सोमवार, अगस्त 31, 2009

दुनिया जिसे कहते हैं ऊ त इसी ब्लाग पर मिलेगी आज


ट्वाय ट्रेन


जिन्ना, अडवाणी, भागवत आदि के अलावा इतवार की खास खबर हिन्दुस्तान प्रबंधन से मृणाल पाण्डेयजी की विदाई का समाचार रहा। खेल पत्रकार ने मृणालजी के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुये लिखा:
जहां तक मृणालजी का प्रश्न है तो एक कालमनिस्ट के रूप में वो कभी भी सर्वश्रेष्ठ नहीं लगी मुझे। मैं हर चंद कोशिश के बावजूद कभी भी उनका रविवासरीय स्तंभ पूरा नहीं पढ़ सका। काफी गरिष्ठ होता है और उसे मेरे लिए पचा पाना असंभव रहा। पर एक संपादक के रूप में वो शानदार हैं, श्रेष्ठ हैं auar उनके पास एक विजन यानि एक दृष्टि है। इससे उनका मुखर से मुखर आलोचक भी इनकार नहीं कर सकता।


शिरीष कुमार मौर्य लिखते हैं:
मैंने जाना उसका लौटना
वह जो हमारे मुहल्ले की सबसे खूबसूरत लड़की थी
अब लौट आई है हमेशा के लिये
शादी के तीन साल बाद वापस
हमारे ही मुहल्ले में
उसे कहां रखे समझ नहीं पा रहा है उसका लज्जित परिवार!


प्रेम की विडम्बनायें में राजकिशोर एकनिष्ठता का सवाल उठाते हुये बुढापे की परिभाषा बताते है:
मेरी दृष्टि में ‘सामने की ओर न देख पाना ही मन का बुढ़ापा है। हारे-थके मन द्वारा भविष्य के सुखों, आशाओं, और आकांक्षाओं की उपेक्षा करके अतीत में रमने को, कुछ पाने की इच्छा न रखने को, वर्तमान को एकदम नकारने को और भविष्य को निरर्थक समझने को मैं मन का बुढ़ापा मानती हूँ। अतीत को सब कुछ समझना, भोगे हुए सुख-दुखों की स्मृति को ही अमूल्य पूँजी मान कर उसके सहारे शेष जीवन जीना ही मन का बुढ़ापा है।
आप लोग अपने-अपने बुढ़ापे का टेस्ट कर लीजिये।

रचनाकार पर रविरतलामी जी ने कौशल पंवार की कवितायें पोस्ट की हैं| एक कविता में वे लिखती हैं:
हे ईश्वर ! तेरे सत्य और शक्ति को
अब मैं जान गई हूँ
तेरी दलाली और कमीनेपन को भी ।


डा.सत्यकाम अपने प्राइमरी हेल्थ क्लीनिक पर न रहने के कारण बताते हैं।

द डिक्टेटर फ़िल्म में हिटलर की भूमिका में चार्ली चैपलिन का भाषण पढ़िये दखल की दुनिया में:
“जीवन का रास्ता मुक्त और सुन्दर हो सकता है, लेकिन हम रास्ता भटक गये हैं. लालच ने आदमी की आत्मा को विषाक्त कर दिया है- दुनिया में नफ़रत की दीवारें खडी कर दी हैं- लालच ने हमे ज़हालत में, खून खराबे के फंदे में फसा दिया है. हमने गति का विकास कर लिया लेकिन अपने आपको गति में ही बंद कर दिया है. हमने मशीने बनायी, मशीनों ने हमे बहुत कुछ दिया लेकिन हमारी माँगें और बढ़ती चली गयीं. हमारे ज्ञान ने हमें सनकी बना छोडा है; हमारी चतुराई ने हमे कठोर और बेरहम बना दिया. हम बहुत ज्यादा सोचते हैं और बहुत कम महसूस करते हैं. हमे बहुत अधिक मशीनरी की तुलना में मानवीयता की ज्यादा जरूरत है, इन गुणों के बिना जीवन हिंसक हो जायेगा.


कबाड़खाने पर आज सुनिये-कौन ठगवा नगरिया लूटल हो

हेमंत कुमार नारी मन के भाव बताते हैं:
अगर मैं भी लड़का होती
मुझसे जीवन में कुछ भी न छूटता
न मां-बाप का घर
ना ही सखि-सहेलियां
सब कुछ पास होते
अब तो पिया का घर
ही अपना आशियाना है।


प्रांजल के ब्लाग पर ये देखिये:
तेरे जजबात की खुशबू से कुछ ऐसे महक गयी हूँ मै
दरिया के सारे बंधन तोड़ किनारों से छलक गयी हूँ मै


कवि विजेन्द्र की ताजा कवितायें देखिये:
मेरे लिये तुम
एक आँच का फूल हो
एक पका सेव हो
एक बालक की हँसी हो
मेरे लिये तुम


शेफ़ाली पांडे जिन्ना के बहाने मौज ले रही हैं भाजपा से मतलब भाग जाओ पार्टी से। देखिये आप उनके ही ब्लाग पर काहे से कि वे ताला लगा के बैठी हैं अपने ब्लाग पर कि उनके जिन्ना कोई चुरा के न ले जाये।

द्विवेदीजी पुरुषोत्तम अग्रवाल की गजल पेश कर रहे हैं:
खुल कर बात करें आपस में
कुछ तो कम होंगे अपने ग़म

झूठी ख़ुशियों पर ख़ुश रहिए
व्यर्थ 'यक़ीन' यहाँ है मातम


अपने शिमला प्रवास के दिनों को याद करते हुये सिद्धेश्वर लिखते हैं:
न्यू गेस्ट हाउस की
खुली खिड़की से झाँकते ही रहते हो
भाई देवदार.
भूलने में ही है भलाई
पर
कहो तो
कैसे भूल पाउँगा
मैं तुम्हारा प्यार .


अरविन्द मिश्र ने ब्लाग के दस साल होने पर बुनियादी सवाल उठाये उस पर द्विवेदीजी ने बुनियादी राय चेंप दी:
मगर जो बात अब साफ तौर पर दीखने लगी है वह है कंटेंट (अंतर्वस्तु) की प्रधानता ! यदि कोई क्वालिटी आईटम नहीं दे पा रहा है तो उसके तम्बू अब उखड़ने से लगे हैं !
यही एक प्रधान और महत्वपूर्ण बात है।


लाल्टू की कुछ कवितायें इधर पढ़िये अफ़लातून के सौजन्य से।

स्विस बैंक के बारे में आलोक पुराणिक ज्ञान देते हैं:
जैसे आम तौर पर नेता धर्म-निरपेक्ष होते हैं, वैसे ही आम तौर पर बैंक रंग-निरपेक्ष होते हैं, रकम काली हो या सफेद, स्वीकार कर लेते हैं।


उधर ज्ञानजी अपनी 700 वीं पोस्ट ठेल रहे हैं और मन में वैराग्य भाव भी है किसी से तो इम्प्रेस होंगे जी आप:
गंगा किनारे एक मड़ई हो। एक छोटी सी नाव और यह लिखने-फोटो खींचने का ताम-झाम। अपनी बाकी जरूरतें समेट हम बन जायें आत्मन्येवात्मनातुष्ट:!


आभाजी लिखती हैं:
नींद में सुनती हूँ गालियाँ दुत्कार
मुझे दुत्कारता यह
कौन है ....कौन है ......कौन है.....
जो देता है सुनाई
पर नहीं पड़ता दिखाई
हर तरफ छाया बस
मौन है मौन है मौन है।


कौशल का कहना है कि ब्लाग लेखन के कुछ तो मानक होने चाहिये:
ब्लाग लेखन में सिफॆ लेखक की कुंठाएं झलकती हैं। आप कहीं अपनी वजह से पिट गए और आपको बचाने कोई वहां नहीं आया तो आप सारी दुनिया को कोस रहे हैं कि दुनिया में कोई मददगार नहीं रहा।


शरद कोकास बचपन से डायरी लेखन करते आये हैं। इस बारे में उनके रोचक संस्मरण पढ़िये|

अर्चना तिवारी लिखती हैं:
देखा तेरी आँखों में अक्स कुछ अपना सा
गाने लगा मन इक प्यार का नगमा सा

छू गई मेरे दिल का कोई तार कहीं
छाया था पलकों पे इकरार का सपना सा


हिन्दुस्तानी की साठवीं वर्षगांठ पर प्रकाशित अनामदास का यह लेख पढ़िये डा.अमर कुमार के सौजन्य से।
आज सुलभ जायसवाल सतरंगी का जन्मदिन है! उनको हमारी हार्दिक बधाई!

एक लाईना


  1. दुनिया जिसे कहते हैं : ऊ त इसी ब्लाग पर मिलेगी आज

  2. एनसीसी कैडेट या वेटर?कमेंट्स प्लीज़ : मत करियो कोई

  3. क्या होगा भाजपा का????? : बतायेंगे पोस्ट लिखने के बाद

  4. आरएसएस ने सुधारी साठ साल पुरानी गलती! :सुधार की गति भयावह रूप से धीमी है जी

  5. इनका हल हो आपके पास तो हमें भी बताएं : हम बैल लाकर जुताई कर देंगे

  6. आप को देख कर देखता रह गया.... :असल में कोई और काम भी नहीं था न आक संडे को

  7. क्यों नाराज़ है, यह शायर ?: अभी तक नहीं बताइस यार

  8. का सोच का का टिपिया गए . . आपो सोचो ना ! : टिपियाने के पहले और बाद में सोचना ब्लागधर्म के प्रतिकूल है!

  9. जिलाधिकारी का वर्क प्लान जारी : परेशान हैं बेचारे जिले भर के अधिकारी

  10. डेयरी उद्योग पर भी सूखे की मार:थोड़ा पानी मिलाओ यार

  11. पत्रकार की क्या हैसियत जो मुङासे बात करे : लड़कों तक को मुर्गा बना देते हैं पत्रकार कऊन चीज हैं?

  12. नेहरू और पामेला मांउटबेटन :में कोई लफ़ड़ा नहीं था भाई

  13. कुछ कहता हैं ब्लॉगर क्या कहता है :ई तो ब्लागर को भी नहीं पता बस वाह-वाह किये जा रहा है

  14. ये है ब्लौगिंग मेरी जाँ. : लेकर ही मानेगी

  15. फीस ना देने पर मासूम को स्कूल में नंगा किया :शेम शेम

  16. जरूरी है सड़क पर आना : भले ही घर में हो झकास पाखाना

  17. अच्छे चिट्ठाकार के गुण :पढ़ लो अपनाने के लिये कोई थोड़ी न कहेगा

  18. स्त्री (18) और पुरुष (37) के विवाह में उन की उम्र का यह बड़ा अंतर बाधक है? : उम्र के अन्तर में कानून अपनी टांग नहीं अड़ाता

  19. शमीम मोदी पर हमले की जाँच सी.बी.आई को :छुट्टी सालॊं तक के लिये

  20. हिन्दी ब्लोगिंग - जो पेज पाया ही नहीं गया उसे भी तीन लोगों ने पसंद किया :और क्या चाहते हैं आप कि चार लोग पसंद करें?

  21. वोटे ना देहबा त लईटिया कहां से आई ?: वोट देहबे से का लाईट आ जाई!

  22. "थोड़ा - थोड़ा है प्यार अभी, और ज़रा बढने दो :इसके बाद लड़ना -झगड़ना शुरू करेंगे

  23. व्यंग्य : आओ मिलकर देखें !!! :पहले आंखे तो बंद कर लो

  24. आपके इंटरनेट कनेक्शन की स्पीड कितनी है? :क्यों बतायें जी?

  25. तुम कहती रहो : यहां सुनता कौन है

  26. कसाब के वकील को फीस ही नहीं मिल रही :बहुत नाइन्साफ़ी है ज्ञानजी कर ही डालिये



और अंत में

इतवार के रात साढ़े दस बजे तक के चिट्ठों का ये रहा लेखा जोखा। आज रात को ही ठेल दिया। रात को बारह बजे के बाद प्रकाशित होने के लिये। सुबह जो लिखेंगे उनको सुबह पढ़ा जायेगा।

ई तो रात को लिखे थे लेकिन पोस्ट नही किये फ़िर। सोचा एक साथ सुबह के चिट्ठे देखकर ही पोस्ट किया जाये। सुबह देखे तो सतरंगी जायसवाल जन्मदिन, ज्ञानजी का सात सौवीं पोस्ट के साथ नौकाचालन और आलोक पुराणिक का स्विसबैंक मिल गया।

आपका दिन शुभ हो। हफ़्ता चकाचक बीते । आप व्यसत रहें, मस्त रहें। और कोई बात हो तो अपने ब्लाग पर लिखियेगा। हम देख लेंगे।

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रविवार, अगस्त 30, 2009

क्या क्विक गन मुरुगन को देखने के लिए हम दर्शकों में अपनी तैयारी और चेतना जरूरी है?

 

आँखें खोलो भोर हुयी है;

दिन निकला है शोर हुयी है;

लोगों को जल्दी है देर हुयी है;

आँखें खोलो भोर हुयी है.

 

क्या ये नर्सरी राइम है? नहीं. अगली पंक्ति पढ़ें –

 

आँखों पे है माया का परदा ,

झूठे सायों का परदा ,

स्वार्थी भावों का परदा ,

दिल को खोलो , मन को मोड़ो ,

देर हुयी है ,

आँखें खोलो भोर हुयी है.

 

पूरी कविता यहाँ पढ़ें. पर, सवाल ये है कि कविता क्या है? आपको पता है कविता क्या है? यदि पता हो तो बताएँ कि कविता क्या है. चलिए, आपकी सुविधा के लिए, कविता कविता में ही बता दें कि कविता क्या है –

 

कविता  क्या  है .…!

 

कविता  क्या  है,  बिन  समझे  ही

कविता  हम  करते  रहते,

सोचा  है  क्या  किसी  कवि   ने ,

ऐसा  क्यूँ  करते  रहते ……

 

कविता  को  किसने  है  समझा,

और  उसकी  क्या  परिभाषा,

जो  कहते  उन्हें  ज्ञात  ये  सब  है,

उनको  मैं  ना  समझ  सका ……

 

कविता को पूरी तरह कविता में समझने के लिए यहाँ क्लिक करें.

 

पिछले हफ़्ते चर्चा में फ़िल्म अवतार का जिक्र किया गया था. इस बीच आर्यपुत्र कई फ़िल्म देख आए, जिसमें कमीने भी शामिल थी. कमीने को रवीश ने बुरी तरह खारिज किया, तो आर्यपुत्र को इस फ़िल्म में बहुत मजा आया. हम कन्फ़्यूजिया रहे थे कि मामला किधर गड़बड़ है. चवन्नी चैप ने स्पष्ट किया –

 

कमीने एक ऐसी फिल्म है, जिसके लिए दर्शकों की अपनी तैयारी और चेतना जरूरी है। कुछ लोग कह सकते हैं कि तो अब फिल्में देखने की भी तैयारी करनी होगी? निश्चित रूप से भरपूर और सटीक आनंद के लिए तैयारी करनी होगी। अपनी संवेदना जगानी होगी और समझ बढ़ानी होगी। संस्कृति के वैश्विक समागम के इस दौर में अज्ञान को हम अपना गुण बताना छोड़ें। यह कहने से काम नहीं चलेगा कि हमें यही पसंद है। चूंकि साहित्य, संस्कृति और सिनेमा परस्पर प्रभाव से नित नए रूप और अंदाज में सामने आ रहे हैं, इसलिए किसी भी सजग दर्शक के लिए आवश्यक है कि वह सावधान रहे। वह नई फिल्मों को ध्यान से देखे। फिल्में भी व्यंजन की तरह होती हैं, अगर उनका स्वाद मन को नहीं भाता है, तो हम बिदक जाते हैं। मजा तभी है, जब हम नए स्वाद विकसित करें और नए काम को सराहना सीखें।

 

तब तो लगता है कि अपनी समझ विकसित कर कमीने भी देखी जाएगी और भारत में ताजा ताजा प्रदर्शित हुई एक अपने तरह की फ़िल्म क्विक गन मुरूगन को भी देखी जाएगी. क्यों ? कई कारण हैं. पहली तो लोला कुट्टी है. दूसरी मैंगो डाली है. तीसरी सॉरी, तीसरा राइस प्लेट रेड्डी है, चौथा – आमिर खान है. ये आमिर खान कहां से आ गया?

आमिर खान ने इस फ़िल्म को मजा ले ले के देखा और बताया कि इस फ़िल्म को तो हर किसी को देखना चाहिए! पर, अभी ये भोपाल में रिलीज ही नहीं हुई है. अब या तो इंतजार करें या फिर...&%$#@ चलिए, तब तक कमीने देख आते हैं.

 

आप सभी का पाला कभी न कभी किन्नरों से पड़ा होगा. आपके लिए कभी वे हास्यास्पद रहे होंगे, तो कभी घृणित व तिरस्कृत. जबरिया वसूली करते किन्नरों पर आपको गुस्सा भी आया होगा. परंतु उनकी असली समस्या के बारे में कभी आपने सोचा है? कुछ प्रश्न यहाँ खड़े किए गए हैं -

 

किन्नरों का समुदाये आज भी अपने अधिकारों के लिए एक मुश्किल लडाई लड़ रहा है. जन्म के वक़्त ही माँ बाप छोड़ देते हैं और अगर ना भी छोड़ना चाहें तो समाज छुड़वा देता है. उन बच्चो को अपनाया नहीं जाता और फिर शुरू होता है उनकी ज़िन्दगी का सफ़र जहाँ वो दुसरे किन्नरों के यहाँ ही पलते है बड़े होते है, ना पढाई ना लिखाई. ना मुस्तकबिल की बातें ना माजी की सुनहरी यादें...अब ऐसे मैं बड़ा होकर अगर वो लोगों से पैसा ना वसूले तो क्या करे क्यूंकि यही तरीका उन्होंने सीखा है...

 

इस टुकड़े को पढ़ कर शायद आपके मन में कुछ दूसरी भावना जागे. उन्मुक्त ने भी किन्नरों पर बहुत सी सामग्री लिखी है, जिसकी कड़ी भी इस लेख पर दर्ज टिप्पणियों में है.

 

फेसबुक पर लोगबाग सिर्फ क्या गलतियाँ ही किया करते हैं? नहीं. यहाँ तो बड़ा ही बढ़िया संग्रह है हिन्दी साहित्य के इंटरनेटी कड़ियों का. वहीं पर मुझे मिला हिन्दी साहित्य की प्रमुख पत्रिकाओं में से एक कथादेश के इंटरनेट संस्करण की कड़ी का. अगस्त09 से कथादेश इंटरनेट पर आ चुका है और उम्मीद करें कि यह नियमित रूप से इंटरनेट पर बना रहेगा. हंस तो इंटरनेट पर आया, बंद हुआ, फिर आया और अब तो जैसे उसने इंटरनेट से मुंह ही मोड़ लिया है – कि भइए, भर पाए इंटरनेट से!

 

चलते चलते –

 

यदि आप कार खरीद रहे हैं तो  हो जाएँ सावधान!

 

 

और अंत में –

 

अय दोस्त जा रहे हो ???

हमें अकेला छोड़कर ??? अपनी यादों के हसीं पलों के साथ बंधकर .....

देखो इस घरका हर कोना घूम फ़िर ध्यानसे देख लेना ...

कहीं कुछ छुट नहीं गया है ना ???

अपनी हर चीज़ संभालकर करीनेसे रख देना

कहीं रस्तेमें ,टूट ना जाए ,गूम न जाए .....

इस घर के खिड़की दरवाजे ठीक से बंद कर दो...

 

वैसे तो हम जा रहे हैं, आपको छोड़कर, पर संपूर्ण अलविदा गीत पढ़ेंगे कि नहीं?

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शनिवार, अगस्त 29, 2009

और यह एक और शानदार जानदार चिट्ठा चर्चा

याद कर रहा था आर्यपुत्र नींबूपानी में नमक डाल के पीते हुए, वह पुराना समय जब अपनी शैय्या के ऊपर रखे दो मोबाइलों के अलार्म एक एक करके बंद हुए - एक तो अभी से ठीक बारह घंटे पहले, भारतीय मानक समय के अनुसार ब्राह्म मूहुर्त के प्रारंभ में ३ बजे और दूसरा उसके दो घंटे बाद। चुनाँचे पिछली बार की तरह ही इस बार की चर्चा भी पिछली वाली की तरह प्रशांत महासागर के निकट प्रातः तीन बजने के पहले लिखी जा रही है।

आर्यपुत्र का सोचना है कि यदि उगते सूर्य के देश में रह रहे होते तो अभी सूरज डूबा ही नहीं है तो उगेगा क्या वाले देश के समय के हिसाब से चर्चा करने में और कितना ही मज़ा आता। वैसे जापानी चुनाव के नतीजे आने वाले हैं, पता नहीं अपने मत्सु भाई ने किसके मुँह पर ठप्पा लगाया है।

किंतु इन व्यर्थ की, अनर्गल बातों में न पड़ते हुए आर्यपुत्र चिट्ठाचर्चा करने बैठ ही गए। अरे ये क्या हुआ, आज की तारीख डाली, और यहाँ तो लगता है यमराज ने काल को ग्रास कर लिया है! कहीं यह सुदर्शनचक्रधारी श्रीकृष्ण की कोई चाल तो नहीं जिससे आज की चिट्ठाचर्चा ही न हो पाए?





लेकिन फिर आर्यपुत्र को ध्यान आया कि नहीं, ये वानर रूपी पीली चमड़ी और हरी आँखों वाले अंग्रेज़ लोग तिथि को अलग अलग तरह से लिखते हैं, http://www.chitthajagat.in/?dinank=28-08-2009 को चिट्ठाजगत २९ अगस्त २०२८ मान लेता है, अब माना कि धड़ाधड़ छपाई होती है लेकिन इतनी धड़ाधड़ भी नहीं कि बीस साल बाद के लेख आज ही दिख जाएँ।

योगीश्वर कृष्ण से क्षमा माँगते हुए आर्यपुत्र ने सही तारीख डाली और ५३८ लेखों के दर्शन से लाभान्वित हुए।





अच्छा योद्धा अपने अस्त्रों का सही प्रयोग तो जानता ही है, साथ ही वह केवल अपने अस्त्रों की पूजा अर्चना ही नहीं करता है, अपितु उनका उचित प्रयोग भी करता है। आखिर जानने और करने में फ़र्क है। यह सोचते हुए आर्यपुत्र ने चिट्ठे बाँचना शुरू किया।

इंद्रप्रस्थ नगरी में यमुना नदी के तट पर पुस्तक मेला शुरू हुआ है, बता रहे हैं अमित त्यागी। वहीं दूसरी ओर रेल द्वारा आल्प्स की सैर के लिए आमंत्रित कर रहे हैं रजनीश मंगला। हम वैसे भी काफ़ी व्यस्त हैं दोनों में से कहीं भी न जा पाएँगे। खेद सहित।

नवीन केडिया जी कह रहे हैं कि हल्के की सेवा प्राथमिकता है - ठीक है, नकुल सहदेव का तो काम चल जाएगा, पर बेचारे भारी भरकम भीम का क्या होगा? कौन करेगा उसकी सेवा? कहीं गुस्से में आ के केडिया को और हल्का न कर देवे।

इस किताब को देख के नवीं कक्षा में पढ़ी महाबलीपुरम् के ऊपर कहानी - रमेश चौधरी आरिगपुड़ि की - याद आ गई। हिंदी में दक्षिण भारतीय साहित्य। लेकिन आगे देखा तो यह दक्षिणी भाषाओं के साहित्य के हिन्दी अनुवाद की बात कर रहे हैं, जब कि आरिगपुड़ि जी ने तो हिन्दी में ही लिखा था।

ईसाई मिशनरियों के हथकंडों से हम सब वाकिफ़ हैं लेकिन जो इनसे परेशान हैं उन्हें सोचना यह नहीं चाहिए कि ईसाई शाला के वाहन चालक ने ऐसा क्यों किया, बल्कि यह, कि ग़ैर-ईसाई शालाएँ बनाने वाले कहा गुम और फ़ुर्र हो गए?

इस बीच अपनी बुल्ट को टक्कर देने के लिए हार्ली डेविड्सन आने वाला है।

अरे चचा ये बताओ लोग एक ही लेख दो दो जगह क्यों छाप देते हैं? क्या उन्हें पता नहीं कि खोज में उन्हें नुकसान होगा, या क्या वे इस फ़ायदे नुकसान से परे हैं?

इस बीच गतांक से आगे मनोहर कहानियाँ भाग ३५ बाज़ार में आ गया है। अपने अखबार वाले से कह कर अपनी प्रति आज ही सुरक्षित करें।

क्या कहा, आप वैसे नहीं हैं? तो फिर प्रेमचंद के शतरंज के खिलाड़ी पढ़ लें।

एक ओर सवाल उठ रहा है कि जिहाद क्या था और क्या नहीं और दूसरी ओर खबर फैल रही है कि काबा मंदिर है कि कुछ और है। चेंपे रहो भइया। क्योंकि मनोज बाजपेयी की रात में फटती है

अंत में बस इतना ही कहेंगे कि



हाँ हाँ, बहुत ही छोटी चर्चा की आपने। कम से कम इत्ते, कम से कम इत्ती लंबी, वगैरह वगैरह। देखिए मुझे सिनेमा देखने जाना है, समझे न? और टिकट भी पहले ही ले चुका हूँ। इसलिए आप बोल लीजिए जो बोलना है लेकिन हमारे पास इतना वक्त नहीं है कि आपकी सभी फ़रमाइशें पूरी कर सकें। भला शतरंज नहीं खेलते दूसरों को इश्क लड़ाते तो देख सकते हैं। क्या कह रहे हैं टिकट दिखाएँ तभी मानेंगे? दिखा दिया तो तुम न छाप के ले जाओगे? ऑन्लाइन लिया है ऑन्लाइन। धक्का मुक्की के साथ कोई कागज़ का नहीं लिया है। क्या समझे?

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बीवी उधार चाहिए..

रचना जी ने अपने ब्लॉग हिंदी ब्लोगिंग की देन में एक लिंक दिया है.. लिंक पर क्लिक करने पर आप पहुँचते है प्रभात गोपाल जी के ब्लॉग पर जहाँ वे फरमाते है..
हे विद्वान ब्लागरों हमारी संवेदना को जानो, भाषा की गलतियों को नहीं

प्रभात गोपाल जी लिखते है
बहुत से ऐसे लोग भी ब्लागिंग की दुनिया में होंगे, जो कभी नहीं लिख पाते होंगे। भाषा क्या, किताबों से उनकी मित्रता बीते जमाने की बात होगी।वे संयोग से ब्लागिंग की दुनिया में कूद पड़े हों। कम्युनिकेशन या संवाद के लिए क्या जरूरी है, एक शब्द, एक संकेत या एक चित्र कुछ भी। अब आप उसमें भी गुण दोष निकालने लग जा रहे हैं। यही बात यहां चुभ जा रही है। कृपा करके ब्लाग जगत को मठाधीशी की परंपरा से मुक्त कर दें।


इस पर कई लोगो ने अपने अपने कमेन्ट दिए.. आइये देखे किसने क्या टिपण्णी दी..

रचना said...

Prabhat

hindi bloging mae aap ko jitnae log milagae jo dusro ki galtiyaa spelling ki bhasha ki bataatey haen aur apnae ko vidvaan kehtaey haen aap unkae blog par bhi vahii tankan ki galtiyaan paayegae . par ham aur aap likhey to ashudhi aur wo likhae tpo tankan ki galti


is kae allawa agar koi unpar kuch likh dae yaa aaina deekha dae to wo ek naa ekl blogger ko pakad kae aap kae upar post likhaa daetey haen ki aap hindi bloging ko barbaad kar rahey haen .

2 saal sae yahaan hun pehlae maere upar english kaa arop lagaatey the
phir roman kaa aur inki apni hindi aesi haen ki badae badae shabd likhaegae chahey uska matlab bhi naa pataa ho yaa uska asli matlab kuch uar ho



परन्तु विवेक रस्तोगी जी कुछ और ही फरमाते है.. उनका कहना है

Vivek Rastogi said...

आपकि बात सहि है परंतू अगर कोइ ब्लोगर इस तरह कि गल्तीयां सतत करता है तो उसको टोकना हमारा नैतीक कर्तव्य है, जीससे उसे कम से कम यह तो पता चले की वह गलति कर रहा है और वह उसे सूधार सकता है। लोग तो केवल बोल ही सकते हैं बाद में उस ब्लोगर को पढ़ना बंद कर देगे, क्योंकी कीसि को भि अपनि मातृभाषा कि टांग तोड़ना पसंद नहिं आयेगा।

आपकि बात सहि है कि वैचारीक अभीव्यक्ती होनि चाइये,परंतु समझने वालि और बोलचाल वालि भाषा में अगर क्लीष्ट शब्द लीख देंगे तो कोइ क्या पड़ पायेगा।

ऊपर मात्राओं की गल्तियां लिखने में मुझे बहुत परेशानी हुई, उसके बाद उसे पढ़ने पर बहुत तकलीफ़ हुई, परंतु शायद आप मेरी बात समझ सकें।


अरविन्द मिश्र जी का कहना है..

Arvind Mishra said...

अपनी कमजोरियों को ढाल देने के लिए ऐसे प्रलाप बंद होने चाहिए -अंगरेजी भाषियों में भी व्याकरण और वर्तनी की गलतियां अक्षम्य हैं ! किसी मुगालते में न रहिये भाई -परिश्रम करिए और जहाँ तक संभव हो भाषा की शुद्धता बनाए रखिये -चाहे वह कोई भी भाषा हो !
आप भाषायी गली कूंचों के स्लम डाग /बिच क्यों बनते हो ? माद्दा है तो भाषायी शेर शेरिनी बन दहाडों -मिमियाना बंद करो !

वही संजय बेंगाणी जी कहते है

संजय बेंगाणी said...

यह विनम्र निवेदन है, कृपया अन्यथा न लें.

मैं चार साल से ज्यादा समय से ब्लॉगिंग कर रहा हूँ. आज जब पूरानी प्रविष्टियों को देखता हूँ तो शर्म आती है कि कितना अशुद्ध लिखता था. आज भी साथी ब्लॉगर टोकते रहते है, मगर जहाँ तक हो सकता है, वर्तनी दोष से मुक्त लिखने का प्रयास करता हूँ. क्योंकि शुद्ध लिखना एक कर्तव्य जैसा भी है. मगर ब्लॉगिंग मुक्त अभिव्यक्ति का माध्यम है. बिंदास लिखा जाना चाहिए, बिना भय के. मगर क्या सुधार के प्रति थोड़ा बहुत प्रयास भी नहीं करना चाहिए. मैं हिन्दी सीख रहा हूँ, हर पोस्ट के नीचे लिखता हूँ त्रुटियाँ बताएं. अखबार अय्र पत्रिकाएं ध्यान से देखता हूँ, और अगर एक अखबार का उप-सम्पादक ऐसी पोस्ट लिखेगा तो हम जैसे सीखने वालों का क्या होगा.

आपका ब्लॉग है, चाहे वैसे लिखें. टिप्पणी भी करते रहेंगे और पढ़ेंगे भी. सर्वज्ञ कोई नहीं है. अपराध वर्तनी दोष नहीं है, उसे न मानना है.




हम कन्फ्यूज हो रहे थे कि एक आध अक्षर की छोटी मोटी गलती से कोई फर्क पड़ता है या नहीं इतने में विवेक भाई की एक पोस्ट दिखी.. जिसपर अनूप जी कुछ उधार मांगते हुए नज़र आये.. तफसील की तो पता चला कि बीडी मांगी जा रही थी.. हमने भी सुबह सुबह अनूप जी से चैट पर बीडी उधार मांगने की सोची और गलती से बीडी के डी में डी की जगह वी लिख दिया.. और लिख बैठे कि बीवी उधार चाहिए.. अब आप ही सोचिये लेखन की एक छोटी सी त्रुटी ने मेरा बैंड बजवा देना था.. पर भला हो अनूप जी का सिचुएशन समझ लिए तुंरत और मामला टल गया...

अब बात कुछ यु है कि चर्चा पर इल्जाम लगता रहता है कि इसमें हमेशा कुछ ही लोगो की चर्चा होती है.. इसलिए आज की चर्चा में आपको निम्नलिखित नाम नहीं मिलेंगे..
  1. ज्ञानदत्त पांडे
  2. ताऊ
  3. शिव कुमार मिश्र
  4. अनूप शुक्ल
  5. आलोक पुराणिक
  6. प्रीति बङथ्वाल
  7. पूजा
  8. समीर लाल

पर चर्चा में नाम तो आ गए.. अब ?

अब क्या..? जो रह गए है उनकी चर्चा कर डालते है.. फिर डाल कर देखते है कि आपको कितनी पसंद आई..

शुरुआत करते है लाल किला से.. नहीं नहीं दिल्ली का लाल किला नहीं.. ब्लॉग लाल किला जिसे विद्युत मौर्य जी लिखते है.. और अपनी पोस्ट में वे रिटेल स्टोर्स और मल्टीप्लेक्स में छाई मंदी पर अपने निजी अनुभव को रोचक अंदाज़ में लिखते है..
मैंने लव आजकल देखने का निर्णय लिया। टिकट काउंटर पर जाने पर मालूम हुआ है कि लव आजकल की एक भी टिकट नहीं बिक पाई है, लिहाजा इसमें संदेह है कि शो चलेगा भी की नहीं। बुकिंग करने वाली लड़की ने सलाह दी कि आप कमीने देख लें। मैं घर से फिल्म देखने का तय करके चला था लिहाजा मैंने कमीने ही देखने को सोची। जब मैं सिनेमाघर अंदर दाखिल हुआ तो कमीने देखने वाले भी सिर्फ पांच लोग थे। पांच सौ लोगों की क्षमता वाला आडिटोरियम पूरा खाली था। यानी सिनेमाघर के एसी चलाने का भी खर्चा निकालाना मुश्किल है।


वही ब्लॉग हम सर्फर पर आप देखिये सैयद अकबर जी बता रहे है आपको कि केसर कैसे बनायीं जाती है.. वो भी आकर्षक तस्वीरो के साथ..


वही एक और खबर की तरफ इशारा किया फ्रेंकलिन निगम ने अपने ब्लॉग पर.. किसानो की समस्याओ पर लिखते हुए वे कहते है
पिछले दिनों खबरों की दुनिया में एक खबर दबी रह गयी। इस खबर ने पाठकों पर अमिट प्रभाव नहीं छोड़ा और चैनलों ने इसपर नज़र तक नहीं फेरी। यकीनन ये सनसनीखेज नहीं थी। ये खबर एक किसान की थी। खबर के मुताबिक जौनपुर के गौराबादशाहपुर में किसान राजबहादुर की स्थिति प्रेमचंद के किसानों जैसी है। तकरीबन नौ साल पहले राजबहादुर ने किसी साहूकार से अपनी माली हालत के चलते 300 रूपये कर्ज़ लिया और बदले में अपना हल गिरवी रख दिया। इन नौ सालों में ब्याज के तौर पर 25 हज़ार रूपये चुकता कर दिए गए हैं। लेकिन असल मूल अभी तक चुकाना बाकी है।


दुःख इस बात का है कि किसी भी ब्लोगर की नज़र इस लेख पर नहीं पड़ी.. सिवाय श्रीमान समीर लाल जी के, उन्होंने तो बाकायदा टिपण्णी भी दी इस पोस्ट पर.. प्रस्तुत है उनकी टिपण्णी
1 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari said...

बड़े दिन बाद दिखे भाई!
28 August, 2009 11:58 AM




लेकिन ऐसा नहीं है कि ब्लॉग जगत में पाठको का टोटा है.. देखिये एक ब्लोगर को पहचानने में सताईस लोग लगे है..


अनुराग अन्वेषी जी पढ़ा रहे है आपको अपने ब्लॉग पर भाई विवेक की एक कविता..
विवेक भाई के ब्लॉग का नाम है थोडा सा इंसान.. पर जब आप पढेंगे तो पायेंगे कि ये सिर्फ एक मुकम्मल इंसान ही लिख सकता है..

कत्ल के बाद
बहनें... वक्त हैं
वक्त के बोलते रिवाज़ हैं
रिवाज़ों की बढ़ती जरूरत हैं
जरूरतों की भटकती अहमियत हैं
अहमियत का सुर्ख अहम हैं
अहम की पिघलती इज़्ज़त हैं
इज़्ज़त की वेदी हैं
वेदी की ठंडी अग्नि हैं
अग्नि की पवित्रता हैं
पवित्रता की बासी फूल हैं
फूलों की सिसकती माला हैं
मालाओं के पीछे की चुप तस्वीर हैं


बहनों के कत्ल से पहले
भाई...मर्द हैं
बहनों के कत्ल के बाद
भाई... मर्द हैं।।


अनूठे ब्लॉग 'वेबलॉग' पर इस बार की पोस्ट है पुनर्जन्म के बारे में..पुनर्जन्म चक्र पर एक चिंतन : गांधीजी केपरिप्रेक्ष्य में
जिसकी शुरुआत में कुछ यु कहा गया गया है..
विज्ञान का कोई भी छात्र अमूमन पुनर्जन्म जैसे विषय को एक गप्प मान नकार देगा। लेकिन मैं कहीं -न कहीं पुनर्जन्म को पूर्णतः नकारने को तैयार नहीं हो पाता। इसका कारण भी विज्ञान ही है। मैं भूगर्भ-विज्ञान का छात्र हूँ।


संयोग देखिये अशोक गौतम जी भी पुनर्जन्म में विश्वास रखते है पर उनकी वजह दूसरी है..
एक विशुद्ध भारतीय दुरात्मा होने के नाते मेरा इस जन्म पर भले ही विश्वास न हो पर पुनर्जन्म पर घोर विश्वास है।


खैर वजह चाहे जो भी हो दोनों ही पोस्ट शानदार है और पढने लायक ..

देखिये
आज जरुरत गाँधी या भगत सिंह के पुनर्जन्म (पड़ोसी के घर में) की प्रतीक्षा करने की नहीं,बल्कि अपने आस-पास की ऐसी विभूतियों को पहचान उनके कार्यों में यथासंभव योगदान कर उनका उत्साह बढ़ाने की है।

ये भी देखिये

जबकि प्रेमचंद का पुनर्जन्म नहीं हो पाया। वैसे प्रेमचंद पुनर्जन्म लेकर करते भी क्या? आज तो साहित्य व साहित्यकार उससे भी बुरी स्थिति में हैं।

एक टुच्चा सा चिन्तक होने के बावजूद अपनी तो सोच है कि बेहतरीन लेखक का पुनर्जन्म कदापि नहीं होना चाहिए। उसे मोक्ष मिल जाना चाहिए बस! किंतु पात्रों के पुनर्जन्म को कौन रोक सकता है? कोई नहीं। न आप, न मैं, न सरकार, न व्यवस्था और न ब्रह्मा ही।


अब जब दी एंड का टाईम ही गया है तो खिसक लेते है.. चर्चा को फाड़ डालने वाली चर्चा बनाने के सपने के साथ जो कुछ शुरू किया था उसका अंत आते आते जो बना है वो आपके पचाने लायक है... ये तो आपके पढने के बाद ही निर्भर करता है या फिर आपके पाचन तंत्र पर.. जब तक मैं हाजमोला खाकर डा. अमर कुमार जी को बधाई दे देता हु.. आज उनका जन्मदिन जो है...

वैसे एक और बात चर्चाकार होने के नाते अपनी ही की हुई चर्चा की वाट लगते नहीं देख सकता.. इसलिए कुछ इन्तेजाम किया है.. जब शुरुआत उधारी से हुई थी तो अंत भी उधारी से ही करते है..

पप्पू पान भण्डार पे लगी तख्ती उधार मांग कर लाये है.. जिस पर लिखा था

कृपया इन शब्दों का प्रयोग ना करे..

कल देता हूँ
पहचानते नहीं क्या
भरोसा नहीं है क्या
भाग थोड़े ही जाऊंगा
बाद में दे दूंगा

इसी तख्ती को पलटके हमने भी कुछ लिख दिया

कृपया टिपण्णी में इन शब्दों का प्रयोग ना करे

अच्छी चर्चा
सुन्दर चर्चा
आपतो कमाल की चर्चा करते है
आपकी चर्चा का जवाब नहीं
वाह एक साथ कितने ही ब्लॉग समेट लिए आपने


और खबरदार जो किसी ने अमर कुमार जी को जन्मदिन की बधाई दी.. बधाई देने के लिए अमर कुमार जी के निजी ब्लॉग अथवा हिंदी ब्लोगरो के जन्मदिन पर जाए और वही टिपण्णी दे..

तब तक हम सोफे पे बैठकर चाय पीते है.. हे हे हे उधार की चाय है..

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शुक्रवार, अगस्त 28, 2009

'जजमेंटल' होने के ट्रैप से बचा रहना

कल अनूपजी ने चर्चा तारीख बदलने से बस कुछ ही पहले की, एक जानकार चर्चापाठक ने राय रखी-

ई अपरिहार्य कार्य चर्चा के दिन ही क्यों टपक पड़ते हैं??? और यह मुत्तादी [कंटेजियस] क्यों होते हैं?? शायद किसी ब्लाग वायरस का असर हो! रवि रतलामीजी इस पर प्रकाश डाल सकते हैं या फिर पाबलाजी भी अपनी जानकारी बांट सकते है:)

भई गजब खोजे हैं, ये बाकायदा चर्चालेखन का मरफी नियम है कि यदि आप चाहे धुर निठल्‍ले हैं तथा सप्‍ताह में एकही दिन कुछ काम पड़ता है तो तय है कि वह काम ऐन चर्चा के ही दिन पड़ेगा, इंटरनेट की खराबी, हाजमे की खराबी, बिजली की गड़बडी, मूड का आफीकरण, सास का आना, ससुर का जाना....सब ससुर चर्चा के ही शेड्यूल का दुश्‍मन है। हम आज भी बस जैसे तैसे चार बजे मॉनीटर का मुँह देख पाए हैं सो भी जमाने भर की बेशर्मी लादकर। कपड़ों पर इस्‍तरी अभी हुई नहीं, बालकों के एसाइनमेंट जॉंचने का काम मुल्तवी कर दिया है, फोन आफ हैं तिसपर भी आठ बजते तक चर्चा कर पांवें तो बहुत समझिएगा (ये तो तब है कि ठेठ ठुल्‍ले किस्‍म की नौकरी है मास्‍टरी जिसमें सप्‍ताह में बस तेरह घंटे लेक्‍चर देना होता है,  बाकी तो बस एरियर का इंतजार भर ही करते हैं, ऐसे में अनूप जैसे अफसर जो चर्चा में इतना समय दे पाते हैं बस धन्‍य हैं वे तो बेचारे इतने बिजी हैं कि उनके बकाया एरियर के हिसाब तक का आनंद खुद नहीं ले पाते दूसरों से हिसाब करवाना पड़ता है :))   

आज की चर्चा का मूल स्‍वर एक पोस्‍ट पर आई एक टिप्‍पणी के एक हिस्‍से भर से लिया गया है। पोस्‍ट है कबाड़खाने पर अनिल यादव की पोस्‍ट तामुल और जलपरी।

मैं मुंह बाए उसकी लाल-लाल आंखों को देखते हुए वहीं जड़ हो गया। उस घर की एक बुढ़िया जो वहीं बैठी हुक्का पी रही थी, ने इसे भांप लिया। उसने आँखे तरेरते हुए वह गमछा मांगा और उठाने के लिए हाथ भी बढ़ा दिया। इससे हड़बड़ाकर उस आदमी ने मुझे छोड़ दिया। बाएं हाथ की मुट्ठी बांधे मैं दो दिन बुखार में पड़ा रहा।

संस्कृति की महानता का पुराण बांचने वाले समलैंगिकता की ही तरह बाल यौन शोषण के भी अपने देश में होने से झट इंकार करेंगे... खैर अनिल यादव ने इस सीरीज में यानि उत्‍तरपूर्व यात्रा पर संस्‍मरणों की सीरीज में चार लेख लिखे हैं एक, दो , तीन, चार। अब तक के इन लेखों में जो गुण सबसे उभरकर दिखाई देता है वह है-

मुनीश ( munish )

आलेख की खासियत है लेखक का 'जजमेंटल' होने के ट्रैप से बचा रहना .देखें कब तक ?

 

हमारी नजर में ब्‍लॉगलेखन कुछ बेहद मूल्‍यवान गुणों में से है जजमेंटल होने से बचना। ये वाकई एक ट्रैप है। मसलन पाकिस्तान की फिल्‍मों में अपने बच्‍चों में 'देशभक्ति' भरने की कोशिश पर (जो सिर्फ उतनी हर भोंडी या मनमोहक है जितनी हमारी फिल्‍मों में होती है) प्रतिकिया देखें-

इसमें बच्चों को उनका मास्टर पाकिस्तान को संभालने के लिए कह रहा है. वह उन्हें बताता है कि उनके मुल्क को शहीदों ने अपने खून से सींचा है. बच्चों से कुरआन के सहारे चलने की अपेक्षा की गई है. गाने के अंत में वह कश्मीर को कब्जे में लेने का चिरकालीन राग अलापने लगता है. आश्चर्य है कि वे अपने छोटे-छोटे बच्चों को भी बचपन से ही यह घुट्टी पिलाते आ रहे हैं कि उन्हें कश्मीर पे कब्जा करके वहां अपना झंडा फहराना है.

 

या फिर अपने गुरूवर प्रभाषजी के लेखन से असहमत (असहमति में भी अति जजमेंटलिज्‍म का दोष है सही) लोगों पर पिले पड़े आलोक तोमर की भाषा देखें-

ये ब्लॉगिए और नेट पर बैठा अनपढ़ों का लालची गिरोह प्रभाष जी को कैसे समझेगा?
ये वे लोग हैं जो लगभग बेरोजगार हैं और ब्लॉग और नेट पर अपनी कुंठा की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करते रहते हैं। नाम लेने का फायदा नहीं हैं क्योंकि अपने नेट के समाज में निरक्षरों और अर्ध साक्षरों की संख्या बहुत है।

लगभग ऐसा ही विनीत भी जुगत-भुगत रहे हैं।

talk

कुछ ऐसा ही गुण अवगुण चोखेरबाली पर नीलिमा की पोस्‍ट के रीठेल में भी दिखता है।

अरविंद-एशिया ही नहीं ऐसा कमीनापन कमोबेश पूरी दुनिया में है -पर पूरी दुनिया में हर किसी को कोसते रहना ठीक नहीं है ! खुद सोचिये की क्या यह एक एकांगी दृष्टिकोण नहीं है ? यहाँ कुछ खराब है तो वह ही क्यों बार बार उद्धरनीय बनता है -क्या जो अच्छा है वह दिखता नहीं -यह दृष्य्भेद महज दृष्टि भेद के ही चलते है ! लगता है ब्लागजगत की आधी दुनिया के नुमायिंदे प्रशंसाबोध खो चुके हैं -इन्हें बस हर वक्त रोना कलपना ही आता है ! इससे क्या मिलेगा समाज को ? यह कैसी रचनात्मकता है ? इसी को शूकर वृत्ति कहा गया -कबीर को हर जगह बस मैला दिखता था -तुलसी इस शूकर वृत्ति से ऊपर उठे -आज वे कबीर से कहीं अधिक सम्माननीय हैं ! (कम से कम मेरी दृष्टि में ) -यह उदाहरण महज इसलिए की समाज में चोखेरबालियाँ वह भी तो देखें और बताये जो कुछ अच्छा और अनुकरणीय हो रहा है -बार बार एक ही रोना विकर्षित करता है

इसके कंट्रास्‍ट में लविज़ा का आइडिया देखें (ये दावा नहीं कि पापा का सोना गलत है या उन्‍हें उठाना ठीक :)) इसी परह परमोद बाबू का अंगरेजी में भिन्‍न भिन्‍न मुद्राएं बनाकर सूखे में हरियाना-

master

 

सो बिना जज़मेंटल हुए हमने तो जो भी सामने आया परोस दिया, अब आप इसपर जितना चाहें हो जाएं ज़जमेंटल।

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गुरुवार, अगस्त 27, 2009

झाड़ू की नुकीली तीली का इंजेक्शन


समर्थ
डाक्टर से गड़बड़ सुई नहीं लगवानी चाहिये। लेकिन झाड़ू की सुई गड़बड़ होती है कि नहीं ई कौन बतायेगा? लेकिन आभीजी बचपन में झाड़ू की सींक से इन्जेक्शन लगाती रहीं:
हमारे पास बहुत सारे खिलौने होते थे लेकिन नहीं होता था तो एक डॉक्टर सेट। हम अपने खेल में इंजेक्शन की कमी को झाड़ू की खूब नुकीली तीली से पूरा करते थे। घर को बुहारने में खूब घीसी तीली हमारा इन्जेक्शन होती।


अविनाश वाचस्पति को आज ताऊ ने पकड़ लिया और ले लिया साक्षात्कार! सब बातें पूछ डालीं और पूछ के डाल दी अपने ब्लाग पर! देख लीजिये गरिमा के चाचा जी की गोलमोल बातें।

शोले के डायलाग अगर संस्कृत में होंगे तो कैसे लगेगें? देख लीजिये खुदै:
कालिया तव किं भविष्यस
यानी कालिया तेरा क्या होगा
कालिया जवाब देगा-सरदार मैंने आपका नमक खाया है ...
महोदया मया भवत: लवंण खादितवान...
इस पर गब्बर कहेगा-ईदानि गोलिकां अपि खादत
यानी अब गोली खा...


अशोक कुमार पाण्डेय द्वारा स्ट्रेंड साहब की ये अनुदित रचना दे्खिये:
मैदान में
मैदान की अनुपस्थिति हूँ मै
ऐसा ही होता है हमेशा
मै जहाँ भी होता हूँ
वही होता हूँ
कमी ख़ल रही होती है जिसकी


स्वाइन फ़्लू का स्कूलों की मार्निंग असेम्बली पर क्या असर हो सकता है ये देखिये शेफ़ाली पाण्डे के माउस और कीबोर्ड से।

टार्नैडो तूफ़ान बेचारा समीरलाल के चक्कर में आते-आते बचा। चक्कर में फ़ंसता तो समीरलाल उसको अपनी कविता सुना डालते! लेकिन फ़िर भी समीरलाल तूफ़ान की हिस्ट्री जागरफ़ी तो नाम ही डाली। देख लीजिये।

विनीत कुमार का सवाल ही बहुत है उनका लेक बांचने के लियेकहीं ये भाषा एंकर अतुल अग्रवाल की तो नहीं

अनिल यादव के साथ घर बैठे असम घूम लीजिये:
मैने पहली बार गजब आदमी देखा जो बांस की बडी अनगढ़ बांसुरी लिए था। यात्रियों से कहता था, गान सुनेगा गान। अच्छा लगे तब टका देगा। अपने संगीत पर ऐसा आत्मविश्वास। बहुत मन होते हुए भी उसे नहीं रोक पाया। शायद सोच रहा था कि क्या पता वे लोग इन तरीकों से हिंदी बोलने वाले लोगों की ट्रेनों में शिनाख्त कर रहे हों।


आज मास्टर साहब यानी प्रदीप त्रिवेदी का जन्मदिन है। अभी भी सच है बधाई दिखा दीजिये।

आज ही मीनाक्षीजी के भतीजे समर्थ का जन्मदिन है आज ही उनके ब्लाग का जन्मदिन। भतीजे और ब्लाग दोनों के जन्मदिन की बधाई! ऊपर का फ़ोटॊ मीनाक्षीजी के ब्लाग से ही है।

और अंत में


आज शिवजी की चर्चा का दिन था। लेकिन किसी अपरिहार्य पारिवारिक कार्य में फ़ंस जाने के कारण समय निकालना उनके लिये संभव न हुआ। मजबूरी में हमको बीन बटोरकर समय निकालना पड़ा। फ़िलहाल इत्ता पढ़ले सोइये आराम से। कल फ़िर से चर्चा देखियेगा!

पोस्टिंग विवरण: शाम से सोचते-सोचते रात 11 बजे चर्चा शुरू की। इसके पहले नेट के पास न थे। सोचते भी रहे कि सुबह मसिजीवी करेंगे। बहरहाल अभी 1150 पर इस बच्ची पोस्ट को लगा रहा हूं ठिकाने। ख्याल रखना इसका बेचारी अकेली है और फ़िलहाल रात का समय है। न जाने किस ब्लागर की जियत खराब हो जाये और टिपियाने लगे।

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बुधवार, अगस्त 26, 2009

कुछ नहीं लिखने का मन कर रहा है


चर्चा करने का दिन हमारे लिए बुधवार का था लेकिन कुछ अटके अधूरे काम करने बैठे तो दिन बीत गया ... फिर कुछ अतिथि... अतिथि देवो भव.... जानकर उनकी खातिरदारी में व्यस्त हुए तो समय रेत से फिसल गया हाथ से ..सोचा चर्चा करने का सही समय तो निकल गया इसलिए हमेशा की तरह लिखना भूल कर पढ़ने बैठे तो एक के बाद एक पोस्ट हमारे मन की बात कहती से दिखाई देने लगी..... पढिए हमारे मन की बात किसी ओर की लेखनी के माध्यम से.........

ब्लॉगजगत के अनेकों मित्र कहते कहते थक गए लेकिन अपने ब्लॉग पर एक भी पोस्ट न लिख पाए... हम जो सोच रहे थे वही अज़दक ने लिख डाला......

कुछ नहीं लिखने का मन कर रहा है. दरअसल मन ठहरा-अटका हुआ है (भटका नहीं है, भटका तो समय है, और उसके मन को बहुत सारे खटके हैं, लेकिन फिर वह अलग कहानी है). अभी जो स्थिति है वह कुछ नहीं लिखने की है. कुछ. नहीं. लिखने. की.

बहुत प्यारा सा संयोग है कि पल्लवी के इस लेख को पढ़ने के बाद ऐसे लगा जैसे हमारे मन की हर बात को वह भाँप कर ही सब लिख रही थी....

सोचती हूँ ब्रेक लेना एक अच्छा तरीका है मेरे जैसे लोगों के लिए! जिससे बोर हो गए हो, उसे हमेशा के लिए बाय बाय कह देने से अच्छा है कुछ दिनों के लिए उससे दूर हो जाना! एक अन्तराल के बाद दोबारा शुरू करना भी नयापन ला देता है! मेरी एक कुलीग ने मुझे बताया था की उसके अपने पति से झगडे बढ़ने लगे थे! दोनों को एक दूसरे का चेहरा देखकर खीज आती थी! उकताकर उसने अपना ट्रांसफर किसी दूसरी जगह करवा लिया ! अब दोनों हफ्ते में एक बार मिल पाते थे! एक साल बाद उसी कुलीग ने सारा जोर लगाकर अपना ट्रांसफर वापस पति के शहर में करा लिया! अब दोनों बहुत खुश थे! तो ब्रेक ने यहाँ भी अपना काम बखूबी किया! खैर मैं भी हाज़िर हूँ ब्रेक के बाद....अगले ब्रेक तक के लिए!

ब्रेक के बाद पल्लवी आपका स्वागत है .... बड़ी सहजता और रोचक तरीके से आपने हमारे मन की बात कह दी....

ज्ञानजी इलाहाबाद ही नहीं राजधानी दिल्ली का भी यही हाल है....चलने की चाहत हो तो भी फुटपाथ कहीं दिखता ही नहीं....

इलाहाबाद में एक गलत बात दीखती है सड़कों के दोनो ओर फुटपाथ का अस्तित्व ही मरता जा रहा है।

..... शहर ऐसे बनने चाहियें जहां लोगों को पैदल चलना पड़े और चलने की सहूलियत भी हो। क्या सोच है आपकी?

काश इस सोच पर लोग सोचना शुरु करें तो बहुत कुछ बदल जाए... सबसे पहले तो हमें अपने आप से ही शुरुआत करनी होगी....अपने घर के आगे की जगह को घेरना बन्द करके.......

अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए
जिसमे इंसान को इंसान बनाया जाए ….. नीरजजी की कविता उनकी ज़ुबानी मनीषजी के ब्लॉग पर सुनिए...

प्रत्यक्षाजी के अनुसार -------

बिल्ली भीगते दीवार पर कदम जमाये चलती , चौंक कर पीछे पेड़ों पर कुछ देखती । उसकी पूँछ तन जाती , उसके रोंये खड़े हो जाते , उसका बदन अकड़ जाता । पेड़ों के झुरमुट के पीछे ट्रेंचकोट वाला शख्स लम्बे डग भरता , पानी के बौछार के आगे ज़रा सा झुकता , तेज़ी से जाता अचानक मुड़ कर बिल्ली को देखता है ।

द स्टेज इज़ सेट फॉर द क्राइम ...

कुश की हलकट दुनिया का सिपाही अजब सा बर्ताव कर रहा है..........

वो घबराया.. उसने जमीन पर पड़ा पत्थर उठाया और सामने की तरफ उछाल दिया.. पत्थर मेट्रो की खिड़की को तोड़ता हुआ आसमान की तरफ चला गया.. पत्थर हवा में उड़ता ही जा रहा है.. वो देखता रहा.. पत्थर और ऊपर चला गया.. अचानक आसमान में से जोर की आवाज़ आई.. शायद उसने आसमान फाड़ दिया था.. आसमान से मोम जैसा कुछ पिघलकर नीचे गिर रहा था.. जैसे ही वो उसके ऊपर गिरता मेट्रो उसके करीब गयी.. वो फटाफट उसमे चढ़ गया..

हिमांशु जी का कहना कुछ ऐसे है......

दिनों दिन सहेजता रहा बहुत कुछ
जो अपना था, अपना नहीं भी था,
मुट्ठी बाँधे आश्वस्त होता रहा
कि इस में सारा आसमान है;

द्विवेदीजी की तरह हम भी मानते हैं कि सभी त्योहारों का भारत के लोक जीवन से गहरा नाता है। गणपति के आगमन से इन का आरंभ हो रहा है सही ही है वे प्रथम पूज्य जो हैं।

आने वाले दिन तरह व्यस्त होंगे। हर नए दिन एक नया पर्व होगा। ऋषिपंचमी हो चुकी है। फिर सूर्य षष्ठी, दूबड़ी सप्तमी और गौरी का आव्हान, और गौरी पूजन, राधाष्टमी और गौरी विसर्जन, नवमी व्रत, और दशावतार व्रत और राजस्थान में रामदेव जी और तेजाजी के मेले होंगे, जल झूलनी एकादशी होगी। फिर वामन जयन्ती और प्रदोष व्रत होगा और अनंत चतुर्दशी इस दिन गणपति बप्पा को विदा किया जाएगा। अगले दिन से ही पितृपक्ष प्रारंभ हो जाएगा जो पूरे सोलह दिन चलेगा। तदुपरांत नवरात्र जो दशहरे तक चलेंगे। फिर चार दिन बाद शरद पूर्णिमा, कार्तिक आरंभ होगा और दीपावली आ दस्तक देगी। दीपावली की व्यस्तता के बाद उस की थकान उतरते उतरते देव जाग्रत हो उठेंगे और फिर शादी ब्याह तथा दूसरे मंगल कार्य करने का वक्त आ धमकेगा।

अपने देश की यही तो खूबसूरती है...हर दिन किसी न किसी पर्व के कारण पवित्र हो जाता है.... आने वाले सभी पर्व सबके लिए मंगलमय हो ...यही कामना है..... !!

अनूपजी के आग्रह पर चर्चा के लिए बस आज इतना ही पढ़ पाए....! शेष फिर .... !


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