नेता भागने लगता है. भागता है अपने कर्तव्यों से. अपनों से. वोटर से. देश से. जनता के हिस्से में भी भाग ही बचता है. जनता अपने भाग को 'रोटी' है. अब देखिये न, टाइप करना चाहता था रोती लेकिन ट्रांसलिटरेट ने जिस शब्द की उत्पत्ति की वह है रोटी. बड़ा अंतर है रोती और रोटी में लेकिन यह बात ट्रांसलिटरेट जी को नहीं न बुझायेगा.
खैर, चलिए चर्चा शुरू करते हैं. बात हो रही थी चुनावों की. चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण किरदार है नेता. उसके बाद जनता. इन दोनों से जितनी किरदारी बचती है वो मीडिया अपने कब्जे में ले लेता है और जेब के हवाले कर देता है. हवाला की बात पर......
खैर जाने दीजिये. हरि अनंत हरी कथा अनंता, इनसे बढ़िया संता-बंता.
हाँ तो मीडिया जब नेता और जनता से बची किरदारी की खुरचन को अपने जेब के हवाले करता है तब नए-नए बिम्ब सामने आते हैं. आज संगीता जी ने पत्र-पत्रिकाओं के हवाले से बताया कि नेता अन्धविश्वासी होते जा रहे हैं. नेताओं का अन्धविश्वास किन-किन बातों को लेकर है?
पता नहीं. लेकिन मुझे तो यही लगता है कि नेताओं का अन्धविश्वास वोटर की वजह से है. वोटर के अंधेपन पर बहुत विश्वास है नेता जी को. वे इतने विश्वास से भरे रहते हैं कि कुछ भी बोल सकते हैं. कर सकते हैं. प्लान बना सकते हैं. क्यों? क्योंकि उन्हें वोटर के अंधेपण पर विश्वास है. शायद इसी को नेता का अंधविश्वास माना जाता है.खैर, आते हैं संगीता जी के लेख पर. वे लिखती हैं;
"पत्र पत्रिकाओं में पढ़ने को मिला कि भारत के अधिकांश नेता अन्धविश्वासी होते जा रहे हैं, जिन्हें देखकर वैज्ञानिकों को बहुत चिंता हो रही है. वैज्ञानिकों के अनुसार वे समाज को जो सन्देश दे रहे हैं, उससे समाज के अन्य लोगों के भी अन्धविश्वासी हो जाने की संभावना है."
अगर वैज्ञानिक जी नेता को देखकर चिंतित हो लें तो हमें समझ लेना चाहिए कि ऐसी चिंता व्यक्त करते समय वे विद्वत्ता के ऐशगाह की सैर कर रहे होंगे. मैं पूछता हूँ, जनता को देखकर चिंतित क्यों नहीं होते ये वैज्ञानिक? जनता का अन्धविश्वास जनता को कहाँ लिए जा रहा है? ऊपर से तुर्रा यह कि नेता के अन्धविश्वास को देखकर जनता अन्धविश्वासी हो जायेगी.
प्रभो, आप जब कल्पना-परिकल्पना वगैरह में डूबते-उतराते हैं, तो उस समय क्या मंगलग्रह की यात्रा पर निकल जाते हैं? कौन से नेता से जनता प्रभावित हो रही है आजकल? जब भी प्रभावित होती है, गाली फेंक कर मारती है. गाली की मार खाकर नेता का एपीडर्मिश और मोटा हो जाता है. उसका उत्साह दोगुना हो जाता है.
वैज्ञानिकों की यह बात जब संगीता जी ने पढीं तो उन्हें अचम्भा हुआ. वे आगे लिखती हैं;
"मैंने पढ़ा तो अचम्भा हुआ, नेता और अन्धविश्वासी? अरे अन्धविश्वास तो गरीबों, निरीहों और असहायों का विश्वास है जो उन्हें जीने की शक्ति देता है.......इनकी तुलना नेताओं से की जा सकती है?"
कैसे की जा सकती है. कहाँ नेता और गरीब?
आप संगीता जी का यह लेख पढिये और जानिए कि गरीब, निरीह टाइप के लोग नेता क्यों नहीं बन पाते? क्योंकि वे असली अन्धविश्वासी हैं न. नेता तो नकली अन्धविश्वासी है.
चुनाव जनप्रतिनिधियों से क्या-क्या करवाता है? काम-वाम की बात जाने दीजिये, जो सबसे पहला काम करवाता है वह है आचार संहिता का उल्लंघन. कानून का उल्लंघन.
असल में देखा जाय तो कई उल्लंघन का मिश्रण ही लोकतंत्र की सृष्टि करता है. आज फुरसतिया जी ने जनप्रतिनिधियों की व्यथा-कथा पर प्रकाश डाला है. वे लिखते हैं;
"जनप्रतिनिधि बेचारा कुछ भी करता है करने के बाद पता चलता है यह काम तो आचार संहिता के खिलाफ़ था। पैसा बांटो तो आफ़त, गाली दो तो आफ़त, धमकाओ तो आफ़त, दूसरे धर्म की निन्दा करो तो आफ़त, गुंडे लगाओ तो आफ़त, बूथ कैप्चर करो तो आफ़त, राहत कार्य करो तो आफ़त। मतलब चुनाव जीतना का कॊई काम करो तो आफ़त। जनप्रतिनिधि को खुल के खेलने ही नहीं दिया जाता। कैसे लड़े वो चुनाव!"
सही बात है. केवल चुनाव के समय जनप्रतिनिधि खुलकर नहीं खेल पाता. एक बार चुनाव ख़तम तो ऐसे खुलकर खेलता है जैसे सेंचुरी मारने बाद सचिन खुल जाते हैं. और चार साल पूरा होने पर तो क्रॉस बैट स्ट्रोक मारता है. डील-वील पास करवाता है. फिर बंद होकर खेलते हुए चुनाव लड़ता है.
फुरसतिया जी आगे लिखते हैं;
"चुनाव आयोग और जनप्रतिनिधि के बीच वैचारिक मतभेद भी एक लफ़ड़ा है। चुनाव योग मानता है कि जो जनप्रतिनिधि चुनाव जीते बिना गड़बड़ तरीक अपनाता है वो चुनाव जीतने के बाद क्या करेगा? और गड़बड़। वहीं जनप्रतिनिधि मानता है कि जनता समझती होगी कि जो जनप्रतिनिधि चुनाव के पहले हमारे लिये पैसा खर्चा नहीं कर सकता वो बाद में क्या करेगा? "
सबको अपनी-अपनी तरह से सोचने का अधिकार है. यही असली लोकतंत्र की नींव है. चुनाव, संसद, मंत्री, प्रधानमंत्री वगैरह तो दीवार टाइप होते हैं.
आचार संहिता के उल्लंघन को लेकर चुनाव आयोग द्बारा दी गई नोटिस का जवाब जनप्रतिनिधि अलग-अलग बहाने बनाकर दे सकता है. जैसे;
"हम अपने वोटरों को शिक्षित कर रहे थे। उनके वोट की कीमत समझा रहे थे। वो मान ही नहीं रहे थ कि उनके वोट की कोई कीमत भी होती है। फ़िर हमने बताया कि वोट की ये कीमत ये होती है। ये तो बयाना है। बाकी बाद में मिलेगा। तो साहब हम तो जनता को जागरूक कर रहे थे। उनको उनके अधिकार के महत्व के बारे में बता रहे थे।"
और भी बहाने बताये हैं फुरसतिया जी ने. सारे बहाने तो आप उन्ही के ब्लॉग पर जाकर पढिये. वे तो और बहाने बताने के लिए तैयार थे लेकिन आफिस टाइम ने बीच में भाजी मार दी. वैसे आशा है कि उनकी पोस्ट पढ़कर कई राजनीतिक पार्टियाँ उन्हें और बहाने लिखने के लिए अप्लिकेशन भेज सकती हैं. ऐसे में लोकतंत्र को मजबूती मिलने के पूरे आसार हैं.
आचार संहिता का उल्लंघन अकेला नेता करे तो वह खबर होती है. लेकिन अगर पूरी सरकार ही अचार संहिता का उल्लंघन करे तो? तो उसे अचार संहिता का उल्लंघन नहीं बल्कि अधिसूचना कहते हैं.
अनिल रघुराज जी ने आज लिखा है;
"पांच एकड़ से ज्यादा जोत वाले इन किसानों को बकाया कर्ज की पहली किश्त 30
सितंबर 2008 तक, दूसरी किश्त 31 मार्च 2009 तक और तीसरी किश्त 30 जून 2009 तक
चुकानी है। लेकिन रिजर्व बैंक ने दूसरी किश्त की अंतिम तिथि से आठ दिन पहले सोमवार को अधिसूचना जारी कर पहली किश्त को भी अदा करने की तिथि बढ़ाकर 31 मार्च 2009 कर दी है। दिलचस्प बात यह है कि रिजर्व बैंक के मुताबिक तिथि को आगे बढ़ाने का फैसला भारत सरकार का है। जाहिर है, इससे सीधे-सीधे देश के उन सारे बड़े किसानों को फायदा मिलेगा, जिन्होंने अभी तक पहली किश्त नहीं जमा की है।"
यह तो अच्छी बात है न. केंद्र सरकार किसानों को फायदा पहुंचाना चाहती है. ऐसे में अचार संहिता का उल्लंघन हो जाए तो कोई खराबी नहीं है. अकेला नेता कितने दिनों तक उल्लंघन करता फिरेगा. थक जायेगा बेचारा. उसकी थकान की भरपाई सामूहिक उल्लंघन करके की जा सके तो अच्छा रहेगा. केंद्र सरकार वही कर रही है.
अनिल जी की इस पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए पाबला जी ने लिखा;
"कमाल है."
उनकी टिप्पणी पढ़कर लगा जैसे कोई जादूगर कुछ अद्भुत सा जादू दिखा देता है तो हमसब कह उठते हैं, "कमाल है!", वैसे ही केंद्र सरकार जादू दिखा रही है और पाबला जी आश्चर्य के साथ कह रहे हैं, "कमाल है."
जहाँ पाबला जी को यह अधिसूचना कमाल की लगी, वहीँ संगीता पूरी जी को इससे आश्चर्य हुआ. उन्होंने अपनी टिप्पणी में लिखा;
"आश्चर्य है ..."
इस तरह की बातें अगर हमारे अन्दर अभी भी आश्चर्य पैदा करती हैं तो हम यही कहेंगे कि अभी बहुत आश्चर्य करना बाकी है. भविष्य में हम ऐसे ही आश्चर्यचकित होते रहेंगे.
जहाँ सब तरफ चुनाव, नेता, अचार संहिता वगैरह की बातें हो रही हैं, वहीँ धीरू सिंह जी कहते हैं;
"कश्मीर में हो रहे शहीद सैनिकों को भी तो याद कर लो मेरे साथियों."
धीरू सिंह यह आह्वान करते हुए लिखते हैं;
"मुंबई का हमला तो हम को हिला देता है लेकिन कश्मीर पर अघोषित युद्ध हमें आंदोलित
नही कर रहा है न जाने क्यों ? कितने जावांज सैनिक शहीदहो गए उनके बारे मे कोई मोमबत्ती नही जल रही ।"
सैनिक तो सैनिक होता है. सैनिक ब्राह्मण, क्षत्रिय, दलित, सूचित, अधिसूचित.....नहीं होता. सैनिक वोटबैंक भी नहीं होता. ऐसे में सैनिक महत्वपूर्ण है या वोट?
ताल, तालाब वगैरह का सूख जाना बड़ा कष्टदायक होता है. भोपाल के बड़े ताल को ही ले लीजिये. बड़ा ताल सूख रहा है. धीरे-धीरे मैदान में परिवर्तित होने की कगार पर है. ऊपर से सूरज इतना निर्दयी कि तपिश बढ़कार उसे मैदान में तब्दील कर देना चाहता है.
प्रशासन ने इसे गहरा करने के कदम उठाये. प्रशासन का यह कदम कहाँ-कहाँ पड़ा उसके बारे में बताते हुए आज सरीता जी कथाकार युगेश शर्मा की एक लघुकथा प्रस्तुत की है. कथा का अंश पढिये. वे लिखते हैं;
"वातानुकूलित कार से नीचे पैर ना रखने वाले दर्ज़न भर आभिजात्य जन तालाब के हरीकरण के लिये जमा थे । औरों की तरह वे भी विशिष्ट अतिथि का इंतज़ार कर रहे थे । सुबह की ताज़गी भरी ठंडी हवाएँ भी इन लोगों को पसीने से निजात दिलाने में नाकाम थीं । नर्म आयातित तौलिये माथे से चू रहा पसीना नहीं सोख पा रहे थे । अतिथि आगमन में हो रही देरी ने उनकी बेचैनी को बदहवासी में बदल दिया।"
आप यह कथा ज़रूर पढिये. पता चलेगा कि सभ्यता के अवसान में केवल प्रशासन की भूमिका नहीं है. और भी बहुत से लोग अपनी भागीदारी करते हैं.
अब गुरुदेव फुरसतिया जी के आशीर्वाद से कुछ एक लाइना...
०१. सामने उनके जुबाँ ये, कुछ भी कह पाती नहीं : गर नहीं वे सामने तो चुप भी रह पाती नहीं.
०२. कसम को तोड़ देता मैं : लेकिन शरीर कमज़ोर टाइप लग रहा है आज.
०३. चुनाव आचार संहिता क्या है : यह जानने के लिए कमीशन की रिपोर्ट आने तक इंतज़ार करें.
०४. दवा पी ली थी क्या? : क्या करता, प्यास बहुत जोर की लगी थी.
०५. कल्याण को लेकर अमर सिंह को कवच की तलाश : एसटीऍफ़ को तलाशी के लिए लगाया गया.
०६. ग्रामीण भारत के उत्थान का मन्त्र : फूंक डालो.
०७. सूखी अमराईयों में : कोयल प्यासी है.
०८. इश्क और कॉफी : दोनों घुल गए.
०९. जनप्रतिनिधि और आचार संहिता : एक-दूसरे को खोज रहे हैं.
१०. सस्ती सब्जी की तलाश में सुपरमैन : अन्टार्कटिका पहुंचा.
११. पानी नहीं तो वोट नहीं : रहीम त कहे रहे कि कि पानी नहीं तो इज्ज़त नहीं.
१२. आज की कारस्तानियाँ : एक दो नहीं...पूरे नौ दो ग्यारह.
१३. सारे कैमरे जा रहे हैं दूसरे युद्धों की तरफ : एक भी होता तो गृहयुद्ध की फोटो खींच लेता.
१४. शुक्र है : शनीचर कल आएगा.
१५. उनसे मिलने से पहले : अपने हाथ धो ले विजय.
१६. एक अन्तरिक्ष यात्री का चिट्ठा : एक वैज्ञानिक के पास से बरामद.
१७. मंजिल की विसात ही क्या : जब चाहेंगे ढहा देंगे.
१८. पहेली - बताईये आज कौन सा दिवस है : चिट्ठादिवस.
१९. खुशबुओं का डेरा है : तुम भी आकर यहीं टिक जाओ.
२०. हम गायत्री माँ के बेटे तुम्हें जगाने आये हैं : कितनी देर और सोओगे?
आज के लिए बस इतना ही.
नेता माने वोट
जवाब देंहटाएंवोटर माने नोट
चुनाव ... ? बस
नज़रों का खोट.
आज की पसंद: 'हरि अनंत हरी कथा अनंता, इनसे बढ़िया संता-बंता'.
जवाब देंहटाएंचर्चा अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंचुनावों का रंग चढ़ रहा है,बुखार भी।
हरि अनंत हरी कथा अनंता, इनसे बढ़िया संता-बंता.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब चर्चा
चुनाव की नाव में
जवाब देंहटाएंसारे तनाव सवार
होते ही चुनाव
नाव से सब बाहर।
'ऐसे में अचार संहिता का उल्लंघन हो जाए तो कोई खराबी नहीं है.' इस बात से पूर्ण असहमति दर्ज कराना चाहती हूँ। आचार संहिता के उल्लंघन तो होते रहते हैं और उसके परिणाम भुगतने की देश को आदत हो गई है। परन्तु अचार संहिता का उल्लंघन हुआ नहीं कि अचार में फफूँदी लग जाती है। ऐसा अचार किसी काम का नहीं रह जाता।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया व रोचक चिट्ठा चर्चा रही। आभार।
घुघूती बासूती
आपकी चठ्ठा चर्चा हमेशा की तरह बहुत अच्छी और लम्बी थी... जितनी देर में हम पांच छे पोस्ट पढ़ कर कमेन्ट करते हैं उतनी देर में आपकी एक चिठ्ठा चर्चा पढ़ पाते हैं....अगर चिठ्ठा चर्चा संक्षिप्त रखी जाये हम उस चिठ्ठे को भी पढ़ लें जिस की आप चर्चा कर रहे हैं....आगे से अगर आप ये चाहते हैं की हम आपकी चर्चा पढें तो आपको प्रति पंक्ति पांच रुपये के हिसाब से हमें देना होगा...कंमेंट के पचास रुपये अलग से देने होंगे...ये रेट रिशेशन की वजह से कम किये गए हैं...आप इसे ब्लोगिंग के ज़रिये कमाई का एक तरीका भी समझ सकते हैं.
जवाब देंहटाएंनीरज
राजनीतिक सरगर्मी को नजर में रखते हुए बहुत अच्छी चिट्ठा चर्चा हुई ... संयोग ही है कि इसमें मेरा चिट्ठा भी सम्मिलित हो गया ... धन्यवाद।
जवाब देंहटाएं*"जनप्रतिनिधि को खुल के खेलने ही नहीं दिया जाता। कैसे लड़े वो.."
जवाब देंहटाएंसही है! नेता और डाकू को तो लेवल-प्लेइंग ग्राऊंड मिलना चाहिए ना:)
is post se bhi lambi tippani kar deta main.. लेकिन शरीर कमज़ोर टाइप लग रहा है आज.. :)
जवाब देंहटाएंओह, आज विटामिन की गोली खाना भूल गया। सच में यह लग रहा है कुछ कमजोर टाइप है शरीर।
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह अच्छी चर्चा। एकलाइना तो मिजाज बना दे रही है।
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंभाई इन भाईयों ने बड़ा दुखी कर रखा है शिवभाई,
किसी करवट चैन नहीं..
अनूप भाई सुबह ख़राब कर देते हैं,
शिवभाई पूरी की पूरी शाम लपक लेते हैं..
क्लिनिक से थक कर लौटा हूँ,
मार्च की मज़बूरी है.. चाहे जो भी कमज़ोरी हो
क्योंकि पापी इनकमटैक्स डिपार्ट का सवाल है.. ..
अउर ईहाँ आप बीसठो लिंक लिये खड़े हो.. न पकड़ूँ तो जाऊँ कहाँ..
कोई दूसरा ठौर भी तो नहीं.. श्री संता-बंता जी उधर हरि के साथ समीकरण बना लिये !
बहुत बढिया चर्चा. हमको कमजोरी नही बल्कि जोश आगया है.:)
जवाब देंहटाएंरामराम.
उधर कस्बा में रवीश कुमार जी माया मेंमसाहब की आरती उतार रहे थे। आपकी नजर नहीं पड़ी क्या? नेता लोग भी अपना आदमी हर जगह फिट किए बैठे हैं। एक नजर इधर मारिए तो पता चलेगा।
जवाब देंहटाएंअभिओ देख सकते हैं।
कमजोरी थोड़ा दूर हुई तो सोचा फिर से होने से पहले टिप्पिया दें,
जवाब देंहटाएंकमाल है! आश्चर्य है! -पाबलाजी और संगीताजी के सौजन्य से!
जवाब देंहटाएंएक लाइना लिखने के लिये कौन फ़ुरसतिया गुरु आपको आशीर्वाद देने का कोशिश किये? आप तो खुदै गुरूओं के गुरू हैं। एकलाइना अखाड़े के महन्त!
bahut achchi charcha . badhai.
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह अच्छी चर्चा।
जवाब देंहटाएंRegards