मंगलवार, मई 27, 2008

रार, लोकाट, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, पूर्णविराम या बिन्दु?

पूजा जी कह रही हैं,
क्यों लगता है कि तुम मेरे हो
जब कि तुम मेरे नहीं हो


शायद वे कहीं और भी लिखती हैं, पर मुझे पता ध्यान नहीं आ रहा है, उनसे पूछा है, यदि आपको पता हो तो बताएँ। और भास्कर रौशन का फ़रमाना है कि

तुम आओ, तो खुद घर मेरा आ जाएगा.

इससे एक चीज़ की उत्सुकता और बढ़ी - पूर्णविराम या बिन्दु? आप क्या पसन्द करते हैं? अपनी राय बताइए। और हाँ, भास्कर जी ने कैप्चा लागू किया हुआ है! उनके चिट्ठे का शीर्षक है विभाव, इसका अर्थ भी यदि किसी को पता हो तो बताने का कष्ट करें।

प्रोग्रामिंग करते करते अण्डिफ़ाइंड सिंबल्स से तो वास्ता पड़ा था लेकिन अपरिभाषित प्रेम से नहीं! अब परिचय हो गया, शशांक की बदौलत। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से तो परिचय था ही, दुबारा हो गया।

वर्तिका जी पठानकोट में अपने घर पर मौजूद लोकाट के पेड़ की कथा सुना रही हैं, मेरे इलाके में शायद इसे लुकाट कहते हैं - वही जो आड़ू जैसा होता है पर अधिक मुलायम?
 

सञ्जय जी से पूछा है कि छत्तीसगढ़ के छत्तीसों गढ़ों के नाम बताएँ, पता नहीं अब तक बताया है या नहीं। वैसे छत्तीसगढ़ी आगे बढ़े तो बुन्देली कैसे पीछे रह सकते हैं!

बोलती तस्वीरों को छाप रहे हैं सुरेश गुप्ता जी। गंगा की तस्वीरें हैं। उम्मीद है कि और भी आएँगी।

लेकिन मुँहफट जी अपने पिताजी को पत्र लिख रहे हैं, यह नहीं पता कि रार का क्या मतलब होता है। वशिनी शर्मा जी ने एक कविता लिखी है, वैसे काले रंग पर सफ़ेद अक्षर मुझे नहीं भाते हैं, पर आपकी पसंद अलग हो सकती है। 

दीपक जी का कहना है कि २०-२० से क्रिकेट को नुक्सान होगा। हो या न हो, युवराज सिंह को तो फ़ायदा ही फ़ायदा हुआ है, प्रीति जी लगातार हग रही हैं उन्हें।

अन्त करता हूँ सूरज नामक एक मेधावी पर बीमार छात्र पर केन्द्रित इस चिट्ठे से

और दाद देता हूँ शोभा जी को जिन्होंने इन कई नए लेखकों को टिप्पणी रूपी प्रोत्साहन दिया है। 

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ब्लॉग की हॉफ लाइफ ब्लागर की हलचल के समानुपाती होती है।

इलाहाबाद मे आंधी और...:छत पर फ़ैला गेहूं।

हम भूल गए हों ऐसा भी नहीं: लेकिन किसी ने याद भी तो दिलाया ही नहीं।

ब्लॉग की हॉफ लाइफ : ब्लागर की हलचल(चिरकुटई टू बि मोर प्रेसाइज) के समानुपाती होती है। :)

मैं अतृप्ति सिखाता हूं : सीखने के लिये एडमिशन लें। सीटें सीमित हैं।

एकता कपूरजी की महाभारत: ब्लाग जगत में शुरू। देखते रहिये।

नई ब्लोगवाणी के साथ कुछ अनुभव : हमने बताये! बाकी आप बतायें।

कुछ सुपरहिट ब्लागों के नाम का करिश्मा : देखिये और मजा लीजिये।

पंगेबाज का कार-नामा :तीन घंटे में साठ किलोमीटर !!!

भाई की फोटो :बहन ने छिपाकर रखी।

अटपटे कपाट:झटपट खुल गये।

ब्लाग जगत के लिए यह खतरे की घंटी है : टनाटन बज रही है।

मेरी पसंद


मेरे पास एक फोटो है
मेरे बचपन की पहचान
जब तक रही मैं माँ के साथ
वह अक्सर दिखाती मुझे फोटो
कहती यह तुम हो और यह गुड्डू
तुम्हारा भाई जो नहीं रहा।
माँ अक्सर रोती इस फोटो देख कर
जबकि फोटो में हम भाई-बहन
हँसते थे बेहिसाब,
हालांकि भाई के साथ होने या हँसने की
मुझे कोई याद नही है।

यह फोटो मैं ले आई मायके से ससुराल
छिपा कर सबसे,
विदा होने के पहले रखा मैंने इसे किसी-किसी तरह
अपने बक्से में,
जब घर के लोग मुझे लेकर भावुक होकर रो-रो पड़ते थे।

बाद में माँ ने मुझसे पूछा कि
वह गुड्डूवाली फोटो है क्या तुम्हारे पास,
यहाँ मिल नहीं रही है।
मैं चुप रही
फिर बोली
नहीं है वह फोटो मेरे पास ।

माँ ढूँढती है
अब भी घर का एक एक संदूक और हर एक एलबम
पर यह फोटो नहीं मिलती उसे।
आभा

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रविवार, मई 25, 2008

शर्तें लगाई नहीं जाती दोस्तों के साथ

जिस समय आप दूसरे के बारे में कुछ लिख रहे होते हैं और उसकी पोल खोल रहे होते हैं तो सबसे ज्यादा अपने बारे में लिख रहे होते हैं। रचनाकार-अज्ञात टिप्पणी वाले


विमल वर्मा ठ्मरी वाले भी इलाहाबादी हैं। उनके मित्र उनको अजातशत्रु मानते हैं। दोस्तों से वे कहते हैं-
हां मेरा मन भी गरियाने को कर रहा है....पर गरियाउँ किसे ? इन दिनो तो ब्लॉग जगत में फ़िर थोड़ी हलचल सी मची है...ब्लॉग जगत की साहित्य मंडली में बह्स छिड़ी हुई है,पर हम गाने बजाने वालों को इससे क्या ? इस पचड़े में जिन्हें पड़ना है पड़े...........ऐसी स्थिति में हम शुरू से वो वाले रहे हैं,लड़ाई झगड़ा माफ़ करो, कुते की लेंड़ी साफ़ करो......
उन्होंने उस्ताद राशिद खान साहब की पकी हुई आवाज़ में राग अहिर भैरव में एक रचना पेश की है और पूछा है-बताएं कि चकल्लस, जो ब्लॉग जगत में मची हुई है इससे इतर ये रचना सुनकर आपके मन को सुकून पहूँचा की नहीं?

जिस लड़ाई-लड़ाई का जिक्र विमलजी ने किया उससे संबंधित पोस्टें पिछ्ले दो दिनों से ब्लागवाणी की सबसे ज्यादा हिट पोस्टों में रहीं। कल उन सभी की चर्चा करके मैंने पोस्ट लिखी थी लेकिन नेट कनेन्शन गड़बड़ा गया और हो नहीं पाया। विमल जी की पोस्ट वाला हिस्सा ’सेव’ किया था वही बच गया। लगा कि शायद नेट भी हमसे विमलजी की बात दोहरवाना चाहता है। लड़ाई-लड़ाई माफ़ करो।

वैसे भी कल प्रमोदजी, प्रत्यक्षाजी और शाम को बोधिसत्व की पोस्ट आने के बाद दूसरों के कहने के लिये कुछ बचता नहीं है। सभी के पास अपने को सही और दूसरे को गलत समझने के अकाट्य तर्क हैं। कोई कुछ भी कहेगा, वही बातें कहेगा जो कही जाती हैं और जो विमलजी ने कहीं।

दो शेर वसीम बरेलवी के सुनते जाइये:-

१. शर्तें लगाई नहीं जाती दोस्तों के साथ,
कीजै मुझे कुबूल मेरी हर कमी के साथ॥

२. मोहब्बत में बुरी नजर से कुछ भी सोचा नहीं जाता,
कहा जाता है उसे बेवफ़ा, बेवफ़ा समझा नहीं जाता॥

अब चंद वनलाइनर

1.क्या सच मे भूत होते है? : अभी लाइट जायेगा तब बतायेगा आकर भूत! डरना मती।

2. जब आदमी अपनी नजर में गिर जाये: तो बड़ी चोट लगती है जी।

3. वासनालोलुप हमारा मन: क्या आपका भी मन ऐसाइच है। कोई इलाज है क्या इसका?

4.लाल कृष्ण अडवानी जी की किताब, बुद्धिमान उल्लू और गोजर : और हम भी हैं जी लाइन में।

5. उल्टी हो गईं सब तदबीरें अब इसको सीधा करे कोई।

6.चिंता चिता समाना : क्या चिंता पेट्रोल का विकल्प बन सकती है?

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गुरुवार, मई 22, 2008

फ़ूला गुब्बारा, लड़ियाती बकरी और गुब्बारे में चुभा पिन

वो क्या है जी कि दुनिया बड़ी जालिम है। किसी का सुख देखा नहीं जाता।

बोधिसत्व भैया खुले मन से डंके की चोट पर कह दिये-
यहाँ किसी साहित्यकार ब्लॉगर का नाम लेकर मैं किसी का दिल नहीं दुखाना चाहता लेकिन जितना तीन ब्लॉगर यानी फुरसतिया, उड़नतश्तरी और शिव कुमार मिश्र का ब्लॉग पढ़ा जाता है उतने ही पाठक संख्या में सारे साहित्यिक ब्लॉगर सिमट जाते हैं....
पढ़ते ही मन खुश हो गया और दिल जो था बाग-बाग हो गया।

लेकिन जैसे ही दिल बाग-बाग हुआ तैसे ही लगा कि भाई लोग हमारी खुशी का गुब्बारा देर तक सलामत नहीं रहने देंगे। सुई चुभो देंगे। इसीलिये हमने टिपियाया भी-
बड़ा लफ़ड़े वाली बात कह दी। :)

अपनी बात पर जोर देने के लिये दो बार टिपियाया।

हम बार-बार उचक-उचक के इस पोस्ट को देखते भी रहे कि और कौन समर्थन करता है इस बात का। जहां ज्ञानजी की टिप्पणी देखी
अच्छी बहस है। और सत्य भी।
बाकी "पटखनी खाने वाले" तो शब्द का व्यंजन बना रहे हैं।
ब्लॉग शब्द की पाकशाला नहीं, शब्द की लिंकशाला है - मेखला या नेटवर्क!
हमें लगा कि अब तो प्रमोदजी पटकनी खाये मुंबई में पड़े हैं, धूल झाड़कर खड़े होंगे और धूल चटाने वाला काम करेंगे। उन्होंने हमारे विश्वास की रक्षा की और अपनी बकरी -वकरी लेकर चढाई कर दी। दनादन गोला बरसाते हुये कहते भये-
ज़रा सा वक़्त निकले तो ये कर लें वो कर लें के मोहक अरमानों का मुरझाना हो जा रहा है, टाइम का निकलना नहीं हो पा रहा. वह लोग धन्‍य हैं जो नौकरियां कर रहे हैं. ऊपर से हंसने का टाइम भी निकाल ले रहे हैं. फिर वह लोग तो और ज़्यादा धन्‍य हैं जो न केवल हंसते हुए नौकरियां कर रहे हैं, बल्कि हंसते-हंसते पोस्‍ट भी ठेल देने का निकाल ले रहे हैं. टाइम. उसके बावजूद भी हंस ले रहे हैं? बहुत बार तो हास्‍यास्‍पद पोस्‍ट ठेलकर भी बेहूदगी के हौज में पानी उलीचते हें-हें कर ले जा रहे हैं. और टिप्‍पणियों पर टिप्‍पणी करने का भी टाइम निकाल ले रहे हैं!


अपनी बात खतम करते-करते प्रमोदजी गंभीर से हो गये और तउवा गये भाई। कहने लगे-
उसकी हिंसा, उसका बाज़ार और अपनी हार नहीं दिखती. चार बेचारे ब्‍लॉगरों की एक छोटी दुनिया और उस दुनिया में अपनी अभिव्‍यक्तियों की अकुलाहट के प्रति ज़रा विनम्रता दीख जाये वह तो नहीं ही होता, अपना दंभी चिरकुट दुर्व्‍यवहार भी नहीं दिखता?


प्रमोदजी की बात का उन्हीं की भाषा में त्वरित जबाब भानी ही दे सकती है। भानी ने लिखा-
कररररररकलललववसकररलरलरररररपरहपपरपरहवरपरपवपवमपमवपल लनलल वपप पपप भूरकुसाएगें हाँ हाँ. हाँहाँ....


बोधिसत्व तो ऐसा सिटपिटा गये कि अपने को आत्मसाक्षात्कार सा हो गया उनको। उनको उजबकबोध हो गया-
लड़ि‍यायी बकरी और लड़ियाये बकरे साहित्य के साथ ब्लॉग को भी चरते जा रहे हैं....आज कोई भी कवि और लेखक बन जाए सहज संभाव्य है...मेरे जैसा उजबक आज हिंदी का कवि है...इससे बड़ा आश्चर्य क्या होगा...


लेकिन प्रत्यक्षाजी को इसमें भी चुहल सूझी और वे कहने लगीं-
आपके पोस्ट को पढ़ कर इच्छा बलवती हो रही है कि कुछ चिरकुटई हम भी कर दें ।
और उन्होंने जो कहा वो कर दिखाया। अरे भाई क्या जरूरत थी इत्ती सीधी बात कहने की कि वह सुई की तरह हमारे खुशी के गुब्बारे की हवा निकाल दे। तमाम लोगों ने जिनमें ज्ञानजी और प्रियंकरजी भी शामिल हैं इधर भी हां-हां कह दिया। ऐसे होता है कहीं जी? बताइये भला।

शिवकुमारजी तो ई सब देखकर ऐसा गड़बड़ा गये कि बेचारे कविता करने लगे। उनकी कवितायी देखकर ऐसा लगा कि ब्लाग-कुंये में भांग पड़ गयी और जिसे देखो वही कविता करने लगा। हालत ऐसी हो गयी जैसे भरे सब्जी बाजार में शिवजी ने अपना वाहन दौड़ा दिया हो और सारे ठेलों से कविता-सब्जी उलट-पुलट कर ब्लाग सड़क पर बिखर रही हो। इस कविता-भांग के नशे ने ज्ञानजी जैसे प्रबुद्ध आत्मा तक पर अपना असर डाला और वे अपनी एच.टी.एम.एल. -फ़च.टी.एम.एल. छोड़छाड़ कर बोले तो बिसरा कर कवितामल्ल बन गये।

ये जो अपने प्रियंकरजी कोलकत्ता वाले हैं आज अपने मोहल्ले वाले प्रिय अविनाश से बेहद अपनेपन से पूछते पाये गये
अविनाश तुम सनक गए हो क्या ? या चौबीसों घंटे गरम तवे पर बैठे रहते हो ?


अविनाश भी हाजिर जबाब हैं सो उतने ही प्रेम से पलट-जबाब दिया
प्रियंकरजी, ये आपकी मेरे बारे में कोई नयी धारणा तो है नहीं। आप अपनी बनायी हुई धारणा को बार-बार कह कर क्‍यों इत्‍मीनान होना चाहते हैं। मैं कोई साहित्‍यकार नहीं हूं - न कवियों-चिंतकों की जमात में मुझे जगह पानी है। आपलोग रहिए साहित्‍यकार-कवि-चिंतक - मैं तो वही लिखूंगा, करूंगा, जो मेरे चित्त को भाएगा। किसी से अपने मिज़ाज का सर्टिफिकेट लेने की ज़रूरत नहीं।


सही बात है। जो तमाम लोगों को खुद तरह-तरह के सर्टिफ़िकेट बांटता रहता हो उसको भला किसी के आगे किसी सर्टिफ़िकेट के लिये क्योंकर हाथ फ़ैलाना पड़ेगा? हां अलबत्ता प्रियंकर की बात सोचता हूं तो यह लगता है कि उनको यह शायद भरोसा ही नहीं है कि वे अपने ब्लाग पर कुछ लिखेंगे तो लोग पढ़ेंगे। वे बहस और नोक-झोंक को मित्रता का आवश्यक तत्व मानते हैं सो इसे भी , नोक और सिर्फ़ नोक को भी , नोक-झोंक मानकर फ़िर कोई धांसू सी प्रतिक्रिया पेश करेंगे।


एकदम ताजा मतलब टटकी उपमा अभी-अभी दिमाग में बिना मे आई कम इन कहे घुस गयी। वह यह कि प्रियंकरजी के मोहल्ले में लेख और प्रतिक्रियायें देखकर ऐसा लगता है जैसे गले में कालर माइक लगा होने के बावजूद अपनी बात कहने के लिये कोई आदतन कोने में रखे माइक की तरफ़ लपके। :) प्रिय प्रियंकर जी को हम उनके इस व्यवहार के लिये टोंक इसलिये रहे हैं क्योंकि हम उनको अभागा नहीं देखना चाहते। ( वह व्यक्ति बड़ा अभागा होता है जिसे कोई टोंकने वाला नहीं होता है।)

बकिया वे खुदै समझदार हैं। अरे कोई बात कहनी है तो अपने ब्लाग पर लिखिये जी। हम भी कुछ फ़ड़कती हुयी से टिप्पणी करें। कुछ नोक-झोंक करें। ई का कि देख रहे हैं टुकुर-टुकुर कि कोई आपके लिखे को साजिस बता रहा है, कोई मोटी बुद्धि कोई कुछ-कोई कुछ! कितना झेलवाओगी जी ई नोक-झोंक के नाम पर। :)


बस अब बहुत हो गयी ब्लागगिरी अब बंदा कुछ एकलाइना पेश करेगा। ये अगड़म-बगडम आलोक पुराणिक की खास पेशकश पर पेश किया जा रहा है।

1. देश बिक रहा है देश के भीतर: और आप बाहर खड़े दाम पता कर रहे हो?

2.न्याय जब पर्यटन करता ह : तो जजों को सूचना के अधिकार से बाहर रख देता है।

3.साँसों की माला पे सिमरूँ मैं पी का नाम : कृपया व्यवधान न पैदा करें।

4.अपनी असली पहचान खोते जाते : और फूल कर कुप्पा हो जाते हैं।

5.हमारे शहर में ३० हजार मनोरोगी! : आप गिनने वालों में हैं या गिनती में। खुलासा करें।

6.टिप्पणी करने वालों का उत्साह बढ़ाए : वर्ना वे नियमित ब्लागर बन जायेंगे।

7. डर-डर के मरो: हम तो पढ़ते ही मर गये। अब डर रहे हैं कहीं यह सच तो नहीं।

8. हॉलीवुड जाएगा मुन्नाभाई": उसको जेल मत भेजो। वहा जाना ज्यादा कड़ी सजा है।

9.थोड़ा HTML तो जानना होगा ब्लॉगिंग के लिए : ताकि फ़ुरसतिया को साइकिल के हैंडल पर बैठा के झुला सकें दिन भर!

10. आलू आन मिलो : तेरे वियोग में बोरा आंसू बहा रहा है।

11.रो रही है वो अहिल्या, राम आएंगे कहां से...? : सब तरफ़ तो भावनाऒं और आत्मोद्गार का जाम लगा है।

12.शीर्षक दो :वर्ना हम अगली पोस्ट लिख देंगे।

13. बाजार रेट से ज्यादा देंगें: जल्दी करो वर्ना कबाड़ के भाव भी न जाओगे।

14. निश्चय :ही परेशानियों की जड़ है।

15.हिन्दी ही हिन्दुस्तान को जोड सकती है!! :फ़ेवीकोल के मजबूत जोड़ की तरह।

16.तुलसी अगर आज तुम होते.... : तो शिवकुमार मिसिर की इस पोस्ट पर टिपिया रहे होते।

17.पुलिसिया हेलीकाप्टर : का उ़ड़नश्तरी द्वारा अपहरण।


18.आओ मिलकर कीचड़ उछालें : मजा आयेगा।

19.कथा फैमिली कोर्ट तक पहुँचने के पहले की : कोर्ट से निकल के दिखाये तो जाने ये कथा।

20.नंगी आंखों से नहीं दिखेगी यह सचाई : आंखो में मोहल्ले का सुरमा लगाना पड़ेगा जी।


21. हर तीसरा पुरूष घरेलू हिंसा का शिकार: बाकी दो बेचारों का क्या हाल है?

22. धमाका,आतंकवाद और सरकार: के संयोजक हैं काकेश!

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शनिवार, मई 17, 2008

एक था राजा एक थी रानी पर कुछ अलग ये कहानी

हम चिट्ठाचर्चा जैसे सामुहिक मंच के दुरुपयोग के लिए कुख्‍यात रहे हैं :) तो लंबी छुट्टी के बाद आज इस चर्चा में इसी दुरुपयोग की परंपरा का जारी रखते हुए जिस चिट्ठे की चर्चा कर रहे हैं वह एक अंग्रेजी चिट्ठा है। उसकी भी एक पोस्‍ट भर, बस पसंद आ गई तो लीजिए आपके लिए पेश है।

अपने अंग्रेजी चिट्ठे "अरे क्‍या बात है" में हिन्‍दी के (भी) चिट्ठाकार सुनील दीपक ने इतालवी फिल्‍मकार रोबर्टो रोसेलिनी और उनकी भारतीय प्रेशर सोनाली के प्रेम संबंध की शानदार खोजपरक पड़ताल की है। ये खोजपरकता उस शुष्‍क विश्‍वविद्यालयी शोध से बिल्‍कुल अलग है जिससे हमारा साबका रोजाना पड़ता है। 51 साल के रोसेलिनी फिल्‍म निर्माण के सिलसिले में भारत आते हैं और यहॉं एक प्रतिष्ठित फिल्‍मनिर्माता की 27 वर्षीय पत्‍नी सोनाली से प्रेम कर बैठते हैं जो दो बच्‍चों की माता भी है। भारत के तत्‍कालीन प्रधानमंत्री के गुपचुप सहयोग के साथ ये युगल इटली भाग जाता है, एक बच्‍चा सोनाली साथ ले जाती हैं किंतु दूसरा यहॉं पिता के पास छूट जाता है। इसके बाद सोनाली-रोसेनिली की कहानी के सूत्र मिलने बंद हो जाते हैं। पर यहीं तो चिट्ठाकार का चिट्ठाकारपना शुरू होता है-

All these questions were going around in my head as I searched for answers. I could piece together many things because I could search in English and Italian, as well as some minor sources in Spanish and French that gave crucial information. This search was exclusively through internet. I didn’t find much about how people had felt, the emotional part of this story and perhaps it is better that way since I can imagine that even after all these years, many of these memories must be still very painful for all those who are still alive. Roberto died in 1977. Harisadhan Dasgupta probably died in 1986 or around that. It is not clear if Sonali Rossellini is still alive. Yet their children are around and probably they carry the scars of this event.

एक शानदार पोस्‍ट जिसके लिए लिखने वाले का सुनील दीपक होना जरूरी है। जो भारतीय है और इतालवी भी, संस्‍कृति व भाषा के स्‍तर परिपक्‍व भी। चवन्निया नैतिकता के आग्रहों से मुक्‍त। एक शानदार पोस्‍ट जो लिखी तो अंग्रेजी में गई है पर संभव हो तो आपको भी पढ़नी चाहिए।

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