शनिवार, जुलाई 02, 2011

यह सब कुछ मेरी आंखों के सामने हुआ

[भाई लोगों ने बताया कि चिट्ठाचर्चा की यह पोस्ट उधर खुल नहीं रही है सो फ़िलहाल वहां मामला ठीक होने तक इधर ही सटा देते हैं। उधर ठीक होने पर उधर धर देंगे।]

सन दो हजार तीन से शुरु हुई ब्लाग यात्रा अब आठ साल पुरानी होने को आई। शुरुआत में किसी-किसी अखबार में कभी कहीं ब्लाग का जिक्र हुआ तो चिट्ठाकार उचके-उचके घूमते थे ब्लाग जगत में। ये देखो अलाने अखबार में फ़लानी किताब में हम छपे हैं। नाम की स्पेलिंग गलत है, फ़ोटो थोड़ा धुंधला है लेकिन ये है हमारा ही लेख।



बीते आठ साल में चिट्ठाजगत का हाल और हुलिया बदला है। आज लगभग हर अखबार नियमित रूप से ब्लागिंग पर कुछ न कुछ सामग्री देता है। कुछ अखबार तो अपने परिशिष्ट का मसाला ब्लागों से ही सीधे-सीधे ले लेते हैं। माले मुफ़्त दिले बेरहम। हिन्दी दैनिक हिन्दुस्तान बीच के पन्ने में एक पतला सा कालम किसी ब्लाग से लेकर ठूंस देता है। कालम में जगह की सीमा है सो अक्सर ब्लाग सामग्री कलम कर दी जाती है। पिछले दिनों निशांत की पोस्ट 10 बातें जो हम जापानियों से सीख सकते हैं हिन्दुस्तान में छपी तो कट-छंट के लेकिन ब्लाग और ब्लागर का नाम गायब था। लगता है अखबारों ब्लाग से कालम उठाने वाले ब्लागर से भी ज्यादा हड़बड़ी में रहते हैं।






पैसा-वैसा जान दो भाई। अखबार वाले बताते भी नहीं कि आपका लेख छापे हैं। वहीं साभार कह दिये। छाप दिया- कृतार्थ किया! मस्त रहो। अब कोई कह सकता है कि हम ब्लागर कौन अमूल के दूध के धुले हैं। इधर-उधर से ले-देकर सामान साटते हैं। लेकिन हम कह सकते हैं कि हम तो हिन्दी की सेवा कर रहे हैं -विनम्रता पूर्वक । कौनौ घर थोड़ी भर रहे हैं अपना। लेकिन आप तो हमारे लेखन को छाप के पैसा कमा रहे हैं। हमको पत्रम-पुष्पम देने में आप संकोच क्यों करते हैं। कुछ तो भेजिये। कम से कम चाय-पानी का खर्चा तो निकले जो दोस्तों ने छपने की खुशी में पी ली हमसे जबरियन। आप समझ नहीं रहे हैं कि अगर आप हमको मानदेय नहीं देते तो हमारे करप्ट हो जाने की खतरा है। यह बात विनीत ने कही है विस्तार से। वे कहते हैं-लेखक को पैसे नहीं मिलेंगे, तो वो पक्‍का करप्ट हो जाएगा!



सप्ताह भर पहले रचना जी ने ब्लागिंग के अपने पांच साल पूरे किये। इस मौके पर ब्लाग जगत के अपने अनुभव को कविता में लिखते हुये उन्होंने बयान जारी किया:

५ साल होगये पता भी नहीं चला , मै यहाँ खुश होने आयी थी , खुश करने नहीं और मै उस मकसद में कामयाब हूँ

रचना जी ने नारी ब्लाग के माध्यम से बीते पांच साल में हलचल मचा के धर दी। उनके अपने मुद्दे रहे। अपनी सोच रही। मूलत: नारी सम्मान के मुद्दों पर वे लिखती-टिपियाती-लड़ती-झगड़ती रहीं। इस मामले में उन्होंने अपनी समझ से बिना किसी से समझौता किये अपनी बात रखी। लोगों की शिकायत भी रहती रही कि उनको हर मुद्दे को नारी स्वाभिमान से जोड़ने की आदत है।

अपनी समझ के अनुसार अपनी बात कहने में रचना जी ने कभी किसी का लिहाज नहीं किया। न किसी दबाब में आईं। अपने ब्लाग से जुड़ी साथियों की बात का विरोध भी करने में भी उन्होंने कभी कोई संकोच नहीं किया। जिनके लिये कभी उन्होंने बहसें कीं ऐसा भी हुआ कि उन्हीं लोगों ने उनको अपने ब्लाग पर आने से बरज दिया। लेकिन वे इससे अप्रभावित रहीं।अपने अंदाज में लिखत-पढ़त करतीं रहीं। उनके तर्क कभी-कभी अटपटे भी लगते रहे और कभी यह भी लगता रहा कि वे बेफ़जूल हर मुद्दे की गाड़ी स्त्री-पुरुष वाली पार्किंग में ले जाकर खड़ी कर देती हैं। :)

अपने स्वभाव के चलते उनको हिन्दी ब्लाग जगत में बहुत विरोध भी झेलना पड़ा। तमाम लोगों ने उनके बारे में बहुत बेशर्म, बाहियात, अश्लील , दादा कोंडके की भाषा में फ़ूहड़ द्विअर्थी टिप्पणियां कीं। उनके खिलाफ़ अनामी नाम बाहियात पोस्टें लिखीं। लेकिन इससे रचनाजी बहुत दिन तक विचलित नहीं रहीं!

रचना जी के खजाने में ब्लाग जगत की तमाम घटनाओं के कच्चे चिट्ठों के सटीक पक्के लिंक मौजूद हैं। कब, किसने, उनके किसी मुद्दे या उनके या और किसी के खिलाफ़ क्या कहा था यह वे तड़ से पेश कर सकती हैं। कभी कोई ज्यादा शरीफ़ बनता दिखायी दिया टिपियाने में तो उसका भी कोई लिंक पेश कर सकती हैं कि आप का एक चेहरा यह भी था/है। :)

हमारे मौज-मजे वाले अंदाज की रचना जी अक्सर खिंचाईं करती रहीं। उनका कहना है कि ब्लागजगत के शुरुआती गैरजिम्मेदाराना रुख के लिये बहुत कुछ जिम्मेदारी हमारी है। अगर हम हा-हा, ही-ही नहीं करते रहते तो हिन्दी ब्लागिंग की शुरआत कुछ बेहतर होती। हम भी शुरुआत में रचना जी को खाली-मूली में जबरदस्ती लोहे की तरह सीरियस मानकर उनकी खिंचाई करते रहे। समय के साथ मुझे उनके मिजाज का अंदाज हुआ फ़िर मैंने उनकी खिंचाई बंद कर दी। हालांकि रचनाजी ने बाद में हमसे बल भर मौज ली। कभी अनूप शुक्ल की हिन्दी की योग्यता पूंछी, कभी ठग्गू के लड्डू के बहाने खींचा और मामाजी का जिक्र करते रहने के चलते। :)

तमाम बातों के अलावा जो एक शानदार च जानदार पहलू उनके व्यक्तित्व का लगता रहा वह यह कि वे बिना लाग लपेट के अपनी बात कहती रहीं। बहस करने के मामले में उनको महारत हासिल है। अपने ब्लाग से जुड़ी महिला साथियों को हमेशा मुद्दे की बात करने को प्रोत्साहित करतीं रहीं हमेशा। कुछ लोग तो उनके प्रोत्साहन से घबरा तक जाते रहे। :)

बहस-वहस जब चल रही हो तो रचना जी नहले पर दहला मारने के प्रयास से चूकने के चक्कर में कभी नहीं रहीं। अन्य लोगों के अलावा वैज्ञानिक चेतना संबंध अरविंद मिश्र जी और नारी चेतना की संवाहक रचना जी में गाहे-बगाहे बहस होती रही। उत्तर-प्रतिउत्तर भी। एक बार का वाकया मुझे याद आता है।

साल भर पहले अरविंद मिश्र जी ने अपनी एक मार्मिक पोस्ट में अपने साथ हुये अन्याय का विस्तार से वर्णन करते हुये बताया कि उनका नाम डार्विन के ऊपर छपी किताब से साजिशन हटवा दिया गया। अपनी पोस्ट में उन्होंने रचनाजी की पोस्ट जिक्र किया। रचनाजी के ब्लाग पर पोस्ट मजनून था :

साइंस का परचम लहराने वालो कि क़ाबलियत पता नहीं कहा चली गयी जब उनका नाम एक किताब पर से हटा कर किताब को छापा गया । किताब के लिये ग्रांट मिलाने कि शर्त यही थी कि उनका नाम हटा दिया जाये क्युकी उनके दुआरा प्रस्तुत तथ्यों को गलत माना गया । सो नाम हट गया हैं
मुगाम्बो खुश हुआ !!!!
कुल कुल दुर्गति हो रही हैं पर घमंड का आवरण पहन कर वो अपने को विज्ञानं का ज्ञाता बता रहे हैं और बताते रहेगे ।

सहज ही अरविंदजी के साथ हुये अन्याय से लोगों को उनके प्रति सहानुभूति हुई। सहानुभूति के प्रवाह में अरविंद जी का प्रकाशक पर कानूनी कार्यवाही करने का शुरुआती आक्रोश भी बह गया। अरविंद जी का गुस्सा बाढ़ के पानी की तरह होता है। आता है बह जाता है। :)

बाद में जब मैंने कुल कुल दुर्गति की खोज की तो पता चला कि दो दिन पहले ही अरविंद जी ने एक ब्लाग पर टिप्पणी की थी :

कुछ के तन मन दोनों ही अच्छे नहीं होते ..ये कुदरत से अपनी लड़ाई लड़ें !
और यही न तो तन की कद्र करते हैं और न मन की ….चलो देह पर तो बस नहीं
मगर मनवा तो सुधार लो ये मूढ़ !
ई जनम बार बार थोड़े ही आवेला -बड़े जतन मानुष तन पावा
सृष्टि की इस सुन्दरतम रचना (कोई दूसरा शब्द हो तो भैया रिप्लेस कर लो इस
पर कुछ लोग अपना कापी राईट समझ लिए हैं जबकि कुल कुल दुर्गति हो चुकी है
) को जो न सराहे उसके जीवन को धिक्कार है धिक्कार

दो दिन बाद ही रचनाजी उन्हीं की भाषा में उनको जबाब देकर हिसाब बराबर कर दिया। जैसे को तैसा जबाब देने की कोशिश करना रचना जी की सहज प्रवृत्ति है। खतरा ब्लागर हैं इस मामले में वे। :)

रचनाजी पिछले दिनों ब्लाग जगत के मठाधीशों की कालक्रम के अनुसार गणना की और अपने पसंद के ब्लाग बताये। कट्टर हिन्दूवादी रचना जी का पसंदीदा ब्लाग सुरेश चिपलूनकर का ब्लाग है। तेंदुलकर फ़ेवरिट खिलाड़ी।

न जाने कितने मुद्दों पर हमारे रचना जी से मतभेद हैं। लेकिन उनकी बहादुरी और जैसा महसूस करती हैं वैसा कहते रहने की हिम्मत और बेबाकी की मैं तारीफ़ करता हूं।

अपने ब्लागिंग के पांच साल होने की सूचना उन्होंने और लोगों के अलावा मुझे भी जलाने के लिये भेजी थी। लेकिन वे अपने मकसद में कामयाब न हुई। मैंने अपनी खुशी का इजहार करते हुये उनको बधाई दी और आगे के लिये शुभकामनायें भी। एक बार फ़िर से रचना जी को ब्लाग जगत में पांच साल पूरे करने की बधाई!

पांच साल पूरा होते ही रचनाजी ने नारी ब्लाग पर अपनी आखिरी पोस्ट की जानकारी दी। सहज ही लोगों ने इसके विपरीत अनुरोध किया और आगे भी लिखते रहने का अनुरोध किया। उन्मुक्तजी की सलाह सबसे उपयुक्त लगी मुझे:

मेरे विचार से यदि समय का अभाव हो तो कोई और सूत्रधार बन जाये पर विचारों को विश्राम देना ठीक नहीं। जब मन में कोई बात उठे तो अवश्य लिखें

ऐसे ही एक हफ़्ते पहले ज्ञानजी ने अपने दास्ताने टांगने का हल्का एलान सा किया लेकिन लोगों ने जोर से मना कर दिया तो फ़िर चालू हो गये।




पिछले दिनों सतीश सक्सेनाजी को न जाने क्या हुआ कि उन्होंने अपने ब्लाग पर कमेंट बन्द कर दिये। कोपभवन में बैठ से गये। हमने कहा फ़ोन करके कि अरे भाईसाहब आपके ब्लाग पर पढ़ने वाली चीज उन पर आये कमेंट ही तो होते हैं। उनको भी आप बंद करके बैठ गये। ये जुलुम किसलिये। कमेंट के नाम पर तो सक्सेनाजी नहीं पसीजे लेकिन बाद में टिप्पणियों पर पसीज गये और उनके लिये फ़िर से अपने ब्लाग के दरवाजे खोल दिये। अब उनका ब्लाग सहज लगने लगा। बिना टिप्पणियों के लग रहा उनकी पोस्ट का परिवार उजड़ गया है। अब हराभरा लग रहा है। :)

बहुत दिन बाद कुश ने एक मजेदार पोस्ट लिखी -कहानी शीला, मुन्नी, रज़िया और शालू की पोस्ट को जयपुरिया डिस्काउंट (कुश और नीरज जी जयपुर निवासी हैं) देते हुये नीरज गोस्वामी जी ने लेखक को वंदनीय बताया और पोस्ट को कालजयी। डा.अनुराग आर्य को पोस्ट पढ़कर हरिशंकर परसाई जी की कहानी एक हसीना चार दीवाने याद आई। डा.अनुराग ने एक दीवाना गोल कर दिया और लड़की को हसीना बना दिया। परसाई जी कहानी का शीर्षक है: एक लड़की, पांच दीवाने।

कुश ने अपनी पोस्ट में शीला का जिक्र करते हुये बताया:



शीला जब भी घर से बाहर निकलती कुछ आँखे उसका दामन थाम लेती.. उसको घर से निकालकर गली के लास्ट कोर्नर तक छोडके आती.. ( ऐसी आँखों का राम भला करे ) इधर शीला को मोहल्ले की आँखों ने छोड़ा और उधर बस स्टॉप पे खड़े लडको ने थामा.. साथी हाथ बढ़ाना की तर्ज़ पे शीला के दामन को थामती आँखों की रिले रेस चलती रहती.. और जैसे ही शीला बस में चढ़ती कि वो टच स्क्रीन फोन बन जाती..सब पट्ठे उसके सारे फीचर्स चेक कर लेना चाहते थे.. वैसे भी मोबाईल वही लेना चाहिए जिसमे सारे फीचर्स मौजूद हो..

परसाई जी ने एक लड़की, पांच दीवाने में लड़की का जिक्र करते हुये बताया था:

लड़की छरहरी है। सुन्दरी है। और गरीब की लड़की है।
मोहल्ला ऐसा है कि लोग 12-13 साल की बच्ची को घूर-घूर कर जवान बना देते हैं। वह समझने लगती है कि कहां घूरा जा रहा है। वह उन अंगो पर ध्यान देने लगती है। नीचे कपड़ा रख लेती है। कटाक्ष का अभ्यास करने लगती है। पल्लू कब खसकाना और कैसे खसकाना -यह अभ्यास करने लगती है। घूरने से शरीर बढ़ता है।

परसाईजी की कहानी में लड़की सारे दीवानों को झांसा देते हुये अपनी पसंद के लड़के के साथ घर बसाती है। अपने घर में ही रहती है। कुश के यहां शीला, मुन्नी, रजिया और शालू मजबूरी में समझौता करते हुये खुश रहने का जतन करती हैं। घर से दूर। एक लड़की और चार लड़कियों पालने में अंतर स्वाभाविक है।

कल स्व. कन्हैयालाल नंदन जी वर्षगांठ थी। इस मौके पर लखनऊ के पत्रकार दयानंद पाण्डेयजी ने नंदन जी जुड़ी अपनी यादों को विस्तार से लिखा। वे लिखते हैं:



एक पत्रकार मित्र हैं जिन का कविता से कोई सरोकार दूर-दूर तक नहीं है, एक बार नंदन जी को सुनने के बाद बोले, ‘पद्य के नाम पर यह आदमी खड़ा-खड़ा गद्य पढ़ जाता है, पर फिर भी अच्छा लगता है.’ तो सचमुच जो लोग नंदन जी को नहीं भी पसंद करते थे वह भी उन का विरोध कम से कम खुल कर तो नहीं ही करते थे. वह फ़तेहपुर में जन्मे, कानपुर और इलाहाबाद में रह कर पढे़, मुंबई में पढ़ाए और धर्मयुग की नौकरी किए, फिर लंबा समय दिल्ली में रहे और वहीं से महाप्रयाण भी किया. पर सच यह है कि उन का दिल तो हरदम कानपुर में धड़कता था. हालां कि वह मानते थे कि दिल्ली उन के लिए बहुत भाग्यशाली रही. सब कुछ उन्हें दिल्ली में ही मिला. खास कर सुकून और सम्मान. ऐसा कुछ अपनी आत्मकथा में भी उन्हों ने लिखा है. पर बावजूद इस सब के दिल तो उन का कानपुर में ही धड़कता था. तिस में भी कानपुर का कलक्टरगंज. वह जब-तब उच्चारते ही रहते थे, ‘झाडे़ रहो कलक्टरगंज!’ या फिर, ‘कलेक्टरगंज जीत लिया.’

कल ही हमारे साथी प्रियंकर पालीवाल जी का जन्मदिन था। उनको जन्मदिन की बधाई!

मेरी पसंद

यह सब कुछ मेरी आंखों के सामने हुआ!

आसमान टूटा!
उस पर टंके हुये
ख्वाबों के सलमे-सितारे
बिखरे!

देखते-देखते दूब के रंगो का रंग
पीला पड़ गया!

फ़ूलों का गुच्छा
सूखकर खरखराया!

और यह सब कुछ मैं ही था
यह मैं
बहुत देर बाद जान पाया।

डा.कन्हैयालाल नंदन

और अंत में

काफ़ी दिन बाद आज चर्चा करने का मनऔर मौका बना! इसके पहले भी कई बार शुरुआत की लेकिन पोस्टें ड्राफ़्ट मोड में ही आकर रह गयीं। आज भी चर्चा शुरू सुबह की थी। लिंक लगाते-खोजते देर हो गयी सो बात शाम पर टल गयी। इस बीच कुछ बेहतरीन पोस्टें पढ़ीं। उनका जिक्र फ़िर कभी।

ब्लाग जगत में संकलकों की कमी के चलते पोस्टों का पता चलना मुश्किल हुआ है लेकिन यह तय है कि अच्छा लिखने वालो लोग बढ़ रहे हैं।

फ़िलहाल इतना ही। बाकी फ़िर कभी!

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