मैं आपसे ही पूछता हूँ इस धन्य-धन्य वातावरण में
जंगल से घास काटकर आती
थक जाती
ढलानों पर सुस्ताती
और तब अपनी बेहद गोपन आवाज़ में
लोकगीत सरीखा कुछ गाती आपकी वो प्रतिनिधि औरत
आखिर कहाँ हैं ....
शिरीष कुमार मौर्य की यह कविता दुनिया के तमाम स्त्री विमर्शों में अनुपस्थित स्त्री की दास्तान है।
इसी क्रम में वैज्ञानिक चेतना संपन्न डा.अरविन्द मिश्र का नायिका आख्यान चालू आहे। अरविन्द जी अपने पाठकों को नायिका भेद का पाठ पढ़ाते हुये अन्यसंभोगदु:खिता नायिका की जानकारी देते हैं।
ये नायिका भेद जिन विद्वानों के दिमागों की उर्वर /चिरकुट उपज रही होगी उनके लिये स्त्री मात्र एक आइटम रही होगी। स्त्री विरोधी इन वर्णनों में नायिका के शरीर और येन-केन-प्रकारेण नायक का साथ हासिल कर लेने की चेष्टाओं तक ही सीमित है स्त्री का समस्त कार्य व्यापार। इनमें स्त्री का उसकी देह से अलग कोई अस्तित्व नहीं है। ऐसा लगता है कि स्त्री के समस्त अस्तित्व को उसकी जवानी और उसके जीवन के सारी संवेदनाओं को यौन चेष्टाओं में विनजिप करके धर दिया गया है जिसे रीतिकालीन शब्दवीरों ने तफ़सील से खोला है। इस नायिकाओं में समाज के आधे हिस्से के जीवन के न जाने कितने जीवनानुभव सिरे से नदारद हैं। इस नायिका भेद में उदयप्रकाश का जीवन बचाने वाली स्त्री शामिल नहीं होगी जिसके बारे में उन्होंने अपने एक लेख में लिखा :
सोन नदी के जल में मेरी वह अंतिम छटपटाहट अमर हो जाती। मृत्यु के बाद। लेकिन नदी के घाट पर कपड़े धो रही धनपुरिहाइन नाम की स्त्री ने इसे जान लिया। नदी की धार में तैरकर, खोजकर उसने मुझे निकाला और जब मैं उसके परिश्रम के बाद दुबारा जिंदा हुआ, तो उसे इतना आश्चर्य हुआ कि वह रोने लगी।
तब से मैं स्त्रियों को बहुत चाहता हूं। सिर्फ़ स्त्रियां जानती हैं कि किसी जीव को जन्म या पुनर्जन्म कैसे दिया जाता है!
इस नायिका भेद में वह लड़की किस रूप में शामिल होगी जिसने बचपन में रमनकौल की जान बचाई और बाद में उनकी जीवन संगिनी बनी जिसके बारे में उन्होंने लिखा:
बाद में पता चला कि किनारे बैठी एक लड़की ने मुझे डूबते देख कर शोर मचाया था, और मेरे मौसा जी के भाई ने मुझे डूबने से बचाया था। मैं नदी के बीचों बीच पहुँच चुका था, और बहाव की दिशा में भी काफी नीचे चला गया था।वह लड़की जिसने मुझे बचाने के लिए शोर मचाया, अब रोज़ मुझ से झगड़ती है, कि ग्रोसरी कब जाओगे, ब्लाग पर ही बैठे रहोगे या बच्चों को भी पढ़ाओगे। हालात वहाँ से यहाँ तक कैसे पहुँचे, यह तो शायद पिछली अनुगूँज में कहना चाहिए था पर..
दिल के लुटने का सबब पूछो न सब के सामने
नाम आएगा तुम्हारा यह कहानी फिर सही।
नायिका भेद की कहानी अभी जारी है। देखना है कि उसमें आजकल की नायिकाओं का भी जिक्र हो पाता है कि नहीं जो पुरुष से किसी तरह कम नहीं हैं और जिनका काम सिर्फ़ पलक पांवड़ें बिछाकर नायक की प्रतीक्षा करना ही नहीं है।
क्या पता कृष्ण बिहारी जी इस स्थापना में उनके मन में किस तरह की नायिकायें रही होंगी। शायद इसी तरह के नायिका भेद उनके मन में यह समझने के बीज डालते होंगे जैसा उन्होंने लिखा:
मैं यहां यह भी कहना चाहता हूं कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर महिला पुरूष बदलने के मामले में वेश्याओं से भी आगे है और ज्यादा आजाद है. नब्बे-पंचानबे प्रतिशत स्त्रियां ज़िंदगी भर सती-सावित्री होने का ढोंग जीती हैं. ये करवा चौथी महिलाएं चलनी से चांद देखने के बाद ही अन्न-जल ग्रहण करती हैं.
आज राहुल गांधी एक युवा नायक के रूप में चर्चा में हैं। उनमें भारत के भावी प्रधानमंत्री की संभावनायें देखी जा रही हैं। इसी बहाने भारत के तमाम जननायकों की पड़ताल करते हुये कृष्ण कुमार मिश्र राहुल गांधी के बारे में अपनी राय जाहिर करते हैं:
मुझे शक है कि जनाव ने अपने नाना का भी बेहतरीन साहित्य नही पढ़ा होगा जो उन्हे जमीनी तो नही किन्तु किताबी ही सही हिन्दुस्तान और दुनिया की झलकें दिखा सकता था, और महात्मा का भी नही क्योंकि वो सारी चीज़े नदारत है आप में।
हिमालयी यात्रा के किस्से सुनाते हुये अशोक पाण्डे को पढिये। वे लिखते हैं:
घन्टे बीतते जा रहे हैं और बर्फ़ ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही. हमारी दिक्कतें बढ़ती जा रही हैं और अक्ल भी काम करना बन्द कर रही है. हम दोनों बमुश्किल बातें करते हैं पर जब भी ऐसा होता है हमारी भाषा में गुस्से और उत्तेजना का अंश मिला होता है. जाहिर है जयसिंह भी थक गया है और इस संघर्ष के समाप्त होने का इन्तज़ार कर रहा है.
मैं अचानक फिसलता हूं और कम्र तक बर्फ़ में धंस जाता हूं. मुझे अपनी हथेलियों पर कुछ गर्म गीली चीज़ महसूस होती है. दोनों हथेलियों से खून की धारें बह रही हैं. मैं जहां धंसा था वहां बर्फ़ के नीचे की ज़मीन ब्लेड जैसी तीखी थी. पूरी तरह गिर न जाने के लिए मैंने अपनी हथेलियां नीचे टिका ली थीं. खून देखकर मुझे शुरू में अजीब लगता है. इसके बाद की प्रतिक्रिया होती है - असहाय गुस्सा.
अब शरद काकोस की भी सुन लीजिये:
आलोचक को बैलगाड़ी के नीचे चलने वाले कुत्ते की उपमा दिये जाने का युग शेक्स्पीयर के साथ ही समाप्त हो चुका है । आज आलोचना अपने आप में एक महत्वपूर्ण रचना कर्म है । ब्रिटेन की छोड़िये हमारे यहाँ भी कहा जाता था कि असफल कवि आलोचक बन जाता है लेकिन आज देखिये बहुत से महत्वपूर्ण कवि आलोचना के क्षेत्र में हैं । वैसे कुत्ते वाली उपमा में यदि हम बैलगाड़ी को रचना मान लें,गाड़ीवान को कवि,उसके नीचे चलते हुए भौंकने वाले कुत्ते को आलोचक मान लें तो पाठक बैल ही हुए ना । लेकिन सबसे महत्वपूर्ण भी वे ही हैं यदि वे गाड़ी को खींचना बन्द कर देंगे तो बैलगाड़ी,गाड़ीवान और कुत्ता क्या कर लेंगे ? अत: अच्छी रचना का स्वागत करें तथा कवि और आलोचक को अपना काम करने दें ।
और चलते-चलते ये मिलन भी देख लीजिये--मिलना रस्सी में बाँध कर पकौड़ी छानने वाले से . .
और अंत में: आज अभी फ़िलहाल इतना ही। बकिया आगे आता है। कब ई नहीं कह सकते। आपका दिन झकास शुरू हो और शानदार बीते।
आपने तो अमृत-कलश ही छलका दिया!
जवाब देंहटाएंसंदर सुघड़ चर्चा-आभार
जवाब देंहटाएंैआपके कद के अनुसार चर्चा बहुत सँक्षिप्त है
जवाब देंहटाएंया तो फुर्सत कम थी, फुरसतिया जी के पास या फिर थक गए होंगे...:) पर जितने भी की बेहतरीन ..!!!
जवाब देंहटाएंबेहद सुन्दर अनूप जी, नजर तारीफेकाबिल पैनी है आपकी !
जवाब देंहटाएंआ. अनूप जी,
जवाब देंहटाएंउचित कहा आपने कि''ये नायिका भेद जिन विद्वानों के दिमागों की उर्वर /चिरकुट उपज रही होगी उनके लिए स्त्री मात्र एक आइटम रही होगी। स्त्री विरोधी इन वर्णनों में नायिका के शरीर और येन-केन-प्रकारेण नायक का साथ हासिल कर लेने की चेष्टाओं तक ही सीमित है स्त्री का समस्त कार्य व्यापार। इनमें स्त्री का उसकी देह से अलग कोई अस्तित्व नहीं है। ऐसा लगता है कि स्त्री के समस्त अस्तित्व को उसकी जवानी और उसके जीवन के सारी संवेदनाओं को यौन चेष्टाओं में विनजिप करके धर दिया गया है जिसे रीतिकालीन शब्दवीरों ने तफ़सील से खोला है। इस नायिकाओं में समाज के आधे हिस्से के जीवन के न जाने कितने जीवनानुभव सिरे से नदारद हैं। ''
दरअसल ये तमाम चीज़ें भरे पेटवालों के चोंचले रही हैं. सामंती सौंदर्यशास्त्र की अपनी शैली है, उसे श्रम के सौंदर्यशास्त्र से नापेंगे तो हताश ही होना पड़ेगा.
यह भी ध्यान रखना होगा वैसे कि शास्त्र और काव्य के मानदंड एक नहीं होते. काम को पुरुषार्थ की प्रतिष्ठा देनेवालों ने अगर भोग को चरम मूल्य न बनाया होता तो यह कुत्सित प्रतीत होने वाली दृष्टि न उपजती.
वैसे यदि यह कुत्सा है तो इसे कुरेद कुरेद कर देखना दिखाना क्या है? अगर ये इतनी ही फालतू चीज़ें हैं तो गुजराज़माना कहकर इनपर मिट्टी क्यों नहीं डालते?
अब तो इस नायिकाभेद की चर्चा साहित्य के मास्टर तक नहीं करते, साहब!
nice
जवाब देंहटाएंभारतीय मनीषा के स्वयंभू भाष्यकार अनूप महराज ,
जवाब देंहटाएंअच्छा स्टैंड लिया है -कुछ नैराश्य ,विगलित ,विचलित लोगों की
वाह वाह जुटा ही लेगें !
काश निसर्ग ने वह महीन सुरुचिपूर्णता आपको भी बख्शी होती तो यूं खुद
चिरकुटई पर अक्सर न उतर आया करते !
छोडिये इसे यह आपके वश का नहीं -और न आपमें वह सौजन्यता और सहिष्णुता ही है !
काफी अच्छे अच्छे लिंक पकड़ा गए आप तो
जवाब देंहटाएंसार्थक शब्दों के साथ अच्छी चर्चा, अभिनंदन।
जवाब देंहटाएंतो अब यहाँ मौज की गुन्जाइश नहीं रही। बात-बात में तलवारें निकल आ रही हैं। इसी लिए हम साहित्य के लफ़ड़े में अपना पैर नहीं फँसा पाते। हल्का फुल्का ही ठीक है। :)
जवाब देंहटाएंबेहतरीन चर्चा. लगता है गब्बर-साम्भा संवाद से प्रभावित हुए और पोस्ट की समीक्षा टाइप कर डाली आपने. और शानदार समीक्षा है.
जवाब देंहटाएंऔर यह कहने की ज़रुरत नहीं है कि अरविन्द जी की टिप्पणी महत्वपूर्ण है....:-)
जवाब देंहटाएंसारांश
जवाब देंहटाएंवो जितने भी लोग स्त्री विमर्श करते हैं , नायिका भेद नहीं समझते हैं , इस लिये उनका हिमालय पर चले जाना ही बेहतर हैं
बड़े कवि... स्तरीय जानकारी...
जवाब देंहटाएंअनूप जी, धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंबढिया चर्चा लेकिन संक्षिप्त, सो अचानक ही मन में आया कि जी अभी भरा नहीं....
जवाब देंहटाएं"एक जोति सौं जरैं प्रकासैं
जवाब देंहटाएंकोटि दिया लख बाती
जिनके हिया नेह बिनु सूखे
तिनकी सुलगैं छाती
बुद्धि को सुअना मरम न जानै
कथै प्रीति की मैना ...
लौ पै दीठि दिया आंचर तै
कढ्यौ लाज को घूँघटा
हौले हौले चलै कामिनी
आगनवाँ तैं कुअटा....... (आत्मप्रकाश शुक्ल )
नायिका भेद पर कटाक्ष करते हुए स्त्री-विमर्श का छाता ओढ़ा है -यह क्यॊं ? यह तो क्लांत कृष्ण-पक्ष की भ्रांतिमयी प्रस्तुति है । क्यों किसी को कपड़ा धोती हुई घाट की धोबिन की बाहों की गति में कोई गीत नहीं सुनायी दिया, जल की लहरियों में गोता खाते किसी अपौरुषेय (श्लथ पौरुष ) को पुरुषार्थ की संजीवनी पिलाती वीरांगना नहीं दिखायी पड़ी और दुबारा जिंदा होने पर रोती हुई किसी ’प्रतिनिधि औरत ’ में वह गोपन आवाज नहीं सुनायी दी जिसकी अनुगूँज ही नायिका भेद का प्राणतत्व है । आश्चर्य है कि साहित्य प्रेमियों को इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ती किसी मजदूरिन को गौरव देते निराला की दृष्टि नहीं सूझती । नायिका भेद का साहित्य केवल उन्हें स्त्री को एक स्त्री के देह के रूप में दिखायी दिया-यह कैसा स्त्री का स्त्रीत्व दर्शन ? किसी को जन्म और पुनर्जन्म देने वाली कोई नारी करुणोदात्तशील की नहीं दिखायी देती । केवल मजदूर की खोपड़ी में घुन की तरह घुस कर उसे चाटते रहने में आज का साहित्य क्या खोज रहा है , कहा नहीं जा सकता ।....
जारी.....
नायिका भेद की कहानी अभी जारी है। देखना है कि उसमें आजकल की नायिकाओं का भी जिक्र हो पाता है कि नहीं जो पुरुष से किसी तरह कम नहीं हैं और जिनका काम सिर्फ़ पलक पांवड़ें बिछाकर नायक की प्रतीक्षा करना ही नहीं है।
जवाब देंहटाएंनहीं जी... अभी कल ही की बात है... नायक को ब्रश बनाने की बात चल रही थी। हम सिद्धार्थ जी की टिप्पणी से समहत नहीं है...हम तो मौज लेंगे, चाहे तलवारें चलें या बम फटे :)
एक नारी को नख-शिख सम्मान से देखना उसके प्रत्येक क्रिया-कलापों की हृदय रस सिक्त व्यंजना करना और स्वयं नारीत्व में नारीत्व देखते हुए नारी बन जाना- यह क्या चिंतन के परे है ! तब तो रवीन्द्र काटते दौड़ेंगे, जब ये पंक्तियाँ कान में पड़ेंगी -
जवाब देंहटाएंकौन आमार माझे जे नारी (मेरे भीतर वह कौन-सी नारी है जो सृजन का ध्वजवाहक बनती है ?) । धीर प्रशांत, धीर ललित, धीरोदात्त और धीरोद्धत नायक हो सकता है तो नायिका क्यों नहीं ? प्रोषितपतिका, विरहविदग्धा, विप्रलब्धा, अभिसारिका आदि शब्द विशेष से जो एलर्जी है इसका उपचार भी नायिका भेद ही है । किसी माँ की गोद में बैठ जाँय, उसके अधरामृत-चुम्बन की द्यूत क्रिया में फँस जाँय, सारी रात सिलवट सम करती फटी आँखों बेटे का पथ निहारती सैनिकपुत्र की माँ के कलेजे में समा जाँय तो समझ में आ जायेगा नायिका भेद की चेष्टायें क्या और कैसी हैं? प्रकृति के पालने में न झूलकर कंकरीट की गोलियाँ बटोरकर खेलने वाले लोगों को प्रणाम ही करना उचित है ना !
जारी.....
किसी हृदयस्थ के लिये अर्धरात्रि की विभीषिका को चीर-चीर करती हुई मिलनोत्सुका कामिनी का पौरुष नायिका-पक्ष की विलुप्त सरस्वती है । प्रकृति का अनुकूलन प्रतिकूलन कालिन्दी है, और राग का अक्लांत वरण यही गंगा है । केवल यौन क्रियाओं से नहीं , चेष्टा विशेष से नारी का उदात्त अनुशीलन करके ऋषियों की नायिका-भेद परम्परा में पहुँचने का यत्न करें । "पौन दया करि घूँघट टारै, मया करि दामिनी दीप दिखावै" की दया-मया पर भी बलिहारी हो जाँय । साहित्य के रस में डुबाकर नारीत्व का स्खलन नहीं , बल्कि उसे महिमामण्डन करना ही नायिका भेद की अन्विति है । कोरे आलोचना (किसी के शब्दों में ’लुच्चापना”) की गाड़ी हाँकने से कुछ तो परहेज करें । जान बचाने वाली धोबिन में बची जान तो दिखायी दी, बचाने की विधि स्मरण नहीं रही - यह तो पेटूपना ही है, जिसमें उदर भरे थाली की सजावट जाय चूल्हे भाँड़ --
जवाब देंहटाएं"दिव्य दग्ध होता गया, भव्य भस्म होता गया, हाहाकार सुना किया व्योम एकलव्यों के ......दुर्निवार अविश्राम क्रमशः निगलती गयी, भ्रूण शान्ति सुख के और उज्जवल भवितव्यों के ...."
आगे.....
जवाब देंहटाएंजल में बचे प्राणी को जल की लहरियाँ चीरती हुई शुभ्र बाहें न दीख पड़ें, उछलती जल राशि में स्वयं डूबती उतराती लघु जलप्लावन लीला न दिखायी पड़े और एक के अंक में समाया हुआ एक का अपनापन न दिखायी पड़े तो क्या खा़क स्त्री विमर्श पढ़ा । नायिका भेद के विभिन्न दिये गये नाम तो प्रतीक हैं । उन्हें नारी के प्रति पुरुष की जिज्ञासा को दीपशिखा सी प्रज्वलित रखना और स्त्री को पृष्ठभूमि में प्रतिस्थापित करना ही नायिका भेद का अभिप्रेत है । यह नाम तो केवल नारी-स्वीकृति के लिये साहित्य में स्वीकृत कर लिये गये ताकि रूक्ष पुरुष प्रमदा का शोषण करता ही न रह जाय ! मैं निवेदन करुँगा कि इस घासलेटी चिंतन में थोड़ा साहित्यिक दर्शन को स्थान दें । माँ में भी नायिका भेद को देखें जो किसी के लिये रातोंरात दौड़ पड़ती है , कितनी रातें आँखों-आँखों में काट देती है, जिनकी आँखों में गंगा जमुना बढ़िया जाती हैं-वह भी नायिका भेद है । किसी एक नायक से एक नायिका का संबंध देखने की गृद्ध-दृष्टि छोड़ दें। वह नायक और नायिका तो प्रतीक हैं । सच तो यह है कि ’हम भी कुछ हैं ’ की गम्भीर सत्कृति ही स्त्री-विमर्श की गौरी-शंकर चोटी है । जरा एक बार फिर नायिका भेद को जाँचने की रीति कालीन पद्धति पर कुरीति की कालिख न पोतें । नायिका भेद को नारी का शिल्प-मंडन मानें , शील हरण नहीं ।
साहित्य को संवेदन, संगीत, नांदनिकता से बेगाना न करें । नायिका भेद को एक साहित्यिक कौतुक ही न स्वीकारें । उदारता से कहें कि विज्ञों के लिये, विज्ञों द्वारा एक जनान्दोलन था , नहीं तो आपका यह पैरेलाइज्ड स्त्री विमर्श वैसा ही होगा -
"कुछ टूट रहे सुनसानों में
कुछ टूट रहे तहखानों में
उनमें ही कोई चित्र तुम्हारा भी होगा ।" (रमानाथ अवस्थी )
’अरविन्द मिश्र’ से अपना हिसाब कर लें...
जवाब देंहटाएंपूरी परम्परा को तो बख़्श दें !
कोई कलाकार (?) नारी को सहज भाव से लेता ही नहीं।
जवाब देंहटाएंझौव्वा भर कुलटायें हैं; खांची भर सतियां हैं। लम्बे लम्बे तर्कों में गुब्बारों सी बतियां हैं।
गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस
जवाब देंहटाएंचल खुसरो घर आपने साँझ भई चहुँ देस।
हिमांशु जी की टिप्पणियों में जो नायिका भेद दिखा उससे मन प्रसन्न हो गया। एक शुष्क सा वैज्ञानिक बुद्धिविलास और एक साहित्यिक कोमल भाव के हृदय में उतर आने पर निसृत नैसर्गिक सरस प्रवाह का स्पष्ट अन्तर भी दिखा।
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी की लम्बी श्रृंखला में जो भाव सौन्दर्य हमारे हृदय को छू न सका था उसके रस से हिमांशु जी की टिप्पणियों के माध्यम से सराबोर होने का अवसर मिल गया। उधर तो सबकुछ हमारे मस्तिष्क में अटक-भटक कर रह गया था लेकिन इधर टिप्पणियों की बातें सीधे हृदय में समाती चली गयीं।
मेरी पहली टिप्पणी को इस सीमा तक संशोधित समझा जाय कि यहाँ मौज भले न मिले काफी कुछ सीखने और जानने को मिल रहा है।
वैसे यह ‘हिसाब-किताब वाली बात’ खटकती है और मायूस भी करती है। कोई रोकेगा इसे..?
जवाब देंहटाएंदोपहर में ही आज की चर्चा से दो चार होता रहा ।
Lala Amar Nath : No Comments !
संतुलित और बेबाक चर्चा । संक्षिप्त है यह और भी अच्छी बात है ।
जवाब देंहटाएंयह है सही है कि नायिका वर्णन में जीवन का आधा पक्ष नदारद है । राजाश्रय में रहकर ऐश करने वाले कवियों से आप आशा भी क्या कर सकते हैं । उस समय जो भी लिखा गया राजाओं को प्रसन्न करने के लिए लिखा गया । अब राजा महराजा घसियारिन पुराण तो सुनने से रहे । रीतिकालीन कवियों से 'वह तोडती पत्थर' की स्त्री को नायिका मानने की, उसमें सौंदर्य देखने की आशा करना दुराशा मात्र है । इनको यह सब लिखने के लिए नहीं रखा जाता था । सौंदर्य के प्रतिमान क्या स्थाई हैं ?
या समय सभ्यता के साथ बदलते हैं ।
तो क्यों न नायिका भेद में कुछ और नायिकाओं को शामिल किया जाय । शरद, निराला, प्रेमचंद और मंटो..... की नायिकाओं को भी । रीतिकाल से अब तक साहित्य में नायिकाओं के बहुत से चरित्र सृजित किए जा चुके हैं ।
हो सके तो नायकों के भेद पर भी ध्यान दिया जाय ।
नायिकाओ के साथ साथ नायकों को भी स्पेस मिलना चाहिये।
जवाब देंहटाएंपुरुष कहे
जवाब देंहटाएंतो कुछ और...
और
वही बात
नारी कहे..
तो कुछ और!!!
ये कैसी विडंबना है???
ये कैसा आंदोलन है...
नाम....
नारी सशक्तिकरण!!
खूब नाम दिया है
एक विडंबना को!!
जो खुद की उपज है!
-समीर लाल ’समीर’