दो दिन पहले हिन्दी ब्लॉगिंग के दस साल पूरे हुये। कुछ अखबारों में देखा लोगों ने बयान जारी किया है। हिन्दी ब्लॉगिंग के बारे में बताया है। अगले दिनों में कुछ और बयान आयेंगे। लेख भी और वार्तायें भी। चलिये हम भी आपको कुछ झलकियां दिखाते हैं। 
हिन्दी ब्लॉगिंग की पहली पोस्ट आलोक कुमार ने लिखी 21 अप्रैल, 2003 को। पहली पोस्ट में कुछ ये लिखा गया:
सोमवार, अप्रैल 21, 2003 22:21
चलिये अब ब्लॉग बना लिया है तो कुछ लिखा भी जाए इसमें।
वैसे ब्लॉग की हिन्दी क्या होगी? पता नहीं। पर जब तक पता नहीं है तब तक ब्लॉग ही रखते हैं, पैदा होने के कुछ समय बाद ही नामकरण होता है न।
पिछले ३ दिनों से इंस्क्रिप्ट में लिख रहा हूँ, अच्छी खासी हालत हो गई है उँगलियों की और उससे भी ज़्यादा दिमाग की। अपने बच्चों को तो पैदा होते ही इंस्क्रिप्ट पर लगा दूँगा, वैसे पता नहीं उस समय किस चीज़ का चलन होगा।
काम करने को बहुत हैं, क्या करें क्या नहीं, समझ नहीं आता। बस रोज कुछ न कुछ करते रहना है, देखते हैं कहाँ पहुँचते हैं।
अब होते हैं ९ २ ११, दस बज गए।
आलोक दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ पà¥à¤°à¤à¤¾à¤¶à¤¿à¤¤à¥¤ टिप्पणी(0)
जम गया
आलोक दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ पà¥à¤°à¤à¤¾à¤¶à¤¿à¤¤à¥¤ टिप्पणी(0)
यू टी ऍफ़ ८ ठीक नहीं है।
आलोक दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ पà¥à¤°à¤à¤¾à¤¶à¤¿à¤¤à¥¤ टिप्पणी(0)
अब कैसा है?
आलोक दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ पà¥à¤°à¤à¤¾à¤¶à¤¿à¤¤à¥¤ टिप्पणी(0)
 
बड़ा कैसे करें?
आलोक दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ पà¥à¤°à¤à¤¾à¤¶à¤¿à¤¤à¥¤ टिप्पणी(0)
 
लगता है यह अक्षर छोटे हैं।
आलोक दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ पà¥à¤°à¤à¤¾à¤¶à¤¿à¤¤à¥¤ टिप्पणी(0)
 
नमस्ते।
क्या आप हिन्दी देख पा रहे हैं?
यदि नहीं, तो यहाँ देखें।
आलोक दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ पà¥à¤°à¤à¤¾à¤¶à¤¿à¤¤à¥¤ टिप्पणी(0)
हिन्दी के प्रथम चिट्ठाकार आलोक कुमार से एक बातचीत आप
 यहां पढ़ सकते हैं।। 
आलोक के पहले 
विनय रोमन हिन्दी में हिन्दी से जुड़ी गतिविधियों के बारे में जानकारी अपने चिट्ठे पर लिखते रहते थे। हिन्दी भाषा में उस समय जो भी काम हो रहे थे उनके बारे में जानकारी वे अपने ब्लॉग पर लिखते रहते थे। उनके ब्लॉग के मत्थे पर केदारनाथ सिंह की यह कविता मौजूद है:
जैसे चींटियाँ लौटती हैं बिलों में 
 कठफोड़वा लौटता है काठ के पास 
 ओ मेरी भाषा! 
मैं लौटता हूँ तुम में
जब चुप रहते-रहते अकड़ जाती है मेरी जीभ 
 दुखने लगती है मेरी आत्मा
-केदारनाथ सिंह
यह वह समय था जब हिन्दी के सभी अखबार अलग-अलग 
देवनागरी मुद्रलिपियों में अखबार निकाल रहे थे। नेट पर अखबार पढ़ने के लिये बहुत दिनों तक उनके फ़ांट भी उतारने पड़ते थे। शुरुआती  ब्लॉगरों के लिये हिन्दी में लिखने का औजार 
तख्ती था। तख्ती की सहायता से। इसीलिये हम अपने को तख्ती के जमाने का ब्लॉगर कहते हैं। 
शुरुआती दौर के कुछ ब्लॉगरों के नाम 
यहां दिये हैं। इसमें हिन्दी की पहली महिला चिट्ठाकार पद्मजाका भी नाम जुड़ना है। पद्मजा ने ब्लॉग बनाया 
सितम्बर 2003 में। लेकिन पहली पोस्टिंग की हुई जून 2004 में। जब उन्होंने 
लिखा:
 
चिट्ठा विश्व . . .
इस हफ्ते चिट्ठा विश्व में कुछ योगदान दिया। अभी तो यह बीटा वर्जन में है, देबाशीष अभी लेखन सामग्री जुटाने मे लगे हैं। आपके सुझाव भी आमंत्रित हैं।
पर ये क्या? मेरा ही चिट्ठा इस सूची से गायब है? पता चला कि जब तक अपना चिट्ठा अपडेट नही करो ये दिखायेंगे नहीं। तो लो भाई, ये हो गया हमारा चिट्ठा भी अपडेट।
देबाशीष नवंबर 10 नवंबर, 2003 में ब्लॉग जगत में आ गये थे। पहली पोस्टिंग में 
उन्होंने लिखा:
Monday, November 10, 2003
गांववालों, मैं आ गया हूँ
आलोक और पद्मजा के बाद अब मेरी बारी हिंदी चिठ्ठों की दुनिया में प्रवेश की। पर भारत पाक की बातचीत की तरह ज्यादा उम्मीदें न रखें। रफ्तार तो नल प्वाईंटर वाली ही रहेगी, बदलेगा तो बस अंदाज़े बयां।
पद्मजा के चिट्ठे की एक पोस्ट से जानकारी मिली कि नीरव ने भी ब्लॉग लिखना शुरु किया है। नीरव ने पहली पोस्ट जून 2004 में 
लिखी। देबाशीष, पद्मजा और नीरव सहकर्मी थे। उन दिनों इंदौर में। सो हिन्दी ब्लॉग की शुरुआती गतिविधियों का केन्द्र इंदौर ही रहा। शुरुआती गतिविधियां मतलब चिट्ठाविश्व, चिट्ठाकार समूह, 
अनुगूंज  और 
बुनो कहानी का आयोजन और 
अक्षरग्राम पर जो सुझावबाजी देबाशीष कर रहे थे। बुनो कहानी में तो कुल जमा छह कहानी लिखी गयीं। लेकिन अनुगूंज बहुत दिनों तक चली। हिन्दी ब्लॉगिंग के सबसे बेहतरीन लेख में से कुछ लेख अनुगुंज के बहाने लिखे ब्लॉगरों ने। बुनो कहानी की पहली कहानी का 
तीसरा भाग मुझे लिखना था लेकिन मैंने अपने सहकर्मी गोविन्द उपाध्याय को इसे पूरा करने का जिम्मा दिया। उनका लिखना सालों से स्थगित था। उन्होंने यह  कहानी पूरी की और  फ़िर दुबारा लिखना शुरु कर दिया। उसके बाद से वे धड़ाधड़ लिखने लगे और हाल ही में उनका चौथा कहानी संग्रह आया है। ये होते हैं ब्लॉगिंग के साइड इफ़ेक्ट। 
पंकज नरुला मार्च 2004 में और रविरतलामी 20 जून 2004 में ब्लॉग अखाड़े में आये। ब्लॉगजगत के शुरुआती दिनों के खलीफ़ा रहे देबाशीष, पंकज और रविरतलामी। हिन्दी के शुरुआती दौर के ब्लॉग अभिव्यक्ति में छपे रविरतलामी के लेख 
अभिव्यक्ति का नया माध्यम ब्लॉग को पढ़कर कई लोगों ने अपना ब्लॉग बनाया। इसी को पढ़कर और देबाशीष के ब्लॉग पर मौजूद की बोर्ड सहायता से मैंने भी अपना ब्लॉग बनाया और पहली पोस्ट में 
बमुश्किल सिर्फ़ इत्ता लिख पाया: 
अब कबतक ई होगा ई कौन जानता है 
शुरुआती अनाड़ीपन के चलते हमने अपने यहां आयी तीन टिप्पणियां भी मिटा दीं। बाद में पता जीतेन्द्र, इंद्र अवस्थी, अतुल अरोरा, रमण कौण, अनुनाद सिंह के बारे में पता चला।
उस समय अतुल अरोरा 
हम सभी के सबसे पसंदीदा ब्लॉगर थे। अतुल अरोरा रोजनामचा के अलावा अपने अमेरिकी जीवन के किस्से 
लाइफ़ इन एच.ओ.वी. लेन में लिख रहे थे। 
शुरुआती समय में 
हिन्दी ब्लॉगिंग को बढ़ावा देने में अक्षरग्राम का सबसे अहम योगदान रहा। सारे एजेंडे यहां तय होते। बाद में ई-पण्डित ने इसके ज्ञानकोश की जिम्मेदारी संभाली। हिन्दी ब्लॉगिंग के बारे में सबसे शुरुआती समय की गतिविधियां अक्षरग्राम में मौजूद हैं। पंकज नरुला से फ़िर से अनुरोध करेंगे कि वे जनहित में एक जगह कहीं इसे वापस रखें ताकि लोग हिन्दी ब्लॉगिंग की शुरुआती हलचल को महसूस कर सकें।
आज संकलक गायब हैं। नारद , ब्लॉगवाणी और चिट्ठाजगत कोई नहीं जिससे हिन्दी ब्लॉगपोस्टों के बारे में पता चल सके। तमाम लोग हिन्दी ब्लॉगिंग में  कमी आने का कारण हिन्दी ब्लॉगिंग में संकलक का न रहना बताते हैं। हिन्दी विश्व, जिसकी परिकल्पना देबाशीष ने की थी,  में भारत की सभी भारतीय भाषाओं के चिट्ठों की जानकारी देने की योजना थी। उसका 
उद्धेश्य था:
चिट्ठा विश्व, यानि हिन्दी चिट्ठों (ब्लॉग) के संसार में आपका स्वागत है। मूल रूप से चिट्ठा विश्व हालांकि एक ब्लॉग अन्वेशक (एग्रीगेटर) या न्यूज़ रीडर ही है पर हमारा प्रयास है कि यह निज भाषा के प्रयोग में गौरव महसूस करने वाले हिन्दी चिट्ठाकारों (ब्लॉगर्स) की समग्र छवि प्रस्तुत कर सके।  
चिट्ठाविश्व में पोस्टें बहुत धीमी गति से अपडेट होतीं थीं। आज पोस्ट करो अपने ब्लॉग पर तो कल दिखतीं थीं। जीतेन्द्र धड़ाधड़ पोस्ट करते तो उनकी ही दो तीन पोस्टें छायीं रहतीं। उनको हडकाया गया तब वे माने लेकिन करते अपने ही मन की थे। चिट्ठाविश्व में ही उन दिनों चिट्ठाचर्चा की पोस्ट भी दिखती थी। यह भी देबाशीष का सुझाव था। 
चिट्ठाविश्व के बारे में रवीन्द्र प्रभात ने अपनी किताब हिन्दी ब्लॉगिंग का इतिहास में लिखा है:
’चिट्ठाविश्व’देबाशीष द्वारा जावा पर बना ,बहुत ही अच्छा प्रोग्राम था, जिसमें ब्लॉग झट से अपग्रेड हो जाया करते थे।
ये झट से अपग्रेड होने वाली बात सही नहीं है। चिट्ठाविश्व ब्लॉग पोस्ट अपडेट होने में घंटो लगते थे।
शुरुआती समय में सबसे बड़ी समस्या टिप्पणी करने की  थी। शुरु में कट-पेस्ट तकनीक से टिप्पणियां करते थे लोग। जब ई-स्वामी आये तो उन्होंने  
हग टूल बनाया जिसे सीधे ब्लॉग में लगाया जा सके और सीधे टिप्पणी की जा सके। यह अपने समय की बड़ी उपलब्धि थी। 
चिट्ठाचर्चा की शुरुआती पोस्टों में नये ब्लॉग की जानकारी दी जाती थी। 21 अप्रैल’2003 को शुरु करके सौ चिट्ठे 25 अगस्त'2005 में पूरे हुये। सौंवां चिट्ठा रायबरेली के मूलनिवासी 
राहुल तिवारी का था। दो महीना कम ढाई साल लगे एक से सौ तक आंकड़ा पहुंचने में। इसकी जानकारी देते हुये देबाशीष ने 
लिखा:
हिन्दी ब्लॉगमंडल में हार्दिक स्वागत इन ६ नये चिट्ठों काः IIFM, भोपाल के छात्र भास्कर लक्षकर का संवदिया; लखनउ के निशांत शर्मा, समूह ब्लॉग कहकशां, यूवीआर का हिन्दी, मासीजीवी का शब्दशिल्प और रायबरैली के राहुल तिवारी का जी हाँ! और खुशी के बात यह भी है कि हिन्दी ब्लॉग संसार की संख्या आखिरकार प्रतीक्षित १०० की संख्या तक पहुँच ही गई। शत शत अभिनन्दन सभी चिट्ठाकारों का! 
इसके बाद की हिन्दी के ब्लॉग तेजी से बढ़े। चिट्ठाचर्चा भी गतिशील हुई। जो कि अब तक जारी है। 
शुरुआती समय में ब्लॉग को अपनी भड़ास निकालने का माध्यम मानने वाले साहित्यकार अब हिन्दी ब्लॉगिंग से जुड़ रहे हैं। आज नेट पर जो भी हिन्दी दिखती है उसका श्रेय हिन्दी में अपने को व्यक्त करने की झटपटाहट रखने वाले हिन्दी ब्लॉगरों को जाता है। कोई पहले जुड़ा कोई बाद में। किसी को कहीं से पता चला किसी को कहीं और से। लेकिन यह बात निर्विवाद है कि इंटरनेट पर हिन्दी के प्रचार-प्रसार का बहुत कुछ श्रेय हिन्दी ब्लॉगरों को जाता है।
इस पर अपनी टिप्पणी  करते हुये प्रियंकर जी ने 
लिखा:
इसका एक प्रतीकात्मक अभिप्राय यह भी है कि अब हिंदी पर हिंदी पट्टी के चुटियाधारियों का एकाधिकार खत्म होने को हैं . आंकड़े कहते हैं कि अगले दस-बीस वर्षों में दूसरी भाषा के रूप में हिंदी सीखने वाले विभाषियों की संख्या मूल हिंदीभाषियों से ज्यादा होगी . और तब एक नये किस्म की हिंदी अपने नये रूपाकार और तेवर के साथ आपके सामने होगी 
हिन्दी ब्लॉगरों के बारे में सबसे अच्छी शुरुआती टिप्पणी अनूप सेठी जी ने 
फ़रवरी’2005 में वागर्थ में लिखे अपने लेख में की थी:
यहां गद्य गतिमान है। गैर लेखकों का गद्य। यह हिन्दी के लिए कम गर्व की बात नहीं है। जहां साहित्य के पाठक काफूर की तरह हो गए हैं, लेखक ही लेखक को और संपादक ही संपादक की फिरकी लेने में लगा है, वहां इन पढ़े-लिखे नौजवानों का गद्य लिखने में हाथ आजमाना कम आह्लादकारी नहीं है। वह भी मस्त मौला, निर्बंध लेकिन अपनी जड़ों की तलाश करता मुस्कुराता, हंसता, खिलखिलाता जीवन से सराबोर गद्य। देशज और अंतर्राष्ट्रीय। लोकल और ग्लोबल। यह गद्य खुद ही खुद का विकास कर रहा है, प्रौद्योगिकी को भी संवार रहा है। यह हिन्दी का नया चैप्टर है।
बाद में अक्तूबर 2007 के कादम्बिनी में बालेन्दु दाधीच का लेख आया-ब्लॉगिंग: 
ऑनलाइन विश्व की आज़ाद अभिव्यक्ति!इसको पढ़कर भी बहुत से लोग  ब्लॉगजगत से जुड़े। 
हिन्दी ब्लॉगजगत के दस वर्ष पूरा होने के मौके पर सभी ब्लॉगर साथियों को शुभकामनायें। आपका  मस्त मौला, निर्बंध लेकिन अपनी जड़ों की तलाश करता मुस्कुराता, हंसता, खिलखिलाता जीवन से सराबोर लेखन चलता रहे।
मेरी  पसन्द 
ब्लॉगजगत की कुछ पोस्टें इधर-उधर से
हिन्दी ब्लॉगिंग पर लिखे जितने भी लेख मैंने देखे उनकी जब मैं याद करना शुरू करता हूं तो मुझे सबसे पहले याद आता है 
अनूप सेठी जी के लेख का यह अंश:
यहां
 गद्य गतिमान है। गैर लेखकों का गद्य। यह हिन्दी के लिए कम गर्व की बात 
नहीं है। जहां साहित्य के पाठक काफूर की तरह हो गए हैं, लेखक ही लेखक को और
 संपादक ही संपादक की फिरकी लेने में लगा है, वहां इन पढ़े-लिखे नौजवानों 
का गद्य लिखने में हाथ आजमाना कम आह्लादकारी नहीं है। वह भी मस्त मौला, 
निर्बंध लेकिन अपनी जड़ों की तलाश करता मुस्कुराता, हंसता, खिलखिलाता जीवन 
से सराबोर गद्य। देशज और अंतर्राष्ट्रीय। लोकल और ग्लोबल। यह गद्य खुद ही 
खुद का विकास कर रहा है, प्रौद्योगिकी को भी संवार रहा है। यह हिन्दी का 
नया चैप्टर है।
पांच साल से ऊपर हो गये इस लेख को पढ़े हुये
 लेकिन यह गतिमान गद्य वाली बात अक्सर याद आती है। मस्तमौला, निर्बंध। इतने
 दिनों में अनूप सेठी की बात कभी गलत नहीं लगी। यह जरूर हुआ कि  ब्लॉगर 
आये, लिखा और लिखना कम करते रहे। जितने लोगों ने लिखना कम किया उससे अधिक 
नये लोग आ गये मैदान में। लोगों का लिखना बन्द हुआ लेकिन गद्य गतिमान बना 
रहा। बात अनूप सेठीजी ने गद्य की कही थी लेकिन यह बात ब्लॉग जगत की समग्र 
अभिव्यक्ति पर लागू होती है।
यह बात कल अजित गुप्ता जी के लेख 
क्या ब्लॉग जगत चुक गया है
 के संदर्भ में याद आई। मेरी समझ में ब्लॉग जगत में लोगों ने एक से एक 
बेहतरीन लेख और अन्य चीजें लिखीं हैं। लेकिन हमारा बांचने का संकलक निर्भर 
अंदाज ऐसा होता जाता है कि कई बार हम लोगों के बेहतरीन लिखा पढ़ नहीं पाते। 
उन तक पहुंच नहीं पाते।
अभी
 ज्यादातर लोग फ़ीड रीडर या संकलक से देखकर पढ़ते हैं। मैं भी चर्चा के लिये 
संकलक से ही सामग्री का चयन करता हूं लेकिन पढ़ने के लिये अपने जो पसंदीदा 
लिखने वाले हैं उनका लिखा हुआ सारा कुछ पढ़ने का प्रयास करता हूं। आलम यह है
 कि पसंदीदा लिखने वाले बढ़ते जा रहे हैं और बांचने के लिये समय की कमी होती
 जा रही है।
इसी क्रम में मैंने इस इतवार को डॉ.मनोज मिश्र के ब्लॉग
 की शुरुआत से लेकर आजतक की सारी सामग्री पढ़ डाली। बीच में कहीं छोड़ने का 
मन नहीं हुआ। मनोज का ब्लॉग पढ़ना मेरे मन में तब से उधार था जब से मैंने 
उनके ब्लॉग पर जौनपुर के किस्से देखे थे। उनके ब्लॉग पर जौनपुर की 
यह फोटो मेरे मन में बसी हुई है।
सोचकर
 मुझे खुद ताज्जुब होता है कि ब्लॉगजगत में जहां पोस्टों की उम्र एक-दो 
दिन, हफ़्ते-दो हफ़्ते मानी जाती है वहां कोई पोस्ट ऐसी बस जाये मन में कि 
साल भर बाद उसके लेखक की सारी पोस्टें पढते हुये उसको खोजा और मिलने पर 
टिपियाया जाये:
ये वाला फोटो ही मेरे मन में बसा है। नदी बीच पुल और शीर्षक’ए पार जौनपुर ओ पार जौनपुर’!
मैं अगर आपके ब्लॉग का पता भूल जाऊं तो याद करने के लिये गूगल से यही लिंक खोजूंगा-
एपार जौनपुर - ओपार जौनपुर ......
इसी
 तरह पिछले पांच सालों में ब्लॉग जगत के पढ़े न जाने कितने लेख/कवितायें 
अक्सर याद आते हैं। हर किसी में को याद करने का कोई न कोई सूत्र वाक्य है 
जिससे मैं उनको खोजकर दुबारा/तिबारा और फ़िर दुबारा/तिबारा पढ़ता हूं। 
ऐसे ही कुछ लेख/कवितायें/चर्चायें और अन्य भी बहुत कुछ जो मुझे याद आते हैं वो उन सूत्र वाक्यों के साथ आपको बताता हूं देखियेगा?
- कुछ लोग मौसम की तरह चिपचिपे होते हैं: निधि 
 
- ज़ेब
 में साप्ताहिक हिन्दुस्तान का एक बड़ा पन्ना मोड़कर रखता, जिसे बिछा कर 
कोनों को पैर के अंगूठे से दबाकर मुर्गा बन जाता, और झुका हुआ पढ़ता रहता ।: डा.अमर कुमार 
 
- अगले जनम मोहे बेटवा न कीजो... :समीरलाल 
 
- गुरुजी का चेहरा  तेज युक्त मानो अपने सबसे घटिया लेख़ पर  सौ टिप्पणिया लेके बैठे हो...:कुश 
 
- दीवाली
 के दिन मां मेरे लिए दीयाबरनी खरीदती। मिट्टी की बनी बहुत ही सुंदर लड़की 
जिसके सिर पर तीन दीए होते। रात में तेल भरकर उन दीयों को जलाते। मां उसे 
अपनी बहू की तरह ट्रीट करती,ऐसे में कोई उसे छू भी देता तो मार हो जाती। 
लड़कियों से प्यार करने की आदत वहीं से पड़ी।  :विनीत कुमार 
 
- शुक्ला
 जी हॉस्टल के तमाम नाकाम प्रेमियों के लिए उम्मीद  की एक साडे  पॉँच फूटी 
लौ बन के उभरे  ओर एक घटना ने इस लौ को ओर जगमगा दिया ..... :डा.अनुराग आर्य 
 
- हमारे
 वीर बालक ने अभी तक हमको बाई-बाई करना नहीं छोड़ा था सो हम भी फिर से बाई 
कर ही रहे थे कि अवतरण एक धड़ाम की आवाज के साथ हो गया. हमें पीछे से आदर्श
 तरीके से शास्त्र- सम्मत विधि से ठोंक दिया गया था.  :इंद्र अवस्थी 
 
- बचपन का अधकटा पेंसिल सबसे कीमती था । :प्रेम पीयूष 
 
-  कुछ गीत बन रहे हैं, मेरे मन की उलझनों में।
कुछ साज़ बज रहे हैं, मेरे मन की सरगमों मे॥:सारिका सक्सेना  
- सबसे बुरा दिन वह होगा
जब कई प्रकाशवर्ष दूर से
सूरज भेज देगा
‘लाइट’ का लंबा-चौड़ा बिल
यह अंधेरे और अपरिचय के स्थायी होने का दिन होगा : प्रियंकर 
- लड़कियाँ
आँसूओं की तरह होती हैं
बसी रहती हैं पलकों में
जरा सा कुछ हुआ नही की छलक पड़ती हैं
सड़कों पर दौड़ती जिन्दगी होती हैं
वो शायद घर से बाहर नही निकले तो
बेरंगी हो जाये हैं दुनियाँ
या रंग ही गुम हो जाये
लड़कियाँ,
अपने आप में
एक मुक्कमिल जहाँ होती हैं :मुकेश कुमार तिवारी  
ओह
 बड़ा मुश्किल है सारी पसंदीदा पोस्टों को एक ही पोस्ट में बताना। न जाने 
कितने लेख/कवितायें और न जाने क्या-क्या हैं। सुबह से इनको ही पढ़ते दिन हो 
गया। चर्चा तो रह ही गयी। खैर वह फ़िर कभी सही।
मेरी पसंद
 
तीस सेन्टीमीटर था बम का व्यास
और इसका प्रभाव पड़ता था सात मीटर तक
चार लोग मारे गए, ग्यारह घायल हुए
इनके चारों तरफ़ एक और बड़ा घेरा है - दर्द और समय का
दो हस्पताल और एक कब्रिस्तान तबाह हुए
लेकिन वह जवान औरत जिसे दफ़नाया गया शहर में
वह रहनेवाली थी सौ किलोमीटर से आगे कहीं की
वह बना देती है घेरे को और बड़ा
और वह अकेला शख़्स जो समुन्दर पार किसी
देश के सुदूर किनारों पर
उसकी मृत्यु का शोक कर रहा था -
समूचे संसार को ले लेता है इस घेरे में
और अनाथ बच्चों के उस रुदन का तो मैं
ज़िक्र तक नहीं करूंगा
जो पहुंचता है ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक
और उससे भी आगे
और जो एक घेरा बनाता है बिना अन्त
और बिना ईश्वर का.
येहूदा आमीखाई 
और अंत में
फ़िलहाल
 इतना ही। और बहुत सारी सामग्री है हिन्दी ब्लॉग जगत में जिसको मैं बार-बार
 पढ़ना चाहता हूं। उसके बारे में चर्चा करना चाहता हूं। यहां जो मैंने बताई 
वह तो हिमखंड की नोक भी नहीं है। बहुत कूड़ा है यहां लेकिन बहुत सारा कंचन 
भी तो है यहां जो बांचना है। अभी तो शुरुआत है जी।