काजल कुमार का बनाया कार्टून |
कल मैंने कुछ पोस्ट्स का जिक्र चिट्ठाचर्चा में किया। फेसबुक पर भी इसे पोस्ट किया। कई मित्रों ने इसे देखा। पढ़ा भी होगा। कुछ मित्रों से टिप्पणी भी की। लेकिन सभी टिप्पणियाँ फ़ेसबुक पर थीं। ब्लॉग पर कोई टिप्पणी नहीं थी। शायद मित्रों ने ब्लॉग पढ़ा ही न हो। पढ़ा भी होगा तो फेसबुक पर टिप्पणी के मुक़ाबले ब्लॉग पर टिप्पणी करना सहज होने के कारण ब्लॉग पर टिपयाना कठिन लगता होगा इसलिए फेसबुक पर टिपिया दिए।
आगे कुछ लिखने के पहले चिट्ठाचर्चा के बारे में कुछ जानकारी। ब्लॉग के शुरुआती दिनों में अंग्रेजी के कुछ ब्लॉगर 'ब्लॉग मेला' का आयोजन करते थे। उसमें हिंदी के कुछ ब्लॉगर्स ने भी अपने चिट्ठे नामित किए। मैडमैन नाम के एक चर्चाकार ने अंग्रेजी के ब्लॉग्स की चर्चा तो की लेकिन हिंदी के ब्लॉग्स के बारे में लिखा -I have not discussed about Hindi blogs. Hindi is a regional language. They should discuss it themselve( मैंने हिंदी के ब्लॉग्स की चर्चा नहीं की। हिंदी एक क्षेत्रीय भाषा है। हिंदी के लोग इसकी अलग से चर्चा करें) इस टिप्पणी की प्रतिक्रिया स्वरूप 9 जनवरी , 2005 को चिट्ठाचर्चा की शुरुआत हुई। यह तय हुआ कि हिंदी के अलावा दूसरी भारतीय भाषाओं की चर्चा भी की जायेगी। विवरण के लिए चिट्ठाचर्चा की पहली पोस्ट देखें।
9 जनवरी, 2005 को कुल जमा 40-50 हिंदी ब्लॉग थे। हम लोग हर हिन्दी ब्लॉग पर नजर रखते थे और पता चलने पर नए ब्लॉग का स्वागत चिट्ठाचर्चा पर करते थे। आठ सितंबर, 2005 को देबाशीष ने ब्लॉग की संख्या सौ होने की सूचना देते हुए पोस्ट लिखी :
"हिन्दी ब्लॉगमंडल में हार्दिक स्वागत इन ६ नये चिट्ठों काः IIFM, भोपाल के छात्र भास्कर लक्षकर का संवदिया; लखनउ के निशांत शर्मा, समूह ब्लॉग कहकशां, यूवीआर का हिन्दी, मासीजीवी का शब्दशिल्प और रायबरैली के राहुल तिवारी का जी हाँ! और खुशी के बात यह भी है कि हिन्दी ब्लॉग संसार की संख्या आखिरकार प्रतीक्षित १०० की संख्या तक पहुँच ही गई। शत शत अभिनन्दन सभी चिट्ठाकारों का!"
इसके बाद हिंदी ब्लॉग्स की संख्या बढ़ी। उनमें से कुछ के बारे में चर्चा नियमित रूप से चिट्ठाचर्चा में होती रही। हिंदी ब्लॉगिंग की तमाम बेहतरीन पोस्ट का संकलन चिट्ठाचर्चा की चर्चाओं में होगा। 2010 तक चिट्ठाचर्चा नियमित होती रही। इसके बाद फेसबुक के आने के बाद अधिकतर ब्लॉगर इधर आ गए। मैंने भी फेसबुक पर पोस्ट करना शुरू किया। लेकिन अपनी पोस्ट ब्लॉग पर भी सेव करते रहे। यह बहुत जरूरी है। क्योंकि फेसबुक का कोई भरोसा नहीं कि कब किसी शिकायत पर आपका खाता बंद कर दे। फेसबुक पर लिखने वाले मित्रों को एक सुझाव है कि वे अपनी लिखाई एक ब्लॉग बनाकर उसमें सुरक्षित रखते रहें।
पुराने ब्लॉगरों में एक उन्मुक्त जी ही मुझे ऐसे दिखे जिन्होंने सिर्फ ब्लॉग पर ही लिखना जारी रखा। बाकी कुछ लोग फेसबुक और ब्लॉग दोनों पर लिखते रहे।
मैंने चिट्ठाचर्चा का काम दुबारा शुरू किया है। यह अपने में बवालिया और समय खाऊ काम है। लेकिन इसे करने में मजा आता है इसलिए कर रहा हूँ। जब समय नहीं होगा, नहीं करूँगा। एक समय दिन में तीन-तीन बार चर्चा करते थे हम लोग। कभी पुराने पोस्ट देखते हैं तो उस समय का माहौल याद आता है। कई ब्लॉग्स अब बंद हो गए, कई का लिंक ही नहीं मिला। मैडमैन, जिन्होंने हिंदी को क्षेत्रीय भाषा बताया था ,की वह पोस्ट भी उड़ गई।
बहरहाल अब बात कुछ नई पोस्ट्स की। नई पोस्ट पर चर्चा करने के पहले बता दूँ कि मेरे कुछ कम पाँच हज़ार मित्र हैं। उनमें से कुछ ही मित्रों के पोस्ट्स के नोटिफिकेशन मेरे पास आते हैं। इसका कारण यह है जिन लोगों की पोस्ट्स हम नियमित देखते हैं उनके ही नोटिफ़िकेशन मेरे पास आते हैं। इसलिए अगर आपको किसी मित्र के नोटीफ़िशन नियमित पाने हैं तो उनके पोस्ट्स देखते रहें।
नेपाल में युवा पीढ़ी के विद्रोह के बाद तमाम पोस्ट्स आईं। सोशल मीडिया पर कई नेपाल विशेषज्ञ के रूप में पोस्ट लिख रहे हैं। इनमे पुष्प रंजन भी एक हैं। नेपाल से जुड़ी घटनाओं पर उन्होंने कई पोस्ट्स लिखी हैं। पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की के नेतृत्व में नई सरकार के गठन और तुरंत उनके शपथ ग्रहण को उन्होंने चट मगनी पट व्याह बताते हुए लिखा -
"सुशीला कार्की ने नेपाल की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनने का कीर्तिमान स्थापित किया था। एक ईमानदार, निष्पक्ष और साहसी न्यायाधीश के रूप में जानी जाने वाली सुशीला कार्की भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े फैसले लेने और न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए जानी जाती हैं।
निडर स्वभाव और सादा जीवन शैली अपनाने वाली कार्की न्यायिक क्षेत्र में एक स्थापित और स्वच्छ छवि वाली हस्ती हैं। उनके कार्यकाल के दौरान कई बड़े मामलों में ऐतिहासिक फैसले हुए। इनमें माँ के नाम पर नागरिकता प्राप्त करने का आदेश, बड़े राजनेताओं के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामलों में कड़े फैसले और 2017 में तत्कालीन नेपाली कांग्रेस सांसद मोहम्मद आफताब आलम को गिरफ्तार करने और जाँच का आदेश शामिल है।"
इस पोस्ट के घंटे भर बाद लिखी पोस्ट में पुष्परंजन ने लिखा -"सुशीला कार्की की शपथ में कोई पूर्व प्रधानमंत्री-पूर्व राष्ट्रपति, स्पीकर, नेता प्रतिपक्ष उपस्थित नहीं !"
इस पोस्ट के तीन घंटे बाद उन्होंने जानकारी दी -"नेपाल की पीएम सुशीला कार्की के पति ने प्लेन हाईजैक किया था।"
सुशीला कार्की के अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री के रूप में चयन का समर्थन करते हुए पुष्प रंजन ने लिखा -"उन्होंने तत्कालीन सूचना एवं संचार मंत्री जेपी गुप्ता को भ्रष्टाचार के एक मामले में जेल भेजने का भी फैसला किया था। रौतहट ज़िले के नेपाली कांग्रेस के एक दबंग मंत्री आफ़ताब पर जाँच और जेल भिजवाने के आदेश में कोताही नहीं बरती. ऐसे कदमों ने उन्हें एक निडर न्यायाधीश के रूप में स्थापित किया। वह विशेष रूप से भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में लगातार सक्रिय रहीं। कार्यकारी नेतृत्व संभालने के साथ, उन्हें न्याय प्रणाली में दिखाई गई ईमानदारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ साहस को बदलने और अपनी छाप छोड़ने का अवसर मिला। सुशीला कार्की इस ज़िम्मेदारी के लिए डिज़र्व करती हैं।"
नेपाल में अंतरिम सरकार के गठन के मौके पर Gen X के लीडर की नव निर्वाचित प्रधानमंत्री के सामने साष्टांग दण्डवत करती फोटो देखकर अमरेन्द्र शर्मा ने लिखा :
"जब तक व्यवस्था की जड़ों में बैठे जातिवाद, भ्रष्टाचार और कॉरपोरेट वर्चस्व को खत्म नहीं किया जाएगा,
बदलाव सिर्फ़ सत्ता के चेहरे बदलने तक सीमित रहेगा।
जनता को यह समझना होगा कि
तानाशाह चाहे पुराना हो या नया, उसकी ताकत जनता की चुप्पी से ही बढ़ती है।
नेपाल एक बार पुनः सत्ता में जातीय वर्चस्व, भेदभाव, शोषण और अत्याचार के दलदल ने फंसने जा रहा है..
Gen X का लीडर, सरकार के सामने शाष्टांग दंडवत रूप में.. इसके आगे कुछ कहने के लिए बचता है क्या?"
जाने क्यों नेपाल की संसद की इमारत जलाए जाने का मुझे बिल्कुल भी दुःख नही हुआ. इमारत भले ही लोकतंत्र का मंदिर कहलाई जाती हो मगर जिन मंदिरों से जनता का दमन होता हो, शोषण होता हो उन इमारतों की प्रतिष्ठा बनाए रखना, उनके प्रति श्रद्धा बनाए रखना, उनकी दुहाई देना उस दमन को बढ़ावा देना है. जनता की संपत्ति वे कहीं से भी नही है अगर जनता के लिये ही वहाँ से काम न होता हो.
कनुप्रिया की इस पोस्ट प्रतिक्रिया देते हुए प्रियंवदा ने लिखा :
इमारतें नहीं कहतीं कि हमारा इस्तेमाल कैसे हो। सोवियत रूस ने भी ऐसी इमारतों को म्यूज़ियम, सरकारी दफ़्तर और जाने क्या क्या बना दिया था। जनता के लिए काम नहीं होता सो जनता की नहीं है बहुत कमज़ोर दलील है। सब जनता का ही है, काम भले कहीं से न हो। इसीलिए छीनना, नष्ट करने से बेहतर है।
बीकानेर में ही कितने महलों के अवशेषों में आज स्कूल चल रहे हैं।
इमारतें थोड़ी तय कर रही हैं कि उन का इस्तेमाल कैसे हो।
जल गयीं वो एक कोलैटरल डैमेज या साज़िश जो भी है वो हो गया, अब रिवर्स नहीं किया जा सकता, यहाँ तक ठीक है।
"ऐसा करना चाहिए" जैसे स्टेटमेंट्स से उसे लेजिटिमेसी तो कम से कम नहीं मिलनी चाहिए, इस के परिणाम आम आदमी को भुगतने पड़ते हैं।"
इसका जवाब देते हुए कनुप्रिया ने लिखा :
"मुझे उस इमारत को लोकतंत्र का मंदिर कहे जाने पर आपत्ति है, और अगर वो दमनकी प्रतीक है तो मुझे कोई दुख नही, इमारतें फिर बन जाएँगी, सबक याद रखे जाएँ।"
आगे के सवाल-जवाब आप पोस्ट पर पहुँचकर पढ़ सकते हैं।
नेपाल में हुए आंदोलन में छात्रों की हिंसा के पीछे कारणों पर बातचीत करते हुये सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी विजयंत थापा ने मयूरजानी से बातचीत में कहा -"नेपाल के लोग बहुत अल्पसंतोषी होते हैं। बहुत कम में संतुष्ट हो जाते हैं। लेकिन उनके स्वाभिमान को कोई चोट पहुँचाता है तो उसे बर्दाश्त नहीं कर पाते। अगर नेपाल के राजनेता उनको बुलाकर बातचीत करते तो तो यह हिंसा रोकी जा सकती थी।"
इस बातचीत में नेपाली युवकों की भारत के प्रति नाराजगी के कुछ दृश्य और उनके कारण पर भी चर्चा है।
प्रियंका ओम अपनी नई पोस्ट में आलिंगन चिकित्सा के बारे में जानकारी देते हुए लिखती हैं :
"इन दिनों आलिंगन चिकित्सा तेजी से प्रचलित हो रही है, मेरे यहाँ छोटे से शहर ( Dar es Salaam, Tanzania में तीन केंद्र हैं।
शिफा का यह नुस्खा ग़ैर यौनिक एवं सैद्धांतिक हैं, इसमें प्रशिक्षित पेशेवर द्वारा हाथ पकड़ना, सहलाना, बालों में उँगलियाँ फिराना, गले लगाना जैसा शारीरिक स्नेह दिया जाता है। दरअसल चिकित्सा की यह प्रणाली मनोविज्ञान से जुड़ी है, इस पद्धति में मन की गांठें, गिरहे खुलती हैं, जिससे व्यक्ति हल्का महसूस करता है जैसे सिर से कोई भारी बोझ उतर गया हो, इसका उद्देश्य मनोदशा को बेहतर बनाना और जुड़ाव की भावना को उकसाना है। मानसिक स्वास्थ्य लाभ की इस युक्ति में उपयुक्त वातावरण महत्वपूर्ण कारक माना गया है!"
आलिंगन चिकित्सा की जरूरत के बारे में प्रियंका ओम लिखती हैं :
"व्यस्त महानगरीय भागमभाग भरी ज़िंदगी में हम बेसिक ह्यूमन टच लगभग भूल गए हैं, ह्यूमैनिटी अब दिवा स्वप्न हैं ऐसे में कडल थेरेपी / आलिंगन चिकित्सा का तेजी से फलना - फूलना कोई आश्चर्य नहीं। अधिकतर मुहताज एकाकी हैं या फिर पोस्ट ट्रॉमेटिक विकार से संतप्त। बहुत से पक्षकार वे भी हैं जिनके पास वैसे तो सबकुछ हैं लेकिन प्रेम से चुका जीवन है। ऐसा नहीं कि रीति में यौन आग्रह नहीं होता किंतु पेशेवर इस आग्रह को बढ़ावा नहीं देते, दरअसल कडलिंग थेरेपी सुकूँ हैं जैसे ठहरा हुआ कोई लम्हा।"
इस आलिंगन चिकित्सा की कीमत भी जान लीजिए -" भारत में यह चिकित्सा पद्धति स्वीकृत हैं या नहीं मैं नहीं जानती, परंतु हमारे यहाँ एक घंटे की क़ीमत 200usd (16655 रुपए) है।"
आलिंगन थेरेपी की तरह ही जापान में वृद्ध जन अकेलेपन से निजात पाने के लिए "श्रोता "किराये पर लेते हैं। कौशल शर्मा जी ने शशि इंदुलिया जी की पोस्ट साझा की। पोस्ट के अनुसार :
"जापान में इस ओन लाइन सेवा का प्रारंभ "टाका नोबू निशिमोटो " ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर किया है.मिस्टर "टाका नोबू निशिमोटो "की उम्र लगभग पचास वर्ष की है और वे फैशन कोओरडीनेटर रह चुके हैं.उनके साथ कार्यरत सभी साथियों की भी उम्र ४५ से ५० वर्ष के बीच है, इन्हें ओसान (ossan) कहा जाता है. ये सभी कार्यकर्त्ता लगभग १०००येन( लगभग ६००रुप्ये ) प्रति घंटे के हिसाब से उपलब्ध हैं।
ओसान संस्था के सभी सदस्य समझदार और पढ़े लिखे होते हैं. इनका काम है उन बुजुर्गों की व्यथा सुनना जो अपनी व्यथा किसी से(अपनों से ) नहीं कह पाते.मिस्टर निशिमोटो अकेले ही प्रति माह लगभग ३० -४० व्यक्तियों को सुनते हैं.क्या इस बात पर सहज विश्वास किया जा सकता है कि सुनने वालों में ७० प्रतिशत महिलायें होती हैं. वास्तविकता यह है कि लोग इन ओसान को सिर्फ इसलिए लेते हैं क्योंकि उनके मन की व्यथा/दुःख /दर्द वे किससे कहें? .कोई सुनने वाला ही नहीं है।"
कुछ दिनों पहले अख़बार में छपी एक ख़बर के अनुसार जापान के टोक्यो शहर में मौजूद जेलों में इन दिनों बुजुर्ग अपराधियों की तादाद बढ़ती जा रही है। अपनी ग़रीबी और अकेलापन दूर करने के लिए छोटे अपराध में जेल जाना पसंद कर रहे हैं।
लेकिन ऐसा नहीं कि जापान के सारे बुजुर्ग दुखी ही रहते हों। अमित चतुर्वेदी ने एक जापानी बुजुर्ग और एक अमेरिकन युवा के वार्तालाप का वीडियो लगाते हुए लिखा :
"एक 92 वर्ष के जापानी नागरिक से एक अमेरिकी युवा पत्रकार ने बात की और उससे पूछा कि जापान के लोग अमेरिका के बारे में क्या सोचते हैं? इसके जवाब में इस जापानी व्यक्ति ने कहा, अमेरिकन यहाँ नहीं आना चाहते क्यूंकि वो गिल्ट फील करते हैं। गौरतलब है कि मानव इतिहास में केवल एक परमाणु हमला किसी ने किसी पर किया है और वो अमेरिका ने जापान पर किया था। इसके बाद इस जापानी वृद्ध ने ये भी कहा कि उसके माता पिता ने कभी अमेरिका को अकेले ज़िम्मेदार नहीं ठहराया, जापान की भी बराबर की गलती थी, तभी परमाणु हमला हुआ। इस जापानी ने ये भी बताया कि उसकी माँ ने उसे इंग्लिश स्कूल में दाखिला दिलाया और उसके इंग्लिश न सीख पाने की बात को उसकी माँ ने उसकी हार बताया तब जाकर इस व्यक्ति ने इंग्लिश सीखी।
92 वर्ष का इतना खुशमिज़ाज व्यक्ति जिसने अपनी आँखों के सामने दुनिया की सबसे ख़तरनाक युद्ध विभीषिका देखी है वो न नफ़रत से भरा हुआ है और न ही गुस्से से, वो इतनी उम्र में भी खुशमिज़ाजी क़ायम रख पाया क्यूंकि उसके दिमाग़ में नफ़रत नहीं भरी गई। उनके देश ने उस घटना से सबक लिया और वो आगे बढ़े, लेकिन आगे बढ़ते समय उस घटना को दिल दिमाग़ में भरकर नहीं पीछे छोड़कर आगे बढ़े इसीलिए आज वो जापान है, और आज नहीं पिछले साठ सत्तर सालों से ऑटोमोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक के सबसे बड़े निर्यातक और दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था…"
अमित की पोस्ट पर पहुँचकर वीडियो देखिए। बुजुर्ग की हँसी देखकर अच्छा लगेगा।
जापान की बात चली तो पिछले दिनों पढ़े अनूप सेठी जी की जापान यात्रा के संस्मरण याद आ गए। अनूप सेठी 2 से 14 मार्च, 2025 के बीच परिवार और मित्रों के साथ जापान में थे। अपने जापान प्रवास के संस्मरण उन्होंने 'अरिगातो गोजाइमस' शीर्षक से लिखे हैं। 'अरिगातो गोजाइमस' (जापानी भाषा में धन्यवाद कहने का एक विनम्र तरीका) शीर्षक से समालोचन पत्रिका में प्रकाशित लेख यहाँ पहुचकर पढ़ सकते हैं।
समय के साथ किसी भाषा के शब्दों के अर्थ में कैसे बदलाव आता है इस पर चर्चा करते हुए प्रियंका परमार ने एक पोस्ट में लिखा था :
"भाषा के विषय में हम यह जानते हैं कि समय के साथ इसमें परिवर्तन आता है। ऐसा होने को कोई विकास मानता है, कोई विकार मानता है तो कोई तटस्थ दृष्टि रखते हुए परिवर्तन को परिवर्तन की तरह देखता है। परिवर्तन भाषा की संरचना के हर स्तर पर आता है, जैसे ध्वनि के स्तर पर, वाक्य-गठन के स्तर पर और अर्थ के स्तर पर। अर्थ में परिवर्तन की तीन रोचक दिशाएँ होती हैं जिन्हें 'अर्थ-विस्तार', 'अर्थ- संकोच' और 'अर्थादेश' कहा जाता है।"
समय के साथ शब्दों के बदलते अर्थ का उदाहरण देते हुए प्रियंका परमार ने लिखा :
"अर्थादेश की दो प्रवृत्तियाँ होती हैं- अर्थोत्कर्ष और अर्थापकर्ष। 'साहस' शब्द के अर्थ में हुआ परिवर्तन अर्थोत्कर्ष का उदाहरण है क्योंकि पहले बुरे कामों को करने का बूता साहस कहलाता था, बाद में साहस अच्छे अर्थ का वाचक हो गया। 'भद्र' एक अच्छे अर्थ वाला शब्द है लेकिन उसी से विकसित 'भद्दा' इस शब्द के अर्थ के अपकर्ष का उदाहरण है।
अर्थादेश का एक ताजा (इधर सौ-पचास वर्षों में) उदाहरण 'आलोचक' शब्द के अर्थ में देखा जा सकता है। आरंभ में माना जाता था कि आलोचक सूक्ष्म और उदार तथा संतुलित दृष्टि वाला विशेषज्ञ व्यक्ति होता है। लेकिन बहुत समय तक इसका प्रचलित अर्थ कटु शब्दों में निंदा करनेवाला माना जाता रहा है। लेकिन अब 'आलोचक' की पदवी उन अज्ञों को तुरंत मिलती है जो चिकनी-चुपड़ी भाषा में खूब प्रसंशा कर सकते हैं।"
इस पोस्ट को पढ़ते हुए मुझे आज के समय में हुए अनेक अर्थोत्कर्ष और अर्थापकर्ष याद आए। आपको भी शायद याद आयें।
इतना कुछ पढ़ते हुए आप ज़रूर थक गए होंगे। अगर ऐसा है तो आइये आपको विनीत कुमार की रहम वाली चाय पिलाते हैं। इस चाय की तारीफ़ ख़ुद विनीत से सुन लीजिये :
"मैं अपने स्वभाव से कोमल हृदय का व्यक्ति हूं. मेरे लिए केई कुछ थोड़ा सा भी कर देता है तो पिघल जाता हूं. अब ऐसा हो नहीं सकता कि कोई मेरी लिए प्रॉपर ब्रैकफास्ट तैयार कर दे और मैं उसके बाद चाय तक न बनाऊं !
तो नाश्ता कर लेने के बाद मैंने बनायी Jasmine White Tea. बहुत कम के लिए ये चाय बना पाता हूं. अपनी तो पत्ती स्टारबक्स कॉफी जैसी रक़म कट जाती है और अगला का कहना होता है- जो बात अदरक-दूध की कड़कवाली चाय में होती है, वो बात ये फूल-पत्ती का पानी में उबालकर बनानेवाली चाय में नहीं होती."
ब्रैकफास्ट करने के बाद बनानेवाले के भर-भरकर दुआएं दी और रहम कर दी कि अब रूको ! चाय मैं बनाए देता हूं
फ़िलहाल इतना ही। बाकी फिर कभी।
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