मंगलवार, जनवरी 12, 2010

कविता अभिव्यक्ति की ट्विटराहट है

image रविवार को दिल्ली में ब्लॉगर मिलन हुआ। कई मुद्दों पर चर्चा हुई। शुरुआत कविताकोश से होकर बात ब्लॉग के माध्यम से कमाई ,कॉपीराइट, जिम्मेदारी, ब्लॉगर्स गिल्ड होते हुये समोसे और जलेबी पर टूटी। सारा विवरण विनीत के यहां मिलेगा जिसका लब्बोलुआबन शीर्षक है--दिल्ली में ब्लॉगर मीट- जबरदस्ती ब्लॉग न पढ़वाएं प्लीज! इस मुलाकात का 32 सेकेंड् का प्रसारण इधर है। इस प्रसारण में उनके भी चित्र हैं जो यहां नहीं हैं पर ये वे लोग हैं जिनके बारे में कहा जाता है –वे कहां नहीं हैं?

क्या टीआरपी के खिलाफ संपादक खड़े होने लगे हैं? शायद एक बहस है एक बहस से सिवा और कोई उम्मीद चैनल से पालना उनके साथ अन्याय करना ही होगा।

चलती चक्की देख कर .........घुघूती बासूती कह उठीं--

चलती चक्की देख कर दिया कबीरा रोय..
तीन रुपए पिसाई के दे, रोना हो तो रोय!

नीरज गोस्वामी की यह गजल देखकर लगता है कि यह मामला रेगिस्तान वालों के लिये है या फ़िर नदी/समंदर किनारे वालों के लिये जहां रेत सहज उपलब्ध है:

तुम नहीं साथ तो फिर याद भी आते क्यूँ हो

इस कमी का मुझे एहसास दिलाते क्यूँ हो

डर जमाने का नहीं आपके दिल में तो फिर

रेत पर लिख के मेरा नाम मिटाते क्यूँ हो

याद आते क्यूं हो में करे कोई, भरे कोई वाला मामला नहीं दिखता। खुद आप याद करें और ठोंक् से इल्जाम –याद क्यों आ रहे हो।

गौतम राजरिशी ने कल कविता के बहाने कुछ टिप्पणियों का पोस्ट रूपान्तरण किया तो मांग उठी कि वे ऐसा नियमित क्यों नहीं करते। अमरेन्द्र त्रिपाठी की टिप्पणी देखिये अपने में मुकम्मल आख्यान:

imageश्रेष्ठ-विचारों की उम्र लम्बी होती है , वे इंसानों को कपड़े की तरह पहनते/उतारते/त्यागते
रहते हैं --- वासांसि जीर्णानि यथा विहाय --- पोस्ट/टिप्पणी से अप्रभावित-से हैं ये ,
हाँ , कविता पर ब्लॉग-बौद्धिकों के विचार अच्छे लगे ..
अब मैं अपने प्रिय अवधी कवि 'रमई काका ' की कविता रखना चाहता हूँ ...
'' हिरदय की कोमल पंखुरिन मा,जो भंवरा अस ना गूँजि सकै |
उसरील हार हरियर न करै , टपकत नैना ना पोंछि सकै |
जेहिका सुनिकै उरबंधन की बेडी झनझनन न झंझनाय |
उन प्रानन मा पौरूख न भरै , जो अपने पथ पर डगमगाय |
अन्धियारू न दुरवै सबिता बनि, अइसी कबिता ते कौनु लाभ ?''
............... काव्य-प्रयोजन भी तो कविता को परिभाषित करेंगे न !

काजल कुमार के इस ऊपर वाले कार्टून से चर्चाकार कहीं यह तो नहीं कहना चाह रहा है—कविता अभिव्यक्ति की ट्विटराहट है।

image

पोस्ट लिखना कौन सा कठिन काम है, कोई भी लिख सकता है कहते हुये अवधिया जी ने पोस्ट लिख ही डाली न्!

महफूज़ इक झूमता दरिया...खुशदीप कह रहे हैं तो मानना ही पड़ेगा।

मुला चिट्ठाचर्चा से इसका कउनौ रिलेशन नहिं है खाली एक बात कही गयी है।

और वो चला गया,बिना मुड़े....(लघु उपन्यास)—3 सरा भाग देखिये। रश्मि रवीजा लिखती हैं:
अब इस आदमी से लड़ा जा सकता है भला, इतने अपनत्व और प्यार से बोल रहा है, जैसे युगों से परिचित हो। जी में आया, पत्रिका फेंक-फांक खूब गप्पे मारे, जैसे शर्मा अंकल से करती है। उन्हीं जैसा नहीं लगता वह। लेकिन वे तो अंकल हैं - लेकिन ये साहब क्या हैं, बमुश्किल चार साल बड़े होंगे उससे और रौब ऐसे मार रहे हैं जैसे चालीस साल बड़े हों। उससे सही नहीं जाएगी, ये बाक्सिंग्।

भाषा की क्लिष्टता में देखिये--निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि कोई भी शब्द क्लिष्ट नहीं होता । वह परिचित या अपरिचित होता है । अच्छा हो यदि हम व्यवहार में हमारी भाषा के उन सभी शब्दों का प्रयोग करते रहें जो हमारे अपने और सुपरिचित हैं ।

दो कवितायें

image शाम ढले ही
ख़ामोशी के तहखानों में
कुछ वादों के उड़ते से गुब्बार
समेट लेते हैं मेरे आस्तीत्व को
फिर अनजानी ख्वाइशों की आंखे
कतरा कतरा सिहरने लगती हैं
और रात के आंचल की उदासी
सूनेपन के कोहरे में सिमट
अपनी घायल सांसो से उलझती
ओस के सीलेपन से खीज कर
युगों लम्बे पहरों में ढलने लगती है
तब मीलों भर का एकांत
तेरी विमुखता की क्यारियों से
अपना बेजार दामन फैला
अधीरता के दायरों का स्पर्श पा
ढूंढ़ लाता है कुछ अस्फुट स्वर .....
" तुम्हे भूल पाऊं कभी,
वो पल वक़्त की कोख में नहीं..."

"वक़्त की कोख में नहीं..."

image ज़ुर्म-ए-तमन्ना की सज़ा
यूँ मिला करती है मुझे ,
खिंचती हैं रंगे पलकों की,
जब दर्द कफस में अंगड़ाईयाँ लेता है,
सर्द आहों में दम तोड़ती हैं उम्मीदें,
नक्श ज़हन में उभरने लगते हैं,
परत दर परत उघड़ती हैं सब यादें,
होने लगती है...
मेरे सब्र की आज़माईश!
बह जाएँ अश्क तो कुछ सुकून मिले,
पर पशेमान से सुबक़ते हैं
और
आँखों में ही सो जाते हैं!
मशवरे देती है सबा..
की यूँ बेज़ार ना हो,
आगोश में तुझको ,कज़ा के ही
अब तो चैन आएगा!

'फसाना-ए-शब-ए-ग़म'फसाना=कहानी, शब=रात,कफस=पिंजरा,
पशेमान=शर्मिंदा ,सबा=हवा,कज़ा=मौत

फ़िलहाल इतना ही। आपका दिन शुभ हो। मजे से बीते।

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19 टिप्‍पणियां:

  1. लघु में विस्तृत ... आभार ,,,

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  3. आज लगता है कि टैम की कमी थी।

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  4. एक दो एकलाइना होती तो मजा आ जाता.

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  5. चर्चा अच्छी लगी ! आभार ।

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  6. Jara chhoti rah gayi charcha...lagta hai samyabhaav raha hoga...par itna bhi bahut jabardast hai....aabhar...

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  7. आप जब संक्षिप्त चर्चा करते हैं तो लगता है कि बॉस की नजर तिरछी हो गयी है। यह आज ही होना था जब मैंने...?

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  8. बढ़िया चर्चा रही।
    घुघूती बासूती

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  9. तुम नहीं साथ तो फिर याद भी आते क्यूँ हो

    इस कमी का मुझे एहसास दिलाते क्यूँ हो

    डर जमाने का नहीं आपके दिल में तो फिर

    रेत पर लिख के मेरा नाम मिटाते क्यूँ हो
    waah kya kahne man khush ho gaya yahan aakar ,itni pyaari pyaari cheeje padhne ko mili ki man jhoom utha ,ye panktiyaan to dil ko chhoo gayi .

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  10. अनूप चर्चा हमेशा की तरह अनुपम...

    लोहड़ी और मकर संक्रांति की बहुत-बहुत बधाई...

    जय हिंद...

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  11. सचमुच कुछ जल्दी ही खत्म कर दी चर्चा. अच्छी है लेकिन ज़्यादा छोटी. आपसे विस्तार की उम्मीद रहती है, इसलिये...

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  12. लोहड़ी और मकर संक्रांति की बहुत-बहुत बधाई...

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  13. खूब खोजबीन हो गई कविता की । विविध तरह से ।
    हर कविता , कविता ही होती है चाहे वह कोई भी कविता हो । जैसे हर आम आम होता है । रस की मात्रा जरूर सब में अलग अलग होती है । स्‍वाद भी ।

    पसंद मानसिक स्‍तर और रुचि के हिसाब से अलग अलग हो सकती है ।

    "मैं एक छोटी सी कठपुतली , रोना मुझको आता नहीं...
    यह भी एक कविता है ।

    मुक्तिबोध की कविताऍं जिन लोगों पर आधारति थीं , उन लोगों मे से शायद ही कोई उन्‍हें समझ पायेगा ।

    तो बात आपके शीर्षक की सही होती है कि कविता अभिव्‍यक्ति की चूं चूं है ।

    पसंद अपनी अपनी है ।

    शुक्रिया ।
    पंक्तियों के समूह को कह देता हूँ, कविता

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  14. अच्छी चर्चा रही..शुक्रिया..

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  15. भाषा की क्लिष्टता विषय को शामिल करने के लिए धन्यवाद ! गूँजअनुगूँज पर आते रहिए...।।।

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