रवि रतलामी जी अपनी असहजता व्यक्त करने के लिए पहले ही इस विषय पर चिट्ठाचर्चा कर चुके है.
तो अज्ञानी चिट्ठाकारों, अपने चिट्ठे की रेटिंग की, क्लिक दर की कुछ चिंता करो और अपने चिट्ठे को हरा रंग दो. या तो हरा हरा लिखो या चिट्ठे को केसरिया बाना पहनाओ.
मगर सभ्य भाषा शायद समझ में नहीं आती, न ही उसके पीछे छीपा दर्द ही. रचनाजी इतनी दूःखी हुई है की उन्होने निर्दाष नारद को ही अलवीदा कहने का मन बना लिया. रचनाजी रणछोड़ मत बनीये.
यह पहली बार हुआ है ऐसा तो नहीं, फिर से वही वही बाते एक विराम के बाद क्यों उठाई जा रही है? जहाँ कई लोग मोहल्ला पर इक्कठे हुए वहीं क्रिया की प्रतिक्रिया रूप गुटो में बटे दुसरे पक्ष पंगेबाज, ये क्या हो रहा, लोकमंच (जिसकी मरम्मत का काम जारी है) ने अपनी तरफ से मोर्चा सम्भाला. जब इस प्रकार के खिलवाड़ चल रहे होते है, तब अज्ञात टिप्पणीकार दोनो पक्षो पर ज्वनशील पदार्थ डाल आनन्द लेता रहता है तथा घूँघट में छीप नारद के कर्ता-धर्ताओं को नामर्द कहता है.
इस कौलाहल में जो महत्वपूर्ण चिट्ठे टी.आर.पी. में पीछड़ गए उनका उल्लेख यहाँ आवश्यक हो रहा है. एक प्रविष्टी है अफ्लातुनजी द्वारा लिखी गई, मीडिया प्रसन्न, चिट्ठाकार सन्न
इस माध्यम (चिट्ठाकारी) में सबसे जरूरी है पारदर्शिता । कहीं का ईंट और कहीं का रोड़ा जोड़ते वक्त यदि स्रोतों का जानबूझकर जिक्र न हो या अथवा किसी के अन्य स्थलों पर लिखे गये बयानों को ऐसे जोड़ देने से मानो वे बयान भी वहीं दिये गये हों बवेला ज्यादा होता है । ऐसे में चिट्ठालोक में विश्वसनीयता ज्यादा तेजी से लुप्त हो जाती है और लुप्त हो जाते हैं पाठक टेलिविजन, अखबार या रेडियो फोन कम्पनियों से व्यावसायिक सौदा तय कर के चाहे जितने पूर्व-निर्धारित, निश्चित
विकल्पों वाले एस.एम.एस. प्राप्त कर लें और उन्हें फ़ीडबैक की संज्ञा दें , इन माध्यमों में संवाद मोटे तौर पर एकतरफा ही होता है । संजाल पर परस्पर होने वाले संवाद की श्रेष्ठता इन सब पर भारी है । ऐसे में अन्य माध्यमों द्वारा संजाल पर हाथ आजमाने को जरूर बढ़ावा दिया जायेगा ।
फिर दिल्ली की राष्ट्रीय मीडिया हस्तियाँ अपने कारिन्दों को अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया समूहों की नकल करने के लिए प्रोत्साहित ही करेंगी अथवा नहीं ? क्योंकि कागजी घोड़ों से भी तेज होता है साइबर घोड़ा ।
और आँखे खोलने के लिए प्रयाप्त दुसरी शुएब की प्रविष्टी, हिन्दू, मुसलिम भारत और खुदा.
दो हाथ वाले, चार हाथ वाले, बगैर हाथ वाले और बगैर दिखाई देने वाले, क़बरों मे सोए हुए सूली पर लटके हुए हर किसम के ख़ुदा हमारे देश मे मौजूद हैं। आप जाओ यहां से, हम भारतीयों को किसी दूसरे ख़ुदा की ज़रूरत नहीं। हम भारती ख़ुद ख़ुदा हैं ख़ुद क़यामत मचाते हैं, ख़ुद लुटेरे हैं, ख़ुद फितनेबाज़ भी हैं, ख़ुद दंगा फसाद मचाते हैं, अपने फैसले हम ख़ुद करते हैं। हम भारती हैं अपनी मर्ज़ी के राजा हैं - आप जाओ यहां से, हमारा किसी भी ख़ुदा पर ईमान नहीं।
मगर इन सब से दूर कहीं पंगेबाज ललकार रहा है, “डरते क्यूँ हो, कुछ तो बोलो...” और संत बना मोहल्ला लिखता है, “स्टोप हेट...बन्द करो यह नफरत”। शर्म करो यह तस्वीर दिखा कर आग में पानी डाल रहे हो या पेट्रोल? मीडिया के पेंतरे खुब आजमा रहे हो, कहीं और की तस्वीरे किसी और ही संदर्भ में दिखा कर नफरत फैलाना बन्द करो.
बहुत हुआ, अब बन्द करो.
सही कहा संजय जी आपने, जिन्होने दर्द दिया है वही आज मरहम लगाने का ढ़ोंग कर रहे हैं। भईये ये ढ़ोंग मत किया करो दुनियाँ जानती है किसकी खाल में कौन छिपा है।
जवाब देंहटाएंएक बेहतरीन चर्चा। बहुत हो गया अब ये खेल बन्द होना चाहीये !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन चर्चा. मेरी पोस्ट गायब?? कोई बात नहीं, हो जाता है. :)
जवाब देंहटाएंचर्चा तो बढ़िया रही पर इस दंगे/पंगे की आग में कुछ चिट्ठे गायब हो गये .फिर भी कोई शिकायत नहीं . क्यो समीर जी आप तो इतने मोटे हो गये कि चर्चा में समा नहीं पाते .और हम पाते तो क्या पाते ...चलो अच्छा रहा अब ना चलाओ लातें.
जवाब देंहटाएंकाकेश
सन्जय भाई,
जवाब देंहटाएंसिर्फ दुविधा मे लिखी थी वो पोस्ट...लिखने पढने वाली इस दुनिया मे अभी भी हूँ...चर्चा बढिया रही.
यह मुख्य चर्चा नहीं थी. मात्र खास विषय वस्तु को लेकर लिखी गई है.
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