सोमवार, नवंबर 08, 2010

सोमवार (०८.११.२०१०) की चर्चा

नमस्कार मित्रों!

मैं मनोज कुमार एक बार फिर हाज़िर हूं।

दीपावली के पटाखों की गूंज से मन थोड़ा शांत हुआ तो चर्चा के लिए कुछ ब्लॉग्स की खोज में निकला। अपने मन को सकून देने के लिए अपना-अपना तरीक़ा होता है। कुछ प्रकृति की शरणस्थली में चले जाते हैं। मैं पुस्तकें पढता हूं। कविता कौमुदी से गिरिधर शर्मा की पंक्तोयों में कहें तो

मैं जो नया ग्रंथ विलोकता हूं,

भाता मुझे वो नव मित्र सा है।

देखूं उसे मैं नित बार-बार,

मानो मिला मित्र मुझे पुराना॥

पर मेरी भी वही स्थिति है जो प्रेमचन्द ने ‘विविध प्रसंग’ मे कहा है, कि

“पुस्तक पढना तो चाहते हैं, पर गांठ का पैसा ख़र्च करके नहीं।”

हां पुस्तकालय में पुस्तकें मिल जाती हैं। बेकन ने कहा था,

“पुस्तकालय ऐसे मंदिरों की तरह हैं जहां प्राचीन संतों-महात्माओं के सद्गुणों से परिपूर्ण तथा निर्भ्रांत पाखंडरहित अवशेष सुरक्षित रखे जाते हैं।”

अब हम ठहरे ब्लॉगर। ब्लॉगजगत में पुस्तकालय ढूंढने निकले तो कुछ उसी तरह से सजा एक ब्लॉग मिला जिसका नाम था ‘पुस्तकायन’। जब आप इसकी पोस्ट पढ रहे होते हैं तो इसके बैकग्राउंड में रैकों पर सजी पुस्तकें किसी पुस्तकालय में बैठे होने का बोध कराती रहती हैं।

इस ब्लॉग के आमंत्रण वाक्य काफ़ी प्रेरित करते हैं,

यह एक सम्मिलित प्रयास है... अपने पाठन का अधिक से अधिक लाभ उठाने और उसकी महक दूसरों तक पहुँचाने का ... पुस्‍तकायन ब्‍लॉग इसके सभी सदस्‍यों का समान रूप से बिना रोक टोक के है ... इस ब्‍लॉग पर सभी तरह की विचाराधारा या कोई खास विचाराधारा न रखते हुए भी सदस्‍य बना जा सकता है। आलोचनात्‍मक, वस्‍तुनिष्‍ठ और शालीन प्रस्‍तुति अपेक्षित है ।

इसके उत्स में इसके ब्लॉगस्वामी  का कहना है,

अकसर पढते हुए...किताबों से गुजरते हुए...कुछ अंश..पंक्तियाँ...पैराग्राफ हमें काफी पसंद आते हैं ...प्रभावित करते हैं...सामान्‍य से ज्‍यादा सम्‍प्रेषित हो जाते हैं...चौंकाते हैं... कभी अपनी शैली से, शिल्‍प से, आलंकारिकता से और कभी विचारों के नएपन से... ऐसे में उन्‍हें साझा करने का मन करता है... कई बार इसी तरह दूसरे मित्रों के द्वारा हम अच्‍छी किताबों से परिचित हो जाते हैं... इसी जरूरत की उपज है यह ब्‍लॉग... आप कोई पुस्‍तक पढ रहे हैं, ... पुस्‍तक का नाम, प्रकाशक का नाम, प्रकाशन वर्ष का विवरण देकर लिखिए पुस्‍तक के पसंदीदा अंश...साथ ही अपनी आलोचनात्‍मक विचार भी रख सकते हैं पुस्‍तक के बारे में, लेखक के बारे में... कम से कम या अधिक से अधिक जितना भी लिखना चाहें...
साथ ही कहानी, लम्‍बी कविता या प्रभावशाली लेख की भी संदर्भ सहित विवेचनात्‍मक प्रस्‍तुति दी जा सकती है

मुझे तो ये बातें इतनी प्रेरक लगीं कि मैं तो झट से इसका सदस्य बन गया। आप भी बनिए ना!

वाल्तेयर की कई बातें काफ़ी प्रेरक हैं। जैसे उन्होंने यह कहा,

“हो सकता है मैं आपके विचारों से सहमत न हो पाऊं फिर भी विचार प्रकट करने के आपके अधिकारों की रक्षा करूंगा।”

इसी तरह पुस्तकों के संदर्भ में मुझे उनकी यह सूक्ति याद आती है,

“मनुष्यों के सदृश्य ही पुस्तकों के साथ भी यह बात है कि बहुत थोड़ी संख्या में ही महत्वपूर्ण कार्य करती हैं, शेष का भीड़ में लोप हो जाता है।”

ब्लॉग के संदर्भ में भी यही बात है। ऐसे ही कुछ महत्वपूर्ण ब्लॉग की चर्चा करना आज की चिट्ठा चर्चा का मेरा उद्देश्य है। आइए इसी तरह के एक और ब्लॉग पर आपको लिए चलते हैं।

साइरस का कथन है,

“अच्छा स्वास्थ्य एवं अच्छी समझ जीवन के दो सर्वोत्तम वरदान हैं।”

जहां एक ओर ‘पुस्तकायन’ अच्छी समझ विकसित करने में सहायक है वहीं अच्छे स्वास्थ्य के लिए हमें निरंतर सामग्री मुहैया करता ब्लॉग है स्वास्थ्य-सबके लिए । कुमार राधारमण इसके ब्लॉगस्वामी हैं। स्वास्थ्य संबंधी अद्यतन जानकारी यहां पाया जा सकता है।

मैंने इसके ब्लॉगस्वामी से पूछा कि क्या कारण है कि जबकि कई डाक्टर साहित्य का ब्लॉग चला रहे हैं,तब आपने साहित्य का छात्र होने के बावजूद स्वास्थ्य का ब्लॉग चलाने की सोची? तो उन्होंने बताया कि

मैं काफी समय से महसूस कर रहा था कि अखबारों में स्वास्थ्य के संबंध में काफी भ्रामक खबरें छपती हैं। रोज़ नए अनुसंधान से लोगों को भरमाया जाता है मगर बाद में सालों साल उन अनुसंधानों का कोई अता-पता नहीं चलता। इसलिए लोगों तक ठोस खबरें ही पहुंचाई जानी चाहिए। मेरी कोशिश रही है कि केवल वही ख़बरें लूं जिनमें दवाओं के ट्रायल चूहों तक सीमित नहीं हैं,बल्कि मनुष्य पर भी उनके प्रयोग कुछ हद तक उत्साहवर्द्धक रहे हों क्योंकि जो बीमार है,वह संबंधित खबर को बहुत आशा और गंभीरता के साथ देखता है,उसके साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता।”

अभी हाल में ही एक पोस्ट आया है मोटापा घटाने में सहायक है घृतकुमारी

मैंने जब उनसे जनना चाहा आपके ब्लॉग पर हर चिकित्सा विधासे जुड़ी खबरें दिखती हैं.......
तो उनका उत्तर था - हां,ठीक कह रहे हैं। ब्लॉगिंग शुरु करने से पहले मैंने गौर किया कि स्वास्थ्य के विषय में ब्लॉग पर कैसी सामग्री उपलब्ध है। मैंने देखा कि एलुवेरा से ही फुंसी से लेकर एड्स तक का इलाज़ करने का दावा करता है, तो कोई सिर्फ आयुर्वेद से। मैं मानता हूं कि ये एकांगी दृष्टिकोण हैं। कोई भी चिकित्सा विधा स्वयं में पूर्ण नहीं है, सब एक दूसरे के पूरक हैं। इसलिए,जहां कहीं भी संभव हो, सभी विधाओं में इलाज़ के विकल्पों की ओर ध्यानाकर्षण किया जाना चाहिए। कुछ हद तक इसलिए भी कि कई कारणों से कई बार रोगी किसी विधा विशेष में ही समाधान जानना चाहता है।
राधारमण जी खुद कोई चिकित्सक नहीं हैं। कुतूहलवश मैंने जानना चाहा अखबार में छपी खबरों की प्रामाणिकता आप कैसे जाचते हैं?
तो कहते हैं  - यह एक बड़ी चुनौती है। मैं अपने स्तर से केवल इतना कर सकता हूं कि उन खबरों को प्राथमिकता दूं,जिनमें डाक्टरों को कोट किया गया हो अथवा जो स्वयं डाक्टरों द्वारा लिखे गए हों। फिर भी चूक की संभावना तो रहती है।

इस तरह के ब्लॉग जिस पर समाज को कुछ खास किस्म की जनकारी दी जा रही हो न केबराबर टिप्पणी देख कर उसके ब्लॉगस्वामी को दाद देनी पड़ती है। जब मैंने राधारमण जी से पूछा, - क्या परिश्रम की तुलना में नगण्य टिप्पणियां देखकर मन हतोत्साहित नहीं होता?
उनका उत्तर था - नहीं। अनिवार्यताओं को टिप्पणी की दरकार नहीं होती। फिर, ब्लॉग जगत में टिप्पणी के मायाजाल से सभी परिचित हैं। मैं इस दलदल का हिस्सा नहीं बन पाउंगा। पाठकों का ब्लॉग पर आना ही बहुत है,टिप्पणी करें न करें।

 

स्वास्थ संबंधी यदि आपको कुछ रोग निवारक आसान नुस्खे. चाहिए तो मिलिए dr.aalok dayaram से उनके इस ब्लॉग पर। इस ब्लाग में सामान्य एवं जटिल रोगों में हितकारी घरेलू इलाज का विवेचन किया गया है। डा.आलोक का कहना है इन नुस्खों के घटक पदार्थ आसानी से प्राप्त हो सकते हैं और सावधानी पूर्वक उपयोग करने से इनके कोइ दुष्परिणाम भी नहीं होते हैं।

पढने योग्य इनके अन्य ब्लाग हैं--

अगर बीसवीं सदी में राष्ट्रवाद एक बहुत प्रभावी धारणा थी तो वर्त्तमान सदी में यह एक पिछड़ेपन की धारणा मात्र है। आधुनिकता का संघर्ष जो अपूर्ण रह गया, वह तब तक चलता रहेगा जब तक एक सामान्य बात पूर्ण तौर पर प्रतिष्ठित नहीं होती - वह है 'मानव ही सबसे बड़ा सच है उससे बढ़कर और कुछ नहीं! इसी की जनपक्षधर चेतना का सामूहिक मंच है जनपक्ष।

एक और ऐसा ही ब्लॉग है जो समाज सेवा में लगा है। इसका नाम है भाषा,शिक्षा और रोज़गार। इसके ब्लॉगस्वामी खुद को शिक्षामित्र कहलाना पसंद करते हैं। उनका कहना है “रोज़ी-रोटी का मसला सुलझे, कविता-कहानियां भी तभी सुहाती हैं.!” दिन भर में अनगिनत पोस्ट डालते हैं, सभी शिक्षा जगत से संबंधित। उद्देश्य है लोगों को इस विषय से संबंधित जानकारी एक जगह सहज सुलभ हो और सबसे पहले हो।   शिक्षामित्र से जब मैंने पूछा कि अगर वे कुमार जलजला टाइप टिप्पणी कहीं नहीं कर रहे, तो फिर अपने नाम से ब्लॉगिंग क्यों नहीं?जवाब मिला - नाम में क्या रखा है, मैं बेनामियों की प्रतिष्ठा के लिए काम कर रहा हूं।
मेरा दूसरा सवाल था - ब्लॉगिंग के लिए भाषा,शिक्षा और रोज़गार विषय क्यों? शिक्षामित्र का तर्क था-अपनी-अपनी पसंद है। ब्लॉगिंग शुरु करने के पहले, मैंने गौर किया कि ब्लॉग पर क्या-क्या हो रहा है और क्या नहीं हो रहा। मैंने पाया कि न सिर्फ ब्लॉग पर, बल्कि देश की किसी वेबसाईट पर भी इन विषयों पर सामग्री उपलब्ध नहीं है। मुझे लगा कि गूगल के सुझाव के मुताबिक ही बाकी लोग तो व्यक्तिगत अनुभव और घर के फोटो आदि शेयर कर ही रहे हैं, तो मुझे कोई ऐसा फील्ड खोजना चाहिए जिसमें कोई काम नहीं हो रहा या नाममात्र काम हो रहा है। पूछते हैं,"यों भी, क्या आप सोचते हैं कि किसी को आपके अनुभव या कविता-कहानी में वास्तविक दिलचस्पी है? ऐसा नहीं है। लोग इसलिए ऐसी सामग्री देखते हैं कि सर्वत्र वही सब उपलब्ध है। आप जरूरत की दूसरी सामग्री देंगे, तो वह भी चलेगा।"
मगर इसका रेस्पांस कैसा है? आपके ब्लॉग पर टिप्पणियां तो नहीं के बराबर हैं, फिर इस प्रकार के ब्लॉग का आप क्या भविष्य देख रहे हैं? शिक्षामित्र का दो टूक कहना है - मैंने यह ब्लॉग टिप्पणी के लिए शुरु नहीं किया है। इसलिए टिप्पणी वाले कॉलम में साफ घोषणा भी की गई है कि टिप्पणी के बगैर भी इस ब्लॉग पर सृजन जारी रहेगा। मोटे तौर पर रेस्पांस भी ठीक ही है। लगभग 250 पेज रोज़ पढ़े जा रहे हैं। अब तो कई पाठक नौकरी के लिए बायोडाटा भी मेल करने लगे हैं। कई अन्य पाठक करिअर के संबंध में व्यक्तिगत प्रश्न का उत्तर चाहते हैं।   क्या इतनी सफलता कम है?"

Laughing out loudइस सप्ताह इतना ही। इसी तरह के ब्लॉग्स लेकर फिर आऊंगा। तब तक के लिए विदा।

Post Comment

Post Comment

मंगलवार, नवंबर 02, 2010

हसरतसंज -मासूम मोहब्बत के कुछ प्यारे किस्से

image मैं फिजिक्स का विद्यार्थी हूँ और होम साइंस की किताब चुपके से पढ़ रहा हूँ । पढने के बाद अंगडाई लेता हूँ जैसे हवाई जहाज कैसे बनता है, जान लिया हो । बाहर देहरी पर दस्तक हुई है, चुपके से किताब को यथास्थान रख देता हूँ और फिजिक्स के डेरीवेशन की किसी पंक्ति पर लटक जाता हूँ । उसकी होम साइंस

टिफिन रखती है और चल देती है । मुड़कर वापस आती है "अच्छा वैसे किसकी शक्ल बिगाड़ने की कोशिश थी" । मैं शरमा जाता हूँ । "देखो मुझे अपना चेहरा बहुत प्यारा है" कहती हुई बैठ जाती है । मैं गणितज्ञ होने की कोशिश में लग जाता हूँ । वो होम साइंस के शस्त्र निकाल लेती है । उसकी होम साइंस

कमरे में उसकी खुशबु घुल सी गयी है । लम्बी साँस लेता हूँ और सर्किल बनाकर रुक जाता हूँ । याद हो आता है, उसे उसका चेहरा बहुत प्यारा है । सोचकर मुस्कुरा उठता हूँ , हमारी पसंद कितनी मिलती है । उसकी होम साइंस

वो दोपहार को छत पर कपडे पसारने आई है । मैं उसका हाथ पकड़ लेता हूँ । वो कह रही है "हमारा हाथ छोडो" । हम प्रत्युत्तर में कहते हैं "अगर नहीं छोड़ा तो" । तो "अम्मा...." । वो तेज़ आवाज़ देती है । मैं हाथ छोड़ देता हूँ । "बस डर गए" कहती हुई, खिलखिलाकर चली जाती है ।फ़िक्शन

अँधेरा घिर आया है । छत पर महफ़िल जमी है । अम्मा आवाज़ देकर उसे बुला रही हैं । नीचे से आवाज़ आ रही है "आ रहे हैं" । सीढ़ियों पर मैं खड़ा हूँ । हमारा आमना-सामना हुआ है । वो आगे को बढ़ने लगती है । हम हाथ पकड़ लेते हैं । वो कुछ नहीं कहती । हम पास खींच लेते हैं । और उसके कानों के पास जाकर कहते हैं "आवाज़ दो फिर भी नहीं छोड़ेंगे" । वो मुस्कुरा उठती है ।फ़िक्शन

बारिश बीतती तो आसमान उजला-उजला निखर आता । और तब, जब भी आसमान में इन्द्रधनुष को देखता तो जी करता कि इन साहब के कुछ रंग चुराकर पेंटिंग बनाऊँ । तमाम कोशिशों के बावजूद में असफल होता और इन्द्रधनुष मुँह चिढ़ाता सा प्रतीत होता । नानी कहती "अरे बुद्धू, उससे भी कोई रंग चुरा सकता है भला" । मैं नाहक ही पेंटिंग करने का प्रयत्न करता । मैं मासूम उड़ती चिड़िया को देखता, तो मन करता कि इसको पेंटिंग में उतार लूँ । कई बार प्रयत्न करता और हर दफा ही, कभी एक टाँग छोटी हो जाती तो कभी दूसरी लम्बी ।मैं और बचपन का वो इन्द्रधनुष

कहती थी ना मैं "ईश्वर सबको कोई न कोई हुनर देता है । तुझे गणित जैसे विषय में उन्होंने अच्छा बनाया और अब देख कितने बच्चे तुझसे पढने आते हैं । तुझे आदर मिलता है, उनका प्यार मिलता है । दुनिया में जो सबसे अधिक कीमती है, वो तुझे बिन माँगे मिल रहा है ।" मैं और बचपन का वो इन्द्रधनुष

उसके गालों पर डिम्पल थे । कितनी क्यूट लगती थी, जब वो हँसती । गुस्सा तो जैसे नाक पर रखा रहता उसके, जब भी मोनिटर-मोनिटर खेलती । हाँ, वो हमारी क्लास की मोनिटर जो थी । और मेरा नन्हा-मुन्ना सा दिल धड़क-धड़क के इतनी आवाजें करता कि बुरा हाल हो जाता ।बचपन की मोहब्बत

वो एक दिन बोली "तुम मुझसे दोस्ती करना चाहते थे ना । अब तो हम दोस्त हैं न ।"
मैंने कहा "धत, दोस्ती ऐसे थोड़े होती है ।"
"तो कैसे होती है ?"
"गर्ल फ्रेंड तो गाल पर किस करती है ।"
"अच्छा तो लो" और उसने मेरे गाल पर किस कर लिया ।

यारों अपनी तो लाइफ सेट हो गयी । अब वो मेरी गर्ल फ्रेंड बन गयी....बचपन की मोहब्बत

उसका आज जन्मदिन है और ये बात मुझे उसके पिछले जन्म दिन के बाद से ही याद है । न मालूम क्यों, जबकि मैंने ऐसा कोई प्रयत्न भी नहीं किया । याद हो आता है कि अभी चार रोज़ पहले उसने मेरे गाल को चूमा था । उस बात पर ठण्डी साँस भरता हूँ । उसके होठों के प्रथम स्पर्श का ख्याल मन को सुख देकर चला गया है ।स्मृतियों से वो एक दिन

"हैप्पी बर्थ डे, माय लव" सुनकर वो खिलखिला जाती है । उसे गुलाब और कार्ड देते हुए गले लग जाता हूँ । एहसास होता है कि ना जाने कितने समय से हम यूँ ही एक दूजे से चिपके हुए हैं । मैं स्वंय को अलग करता हूँ । उसके गालों को चूम कर "हैप्पी बर्थ डे" बोलता हूँ । वो आँखों में झाँक कर प्यार की गहराई नाप रही है शायद । "अच्छा तो अब मैं चलूँ" ऐसा मैं कुछ समय बाद बोलता हूँ और पलट कर चलने को होता हूँ । वो हाथ पकड़ लेती है । हम फिर से एक दूसरे से चिपके हुए हैं । पहली बार उसकी गर्म साँसों और होठों को महसूस कर रहा हूँ ।स्मृतियों से वो एक दिन

हरी घास के एकतरफ बनी हुई पगडंडियों पर तुम नंगे पैर दौडे जा रही हो और मैं तुम्हारे पीछे-पीछे चल रहा हूँ । डर रहा हूँ कहीं तुम गिर ना जाओ । किन्तु तुम यूँ लग रही हो जैसे हवा ने तुम्हारा साथ देना शुरू कर दिया है । राह में वो सफ़ेद दाढ़ी वाले बाबा तमाम रंग-बिरंगे गुब्बारे लेकर खड़े हुए हैं । हरे, लाल, पीले, गुलाबी, नीले, हर रंग में रंगे हुए गुब्बारे । तुम उन्हें देखकर ऐसे खुश हो रही हो जैसे एक मासूम बच्ची हो । उन गुब्बारों में एक रंग मुझे तुम्हारा भी जान पड़ता है, मासूमियत का रंग या शायद प्यार का रंग या फिर ख़ुशी का रंग । तुम, मैं और हमारी असल सूरतें

खुशियाँ बिखेरती हुई तितलियाँ अपने अपने घरों को चली जाती हैं । तुमने मेरा हाथ फिर से पकड़ लिया है और हम चहलकदमी करते हुए अपने दरवाजे तक पहुँच गए हैं । फिर तुम अचानक से मेरे गाल को चूम कर दरवाजा खोलकर अन्दर चली जाती हो । मैं मुस्कुराता हुआ तुम्हारे साथ आ जाता हूँ ।
सुबह उठ कर तुम मेरे सीने पर अपने सर को रख कर बोल रही हो "कहाँ ले गए थे मुझे" । और मैं तुम्हारे बालों को चूमकर कहता हूँ "हमारी पसंदीदा जगह" । तुम मुस्कुरा जाती हो । तुम, मैं और हमारी असल सूरतें

एटीएम और क्रेडिट कार्ड पर खड़े समाज में ठहाकों के मध्य कभी तो तुम्हारा दिल रोने को करता होगा । दिखावे के उस संसार में क्या तुम्हारा दम नहीं घुटता होगा । चमकती सड़कों, रंगीन शामों और कीमती कपड़ों के मध्य कभी तो तुम्हें अपना गाँव याद आता होगा । कभी तो दिल करता होगा कच्चे आम के बाग़ में, एक अलसाई दोपहर बिताने के लिए । कभी तो स्मृतियों में एक चेहरा आकर बैचेन करता होगा ।

फिर भी अगर तुम्हें कहीं सुकून बहता दिखे, तो एक कतरा मेरे लिए भी सुरक्षित रखना । शायद कभी किसी मोड़ पर हमारी मुलाकात हो जाए । वैसे भी, अभी भी कुछ उधार बनता है तुम पर । सुकून

ये कुछ पोस्टों के अंश हैं –हसरतगंज ब्लॉग की। कल इनको देखा तो एक साथ सब पढ़ गया। बहुत अच्छा लगा। सोचा आपको भी पढ़वायें। मासूम मोहब्बत के प्यारे से किस्से।

Post Comment

Post Comment

Google Analytics Alternative