रविवार, अक्तूबर 31, 2010

पुराने डायरी का पन्ना डायरी से निकलकर नेट पर पहुंचा। कांधे से तिल बरामद!

 
1.पर्यटन क्या है? : खबरदार जो किसी ने बताया कि सूटकेस भर कर घर लौटना पर्यटन है।
2.फ़ुरसत में... भ्रष्‍टाचार पर बतिया ही लूँ !: अरे बतियाते रहेंगे कि कुछ अंजाम भी देंगे।

3...........क्या चीज है यह जिंदगी ?: बूझॊ तो जानें
4.काश्मीर को आज़ाद होना चाहिए -- भूखे नंगे हिंदुस्तान से -- अरुंधती रॉय: का ही जुमला हो सकता है यह!
5.एक ठो कुत्ता रहा ...:ऊ भर जिंदगी खंभा खोजता रहा। 
6.हिन्दी न्यूज़ चैनलों की घड़ी ठीक हो गई क्या?: घड़ी का छोड़िये लोग वक्त बदलने की मांग कर रहे हैं।
7.मुखरित मौन ...: शब्द का बहिष्कार!
8.हम तो हैं मुसाफिर....: टिप्पणी की तलाश में!
9.सरदार पटेल को याद करें: एक दिन की ही तो बात है कर लेते हैं।
10.पुराने डायरी का पन्ना: डायरी से निकलकर नेट पर पहुंचा। कांधे से तिल बरामद!
11.निशाचरण: रे दुखवा रे जा जा ओ रतिया के छैला
12.प्रभा खेतान और ‘पीली आंधी’: शब्दों के सफ़र पर।

 13.फ़िक्शन: छत पर चांदनी और हमारी बेगम अख्तर!

14." पल जो हमने साथ गुजारे थे.. ": अब उनका कापी पेस्ट हो रहा है।
15.इस हमाम में सभी नंगे हैं: और पानी का कहीं अता-पता नहीं।

16.शरद ऋतु में काव्य खिलता है: ठिठुरते हुये?

17.मेरी प्रेम कुटी में आना: रोने का इंतजाम पूरा है वहां!

18.वर्धा-हिंदी का ब्लॉगर बड़ा शरीफ़ टाइप का जीव होता है: जरा-जरा सी बात पर खुश हो जाता है।

19.दुनिया का सबसे अच्छा संदेश...खुशदीप: के अलावा कौन दे सकता है।

20.नमस्कार !: बीस पोस्ट में अंतिम नमस्कार! बड़ा तेज ब्लॉग है।

21."घर से ऑफिस के बीच": एक बेचारा नौकरी शुदा आदमी फ़ंस गया।

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गुरुवार, अक्तूबर 21, 2010

सस्ते पैनो से भी लिखी जा सकती है अच्छी कविता.......

प्लेटफोर्म पर किताबो में सर गडाए बैठी है कुछ .ये कवियों के प्रेम की शिकार महिलाए है जो खूब किताबे पढ़ती है ओर रोते रोते कवियों को गालिया दिया करती है ....................
अच्छी चीजों से जुड़ा सबसे बड़ा विकार है की उन्हें इतना बार दोहराया जाता है की उनका होना एक मामूली सा हो जाता है कि उनकी अच्छाई एक उबाऊ अच्छाई में बदल जाती है .........
 कथा देश में गीत चतुर्वेदी........
पढना भी एक सतत प्रक्रिया है .जो कभी ख़त्म नहीं होती  ..उम्र बीतते बीते अक्सर आप पुरानी किताबों को उठाकर दोबारा पढ़ते है ओर उनके भीतर नए अर्थो को पाते है ...ओर कभी ..कभी किसी लेखक को बरसो बाद उसकी वेव लेंथ में जाकर पकड़ पाते है ....ओर लिखना ? एक लेखक कभी कभी लिखने के बारे में भी लिखता है .....
 

जब आप नहीं लिख रहे होते, तब आप क्या कर रहे होते हैं? मैं ज़्यादातर समय नहीं लिख रहा होता। ज़्यादातर मैं पढ़ रहा होता हूं, संगीत सुन रहा होता हूं, कोई फिल्म देख रहा होता हूं या यूं ही नेट सर्फ कर रहा होता हूं। मैंने पाया है, ईमानदारी से, कि जिन वक्तों में मैं नहीं लिख रहा होता, वह मेरे लिए ज़्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि असल में मैं उन्हीं वक्तों में लिख रहा होता हूं।

अच्छी चीज़ों का सबसे बड़ा गुण या अवगुण यह है कि आप पर उसका कोई भी असर पड़े, उससे पहले वह आपको भरमा देती है। अच्छी कविता तो सबसे पहले भरमाती है। वह आपके फैसला करने की क्षमता को कुंद करती है और फैसला देने की इच्छा के लिए उत्प्रेरक बन जाती है। वह तुरत आपके मुंह से यह निकलवाती है- यह क्या बला है भला? ऐसा कैसे हो सकता है? फिर वह धीरे-धीरे आपमें प्रविष्ट होती है। यही समय है, जब आपकी ग्रहण-क्षमता की परीक्षा होनी होती है। आप उसे अपने भीतर कितना लेते हैं, इसमें अच्छी रचना का कम, आपका गौरव ज़्यादा होता है।

गीत जी को  किसी औपचारिक परिचय की जरुरत नहीं है ..यदि आप कंप्यूटर का एक   इस्तेमाल कुछ अच्छी चीजों को  पढने के लिए  करने वाले में से एक है तो उनका  ब्लॉग   भाषा शब्दों ओर संवेदनाओं के कई   नये स्तरों को अपनी तरह से परिभाषित करता है .उनके पास विचारो की एक नैसर्गिक जमीन है...पूरा लेख पढने के  उनके ब्लॉग बैतागवाडी  पर यहाँ क्लिक करिए


साहिर से बरसो पहले एक नज़्म लिखी थी ".वो सुबह कभी तो आएगी.."....उम्मीद से लबालब.भरी हुई....पर आजकल की  नौजवान पीढ़ी सपनो को भी खुरच कर उसके नीचे की तहों को जांचना  चाहती  है ...उसे  फतांसी से गुरेज नहीं है ...पर  इस दुनिया में कुछ विलक्षण होने की उम्मीद   भी नहीं....
  श्रीश यथार्थ से सीधे भिड़ते है ... 

मुझे उम्मीद नही है,
कि वे अपनी सोच बदलेंगे..
जिन्हें पीढ़ियों की सोच सँवारने का काम सौपा है..!
वे यूँ ही बकबक करेंगे विषयांतर.. सिलेबस आप उलट लेना..!

उम्मीद नही करता उनसे,
कि वे अपने काम को धंधा नही समझेंगे..
जो प्राइवेट नर्सिंग होम खोलना चाहते हैं..!
लिख देंगे फिर एक लम्बी जांच, ...पैसे आप खरच लेना.

दुर्भाग्य  से  हकीक़त  का  कोई  वैकल्पिक  स्रोत   नहीं  होता ….सो सीधी मुठभेड़ अनिवार्य है ..बौदिक मुहावरों की परत उतारे बगैर ....पोलिटिकली अन करेक्ट होने का खतरा उठाते हुए  .....तल्खी के थोडा नजदीक ........
दर्पण अपना हस्तक्षेप  जारी रखते है
पास्ट -परफेक्ट ,प्रेजेंट -टेस


वो क्रांतियों के दिन थे.
और हम,
मार दिए जाने तक जिया करते थे.
सिक्कों में चमक थी.
उंगलियाँ थक जाने के बाद चटकती भी थीं.
हवाएं बहती थीं,
और उसमें पसीने की गंध थी.
पथरीले रास्तों में भी छालों की गिनतियाँ रोज़ होती थी.
रोटियां,
तोड़के के खाए जाने के लिए हुआ करती थीं.
रात बहुत ज्यादा काली थी,
जिसमें,
सोने भर की जगह शेष थी.
और सपने डराते भी थे.
अस्तु डर जाने से प्रेम स्व-जनित था.



ओम जिंदगी की हकीक़तो को कोमल  तरीके से टटोलने वाले कवि है .वे बिना पेचीदा हुए .....रिश्तो पर अपना फ़िल्टर रखते है ...ओर उनकी जटिलताओ  आसानी से बयां .....उनके पास कई रंग है कुछ ठहरे हुए ...कुछ मिले जुले ..इच्छाओ के अँधेरे में ये रंग अलग चमकते है

यह बिलकुल हीं रात है
और इसकी परिधि के भीतर
ठीक चाँद इतनी खाली जगह है
और बाकी सभी जगह अमावस बिछी हुई है

इस वक्त उस खाली जगह को महसूसना हीं
मेरी कविता है
और उसे लिख देना
तुम्हें पा लेने जैसा है

पर तुमने जाते हुए
वक्त को दो हिस्सों में बाँट दिया था
और वक्त का वो हिस्सा जिसमें कवितायेँ
लिखी जानी थी,
अतीत में गिर गया है
महेन भी एक युवा कवि है ...उनकी अपनी अलग संवेदनाये है ....अपनी अलग बैचेनिया ......अपने नजरिये ........वे मानवीय जिजीविषाओ की   रोजमर्रा की कुछ साधारण घटनाओं में से  उम्मीद तलाशते है ....ओर अपने सपने बचाए रखते है.......उनका पता है हलंत
थोड़ी सी उद्दिग्नता बची रहेगी ह्रदय में
आँखों मे बची रहेगी सुंदरता देखने की थोड़ी बहुत समझ
शब्दों में अर्थ खोजने की हिम्मत बची रहेगी
बची रहेगी अभी कुछ दिन और जीने की इच्छा
थोड़ी सी उदासी बची रहेगी हँसी के साथ
उष्णता बची रहेगी स्पर्श में थोड़ी बहुत
शिशु की मुस्कान में बची रहेगी थोड़ी उम्मीद
और पुलक बची रहेगी एक लड़की की चुप्पी में
जब हम जानेंगे अभी बचा हुआ है
थोड़ा बहुत प्रेम हमारे आसपास

कविताओ से गुजरते हुए ये भी सवाल उठता है के इसकी कितनी आवश्यकता है ?....दरअसल कविता है क्या ....इस सवाल का एक जवाब प्रियंकर जी कुछ यूँ देते है
कविता हमारे अंतर्जगत को आलोकित करती है । वह भाषा की स्मृति है । खांटी दुनियादार लोगों की जीवन-परिधि में कविता कदाचित विजातीय तत्व हो सकती है, पर कविता के लोकतंत्र में रहने वाले सहृदय सामाजिकों के लिये कविता – सोशल इंजीनियरिंग का — प्रबोधन का मार्ग है । कविता मनुष्यता की पुकार है । प्रार्थना का सबसे बेहतर तरीका । जीवन में जो कुछ सुघड़ और सुन्दर है कविता उसे बचाने का सबसे सशक्त माध्यम है । कठिन से कठिन दौर में भी कविता हमें प्राणवान रखती है और सीख देती है कि कल्पना और सपनों का संसार अनंत है ।कविता एक किस्म का सामाजिक संवाद है ।

उपरोक्त पंक्तिया उनके ब्लॉग  पर ६ अगस्त की पोस्ट से ली गयी है .......बिना उनका शुक्रिया अदा किये हुए .....मुझे लगा कविता का  इतना बेहतर   परिचय बांटना उचित है.......ओर आखिर में अपने फेवरेट शायर को याद करते हुए उनकी एक नज़्म के साथ.......

दिल्ली - पुरानी दिल्ली की दोपहर


लू से झुलसी दिल्ली की दोपहर में अक्सर
चारपाई बुनने वाला जब
घंटा घर वाले नुक्कड़ से, कान पे हाथ रख कर
इक हांक लगता था - ’चार पाई. बनवा लो...’
खसखस कि टट्यों में सोये लोग अन्दाज़ा लगा लेते थे.. डेढ़ बजा है..
दो बजते बजते जामुन वाला गुजरेगा

’जामुन.. ठन्डे.. काले जामुन’

-गुलज़ार 

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सोमवार, अक्तूबर 18, 2010

सोमवार १८.१०.२०१० की चर्चा

नमस्कार मित्रों!

मैं मनोज कुमार एक बार फिर हाज़िर हूं।

आज विजयदशमी है। असुरों पर विजय के उपलक्ष्य में हम विजयादशमी का पर्व मनाते हैं।  बिना विनय के विजय नहीं टिकती। आज कोलकाता में “मांएर बिदाई” है। पिछले चार पांच दिनों के उत्सवीय माहौल के बाद आज सेनूर खेला होगा और फिर कोला-कोली। हम सब एक दूसरे से गले मिलेंगे। प्रेम-सौहार्द्र और भाईचारे का प्रतीक। विनय हो तो यह भी टिकाऊ है वरना … यहां तो हर कोई … समझदार है।

वर्धा चर्चा की चर्चा की आंच चारो तरफ़ फैली है। हम अपने लिए आचार संहिता बना लें। तभी हमारे आचरण में बदलाव आएगा। हर कोई दुनिया को बदलना चाहता है, लेकिन खुद को बदलने के बारे में कोई नहीं सोचता। ये मैं नहीं कहता। कहीं पढा था। मन किया तो लिख दिया। दुनिया बदलने का काम आसान नहीं। पर हौसला होना चाहिए।

ये माना है मुश्किल सफ़र ज़िन्दगी का,

मगर कम न हो हौसला आदमी का.

ये भी मैं नहीं कहता। ये कहना है कुँवर कुसुमेश जी का! (title unknown) उनकी ग़ज़ल का शीर्षक है अंधरों से कोई भी डरने न पाए / अंधरों पे कब्ज़ा रहे रोशनी का!

पर सवाल है कि इसे समझे कोई तब ना। कहते हैं

समझने को तैयार कोई नहीं है,

किसे फ़र्क समझाऊँ नेकी-बदी का.

जुलाई से ब्लॉगिंग कर रहे हैं। इन तीन-चार महींनो में महज़ तीन पोस्ट आई है, जो इस बात का द्योतक है कि वो कंटेट और क्वालिटी में विश्‍वास रखते हैं, क्वांटिटी में नहीं। एक और क्वालिटी के पोस्ट में वो कहते हैं,

विरासत को बचाना चाहते हो ,

कि अस्मत को लुटाना चाहते हो.

तुम्हारी सोंच पे सब कुछ टिका है,

कि आख़िर क्या कराना चाहते हो.

बहुत संवेदनशील और जिम्मेदारियों का एहसास करने वाली रचना लिखते हैं कुंवर जी, यह तो आभास हमें हो ही गया है, और मुझे विश्‍वास है कि आने वाले दिनों में इनकी पोस्ट इस बात की तसदिक करेगी। कुंवर जी मूलतः एक कवि हैं और इनके तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।

इनकी रचनाओं का उत्कर्ष ही यही है कि यह जीवन के ऐसे प्रसंगों से उपजी है जो निहायत गुपचुप ढंग से हमारे आसपास सघन हैं लेकिन हमारे तई उनकी कोई सचेत संज्ञा नहीं बनती। कुंवर जी उन प्रसंगों को चेतना की मुख्य धारा में लाकर पाठकों से उनका जुड़ाव स्थापित करते है।

दौरे- मुश्किल से जो बचा जाये,

मुश्किलों में वही फँसा जाये .

ये उलट - फेर का ज़माना है,

आजकल किसको क्या कहा जाये.

इनकी रचनाएं एक ऐसी संवेद्य रचनाएं हैं जिसमें हमारे यथार्थ का मूक पक्ष भी बिना शोर-शराबे के कुछ कह कर पाठक को स्पंदित कर जाता है। मानवीय मूल्यों के अवमूल्यन को समय के ठहराव के बिम्ब पर प्रवाहित इनकी ग़ज़लें मन को बहुत झकझोड़ती हैं। रचनाएं भाषा शिल्‍प और भंगिमा के स्‍तर पर समय के प्रवाह में मनुष्‍य की नियति को संवेदना के समांतर, दार्शनिक धरातल पर अनुभव करती और तोलती है।  

new parichay

अब एक कार्टून

कार्टून:- रावण के बाक़ी मुंहों का जुगाड़ भी हो गया...

दहन होगा ना इस पुतले का ...?!

 

My Photoमेरे ऊपर पूछे गए प्रश्‍न का उत्तर मिले या ना मिले राजेन्द्र स्वर्णकार जी बड़े अच्छी बात कह गए हैं, दोहों में। देखिए शस्वरं पर उनकी पोस्ट कितने रावण !

हालाकि इस विषय पर मैं उनसे न सहमत होते हुए पुरातन पंथी कहलाना पसंद करूंगा पर उनकी सोच कहीं न कहीं सही ज़रूर है। एक और दिक़्क़्त आई मुझे कि उनके ब्लॉग पर ताला लगा हुआ है इसलिए कुछ कोट करना मेरे लिए संभव नहीं है। हां टिप्पणियों से ही कुछ बातें और उस पोस्ट की विशेषता समझाने की कोशिश करता हूं।

दोहों के विषय में क्या कहा जाए सभी आईना दिखा रहे हैं .....! रावण कहाँ नहीं दिखता ...'यहाँ' भी और समाज में भी .....!! अपनी रचना में उन्होंने कहा है रावण दहन के पीछे इतना धन व्यय करने के बजाए गरीबों को बाँट दिया जाये ...जलने के बाद भी रावण कहाँ मरते हैं .....वो तो हम सब में जिन्दा है ....!!  अगर किसी एक का भी घर ग़रीबी की मार झेल रहा है तो रावण कहां मरा? अगर अशिक्षा, भुखमरी जैसी स्थिति है तो इसका मतलब किसी न किसी रूप में रावण का विद्यमान होना ही है!

लीक से हटकर सोचने का साहस बहुत कम लोग करते हैं। राजेन्द्र जी ने किया है। मुझे पोस्ट अच्छी लगी और रवाण दहन की परंपरा बंद हो इस से इत्तेफ़ाक़ न रखते हुए भी यह मानता हूं कि सचमुच आज रावण चारों ओर दिखाई दे रहे हैं , विभिन्न रूपों में। पर दहन न कर क्या हम जो चाहते हैं पा लेंगे? हां यह अवश्य है कि आज के परिवेश में विचारों में परिवर्तन की ज़रुरत है। एक और टिप्पणी अच्छी लगी उसे भी पेश करता हूं, ये टिप्पणी उन्हीं कुंवर जी की है जिनकी चर्चा ऊपर कर आया हूं-

लेखन में ज़बरदस्त मेसेज और शैल्पिक कसाव देखने को मिलता है. मेरा भी एक दोहा देख लें:-
राम तुम्हारी भी रही, लीला अपरम्पार.
एक दशानन मर गया, पैदा हुए हज़ार
.

  पुनश्च :

राजेन्द्र जी ने मेल से अपनी पोस्ट भेजी है, कुछ चुने हुए दोहे लगा रहा हूं-

काग़ज़ और बारूद का पुतला लिया बनाय !

घट में रावण पल रहा , काहे नहीं जलाय ?!

लाख – करोड़ों खर्च कर’ हाथ लगावें आग !

इससे बेहतर , बदलिए दीन – हीन के भाग !!

लाखों हैं बेघर यहां , लाखों यहां ग़रीब !

मत फूंको धन , बदलदो इनका आज नसीब !!

हर बदहाली दहन हो , जिससे देश कुरूप !

रोग अशिक्षा भुखमरी , रावण के सौ रूप !!

विजय पर्व आधा अगर , इक राजा इक रंक !

पूर्ण विजय होगी , मिटे जब हिंसा - आतंक !!

आइए अब आपको एक यथार्थ से रू-ब-रू करवाते हैं। जैसा कि आपको मालूम है कि हम ब्लॉग की चर्चा कर रहे हैं तो यह भी एक ब्लॉग ही होगा। इस पर रेखा श्रीवास्तव जी बता मेरा फोटोरही हैं कि कुछ लोग आज भी (लिंक है) संकीर्ण मानसिकता के शिकार हैं और पुनर्विवाह हो जाने के बाद भी एक विधवा को सधवा मानने को तैयार नहीं हैं। आहत स्वर में कहती हैं,

“हम कहाँ से कहाँ पहुँच रहे हैं और हमारी सोच कहीं कहीं हमें कितना पिछड़ा हुआ साबित कर देती है? हमें अपने पर शर्म आने लगती है.”

इस आलेख में सदियों से मौजूद स्‍त्री विषय कुछेक प्रश्‍न ईमानदारी से उठाए गए हैं। अपनी शिकायत दर्ज कराई गई है  स्‍त्री नियति की विविध परतों को उद्घाटित किया गया है और भेद-भाव की शिकार स्‍त्री को विद्रोह के लिए प्रेरित भी किया है।

 

चाहते हो गर 

अग्नि से बचना 

तो ,

जुगुप्सा की प्यास पर 

काबू पाओ 

मिल जायेंगे फिर 

मीठे झरने 

बस तुम 

चिंगारी को 

मत हवा दिखाओ ...

My Photoकहना है संगीता स्वरूप जी का। अपनी पोस्ट जुगुप्सा की प्यास के ज़रिए संयत कवित्‍व से भरपूर कविता द्वारा वो बताती हैं कि

बढ़ जाती है तब

जुगुप्सा की प्यास 

न ही कोई शीतल 

झरना  बहता है   

अपने - अपने 

अहम के दावानल में 

फिर इंसान 

स्वयं ही 

स्वयं को झोंकता है .

उनका व्‍यापक सरोकार निश्चित रूप से मूल्‍यवान है। काव्‍यभाषा सहज है। इनमें कल्पना की उड़ान भर नहीं है बल्कि जीवन के पहलुओं को देखने और दिखाने की जद्दोजहद भी है।

एक और पोस्ट रेखा जी का आज द्रवित कर गया। पोस्ट का शीर्षक है समझौते से मौत तक ! पोस्ट है नारी ब्लॉग पर। ब्लॉग खुलते ही एक गाना शुरु हो जाता है , फ़िल्म साधना का

जिस कोख में इनका जिस्म ढला

उस कोख का कारोबार लिया

जिस कोख से जनमे कोपल बन कर

उस तन का करोबार किया

औरत ने जनम दिया मरदों को

मरदों ने उन्हें बाज़ार दिया

रेखा जी कहती हैं

“दहेज़ हत्याओं पर अभी अंकुश नहीं लगा है और न ही लगेगा जब तक कि दहेज़ देने और लेने वाले इस समाज का हिस्सा बने रहेंगे. फिर जब देने वाले को अपनी बेटी से अधिक घर और प्रतिष्ठा अधिक प्यारी होती है और समाजमें अपनी वाहवाही से उनका सीना चौड़ा हो जाता है तो फिर क्यों आंसूं बहायें?”

एक दहेज के कारण हुई मौत का हवाला देते हुए कहती हैं

“दहेज़ के विवाद को समझौते या किसी तरह से खुद को बेच कर लड़के वालों की मांग पूरी करने की हमारी आदत ही हमारी बेटियों की हत्या का कारण बनता है. जहाँ बेटी सताई जाती है, वहाँ के लोगों की मानसिकता जानने की कोई और कसौटी चाहिए? अगर नहीं तो समझौतों की बुनियाद कब तक उसकी जिन्दगी बचा सकती है? इनके मुँह खून लग जाता है वे हत्यारे पैसे से नहीं तो जान से ही शांत हो पाते हैं. ऐसे लोग विश्वसनीय कभी नहीं हो सकते हैं. इसमें मैं किसी और को दोष क्यों दूं? इसके लिए खुद माँ बाप ही जिम्मेदार है , जिन्होंने अपनी सामर्थ्य से अधिक दहेज़ माँगने वालों के घर में रिश्ता किया. उसे अपने पैरों पर खड़ा होने दीजिये. अब मूल्य और मान्यताएं बदल रहीं है. बेटी किसी पर बोझ नहीं है वह अपना खर्च खुद उठा सकती है. उस घर में मत भेजिए कि उसके जीवन का ही अंत हो जाये.”

अंत में एक अपील भी है उनकी -

संकल्प करें की दहेज़ लोलुप परिवार में बेटी नहीं देंगे उसको सक्षम बना देंगे और उसको आहुति नहीं बनने देंगे.

रेखा जी हम आप की बात से पूरी तरह सहमत हैं। आपके इस संकल्प को हमने दशकों पहले लिया था। एक बहन खो चुके हैं इस कुप्रथा के कारण, क्योंकि ह्मने संकल्प लिया था कि न दहेज लेंगे, न देंगे। उसकी मौत ने तोड़ा नहीं हमें, बल्कि संकल्प और भी दृढ हुआ है। क़नूनन जो सजा दिलवा सकते थे दिलवाई। हम तो जो देहेज लेकर शादी करता है उसकी बारात या शादी का हिस्सा भी नहीं बनते, चाहे वह कितना भी घनिष्ठ संबंधी ही क्यों न हो!

मैंने शुरु में दो लाइन कही थी, फिर कहने का मन बन गया। हम अपने लिए आचार संहिता बनालें। तभी हमारे आचरण में बदलाव आएगा। हर कोई दुनिया को बदलना चाहता है, लेकिन खुद को बदलने के बारे में कोई नहीं सोचता।

मेरी पसंद

My Photoआज की मेरी पसंद है रचना दीक्षित की कविता आसरा। अपना परिचय देते हुए कहती हैं

“रचना हूँ मैं रचनाकार हूँ मैं , सपना हूँ मैं या साकार हूँ मैं, रिश्तों में खो के रह गया संसार हूँ मैं, शून्य में लेता नव आकार हूँ मैं, अपने आप को ही खोजता इक विचार हूँ मैं, लेखनी में भाव का संचार हूँ मैं, स्वयं से ही पूंछती की कौन हूँ मैं, इसी से रहती अक्सर मौन हूँ मैं,”

प्रकृति से कविता में बहुत कम आए दो वृक्षों के बिम्बों का सहारा लेकर कवयित्री अपने पाठक को एक गहरा चिंतन आवेग सौंपती है जिसके स्पंदन से पाठक बच नहीं पाता। इस रचना की संवेदना और शिल्पगत सौंदर्य मन को भाव विह्वल कर गए हैं। रचना जी की इस कविता में से भावनाऒं का ऐसा रस उठा कि हमें कई पल रुक कर उन नीम और गुर्च के पेड़ों को निहारने पर विवश कर गया। जिंदगी के कई शेड्स इस कविता में ऐसी काव्‍यभाषा में प्रकट हुए हैं, जो मुझे यह कहने पर विवश कर रहे हैं कि रचना जी आप आज के समय की समर्थ कवयित्री हैं ।

दूर से निहारती हूँ तुम्हें.

सुना है,

गुणों का अकूत भंडार हो तुम.

वैसे, हूँ तो मैं भी.

तुम में भी एक दोष है,

और मुझ में भी.

तुम्हारा असह्य कड़वापन,

जो शायद तुम्हारे लिए राम बाण हो

और मेरा, दुर्बल शरीर.

मुझे चाहिए,

एक सहारा सिर्फ रोशनी पाने के लिए.

सोचती हूँ फिर क्यों न तुम्हारा ही लूँ.

अवगुण कम न कर सकूँ तो क्या,

गुण बढ़ा तो लूँ.

आओ हम दोनों मिलकर

कुछ नया करें.

किसी असाध्य रोग की दवा बनें.

दूर से निहारती हूँ तुम्हें,

जानती हूँ, मैं अच्छी हूँ,

पर बहुत अच्छी बनना चाहती हूँ.

कहते हैं,

नीम पर चढ़ी हुई गुर्च बहुत अच्छी होती है.

बोलो! क्या दोगे मुझे आसरा,

अपने चौड़े विशाल छतनार वक्षस्थल पर?

आज बस इतना ही। फिर मिलेंगे।

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शुक्रवार, अक्तूबर 15, 2010

वर्धा ब्लॉगर सम्मेलन की कुछ और पोस्टों की चर्चा

वर्धा ब्लॉगर सम्मेलन में जो लोग आये थे उन्होंने अपने संस्मरण लिखना जारी रखा। प्रवीण पाण्डेय जी ने लिखा था-
इस विषय में मेरी पोस्ट आनी शेष है, वक्तव्यों के देवता तो गांधीजी का आश्रम देखने के बाद ही तैयार हो गयी थी। उनकी कर्मशीलता का चित्रण आज के सामाजिक परिवेश के आधार पर था, ब्लॉगर सम्मेलन से तनिक भी सम्बद्ध न था।
उनकी पोस्ट का इंतजार है। श्रीमती अजित गुप्त जी ने कल लिखा था:
अनूप जी उम्‍दा चर्चा है। मेरी भी शाम को पोस्‍ट आ रही है। बस शाम का ही मुहुर्त्त निकला है।
और उचित मुहूर्त पर उन्होंने अपनी पोस्ट लगाई। वर्धा सम्मेलन के बारे में लिखते हुये उन्होंने लिखा:

अजित गुप्त
साहित्‍य और पत्रकारिता के क्षेत्र में सम्‍मेलन, सेमिनार और कार्यशालाएं नित्‍य प्रति होती हैं लेकिन ब्‍लागिंग के क्षेत्र में विधिवत कार्यशालाओं का प्रारम्‍भ करने का श्रेय श्री सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी को जाता है। अभी हम जैसे कई लोग जो ब्‍लागिंग के क्षेत्र से नए जुड़े हैं, समझ नहीं पाए हैं, ब्‍लागिंग और ब्‍लागर की मानसिकता। कभी एक परिवार सा लगने लगता है तो कभी एकदम ही आभासी दुनिया मात्र। मेरे जैसा व्‍यक्ति जो नदी में डूबकर नहीं चलता बल्कि किनारे ही अपनी धुन में चलता है, के लिए एक नवीन अनुभव था।

आचार संहिता पर अपनी राय जाहिर करते हुये उन्होंने लिखा:
यहाँ बात आचार-संहिता की करनी थी, लेकिन सभी ने किसी भी व्‍यावहारिक या सैद्धान्तिक प्रतिबन्‍धों को नकार दिया। लेकिन हमारे नकारने से तो दुनिया चलती नहीं कि हमने कह दिया कि बिल्‍ली मुझे नहीं देख रही और हम कबूतर की तरह आँख बन्‍द कर बैठ जाएंगे। बिल्‍ली तो आ चुकी है, सायबर कानून भी बन चुके हैं और हम मनमानी के दौर से कहीं दूर जिम्‍मेदारी के दौर तक आ प‍हुंचे हैं। वो बात अलग है कि हमें अभी पता ही नहीं कि कानून का शिकंजा हम पर कस चुका है।
सुरेश चिपलूनकर ने भी अपनी पोस्ट के बारे में सूचना देते हुये बताया:
एक ठो छोटी सी पोस्ट हमहूं ठेल दिये हैं… वर्धा की रिपोर्ट "जरा हट के" :)
उसे पढ़कर कुछ लोग "हट" लेंगे… और कुछ "खिसक" लेंगे… :)
वर्धा की घटनाओं का जिक्र करते हुये सुरेश जी ने बताया:

अजित गुप्त
जो बात अब तक किसी को पता नहीं थी कि श्री अनूप शुक्ल का “पसन्दीदा शब्द” कौन सा है, अब यह राज़ नहीं रहा… वर्धा ब्लॉगर सम्मेलन के दौरान दो दिनों में अनूप शुक्ल द्वारा 84 बार “हिन्दूवादी ब्लॉगर” शब्द का उच्चारण किया गया, इससे सिद्ध होता है कि यही उनका सबसे प्रिय शब्द है… अतः सभी ब्लॉगर्स से अनुरोध है कि भविष्य में वे अनूप जी को उनके इसी प्रिय शब्द से पुकारें…
सुरेश जी की पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करते हुये विवेक सिंह ने लिखा:
साड्डे नाल रहोगे तो ऐसी ही पोस्ट लिखोगे । मजेदार । इमेज से निकल रहे हो आप । बधाई !
सुरेश जी को वर्धा में कुछ लोगों ने टोका कि वे जितने गुस्से में अपनी फ़ोटो में दिखते हैं सच उसके एकदम अलग है। लोगों की समझाइश का सम्मान करते हुये सुरेश जी ने अपनी पोस्ट लिखते ही अपनी फ़ोटो बदल ली। यह होता है जनभावना का सम्मान और दबाब।

अनीता कुमार जी ने भी जनभावना का सम्मान करते हुये लिखना शुरू किया और अपने संस्मरण लिखे। लिखकर उन्होंने बताया भी :

अजित गुप्त
वर्धा मीट में अनूप जी ने परिवार के सबसे वरिष्ठ सदस्य की तरह स्नेह भरी डांट लगायी, फ़िर से कलम उठाने के लिए प्रेरित किया। अपने परिचय में जब हम ने कुछ ज्यादा कहने से संकोच किया तो उन्हों ने मेरी लिखी एक पोस्ट का जिक्र करते हुए याद दिलाया कि किसी जमाने में हम ठीक ठाक लिख लेते थे और अब भी अगर फ़िर से लिखना शुरु कर दें तो ठीक ठाक लिख ही लेगें। तो अनूप जी ये पोस्ट आप को समर्पित- अच्छी है या बुरी आप की किस्मत्…
अब चूंकि जिसको पोस्ट समर्पित की गयी उसकी खिंचाई का रिवाज है इसलिये उन्होंने परम्परा का निर्वाह करते हुये लिखा:
खूब मजा आया…अनूप जी, जो सबकी मौज लेते रहते है, उनकी कविता जी ने ऐसी मौजिया खबर ली कि उनसे कुछ बोलते न बना।
लेकिन चूंकि खिंचाई का कोटा कविता पूरा कर चुकीं थी इसलिये उन्होंने अपनी राय जाहिर की:
अनूप जी की क्लास लेने का अपना सुख है, विशेषकर यह कि वे सर झुकाए अच्छी बच्चे की तरह डपट सुनते झेलते रहते हैं और कत्तई बुरा नहीं मानते. व्यक्तित्व का यह बड़प्पन बड़ी चीज है. वैसे इस बार आप साथ थीं तो खबर और मौज लेने में कुछ अधिक आनंद आया.

लखनऊ से आये जाकिर अली’रजनीश’ ने अपनी बात कहते हुये खुलासा किया:

अजित गुप्त
अनूप जी से यूँ तो स्टेशन पर ही मुलाकात हो गयी थी, पर न जाने क्यों पूरे सम्मेलन के दौरान वे और उनकी बातों ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। जब भी उनसे बात हुई, जानबूझकर वे डॉ0 अरविंद मिश्र का जिक्र ले ही आए। और जब भी मिश्र जी का नाम आए, वे कोई भी चुटकी लिए बिना न रह सके। अपनी बातों के दौरान उन्होंने कई बार दोहराया कि उनसे चुटकी लेने में उन्हें विशेष आनन्द आता है। अरविंद जी, सुन रहे हैं आप?
अरविन्द मिश्र की कमी तो सच में खल रही थी। दूर बैठकर अपनी प्रतिक्रियायें व्यक्त करने में उनके वक्तव्यों में वो बात नहीं आ रही जो वे वहां मौजूद रहकर कर पाते। हालांकि जाकिर भाई ने काफ़ी कुछ अरविन्द जी की कमी को भरसक दूर करने का प्रयास किया और बताया:
अनूप शुक्ल जी, ब्लॉग जगत के नारीवादी समर्थक ब्लॉगर माने जाते हैं। मेरे दिमाग में यह बात हमेशा गूँजती रहती है। इसलिए मैंने सोचा था कि इस बात का गहराई से अध्ययन किया जाए। और नतीजे सचमुच चौंकाने वाले थे। प्रोग्राम के दो दिनों में मेरी जब भी उनपर नजर पड़ी, वे 75 प्रतिशत से अधिक बार किसी न किसी नारी ब्लॉगर का उत्साह वर्द्धन करते मिले। कार्यक्रम में पहली बार पधारी नवोदित ब्लॉग गायत्री शर्मा, जोकि ब्लॉग पर शोध कार्य भी कर रही है, का उन्होंने विशेष ध्यान रखा।
अरविन्द मिश्र ने इस बात को कहने का सही तरीका बताते हुये लिखा:
शुकुल महराज को एक्सपोज करने की भी जरूरत है क्या ? पहले से ही वे खुल चुके हैं -अभी तो चिट्ठाचर्चा पर नारीय झुकाव वाली पोस्ट आने वाली ही होगी -फोटू शोटू के साथ ...वे एक घोषित नारी सहिष्णु ब्लॉगर हैं !
इस तरह वर्धा सम्मेलन ने अनूप शुक्ल की छवि नारी विरोधी से नारी समर्थक की कर दी। दो साल पहले उन्होंने अपनी छवि के आधार पर लिखा था:
मठाधीश हैं नारि विरोधी
बेवकूफ़ी की बातें करते।
हिन्दी की न कोई डिगरी
बड़े सूरमा बनते फ़िरते॥

अविनाश वाचस्पतिजी ने अपनी बात कहते हुये लिखा:

अजित गुप्त
इसी प्रकार की आपत्तियां, आरोप-प्रत्‍यारोप आदि इस हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग सेमिनार के संबंध में भी ब्‍लॉग पोस्‍टों में नजर आए, जिनसे इस सेमिनार की सार्थकता स्‍वयं सिद्ध हुई है। हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग को इससे बल प्राप्‍त हुआ है। इस दौरान पोस्‍टों में, जो सवाल सबसे अधिक चर्चा में आए, वे ये हैं कि, किन ब्‍लॉगरों को बुलाया गया है, क्‍यों बुलाया गया है, उनका चयन किस आधार पर किया गया है और आचार संहिता की जरूरत ही क्‍या है आदि। इसी संदर्भ में पूर्व में आयोजित इलाहाबाद वाले ब्‍लॉगर सम्‍मेलन की अव्‍यवस्‍थाओं और अनियमितताओं का भी जिक्र किया गया।

इन बातों पर अपनी राय जाहिर करते हुये उन्होंने लिखा:
विचार तो यह होना चाहिए कि एक सुखद शुरूआत हुई है, मुझे नहीं बुलाया गया तो कोई बात नहीं, जिसको बुलाया गया, हैं तो वे भी हिन्‍दी ब्‍लॉगर ही। हम सबमें से ही एक हैं। एक हैं तो नेक भी होंगे, पर हम खुद कितने नेक हैं, यह सोचने की जहमत हम नहीं उठाते हैं। इसकी जगह होता यह है कि मैं तो सबसे धुरंधर ब्‍लॉगर हूं, मेरे बिना ऐसे आयोजन की कोई सार्थकता ही नहीं है, उपयोगिता नहीं है, कानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए, इससे बचना होगा और सब्र करना होगा।


इस आयोजन के सूत्रधार रहे सिद्धार्थ त्रिपाठी ने भी अपनी बात कहना शुरू किया:

अजित गुप्त
जब पंचों की यही राय है कि संगोष्ठी सफल रही तो मैं यह क्यों बताऊँ कि ऊपर गिनाये गये किसी भी बिन्दु का अनुपालन ठीक-ठीक नहीं हो पाया? साथ ही कुछ दूसरी कमियाँ भी अपना मुँह लटकाये इधर-उधर ताकती रहीं तो उन्हें चर्चा का विषय मैं क्यों बनाऊँ? …लेकिन एक भारी समस्या है। यह बात लिखकर मैं आफ़त मोल ले रहा हूँ। शुचिता और पारदर्शिता के रखवाले मुझे जीने नहीं देंगे। यदि कमियाँ थीं तो उन्हें सामने आना चाहिए। अनूप जी ने यह कई बार कहा कि सिद्धार्थ अपना नमक खिला-खिलाकर लोगों को सेट कर रहा है। तो क्या मानूँ कि नमक अपना असर कर रहा है? छी-छी मैं भी कैसा अहमक हूँ… अनूप जी की बात पर जा रहा हूँ जो खुले आम यह कहते हुए पाये गये कि आओ एक दूसरे की झूठी तारीफ़ें करें…।
आगे अपनी बात कहते हुये उन्होंने लिखा:
मेरी लाख न्यूनताओं के बावजूद ईश्वर ने मुझसे एक जानदार, शानदार और अविस्मरणीय कार्यक्रम करा दिया तो यह निश्चित रूप से मेरे पूर्व जन्म के सद‌कर्मों का पल रहा होगा जिससे मुझे इस बार अत्यंत सुलझे हुए और सकारात्मक दृ्ष्टि के सम्मानित ब्लॉगर्स के साथ संगोष्ठी के आयोजन का सुअवसर मिला। कुलपति श्री विभूति नारायण राय जी ने बड़ी सहजता से पूरे कार्यक्रम के दौरान मेरी गलतियों को नजर अंदाज कर मेरा हौसला बढ़ाये रखा, पूरा विश्वविद्यालय परिवार मुझे हर प्रकार से सहयोग करता रहा, और ब्लॉगजगत में मेरे शुभेच्छुओं की दुआओं ने ऐसा रंग दिखाया कि कुछ खल शक्तियाँ अपने आप किनारे हो गयीं वर्ना बुलावा तो सबके लिए था। इसे भाग्य न मानूँ तो क्या?

चर्चा जारी रहेगी। तब तक आप वर्धा में आये साथी ब्लॉगरों के फ़ोटो यहां देखें।

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गुरुवार, अक्तूबर 14, 2010

वर्धा ब्लॉगर सम्मेलन की कुछ पोस्टों की चर्चा



वर्धा में हुये दो दिनिया मिलन-जुलन की इसकी पहले की कहानियां वहीं से लिखीं गयीं थीं। उधर बोला जा रहा था इधर लिखा जा और कुछ भाई लोग अपने उधर से टिपियाते भी जा रहे थे।

पिछली पोस्ट लिखने तक सम्मेलन का ब्लॉगरों के हिस्से का मामला निपट चुका था। जिन लोगों का जिक्र किया मैंने पिछली पोस्टों में उसके अलावा जाकिर अली रजनीश, जय कुमार झा और अशोक कुमार मिश्र ने अपने विचार रखे। इसके बाद आई एक्स्पर्ट पवन दुग्गल ने आई टी कानूनों की जानकारी दी।

ब्लॉग के बारे आई. टी. कानून से संबंधित जानकारी देते हुये उन्होंने बताया कि यदि आपकी बात किसी को बुरी और अपने खिलाफ़ लगती है और उसके द्वारा बताये या नोटिस देने के बाद आप उसे तुरंत अपने ब्लॉग से हटा लेते हैं तो आपके खिलाफ़ कोई मामला नहीं बनता।

सुरेश चिपलूनकर ने एक सवाल पूछा था कि यदि आप किसी दूसरी साइट या अखबार का मसाला इस्तेमाल करते हैं और उसका जिक्र भी करते हैं और आपकी बात किसी को बुरी लगती है तो क्या साइट या अखबार के साथ आपको खिलाफ़ भी मुकदमा बनता है। इस पर उनका कहना था कि हां ऐसे मामले में भी आप पार्टी बन सकते हैं। लेकिन यदि आप सूचना या नोटिस मिलने के बाद अपने ब्लॉग या साइट से वह सामान उतार लेते हैं और खेद प्रकट करते हैं तो आपके खिलाफ़ कोई मामला नहीं बनता।

अगर यह बात सच है तो फ़िर स्नैप शॉट लेकर धरने की कोई जरूरत नहीं होनी चाहिये।

पवन दुग्गल ने साइबर मसले से जुड़े कुछ मनोरंजक किस्से भी सुनाये जैसे कि:

१. एक जगह पुलिस ने छापा मारा और केवल मानीटर उठाकर ले गयी। सी पी यू छोड़ गयी। बाद में मानीटर इधर-उधर कर दिये और मामला रफ़ा-दफ़ा।

२. एक जगह सबूत के लिये ली गयी पुलिसिया च अदालतिया अंदाज में फ़्लॉपियां सूजे से छेदकर नत्थी करके अदालत में पेश की गयीं। जाहिर है फ़्लॉपी पर कुछ भी पढ़ने में न आया।

३. एक जगह पीसी उठाकर ले गये पुलिस अधिकारी के घर में बच्चों ने होमवर्क किया! गणित के सवाल। इसी बिना पर छूट गया मामला कि इसमें तो कुछ है ही नहीं सिवाय गणित के सवालों के।


वर्धा से लौटकर तमाम लोगों ने अपने संस्मरण लिखे हैं उनमें से कुछ का जिक्र यहां करते हैं!

संजय बेंगाणी को वर्धा सम्मेलन की तीन बातें यादगार लगीं:
१.देर शाम को हिन्दी के महान कवियों की कविताएं पूरे सुर-ताल में सुनना!
२.अधिवक्ता पवन दुग्गल द्वारा सायबर अपराध पर हिन्दी में जानकारी दिया जाना!
३.रवि रतलामीजी की दूरस्थ प्रस्तुति और उसकी भाषा. पहली बार लगा चिट्ठाकारिता की अपनी भाषा में कोई तो बोला. पहला ही वाक्य था, संहिता को गोली मारो. साहित्य की भाषा से विद्रोह.

इसके अलावा संजय बेंगाणी ने सिद्धार्थजी व उनके सहयोगी जो जी-जान से जुटे रहे सम्मेलन को सफ़ल बनाने में उनकी मन से प्रशंसा की अभी एक और पोस्ट वर्धा की यादों पर अंजय निकाल सकते हैं।

जय कुमार झा ने हिन्दी ब्लॉगिंग सम्मेलन सफ़ल बनाने में पर्दे के पीछे के हीरों का जिक्र किया तारीफ़ सहित।

डॉ महेश सिन्हा ने भी वर्धा सम्मेलन से लौटने के किस्से बताये कि कैसे वे बाल-बाल बचे। इस पोस्ट में आलोक धन्वा के वक्तव्य का अश भी है जिसके एक भाग पर संजय बेंगाणी को त्वरित एतराज हुआ (इसके बारे में फ़िर कभी)

रवीन्द्र प्रभात जे जितने सलीके और प्रभावशाली अंदाज में अपनी बातें रखीं ब्लॉग के बारे में सम्मेलन में उतने ही बल्कि और सुघड़ तरीके से तस्वीरें और रपट पेश की। अभी तक उनकी तीन रपटें आ चुकी हैं। आगे और जारी हैं देखिये:

  • कई अनुत्तरित प्रश्नों को छोड़ गयी वर्धा में आयोजित संगोष्ठी

  • कैमरे में कैद वर्धा में आयोजित संगोष्ठी की सच्चाई

  • अविस्मरणीय रहा वर्धा में आयोजित संगोष्ठी का दूसरा दिन


  • फ़ोटो के साथ विवरण/संवाद पेश करने का अंदाज रवीन्द्र प्रभात का बहुत अच्छा लगा।

    विवेक सिंह ने भी वर्धा के गलियारों से (कुछ झूठ कुछ सच ) लिखा। अब सच क्या और झूठ क्या लेकिन विवेक की भोली शक्ल और भले व्यवहार को देखकर कविताजी ने उनके पिछले सारे पाप क्षमा कर दिये यह कहते हुये -अरे तू तो बच्चा है।


    संजीत त्रिपाठी ने भी अपने संस्मरण लिखे। संजीत के साथ अनिल पुसदकर को भी आना था लेकिन आये नहीं। डा.महेश सिन्हा संजीत को लेकर आये। संजीत से मिलना भी एक मजेदार अनुभव रहा।

    प्रवीण पाण्डेय जी ने भी अपने अंदाज में सारा कुछ देखा-भाला और बताया--वक्तव्यों के देवता

    कविता जी ने दो दिन के सारे घटनाक्रम की रिपोर्ट बहुत सलीके से पेश की! सभी घटनाओं के बारे में इतने अच्छे तरीक से वे ही लिख सकती हैं। ऐसी रपट जिसमें कुछ जोड़ा या घटाया जाना मुमकिन नहीं।


    यशवंत ने अपनी संस्मरणात्मक रपट में तो अपना दिल ही उड़ेलकर रख दिया। इस रपट में उन्होंने अपने बारे में भी बताया:
    मेरी दिक्कत है कि मैं किसी से बहुत जल्दी अभिभूत हो जाता हूं और किसी से भी बहुत जल्दी फैल जाता हूं.
    कुछ लोगों को आत्मीयता से लबालब भरी पोस्ट पढ़कर शायद यह लगे कि यह बहुत जल्द अविभूत व्यक्ति के संस्मरण हैं लेकिन चूंकि मैं वहां था और इन सब अनुभवों का गवाह रहा इसलिये कह सकता हूं जो यशवंत ने लिखा वह सच है। यह अलग बात है कि इस तरह हर कोई लिख नहीं पाता। अद्भुत संस्मरण है यह इस सम्मेलन के बारे में।

    और बाकी रपटों के बारे में जारी रहेगी। तब ताक आप ये बांच लें और अन्य लोगों के संस्मरण भी आ जायेंगे तब तक। ठीक है न!

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    रविवार, अक्तूबर 10, 2010

    साला न कहें भाई साहब कहें





    सबेरे के नास्ते के बाद हम लोग सेवाग्राम देखने गये। दस मिनट की दूरी पर स्थित आश्रम में आज सुबह सबसे पहले शायद हमारी टीम ही पहुंची। गांधी जी से जुड़ी तमाम वस्तुएं देखीं। गांधी जी दिन प्रतिदिन की दिनचर्यी का विवरण देखकर हम सभी को एक बार फ़िर लगा -गांधीजी अद्भुत व्यक्तित्त्व थे। कई लोगों ने इस बात को वहां रखे रजिस्टर में भी लिखी।

    गांधी आश्रम के बाद हम पास ही स्थित विनोबा भावे जी का आश्रम देखने गये। आश्रम के पास बहती पवनार नदी की तरफ़ सब पहले गये। वहां फ़ोटो सोटो हुये। आश्रम से हम लोग सुबह नौ बजे लौट आये।

    लौटकर नाश्ता करते हुये आलोक धन्वा जी का कविता पाठ सुना। उनका वक्तव्य रिकार्ड किया। अपने वक्तव्य में उन्होंने कल कही बातें भी दोहराई। गुजरात दंगो पर उनकी बात पर संजय बेंगाणी की त्वरित प्रतिक्रिया थी कि जब यह वक्तव्य पोस्ट किया जायेगा तब वे अपनी टिप्पणी करेंगे। संजय बेंगाणी ने यह भी कहा कि उनको तो दुनिया बहुत अच्छी लगती है।

    नाश्ते के बाद शुरु हुये सत्र में ब्लागरों ने अपने विचार व्यक्त किये। शुरुआत सुरेश चिपलूनकर ने की। नये ब्लागरों को अपनी तरफ़ से उन्होंने ब्लागिंग के गुर सिखाये। उन्होने बताया कि दूसरे के ब्लाग पर टिप्पणी करना सबसे अच्छा तरीका ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचने के लिये। तत्थात्मक बातें लिखनी चाहिये। सामग्री स्रोत का लिंक देना चाहिये। माडरेटर के बारे में उन्होंने बताया कि विरोधी बातों का शालीलना से जबाब देना चाहिये। बहुत गुस्सा आये तो आप साले की जगह भाईसाहब शब्द का इस्तेमाल करते हुये कह सकते हैं- भाई साहब आप बहुत हरामी हैं।

    हर्षवर्धन त्रिपाठी ने अपने वक्तव्य की शुरुआत वर्धा विश्वविद्यालय को और खासकर विभूति नारायण राय और सिद्धार्थ त्रिपाठी को इस बात को धन्यवाद देते हुये कही कि उनके सहयोग से यह संभव हुआ कि ब्लॉगिंग पर बातचीत करने के लिये मंच मुहैया कराया। हर्षवर्धन ने आचारसंहिता को सिरे से खारिज करते हुये यह बताया आप जो भी लिखें पूरी बात पक्की जानकारी से लिखे। उन्होंने विस्फ़ोट,मोहल्ला,भड़ास, अर्थकाम.काम का उदाहरण देते हुये बताया इन ब्लाग में उद्यमिता के माडल के रूप में लिया जाना चाहिये। हम समय और आवश्यक्ता के अनुरूप के साथ बदलते हैं। आज यशवंत सिंह उतने ही आक्रामक नहीं हैं जितने शुरुआती दिनों में थे। वे आज ज्यादा समझदार से हुये हैं। यह वित्तीय जरूरत से पैदा यह समझ है। और ब्लागिंग अनामी ब्लागर के बारे में अपनी राय रखते हुये हर्षवर्धन ने कहा कि व्यक्तिगत हिसाब निपटाने के लिये बेमानी ब्लाग लिखना अनुचित है लेकिन जनहित में संस्थागत लड़ाइयां लड़ने के लिये बेनामी की आवश्यकता पड़ सकती है। उनका मानना है कि ब्लाग पर विश्वनीयता बनाये रखे के लिये खबरें तथ्यात्मक होनी चहिये।

    रवीन्द्र प्रभात ने अपने ओजपूर्ण वक्तव्य में बताया कि हम अच्छे बनें, धनात्मक रहें, खुश रहें। हम अपनी पत्नी को नहीं बदल सकते है, साथ जुड़े अन्य लोगों को नहीं। लेकिन हम प्रयास कर सकते हैं कि अपने आप को बदल सकते हैं। कई उदाहरण देते हुये उन्होंने बताया कि कैसे हम अच्छे विचार ब्लागर बन सकते हैं।

    अविनाश वाचस्पति ने कहा कि आचार संहिता की बात अगर न भी मानें तो मन की बात माननी चाहिये और ऐसी बातें करने से बचना चाहिये जिससे लोगों को बुरा लग सकता है।

    प्रवीण पाण्डेय ने राजा बेटा की तरह अपना और अपने ब्लॉग का परिचय देते हुये दुविधा जाहिर की वे उन लोगों के सामने अपनी बात कहने आये हैं जिनको पढ़ते हुये उन्होंने ब्लॉगिंग शुरु की। इसे वे अपना सम्मान समझे या यह कि उनको कठिन इम्तहान में खड़ा कर दिया गया है। प्रवीण जी ने अपनी ब्लाग यात्रा के बारे में बताया कि टिप्पणियों और वुधवासरीय पोस्ट से शुरु कर के वे अब अपने ब्लाग पर लिखने लगे हैं- न दैन्यम न पलायनम।

    प्रवीण जी ने अतियों से बचने के अपने सहज स्वभाव के बारे में बताते हुये नदी के उदाहरण के माध्यम से बताते हुये बताया कि अतियों पर चलने वाले लोग या तो किनारे पर रुक जाते हैं या भंवर में फ़ंस जाते हैं। लिखने से ज्यादा पढ़ने और जितनी टिप्पणियां उनको मिलती हैं उससे पांच गुनी ज्यादा करने की बात भी प्रवीण जी ने कही।

    सुश्री गायत्री शर्मा ने अपने ग्रुप का प्रस्तुतिकरण करते हुये ब्लागिंग की सामाजिक उपयोगिता पर समूह के विचार पेश किया। उन्होंने सुनामी ब्लॉग का उदाहरण देते हुये ब्लॉग की सामाजिक उपयोगिता के बारे में अपनी बात कही। गायत्री शर्मा की बातचीत अलग से पूरी टेप में पेश की गयी है।

    कल की तरह आज भी दो मिनट छीनकर यशवंत सिंह मंच पर आ गये हैं। उनका कहना है कि हम हिंदी पट्टी के लोग अतियों में जीते हैं। या तो हम अराजक हो जाते हैं या फ़िर बेहद भावुक। अंग्रेजी के लोग तार्किक होते हैं इसलिये वे गाली और गप्प को कम तथ्य को ज्यादा तरजीह देते हैं। हम हिंदी वाले गाली और गप्पों पर ज्यादा ध्यान देते हैं, तथ्य पर कम। यशवंत ने अपनी यादों का जिक्र करते हुये यह कहा कि शायद पिछले समय में उन्होंने भी एक आम हिंदी ब्लॉगर की तरह अतियों पर रहते हुये तमाम बेवजह बातें और दूसरों को दुख पहुंचाने वाली पोस्टें लिखीं। लेकिन अब समय के साथ हमारी सोच में बदलाव आया है और अब वे इस तरह की दूसरों को दुख पहुंचाने वाली बेवजह पोस्टें लिखना बंद कर दिया है।

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    ब्लॉगिंग सबसे कम पाखंड वाली विधा है














    फ़ोटो परिचय: १. ब्लॉगिंग कार्यशाला में वर्धा विश्वविद्यालय के छात्र २. वर्धा विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ हम लोग ३. शाम के सत्र में कविता पाठ करते हुये आलोक धन्वा जी ४.आलोक धन्वा एवं श्रीमती अजित गुप्ता जी ५. प्रियंकर,अनीता कुमार, कविता वाचक्नवी, अनूप शुक्ल और किशोर साहू ६. आलोक धन्वा जी के साथ ब्लागर ७. प्रियंकर, अनूप शुक्ल, अशोक कुमार मिश्र और किशोर साहू ८, वर्धा ऐसा दिखता है रात को ९. विश्वविद्यालय के छात्र १०. कविता जी , अनीता कुमार और श्रीमती अजित गुप्ता ११. प्रियंकर पालीवाल आलोक धन्वा १२. ब्लॉगर साथी कविता सत्र में १३. दोपहर बाद के सत्र में चर्चारत साथी गायत्री शर्मा, यशवंत, जय कुमार झा, जाकिर अली रजनीश और अनूप शुक्ल


    कल सुबह के सत्र के बाद जब हम दोबारा गये। हाल के बाहर ही विश्वविद्यालय के छात्र मिल गये। दूर-दूर आये छात्र ब्लॉगिंग के बारे में अपनी राय बता रहे थे। काफ़ी लोगों को ब्लॉगिंग के बारे में पहली बार जानकारी मिली। एक छात्र बोला- अरे ई टॉपिकै डाउट्फ़ुल है। आचार संहिता की बहुत बात होती है। अपनाता कोई नहीं है।

    सत्र में छात्रों को ब्लॉग की तकनीकी जानकारी दी गयी। संजय बेंगाणी और शैलेश भारतवासी ने बच्चों को जानकारी दी।

    शाम का सत्र कविता पाठ का था। कई ब्लॉगरों ने अपनी रचनायें सुनायीं। शमा की जगह आलोकधन्वा की टार्च घूमती रही। जिसके पास टार्च पहुंची उसने कविता पढ़ना शुरु किया।

    आलोक धन्वा जी ने शुरुआत की:
    हर भले आदमी की एक रेल होती है
    जो उसके मां के घर की तरफ़ जाती है
    सीटी बजाती हुयी, धुआं उड़ाती हुई


    और लोगों के बाद विवेक सिंह ने अपनी कविता बांची:
    ब्लॉगिंग में यदि हो गया लागू ब्लॉगाचार
    यह रोटी हो जायेगी जैसे बिना अचार
    जैसे बिना अचार लगेगी रूखी-रूखी
    यह अच्छी लगती हमको तो टो टूकी
    विवेक सिंह यों कहें किधर से बाहर भागूं
    ब्लॉगाचार कहीं ब्लॉगिंग में हो यदि लागू।


    कविता सत्र के बाद लखनऊ के रहने वाले रवि नागर जी ने कई कवितायें हारमोनियम के साथ गाकर सुनाईं अद्भुत।

    कविता पाठ के बाद फ़िर आपस में बतकही के कई दौर मिले। आलोक धन्वा जी ने ब्लॉगिग के बारे में अपनी राय बताते हुये कहा -यह सबसे कम पाखंड वाली विधा है।

    इस पर राजकिशोर जी ने कहा पाखंड की कुछ उपस्थिति भी आवश्यक है समाज के लिये।

    इस बीच अशोक पाण्डेय कबाड़खाना वालों से बहुत लम्बी बातचीत हुई। आलोक धन्वाजी और अन्य कई लोगों ने उनसे बतियाते हुये उनकी कमी महसूस की।

    यह पोस्ट अभी सुबह-सुबह चाय पीते हुये लिखी जा रही है। कई साथी यहां खुले में मौजूद हैं। पीछे से संजय बेंगाणी की आवाज आई -अरे भाई दरवाजा खोलो।

    पता चला उनका दरवाजा कोई बाहर से बंद कर गया। उनके साथ सुरेश चिपलूनकर जी ठहरे हुये हैं। हमारी त्वरित टिप्पणी थी - राष्ट्रवादी को हिंदूवादी बंद करके निकल लिये।

    यहां चर्चा करते हुये हम इस समय तक लिखी गयी पोस्टों पर आई टिप्पणियों पर भी मौज लेते हुये चर्चा हो रही है।

    जाकिर अली- यहां क्या बतायें हम खुद ही लि्खेंगे। माडिफ़ाइड ललित जी की पोस्ट के क्रम में मेरा यह प्रयास रहेगा कि अपने अगले कार्यक्रम में उनको अवश्य बुलवाऊंगा।
    रवीन्द्र प्रभात- सब कुछ सकारात्मक है। विचार, वातावरण और कार्यक्रम सब कुछ सकारात्मक दिशा में चल रहा है और यह ब्लॉगजगत के लिये बड़ी उपलब्धि है।
    जय कुमार झा-हम जब कार्यक्रम करायेंगे तो और ब्लॉगरों को बुलवायेंगे।
    अनीता कुमार- सबको गुडमार्निंग।
    अजित गुप्ता -सुबह सुबह बहुत अच्छा लग रहा है। फ़ूल खिले हैं। चिड़िया चहचहा रही है बहुत अच्छा लग रहा है।
    संजय बेंगाणी- चाय बहुत ही स्वादिष्ट है।
    ऋषभ शर्मा -आज का दिन ऐतिहासिक है। १०.१०.१०। सारे दस नम्बरी यहां हैं। सत्र की शुरुआत भी दस बजे से होनी है।
    हर्षवर्धन- बाहर वाले किसी दस नम्बरी की पोस्ट आयी है क्या?
    सिन्हा जी-हम तो क्रिय ही नहीं किये। प्रतिक्रिया क्या दें?
    विवेक सिंह-त्रिपाठी जी की नींद पता नहीं पूरी हुई कि नहीं।
    सिद्धार्थ त्रिपाठी- अरे बस नहीं आयी अभी तक।

    फ़िलहाल इतना ही। अब हम लोग सेवाग्राम की तरफ़ निकल रहे हैं।

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    शनिवार, अक्तूबर 09, 2010

    ब्लॉगिंग की आचार संहिता की बात खामख्याली है








    प्रख्यात कवि और संस्कृतिकर्मी आलोक धन्वा जी ने ब्लॉगिंग के संबंध में अपने विचार प्रस्तुत किये। उन्होंने ब्लॉगिंग को विस्मय कारी विधा बताया। उन्होंने बताया कि वे कुछ दिनों से नियमित ब्लॉग देखते हैं। धन्वाजी ने बताया कि कबाड़खाना वाले अशोक पाण्डेय जी ने उनको ब्लॉगिंग के बारे में बताया। उनको प्रियंकर पालीवाल जी से भी इस बारे में जानकरी दी।

    आलोक धन्वा जी ने ब्लॉगिंग की तुलना रेल के चलन से करते हुये बताया कि शुरुआत में जैसे रेल यात्रा करने से लोग डरते थे लेकिन आज यह हमारी आवश्यकता बन गयी है वैसे ही शायद अभी ब्लॉगिंग के शुरुआती दौर में इसके प्रति हिचक है लेकिन आने वाले समय में यह जन समुदाय की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकती है।

    आलोक धन्वाजी ने अपने वक्तव्य में कहा कि हम आजकल सबसे कठिन दौर से गुजर रहे हैं। इतना कठिन समय पहले कभी नहीं रहा- द्वितीय विश्व युद्ध और अन्य संकटों से भी अधिक कठिन समय के दौर से हम गुजर रहे हैं। लोकतंत्र के लिये बहुत कम बची है।

    आचारसंहिता की बात करते हुये उन्होंने कहा कि समय और समाज की नैतिकता ही अभिव्यक्ति की नैतिकता हो सकती है। दुनिया कैसे बेहतर बने इस दिशा में प्रयास करने वाली आचार संहिता ही ब्लॉगिंग की आचार संहिता हो सकती है।

    ब्लॉग जगत की अचार संहिता की जगह इंटरनेट की नैतिकता की चर्चा होनी चाहिये। जो अपने को अच्छा नहीं लगता उसे दूसरे से नहीं कहना चाहिये। आभासी दुनिया वास्तव में वास्तविक दुनिया का विस्तार है।

    अनूप शुक्ल ने अपनी बात शुरु करने से पहले अपने ब्लॉगजगत से जुड़े तमाम दोस्तों को याद किया। रविरतलामी, आलोक कुमार, देबाशीष चक्रवर्ती, जीतेंन्द्र चौधरी और पंकज नरुला आदि। आचार संहिता के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुये उन्होंने कहा- मेरी समझ में ब्लॉगिंग की आचार संहिता की बात करना खामख्याली है। ब्लॉगिंग अभिव्यक्ति
    का माध्यम है। समय और समाज की जो आचार संहितायें जो होंगी वे ही ब्लॉगिंग पर भी लागू होंगी। इसके अलावा ब्लॉगिंग के लिये अलग से आचार संहिता बनाने की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिये।

    नैतिकता की बात पर अनूप शुक्ल ने कहा कि कोई भी आचार संहिता कम से कम ब्लॉगिंग पर लागू न हो सकेगी। नैतिकता लागू करने की बात कुछ ऐसी ही है:
    तस्वीर पर जड़े हैं ब्रह्मचर्य के नियम
    उसी तस्वीर के पीछे चिडिया बच्चा दे जाती है।


    नैतिकता के बारे में रागदरबारी को उद्धरत करते हुये उन्होंने कहा:

    "नैतिकता, समझ लो कि यही चौकी है। एक कोने में पड़ी है। सभा-सोसायटी के वक्त इस पर चादर बिछा दी जाती है। तब बड़ी बढ़िया दिखती है। इस पर चढ़कर लेक्चर फ़टकार दिया जाता है। यह उसी के लिए है।"



    ब्लॉगिंग को अद्भुत विधा बताते हुये बताते हुये अनूप शुक्ल ने कहा कि लोग यहां की अच्छाई देखने के बजाय इसकी बुराइयों का रोना रोते हैं। यह अकेला ऐसा माध्यम है जिसमें त्वरित दुतरफ़ा संवाद संभव है। ब्लॉग एक तरह से रसोई गैस की तरह है जिस पर आप हर तरह का पकवान बना सकते हैं। साहित्य,लेखन, फोटो, वीडियो, आडियो हर तरह की विधा में इसमें अपने को अभिव्यक्त कर सकते हैं।

    मीडिया, साहित्य और पत्रकारिता की स्थापित लोग जो इसको दोयम दर्जे की विधा मानकर इसकी उपेक्षा करते हैं वे अपना ही नुकसान करते हैं। आम आदमी की अभिव्यक्ति का यह औजार अद्भुत है। इसकी आभासी बुराइयों का रोना रोने की बजाय हमें इसकी अच्छाईयों का उपयोग करना चाहिये।

    बीच में दो मिनट का समय लेकर यशवंत सिंह ने अपनी बात कही और अनामी अनामी ब्लॉगरों के समर्थन में अपनी बात रखी। उन्होंने बताया कि हमको आज आचार संहिता बनाने वालों की आचार संहिता पर विचार करना चाहिये।

    कार्यक्रम के अध्यक्ष ॠषभ देव ने अपना अध्यक्षीय भाषण देते हुये सभी वक्ताओं के विचारों का संक्षिप्त अंश पेश करते हुये अपनी बात कही। उन्होंने नैतिकता, बेनामी ब्लॉगर और अन्य मसलों पर अपने विचार व्यक्त किये। बेनामी ब्लॉगरों के बारे में अपनी राय व्यक्त करते हुये उन्होंने कहा –

    बेनामी बड़े-बड़े काम करते होंगे मैं उनका अभिनंदन करता हूं। लेकिन इसको नियम नहीं बनाया चाहिये। मेरे परिचय क्षेत्र में कई लोग हैं जिन्होंने अपने सूचनायें झूठी दी हैं। पाखंड हर जगह निंदनीय है। ब्लॉगिंग कोई खिलवाड़ नहीं है। यह नैतिक कर्म है(नित्य कर्म नहीं  ) बच्चों बताते हैं कि उनसे कोई पूछता नहीं है। वरिष्ठ और कनिष्ठ न भी माने तो अनुभवी और कम अनुभवी का अन्तर तो रहेगा ही। मेरी चिंता का कारण बच्चे हैं जो झूठी पहचान बनाकर गलत हरकतें कर रहे हैं।

    जिस बात को सार्वजनिक रूप से नहीं कह सकते वह ब्लॉग पर भी कहने का हक हमें नहीं है। हममें यह हिम्मत होनी चाहिये कि जिसे हम सही समझते हैं वह कह सकें।

    कमेंट माडरेशन यदि कमेंट व्यक्तिगत आक्षेप, अश्लीलता और अनैतिकता वाले हों तो उसे हटाने का अधिकार होना चाहिये। लेकिन आलोचना को सम्मान मिलना चाहिये। ब्लॉग को संवाद का माध्यम बनाया जाये अखाड़ा नहीं। पारस्परिक सम्मान जो हम अपने आम जीवन में करते हैं उसे ब्लॉग में भी देना चाहिये। ब्लॉग को समाज सुधार और नैतिकता के अतिरिक्त बोझ से लादना नहीं चाहिये।

    संचार विभाग के श्री अनिल कुमार राय ने धन्यवाद दिया। उन्होंने कहा -जहां आधुनिक संचार माध्यम समाप्त होते हैं वहां से इसकी शुरुआत होती है। यदि हम टिप्पणियों को माडरेशन करने लगे तो फ़िर यह तो एक संपादक की उपस्थिति ही हुई। उन्होंने इस सत्र के लिये धन्यवाद दिया इस वायदे के साथ कि अंतिम धन्यवाद कल दिया जायेगा।

    दोपहर के खाने के बाद चार ग्रुप बना दिये हैं। ये चार ग्रुप ब्लॉगिंग पर चर्चा करके कल अपनी प्रस्तुति करेंगे। सभी ब्लॉगर चाय की चुस्कियों के बीच आपस में अपना परिचय देते हुये आगे की बात कर रहे हैं।

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    वर्धा में भाषण जारी

    टपके ब्लॉगर बहुत से, वर्धा में इक साथ
    चमकाते हैं दांत सब मिला-मिलाकर हाथ।
    मिला-मिलाकर हाथ, चाय सबने पी ली है
    बाकी सब तो ठीक,कमी मच्छर जी की है।
    विवेक सिंह यों कहें, नहीं वे अब तक चिपके
    मच्छर काटे नहीं, यहां जोन ब्लॉगर टपके।





    सब लोग हाल में आ गये हैं। सिद्धार्थ त्रिपाठी उद्धाटन उद्बोधन शुरू कर चुके हैं। मंच पर मुख्य वक्ता जगह ले चुके हैं। मंचासीन होने वाले लोग मंच पर रखी कुर्सियों पर विद्यमान हैं । विश्वविद्यालय के उपकुलपति जी कोचीन से हैं । अभी वे भाषण दे चुके हैं । उनका हिन्दी उच्चारण हालांकि कोचीनी है । पर उन्होंने हृदय की भाषा की दुहाई देदी है ।

    अनूप जी फोटो खींच रहे हैं । मैं विवेक पोस्ट लिख रहा हूँ । यहां आखिरी वाली फ़ोटो भी अनूप जी ने खींची। इसमें विवेक सिंह लोटपोट पर नेट सटा रहे हैं।

    विभूति नारायण जी कह रहे हैं। ब्लॉग अभिव्यक्ति का विस्फ़ोट है। इंटरनेट में सार्वजनिकता का विस्तार हुआ। रचनाकार सीधे पाठक तक पहुंच सकता है। इसने राष्ट्र राज्य की सीमायें तोड़ी हैं। हालांकि इसको रोकने की असफ़ल कोशिशें की। यह देखना होगा कि हम क्या यहां स्वच्छंद तो नहीं हो गये हैं। स्वतंत्रता की जगह कहीं हमने स्वछंदता का वरण तो नहीं कर लिया है। स्वतंत्रता की सीमा होती है। एक समझदार और सभ्य समाज के लिये जरूरी है कि उसके नागरिक अपनी लक्ष्मण रेखा खुद खींचे ताकि ऐसी स्थिति न आये कि राज्य को सेंसर लगाने की सोचना पड़े।

    कुलपति जी कह रहे हैं यहां कुछ तकलीफ़ें हो सकती हैं। यह बनता हुआ विश्वविद्यालय है। यहां की असुविधाओं के लिये खेद है। लेकिन आशा है कि यहां सार्थक बातचीत होगी।

    कुलपति जी बैठ चुके हैं। माइक फ़िर से सिद्धार्थ के पास है। और वे बुला रहे हैं श्रीमती अजित गुप्त को।

    अजित जी को विषय प्रवर्तन के लिये बुलाया गया है। उन्होंने कहा कि वे ब्लॉगर हैं और त्वरित विचार ही ब्लॉगिग में पेश करती हैं। इसके बाद वे पढ़कर अपनी बात कह रही हैं और विषय परिवर्तन कर रही हैं। उनका कहना है कि अपने ऊपर हमको अपने आप संयम रखना चाहिये।

    कामनवेल्थ खेलों के समय जिन लोगों ने भारत की अच्छी इमेज पेश की उनका जिक्र कर रही हैं श्रीमती अजित गुप्त जी। वे इशारे से कुलपति जी पर हुये हमले की बात भी कह रही हैं।

    यदि मैं स्त्री संबंधी बात कहती हूं यह ध्यान रखना होगा कि पुरुष भी इसे सुन रहे हैं। कुछ लोग मर्यादा तोड़ते हैं तब ऐसे समय में एक आचार संहिता की आवश्यकता होती है। जैसे पंचायत होती थी पहले। लोग तय करते थे कि यह सही है यह अलग।

    उन्होंने एक ब्लॉग पंचायत का सुझाव दिया। एक पंचायत होनी चाहिये जो इन सब मामलों पर समझदार भूमिका निभा सके। एग्रीगेटर से अनुरोध है कि वे अश्लील, खराब बेनामी और भद्दी भाषा में लिखने वालों को समझाइश दें और उनको अनुशाषित करें।

    कविताजी आचार संहिता की आवश्यकता क्यों है पर बात कर रही हैं। शायद आने वाले समय में आचार संहिता की आवश्यकतायें बढ़ेंगी।

    खराब से खराब व्यक्ति को अच्छी चीज का आधिपत्य दीजिये वह उसे खराब कर देगा। और अच्छे व्यक्ति को खराब से खराब चीज दे दीजिये वह उसे अच्छा कर देगा। आचारसंहिता को आरोपित नहीं किया जा सकता। हां आप यह कर सकते हैं कि अनाचार पर दण्ड का विधान किया जा सकता है।

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    वर्धा में ब्लॉगर सम्मेलन










    ...और ये एक और शानदार सम्मेलन की शुरुआत!

    वर्धा में आज अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन शुरु होने वाला है। कई साथी आ गये हैं और बकिया आने वाले हैं। सुबह-सुबह ट्रेन से उतरे तो जाकिर अली रजनीश और रवीन्द्र प्रभात स्टेशन पर ही मिले। सबसे पहला फ़ोटो उनका ही खींचा गया। जाकिर ने बताया कि स्टेशन से वर्धा साठ किमी दूर है। बाद में पता चला कि दूरी आठ किमी ही है। मैंने बगल में बैठे रवीन्द्र प्रभात से अनुरोध किया कि जाकिर भाई को अफ़वाह चेतना संपन्न ब्लॉगर का इनाम दिया जाये। अंतिम बात होने तक इस पर कोई निर्णय नहीं हुआ।

    वर्धा परिसर पहाड़ियों में बसा सा दीखता है। पहुंचते ही विवेक दिखे। पहली मुलाकात इस शानदार ब्लॉगर से। अनीता कुमार, यशवंत सिंह और कविता जी भी मिले। सिद्धार्थ बिना हड़बड़ी के शांत मुद्रा में। मुस्कराते हुये चिर सजग इंतजाम तत्पर। साथ में अविनाश वाचस्पति जी हैं। श्रीमती अजित कुमार जी भी आ गयीं हैं।

    रतलाम की रहने वाली और नई दुनिया में कार्यरत गायत्री शर्मा भी आयी हैं। वे हिंदी ब्लॉगिंग विषय पर पी एच डी कर रही हैं।

    कमरे में पहुंचते ही वाई फ़ाई मिला और हम शुरु हुये। दिन भर विवेक भी लगे रहेंगे।

    कमी खल रही है विनीत कुमार की। उनको जबरियन बुलाया जाना चाहिये। हिंदी ब्लॉगिंग की सबसे जागरुक और होनहार प्रतिभा हैं विनीत।

    अरविन्द मिश्र के बिना मजा नहीं आता किसी महफ़िल में। वे होते तो कुछ नोकझोंक होती। आनंद आता। चुनाव भी इसई समय होने थे।

    आलोक धन्वा जी कह रहे थे कि ब्लॉगिंग अद्भुत विधा है। यह बात मैं आज कहूंगा।

    आगे की कहानी चलती रहेगी दिन भर। शेफ़ालीजी ऐन मौके पर नहीं आ पायीं। उन्होंने अनुरोध किया था कि यहा की खबरें देते रहें सो शुरुआत हो रही है।

    इस्मत जी के ब्लॉग का आज पहला साल पूरा हुआ। उनको वर्धा से बधाई ।




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