नमस्कार मित्रों!
मैं मनोज कुमार एक बार फिर हाज़िर हूं।
आज विजयदशमी है। असुरों पर विजय के उपलक्ष्य में हम विजयादशमी का पर्व मनाते हैं। बिना विनय के विजय नहीं टिकती। आज कोलकाता में “मांएर बिदाई” है। पिछले चार पांच दिनों के उत्सवीय माहौल के बाद आज सेनूर खेला होगा और फिर कोला-कोली। हम सब एक दूसरे से गले मिलेंगे। प्रेम-सौहार्द्र और भाईचारे का प्रतीक। विनय हो तो यह भी टिकाऊ है वरना … यहां तो हर कोई … समझदार है।
वर्धा चर्चा की चर्चा की आंच चारो तरफ़ फैली है। हम अपने लिए आचार संहिता बना लें। तभी हमारे आचरण में बदलाव आएगा। हर कोई दुनिया को बदलना चाहता है, लेकिन खुद को बदलने के बारे में कोई नहीं सोचता। ये मैं नहीं कहता। कहीं पढा था। मन किया तो लिख दिया। दुनिया बदलने का काम आसान नहीं। पर हौसला होना चाहिए।
ये माना है मुश्किल सफ़र ज़िन्दगी का,
मगर कम न हो हौसला आदमी का.
ये भी मैं नहीं कहता। ये कहना है कुँवर कुसुमेश जी का! (title unknown) उनकी ग़ज़ल का शीर्षक है अंधरों से कोई भी डरने न पाए / अंधरों पे कब्ज़ा रहे रोशनी का!
पर सवाल है कि इसे समझे कोई तब ना। कहते हैं
समझने को तैयार कोई नहीं है,
किसे फ़र्क समझाऊँ नेकी-बदी का.
जुलाई से ब्लॉगिंग कर रहे हैं। इन तीन-चार महींनो में महज़ तीन पोस्ट आई है, जो इस बात का द्योतक है कि वो कंटेट और क्वालिटी में विश्वास रखते हैं, क्वांटिटी में नहीं। एक और क्वालिटी के पोस्ट में वो कहते हैं,
विरासत को बचाना चाहते हो ,
कि अस्मत को लुटाना चाहते हो.
तुम्हारी सोंच पे सब कुछ टिका है,
कि आख़िर क्या कराना चाहते हो.
बहुत संवेदनशील और जिम्मेदारियों का एहसास करने वाली रचना लिखते हैं कुंवर जी, यह तो आभास हमें हो ही गया है, और मुझे विश्वास है कि आने वाले दिनों में इनकी पोस्ट इस बात की तसदिक करेगी। कुंवर जी मूलतः एक कवि हैं और इनके तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।
इनकी रचनाओं का उत्कर्ष ही यही है कि यह जीवन के ऐसे प्रसंगों से उपजी है जो निहायत गुपचुप ढंग से हमारे आसपास सघन हैं लेकिन हमारे तई उनकी कोई सचेत संज्ञा नहीं बनती। कुंवर जी उन प्रसंगों को चेतना की मुख्य धारा में लाकर पाठकों से उनका जुड़ाव स्थापित करते है।
दौरे- मुश्किल से जो बचा जाये,
मुश्किलों में वही फँसा जाये .
ये उलट - फेर का ज़माना है,
आजकल किसको क्या कहा जाये.
इनकी रचनाएं एक ऐसी संवेद्य रचनाएं हैं जिसमें हमारे यथार्थ का मूक पक्ष भी बिना शोर-शराबे के कुछ कह कर पाठक को स्पंदित कर जाता है। मानवीय मूल्यों के अवमूल्यन को समय के ठहराव के बिम्ब पर प्रवाहित इनकी ग़ज़लें मन को बहुत झकझोड़ती हैं। रचनाएं भाषा शिल्प और भंगिमा के स्तर पर समय के प्रवाह में मनुष्य की नियति को संवेदना के समांतर, दार्शनिक धरातल पर अनुभव करती और तोलती है।
अब एक कार्टून
कार्टून:- रावण के बाक़ी मुंहों का जुगाड़ भी हो गया...
दहन होगा ना इस पुतले का ...?!
मेरे ऊपर पूछे गए प्रश्न का उत्तर मिले या ना मिले राजेन्द्र स्वर्णकार जी बड़े अच्छी बात कह गए हैं, दोहों में। देखिए शस्वरं पर उनकी पोस्ट कितने रावण !
हालाकि इस विषय पर मैं उनसे न सहमत होते हुए पुरातन पंथी कहलाना पसंद करूंगा पर उनकी सोच कहीं न कहीं सही ज़रूर है। एक और दिक़्क़्त आई मुझे कि उनके ब्लॉग पर ताला लगा हुआ है इसलिए कुछ कोट करना मेरे लिए संभव नहीं है। हां टिप्पणियों से ही कुछ बातें और उस पोस्ट की विशेषता समझाने की कोशिश करता हूं।
दोहों के विषय में क्या कहा जाए सभी आईना दिखा रहे हैं .....! रावण कहाँ नहीं दिखता ...'यहाँ' भी और समाज में भी .....!! अपनी रचना में उन्होंने कहा है रावण दहन के पीछे इतना धन व्यय करने के बजाए गरीबों को बाँट दिया जाये ...जलने के बाद भी रावण कहाँ मरते हैं .....वो तो हम सब में जिन्दा है ....!! अगर किसी एक का भी घर ग़रीबी की मार झेल रहा है तो रावण कहां मरा? अगर अशिक्षा, भुखमरी जैसी स्थिति है तो इसका मतलब किसी न किसी रूप में रावण का विद्यमान होना ही है!
लीक से हटकर सोचने का साहस बहुत कम लोग करते हैं। राजेन्द्र जी ने किया है। मुझे पोस्ट अच्छी लगी और रवाण दहन की परंपरा बंद हो इस से इत्तेफ़ाक़ न रखते हुए भी यह मानता हूं कि सचमुच आज रावण चारों ओर दिखाई दे रहे हैं , विभिन्न रूपों में। पर दहन न कर क्या हम जो चाहते हैं पा लेंगे? हां यह अवश्य है कि आज के परिवेश में विचारों में परिवर्तन की ज़रुरत है। एक और टिप्पणी अच्छी लगी उसे भी पेश करता हूं, ये टिप्पणी उन्हीं कुंवर जी की है जिनकी चर्चा ऊपर कर आया हूं-
लेखन में ज़बरदस्त मेसेज और शैल्पिक कसाव देखने को मिलता है. मेरा भी एक दोहा देख लें:-
राम तुम्हारी भी रही, लीला अपरम्पार.
एक दशानन मर गया, पैदा हुए हज़ार.
पुनश्च :
राजेन्द्र जी ने मेल से अपनी पोस्ट भेजी है, कुछ चुने हुए दोहे लगा रहा हूं-
काग़ज़ और बारूद का पुतला लिया बनाय !
घट में रावण पल रहा , काहे नहीं जलाय ?!
लाख – करोड़ों खर्च कर’ हाथ लगावें आग !
इससे बेहतर , बदलिए दीन – हीन के भाग !!
लाखों हैं बेघर यहां , लाखों यहां ग़रीब !
मत फूंको धन , बदलदो इनका आज नसीब !!
हर बदहाली दहन हो , जिससे देश कुरूप !
रोग अशिक्षा भुखमरी , रावण के सौ रूप !!
विजय पर्व आधा अगर , इक राजा इक रंक !
पूर्ण विजय होगी , मिटे जब हिंसा - आतंक !!
आइए अब आपको एक यथार्थ से रू-ब-रू करवाते हैं। जैसा कि आपको मालूम है कि हम ब्लॉग की चर्चा कर रहे हैं तो यह भी एक ब्लॉग ही होगा। इस पर रेखा श्रीवास्तव जी बता रही हैं कि कुछ लोग आज भी (लिंक है) संकीर्ण मानसिकता के शिकार हैं और पुनर्विवाह हो जाने के बाद भी एक विधवा को सधवा मानने को तैयार नहीं हैं। आहत स्वर में कहती हैं,
“हम कहाँ से कहाँ पहुँच रहे हैं और हमारी सोच कहीं कहीं हमें कितना पिछड़ा हुआ साबित कर देती है? हमें अपने पर शर्म आने लगती है.”
इस आलेख में सदियों से मौजूद स्त्री विषय कुछेक प्रश्न ईमानदारी से उठाए गए हैं। अपनी शिकायत दर्ज कराई गई है स्त्री नियति की विविध परतों को उद्घाटित किया गया है और भेद-भाव की शिकार स्त्री को विद्रोह के लिए प्रेरित भी किया है।
चाहते हो गर
अग्नि से बचना
तो ,
जुगुप्सा की प्यास पर
काबू पाओ
मिल जायेंगे फिर
मीठे झरने
बस तुम
चिंगारी को
मत हवा दिखाओ ...
कहना है संगीता स्वरूप जी का। अपनी पोस्ट जुगुप्सा की प्यास के ज़रिए संयत कवित्व से भरपूर कविता द्वारा वो बताती हैं कि
बढ़ जाती है तब
जुगुप्सा की प्यास
न ही कोई शीतल
झरना बहता है
अपने - अपने
अहम के दावानल में
फिर इंसान
स्वयं ही
स्वयं को झोंकता है .
उनका व्यापक सरोकार निश्चित रूप से मूल्यवान है। काव्यभाषा सहज है। इनमें कल्पना की उड़ान भर नहीं है बल्कि जीवन के पहलुओं को देखने और दिखाने की जद्दोजहद भी है।
एक और पोस्ट रेखा जी का आज द्रवित कर गया। पोस्ट का शीर्षक है समझौते से मौत तक ! पोस्ट है नारी ब्लॉग पर। ब्लॉग खुलते ही एक गाना शुरु हो जाता है , फ़िल्म साधना का
जिस कोख में इनका जिस्म ढला
उस कोख का कारोबार लिया
जिस कोख से जनमे कोपल बन कर
उस तन का करोबार किया
औरत ने जनम दिया मरदों को
मरदों ने उन्हें बाज़ार दिया
रेखा जी कहती हैं
“दहेज़ हत्याओं पर अभी अंकुश नहीं लगा है और न ही लगेगा जब तक कि दहेज़ देने और लेने वाले इस समाज का हिस्सा बने रहेंगे. फिर जब देने वाले को अपनी बेटी से अधिक घर और प्रतिष्ठा अधिक प्यारी होती है और समाजमें अपनी वाहवाही से उनका सीना चौड़ा हो जाता है तो फिर क्यों आंसूं बहायें?”
एक दहेज के कारण हुई मौत का हवाला देते हुए कहती हैं
“दहेज़ के विवाद को समझौते या किसी तरह से खुद को बेच कर लड़के वालों की मांग पूरी करने की हमारी आदत ही हमारी बेटियों की हत्या का कारण बनता है. जहाँ बेटी सताई जाती है, वहाँ के लोगों की मानसिकता जानने की कोई और कसौटी चाहिए? अगर नहीं तो समझौतों की बुनियाद कब तक उसकी जिन्दगी बचा सकती है? इनके मुँह खून लग जाता है वे हत्यारे पैसे से नहीं तो जान से ही शांत हो पाते हैं. ऐसे लोग विश्वसनीय कभी नहीं हो सकते हैं. इसमें मैं किसी और को दोष क्यों दूं? इसके लिए खुद माँ बाप ही जिम्मेदार है , जिन्होंने अपनी सामर्थ्य से अधिक दहेज़ माँगने वालों के घर में रिश्ता किया. उसे अपने पैरों पर खड़ा होने दीजिये. अब मूल्य और मान्यताएं बदल रहीं है. बेटी किसी पर बोझ नहीं है वह अपना खर्च खुद उठा सकती है. उस घर में मत भेजिए कि उसके जीवन का ही अंत हो जाये.”
अंत में एक अपील भी है उनकी -
संकल्प करें की दहेज़ लोलुप परिवार में बेटी नहीं देंगे उसको सक्षम बना देंगे और उसको आहुति नहीं बनने देंगे.
रेखा जी हम आप की बात से पूरी तरह सहमत हैं। आपके इस संकल्प को हमने दशकों पहले लिया था। एक बहन खो चुके हैं इस कुप्रथा के कारण, क्योंकि ह्मने संकल्प लिया था कि न दहेज लेंगे, न देंगे। उसकी मौत ने तोड़ा नहीं हमें, बल्कि संकल्प और भी दृढ हुआ है। क़नूनन जो सजा दिलवा सकते थे दिलवाई। हम तो जो देहेज लेकर शादी करता है उसकी बारात या शादी का हिस्सा भी नहीं बनते, चाहे वह कितना भी घनिष्ठ संबंधी ही क्यों न हो!
मैंने शुरु में दो लाइन कही थी, फिर कहने का मन बन गया। हम अपने लिए आचार संहिता बनालें। तभी हमारे आचरण में बदलाव आएगा। हर कोई दुनिया को बदलना चाहता है, लेकिन खुद को बदलने के बारे में कोई नहीं सोचता।
मेरी पसंद
आज की मेरी पसंद है रचना दीक्षित की कविता आसरा। अपना परिचय देते हुए कहती हैं
“रचना हूँ मैं रचनाकार हूँ मैं , सपना हूँ मैं या साकार हूँ मैं, रिश्तों में खो के रह गया संसार हूँ मैं, शून्य में लेता नव आकार हूँ मैं, अपने आप को ही खोजता इक विचार हूँ मैं, लेखनी में भाव का संचार हूँ मैं, स्वयं से ही पूंछती की कौन हूँ मैं, इसी से रहती अक्सर मौन हूँ मैं,”
प्रकृति से कविता में बहुत कम आए दो वृक्षों के बिम्बों का सहारा लेकर कवयित्री अपने पाठक को एक गहरा चिंतन आवेग सौंपती है जिसके स्पंदन से पाठक बच नहीं पाता। इस रचना की संवेदना और शिल्पगत सौंदर्य मन को भाव विह्वल कर गए हैं। रचना जी की इस कविता में से भावनाऒं का ऐसा रस उठा कि हमें कई पल रुक कर उन नीम और गुर्च के पेड़ों को निहारने पर विवश कर गया। जिंदगी के कई शेड्स इस कविता में ऐसी काव्यभाषा में प्रकट हुए हैं, जो मुझे यह कहने पर विवश कर रहे हैं कि रचना जी आप आज के समय की समर्थ कवयित्री हैं ।
दूर से निहारती हूँ तुम्हें.
सुना है,
गुणों का अकूत भंडार हो तुम.
वैसे, हूँ तो मैं भी.
तुम में भी एक दोष है,
और मुझ में भी.
तुम्हारा असह्य कड़वापन,
जो शायद तुम्हारे लिए राम बाण हो
और मेरा, दुर्बल शरीर.
मुझे चाहिए,
एक सहारा सिर्फ रोशनी पाने के लिए.
सोचती हूँ फिर क्यों न तुम्हारा ही लूँ.
अवगुण कम न कर सकूँ तो क्या,
गुण बढ़ा तो लूँ.
आओ हम दोनों मिलकर
कुछ नया करें.
किसी असाध्य रोग की दवा बनें.
दूर से निहारती हूँ तुम्हें,
जानती हूँ, मैं अच्छी हूँ,
पर बहुत अच्छी बनना चाहती हूँ.
कहते हैं,
नीम पर चढ़ी हुई गुर्च बहुत अच्छी होती है.
बोलो! क्या दोगे मुझे आसरा,
अपने चौड़े विशाल छतनार वक्षस्थल पर?
विस्तार से की गई चर्चा ,आभार
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंबेटी .......प्यारी सी धुन
आज की चर्चा तो कुछ नया ही रंग लिए है , दुबारा देखना पड़ा कि मैं किसे पढ़ रहा हूँ ! आभार आपका नए अंदाज़ और बहुत बढ़िया लिंक देने के लिए !
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएं !
चिट्ठा चर्चा में नज़र, आया हूँ इस बार.
जवाब देंहटाएंप्रिय मनोज जी आपका,पुनः पुनः आभार.
कुँवर कुसुमेश
सतीश सक्सेना जी से सहमत. चर्चा वास्तव में ही अलग सी लगी किन्तु कहीं सुंदर...शायद रचनाओं का कहीं अधिक विहंगम वर्णन पढ़ने को मिला आज
जवाब देंहटाएंrekha kae blog kaa link lagaaye
जवाब देंहटाएं@ रचना जी
जवाब देंहटाएंभूल की तरफ़ ध्यान दिलाने के लिए आभार। त्रुटि सुधार कर दिया है।
मनोज जी मेरी कविता को चिट्ठा चर्चा ब्लॉग पर स्थान देने और उसे पसंद करने के लिए आभार. ऐसे ही प्रोत्साहन देते रहें हर बार कुछ नया सीखने को मिलता है
जवाब देंहटाएंमनोज जी,
जवाब देंहटाएंचिटठा चर्चा की प्रस्तुति बहुत ही सुन्दर रही. नए लिंक मिले और उस साथियों से परिचय भी हुआ. मेरी दो रचनाओं को चर्चा में लेने के लिए धन्यवाद.
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जवाब देंहटाएंsangeeta swarup to me
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मनोज जी ,
चिटठा चर्चा पर मैं अपनी टिप्पणी पोस्ट नहीं कर पा रही हूँ ...कृपया आप वहाँ पोस्ट कर दीजियेगा ..
कुंवर कुसुमेश जी का परिचय अच्छा लगा ..रेखा जी और राजेन्द्र जी की रचनाएँ मैं बाद में पढूंगी ..फिलहाल मैं ब्लोग्स नहीं खोल पा रही हूँ .
रचना दीक्षित जी की कविता पढ़ी और बहुत अच्छी लगी ...अब दस दिन बाद ही सब पढना होगा ...
आपने जिस तरह से हर रचना की संक्षिप्त समीक्षा की है वह काबीलेतारीफ़ है ..मेरी रचना को लेने और उस परा अपने अमूल्य विचार रखने के लिए आभार ..
संगीता स्वरुप