गुरुवार, अगस्त 23, 2007

साहित्य जीवन के स्वांग का भी प्रतिबिंब होता है

हम एक बार फिर आलोक पुराणिक जी के दबाव में आ गये। वे पाठकीय ठसक के साथ बोले ! यह नियमित क्यों नहीं हो है जी।

हमने जबाब देना ठीक नहीं समझा। सोचा पाठक तो राजा होता है। राजाजी जब कह रहे हैं तो एकाध घंटा उनके कहे पर होम कर देते हैं।

सीधे बिना कुछ कहे सुनी वनलाइनर चर्चा करके फूट लेना कुछ ऐसा लगता है जैसे सबेरे-सबेरे अखबार वाला अखबार फेंककर चला जाये। इसलिये कुछ बतकही भी होती रहनी चाहिये।

कल रात जब हम पंगेबाज का लेख पढ़ रहे थे उसी समय उन्होंने उसका लिंक भी थमा दिया। आनलाइन! देखिये कि एक टिप्पणी के बदले में कित्ता बड़ा पोस्ट रिटर्न दे दिया अरुण अरोरा ने देबाशीष को। ज्ञानदत्त जी उनकी इस मेहनत को चौचक बताते हैं।

बात निकलती है तो दूर तक तो जाती है लेकिन दूर तक जाने के चक्कर में कभी-कभी वहां तक नहीं जा पाती जहां के लिये निकलती है। कुछ ऐसा ही पत्यक्षाजी की इस कैमाफ़्लाज्ड पोस्ट के साथ हुआ। इस पर उनका कहना था-
अफसोस है कि इस लेख में जो तंज़ है वो सचमुच टैजेंट चला गया । बात चाहे गंभीरता से कही गई हो या तंज़ से ...समझने वाले न समझना चाहें , जानते बूझते तो चाहे बात एकदम लोवेस्ट डिनामिनेटर की भी की जाय ,हँसी में उडाई जाती है। बिरादरी या तो पैट्रोनाइज़िंग हो जाती है या फिर पुरुष सहोदरता वाली बात हो जाती है , जैसा कि प्रत्यक्ष हुआ शिल्पा और मेरी लेख पर की टिप्पणियों से और ज्ञानदत्त जी के लेख टिप्पणियों से ।
इस लेख में किसी पर आक्षेप लगाने की कोशिश नहीं की गई सिर्फ एक मानसिकता को रेखांकित करने का छोटा सा प्रयास भर था , ये भी साफ साफ जानते बूझते कि इसका हश्र क्या होगा । बस , मेरी तरफ से प्रोटेस्ट लॉज़ करना था ऐसे मुद्दे पर जिसके भुक्त भोगी अलग अलग परतों पर हम सब हैं ..धर्म , जाति , सोशल स्टैटस , कितने स्टीरियोटाईप्स हैं । औरतें जेंडर बेसिस पर इनके आलावे भी भुगतती हैं ।
ये बहस और विमर्श का मुद्दा है ,हंसी का नहीं ।


भव्य श्रीवास्तव पेशे से पत्रकार हैं। आपको नगर-नगर डगरा रहे हैं। आज उनके साथ एटा शहर घूमिये जहां रेल तक नहीं जाती। इसके बारे में लिखते हुये बताते हैं-
एटा में जो सबसे प्रचलित शब्द है, वो है पकड़। यानि माल जब्त करना नहीं। बल्कि आपका अपहरण। उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों में अपराध ज्यादा है। वजह जमीन और राजनौतिक हस्तियों की दखल है। मैने एक जानने वाले से जाना कि पकड़ की कीमत क्या है। यानि फिरौती का हिसाब क्या है।

चौंकिएगा नहीं। क्योंकि ये आपके जीडीपी या पर कैपिटा इनकम से नहीं समझ आएगा। आपको इसके लिए देश के गांवों में जाकर एक समय का राशन खरीद कर खाना होगा। या शहर में दिहाड़ी पर जीते लोगों का जीवन समझना होगा। पकड़ एटा में आए दिन का बात है और पकड़ से छूटने की कीमत भी आम दिन की जद्दोदजहद के बराबर। यानि किसी पकड़ की कीमत दो हजार है तो किसी की एक साइकिल या भैंस।


अनिल रघुराज ने बात शुरू की थी एक धांसू सवालिया डायलाग से कविता हमारे समय का सबसे बड़ा फ्रॉड है? लोगों की जिज्ञासायें और अपनी बात साफ़ करने की नीयत से वे मुक्तिबोध के पास गये और उनकी साहित्यिक डायरी से तमाम प्रमाण बटोर लाये। पेश भी कर दिये। आप देखिये न! वे क्या कहते हैं-
काव्य में प्रकट उनके व्यक्तित्व में मानवीयता का स्पर्श अल्प होता है। उसमें किसी ऐसे भव्य रूप के दर्शन भी नहीं होते जो हमारे सामान्य जनों की भव्य मानवीयता में हमें दिखाई देते हैं। आध्यात्मिक टुटपुंजियापन आज की कविता का महत्वपूर्ण लक्षण है।




इलाहाबाद में ब्लागर मिलन हुआ तो रामचन्द्र मिसिर जी ने सबकी फोटो खैंच ली। आप भी देखियेगा ? ये देखिये।

अब आइये कुछ वन लाइनर हो जायें। लेकिन पहले ये वाला समाचार पढ़ लीजिये। इसमें भोपाल में होने वाली हिंदी चिट्ठा कार्यशाला के बारे में जानकारी दी गयी है:-

१. खुदा किस तरफ़ है? : ये तो कहो खुदा को भी न पता हो। वैसे कल निर्मलमन के यहां दिखा था। बड़ा जबर मन है भाई!

२.जो खायें ट्रिपल उखर्रा पूड़ी बुश उर्फ कविता : उसे मिल सकता है ट्रिपल उखर्रा पूड़ी वाला सम्मान। आलोक पुराणिक उर्फ़ खाकसार को मिला है भाई!

३.तेरी खुशबू : मुझमें बसी है तुमको पता है कि नहीं !

४.अजनबियों के बीच सालगिरह.. :मनायें क्योंकि हम लगातार ‘बुलबुले-सी ज़ि‍न्‍दगी’ की ओर बढ़ रहे हैं जहां परिचितों, मित्रों से कटे हम अपने एकांतिक खोह में मगन रहते हैं! बुलबुले फूटना बहुत जरूरी है।

५.तेरह छड़िकायें :चन्दा मामा और पुए वाली!

६.चिडी के बादशाह और हुकम के गुलाम : यानी कि जहाँ हुआ इशारा वहीं पत्थर फैंके !

७.अरे अभी मत खींचना से हां अब खींच लो तक पसरा फोटो ब्लाग

८.बांग्लादेश: छात्र संघर्ष और कर्फ्य : लगे हैं एक दूसरे के पीछ!

९. आदमी उमर भर अनजान रहता है: इसलिये उमर भर आदमी आंखों की भाषा को नहीं पढ़ पाता है! बाद में चश्मा चढ़ जाता है!

१०.रिश्ता तलवार की धार और कविता का :अगर यही कविता है तो रोज़ सोते-जागते थोक के भाव कविताएं लिखी जा सकती हैं। लिखी ही जा रही हैं आप देखते नहीं का!

११.कसाई है हम कसाई : लेकिन हम मास्साब के चहेते शिष्यों मे से हो गए।

१२. अब क्या समझायें:वोह तो अपनी आत्म प्रशंशा मे मुग्ध हैं!

१३.प्रियतम बिचारा, गड्ढों का मारा : इसे पिलाओ हमदर्द का टानिक सिंकारा!

१४.दुर्लभ वन्य-दृश्य : आपके कम्प्यूटर पर! देखिये तो सही।

१५.नगर नगर एक सफर :साथ में रहिये घुमायेंगे, बतायेंगे।

१६.विश्वास भरी पाती :ना फेलाओ प्रदुषण!

१७. सात साल का नाई........हिट है भाई !: आपने अभी तक हजामत नहीं बनवाई! बनवा लो भाई!

१८.विजेट ही विजेट :
करें! समझने के पचड़े में न पड़ें।

१९.आदिवासी महिलाएं ज्यादा सुखी हैं :फिर पता नहीं क्यों लोग आदिवासियों को शहरी बनाने पर तुले हैं। दूसरों का सुख देखा नहीं जाता!

२०.आलोचनाएं सुनीं तो अब सफाई भी सुन लें : व्रर्ना हम कविता लिखने लिखने लगेगें बताये देते हैं हां!

२१. गाली दो वाहवाही लो...: चलिये शुरू करिये भाई!

ये इक्कीस टिप्पणी का प्रसाद चढ़ा कर हम आज का दिन शुरू करते हैं। आप भी मौज करें। दुनिया में कुछ धरा नहीं है। सच कह रहे हैं आपसे। :)

आज के बाकी सारे चिट्ठे यहां पढ़ लीजियेगा।

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4 टिप्‍पणियां:

  1. @अरे अभी मत खींचना से हां अब खींच लो तक पसरा फोटो ब्लाग

    पकड लिया अनूप जी आपने
    हम को,
    ऐसे चिट्ठे पर,
    जहां पर हम खडे हैं
    असमंजस में.
    मालूम होता कि
    यह नजर में आ जायगा
    आपके,
    तो कम से कम छुपा कर रखते
    "अरे अभी मत खींचना" को !!

    -- शास्त्री जे सी फिलिप

    हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
    http://www.Sarathi.info

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  2. बहुत बढ़िया लगी आपकी चिटठा चर्चा !और हमे शामिल करने की लिए धन्यवाद !!

    प्रसाद हमने भी ग्रहण कर लिया।

    जवाब देंहटाएं

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