सोमवार, फ़रवरी 02, 2009

जो अपराधी नहीं होंगे मारे जाएंगे

ब्लाग या बेलाग
कल की चर्चा बरखा प्रभाव - स्ट्राइसेंड प्रभाव को देसी नाम मिला पर आई प्रतिक्रियाओं में इस बात की निंदा की गयी कि एक ब्लागर को माफ़ी मांगने के लिये मजबूर किया गया। इस चर्चा के पहले इस घटना की मुझे कोई जानकारी नहीं थी। नितिन बागला ने अलबत्ता जरूर दो दिन पहले इस बारे में पोस्ट लिखी थी। नितिन ने यह भी लिखा:
मुझे ताज्जुब है कि हिन्दी ब्लागमंडल में इस घटना पर अब तक कोई चर्चा नही हुई है (या शायद मेरी नजर नही पडी)। गुजारिश करूंगा की अगर आपको ये गलत लगता है तो इसके विरोध में अपने ब्लाग पर एक पोस्ट जरूर लिखें।

इस बारे में लिखी गयी पोस्टों के लिंक देशी पण्डित में मौजूद हैं!

इस मसले पर एक अलग बात बताते हुये पोस्ट लिखी गयी है:
बरखा दत्त एक बार फिर से निशाने पर हैं। मामला मुंबई के आंतकी हमलों के बाद का है। नीदरलैंड के एक महाशय मि. कुंते ने एनडीटीवी और बरखा पर सवाल उठाया दिया था कि इन मीडियावालों की वजह से कई जाने गईं। बात यहां भी खत्म नहीं हुई। मि.कुंते ने बरखा दत्त के लिए बकायदा गालियों का इस्तेमाल भी किया। फिर क्या था। पहुंच गया मि. कुंते को नोटिस। मसला अब शुरु होता है। सप्तरंग ब्लॉग पर जब कल इसी संबंध में पढ़ने को मिला तो यह जानकर थोड़ी तकलीफ हुई कि यदि कोई आपको गाली दे तो क्या आप उसकी आरती उतारेंगे या फिर कोई कड़ा कदम उठाएंगे। मैं मि. कुंते को नहीं जानता हूं लेकिन उनकी भाषा से उन्हें कम से कम सभ्य तो नहीं कहा जा सकता है। आप जब बरखा के लिए गालियों का प्रयोग कर सकते हैं तो फिर आपको क्या समझा जाए?


चिट्ठाकार चर्चा में आज अरविन्द मिश्रजी ने सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी के बारे में लिखते हुये लिखा है:
सिद्धार्थ जी अभी तक पूरी तरह युवा हैं -इस बारे में मेरी नेक सलाह है कि कोई उन्हें इस बारे में तो कतई न आजमाए और सिद्धार्थ जी किसी को भी अभी इस कच्ची युवावस्था में तो कदापि आजमाने को मौका ना ही दें ! अनुभव बताता है कि ज्यादातर इमोशनल लफडे इसी उम्र में परवान चढ़ जाते हैं और जिंदगी भर सालते रहते हैं .डर तो इसी बात का है कि सिद्धार्थ भाई कुछ ज्यादा ही डैन्जर जोन में हैं -उम्र का अल्हड़पन , गजटेड सरकारी नौकरी -साफ्ट टार्गेट तो वे वल्लाह हैं हीं ! खुदा बचाए ! लेकिन मानना होगा अपनी तल्ख़ लेखनी से वे इस मामले में अनजान रहकर भी लोगों को पास फटकने का मौका न देकर एक तरह से अपनी लक्ष्मण रेखा बनाए हुए हैं ! (यहाँ लिखना कम समझना ज्यादा ! )

यह बेहतरीन लेख शुरू होते ही खत्म सा हो गया। लेख पढ़कर यह भी पता चलता है कि जब व्यक्ति दूसरे के बारे में कुछ कह रहा होता है तो बहुत कुछ अपने बारे में भी कह रहा होता है!

टेलीविजन चैनलों में आजकल हंसी के कार्यक्रम इत्ते हैं कि देखकर रोना आता है। ज्यादातर हंसाने के लिये में द्विअर्थी संवाद
का सहारा लिया जाता है। अनिल पुसदकर ऐसे ही एक कार्यक्रम के बारे में लिखते हैं:
चैनल बदलते-बदलते बच्चों के एक कार्यक्रम पर मैं रूक गया।सोचा देखूं देश की भावी पीढी क्या कर रही है।एक बच्चा स्टेज पर दो लोगो की टेलिफ़ोन पर बातचीत सुना रहा था।गलत नंबर लगने के कारण वो कार के विज्ञापन दाता और बेटे के लिये बहु तलाश रहे सज्जन के बीच हूई बातों को बता रहा था।बाते क्या थी द्विअर्थी अश्लिल संवाद थे । वो बच्चा द्विअर्थी संवादो के मामले मे दादा कोंड़के को मात दे रहा था और लोग तालिया बज़ा रहे थे।मज़े की बात देखिये मनोज बाजपेई सरीखे कलाकार ने उस पूरे नंबर दे दिए।


अनुराग अन्वेषी अपनी मां के बारे में लिखते हुये उनकी जिजीविषा की कहानी सी कहते हैं :
11 नवंबर को जब मां एम्स में ऑपरेशन थिएटर के सामने बैठी थी, एक डॉक्टर ने मां की ओर इशारा करते हुए दूसरे से कहा 'इनका ऑपरेशन डेंजरस है।' इस बात को मां ने सुन लिया। घर आकर उसने हमसे इस संदर्भ में पूछा। हमसब ने बात को हंस कर उड़ा दिया। मैंने मां से कहा कि तुमने गलत सुना होगा, डॉक्टर कह रहा होगा कि यह महिला बहुत डेंजरस है।


विनीत उत्पल का सवाल है:
कि जब स्लम बस्तियां शहरीकरण के चेहरे पर भद्दा दाग है तो इनके पुनर्वास के लिए सरकार, स्वयंसेवी संस्थााओं के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां क्या कर रही हैं? यदि धारावी पर बनाई गई फिल्म के जरिए लोगों को लगता है कि इससे भारत की छवि विश्व पटल पर खराब होगी या हो रही है तो इसके निराकरण के क्या उपाय हैं?


तरूण का सवाल है: क्या ये नैतिक है? - सात बच्चे सोचे थे लेकिन वो आठ थे!

अब जब इत्ते सवाल उठेंगे तो क्या ताऊ सवाल न करेंगे? ताऊ के सवालों के घेरे में आज विवेक हैं जिनका अपराध यह था कि उन्होंने ताऊ पहेली प्रतियोगिता में पहला स्थान पाया था। सवाल -जबाब आप देखिये:

ब्लाग या बेलाग
  • सवाल : आपकी रचनाओं मे एक व्यंग और मस्ती दिखाई देती है. इसके पीछे कोई विशेष कारण?
    उत्तर - . हमारी रचनाओं में आपको व्यंग्य/मस्ती दिखाई देती है यह जानकर अतिप्रसन्नता हुई . दरअसल हम लिखना तो ज्ञानदत्त जी से भी अच्छा चाहते हैं पर यही सब लिख जाता है . कुछ और शायद हमें आता नहीं . अब इसे लोग व्यंग्य/मस्ती समझें तो हमारा सौभाग्य है .


  • सवाल : आप लोगो की अक्सर बहुत मौज लेते पाये जाते हैं?
    उत्तर -. हमने मौज नाप तोलकर कभी नहीं ली . अगर किसी से ज्यादा ले ली हो तो वह हमसे वापस लेने के लिए स्वतंत्र है . क्योंकि लोग हमसे मौज नहीं लेते इसलिए हमने सोचा इनके पास पहले से ही हमसे ज्यादा मौज हैं . इसलिए हम उनसे ले लेते हैं .



  • अनामदास सरस्वती पूजा के बहाने पुराने दिनों को याद करते हैं:
    रिक्शा भाड़ा भी आ जाता, जैसे मूर्ति आई थी, सरसती मइया किरपा से सब हो जाता था. रिक्शे पर माँ शारदा को लेकर गंदले तालाब की ओर चलते बच्चों की टोली सबसे आगे होती क्योंकि जल्दी घर लौटने का दबाव होता. माता सरसती की कृपा से पूरी तरह वंचित बड़े भाइयों की अबीर उड़ाती टोली, बैंजो-ताशा की सरगम पर थिरकती मंडली, माता सरस्वती की कृपा से दो दिन के आनंद का रसपान करते कॉलेज-विमुख छात्रों का दल 'जब छाए मेरा जादू कोई बच न पाए' और 'हरि ओम हरि' की धुन पर पूरे शहर के चक्कर लगाता.


    आलोक पुराणिक चोरों में एकता स्थापित कर रहे हैं:
    डीडीए-मुरी कब्जाकारकों की एसोसियेशन बना दी जाये, आपस में विचार विमर्श होता रहेगा। एक दूसरे से दिल मिलेंगे। युद्ध रुकवाने के लिए एक दूसरे के काम आयेंगे। डीडीए वाले उधर वालों से कहेंगे-ओय लड़ाई ना होने दियो, मुरी में हमने भी कब्जायी है 5000 कैनाल जमीन। पाकिस्तान वाले हांक लगायेंगे, बिरादर ये डीडीए का ड्रा कैंसल ना होने देना, एक हजार फर्जी एप्लीकेशनें हमारी भी हैं।
    परस्पर सहयोग करने से परस्पर प्यार बढ़ता है जी।


    पुण्य प्रसून बाजपेयी का कहना है- 'जो अपराधी नहीं होंगे मारे जाएंगे'

    मेरी पसन्द


    प्रेम शुक्लमैंने भी कितने बहाने पाल रक्खे थे
    फिर भी गाहे-बगाहे जब
    वो कहती थी फूल
    मैं कह देता गंध.

    वो कहती थी स्पर्श
    मैं कह देता था देह
    वो कहती थी जीवन
    मैं कहता था उम्र

    उसकी नदी को मैंने कहा पानी
    उसने कहा हवा तो मैंने कहा ज़रूरत

    उसने कहा दुनिया तो मैंने कहा चश्मा

    और मुझे छोड़कर चली गई कविता

    प्रेम शुक्ल

    और अंत में



    आज की चर्चा का नियमित दिन कविता जी का है। लेकिन अपनी जीजी (बड़ी ननद) के कैंसर की लम्बी बीमारी के कारण निधन हो जाने के कारण वे इस मन:स्थिति में नहीं हैं कि कुछ लिख सकें।

    उनके परिवार के प्रति संवेदना जाहिर करते हुये मैं कामना करता हूं कि ईश्वर उनको इस अपार दुख को सहने की शक्ति प्रदान करे।

    फ़िलहाल इतना ही। आपके सप्ताह की शुरुआत शुभ हो।

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    रविवार, फ़रवरी 01, 2009

    बरखा प्रभाव - स्ट्राइसेंड प्रभाव को देसी नाम मिला

    यह चर्चा आलोक कुमार ने मुझे डाक से भेज आदेश दिया की एक फरवरी को छापा जाए, वजह उन का "चौडाबाजा" (ब्राडबैंड) बज नहीं रहा।

    कोई भूल चूक लेनी देनी हो तो उन को बताया जाए, अपना काम खत्म।

    विपुल


    चर्चा यहाँ से शुरू है,

    बार्बरा और बरखा – दोनो नामों में क्या समानता है? कुछ खास नहीं पर दोनो के बर्ताव में समानता है। पहले कुछ इस स्ट्राइसेंड प्रभाव के बारे में। २००५ में माइक मैसनिक ने यह नामकरण किया। हुआ यूँ कि बार्बरा स्ट्राइसेंड, जो कि एक गायिका हैं, ने अपने घर की कुछ हवाई तस्वीरें अंतर्जाल पर छपने से रोकने के लिए कुछ क़ानूनी कार्यवाही की। नतीजा यह हुआ कि उन तस्वीरों और इस घटना की चर्चा और ज़्यादा बढ़ी, और जो प्रभाव बार्बरा स्ट्राइसेंड चाहती थी, हुआ उसका उल्टा ही। एक वाक्य में कहें तो

    अंतर्जाल रुकावट देखता है तो यही मानता है कि यह सड़क खराब है, और रुकावट वाली जगह पहुँचने के लिए दूसरे तरीके अख्तियार करता है।

    जॉन गिल्मोर नामक व्यक्ति ने अंतर्जाल के स्वभाव के बारे में यह कहा है। वैसे आप बार्बरा स्ट्राइसेंड के घर की तस्वीर यहाँ देख सकते हैं J और यहाँ के अलावा और भी कई जगह।

    इस घटना के बाद, अंतर्जाल पर अभिव्यक्ति रोकने की कोशिशों का उल्टा असर होने के वाकयों पर समर्पित एक अच्छा खासा जीता जागता चिट्ठा [मशीनी अनुवाद] भी है।

    यूँ बार्बरा स्ट्रेइसेंड का घर तो बढ़िया है न? यह तो थी भूमिका, असली चिट्ठा चर्चा तो अब शुरू होती है।

    शुरुआत हुई हर बुरी चीज़ की तरह पाकिस्तान की बदौलत। मुंबई में आतंकी हमले हुए। उसकी रपट दी टीवी वालों ने भी। उन टीवी वालों में एक थे एन डी टी वी वाले भी। उनमें एक थीं बरखा दत्त। उन बरखा दत्त के व्यवहार की आलोचना की चैतन्य कुंटे[म.अ.] नामक एक मेरे आपके जैसे इंसान ने। उन्होंने एक लेख लिखा था (अब यहाँ नहीं है), २८ नवंबर २००८ को – यानी पूरे दो महीने पहले। अब आप यह लेख यहाँ[म.अ.] देख सकते हैं। मुख्यतया उन्होंने लिखा है,

    १. एक फ़ौजी अफ़सर से पूछने पर उन्होंने कहा कि अब ट्राइडेंट में कोई बंदी नहीं बचे हैं। (चालाकी, ताकि आतंकियों को गलत खबर मिले). बरखा दत्त ने ट्राइडेंट के प्रबंधकों को पूछा तो उन्होंने कहा कि अभी भी सैकड़ों लोग वहाँ मौजूद हैं। और बरखा देवी ने तुरंत खबर फैला दी। धन्य हो।

    २. एक व्यक्ति होटल से बाहर आया तो बरखा जी ने पूछा कि आपकी पत्नी कौन से कमरे में छिपी हैं, और उन्होंने बताया, और यह खबर भी तुरंत फैल गई। हद है।

    आगे लिखते हैं,

    १. अगर आतंकवादियों से आप बच गए, तो कोई बात नहीं, हमारे पत्रकार लोग आपको नहीं छोड़ने वाले। बच के कहाँ जाओगे।

    २. करगिल की लड़ाई में हमारे कई जवानों की जान इसलिए गई क्योंकि टीवी वालों ने हमारे जवानों की हरकतों के बारे में खुलासा दिया था।

    यह तो हुई लिखाई – दो महीने पहले की।

    अब चक्कर यह हुई कि एनटीडीवी वालों ने खुद ही एक चर्चा की, कि हमने सही किया या गलत। इस चर्चा में चैतन्य का लेख भी उल्लिखित हुआ। यह सब एन डी टी वी के जालस्थल पर उनके लेख में छपा।

    चुनाँचे बरखा जी – यानी हमारी बार्बरा – को खबर मिली। आज की तारीख में आपको वह लेख एनडीटीवी पर नहीं मिलेगा। पता नहीं क्या हुआ, हम तो केवल अटकलें लगा सकते हैं।

    लेकिन, बरखा जी ने फ़ेसबुक पर खुद कहा है, कि ३ जनवरी २००९ को – डेढ़ महीने बाद, जब सब कुछ दब चुका था – चैतन्य को क़ानूनी चिट्ठा भेजा – माफ़ी माँगने के लिए। और भी बहुत बुरा भला कहा। नतीजा यह हुआ कि चैतन्य को बरखा के सामने अष्टांग प्रणाम [हि.अ.] करना पड़ा। लेकिन बात यहाँ खत्म नहीं हुई। बल्कि शुरू हुई।

    गौरव सबनीस [म.अ.] ने कहा,

    एनडीटीवी ने ऐसा करके रणनैतिक गलती की है, मामला दबने के बजाय और उठेगा। चिट्ठा लेखक से चिरौरी करवाने का नतीजा अब उन्हें भुगतना पड़ेगा। यह खबर पूरे अंतर्जाल पर आग की तरह फैलेगी।

    और यह भी कहा –

    एनडीटीवी को शर्म आनी चाहिए। दूसरों का तो कचरा करने को तैयार रहते हैं लेकिन खुद का कचरा होता है तो नहीं झेल पाते। यह तो गुंडेबाज़ी और घमंड ही है।

    इसके अलावा श्रीप्रिया [म.अ.], पैट्रिक्स [म.अ.], रोहित [म.अ.], प्रेम पणिक्कर [म.अ.], संदीप [म.अ.] ने भी इस विषय पर लिखा है।

    बीना करुणाकरण [म.अ.] कहते हैं,

    जनता की याददाश्त तो बहुत कम होती है। लेकिन सार्वजनिक जीवन में जो लोग हैं उनकी तो कई ज़िम्मदारी है? जब समाचार चैनलों को गैरज़िम्मेदाराना रिपोर्टिंग के खिलाफ़ क़ानून बनने जा रहा था तो बरखा ने इसका जम कर विरोध किया था और कहा था कि हम भी जनता के अदालत में सबका सामना करने को तैयार है, इसके लिए कोई क़ानून वानून क्यों चाहिए, किसी को भी कुछ भी निडर हो के कहने का अधिकार है। लेकिन लगता है कि यह निडरता केवल कुछ खास लोगों पर ही लागू होती है, बरखा के विरोध करने वालों पर नहीं। उम्मीद है कि बरखा मनसा वाचा कर्मणा को लागू कर पाएँगी।

    इसके पहले भी बरखा के करगिल की घटनाओं [म.अ.] के बारे में कई टिप्पणियाँ हो चुकी हैं यह देखिए -

    पिनाका रॉकेट कैमरे पर दिखाने के लिए चलाए गए। उसका धुँआ पहाड़ियों के उस पार पाकिस्तानियों को दिख सकता था। और इस वजह से भारतीय सैनिकों की जान गई। फ़ौज में सब यह बात जानते हैं। इस बात का खंडन किसी फौजी अफ़सर ने कभी भी नहीं किया है।

    अतनु डे लिखते हैं,

    किसी भी कीमत पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहुत ज़रूरी है, क्योंकि अगर यही नहीं बची तो बाकी क्या बचा।

    तो इस प्रकार एक खबर जो दो महीने पहले दब चुकी थी, बरखा दत्त और एनडीटीवी की बेवकूफ़ी की वजह से फिर सामने आ गई है। और इस प्रकार स्ट्राइसेंड प्रभाव को एक देसी नाम मिला।

    बरखा प्रभाव।

    यही थी आज की चिट्ठा चर्चा। क्रोध, भौंचकपने और विस्मय से भरी।

    फरवरी २००९ को और

    इस विषय पर नितिन बागला ने भी एक लेख लिखा है(साभार तरुण)। उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया है कि हिंदी में अधिक चिट्ठों पर इसकी चर्चा क्यों नहीं हुई। इसी लेख का हवाला देते हुए बोल हल्ला ने भी एक लेख लिखा है।विस्फोट का कहना है कि गाली देना उचित नहीं है पर ज़िम्मेदारी तो बरखा दत्त को लेनी ही होगी।

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