अपने संपर्क में आने वाले हर शख़्स को यह समझाने की ज़रूरत है कि एक बोतल, एक कम्बल, एक सौ रुपये के लिए अगर आज तुमने अपने पास का खड़ाऊं बर्बाद कर दिया, झूठे असंभव किस्म के प्रलोभनों में अगर आज तुम फंस गए, तो उम्र भर तुम्हें इसकी क़ीमत चुकानी पड़ेगी. जाति-धर्म-क्षेत्र-भाषा के जाल में फंसने जैसा महापाप अगर आज तुमने किया तो इसका प्रायश्चित तुम्हारी कई पीढ़ियों को करना पड़ेगा. इसलिए सिर्फ़ इस पाप से बचो. निकालो अपना-अपना खड़ाऊं और दे मारो उन माननीयों के मुंह पर जो आज तक तुम्हें भांति-भांति की निरर्थक बातों से बहकाते रहे हैं.
हिमांशु आजकल टिप्पणी चिंतन में लगे हैं। उन्होंने लिखा
टिप्पणीकारी का महत्व इस बात में निहित है कि वह प्रविष्टि के मूलभूत सौन्दर्य को अक्षुण्ण बनाये रखते हुए उस प्रविष्टि के रिक्त स्थान को भरे और श्रृंखला को अविरल बनाये रखे ।
अनिल ने आदर्श टिप्पणीकार संहिता पेश कर दी कि टिप्पणी कैसे करें! मौका का फ़ायदा उठाते हुये ज्ञानजी ने अपनी एक पुरानी पोस्ट का लिंक ठेल दिया जिसमें उन्होंने स्थापना दी थी-देश में प्रजातंत्र है। हिन्दी ब्लॉगिंग में टिपेरतंत्र!
जनहित में बता दें कि हमारी जानकारी में ब्लागजगत में पहला टिप्पणीचिंतन जीतेन्द्र चौधरी ने किया था। टिप्पणी के बारे में अलग-अलग लोगों के अलग-अलग विचार होंगे। मेरा अपना मानना है कि आपके ब्लाग पर टिप्पणियां आपके लेखन, आपकी नेटवर्किंग ,आपके व्यवहार और अन्य तमाम बातों पर निर्भर करती हैं। मेरा मानना है कि:
टिप्पणी को अपने प्रति प्रेम का पैमाना न बनायें। बहुत लोग हैं जो आपसे बहुत खुश होंगे लेकिन आपके ब्लाग पर टिपियाते नहीं। टिप्पणी तो क्षणिक है जी। प्रेम शाश्वत है। आराम से प्रकट होगा। टिप्पणी किसी पोस्ट पर आयें या न आयें लिखते रहें। टिप्पणी से किसी की नाराजगी /खुशी न तौले। मित्रों के कमेंट न करने को उनकी नाराजगी से जोड़ना अच्छी बात नहीं है। मित्रों के साथ और तमाम तरह के अन्याय करने के लिये होते हैं। फ़िर यह नया अन्याय किस अर्थ अहो?
वैसे रविलामी ने टिप्पणी पाने का फ़ंडा बताया है- स्मार्ट दिखो, अच्छे और ढेर टिप्पणी पाओ
जगदीश भाटिया हमेशा की तरह पोस्ट लिखने में अब भी लेटलतीफ़ हैं। बताइये वे लोकसभा चुनाव" के प्रत्याशी के लिए आदर्श आवेदन पत्र अब पेश कर रहे हैं जबकि तमाम जगह वोट पड़ गये। लेकिन आप देख लीजिये न वे इस आवेदन पत्र में क्या-क्या सूचनायें मांग रहे हैं। कुछेक तो यहीं देख लें:
राजनैतिक पार्टी: ____________ _________
* आप अभी तक जिन दलों में शामिल थे उनमें से केवल पिछले पांच दलों का नाम देंपिछली पार्टी छोड़ने के कारण (एक या अधिक को सर्कल करें ) :
A-भीतरघात
B- निष्कासित
C-खरीद लिये गये
D ऊपर से कोई नहीं
E सभीचुनाव लड़ने के लिए कारण (एक या अधिक को सर्कल करें ) :
A-पैसा बनाने के लिए
B- अदालत के मुकदमे से बचने के लिए
C- सत्ता का घोर दुरुपयोग करने के लिए
D-जनता की सेवा करने के लिए
E-मैं नहीं जानता
(यदि आपका उत्तर D है तो अपनी विवेकशीलता के लिये एक मान्यता प्राप्त सरकारी मनोचिकित्सक से प्रमाणपत्र संलग्न करें)
द्विवेदीजी जनतन्तर कथा पेश किये जा रहे हैं। लोग पढ़े जा रहे हैं।
अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का प्रयोग करते हुये कल ज्ञानजी ने खुदै आत्मप्रचार कर डाला और बताया- आज से उनतीस साल पहले यह पारम्परिक जोरा-जामा-मुकुट पहन कर रीता के साथ मैं विवाह सूत्र में बंधा।
ज्ञानजी ने एक और खुलासा किया उस समय के हिसाब से भी मैं बड़ा कंजरवेटिव था। अन्यथा इस जोकरई पोशाक को उस समय भी स्वीकार नहीं करते थे युवा लड़के!
यहां ज्ञानजी से हमारा मतभेद है। दूल्हा और जोकरई आज भी एक दूसरे के पर्याय हैं। आधुनिक दूल्हे की एक झलक देख ली जाये जरा फ़िर से
जब मैं किसी दूल्हे को देखता हूं तो लगता है कि आठ-दस शताब्दियां सिमटकर समा गयीं हों दूल्हे में।दिग्विजय के लिये निकले बारहवीं सदी के किसी योद्धा की तरह घोड़े पर सवार। कमर में तलवार। किसी मुगलिया राजकुमार की तरह मस्तक पर सुशोभित ताज (मौर)। आंखों के आगे बुरकेनुमा फूलों की लड़ी-जिससे यह पता लगाना मुश्किल कि घोड़े पर सवार शख्स रजिया सुल्तान हैं या वीर शिवाजी । पैरों में बिच्छू के डंकनुमा नुकीलापन लिये राजपूती जूते। इक्कीसवीं सदी के डिजाइनर सूट के कपड़े की बनी वाजिदअलीशाह नुमा पोशाक। गोद में कंगारूनुमा बच्चा (सहबोला) दबाये दूल्हे की छवि देखकर लगता है कि कोई सजीव बांगड़ू कोलाज चला आ रहा है।
कबाड़खाना में आज गिरगिट के विविधरूप देखिये। ब्लाग लेखक को गिरगिटजी कवी टाइप के जीव दिखे। प्रमाणार्थ कवितायें भी हैं फ़ोटो के साथ।
प्रतिभाजी का विश्वास है
घटनाएं अब हादसों में तब्दील हो चुकी हैं,
यातनाएं आदत में ही गई हैं शुमार।
दरख्तों पर चिडिय़ा नहीं
भय बैठता है इन दिनों।
खत्म हो रहा है सब कुछ
धीरे-धीरे और
ऐसे में हम लिख रहे हैं कविताएं
क्योंकि इस नष्ट होती धरती को
कविता ही बचायेगी एक दिन
देख लेना....
ज्ञानजी की एक टिप्पणी से शुरू हुई पर घुघुतीजी ने नाम महत्व/महिमा पर अपने विचार पेश किये। स्वप्नदर्शी ने आगे छद्मनाम की परम्परा और ब्लोग्गेर्स के लिए पहेली पेश की। परमजीत बाली ने छद्मनाम से लिखे या अपने असली नाम से पर चिंतन किया। नटखट बच्चे ने लिखानाम में ही सब कुछ रखा है नटखट बच्चे के लेख पर टिप्पणी करते हुये सिद्धार्थ जोशी ने मुस्कराते हुये कहा-अपना दिमाग कुछ कंस्ट्रक्टिव काम में क्यों नहीं लगाते! लेकिन घुघुती बासूतीजी ने नटखट बच्चे को बाहर से समर्थन प्रदान कर दिया।
छ्द्म नाम से लिखने की उपयोगिता के बारे में मसिजीवी ने काफ़ी पहले एक लेख लिखा था....मुझे मुखौटा आजाद करता है ! इस लेख में मुखौटे की उपयोगिता पर विचार किया गया था। इस लेख के डेढ़ साल बाद ज्ञानजी ने आवाहन किया आइये अपने मुखौटे भंजित करें हम! लेकिन कोई सुने तब न!
कल की चर्चा रविरतलामीजी ने की थी। अगर आपने न पढ़ी हो अवश्य पढिये। इसमें आपको अनेक ऐसे ब्लागों के लिंक मिलेंगे जिनको देखकर पढ़कर आप आनन्दित होंगे।
बहुत से लिंक मिल गये मेरे काम के । ज्ञानजी के आलेख "देश में प्रजातंत्र है। हिन्दी ब्लॉगिंग में टिपेरतंत्र!" का लिंक मैंने भी अपने आलेख में दिया था । आपने अपने आलेख को बिसरा दिया क्या ? मेरे आलेख में उसका भी लिंक है ।
जवाब देंहटाएंऔर यह टिचन्न रहें, कौन सा मुहावरा है? कहीं इसका मतलब टिप्पणी चितन्न से आछन्न रहें तो नहीं !
टिचन्न रहें का मतलब यह भी समझ में आ रहा है कि टिप्पणी चिन्तन से सन्न रहें ।
जवाब देंहटाएं....और यह भी कि टिप्पणी की चिंता से निश्चिंत रहें !
जवाब देंहटाएंआज की चर्चा बहुत मस्त रही ...अच्छे लेखों का समावेश था
जवाब देंहटाएंसार्थक चर्चा नाम की महत्ता पर.
जवाब देंहटाएं"टिप्पणी को अपने प्रति प्रेम का पैमाना न बनायें। बहुत लोग हैं जो आपसे बहुत खुश होंगे लेकिन आपके ब्लाग पर टिपियाते नहीं। "
जवाब देंहटाएंयह क्या बात हुई! भई, हम तो प्रेम और टिप्पणी दोनों ही करते हैं:)
>ज्ञानजी व्याह के समय भी सिरियस ही हैं - शायद फोटोगिराफर ‘स्माइल प्लीज़’ कहना भूल गया :)
एक और अच्छी अनूपीय चर्चा..
जवाब देंहटाएंटिप्पणी बक्सा इतनी बड़ी 141 kb के बोझ से कराह उठता है..
अब सिद्धै लिंकिया पटक कै भाग लेवा करी काऽऽ ?
जेहिका पढ़े के होई पढ़े, मुझे भी एक गुज़रे बारात में शामिल होने की ज़ल्दी है !
" बतौर पाठक एक ध्यानाकर्षण मात्र है, कि "
उधर बड़का भईय्या भी " हिन्दी वालों के नाम मोह " के पीछे परेशान दिखते हैं
" सिर्फ हिंदी के लिए देह धारण करनेवाले आज कितने होंगे । जी हाँ, मात्र हिंदी को समर्पित एक कवि महान कवि, कहानीकार, समीक्षक, संपादक, प्रवक्ता उत्तर प्रदेश में हैं किंतु बेहद दुखी और परेशान हैं । अपनी उपेक्षा से तंग आकर उन्होंने अपना नाम बदलने का मन बना लिया है । उनका कहना है कि ऐसा नाम रखेंगे कि लोग देखते रह जाएँगे । और नाम बदलते ही उनका काम हो जाएगा । उनके नाम का महिमा मंडन किए बिना या उनका नाम लिए बिना कोई आलोचक अपना लेख वह किसी भी विधा का हो पूरा नहीं कर पाएगा । अभी यह तय नहीं हुआ है कि नाम क्या रखें । किंतु सूची बन गई है ।
हो सके तो आप उनकी मदद कर दें । नाम बस ऐसा हो कि आलोचक, समीक्षक बिना उनको याद किए रह न पाएँ । हिंदी की सेवा का कुछ तो मेवा मिले । "
इस पर " हमारे हरदिल अज़ीज़ व लफ़्ज़ों के नवाब " एक बधार और दे देते हैं..
" ये कौन हैं? क्या इन्हें पहचाना जा सकता है?
ये कितने दिन जीवित रहेंगे ? क्या इनके बिना जग सूना हो जाएगा ? इन्हें आज भी याद किया जाता है अथवा नहीं ? पिछली बार ये कब प्रसन्न नज़र आए थे ? इनसे मिलकर मनुष्य, कवि, साहूकार, फिल्म निर्देशक, अध्यापक, पड़ोसी, सहकर्मी, डॉक्टर और पशु-पक्षी कैसा अनुभव करते है ? क्या इन्हें पाला जा सकता है ? हिन्दी इनके तन पर अधिक है या मन पर ? हिन्दी इनके सम्मुख है या विमुख ? इन्हें कुछ साहित्यकारों के नाम पता हैं ? ये उनमें से कितनों के प्रशंसक है ? अखबार के अलावा ये और क्या पढ़ सकते हैं ? इन्हें क्रोध आता है ? क्या धरती से कुछ इंच ऊपर होने का आभास देते हैं ? चलते वक्त पृष्ठ भाग कितने कोण पर झुका रहता है ? तन कर चलने का अंतिम प्रयास कब किया था ? ये वो सवाल हैं जिनका जवाब मिले बिना कोई भी नाम नहीं सुझाया जा सकता । "
हो सके तो, पँच लोग इन मूर्धन्य महाशय की सहायता करें !
चर्चा से ज्यादा तो लगता है,मुझे आपकी मेहनत की तारीफ़ करनी चाहिये।काश ये लगन और ये मेहनत करने का ज़ज़्बा हमारे पास भी होता।सलाम करता हूं आपको।
जवाब देंहटाएंऐसा लगता है "टिप्पणी "शब्द अगर ब्लोग्वानी या चिट्ठाजगत में डाला जाये तो कुल कितने लेख मिलेगे ?कोई अनुमान अनूप जी ???
जवाब देंहटाएंखैर हम कुल जमा तीन पोस्ट्स का यहाँ लिंक थमा रहे है जो हमें खासे पठनीय लगे .....
लपूझुन्ना की स्कूल की दास्ताँबेजी जी का तीन साल का सफ़र शायदा जी की नींद ....
बिल्कुल ढिंचक और टनाटन चर्चा हो गई.
जवाब देंहटाएंरामराम.
सप्ताह की शुरुआत तो ढिंचक हो गयी :-)
जवाब देंहटाएंकभी-कभी मुझे लेख पढ़ने से ज्यादा मजा टिप्पणियाँ पढ़ने में आता है। उदाहरण के लिये ऊपर ताऊ की टिप्पणी पढ़ लो। मन में जैसे ढोल-बैंड-नगाड़े बज उठेंगे! :)
जवाब देंहटाएंमेरा वह लेख दरअसल कुल मिलाकर १०-१२ दिनों में (किस्तों में) लिखा गया था। लेकिन जिस दिन प्रकाशित किया उसी दिन के आस-पास कईयों ने टिप्पणी चर्चा कर डाली। जरनैल के जूते जैसी खबर बनकर रह गया। "लेख पर टिप्पणियाँ तो बहुत पढ़ीं थीं, टिप्पणियों पर लेख भी मिलने शुरू हो गये हैं"। कुल मिलाकर हिंदी चिट्ठा जगत में हर तरह के लोग जुड़ रहे हैं, तो विषयों में समानता और विविधता दोनों आ रही है।
अब वो दिन दूर नहीं जब चिट्ठा-चर्चा के समकक्ष एक टिप्पणी चर्चा ब्लाग भी बनेगा, और खूब चर्चित होगा!
दूल्हे के बारे में: मेरे एक दोस्त की पाँच साल पहले दिल्ली में शादी हुयी थी। शादी पूरी होने के बाद मैंने उससे पूछा, "कैसा लगा?"। उसने जो बताया, उसे सुनकर कोई भी मर्द कभी शादी नहीं करना चाहेगा। आतंकवादियों की गोलियों से मरना कबूल है, लेकिन शादी के उन चार दिनों से गुजरना - जीवन में एक ही बार किया जा सकता है। दूसरी बार के लिये जान नहीं बचने वाली। :)
ज्ञानजी से सहमत मैं भी नहीं हो पा रहा हूँ...आज भी दूल्हे, दूल्हे नहीं..'दूल्हे राजा' बन कर जोकरई करते हैं.
जवाब देंहटाएंबाहर गये हुए थे-अच्छा हुआ बता दिये, अब देर से ज्ञान जी को बधाई दे आयें.
जवाब देंहटाएंचर्चा मस्त है.
यहां ज्ञानजी से हमारा मतभेद है। दूल्हा और जोकरई आज भी एक दूसरे के पर्याय हैं.
जवाब देंहटाएंआपसे सौ फ़ीसदी सहमति.
टिप्पणी विषय ही ऐसा है कि बारम्बार लोग उसपर लिखते रहेंगे। आसक्ति हमेशा आकर्षित करती है।
जवाब देंहटाएं@ हे इष्ट देव,
जवाब देंहटाएंदूल्हा और जोकर पर्याय कहीं से भी नहीं हैं !
शिवभाई :) ने सूचना दी है, कि एक प्रीक्वेल है और दूसरा सीक्वेल !
दूल्हा तो एक दिन का होता है.. फिर तो जीवन पर्यन्त जोकर बने रहने की मज़बूरी !
चकाचक हफ़्ते और टिचन्न रहने की शुभकामना ने अजीब-सी गर्मी पैदा कर दी है देव...
जवाब देंहटाएं"टिचन्न" तो बस उफ़्फ़्फ़्फ़्फ़....है
चर्चा जानदार हमेशा की तरह
टिप्पणी पर आप ने हिन्दीनी से जो दो बिंदु याद दिलाये हैं मैं उनका अनुमोदन करता हूँ. यदि हर चिट्ठाकार इन दोनों बिंदुओं को आत्मसात कर ले तो काफी रोनाधोना कम हो जायगा.
जवाब देंहटाएंसस्नेह -- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info
"टिप्पणी को अपने प्रति प्रेम का पैमाना न बनायें। बहुत लोग हैं जो आपसे बहुत खुश होंगे लेकिन आपके ब्लाग पर टिपियाते नहीं। "
जवाब देंहटाएंआपकी बात से पूरी तरह से सहमत हैं...
बहुत से पुराने चिट्ठे जो पढ़ने से रह गए थे आपकी चिट्ठा चर्चा के का्रण पढने को मिल गए।आभार।
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