शनिवार, मार्च 28, 2009

एक और अनेकः महेन की बतियां

उन्मुक्त होने में जो आनंद है वो नियमित होने में नही, इसमें बंधन खुल से जाते हैं। फुरसतिया ने चर्चा से जाने पर अनियमित चर्चा करने की बात करी, लेकिन मेरा चर्चा छोड़ना किसी बंधन की वजह से नही था। उसकी वजह थी वक्त की कमी जिसके चलते चर्चा करने पर चिट्ठों के साथ न्याय नही हो पाता। अपनी पसंद के चार चिट्ठे पढ़ चर्चा करना कम से कम हमें गवारा नही था। इसलिये देर से ही सही हम अनियमित चर्चा करने आ पहुँचे लेकिन इस चर्चा का फार्मेट अन्य दिनों की चर्चा से बिल्कुल जुदा होगा। इसमें हम सिर्फ एक ही चिट्ठाकार की अलग अलग पोस्टों की चर्चा करेंगे उसके एक या अनेक चिट्ठों को पढ़कर। इसी क्रम में शुरूआत कर रहे हैं महेन की लिखी पोस्टों की बतिया से।

महेन कम लिखते हैं लेकिन जब भी लिखते हैं तो दिल से और ये बात उनके प्रोफाईल में अपने बारे में कही बात से पता चल जाती है। जब वो बताते हैं वो यहाँ काइकू -

ग़लत हैं वे जो कहते हैं कि परमानन्द मुक्ति से ही मिलता है। कील लगने के कुछ दिनों बाद जो खुजास होती है, उसमें भी परमानन्द होता है। शिशु के कुनमुनाते होठों में भी परमानन्द होता है और भोर में बाल सुखाती पड़ोस के शर्मा जी की आयुष्मती को आँखभर देख लेने में भी परमानन्द ढूँढा जा सकता है। परमानन्द तो परनिन्दा में भी होता है और परसाई की बात मानें तो परमानन्द उसे कहते हैं जब भक्त ईश्वर को ठग लेता है। ईश्वरीय सत्ता ने इस धरा पर हमें जो उपकरण दिये हैं उनमें से किसी में भी परमानन्द मिल सकता है। मुझे यह परमानन्द पीले पन्नों के काले-काले अक्षरों को बाँचने में बाकी चीज़ों की अपेक्षा ज़्यादा मिलता है।
वो मुख्य रूप से दो चिट्ठों पर अपनी कलम ज्यादा घिसते हैं, एक है हलंत और दूसरा प्रत्येक वाणी में महाकाव्य। हलंत में उनकी लेटेस्ट पोस्ट में वो नोस्टाल्जिया का नशा कुछ यूँ बयाँ करते हैं -

कभी किसी नये रास्ते से गुज़रते हुए पुरानी सी महक नासापुटों में पैठती है तो आदमी वहां पहुँच जाता है जहाँ से वह बहुत पहले गुज़र चुका है। एक छोटी सी तान से अकसर सालों का फासला तय करके वही क्षण वापस आ खडा होता है जिसे भुला दिया गया था या जिसे हम डायरी के पुराने पन्ने पर धूल फांकने के लिए छोड़ आये थे। बीते ज़माने में दोस्तों की टांगों का तकिया बनाकर नीमनशे में बुझती आखों के लैंपपोस्ट से पढ़ी कोई कविता दोबारा नज़रों के सामने गुज़र जाए तो यकायक वो भूले नाम दिमाग में धींगामुश्ती करने लगते हैं, जिनका इन बीच के सालों में कोई ज़िक्र ही नहीं उठा। कभी यूँ भी होता है कि इत्र या डेओ की महक से बरबस कोई याद आ जाता है जिसे भुलाना अपने आप में ताजमहल खड़ा कर लेने से कम नहीं रहा होगा। और तो और एक पुराना इश्तेहार अगर बजने लगता है तो अपने साथ जाने कितने वाकये ज़िन्दा कर देता है या रसोई में दाल में लगा तड़का भी लंबा सफर तय करा लाता है कई बार।


नोस्टाल्जिया कई तरह का होता है। याद के कई दरवाज़े होते हैं और याद कई सूत्रों से जुड़ी होती होगी, तभी तो कभी कभी बेतार की तार से कुछ अप्रत्याशित याद आ जाता है।
अब उनको और क्या क्या और किस तरह का नशा याद आया उसके लिये तो मयखाने ही जाना पड़ेगा, जाकर पढ़िये निराशा नही होगी।

लिखने में बहुत गैप रखने के कई नुकसान होते हैं, कई लोग ऊतार्ध पहले लिख देते हैं फिर उस लेख को शुरू करने की नौबत नही आती। और महेन जैसे लोग भी हैं जो पूर्वाध यूँ ही लिख देते हैं और फिर कई दिन बीत जाने पर बताते हैं कि

कुछ महीनों पहले यूँही कुछ लिखने का सोचा था जिसका यह पूर्वार्ध है। अब चूंकि बात पुरानी हो चुकी है और विचार बदल चुका है इसलिए इसे आगे बढ़ाने का कोई विचार नहीं।
अब आप लोग भी सोच रहे होंगे कि आखिर ये पूर्वाध कैसा था और किस बारे में था, तो जनाब ट्रैलर हम दिखा देते हैं, फिल्म वहीं थियेटर में जाकर देखिये। महेन का कहना था मुझपे तेरे ये भरम जाने कितने झूठे होंगे -

एक बार फिर देखा; वही पुरानी तस्वीरें, वही उलझी सी लिखावट वाले सलीके से तह किये हुए पत्र। वही लापरवाही से लिखे गहरे-हलके अक्षर। सब समेटकर बड़े से लिफ़ाफ़े में डाल दिये। बगल की फ़व्वारे की दुकान से लकड़ी के महंगे विंड-चाईम्स के खनकने की आवाज़ रह-रहकर गूँज उठती थी। छोटे-छोटे फव्वारों से पानी की अल्हड़ थिरकन उठकर माहौल को वैसे ही रोमांटिक बना रही थी जैसी पहले बनाया करती थी। उधर छोटे से रेस्तराँ में कोई बैरा को ऑमलेट के लिये आवाज़ लगा रहा था। सामने छोटे से मंच पर, जो आजतक अपनी पहली प्रस्तुति के लिये तरस रहा था, बड़ा सा मटमैला सफ़ेद पड़ा परदा लटक रहा था। उसके पीछे एक कोने से बेतरतीब पड़े लकड़ी के बेंच झाँक रहे थे, जिन्हें किसी ने यूँही निरुद्देश्य वहाँ छोड़ दिया था। उनपर धूल की इतनी मोटी परत जमी हुई थी कि लगता था जैसे वे बने ही मिट्टी से हों। मंच के बगल की दीवार पर गहरे हरे रंग की बेल पूरी चढ़कर अब छज्जी तक पहुँच चुकी थी।
महेन अकविता भी करते हैं, अब चूँकि अकविता हमारे विषय क्षेत्र से दूर की चीज है इसलिये कह तो नही सकते कि उन्होंने जो ये लिखी है वो किस काल के अंतर्गत आयेगी लेकिन हमें अच्छी लगी -

इससे तो बेहतर है
अनजान लोगों से बतियाया जाए कुछ भी
किताबों में घुसा लिया जाए सिर
एक के बाद एक चार-पांच फ़िल्में देख डाली जाएं
पूरी रात का सन्नाटा मिटाने के लिये
टके में जो साथ हो ले
ऐसी औरत के साथ काटी जाए दिल्ली की गुलाबी ठंडी शामें
गुलमोहर के ठूँठ के नीचे
या दोस्तों को बुला लिया जाए मौके-बेमौके दावत पर

तुम्हे प्यार करते रहना खुद से डरने जैसा है
और डर को भुलाने के लिये जो भी किया जाए सही है।

अब चलते हैं और कुछ नजर दौड़ाते हैं उनके दूसरे चिट्ठे वाणी में महाकाव्य पर, जहाँ लेटेस्ट पोस्ट पर वो आठवाँ सुर सुना रहे हैं। महेन उत्तराखंड से बिलोंग करते हैं इसलिये यदा कदा इस अंचल के गीत भी सुनाते रहते हैं। इसी क्रम में नरेन्द्र सिंह नेगी का शुरूआती दिनों में गाया गढ़वाली बोली का गीत सुना रहे हैं सौंणा का मेयना (सावन का महीना)। उनके इस चिट्ठे पर होने वाली पोस्टों से (या गीतों) से उनके चिट्ठे के नाम की सार्थकता बनी रहती है तभी तो गढ़वाली के अलावा वहाँ बांग्ला में भी गीत सुनने को मिलता है, मन्ना दे के स्वर में "आबार हाबेतो देखा"।

महेन ग्रुप चिट्ठाकारी भी करते हैं, कबाड़खाने के कबाड़ी तो हैं ही साथ ही साथ चित्रपट में सिक्के उछाल के चित और पट भी करते रहते हैं। चूँकि वो चित्रपट में ज्यादा सक्रिय हैं इसलिये अंत में यहाँ भी नजर डालते चलते हैं।

ताजा ताजा पोस्ट के रूप में वो फिराक देखने की सिफारिश करते हैं लेकिन आवेश में थोड़ा सा गड़बड़ा जाते हैं - फिराक जरूर देखी जाना चाहिए। फिर संभल के सबसे पहले पेश करते हैं मंगलेश डबराल की कविता गुजरात के मृतक का बयान का एक अंश -

मेरी औरत मुझसे पहले ही जला दी गई
वह मुझे बचाने के लिए खड़ी थी मेरे आगे
और मेरे बच्चों का मारा जाना तो पता ही नहीं चला
वे इतने छोटे थे उनकी कोई चीख भी सुनाई नहीं दी
मेरे हाथों में जो हुनर था पता नहीं उसका क्या हुआ
वे अब सिर्फ जले हुए ढांचे हैं एक जली हुई देह पर चिपके हुए
........
मेरे जीवित होने का कोई बड़ा मकसद नहीं था
और मुझे मारा गया इस तरह जैसे मुझे मारना कोई बड़ा मकसद हो...
हर आदमी (और औरत) का अपना अपना नजरिया होता है और वो हर बात को अपनी नजर से ही देखता है परखता है लेकिन जरूरी नही कि सच उतना ही हो। जैसे कि मेरा मानना है कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, फिराक में तस्वीर का सिर्फ एक पहलू ही पेश किया गया, और ये मेरी नजर है, मैं ऐसा सोचता हूँ। भगत सिंह पर हम फिल्म बनायेंगे तो वो उसमें क्रांतिकारी होंगे लेकिन अगर ब्रिटिशर फिल्म बनाने की सोचें तो वो अलग तरीके से पेश करेंगे। बहराल महेन फिराक के बारे में बताते हुए लिखते हैं -

एक ऐसे समय में जब एक साझा विरासत में सांप्रदायिक दंगों और तनावों के बीच मानवीय रिश्ते लगातार दरक रहे हों और उनमें दूरियां बढ़ रही हों, लोगों को मारा जाना एक मकसद में बदल गया हो, दंगों की खौफनाक यादें पीछा करती हई वर्तमान जीवन को तनावग्रस्त बनाए रखती हों, आशंकाएं और भय हर किसी की दहलीज और खिड़कियों पर घात लगाएं बैठे हों तब हिंसा के खिलाफ एक फिल्म इस मकसद से बनाई जाती है कि वह यह बता सके कि हिंसा का असर कहां-कहां और किन स्तरों पर लोगों का जीवन तबाह कर देता है। इस तरह यह हिंसा के खिलाफ कलात्मक ढंस से आवाज उठाती है। फिल्म फिराक यही संदेश देती है।
सांप्रदायिकता पर बनी जिस फिल्म ने मुझे काफी प्रभावित किया था वो थी पंकज कपूर अभिनीत धर्म, अगर आपने अभी तक नही देखी है तो जरुर देखियेगा। मुझे कोई ताज्जुब नही उसको किसी पुरस्कार के लायक नही समझा गया।

इससे लगभग एक महीने पहले लिखी पोस्ट में महेन उस शख्स को ढूँढने की कोशिश करते हैं जो खो चुका है, बात करते हैं दादासाहेब फाल्के की। लिखते हैं -

एकमात्र व्यक्ति जिसे शायद दादासाहेब की महत्ता मालूम थी, प्रभात फिल्म्स के शांतारामबाबु, उन्हें मंच तक भी ले गए और सिनेमा जगत से आग्रह किया कि नासिक में उनके रहने की व्यवस्था के लिए धन दें। अंततः शांतारामबाबु ने ही इस राशि का बड़ा हिस्सा दिया। वहीं नासिक में छ: साल बाद दादासाहेब की मृत्यु अकेलेपन और उपेक्षा में हुई। १९३८ में ही जब सिनेमा-जगत भारतीय-सिनेमा के पितामह को भुला चुका था तो एक फिल्म-पत्रिका को उनका पता मिला और पत्रिका ने उन्हें एक इंटरव्यू करने का आग्रह किया, जिसके जवाब में उन्होंने लिखा, "जिस सिनेमा-जगत को भारत में मैंने जन्म दिया, जब उसी ने मुझे भुला दिया तो आप भी भुला दें।"
भारतीय फिल्म उधोग और फैन हमेशा से स्टार को ज्यादा महत्व देते आये हैं कलाकार को नही वरना अगर कला से ही आंका जाता तो मेरा मानना है शाहरूख आज उस मुकाम में नही होते जहाँ वो आज हैं। महेन दादा साहेब के बारे में आगे लिखते हैं -

आज जो सिनेमा-जगत का हाल है, उसकी नींव संभवतः उसी दौर में पड़ चुकी थी। दादासाहेब की ही तरह भारत भूषण, ललिता पवार और ओमप्रकाश आदि भी भुला दिए गए और इन सभी ने बड़ी कठिनाइयों में अपने आखरी दिन गुज़ारे। "आउट ऑफ़ साइट, आउट ऑफ़ माइंड" फिल्म-जगत में शुरू से चलता आया है। किसी फिल्म-लेखक के संस्मरण में कहीं पढ़ा था कि दादासाहेब को एक सेठनुमा फिल्म-निर्माता के स्टूडियो के बाहर बदहाल देखा गया था और वे उस फिल्म-निर्माता से बात करने की कोशिश कर रहे थे।
संभवतः यही हाल इस हिंदी ब्लोग जगत का भी है, ये और ऐसे ही कई पोस्ट पर मिली टिप्पणियाँ मेरी इस बात की हमेशा गवाही देती रहेगी। ये एक ऐसा लेख है जिसे हर किसी को पढ़ना चाहिये क्योंकि बहुत मुश्किल है इतनी डिटेल में फिर कहीं दादा साहेब के बारे में पढ़ने को मिले।

लेकिन दादा साहेब और उनके जैसे कई अन्य कलाकार मसलन भगवान दादा, भारत भूषण की कहानी ये सीख भी देती है कि अपने काम में माहिर होने के अलावा थोड़ी बहुत दुनियादारी की समझ भी होनी चाहिये।

उनकी बतियों को विराम देते हलंत पर लिखी उनकी पहली पोस्ट से, जो बकौल महेन अकविता है, पेड़ और मैं -

मैंने नहीं देखा
अपने घर के आगे खड़ा वह पेड़
उसमें किस रंग के फूल खिलते हैं
क्या मालूम
कौन जाने वह
कब रहा होगा ठूंठ

एक सुंदर सा घोंसला बनाया है
उसमें गौरैया ने
कहता है मेरा बेटा
कितनी मेहनत लगी गौरैया की
मैंने नहीं लगाया हिसाब
फल गिरते हैं उसके हर साल
मेरे आँगन में
मेरे पास नहीं है वक्त
उन्हें समेटने का

इसे कटवा देंगे
कहती है मेरी बीवी
इससे भर जाता है आँगन में कूड़ा
दिनरात शोर मचाती हैं
इसपर डेरा डाले चिडियां
और इसकी जड़ें खतरा भी तो हैं
घर की नींव के लिए
मैं हिला देता हूँ हामी में सिर
जैसे पेड़ हिलता है हवा में
और डूब जाता हूँ अपने काम में

आने वाले संकट से बेख़बर
पेड़ और मैं
खुश हैं
और हरे भरे हैं अभी तक।

तो ये थी एक और अनेक में हमारी पहली अनियमितता के तहत महेन की बतियाँ, कोशिश यही रहेगी कि हर सप्ताहांत में ऐसे ही किसी एक ब्लोगर और सिर्फ उसकी बतियों की चर्चा की जाय और ये शुक्रवार से सोमवार के बीच कभी भी हो सकता है।

अब हमें दीजिये ईजाजत अगली बार फिर मुलाकात होगी, नियमित चर्चा के तहत गीत-संगीत की पोस्टों की चर्चा लेकर सागर भाईसा पीछे पीछे आ ही रहे हैं। आप लोगों के दिन मजे में बीते और रातें आराम से, मुस्कुराते रहें खिलखिलाते रहें।

-- तरूण, (उनके लिये जो इस दौरान हमें शायद भूल चुके हों)

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22 टिप्‍पणियां:

  1. महेन वास्तव मेँ बहुत सम्वेदनशील और उम्दा लेखन करते हैँ ब्लॉग पर।

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  2. किसी की बतियों पर चर्चा की अच्छी शुरुआत ,हमारी भी शुभकामनायें इस उम्दा पहल के लिए .

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  3. अरे तरुण भाई, हमारा तो ये था महेंद्र भाई। हम पर ये महेन उसका नया रूप हैं। कहिए कि एक बड़ा खजाना मिल जाने की तरह। बहुमुखी प्रतिभा। कमाल यह कि बड़ी समझ की बात भी बेहद आत्मीय और सहज कहकर बताते हैं, न कि कुछ विद्वानों की तरह आतंकित करने के अंदाज में।
    तरुण का अकविता शब्द को लेकर आग्रह जाने क्यों है? महेन कविता ही लिखते हैं।
    और महेन का कवि जितना अच्छा है, उतना ही प्रभावी उनका अनुवादक है। उनके किए अनुवाद आप पढ़ ही चुके होंगे।
    कहने का मतलब यह कि महेन की बतियां सार से भरी हैं। और यह भी कि उनमें एक चीज लगातार डिवेलप ही होती जा रही है...जिसका जिक्र फिर कभी। आपको फिराक जरूर देखी जानी चाहिए कहना(जरूर देखें तो कहा नहीं), आवेश में गड़बड़ा जाना लगा, हैरान करता है। यह आपका भावावेश अधिक लगता है तरुण जी.
    बहरहाल, एक महत्वपूर्ण ब्लॉगर पर चर्चा के लिए शुक्रिया...

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  4. सून्दर प्रयास। बहुत बहुत बधाई

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  5. धीरेश भाई (जिद्दी धुन),
    मेरा इस पूरी चर्चा पर कोई आग्रह या दुराग्रह नही, जैसा दिखा वैसा दिखाया। महेन की सभी कविता कविता-अकविता के अंतर्गत पोस्ट हैं। अकविता में मुझे ज्यादा काव्य नजर आया इसलिये लिखा। फिराक के लिये कही बात के अर्थ में ना जाईये अगर टाईटिल पड़ें तो उसमें कुछ गड़बड़ लगती है, आप समझ जायेंगे।

    लगता है आपने कभी हमारा लिखा नही पड़ा इसलिये इस तरह की निठल्ली बतियाँ समझने में कन्फुजिया गये वरना आवेश और भावावेश से हमेशा दूरी बनाये रखने का यत्न रहता है।

    इस तरह की चर्चा का सिर्फ एक मकसद है अलग अलग चिट्ठेकार और उसके चिट्ठों को थोड़ी जगह देना।

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  6. महेन जी तो बड़े सॉलिड ब्लॉगर हैं भाई! आपने परिचय बताकर और ट्रेलर दिखाकर ही मस्त कर दिया।

    तुम्हे प्यार करते रहना खुद से डरने जैसा है
    और डर को भुलाने के लिये जो भी किया जाए सही है।


    वाह क्या बात है। ऐसा प्यार तो लूट ही लेगा जी।
    बधाई।

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  7. बहुत बढिया रहा आपका प्रयास ... हमारी शुभकामनाएं।

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  8. mahin ji ko ham bhi padhte rahte hain, unka likha hamesha alag sa hota hai aur bahut accha hota hai. yahan unke bare me padh kar accha laga.

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  9. बढि़या चर्चा, महेन जी की एक और अनेक बतियां से रूबरू होना अच्‍छा लगा।

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  10. बढ़िया कोशिश .महेन जी का लिखा कई बार पढ़ा है ..बहुत अच्छा लिखते हैं वह ..उनका अपना ही एक अंदाज़ है लिखने का . आपने बहुत अच्छे से उनके लेखन की चर्चा की शुक्रिया

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  11. यहां काइकू?
    परमानन्द मिले--
    लिखे हाइकू :)

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  12. अजी महेन जी की तो बात ही कुछ और है। हमें तो पहली नजर में भा गए थे। और उनके कायल हो गए थे। जितना बेहतरीन वो लिखते उतने ही बेहतरीन इंसान भी है।

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  13. बहुत सुंदर चर्चा. महेन जी से रुबरु होना अच्छा लगा.

    रामराम.

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  14. अच्छी चर्चा !महेन जी से मिलकर अच्छा लगा !

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  15. PLEASE PROMOTE IT ON YOU BLOG CREAT AWARENESS



    मै अपनी धरती को अपना वोट दूंगी आप भी दे कैसे ?? क्यूँ ?? जाने





    शनिवार २८ मार्च २००९समय शाम के ८.३० बजे से रात के ९.३० बजेघर मे चलने वाली हर वो चीज़ जो इलेक्ट्रिसिटी से चलती हैं उसको बंद कर देअपना वोट दे धरती को ग्लोबल वार्मिंग से बचाने के लियेपूरी दुनिया मे शनिवार २८ मार्च २००९ समय शाम के ८.३० बजे से रात के ९.३० बजेग्लोबल अर्थ आर { GLOBAL EARTH HOUR } मनाये गी और वोट देगी

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  16. ओह शुक्रिया तरुण जी महेन मेरे प्रिय ब्लोगर्स में से एक है ..ओर उनको पसंद करने के दो कारणों में से एक है ..ऐसे .इरानियन फिल्म जो मुझे भी बेहद पसंद है ...दूसरा बियर को लेकर उनके लिखा हुआ कुछ ..जो मुझे अपना सा लगा था ....बिंदास शैली ओर सभी रंगों का एक परफेक्ट मिश्रण मुझे उनकी पर्सनेल्टी में मिलता है ...उनके लिखे को आप एन्जॉय भी करते है ओर चेरिश भी .....

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  17. महेन जी व उनकी रचनाओं से पाठकों का बहुत अच्छी तरह से परिचय करवाने के लिए धन्यवाद। मैं उन्हें शुरू से ही पढ़ती रही हूँ व उनके लेखन से प्रभावित भी हूँ। आपका यह प्रयास सराहनीय है।
    घुघूती बासूती

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  18. Tarun Bhai, apki batcheet ka andaz wakai sukhad hai. varna log khafa bhi ho jaate hain. is tarh se sanvad badhana bhi ajkal durlabh hai.

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  19. बढिया अंदाजे बयां! महेनजी की पोस्टें पढ़ते थे उनके बारे में जानते भी थे लेकिन आज की चर्चा के बाद और अच्छी तरह से महेनजी को जानने का मौका मिला। अच्छा लगा।

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  20. अब तक की सबसे अनूठी चरचा...शुक्रिया तरूण जी

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