ा करना है .. सारे ऑप्शन खुले है ....


    सुरेश चिपलूनकर ने अपने ब्लॉग के तीन साल पूरे होने के मौके पर पोस्ट लिखी-- ब्लॉगिंग के तीन साल पूरे… सभी पाठकों, प्रशंसकों और आलोचकों को धन्यवाद… सुरेश जी को हमारी बधाई।

    गौतम राजरिशी आज परिचय करा रहे हैं गणितज्ञ गजलकार कुमार विनोद से। देखिये उनके कुछ शेर:

    कुमार विनोद
    काम पर जाते हुये मासूम बचपन की व्यथा
    आँख में रोटी का सपना, और क्या कुछ भी नहीं

    एक अन्जाना-सा डर, उम्मीद की हल्की किरण
    कुल मिलाकर जिंदगी से क्या मिला, कुछ भी नहीं

    एक खुद्दारी लिये आती है सौ-सौ मुश्किलें
    रोग ये लग जाये तो इसकी दवा कुछ भी नहीं

    वक्त से पहले ही बूढ़ा हो गया हूँ दोस्तों
    तेजरफ़्तारी से अपना वास्ता कुछ भी नहीं

    अनुराग शर्मा आत्महत्या की प्रवृत्ति पर अपनी राय देते हुये लिखते हैं:

    अनुराग शर्मा
    आज मैं अपने अनुभवों और मनन से यह भली प्रकार जानता हूँ कि आत्महत्या के बारे में मनुष्य तभी सोचता है जब वह जीवन से हार चुकता है। लड़ने के लिए भी जिजीविषा चाहिए. जिसमें वह नहीं है, भले ही एक क्षण के लिए, वह भला कैसे लड़ मरेगा? आत्महत्या के बारे में इतना और कहना चाहूंगा कि आत्महत्या करने वाले की तुलना डूबते हुए उस व्यक्ति से की जा सकती है जिसे तैरना नहीं आता है मगर रहना जल के बीच ही पड़ता है। इन लोगों को बचाने के लिए दूसरों की सहायता की ज़रुरत तो है ही, बचाने के बाद इन्हें तैरना भी सिखाना पडेगा। मतलब यह कि जीवन जीने की कला सिखाना ज़रूरी है, घर में हो, मंदिरों में या विद्यालय में।


    भद्र बंगाल का नया शगल : बीवियों के पोर्न वीडियो तसलीमा नसरीन का लेख है। इसमें बंगाली समाज के कुछ उदाहरण पेश करते हुये पतियों द्वारा अपनी पत्नियों की पोर्नोग्राफ़ी करने की बात से शुरू की गयी बात कही गई है। अंत में वे लिखती हैं:

    तसलीमा नसरीन
    पोर्नोग्राफी पर रोक कैसे लगे? समाज का सही चित्र न दिखाने की मंशा से ही तो वह सब दिखाया जाता है। अगर लोगों के मन-मस्तिष्क के भीतर किसी कोने में विकृति भरी हुई है तो आज नहीं तो कल भद्र कहे जाने वाले चेहरों पर से मुखौटा हटेगा ही। मेरा मानना है कि विकृति चिरस्थायी चीज नहीं है। स्वस्थ, सुंदर, समान अधिकार वाला समाज बनाने के लिए चल रही कोशिशों में स्त्री और पुरुष दोनों को मिल कर यह विकृति समाप्त करने की चेष्टा करनी ही होगी। इसे बुरी बात मान कर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से कुछ नहीं होगा। यह गंदगी पूरी दुनिया को अपने आगोश में लेती चली जाएगी। कानून बना कर और मानवाधिकारों के मामले में लोगों को शिक्षित करके ही इस विषमता और विकृति को रोकने में मदद मिल सकती है।

    यह याद रखना होगा कि जब तक देश, धर्म, वर्ग, वर्ण आदि से परे स्त्री को मनुष्य मानते हुए संपूर्ण अधिकार हासिल नहीं होता, स्त्री शिक्षित और आत्मनिर्भर नहीं होती, जब तक नारीविरोधी कुसंस्कार का पूरी तरह विलोप नहीं हो जाता, स्त्री शरीर को लेकर पुरुषों का विकृत उत्सव चलता रहेगा। बंगाल के मुंह छिपाने वाले हीरेन या तपन भी रक्को सिफ्रेदी बनने का सपना देखते रहेंगे।



    पवन


    और अंत में

    फ़िलहाल इतना ही। आप सभी को गणतंत्र दिवस की मंगलकामनायें। ऊपर का कार्टून मोहल्ला लाइव से साभार।

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    रविवार, जनवरी 24, 2010

    उर्दू ब्लॉग : मुझसे मेरा मजहब न पूछो!

    नेट पर हिन्दी सामग्री की प्रचुरता, उपलब्ध तकनीक इत्यादि पर अनुनाद अपनी बेहद बारीकी और पैनी नजर रखते हैं, और नेट पर उन्हें जमाने, लोगों को जागृत करने व सामग्री जुटाने, सहेजने में भी समर्पित भाव से लगे रहते हैं. विकिपीडिया के 50 हजार पन्नों के लक्ष्य को प्राप्त करने में भी उनका अच्छा खासा योगदान रहा है. इस साल के शुरूआत में उन्होंने उर्दू से हिन्दी ऑनलाइन लिप्यंतरण का एक बढ़िया स्थल खोज निकाला. वैसे तो और भी हैं, और स्वयं अनुनाद ने एक औजार विकसित किया था, मगर ये सभी इतने सफल तरीके से उर्दू से हिन्दी में लिप्यंतरण नहीं कर पाते थे. हिन्दी से उर्दू में लिप्यंतरण तो आसानी से हो जाता है क्योंकि हिन्दी जैसी बोली वैसी पढ़ी-लिखी जाने वाली भाषा है. मगर उर्दू में लिखी गई चीज को संदर्भानुसार पढ़ा जाता है जैसे कि उर्दू में लिखे गए पूना शब्द को आप पोना पुना इत्यादि कुछ भी पढ़ सकते हैं. तो ऐसे में शानदार किस्म की कम्प्यूटिंग लॉजिक और विशाल वाक्यभंडार के बगैर परिशुद्ध ऊर्दू-हिन्दी लिप्यंतरण संभव नहीं था. पर मामला काफी कुछ काम लायक बन गया प्रतीत होता है.

    तो, आइए, इसी उर्दू से हिन्दी लिप्यंतरण औजार के भरोसे (यहाँ परिवर्तन हेतु पाठ को टैक्स्ट बॉक्स में भरना पड़ता है. यदि गूगल/गिरगिट लिप्यंतरण जैसे प्रॉक्सी सर्वर पर ये उपलब्ध हो जाए तो क्या कहने! वैसे, एक और ठीक-ठाक किस्म का ऑनलाइन उर्दू-लिप्यंतरण औजार यहाँ पर भी है) कुछ उर्दू ब्लॉगों पर हिन्दीमयी नजर डालें -

     

    बज़्मे उर्दू – पुणे, एक सफर की झलकियाँ...

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    “...किताबों और अपने कॉलिज के माहौल से निकल कर नए शहर की आब-ओ-हुआ और लोगों से भी रोशनास हूं ।

    बक़ौल ग़ालिब
    बख़्शे है जिलो-ए-गुल ज़ौक़-ए-तमाशा ग़ालिब
    चश्म को चाहीए हर रंग में वा हो जाना ।

    शहर पूना में कई काबिल-ए-दीद मुक़ामात हैं ।शनिवार वाड़ा,कीलकर म्यूज़ीयम,आग़ा ख़ां पैलेस ,सारस बाग़ ,स्नेक पार्क ,आज़म कैंपस ,वग़ैरा
    हमारी मीटीनग का दूसरा दिन था।सुबह तक़रीबन साढे़ आठ बजे में और तोसीफ ओटो के ज़रीये डक्कन बस स्टाप पहुंचे ।पता चला पूना दर्शन ,एक बस दिन भर शहर की सैर कराती है ।एक सौ चालीस रूपए का टिकट तोसीफ के लिए ख़रीदा और वहीं हल्का सा नाश्ता कर के तोसीफ बस में सवार हो गए । सुबह नौ बजे से शाम पाँच बजे तक के इस सफ़र में कई मुक़ामात हैं जिन में कई मंदिर और तारीख़ी इमारात भी शामिल हैं । में तो बाल भारती चला आया और तोसीफ शाम तक पूना दर्शन में मश़गूल रहे । इस सफ़र की चंद तसवीर यहां पेश की जा रही हैं...”

    रिजवान के ब्लॉग शराब पर ये मजाहिया शाइरी मुलाहिजा फरमाएँ :

    काफ़ी वक़्त के बाद कुछ लिखने की हिम्मत हुई है कभी फुर्सत, कभी तबीयत, कभी नीयत बस कुछ ना कुछ रुकावट बनती रही।
    चलें शुरू फ़राज़ के नाम से
    (आप के लिए पुराने हों तो नशर मुक़र्रर समझीए)
    एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद-ओ-अय्याज़
    और उन की जूतीयां ले के भाग गया फ़राज़

    फ़राज़ की शादी में हुए इतने फूल निछावर
    कैमरा मैन फ़राज़ के साथ जीव न्यूज़ पिशावर

    ये किया तो सफ़ैद करते में फिर रहा है फ़राज़
    इज काला जूडा पा साडी फ़रमाइशते

    इस ने मुझे रात को जंगल में छोड दिया फ़राज़
    ये कह कर कि प्यार किया तो डरना क्या

    एक नफ़रत ही नहीं दुनिया में दर्द का सबब फ़राज़
    सुना है इंजेक्शन की सूई भी दर्द देती है

    दर दर फिरते हैं ग़म-ए-इश्क़ के मारे
    सूफ़ी स्वॅप के लशकारे जगमग कपड़े सारे

    लैला की शादी में लफ़ड़ा हो गया
    इतना नाचा फ़राज़ कि लंगड़ा हो गया

    इतना सुन कर ही हमारा दिल टूट गया फ़राज़
    The number you have dialed is busy on another call

    मुझ से लोग मिलते हैं मेरे अख़्लाक़ की वजह से फ़राज़
    हूर मेरे कोई समोसेते नईं मशहूर

    वो हमें बेवफ़ा कहते हैं तो कहते रहें फ़राज़
    अम्मी कहती हैं जो कहता है वो ख़ुद होता है

    फ़राज़ तुम्हारे जाने से दिल बहुत रोता है
    ऊपर पंखा चलता है नीचे मुंह सविता है

    चलो फ़राज़ अब मौसम का मज़ा चखीं
    तमाम दवाएं बच्चों की पहुंच से दूर रखें

    अब तो डर लगता है खोलने से भी दराज़
    कहीं ऐसा ना हो कि इस में से भी निकल आए फ़राज़

    ऊर्दूदाँ का ये दिलचस्प किस्सा पढ़िए :

    अक्सर मेरी बात एक पाकिस्तानी इंजीनयर से होती रहती है। ये जनाब पाकिस्तान से कैन्डा बड़े ख़ाब ले कराए तो थे, लेकिन यहां आकर फ़ी अल्हाल चौकीदारी कर रहे हैं। ख़ैर ये हालात का तक़ाज़ा है।
    मैं इन से बात कर रहा था और इसी दौरान मैंने ज़िक्र किया कि आज कल ज़ाती तौर पर में "इंटरनैट तालीमी ताश" बनाने में मसरूफ़ हूं। बात आगे बढ़ी तो मैंने उन से पूछा कि आया वो तालीमी ताश तलाश करने में मेरी मदद कर सकते हैं। उन्हों ने अक़्दा खोला कि वो तालीमी ताश के बारे में कुछ नहीं जानते, ना ही उन्हों ने कभी खेला है।
    जब मैंने पूछा कि क्या वो "इसकरैबल" के बारे में जानते हैं तो उन्हें ने हां मैं जवाब दिया। में यक़ीन से नहीं कह सकता कि वो सच मुच इस खेल से वाक़िफ़ हैं या नहीं।
    उन्होंने मुझे मशवरा दिया "आप तालीमी ताश के बजाए असकरेबल क्यों नहीं खेल लेते"
    मैंने जवाब दिया "में खेलना नहीं चाहता बल्कि आप को खेलते देखना चाहता हूं।

    अहमद फ़राज की कुछ ग़ज़लें यहाँ छपी हैं. पेश है एक ग़ज़ल –

    कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो
    बहुत कड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो


    तमाम उम्र कहां कोई साथ देता है
    ये जानता हूं मगर थोड़ी दूर साथ चलो


    नशे में चूर हों में भी तुम्हें होश नहीं
    बड़ा मज़ा हो अगर थोड़ी दूर साथ चलो


    ये एक शब की मुलाक़ात भी ग़नीमत है
    किसे हैकल की ख़बर थोड़ी दूर साथ चलो


    अभी तो जाग रहे हैं चिराग़ राहों के
    अभी है दूर सह्र थोड़ी दूर साथ चलो


    तवाफ़ मंज़िल जानां हमें भी करना है
    फ़राज़ तुम भी अगर थोड़ी दूर साथ चलो


    ।।। अहमद फ़राज़ ।।

    शुएब हिन्दी में भी लिखते हैं, भारत से उर्दू के पहले चिट्ठाकार हैं. अपने एक पोस्ट पर वे पूछते हैं -

    मुझ से मेरा मज़हब ना पूछो!
    ख़्याल अपना, मज़हब और में
    बस में ट्रेन में प्लेन में या जहां कहीं भी कोई नया मिल जाए, बात चीत शुरू होती है फिर नाम पूछते हैं तो जवाब में बोलता हूं कि मेरा नाम शुऐब है तो वापिस कहते हैं ओह आप मुस्लमान हो?
    मेरे दिल में एक ही जवाब गुस्से में निकलता है तेरी मां की &&& तेरी बहन की &&&
    मेरे पेट पर घूंसा मॉरो, पीठ पर लात मॉरो लेकिन इस से भी ज़्यादा गु़स्सा मुझे तब आता है जब कोई मुझ से मेरा मज़हब पूछता है लगता है जैसे मेरी मां बहन को गाली दे रहा है में इन्सान हूं और हिंदूस्तानी भी
    आप से गुज़ारिश है कि सफ़र में या कहीं भी अजनबीयों से इन का मज़हब ना पूछें और अपना मज़हब ना बताएं वर्ना बात चीत का ख़ुशगवार मूड कहां से कहीं और निकल जाता है ये नया ज़माना है, हम सभी को साथ मिलकर रहना है

    कुछ और उर्दू ब्लॉग आप यहाँ देख सकते हैं.

     

    अंत में, देखें फैज अहमद फैज की शायरी – साभार उर्दू के नाम

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    शुक्रवार, जनवरी 22, 2010

    चिट्ठाचर्चा: कतरनों और सुर्खियों में

     

    पाबलाजी बाकी कामों के अलावा एक शानदार काम अलग अलग अखबारों में हिन्‍दी ब्‍लॉगों के उल्‍लेख की कतरनों को पोस्‍ट करने का भी करते हैं। सही भी है अपने ब्लॉग की कतरन पढ़ने में जो आनंद है वो बहुत कम चीजों में मिलता है। तो आज की चर्चा में हम एक खास अखबार चिट्ठाचर्चा टाईम्‍स से कल के चिट्ठासंसार की सुर्खियॉं लेकर हाजिर हुए हैं। अखबार की कतरन पर क्लिक करने से आप उस ब्‍लॉग पर जा पहुँचेंगे जिसकी चर्चा इस कतरन में है। तो लीजिए मजा छपास का...

     

     

     

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    समीर लाल says:

     

     

     

    एक नई सुबह हुई है. आप आगाज़ किजिये नये मूल्यों के साथ एक साफ सुथरी पार्टी का जिसमें मौकापरस्तों के लिए कोई जगह न होगी. प्रोफेशनलस को लिजिये. एक नये युग का शंखनाद करिये. टोरंटो से मैं पहला व्यक्ति होंगा जो आपकी पार्टी ज्वाईन करेगा अगर भारत की राजनित के सुधार के लिए उचित कदम उठाने की पहल हो. इस हेतु भारत लौटना भी मुझे मंजूर है.

    आज आप स्वतंत्र हैं. नये सिरे से शुरुवात करिये. हमें इन्तजार होगा.

     

     

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    (अखबार रोमन लिपि में है क्‍योंकि कतरन बनाने के लिए जिस औजार न्‍यूजपेपर क्लिपिंग जनरेटर का इस्‍तेमाल किया है वो देवनागरी यूनीकोड के साथ काम नहीं कर रहा है। इसलिए पहले गूगल के स्क्रिप्‍ट कन्‍वर्टर का इस्‍तेमाल कर ब्‍लॉग की भाषा हिन्‍दी तथा लिपि रोमन की, तब इसकी कतरने बनाई हैं)

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