कहने वाले   कहते है के   आने वाले दौर में   जब इस डीसेंसटाईज होती दुनिया में "संवेदनायो  या  तो डिस्कवरी  चैनल  पर नुमाया होगी    या उन  पर डॉक्यूमेंटरी बना करेगी ..फिर भी कुछ चेहरे ऐसे है जो बरसो बाद भी  उतने  ही मुकम्मल  है जितने बरसो पहले थे मां का चेहरा ऐसा ही है  ....कहते है ...एक उम्र के बाद सारी मांये एक दूसरे की जीरोक्स कोपी हो जाती है . ... 
ममता सिंह भी  मां को  जाने के 
बाद   टटोलने की कोशिश  करती है

बार-बार लगता है—‘मां जिस रूप में भी थीं, चाहे जितनी बीमार थीं, थीं तो एक संबल के रूप में । बहुत बड़ा सहारा थीं वो । पूरे परिवार को एक सूत्र में जोड़ने वाली थीं । उनके जाने से वो संबल टूट गया । वो सूत्र भी कमज़ोर हो गया, जिससे पूरा परिवार जुड़ा हुआ था । परिवार में किसी की किसी से खटपट हो जाए तो वे जोड़ने का काम करती थीं । उस शख़्स की अनुपस्थिति में समझाती थीं कि फलाना मन का बहुत अच्छा है । उसको फ़ोन कर लिया करो, बातें कर लिया करो । उनका भले ही किसी ने दिल दुखाया हो, लेकिन वो किसी का दिल नहीं दुखाती थीं । एक बार भैया की तबियत ख़राब हो गयी थी, जिनके साथ वो इलाहाबाद में रह रहीं थीं ।
भैया को हैजा हो गया था, मां खुद भी बीमार चल रही थीं । भैया को असंख्य उल्टियां हो रही थीं । और मां अपनी बीमारी को, अपनी जर्जर अवस्था को अनदेखा करते हुए घर से निकलीं और दौड़ पड़ी डॉक्टर को बुलाने । डॉक्टर नहीं मिले, तो रिक्शा ले आईं ताकि भैया को किसी और डॉक्टर के पास ले जाया जा सके । फिर तो भाभी और परिवार के लोग जमा हो गये, लेकिन तुरंत जो हिम्मत बीमारी के बावजूद उन्होंने दिखाई उससे भैया का स्वास्थ्य तुरंत ठीक किया जा सका ।
वो कौन सा जिरहबख्तर  है जिसे मां एक बार पहनने के बाद ताउम्र नहीं उतारती ....मसलन ......आगे वे लिखती है ......
बड़ी जीवट की थीं मेरी मां । उनकी इच्छा-शक्ति बेहद मज़बूत थी इसलिए कई बार वो गंभीर-अवस्था तक पहुंचकर भी पुन: स्वस्थ हो गयीं । घर-परिवार के लोगों की बीमारी में रात-रात भर अपनी नींद गंवा देने वाली मेरी मां ने जाने से पहले वाली रात बैठकर बेचैनी में बिताई । सोईं नहीं रात भर । जिस दिन वे गईं, हॉस्पिटल जाने से पहले अपना दैनिक-कर्म स्वयं किया । यहां तक कि नहाना-धोना भी अपने हाथों से किया । घर वालों के सहारे से । इतनी बड़ी बीमारी के बावजूद, जैसे कहीं जाने के लिए अपने-आप तैयार होती थीं, उसी तरह से तैयार हुईं । और घर से डॉक्टर के पास गयीं ।
           
...तो क्या  सूचनाओ की आंधी  के इस युग में   सूचना वाहक सच को  अपनी सहूलियत के सच ओर अपने हिस्से के सच में बांटने लगा है  ?
.हमारे दृष्टिकोण क्या विचारधारा पर आधारित हो या व्यक्ति विशेष  पर.....
विनीत कुमार गाहे बगाहे में  मीडिया   के  लिए एक सवाल उठाते है 
आप अपनी  सहमति  असहमति   वहां दर्ज  करा सकते है ...
             
लेकिन एक सवाल तो बनता ही है कि क्या एनडीटीवी इंडिया जैसा चैनल लियोपोर्ड के इस तीन सौ रुपये के पैग और मग का विरोध इसलिए नहीं करता कि वो शिव सेना को उत्पाती दिखाना चाहता है? अगर उसने भी इसके विरोध में एक लाइन भी कहा होता तो शिव सेना के समर्थन में खड़ा नजर आता? मामला चाहे जो भी हो लेकिन लियोपोर्ड का समर्थन इसलिए ज्यादा जरुरी और बाजिब है क्योंकि वो भी वही कर रहा है जो कि चैनल के लोग कर रहे हैं। अपने-अपने स्तर से भुनाने की कोशिश। ऐसे में निष्पक्ष होकर बात करने की गुंजाइश ही कहां बच जाती है?
कुछ तजुर्बे उम्र को कई साल पहले खीच लाते है ....उन्ही  अनदेखे  भीड़ में  गुम हुए  चेहरों में  से एक का खाका   अफलातून  सामने रखते है ...इस लघुकथा का निष्कर्ष  वे  पाठको पर छोड़ देते है .... …
 
उस दिन सरदारजी की जलेबी की दुकान के करीब वह पहुँचा । सरदारजी पुण्य पाने की प्रेरणा से किसी माँगने वाले को अक्सर खाली नहीं जाने देते थे । उसे कपड़े न पहनने का कष्ट नहीं था परन्तु खुद के नंगे होने का आभास अवश्य ही था क्योंकि उसकी खड़ी झण्डी ग्राहकों की मुसकान का कारण बनी हुई थी । ’सिर्फ़ आकार के कारण ही आ-कार हटा कर ’झण्डी’ कहा जा रहा है । वरना पुरुष दर्प तो हमेशा एक साम्राज्यवादी तेवर के साथ सोचता है , ’ विजयी विश्व तिरंगा प्यारा , झण्डा ऊँचा रहे हमारा’ ! बहरहाल , सरदारजी ने गल्ले से सिक्का निकाला। उनकी नजर उठी परन्तु लड़के की ’झण्डी” पर जा टिकी। उनके चेहरे पर गुस्से की शिकन खिंच गयी । उसने एक बार सरदारजी के गुस्से को देखा , फिर ग्राहकों की मुस्कान को और फिर खुद को – जितना आईने के बगैर देखा जा सकता है। और वह भी मुस्कुरा दिया । इस पर उसे कुछ और जोर से डाँट पड़ी और उसकी झण्डी लटक गई । ग्राहक अब हँस पड़े और लड़का भी हँस कर आगे बढ़ चला।
 
 
मेरिलिन जुकरमन की कविताएं अनुनाद  से .......            
एक लड़ाई जिसमे कोई मरा नहीं
संवावदाता ने कहा            
पुल पर नहीं             
उस रेलगाड़ी में भी नहीं             
जो उदा डी गयी             
क्यूकी उसके वहां  होने की             
उन्हें उम्मीद न थी             
न तो कोसोवो  में             
वे ग्रामीण ही             
ट्रेक्टर पर जो बैठे थे सैनिको  के बीच             
न ही इराकी  औरते ओर बच्चे             
जिन्होंने उस जगह पनाह ली थी             
जिसे पायलटों ने गुप्त सैनिक अड्डा समझ लिया था             
या फिर             
उतरी वियतनाम के वे हलवाहे             
जिन्हें             
उन्होंने दशहतगर्द करार दिया था             
              
|
|  कभी कभी  आप सोच में पड़ जायेंगे कितने हजारो बेतरतीब विचार है इस आदमी के पास .....ओर उन्हें  संजो  कर रखने की एक अपनी शैली....कभी कभी विद्धता का आंतक उनकी लेखनी में मिलता है ....पर यक़ीनन  वे ब्लॉग जगत  के  बेहद  पठनीय लेखक है .उनकी एनेर्जी की इन्टेसटी   कई लोगो को शर्मिंदा कर सकतीहै 
 अज़दक की भाषा .....
 सुनती हो सुन रही हो, कविता? रिक्शे का कोना लिये, गोद में दोना, बात-बात पर मुँह फुलाती, वस्त्र यही पहनूंगी और भाषा मेरी बेस्ट फ्रेंड है उससे प्रॉपरली बिहेव करना के तानों का गाना गुनगुनाती किस दुनिया बहलती, बहती रहती हो, कविता? यही होगा, यही, और ‘यही’ के बाद ‘वही’ की बही के बस्तों पर कब तक गाल की लाली करोगी, ज़ुबान की जुगाली, हूं? कुछ बहकन आती है समझ, बात और वक़्त का बीहड़? फिसलन की ढलान, अंधेरों में छूटे कितने, कई सारे बाण? घुप्प अंधेरिया रात की अचानक कौंधी बिजलियां, करियाये लाल के कई दिनों की जख़्मसनी पसलियां? कि सिर्फ़ अपनी सहूलियत का चिरकुट लैमनचूस चूसना जानती हो, मोहल्ले की गली और गुमटी की रंगीनी में खुद को पहचानना?
 | 
सड़क के बीच डिवाइडर का लोहा हम नहीं छोड़ते। यहां-वहां खराब पड़े लैम्प पोस्टों का लोहा हम बाप का माल समझ बेच डालते हैं। यहां तक कि सरकारी इमारतों का बांउड्री ग्रिल भी हम उखाड़ लेते हैं और कोई हमारा कुछ नहीं उखाड़ पाता। इस पर भी मुझे ज़्यादा शिकायत नहीं है। मेरी आपत्ति ये है कि इतना लोहा खाने के बाद भी ये देश एक भी गैर विवादित लौह पुरूष नहीं पैदा कर पाया।
कई सवालों के लिए यह साबित किया गया कि इनका हल संभव ही नहीं है तो कई अन्य के लिए ये कि ऐसे कई सवालों का हल एक ही है और इनमें से किसी एक को भी हल किया गया तो सारे हल  हो जायेंगे. टोपोलोजी में मात्रा या परिमाण(क्वांटिटी) मायने नहीं रखते पर उनके गुण मायने रखते हैं.  जैसे पुणे और दिल्ली के बीच में कहीं से कर्क रेखा गुजरती है या नहीं ऐसे सवालों के जवाब टोपोलोजी के दायरे में आयेंगे. कहाँ से गुजरती है ये टोपोलोजी के लिए मायने नहीं रखता.             
काश जिंदगी और मानवीय सोच भी गणित की तरह होते और उन्हें एक सूत्र में पिरोया जा सकता ! टोपोलोजी जैसे गणित ज्यादा पढने वाले शायद यही सब सोच कर फिलोस्फर (पागल?) हो जाते हैं.
 
 
           
पीली आंख और बेरौनक चेहरे के  साथ अकेले न्रत्य करते रहने की यातना के बीच ही मैंने शीश्ो का खाली फ्रेम उतारकर नीचे रख दिया है...। तुम्हारे साथ रहते हुए जीवित ही स्वर्ग के द्वार तक पहुंच जाने की चाह को भी सहेजकर रख देने से मुझे गुरेज नहीं है...। मैं एक बार भी तुम्हें शर्मिन्दा नहीं करूंगी वो सब याद दिलाकर जिस तुमने काल्पनिक और बेमानी कहकर कल ही चिंदी करते हुए फेंक दिया था। बस  एक बार सामने आकर कहो कि अर्थशास्त्र और सांख्यिकी की किताब के कौन से पन्ने पर तुमने अपने नफ़े का सवाल हल किया था...कैसे तय किया था कि हमारा नुकसान अलग-अलग हो सकता है, .ये कहना ही होगा तुम्हें, इसके बाद मैं मान लूंगी कि वाकई तुममें कुछ बेहतर पाने की चाह रही थी।
सिलेवार शब्दों का लगाना शायद उनका शौक है .विम्बो को नए अर्थो से कागज पर फेकना शायद उनकी फितरत....वे किसी घुसपेठिये  की माफिक .आपके दिल में घुसती है  .ओर कोल्हाहल मचाकर ख़ामोशी से निकल जाती है .पोस्ट के आखिर  में शेर कहना शायद उनकी दूसरी बुरी आदत है ..पर जिसका एडिक्शन पाठक को भी हो सकता है
कोई देता है दर -ए दिल से मुसल्सल आवाज,और फिर अपनी ही आवाज से घबराता है...अपने बदले हुए अंदाज का अहसास नहीं उसको ,मेरे बहके हुए अंदाज से घबराता है ..(- कैफी आजमी) 
अभी-अभी धूप थी ओर बस अभी बूंदा-बांदी शुरू ---पानी की हल्की बूंदों के पार खूबसूरत अंदाज में पिघलती कुछ सपाट आकृतियाँ आकार लेती है शाम की शुरुआत होना ही चाहती है,अध् पढ़ी कहानी का पृष्ट बिन मोड़े ही वो गोद में उलट देती है ..तुरंत ही गलती का अहसास ,अब फिर सिरा ढूँढना होगा दुबारा शुरू करने के पहले,-कहाँ छोड़ा था,क्या ये मुमकिन होगा शुरुआत से पहले छूटे हुए कथा सूत्र को पकड़ पाना,एक ख्याल गाथा नया सिरा पकड़ लेती है , उधेड़बुन के साथ -सच कुछ भ्रम भी जरूरी है अच्छे से जीने के लिए ..पर मन की तरह मौसम भी बेहद खराब है,यहाँ ..ओर वहां ?इस सवाल का जवाब उसे नहीं मिलना था जो नहीं होगा उस इक्छा की तरह ..मन की खिन्नता के बावजूद उसका इन्टेस चेहरा खिल उठा शायद मोबाईल के साइलेंट मोड़ में रौशनी जल-बुझ उठेगी बिन आहट सोचना ....लेकिन उम्मीद से थोड़ा ज्यादा किसी भी नतीजों पर ना पहुँचने वाले फैसले एक झिझके हुए दिन के साथ अनुनय करते समय के बरक्स .. उदास-निराश होकर रह जाते हेँ
 आखिर कितने तकाज़े कर सकता है कोई महबूब
आखिर कितने तकाज़े कर सकता है कोई महबूब             
स्त्री किसी एक का भी नहीं करती है प्रतिवाद.             
कितनी खुश हूँ मैं आज के दिन             
रंगहीन बर्फ के तल में जल है गतिहीन             
और नरम चमकदार कफ़न के बगल में             
खड़ी मैं             
पुकार रही हूँ - मदद करो मेरे ईश.             
कोई है, जो मेरी चिठ्ठियों को बचा ले !             
ताकि हमारे परवर्ती कायम कर सकें कोई राय             
कि तुम कितने बहादुर और बुद्धिमान थे             
उन्हें पूरी स्पष्टता के साथ             
यह तो पता चले             
कि तुम्हारी शानदार जीवनी में             
शायद छोड़ दिए गए हैं कई अंतराल.             
कितनी मीठा है यह दुनियावी मद्य             
कितनी कसी हुई है यह प्यार के जाल की फाँस             
ऐसा हो कि बच्चे किसी समय             
अपनी पाठ्य पुस्तकों में पढ़ सकें मेरा नाम             
और कुछ सीख सकें             
इस दुखान्त कथा के बहाने             
और मुस्कुरायें मंद - मंद....             
चूँकि तुमने मुझको             
न तो प्यार दिया है न ही शान्ति             
इसलिए             
बख्शो मुझे कड़वा ऐश्वर्य.             
 
लैटिन क्वार्टर्स में सोर्बॉन वाला इलाका । सेन नदी के किनारे साँ मिशेल के ठीक बगल में, नात्र दाम के सामने । दुकान के दरवाज़े पर एक बड़े ब्लैकबोर्ड पर सफेद चॉक से लिखा है .. 
" कुछ लोग मुझे लैटिन क्वार्टर्स का डॉन किहोते कहते हैं , इसलिये कि मेरा दिमाग कल्पनाओं के ऐसे बादल में रमा रहता है जहाँ से मुझे सब बहिश्त के फरिश्ते नज़र आते हैं और बनिस्पत कि मैं एक बोनाफाईड किताब बेचने वाला रहूँ , मैं एक कुंठित उपन्यासकार बन जाता हूँ । इस दुकान में कमरे किसी किताब के अध्याय की तरह हैं और ये तथ्य है कि तॉलस्ताय और दॉस्तोवस्की मुझे मेरे पड़ोसियों से ज़्यादा अज़ीज़ हैं .." ।
 
           
पुरानी शहतीरों पर टिकी छत , लकड़ी की तीखे स्टेप्स वाली सीढ़ी , किताबें अटी ठँसी हुई , बेंचों के नीचे , सीढियों के बगल में , रैक्स पर , फर्श पर ..सब तरफ । कुछ वैसा ही एहसास जैसे आप लेखकों से वाकई मिल रहे हों ..कुछ उनकी दुनिया छू रहे हों । 
मैंने बताया उन्हें , मैं भी लेखक हूँ , हिन्दी में लिखती हूँ , शायद क्या पता कभी अगली दफा आने का मौका हो तो ... उन्होंने कहा आने के पहले बात ज़रूर करिये अगर जगह होगी ..क्यों नहीं । सचमुच क्यों नहीं ..किसी ऐसी दुनिया में खुलने वाली खिड़की हो ..क्यों नहीं 
एक दुकान की बाबत .प्रत्यक्षा के..कुछ फलसफे             
वे घटनाओं के विस्तार में कम यकीन रखती है .प्रतीकों से उनका लिखा अक्सर कोई कोलाज़ रचता  है 
 
|
| 
टोपला लगाए गांव के सरकारी स्कूल में बैठा हूं। दरी बिछी है। आधे से ज्यादा बच्चों की नाक तार-सप्तक की तरह बज रही है। बीच में छींक और खांसी की लगातार आवाजें पूरी कक्षा में 'फ्यूजन पैदा कर रहे हैं। आज बाहर धूप भी नहीं है। स्कूल की बिना किवाड़ वाली खिड़कियों पर दरी के ही पर्दे लटकाए हैं लेकिन छन छन के शीत लहर आ रही है। समवेत ध्वनियां हैं, जोर जोर से, 'एक एक ग्यारहा, एक दो बारहा, एक तीन तेरहा, एक चार चौदह, एक पांच पन्द्रह।Ó बहाना है कि रटा लगा रहे हैं। सच्चाई है कि जोर-जोर से बोलने में सर्दी कम लग रही है।३४ साला रामकुमार सिंह ठिठुरती यादो को ऐसे बांट रहे है ऐसी इमानदार यादे सर्दी की कोई गुनगुनाती   धूप का अहसास देती है 
 
 
 
   
 चूल्हे के सामने मां, बापू, चाचा, मौसी सब जमे हैं। दिसम्बर की सर्द रात है। आग अपनी शक्ल बदल रही है। कभी 'धपड़बोझ, कभी 'खीरे तो कभी 'भोभर। चूल्हे की चौपाल लंबी चलेगी। मुझे मेरे चचेरे भाई गोकुल के साथ हिदायत दी जाती है कि चुपचाप जाकर रजाई में घुस जाऊं। हम दस मिनट तक यही बहस करते हैं कि पहले तुम घुसो। रजाई इतनी ठंडी है। बर्फ सी लगती है। जो पहले घुसेगा वो गर्म तो पता नहीं कब होगा लेकिन ठिठुर जरूर जाएगा यह तय है। आखिरकार बीच का रास्ता मां ने तय किया था। एक दिन तुम घुसोगे, एक दिन गोकुल। मैं घर में सबसे छोटा था। मेरी मासूमियत गोकुल को अक्सर पिघलाती थी। वह पूरा पिघल ही नहीं जाए इससे बचने के लिए ठंडी रजाई में राहत पाता था।
 
 | 
|
|  हफ्ते की टिपण्णी ......अपूर्व की 
  अपूर्व एक रचनात्मक   हस्तक्षेप   है ....वे आपकी पोस्ट के डाइमेंशन को अच्छी तरह से नापते है .उनके अकस्मात स्केल लिखने वाले के बेलेंस के लिए जरूरी है ...       
“कमाल है..अभी तीन दिन पहले ही कुमार विकल जी की एक लौह-तप्त कविता गर्म सलाखों सी छू गयी थी जेहन को..ऐसी ही...जिसे खोज कर यहाँ पर चेपने का लोभ संवरण नही कर पा रहा हूँ युद्ध एक शब्द— भयावह बिंबों का स्रोत जो मैंने— अपने शब्द—कोश से काट दिया था आज हवा में सायरन की आवाज़ों ने लुढ़का दिया है. युद्ध… . अख़बार बेचने वाला लड़का चिल्लाता है— —पिकासो नई गुएर्निका बनाएँगे पाल राब्सन सैनिक—शिविरों में शोक—गीत गाएँगे— लाशों के अम्बार पर बिस्मिलाह ख़ाँ— फौजी धुनें बजाएँगे. और धीरे—धीरे— चीज़ों के संदर्भ बदल जाएँगे. अर्थात— खेतों में बीज डालने वाले हाथ नरभक्षी गिद्ध उड़ाएँगे. अब खेतों से पकी हुई फ़स्लों की गंध नहीं आएगी बल्कि एक बदबू —सी उठकर नगरों—ग्रामों गली—मुहल्लों घर—आँगन देहरी—दरवाज़ों तक फैल जाएगी. बदबू… मेरे तुतलाते बच्चे ने पहला शब्द सीखा है— और उसके होंठों से दूध की बोतल फिसल गई है. युद्ध — एक शब्द… जो मैने— अपने शब्द-कोश से काट दिया था मेरे बच्चे के शब्द-कोश के— प्रथम शब्द का मूल स्रोत है.       
प्रतीक गढ़ने मे तो आप उस्ताद हैं मानो.. पीर की मज़ार का रास्ता किधर है बिलबिलाकर सुरंग में घुसते हुए पूछेंगे आदमी शक्लें!!! हाँ कही-कही स्त्रीलिंग/पुल्लिंग का लफड़ा हो जाता है आपकी कविता मे..देख लेना...वरना स्त्री/पु्रुष-विमर्श वाले न घेर लें आपको..जेंडर इश्यू को ले कर ;-)       
       
 | 
 
और खुद उनकी डाइमेंशन  मापने के स्केल पर उनकी ये कविता रखकर आप देख सकते है
  हाँ
वह भी कोई वक्त ही हुआ करता था
जब तुम्हारे इंतजार की राह पर दौड़ती
मेरी मासूम बेसब्री के
नाजुक पाँवों मे चुभ जाते थे
घड़ी की सुइयों के नुकीले काँटे
और जब
पाँव के छालों की थकान से रिसते
नमकीन आँसू हमारी रातों को जगाये रखते थे
वह भी कोई रातें हुआ करती थीं
जब कि हम
एक जोड़ी खाली हाँथों को
एक जोड़ी खाली जेबों के हवाले कर
अपने पैरों की जवाँ थकान
आवारा सड़कों के नसीब मे लिख देते थे
और
रात के काँपते गीले होठों पर
फ़ड़फ़ड़ा कर बैठ जाता था
कोई नाम
वह भी कोई शामें हुआ करती थीं
कि न हो कर भी
तुम मेरे इतने करीब हुआ करते थे
कि वक्त एक शरारती मुस्कान दाँतो तले दबाते हुए
’एक्स्क्यूज़ मी’ कह कर
कमरे से बाहर निकल जाता था
दबे पाँव
आगे पढ़े 
नन्दनी  औपचारिक कविताओ में विश्वास नहीं रखती ...महेन   ओर गौरव सोलंकी   की तरह ......न प्रतिक्रियाओ के लिए उनकी बैचेनी नजर आती है ..उनकी खासियत उनका मौलिक होना है .....
 
तुम्हारी हंसी .....           
दिन के कोलाहल में            
जब खो जाता है मेरा वजूद,             
धमनियों की धौंकनी             
हो जाती है पस्त समंदर सी,             
इच्छाओं का विराट आकाश             
सिमट जाता है पुराने बटुए में             
तब भी             
सिक्कों की तरह कहीं बजती है             
तुम्हारी हंसी.             
कितना अच्छा होता कि             
तुम्हारी हँसी             
किसी बरगद सी होती             
जिसमे हर साल नयी जड़ें फूटती,             
उन पर टांग दिया करती             
मैं अपनी मुस्कुराती आँखें,             
पर ये तो             
नर्म फाहों सी उड़ती है             
मेरे आस पास,             
उड़ती है एक अनुभवी बाज़ सी...             
मगर फिर भी             
जब तुम, सिर्फ अपने लिए रोते हो             
तब भी जाने क्यों             
भुला देती हूँ तुम्हारी हंसी.
दर्शन बागी तेवरों के साथ ब्लॉग लिखते है ..यूं कहिये के कागजो में अपनी मर्जी से जीते है....अच्छा लगता है कोई  युवा जब बेझिझक अपने ख्यालो को अपने अंदाज से पिरोता है ...त्रिवेणी की एक बानगी………
हथियार जो पकडे हैं उसने छाले लाज़मी ही हैं,            
मुझको मौत देते देते आज वो भी रो गया.             
हे इश्वर !! भगवान के लिए, चुप हो जाओ.
 मेरी उम्र बड़ी तेज़ी से बढ़ रही थी.रोपवे का शायद सत्रहवां चक्कर था.
           
मेरी उम्र बड़ी तेज़ी से बढ़ रही थी.रोपवे का शायद सत्रहवां चक्कर था. 
             
हर चक्कर में सैलानी चढ़-उतर रहे थे. जो चौथे में ऊपर गए वो सत्रहवें में नीचे जा रहे थे ."अरे ये दोनों अब भी यहीं हैं?" वाली परदेसी नज़रें मुझे (और यक़ीनन तुम्हें भी) उस 'पल' पे घमंड करने के कितने 'पल' देती थी ना ?कोई हमें देखकर मुस्कुराता, कोई वापिस जाते वक्त हाथ हिलाता, किसी बूढ़े सैलानी ने शायद हमारी तस्वीर भी खीचीं थी. हम भी अपने सर से सर मिलाकर उन्हें मुस्कराहट का "souvenir" देते !! 
एक जोड़ी मुस्कान....             
...लेते जाओ !!
 
           
विद्या भूषण  ....साहित्य की दुनिया का एक जाना माना नाम है ....शर्त उनकी कविता है.....उसे बांचिये ओर अंदाजा लगाये के क्या भाषा अपना रास्ता खुद तय करती है.....            
 एक सच और हजार झूठ की बैसाखियों पर 
सियार की तिकड़म            
और गदहे के धैर्य के साथ            
शायद बना जा सकता हो राजपुरूष,            
आदमी कैसे बना जा सकता है।            
पुस्तकालयों को दीमक की तरह चाट कर            
पीठ पर लाद कर उपाधियों का गट्ठर            
तुम पाल सकते हो दंभ,            
थोड़ा कम या बेशी काली कमाई से            
बन जा सकते हो नगर सेठ।            
सिफारिश या मिहनत के बूते            
आला अफसर तक हुआ जा सकता है।            
किंचित ज्ञान और सिंचित प्रतिभा जोड़ कर            
सांचे में ढल सकते हैं            
अभियंता, चिकित्सक, वकील या कलमकार।            
तब भी एक अहम काम बचा रह जाता है            
कि आदमी गढ़ने का नुस्खा क्या हो।            
साथी, आपसी सरोकार तय करते हैं            
हमारी तहजीब का मिजाज,            
कि सीढ़ी-दर-सीढ़ी मिली हैसियत से            
बड़ी है बूंद-बूंद संचित संचेतना,            
ताकि ज्ञान, शक्ति और ऊर्जा,            
धन और चातुरी            
हिंसक गैंडे की खाल            
या धूर्त लोमड़ी की चाल न बन जायें            
चूंकि आदमी होने की एक ही शर्त है            
कि हम दूसरों के दुख में कितने शरीक हैं।
 
           
तभी मेरी नजर वैश्याओं के बीच बैठी एक बेहद सुंदर स्त्री पर पडी। शक्ल से वह कहीं से भी वैश्या नहीं लग रही थी. चेहरे पर मासूमियत, साडी के किनारों को उंगलियों में लपेटती खोलती और एक उहापोह को जी रही वह स्त्री अभी इस बाजार में नई लग रही थी। कुछ ग्राहक उसकी ओर ज्यादा ही आकर्षित से लग रहे थे। मेरे मन में विचार उठा कि आखिर किस परिस्थिती के कारण उसे इस नरक में आने की नौबत आन पडी होगी। इतनी खूबसूरत स्त्री को क्या कोई वर नहीं मिला होगा। मेरी लेखकीय जिज्ञासा जाग उठी। मन ने कहा........ यदि यहां की हर स्त्री से उसकी कहानी पता की जाय तो हर एक की कहानी अपने आप में एक मानवीय त्रासदियों की बानगी होगी। न जाने किन किन परिस्थितियों में यह स्त्रीयां यहां आ पहुँची हैं। कोई बंगाल से है, कोई तमिलनाडु से है तो कोई नेपाल से है। हर एक की कहानी अलग अलग है, पर परिणाम एक ही। हर एक पर कहानी लिखी जा सकती है।  
चलते चलते ...           
आज छब्बीस ग्यारह है .जाहिर है आक्रोश भी है गुस्सा भी हताशा भी ....ये सोचना के के एक साल बाद हम कहाँ खड़े है ये महत्वपूर्ण  है ...देश के प्रधानमंत्री संयम रखने की अपनी घोषणा को सार्वजनिक करते हुए इसे उपलब्धि  के तौर पे गिन रहे है ..अलबत्ता आंतकवाद  के विरुद्ध  ट्रीटमेंट में  कोई बड़ा बदलाव अभी तक नहीं  दिखा है ...पाकिस्तान नेपाल श्रीलंका बंगलादेश चारो ओर ऐसे  अशांत पड़ोसियों से गिरे रहने के बावजूद हम अभी भी धर्म- मजहब ,जात -पात ,भाषा के झगड़ो से ऊपर नहीं उठे है....कही नक्सल वाद अपने पैर पसार रहा है तो कही  राज्य सरकारे केंद्र से अलग चल रही है ....... मधु कौड़ा जैसे लोग देश को दीमक की तरह चाट रहे है .ओर राज ठाकरे जैसे लोग राजनीति के पतन का एक वीभत्स चेहरा दिखा  रहे है ....कही से कोई उम्मीद नजर नहीं आती...तो क्या हमारा देश बरसो से वेंटिलेटर पर चल रहा है ?अपनी अपनी परिधि में  सीमित साधनों के भीतर रहते हुए भी प्रत्येक देशवासी अगर अपना काम ईमानदारी से  निभाये तो एक बहुत बड़ा योगदान कर सकता है .....
छब्बीस ग्यारह की पोस्टो के लिए एक अलग विस्तृत   चर्चा की आवश्यता होगी .आज के लिए इतना ही.....फिर मिलेगे
Post Comment
Post Comment