मंगलवार, मार्च 31, 2009

कैसे करते टिप्पणी ?

नमस्कार !
मंगलमय चिट्ठाचर्चा में आपका हार्दिक स्वागत है !

धीरू सिंह जी के दरवार में पहुँचे तो देखा बडी़ जबरदस्त बहस चल रही है . बहस का मुद्दा है कि यह वरुण गाँधी हिंदू कब से हो गए ? बहस की शुरुआत करते हुए धीरू सिंह कहते हैं :
एक सवाल यह वरुण गाँधी हिंदू कब से हो गए ? स्वर्गीय फिरोज गाँधी के वंशज हिंदू कैसे हो सकते है , स्व० फिरोजगाँधी ने तो कभी हिंदू धर्म स्वीकार ही नही किया इसका कोई प्रमाण भी नही ।एक बेतुका प्रश्न खाली बैठे दिमाग मे आ गया । भारत मे पुरूष का धर्म ही स्त्री का धर्म माना जाता है । और स्व० फिरोज पारसी समुदाय से थे इसलिए उनके पुत्र और पौत्र भी पारसी ही होंगे न की हिंदू । यह तो रही दिमागी हलचल इसका उत्तर आप ही लोग सुझायेंगे ।या भाजपा का सदस्य होना ही हिंदू होना मान लिया जाता है ? विश्व हिंदू परिषद , बजरंग दल का प्रमाण पत्र ही हिंदूहोने का एकमात्र साधन है या मुसलमानों को गाली देना या मार काट की बात करना ही हिंदू होना मान लिया जाए ?
यूँ तो हमने बहस में हिस्सा नहीं लिया , पर अपनी राय आपके कान में बताए देते हैं कि पहले तो धीरू जी ने वरुण को हिन्दू मान ही लिया है सिर्फ़ यही पूछा है कि कब से हुए ? दूसरे जब धीरू सिंह जी ने फ़िरोज गाँधी को स्वर्गीय मान ही लिया तो बहस की गुंजाइश खत्म ! क्योंकि स्वर्ग पर तो हिन्दुओं का एकाधिकार है उसमें गैर हिन्दू कैसे जा सकता है ? हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं कि जब गैर मुसलमान अल्लाह नहीं कह सकते तो गैर हिन्दू स्वर्ग कैसे जा सकता है ?


फ़िर भी बहस जारी है देखिए आँखों देखा हाल :


PN Subramanian
:धीरू जी आपने तो हमारा पारसियों के ऊपर लेख पढ़ा ही है. यदि कोई पारसी किसी अन्य धर्म की स्त्री से शादी कर ले तब भी वह स्त्री या उसके बच्चे पारसी नहीं बन सकते. अब आप अपना गणित लगा लो.

dhiru singh {धीरू सिंह} : और हिन्दुओं मे यह है जिस धर्म मे लड़की शादी करती है वह उसी धर्म की हो जाती है

बेनामी-१ :अगर हिन्दू से आपका मतलब सनातन धर्म है, तो वरुण और हर वो कोई भारतीय जो अलग से कोई पंथ नहीं स्वीकारता या उसका जन्म किसी अलग पंथ मानने वाले घर में नहीं हुआ है तो वो हिन्दू ही होगा . चूँकि पारसी से शादी करके भी कोई पारसी में कनवर्ट नहीं हो सकता इसलिए इन्दिरा गाँधी हिन्दू ही मानी जाएँगी .

बेनामी-२ : फिरोज को गांधी सरनेम गांधी ने अपना पुत्र घोषित करके दिया था . क्या गांधी हिन्दू नहीं थे? इन्दिरा, राजीव, संजय को दफनाया गया था या जलाया गया था?वैसे आपने खुद ही स्वीकार कर लिया है कि आपका प्रश्न बेतुका है खाली दिमाग की उपज है

बेनामी-३ : खाली दिमाग शैतान का घर होता है .

बेनामी-४ : वरुण कतई हिन्दू नहीं हैं, हमलावरों का विरोध करना हिन्दू होना कतई नहीं है, सिर्फ वही हिन्दू है जो हमलावरों का विरोध न करें, हमारे यहां गौरी, गजनवी, अंग्रेज आये, हमने कहां विरोध किया, इसी लिये तो हम हिन्दू है, अभी भी कितने सेकूलरिये फटफटाते रहते हैं क्या हम हिन्दू लोग किसी को कुछ कहते हैं, हिन्दू वह है जो एक गाल पर चांटा खाकर दूसरा गाल आगे कर दे, वरुण तो चांटा मारने वाले के हाथों को तोड़ने की बात करता है फिर वो हिन्दू कहां से हुआ?अपसे पूर्ण सहमति। वरुण कहता है कि हमलावर हाथों को काट लिया जायेगा, इसलिये वह कतई हिन्दू नहीं है। हमलावरों का विरोध करना तो नकारात्मक ऊर्जा है, हिन्दू तो बेचारात्मक ऊर्जा से लबालब है

Smart Indian - स्मार्ट इंडियन : मज़ा आ गया, साधारण से सवाल पर असाधारण टिप्पणियाँ देखकर. अब मेरे दो शब्द - कम से कम भारत जैसे उदारवादी देश में तो हर व्यक्ति को अपनी विचारधारा, जीवन शैली और धर्म खुद चुनने की आज़ादी होनी ही चाहिए. वरुण गांधी भी इस दायरे से बाहर नहीं हैं. वैसे आपकी यह धारणा भी १००% सही नहीं है कि भारत भर में पितृ सत्तात्मक अवधारणा है और तीसरे - जैसा कि पहले कई लूगों ने कहा है, इंदिरा गांधी का कभी भी पारसी धर्म में परिवर्तन नहीं हुआ और न ही उनकी संतति का.

राज भाटिय़ा : अरे नेहरू भी कहां पंडित थे ? यह लेख आप सुरेश जी के ब्लांग पर पढ सकते है, नेहरु के दादा एक मुस्लिम थे.... ओर सोनिया भी क्या हिन्दु है ??? बहुत ही सुंदर सवाल ??

sameer : धर्म एक तरह की संस्कृति और विचार धारा है , यदि कोई व्यक्ति हिन्दू से मुसलमान बनना चाहे तो बन सकता है , यदि वरुण अपने को हिन्दू मानते हैं और उनके क्रियाकलाप हिन्दुओं की तरह हैं तो वह हिन्दू ही हैं, और आप जानते हैं कि भारत, पाकिस्तान, बंग्लादेश के ९०% मुसलमान हिन्दू से मुस्लिम बने हैं तो क्या आप उन्हें भी हिन्दू कहेंगे, जबकि ये सवाल उनसे ही पूछिए तो अच्छा है .

वरुण के विषय में और ज्यादा पढने के लिए आप N. S. विनोद का लेख पढ़ सकते हैं : राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए वरुण खतरा कैसे!


मुलायम सिंह ने भी कहा है कि वरुण देशद्रोही नहीं है :
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा वरुण गांधी पर एनएसए लगाये जाने के बाद पहली बार किसी बड़े नेता खुलकर उनके पक्ष में बयान दिया है. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने वरुण गांधी पर एनएसए लगाये जाने को गलत बताते हुए कहा है कि वरुण गांधी कोई देशद्रोही नहीं है कि उनके ऊपर एनएसए लगाया जाए.



इस अवसर को वीरेन्द्र शर्मा जी ने अफज़ल गुरु और वरुण फिरोज़ गाँधी के बीच समानताएँ और असमानताएँ तलाशने हेतु उचित पाया !


आप अगर देश के अतिशुभचिन्तक हैं तो भी यह सब पढकर आपका चिन्ता करना अनिवार्य नहीं है क्योंकि यह सब तो चुनावों के मौसम की रौनकें हैं जी . अन्यथा पब्लिक को पता कैसे चलेगा कि चुनाव आगया है . यहाँ पहले ही मतदान का रोना रहता है . वैसे चुनाव की रौनकें अब हाईटेक हो चली हैं . पता चला है कि आडवाणी के प्रचार के लिए बीजेपी ने ८५० की वर्ड गूगल सेठ से बैशाख के उधार खरीदे हैं ! आडवाणी का बिलाग तो खैर पहले से ही है ! पर संजीत त्रिपाठी की मानें तो और भी नेता बिलागिंग के सहारे अपनी नैया पार लगाने के जुगाड़ में हैं !



अब पेश हैं कुछ दोहे :



कैसे करते टिप्पणी, राज देउ बतलाय
हमको भी कुछ मिल सकें ऐसा करें उपाय

गौरमिन्ट ने गौर कर, वेतन दिया बढा़य
पर अचार की संहिता दूर खडी मुसकाय

ताऊ जी कविता लिखें, नारी का गुणगान
जो पूजेंगे नारियाँ होंगे वही महान

नारद मुनि जी सीख का किस्सा रहे सुनाय

पर हम कुछ समझे नहीं रहे किधर ये जाय


जब दो ब्लागर मिल गए, बीच मरीना बीच

लहरें भी खुश हो रहीं, रहीं मित्रता सींच




चलते-चलते :


फ़िर फ़टा पजामा डबलपुरी, दिख गया नहीं जो दिखना था
फ़िर एक बार कोई ब्लागर, लिख गया नहीं जो लिखना था
अति रौनक शहर डबलपुर में यह मौसम चूँकि चुनावों का
पहले हो मारकाट जमकर तब ही इलाज हो घावों का
जब संकट में इज्जत देखी तो शहर प्रेम फ़िर जाग गया
जब नाव डूबती देखी तो मल्लाह कूदकर भाग गया

शनिवार को चेन्नई के मरीना बीच पर प्रशान्त प्रियदर्शी से मुलाकात हुई तो पहली बार किसी ब्लागर को साक्षात देखने का सुअवसर था ! उनके बारे में कम शब्दों में कहा जाय तो वे यथा नाम तथा गुण हैं . इतनी विनम्रता मैंने शायद ही किसी में देखी होगी ! पर कल जानकर अफ़सोस हुआ कि प्रशान्त के पैर में फ़िर से चोट लग गयी ! उनकी चोट जल्दी ठीक हो जाय यही कामना है !

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सोमवार, मार्च 30, 2009

डायरी की अंतर्मुखता बनाम ब्लॉग का बहिर्मुख स्वभाव

A group of activists surround a number 60 shaped w...A group of activists surround a number 60 shaped with candles during the world "Earth Hour" event, in Santiago, on March 28, 2009. From Sydney Harbour to the Empire State Building, cities and world landmarks plunged into darkness as a symbolic energy-saving exercise unfolded across the globe.
9:21 p.m. ET, 3/28/09
MARTIN BERNETTI / AFP/Getty Images





















ब्लॉग लेखन क्या है, यह विषय ब्लॉग जगत में अब बताने कहने का नहीं है, यह इतना साधारणीकृत हो चुका है कि कम से कम ब्लॉग के लिखने वालेइसका अर्थ अपने मित्रों परिचितों को सही सही बता सकते हैं, समझा सकते हैंजो इस से परिचित हैं इसे अपनाए हुए हैं उनके लिए अभी कई प्रश्न मुँह बाए खड़े हैंअत: स्वाभाविक है कि अब इस से आगे के प्रश्नों पर विचार करना भी यदा-कदा अपरिहार्य होता प्रतीत होता हैयह स्पष्ट होता जा रहा है कि ब्लॉग लेखन उतना डायरी लेखन -सा भी नहीं है कि अपनी डायरी में जो जी आए, या जो जी चाहो, लिख लोअपनी डायरी को आप अपने तक सीमित रखते हैं, जबकि ब्लॉग लेखन में आत्म प्रकाशन की प्रवृत्ति काम करती हैइस आत्मप्रकाशन को यदि हमने अपने तक ही सीमित रहने वाली डायरी- सा मान कर मनमाना उपयोग करने की बलवती इच्छा के चलाए चालित किया तो समझिए कि दो नावों में पैर रखकर चलने के खतरे ( परिणाम ) भी आएँगे हीआप में से अधिकाँश ने यह प्रसिद्ध उक्ति सुनी ही होगी कि " हमारी स्वतंत्रता वहाँ समाप्त हो जाती है, जहाँ दूसरे व्यक्ति की नाक शुरू होती है ।"


डायरी जहाँ अंतर्मुखी स्वभाव की द्योतक है, वहीं ब्लॉग पर अपनी व्यक्तिगतता / या दूसरे की व्यक्तिगतता के उल्लेख निस्संदेह बहिर्मुखी प्रवृत्ति के परिचायक हैंस्वभाव की यह बहिर्मुखी प्रवृत्ति सामान्य जीवन में अपने या पराए का यदि कुछ अहित कर सकती है तो निश्चय जानिए कि नेट पर बरती गयी यह बहिर्मुखता उससे कई लाख गुणा हानिप्रद हो सकती है



ऐसे कई और भी फलाफल हो सकते हैं यदि इन प्रश्नों पर विचार किया जाए कि आख़िर ब्लॉग का उद्देश्य क्या है, क्या हो गत दिनों ब्लॉगकथ्य के नियमन के लिए आचार संहिता बनाने की बात भी या विधिक सीमा में रखने की बात भी उठती रही है कि इसे भी क़ानून के लपेटे में लिया जा सकता है इधर ब्लॉग जगत् की ( भले ही किसी भी देश या किसी भी भाषा के हों) घटनाओं ने सरकारों के कान खड़े किए, साथ ही ब्लॉगरों के कान भी खड़े किए और निरंकुशता की घटनाओं के चलते इन प्रश्नों पर स्वयं ब्लॉग लेखकों को भी विचार करने की आवश्यकता प्रतीत हुई कुछ अन्य देशों में जहाँ कथ्य में विचार प्रखरता के चलते सत्ता या सतात्मकता को खतरा लगा वहाँ इस विधा की निरंकुशता को प्रतिबंधित करने वाले कारण यद्यपि वाद -विवाद और सहमति या विरोध के मुद्दे हो सकते हैं किंतु जहाँ सुदीर्घ सामाजिक और व्यापक मुद्दों, व्यवस्था के विरोध आदि जैसे सार्वजनिक हित के प्रश्नों की अपेक्षा लोग परस्पर स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने जैसे नितांत निजी, किसी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आक्रमण करने या दूसरे को नीचा दिखाने आदि जैसी भावनाओं के चलते इस विधा का प्रयोग करने लगे तो इसकी सीमा और उद्देश्यों पर विचार करना अपरिहार्य होता चला जा रहा है




कहीं ब्लॉग अपनी धार खो न दे



उमेश चतुर्वेदी ने अपनी पोस्ट *किस करवट बैठेगी ब्लॉगिंग की दुनिया **! के जरिए ब्लॉग को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के प्रति आशंका जतायी है। उमेश चतुर्वेदी का साफ मानना है कि वे ऐसा करके सु्प्रीम कोर्ट के फैसले पर किसी भी प्रकार के सवाल खड़े नहीं कर रहे लेकिन एक मौजू सवाल है कि अगर सरकार और स्टेट मशीनरी द्वारा ब्लॉग को रेगुलेट किया जाता है, ब्लॉग जो कि दूसरी अभिव्यक्ति की खोज के तौर पर तेजी से उभरा है तो क्या लोकतांत्रिक मान्यताओं को गारंटी देनेवाली अवधारणा खंडित नहीं होती। मेनस्ट्रीम की मीडिया को किसी भी तरह से रेगुलेट किए जाने की स्थिति में इसे लोकतंत्र की आवाज को दबाने और कुचलने की सरकार की कोशिश के तौर पर बताया जाता है तो ब्लॉग में जब सीधे-सीधे देश की आम जनता शामिल है और आज उसे भी रेगुलेट कर,दुनियाभर की शर्तें लादने की कोशिशें की जा रही है तो इसे क्या कहा जाए। क्या स्टेट मशीनरी वर्चुअल स्पेस की इस आजादी को बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है। पेश है उमेश चतुर्वेदी की चिंता और सवालों के जबाब में मेरी अपनी समझ-

सरकार औऱ सुप्रीम कोर्ट क्या, रोजमर्रा की जिंदगी में टकराने वाले लोग भी ब्लॉगिंग की आलोचना इसलिए करते हैं कि उसमें गाली-गलौज औऱ अपशब्दों के प्रयोग होने लगे हैं। कई बार शुरु किए मुद्दे से हटकर पोस्ट को इतना पर्सनली लेने लग जाते हैं कि विमर्श के बजाय अपने-अपने घर की बॉलकनी में आकर एक-दूसरे को कोसने, गरियाने औऱ ललकारने का नजारा बन जाता है। कई लोगों ने ब्लॉग में रुचि लेना सिर्फ इसलिए बंद कर दिया है कि इसमें विचारों की शेयरिंग के बजाय झौं-झौं शुरु हो गया है।




ऐसे ही विवाद पर चर्चा का एक उदाहरण यहाँ देखा जा सकता है जहाँ ब्लॉग के कथ्य को संदिग्ध करार दिया गया


इधर इंटरनेट पर कुछेक विवादास्पद पत्रकारों ने ब्लाग जगत की राह जा पकड़ी है, जहां वे जिहादियों की मुद्रा में रोज कीचड़ उछालने वाली ढेरों गैरजिम्मेदार और अपुष्ट खबरें छाप कर भाषायी पत्रकारिता की नकारात्मक छवि को और भी आगे बढ़ा रहे हैं। ऊंचे पद पर बैठे वे वरिष्ठ पत्रकार या नागरिक उनके प्रिय शिकार हैं, जिन पर हमला बोल कर वे अपने क्षुद्र अहं को तो तुष्ट करते ही हैं, दूसरी ओर पाठकों के आगे सीना ठोंक कर कहते हैं कि उन्होंने खोजी पत्रकार होने के नाते निडरता से बड़े-बड़ों पर हल्ला बोल दिया है। यहां जिन पर लगातार अनर्गल आक्षेप लगाए जा रहे हों, वे दुविधा से भर जोते हैं, कि वे इस इकतरफा स्थिति का क्या करें? क्या घटिया स्तर के आधारहीन तथ्यों पर लंबे प्रतिवाद जारी करना जरूरी या शोभनीय होगा? पर प्रतिकार न किया, तो शालीन मौन के और भी ऊलजलूल अर्थ निकाले तथा प्रचारित किए जाएंगे।






हिन्दी ब्लॉग्गिंग यद्यपि अभी अपने शैशव में ही है, पुनरपि यहाँ भी ऐसे विषयों को लेकर विचार का वातावरण बनने की आवश्यकता अनुभव की जा रही लगती है।

इसी क्रम में -



व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार कराता है
को भी देखा जा सकता है -


ब्लागजगत में विविधता काफ़ी आ रही है। इतनी कि लोग आपस में व्यंग्य-व्यंग्य खेलते रहते हैं लोगों को हवा नहीं लगती।
जबलपुर परसाई जी का शहर है। परसाई जी प्रख्यात व्यंग्यकार थे। उन्ही के शहर के ब्लागर आजकल दनादना व्यंग्य लिख रहे हैं। महेन्द्र मिश्रजी और गिरीश बिल्लौरे जी की व्यंग्य जुगलबंदी चल रही है। पहले इशारों-इशारों में हुआ और फ़िर आज मामला खुला खेल फ़र्रक्खाबादी हुआ।

व्यंग्य के इस स्तर को देखकर मैं अभिभूत हूं। परसाई जी होते तो न जाने क्या कहते? समीरजी पूर्वोत्तर में टहल रहे हैं। बवाल जी वाह-वाह कह ही चुके हैं।

ज्यादा दिन नहीं हुये जब जबलपुर के ब्लागर साथी विवेक सिंह द्वारा जबलपुर को डबलपुर कहने पर एकजुट होकर फ़िरंट हो लिये थे। फ़िर जबलपुर ब्लागर एकता के नारे लगाते हुये एक नाव पर सवार दिखे। लगता है नाव में छेद हो गया। नाविक फ़ूट लिये और नाव के हाल बेहाल हैं।

दूसरे के मामले में कुछ कहना अपनी सीमा का अतिक्रमण करना है लेकिन मैं यह कहना चाहूंगा कि जिसे भाई लोग व्यंग्य कहकर एक दूसरे की इशारों में छीछालेदर करने की कोशिश कर रहे हैं वह न व्यंग्य है न हास्य बस सिर्फ़ लेखन है। हास्यास्पद लेखन!







ब्लोगिंग की सीमा और उद्देश्यों पर विचार की कुल प्रक्रिया जिस प्रकार के विमर्श में रूपांतरण की अपेक्षा करती है, हिन्दी में यद्यपि वह भी अभी अपने आरंभिक चरण में ही है, तभी तो एक सार्थक प्रश्न पर विचार का ट्रीटमेंट नितांत निजी परिधि पर विचार करने तक ही सीमित रह जाता है-


आखिर हम क्‍यों करते हैं ब्‍लॉगिंग ? क्‍या मिलता है हमें इसमें ? कुछ लोग इसके जरिए पैसा जरूर कमाते हैं, लेकिन अधिकांश को तो एक पाई भी नहीं मिलती। फिर हम अपना इतना समय और श्रम क्‍यों जाया करते हैं ? ये सवाल बार-बार पूछे जाते हैं और पूछे जाते रहेंगे। लेकिन मेरी तरह शायद बहुत से ऐसे लोग होंगे जो इस तरह से नहीं सोचते।

हम हर दिन सैकड़ों ऐसे काम करते हैं जिनके पीछे अर्थोपार्जन जैसा कोई उद्देश्‍य नहीं होता। कहीं कोई अच्‍छा दृश्‍य नजर आता है, हम उसे अपलक देखते रहते हैं। कोई अच्‍छा गीत सुनाई पड़ता है, हम उसे जी भर के सुनना चाहते हैं। कहीं कोई प्‍यारा बच्‍चा अंकल कहता है और हम उसे गोद में उठा लेते हैं। इन कार्यों से हमें क्‍या मिलता है ? जा‍हिर है हमारा जवाब होगा, हमें यह सब अच्‍छा लगता है...ऐसा कर हमें संतोष मिलता है...हमें सुख की अनुभूति होती है।




विमर्श में रूपांतरित किए जाने के प्रयासों को यदि हम में से कोई भी `मैं' के साथ जोड़ कर देखता रहे तो निस्संदेह परिणाम यह पुष्ट करेंगे कि हिन्दी की ब्लॉग्गिंग में उद्देश्यों और विषयों तक पर विमर्श की संभावनाएँ दूर की कौडी हैं, इस संसाधन की क्षमता का दोहन करने में हम नितांत अक्षम, असफल या असमर्थ हैंअभी हमें पहली सीढ़ी चढ़ने में ही भरपूर समय, समग्रता, निर्वैयक्तिकता , समर्पण एकाग्रता की आवश्यकता हैइस संसाधन का सदुपयोग यदि भावी पीढी तक सारे ज्ञान-विज्ञान को सुरक्षित रख कर पहुँचाने के उदात्त उद्देश्य से किया जाए ( कि केवल अभिव्यक्ति के एक माध्यम जैसे सीमित अर्थ में ) तो निस्संदेह हम बड़ी सफलताएँ पा सकते हैं, कई निरर्थक विवादों से मुक्त रख सकते हैं इस संसाधन को तथा स्थाई महत्त्व का एक अनूठा कार्य कर सकते हैं। उद्देश्यों पर वाद - विवाद की इन परिस्थियों को ऐसी निर्वैयक्तिकता से ही अकुंश में लाया जा सकता है। सार्वजनिक हित पर वैचारिक मतभेद के प्रश्न तो सदा ही तर्क के अवसर देते रहेंगे।






आधी आबादी

आधी आबादी में इस बार आप मिलिए शायदा से । शायदा का चित्र तो प्रोफाईल पर कोई विद्यमान नहीं है, परन्तु लेखन से आप एक इमेज अवश्य बना सकते हैं। इनके २ व्यक्तिगत ब्लॉग हैं हिन्दी में -


शायदा के परिचय का पहला वाक्य है - आय एम अफ्रेड । यह आपको चौंकाएगा। साथ ही उकसाएगा भी कि आप लगभग हर पोस्ट को फींच फींच कर पढ़ना चाहेंगे। अपनी एक पोस्ट सांड, टेपचू और एक उम्मीद के बहाने के फुटनोट में शायदा ने लिखा है --


नोट- ठीक एक साल पहले आज के दिन खू़ब सर्दी थी और अवसाद भी। मैं दफ़तर से पंजाब यूनिवर्सिटी तक पैदल ही चली गई थी। एक वादा पूरा करना था जो कुछ माह पहले हमने इंडियन थिएटर डिपार्टमेंट के प्रोफेसर जी कुमारवर्मा से किया था, जब वे उदयप्रकाश की कहानी वॉरेन हेस्टिंग्‍स का सांड पर नाटक करने के शुरुआती प्रोसेस में थे। बाद में हमने इस बात को भुला दिया लेकिन प्रोफेसर को याद रहा। एक दिन उनका फ़ोन आया कि नाटक देखने ज़रूर आएं। नाटक तभी देखा था और टेपचू कहानी बाद में पढ़ी। मैंने इन दोनों क्रतियों में जिस चीज़ को बहुत गहरे तक महसूस किया वह है ऐसी उम्‍मीद का हर हाल में जिंदा रह जाना जो इंसान के मर जाने पर भी मरती नहीं। फरवरी की उस शाम मैं मर सकने लायक उदास थी लेकिन नाटक देखने के बाद मुझे अपनी उम्‍मीद का पता मिल गया था।


मुझे शायदा के लेखन में एक बेहद संवेदनशील व्यक्तित्व दिखाई देने के साथ साथ शब्दों का जादू करने की कला भी दिखाई देती है। दोनों ब्लॉग पठनीयता से भरपूर हैं।



विदेशी भाषाओं से



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पठनीय



बेटी ब्याही गई हॆ



बेटी ब्याही गई हॆ
गंगा नहा लिए हॆं माता-पिता
पिता आश्वस्त हॆं स्वर्ग के लिये
कमाया हॆ कन्यादान क पुण्य ।

ऒर बॆटी ?

पिता निहार रहे हॆं, ललकते से
निहार रहे हॆं वह कमरा जो बेटी का हॆ कि था
निहार रहे हॆं वह बिस्तर जो बेटी का हॆ कि था
निहार रहे हॆं वह कुर्सी, वह मेज़
वह अलमारी
जो बंद हॆ
पर रखी हॆं जिनमें किताबें बेटी की
ऒर वह अलमारी भी
जो बंद हॆ
पर रखे हॆं कितने ही पुराने कपड़े बेटी के ।

पिता निहार रहे हॆं ।

ऒर मां निहार रही हॆ पिता को ।
जानती हॆ पर टाल रही हॆ
नहीं चाहती पूछना
कि क्यों निहार रहे हॆं पिता ।

कड़ा करना ही होगा जी
कहना ही होगा
कि अब धीरे धीरे
ले जानी चाइहे चीज़ें
घर अपने बेटी को
कर देना चाहिए कमरा खाली
कि काम आ सके ।

पर जानती हॆ मां
कि कहना चाहिए उसे भी
धीरे धीरे
पिता को ।

टाल रहे हॆं पिता भी
जानते हुए भी
कि कमरा तोकरना ही होगा खाली
बेटी को
पर टाल रहे हॆं
टाल रहे हॆं कुछ ऎसे प्रश्न
जो हों भले ही बिन आवाज
पर उठते होंगे मनमे ं
ब्याही बेटियों के ।

सोचते हॆं
कितनी भली होती हॆं बेटियां
कि आंखों तक आए प्रश्नों को
खुद ही धो लेती हॆं
ऒर वे भी असल में टाल रही होती हॆं ।
टाल रही होती हॆं
इसलिए तो भली भी होती हॆं ।

सच में तो
टाल रहा होता हॆ घर भर ही ।

कितने डरे होते हॆं सब
ऎसे प्रश्नों से भी
जिनके यूं तय होते हॆं उत्तर
जिन पर प्रश्न भी नहीं करता कोई ।

मां जानती हॆ
ऒर पिता भी
कि ब्याह के बाद
मां अब मेहमान होती हॆ
अपने ही उस घर में
जिसमें पिता,मां ऒर भाई रहते हॆं ।

मां जानती हॆ
कि उसी की तरह
बेटी भी शुरु शुरु में
पालतू गाय सी
जाना चाहेगी
अब तक रह चुके अपने कमरे ।
जानना चाहेगी
कहां गया उसका बिस्तर।
कहां गई उसकी जगह ।

घर करते हुए हीले हवाले
समझा देगा धीरे धीरे
कि अब
तुम भी मेहमान हो बेटी
कि बॆठो बॆठक में
ऒर फिर ज़रूरत हो
तो आराम करो
किसी के भी कमर में ।

मां जानती हॆ
जानते पिता भी हॆं
कि भली हॆ बेटी
जो नहीं करेगी उजागर
ऒर टाल देगी
तमाम प्रश्नों को ।

पर क्यों
सोचते हॆं पिता ।








अंत में

आज की चर्चा मैंने अपने तय फोर्मेट से अलग की है, इसलिए कुछ निश्चित वर्ग इसमें आज सम्मिलित नहीं हैं।

कविता का मन, अभिलेखागार आदि को इस बार की चर्चा से मेल न खाने के कारण छोड़ना पड़ रहा है। पर बदलाव तो सृष्टि का नियम है, थोड़ी छूट हमारे लिए भी परिवर्तन की सही।

नवरात्र चल रहे हैं। आप में से कई लोग उपवासे होंगे। मातृशक्ति आपको सारे सुख सौभाग्य से भरपूर करे।

शुभकामनाओं सहित।







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रविवार, मार्च 29, 2009

इक लौ क्यूं इस तरह बुझी मेरे मौला? साप्ताहिक संगीत चिट्ठाचर्चा

एक बार फिर मैं हाजिर हूं गीत संगीत के चिट्ठों की जानकारी लेकर!
मनीष भाई और उसके बाद तरुणजी के द्वारा पिछले दो शनिवारों को संगीत चिट्ठों की चर्चा किये जाने से थोड़ा बोझ हल्का हो गया, अब कोई एकाद मित्र और तैयार हो जायें तो मजा ही आ जाये।
आज सबसे पहले बात करते हैं निठल्ला उर्फ तरुण भाई के ब्लॉग गीत गाता चल पर पोस्ट किये गीत बड़े अच्छे लगते हैं की। स्व.किशोर दा के सुपुत्र अमितकुमार भले ही फिल्मों में अपने पिता की तरह ज्यादा सफल ना हों पाये हों पर "टैलेंट" की उन में भी कोई कमी नहीं, ये इस गीत को सुनने से साफ स्पष्‍ट हो जाता है। खासकर पहले और दूसरे पैरा की पहली लाईन जब वे गाते हैं हम तुम कितने पास हैं कितने... और तुम बिन सबको छोड़के चले कैसे जाओगी? इन लाईनों को बार बार सुनने का मन करता है। इस गीत में गीत के अलावा एक और चीज जो बहुत ही बहुत कमाल करती है वो है दो पैरा के बीच का पार्श्व संगीत, काश ऐसा कोई तरीका होता जिससे मैं आपको अपने मन का हाल बता सकता।

अफलातूनजी अपने ब्लॉग आगाज़ पर काजोल की मां का मजेदार गीत बजा रहे हैं, भाई साहब काजोल की माँ तनुजा बतौर गायिका बले ही इतनी प्रसिद्ध ना हो पर कम से कम इतनी अन्जानी भी नहीं कि उनका काजोल की मम्मी के नाम से परिचय देना पड़े। अपने जमाने में तनुजा खासी प्रसिद्ध अभिनेत्री रही हैं। ये बात अलग है कि गीत ना तो सलिल दा के स्तर का है ना ही कोई खास मधुर, हां काजोल की मां का गीत के नाम से एक बार सुना जरूर जा सकता है।
इस गीत को सुनवाने के तुरंत बाद की पोस्ट में अफलातूनजी एक बार फिर मधुर गीत ओ रसिया मोरे पिया छिन ले गयो रे जिया लेकर आये हैं। इस गीत की खास बात यह है कि इसके संगीतकार हृदयनाथ मंगेशकर हैं और आशा दीदी गायिका! जब भाई बहनों की जोड़ी मिलती है तब यकीनन मधुर गीत बनता है, भले ही लता- हृदयनाथ हो या लता- आशा हो या फिर इस गीत की तरह आशा- हृदयनाथ।

हिन्द युग्म के साज़-ओ-आवाज़ पर शिशिर पारखी, जगजीत सिंह की खूबसूरत गज़ल आपको देख कर देखते रह गया को अपनी आवाज में सुना रहे हैं, सुनने के बाद लगता है वाकई शिशिर की गायकी में दम है।
इसी चिट्ठे पर सुजॉय चटर्जी ने ओल्ड इज गोल्ड श्रंखला में मेरे बहुत पसंदीदा गीतों में से एक गीत तेरे सुर और मेरेगीत पोस्ट किया। ये गीत यकीनन सदाबहार है। इस गीत को शायद १०० साल बाद भी सुना जायेगा तो लताजी की आवाज, पं. वसंत देसाई का संगीत और भारत रत्‍न बिस्मिल्ला खां साहब की शहनाई को सुन कर सुनने वाला झूम उठेगा।
अब मैं जिस की पोस्ट के बारे में लिख रहा हूँ उसके बारे में पिछले हफ्ते तरुणजी लिख चुके हैं पर मैं भी लिखने से अपने आप को रोक नहीं पाया क्यों कि रचना ही ऐसी कमाल की है।
महेन मेहता जी अपने इस चिट्ठे पर सबसे बढ़िया रचनायें लेकर आते हैं, चिट्ठे का नाम हैप्रत्येक वाणी में महाकाव्य...!हालांकि मैने इस चिट्ठे पर शायद कभी टिप्प्पणी ना की हो पर मैं इस चिट्ठे को बहुत पसन्द करता हूँ। इसे सबसे बढ़िया संगीत चिट्ठा कहा जा सकता है।
महेन इस हफ्ते अपने ब्लॉग पर भारत रत्न स्व. एम एस सुब्बुलक्ष्मी जी का गाया हुआ भजगोविन्दम मूढमते ले कर आये हैं। लक्ष्मीजी की आवाज को सुनना हर समय एक दिव्य अनूभूति देता है। मेरे संग्रह में सुबुलक्ष्मीजी की तमिल फिल्म मीरा के गीत हैं, उसमें एक गीत यह भी है, संभव है कि भजगोविन्दम.... को मीरा फिल्म में शामिल किया हो।
एक शाम इनके नाम!
मनीष भाई बहुत मेहनत करते हैं साल भर के गीतों को सुनना और उन्हें वार्षिक गीतमाला के रुप में प्रस्तुत करना मामूली बात नहीं। इस हफ्ते आप वार्षिक संगीतमाला का सरताज गीत ले कर आये हैं। गीत फिल्म आमिर का है। भले ही खास कमाल ना दिखा पाई हो पर फिल्म के गीत बड़े ही लाजवाब हैं। मनीष ने इस गीत
इक लौ इस तरह क्यूँ बुझी मेरे मौला
गर्दिशों में रहती बहती गुजरती.
. को पहले स्थान पर रखा है।

अशोक जी के चिट्ठे सुखनसाज़ पर परवेज मेहदी की सुंदर आवाज में आपने यह गज़ल सुनी कि नहीं.. जिस शहर में भी रहना उकताये हुए रहना? आवाज की गुणवत्ता भले ही थोड़ी कमजोर हो पर गज़ल सुनने में आपको आनन्द जरूर आयेगा।

संगीत की कोई भाषा नहीं होती! गुप्‍ताजी के अंग्रेजी ब्लॉग Indian Raaga पर गुप्ताजी एक से एक लाजवाब चीजें लेकर आते हैं। ये भी उन चिट्ठों में से एक है जिसे "बुकमार्क" कर रखा जा सकता है।
इस हफ्ते की पोस्ट में Four Random Songs 2 आपके ब्लॉग पर उस्ताद राशिद खां के गाये राग जोगकौंस पर आधारित गीत पीर पराई जाने ना बालमवा, मलिकार्जुन मंसूर के गाये राग बिहारी पर आधारित रचना नींद ना आये...भारत रत्‍न पं. भीमसेन जोशी की आवाज में राग खमाज पर आधारित गीत पिया ना आये.. बजे! आहा! सुनकर ही आनन्द आ गया। इनकी इस पोस्ट में राग मालती बिहाग वाला गीत बज नहीं रहा।
गीतों की महफिल वाले जिसे सबसे आलसी ब्लॉगर का एवार्ड दिया जा सकता है, महीनों जिनके ब्लॉग पर वीरानी छाई रहती है इस हफ्ते अचानक तीन-तीन पोस्ट लेकर आये। अब जैसे आलसी वे खुद हैं शायद वैसे ही आलसी इस के पाठक निकले, तीन में से दो पोस्ट तो फ्लॉप रही! एक की तो बोहनी भी तब हुई जब अपने जीमेल के स्टेट्स पर आप लिख कर बैठे थे, धत्त बोहनी भी नहीं हुई!, तब कुछ मित्रों को दया आ गई और दो तीन टीप गये। :)
पहली पोस्ट में महफिल में राग हमीर के दो वीडियो दिखाये गये थे और पाठकों से पहेली के रूप में पूछा गया कि इस गीत पर आधारित कौनसा प्रसिद्ध गीत है, पोस्ट करने के पांचवे मिनिट में यह पहेली फुस्स हो गई क्यों कि सही जवाब नीरज रोहिल्ला ने दे दिया था।
दूसरी पोस्ट में सूरदास का एक भजन दीनन दुख: हरन देव संतन हितकारी था जो जगजीत सिंह और पी उन्नीकृष्णन की आवाजों में था, पता नहीं क्यों यह दिव्यस्वर में गाया हुआ दिव्य भजन पाठकों को पसन्द ही नहीं आया।
तीसरी और शायद आखिरी पोस्ट में एक जमाने की मशहूर फिल्म जोगन का एक दुर्लभ गीत था। जोगन फिल्म के गीत अक्सर रेडियो या टीवी पर सुनाई दे जाते हैं पर महफिल पर पोस्ट किया हुआ गीत बहुत कम सुनाई देता है। यह गीत था तलत महमुद की आवाज में सुन्दरता के सभी शिकारी... इस पोस्ट का भी हाल बुरा ही रहा।
तो आज की चर्चा खत्म हुई अगले शनिवार मनीष जी की बारी है और उससे अगले हफ्ते टीजे उर्फ निठल्ला उर्फ तरूण जोशीजी की।

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शनिवार, मार्च 28, 2009

व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है!

एक लाईना


  1. तेरी किताब की ऐसी तैसी करने के बाद :ही अब तुमसे निपटने की सोचूंगा

  2. क्यों मिटे भारत से पोलियो..... : कोई जरूरत नहीं बने रहन दो तमाम दूसरी कमियों की तरह

  3. लो भई हम भी बाबा बन गए - "ब्लॉग-बाबा" : दादी को किधर छोड़ आये?

  4. "मैंने सिर्फ और सिर्फ तुमसे मोहब्बत की है" :तुमने किस-किस से की है?

  5. लगता है, आप मुझे जेल भिजवाना चाहती हैं : कोई एतराज है क्या? हो आइये आजकल तो लोग गाजे-बाजे के साथ जा रहे हैं

  6. आ गया, आ गया, आ गया! गूगल एडसेंस आ गया!!: हजारवीं पोस्ट लिखते ही!

  7. व्यंग्य भी होता है एक तरह से विज्ञापन : लेकिन उसमें हमेशा पैसे नहीं मिलते

  8. कंप्यूटर पर हिंदी प्रयोग की बाधाएँ अतीत की बात:आपको पता ही है अतीत हमेशा सुहाना लगता है

  9. आडवानी का नया पैंतरा, अमेरिका का तरीका अपनाओ !!! : मतलब एक ठो ओबामा और एक ठो हिलेरीजी लाओ

  10. अपनी रचना इंटरनेट पर प्रकाशित करते-करवाते समय निम्न बातों का ध्यान रखें :बस ध्यान ही रखना है या अमल भी करना है?

  11. उम्र.....: छोटे पैकेट में बड़ा धमाका

  12. खच्चरीय कर्म-योग:में रमे ज्ञानजी

  13. यूँ ही :बता दिया बहुत सारा कुछ

  14. कल तक देशी गद्दारों में... : शामिल हैं अब सरदारों में

  15. हिजडा योनि में जन्म 001 : पर शास्त्रीजी बेचैन

  16. पोस्ट के आखिर में अपने हस्ताक्षर लगाए :अंगूठा टेक के लिये संभावनायें बतायें

  17. हवाई अडडों की रोचक दास्‍तान :हवाई यात्रा से पहले पढ़ लो भाई जान!

  18. मैंने कविता लिखी :मैंने पढ़ ली अब क्या करें?

  19. हंसना मना है : हम तो हंस लिये अब का करें?

  20. *किस करवट बैठेगी ब्लॉगिंग की दुनिया **! :अभी कहां बैठा रहे हो भाई ? अभी तो सरपट भागने दो!

  21. सजन रे झूठ मत बोलो ....... : झूठ तो हमें ही बोलने दो! तुम्हारे मुंह से अच्छा नहीं लगता

  22. ब्लोगरो क्या चाहते हो चुनाव मे तुम : बस कोई फ़ोकट में अप्रैल फ़ूल न बनाये

  23. मैं बेरोजगार हूं मुझे नौकरी दे दो :क्या फ़ायदा नौकरी तो फ़िर छूटनी ही है, बेरोजगारी स्थायी है!

  24. क्या आपको 25 करोड़ रुपये चाहिये?:का करेंगे? आठ करोड़ तो ससुर टैक्स में निकल जायेंगे!

  25. क्या आप कंजूस है ? समवेदना और सहानुभूति बॉटने मे ? :घबराइये नहीं हम पूछ रहे हैं, बता नहीं रहे!

  26. तुम्हारा और मेरा द्वंद्व: तो रोज का राजकाज है!

  27. हिंदी में तकनीकी सर्वे भी आने लग गये अब : एक और बवाल

  28. वह मूर्ख फिर नाच रहा है... : और खुश भी हो रहा है, कमाल है!

  29. चूमते हैं कभी लब को, कभी रुखसारों को तुम्हारे: जो मन आये करो लेकिन एक समय में एक काम करना

  30. अपने रक्त की जांच के समय ज़रा ध्यान रखियेगा : हमेशा डिस्पोजेबल सिरिंज से खून चुसवाना

  31. एड्सेन्स Today’s Earning – आपके हिन्दी ब्लॉग्स पर आज की कमाई : जीरो बटा सन्नाटा


और अंत में:



ब्लागजगत में विविधता काफ़ी आ रही है। इतनी कि लोग आपस में व्यंग्य-व्यंग्य खेलते रहते हैं लोगों को हवा नहीं लगती।
जबलपुर परसाई जी का शहर है। परसाई जी प्रख्यात व्यंग्यकार थे। उन्ही के शहर के ब्लागर आजकल दनादना व्यंग्य लिख रहे हैं। महेन्द्र मिश्रजी और गिरीश बिल्लौरे जी की व्यंग्य जुगलबंदी चल रही है। पहले इशारों-इशारों में हुआ और फ़िर आज मामला खुला खेल फ़र्रक्खाबादी हुआ।

व्यंग्य के इस स्तर को देखकर मैं अभिभूत हूं। परसाई जी होते तो न जाने क्या कहते? समीरजी पूर्वोत्तर में टहल रहे हैं। बवाल जी वाह-वाह कह ही चुके हैं।

ज्यादा दिन नहीं हुये जब जबलपुर के ब्लागर साथी विवेक सिंह द्वारा जबलपुर को डबलपुर कहने पर एकजुट होकर फ़िरंट हो लिये थे। फ़िर जबलपुर ब्लागर एकता के नारे लगाते हुये एक नाव पर सवार दिखे। लगता है नाव में छेद हो गया। नाविक फ़ूट लिये और नाव के हाल बेहाल हैं।

दूसरे के मामले में कुछ कहना अपनी सीमा का अतिक्रमण करना है लेकिन मैं यह कहना चाहूंगा कि जिसे भाई लोग व्यंग्य कहकर एक दूसरे की इशारों में छीछालेदर करने की को्शिश कर रहे हैं वह न व्यंग्य है न हास्य बस सिर्फ़ लेखन है। हास्यास्पद लेखन!

लिंक भले ही न दिये हों लेकिन जबलपुर ब्लागरों से परिचित लोगों के लिये मुश्किल कदापि नहीं है कि वे पोस्टों में किसके लिये क्या कहा गया है यह न कयास लगा सकें।

बहरहाल दूसरे के फ़टे में टांग अड़ाने की गुस्ताखी की माफ़ी चाहते हुये महेन्द्र मिश्र और गिरीश बिल्लौरे से अनुरोध करना चाहता हूं कि एक दूसरे की ऐसे खिंचाई करने की बजाय और बेहतर काम करें और अपनी क्षमताओं का सार्थक उपयोग करें।

परसाईजी ने व्यंग्य के बारे में अनेकानेक लेख लिखे हैं। उनमें एक है-व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है! देखिये व्यंग्य क्या होता है? इस कसौटी पर कसिये अपने लेखों को और आगे रियाज करिये।

किसी विकलांग को बैसाखी ब्लागर कहना और किसी ब्लागर को छोटा हाथी कहना और कुछ हो सकता है कम से कम मेरी समझ में व्यंग्य तो नहीं हो सकता।

संभव है मेरी समझ कम हो और लेखक लोग बेहतर समझते हों। लेकिन जैसा मुझे लगा मैंने लिखा। बाकी आप की मर्जा।

फ़िलहाल इत्ता ही कल सुबह सागर की चर्चा देखियेगा।

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एक और अनेकः महेन की बतियां

उन्मुक्त होने में जो आनंद है वो नियमित होने में नही, इसमें बंधन खुल से जाते हैं। फुरसतिया ने चर्चा से जाने पर अनियमित चर्चा करने की बात करी, लेकिन मेरा चर्चा छोड़ना किसी बंधन की वजह से नही था। उसकी वजह थी वक्त की कमी जिसके चलते चर्चा करने पर चिट्ठों के साथ न्याय नही हो पाता। अपनी पसंद के चार चिट्ठे पढ़ चर्चा करना कम से कम हमें गवारा नही था। इसलिये देर से ही सही हम अनियमित चर्चा करने आ पहुँचे लेकिन इस चर्चा का फार्मेट अन्य दिनों की चर्चा से बिल्कुल जुदा होगा। इसमें हम सिर्फ एक ही चिट्ठाकार की अलग अलग पोस्टों की चर्चा करेंगे उसके एक या अनेक चिट्ठों को पढ़कर। इसी क्रम में शुरूआत कर रहे हैं महेन की लिखी पोस्टों की बतिया से।

महेन कम लिखते हैं लेकिन जब भी लिखते हैं तो दिल से और ये बात उनके प्रोफाईल में अपने बारे में कही बात से पता चल जाती है। जब वो बताते हैं वो यहाँ काइकू -

ग़लत हैं वे जो कहते हैं कि परमानन्द मुक्ति से ही मिलता है। कील लगने के कुछ दिनों बाद जो खुजास होती है, उसमें भी परमानन्द होता है। शिशु के कुनमुनाते होठों में भी परमानन्द होता है और भोर में बाल सुखाती पड़ोस के शर्मा जी की आयुष्मती को आँखभर देख लेने में भी परमानन्द ढूँढा जा सकता है। परमानन्द तो परनिन्दा में भी होता है और परसाई की बात मानें तो परमानन्द उसे कहते हैं जब भक्त ईश्वर को ठग लेता है। ईश्वरीय सत्ता ने इस धरा पर हमें जो उपकरण दिये हैं उनमें से किसी में भी परमानन्द मिल सकता है। मुझे यह परमानन्द पीले पन्नों के काले-काले अक्षरों को बाँचने में बाकी चीज़ों की अपेक्षा ज़्यादा मिलता है।
वो मुख्य रूप से दो चिट्ठों पर अपनी कलम ज्यादा घिसते हैं, एक है हलंत और दूसरा प्रत्येक वाणी में महाकाव्य। हलंत में उनकी लेटेस्ट पोस्ट में वो नोस्टाल्जिया का नशा कुछ यूँ बयाँ करते हैं -

कभी किसी नये रास्ते से गुज़रते हुए पुरानी सी महक नासापुटों में पैठती है तो आदमी वहां पहुँच जाता है जहाँ से वह बहुत पहले गुज़र चुका है। एक छोटी सी तान से अकसर सालों का फासला तय करके वही क्षण वापस आ खडा होता है जिसे भुला दिया गया था या जिसे हम डायरी के पुराने पन्ने पर धूल फांकने के लिए छोड़ आये थे। बीते ज़माने में दोस्तों की टांगों का तकिया बनाकर नीमनशे में बुझती आखों के लैंपपोस्ट से पढ़ी कोई कविता दोबारा नज़रों के सामने गुज़र जाए तो यकायक वो भूले नाम दिमाग में धींगामुश्ती करने लगते हैं, जिनका इन बीच के सालों में कोई ज़िक्र ही नहीं उठा। कभी यूँ भी होता है कि इत्र या डेओ की महक से बरबस कोई याद आ जाता है जिसे भुलाना अपने आप में ताजमहल खड़ा कर लेने से कम नहीं रहा होगा। और तो और एक पुराना इश्तेहार अगर बजने लगता है तो अपने साथ जाने कितने वाकये ज़िन्दा कर देता है या रसोई में दाल में लगा तड़का भी लंबा सफर तय करा लाता है कई बार।


नोस्टाल्जिया कई तरह का होता है। याद के कई दरवाज़े होते हैं और याद कई सूत्रों से जुड़ी होती होगी, तभी तो कभी कभी बेतार की तार से कुछ अप्रत्याशित याद आ जाता है।
अब उनको और क्या क्या और किस तरह का नशा याद आया उसके लिये तो मयखाने ही जाना पड़ेगा, जाकर पढ़िये निराशा नही होगी।

लिखने में बहुत गैप रखने के कई नुकसान होते हैं, कई लोग ऊतार्ध पहले लिख देते हैं फिर उस लेख को शुरू करने की नौबत नही आती। और महेन जैसे लोग भी हैं जो पूर्वाध यूँ ही लिख देते हैं और फिर कई दिन बीत जाने पर बताते हैं कि

कुछ महीनों पहले यूँही कुछ लिखने का सोचा था जिसका यह पूर्वार्ध है। अब चूंकि बात पुरानी हो चुकी है और विचार बदल चुका है इसलिए इसे आगे बढ़ाने का कोई विचार नहीं।
अब आप लोग भी सोच रहे होंगे कि आखिर ये पूर्वाध कैसा था और किस बारे में था, तो जनाब ट्रैलर हम दिखा देते हैं, फिल्म वहीं थियेटर में जाकर देखिये। महेन का कहना था मुझपे तेरे ये भरम जाने कितने झूठे होंगे -

एक बार फिर देखा; वही पुरानी तस्वीरें, वही उलझी सी लिखावट वाले सलीके से तह किये हुए पत्र। वही लापरवाही से लिखे गहरे-हलके अक्षर। सब समेटकर बड़े से लिफ़ाफ़े में डाल दिये। बगल की फ़व्वारे की दुकान से लकड़ी के महंगे विंड-चाईम्स के खनकने की आवाज़ रह-रहकर गूँज उठती थी। छोटे-छोटे फव्वारों से पानी की अल्हड़ थिरकन उठकर माहौल को वैसे ही रोमांटिक बना रही थी जैसी पहले बनाया करती थी। उधर छोटे से रेस्तराँ में कोई बैरा को ऑमलेट के लिये आवाज़ लगा रहा था। सामने छोटे से मंच पर, जो आजतक अपनी पहली प्रस्तुति के लिये तरस रहा था, बड़ा सा मटमैला सफ़ेद पड़ा परदा लटक रहा था। उसके पीछे एक कोने से बेतरतीब पड़े लकड़ी के बेंच झाँक रहे थे, जिन्हें किसी ने यूँही निरुद्देश्य वहाँ छोड़ दिया था। उनपर धूल की इतनी मोटी परत जमी हुई थी कि लगता था जैसे वे बने ही मिट्टी से हों। मंच के बगल की दीवार पर गहरे हरे रंग की बेल पूरी चढ़कर अब छज्जी तक पहुँच चुकी थी।
महेन अकविता भी करते हैं, अब चूँकि अकविता हमारे विषय क्षेत्र से दूर की चीज है इसलिये कह तो नही सकते कि उन्होंने जो ये लिखी है वो किस काल के अंतर्गत आयेगी लेकिन हमें अच्छी लगी -

इससे तो बेहतर है
अनजान लोगों से बतियाया जाए कुछ भी
किताबों में घुसा लिया जाए सिर
एक के बाद एक चार-पांच फ़िल्में देख डाली जाएं
पूरी रात का सन्नाटा मिटाने के लिये
टके में जो साथ हो ले
ऐसी औरत के साथ काटी जाए दिल्ली की गुलाबी ठंडी शामें
गुलमोहर के ठूँठ के नीचे
या दोस्तों को बुला लिया जाए मौके-बेमौके दावत पर

तुम्हे प्यार करते रहना खुद से डरने जैसा है
और डर को भुलाने के लिये जो भी किया जाए सही है।

अब चलते हैं और कुछ नजर दौड़ाते हैं उनके दूसरे चिट्ठे वाणी में महाकाव्य पर, जहाँ लेटेस्ट पोस्ट पर वो आठवाँ सुर सुना रहे हैं। महेन उत्तराखंड से बिलोंग करते हैं इसलिये यदा कदा इस अंचल के गीत भी सुनाते रहते हैं। इसी क्रम में नरेन्द्र सिंह नेगी का शुरूआती दिनों में गाया गढ़वाली बोली का गीत सुना रहे हैं सौंणा का मेयना (सावन का महीना)। उनके इस चिट्ठे पर होने वाली पोस्टों से (या गीतों) से उनके चिट्ठे के नाम की सार्थकता बनी रहती है तभी तो गढ़वाली के अलावा वहाँ बांग्ला में भी गीत सुनने को मिलता है, मन्ना दे के स्वर में "आबार हाबेतो देखा"।

महेन ग्रुप चिट्ठाकारी भी करते हैं, कबाड़खाने के कबाड़ी तो हैं ही साथ ही साथ चित्रपट में सिक्के उछाल के चित और पट भी करते रहते हैं। चूँकि वो चित्रपट में ज्यादा सक्रिय हैं इसलिये अंत में यहाँ भी नजर डालते चलते हैं।

ताजा ताजा पोस्ट के रूप में वो फिराक देखने की सिफारिश करते हैं लेकिन आवेश में थोड़ा सा गड़बड़ा जाते हैं - फिराक जरूर देखी जाना चाहिए। फिर संभल के सबसे पहले पेश करते हैं मंगलेश डबराल की कविता गुजरात के मृतक का बयान का एक अंश -

मेरी औरत मुझसे पहले ही जला दी गई
वह मुझे बचाने के लिए खड़ी थी मेरे आगे
और मेरे बच्चों का मारा जाना तो पता ही नहीं चला
वे इतने छोटे थे उनकी कोई चीख भी सुनाई नहीं दी
मेरे हाथों में जो हुनर था पता नहीं उसका क्या हुआ
वे अब सिर्फ जले हुए ढांचे हैं एक जली हुई देह पर चिपके हुए
........
मेरे जीवित होने का कोई बड़ा मकसद नहीं था
और मुझे मारा गया इस तरह जैसे मुझे मारना कोई बड़ा मकसद हो...
हर आदमी (और औरत) का अपना अपना नजरिया होता है और वो हर बात को अपनी नजर से ही देखता है परखता है लेकिन जरूरी नही कि सच उतना ही हो। जैसे कि मेरा मानना है कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, फिराक में तस्वीर का सिर्फ एक पहलू ही पेश किया गया, और ये मेरी नजर है, मैं ऐसा सोचता हूँ। भगत सिंह पर हम फिल्म बनायेंगे तो वो उसमें क्रांतिकारी होंगे लेकिन अगर ब्रिटिशर फिल्म बनाने की सोचें तो वो अलग तरीके से पेश करेंगे। बहराल महेन फिराक के बारे में बताते हुए लिखते हैं -

एक ऐसे समय में जब एक साझा विरासत में सांप्रदायिक दंगों और तनावों के बीच मानवीय रिश्ते लगातार दरक रहे हों और उनमें दूरियां बढ़ रही हों, लोगों को मारा जाना एक मकसद में बदल गया हो, दंगों की खौफनाक यादें पीछा करती हई वर्तमान जीवन को तनावग्रस्त बनाए रखती हों, आशंकाएं और भय हर किसी की दहलीज और खिड़कियों पर घात लगाएं बैठे हों तब हिंसा के खिलाफ एक फिल्म इस मकसद से बनाई जाती है कि वह यह बता सके कि हिंसा का असर कहां-कहां और किन स्तरों पर लोगों का जीवन तबाह कर देता है। इस तरह यह हिंसा के खिलाफ कलात्मक ढंस से आवाज उठाती है। फिल्म फिराक यही संदेश देती है।
सांप्रदायिकता पर बनी जिस फिल्म ने मुझे काफी प्रभावित किया था वो थी पंकज कपूर अभिनीत धर्म, अगर आपने अभी तक नही देखी है तो जरुर देखियेगा। मुझे कोई ताज्जुब नही उसको किसी पुरस्कार के लायक नही समझा गया।

इससे लगभग एक महीने पहले लिखी पोस्ट में महेन उस शख्स को ढूँढने की कोशिश करते हैं जो खो चुका है, बात करते हैं दादासाहेब फाल्के की। लिखते हैं -

एकमात्र व्यक्ति जिसे शायद दादासाहेब की महत्ता मालूम थी, प्रभात फिल्म्स के शांतारामबाबु, उन्हें मंच तक भी ले गए और सिनेमा जगत से आग्रह किया कि नासिक में उनके रहने की व्यवस्था के लिए धन दें। अंततः शांतारामबाबु ने ही इस राशि का बड़ा हिस्सा दिया। वहीं नासिक में छ: साल बाद दादासाहेब की मृत्यु अकेलेपन और उपेक्षा में हुई। १९३८ में ही जब सिनेमा-जगत भारतीय-सिनेमा के पितामह को भुला चुका था तो एक फिल्म-पत्रिका को उनका पता मिला और पत्रिका ने उन्हें एक इंटरव्यू करने का आग्रह किया, जिसके जवाब में उन्होंने लिखा, "जिस सिनेमा-जगत को भारत में मैंने जन्म दिया, जब उसी ने मुझे भुला दिया तो आप भी भुला दें।"
भारतीय फिल्म उधोग और फैन हमेशा से स्टार को ज्यादा महत्व देते आये हैं कलाकार को नही वरना अगर कला से ही आंका जाता तो मेरा मानना है शाहरूख आज उस मुकाम में नही होते जहाँ वो आज हैं। महेन दादा साहेब के बारे में आगे लिखते हैं -

आज जो सिनेमा-जगत का हाल है, उसकी नींव संभवतः उसी दौर में पड़ चुकी थी। दादासाहेब की ही तरह भारत भूषण, ललिता पवार और ओमप्रकाश आदि भी भुला दिए गए और इन सभी ने बड़ी कठिनाइयों में अपने आखरी दिन गुज़ारे। "आउट ऑफ़ साइट, आउट ऑफ़ माइंड" फिल्म-जगत में शुरू से चलता आया है। किसी फिल्म-लेखक के संस्मरण में कहीं पढ़ा था कि दादासाहेब को एक सेठनुमा फिल्म-निर्माता के स्टूडियो के बाहर बदहाल देखा गया था और वे उस फिल्म-निर्माता से बात करने की कोशिश कर रहे थे।
संभवतः यही हाल इस हिंदी ब्लोग जगत का भी है, ये और ऐसे ही कई पोस्ट पर मिली टिप्पणियाँ मेरी इस बात की हमेशा गवाही देती रहेगी। ये एक ऐसा लेख है जिसे हर किसी को पढ़ना चाहिये क्योंकि बहुत मुश्किल है इतनी डिटेल में फिर कहीं दादा साहेब के बारे में पढ़ने को मिले।

लेकिन दादा साहेब और उनके जैसे कई अन्य कलाकार मसलन भगवान दादा, भारत भूषण की कहानी ये सीख भी देती है कि अपने काम में माहिर होने के अलावा थोड़ी बहुत दुनियादारी की समझ भी होनी चाहिये।

उनकी बतियों को विराम देते हलंत पर लिखी उनकी पहली पोस्ट से, जो बकौल महेन अकविता है, पेड़ और मैं -

मैंने नहीं देखा
अपने घर के आगे खड़ा वह पेड़
उसमें किस रंग के फूल खिलते हैं
क्या मालूम
कौन जाने वह
कब रहा होगा ठूंठ

एक सुंदर सा घोंसला बनाया है
उसमें गौरैया ने
कहता है मेरा बेटा
कितनी मेहनत लगी गौरैया की
मैंने नहीं लगाया हिसाब
फल गिरते हैं उसके हर साल
मेरे आँगन में
मेरे पास नहीं है वक्त
उन्हें समेटने का

इसे कटवा देंगे
कहती है मेरी बीवी
इससे भर जाता है आँगन में कूड़ा
दिनरात शोर मचाती हैं
इसपर डेरा डाले चिडियां
और इसकी जड़ें खतरा भी तो हैं
घर की नींव के लिए
मैं हिला देता हूँ हामी में सिर
जैसे पेड़ हिलता है हवा में
और डूब जाता हूँ अपने काम में

आने वाले संकट से बेख़बर
पेड़ और मैं
खुश हैं
और हरे भरे हैं अभी तक।

तो ये थी एक और अनेक में हमारी पहली अनियमितता के तहत महेन की बतियाँ, कोशिश यही रहेगी कि हर सप्ताहांत में ऐसे ही किसी एक ब्लोगर और सिर्फ उसकी बतियों की चर्चा की जाय और ये शुक्रवार से सोमवार के बीच कभी भी हो सकता है।

अब हमें दीजिये ईजाजत अगली बार फिर मुलाकात होगी, नियमित चर्चा के तहत गीत-संगीत की पोस्टों की चर्चा लेकर सागर भाईसा पीछे पीछे आ ही रहे हैं। आप लोगों के दिन मजे में बीते और रातें आराम से, मुस्कुराते रहें खिलखिलाते रहें।

-- तरूण, (उनके लिये जो इस दौरान हमें शायद भूल चुके हों)

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शुक्रवार, मार्च 27, 2009

कलमबंद , लामबंद , कामबंद : ब्लॉगिग शुरू


प्रमोद जी की पोस्ट आज ब्लॉगवाणी पर दूसरे स्थान पर सजी हुई है ! उन्हें जबजब भी पढती हूं आंखों के आगे उनके खींचे चित्रों को उतारने की कोशिश करती हूं ! वे गूढ लिखते हैं एक बार में पकड में न आने वाला ! आसानी से साधारणीकृत न होने वाला ! उनके भीतर का चिट्ठाकार कवि , चित्रकार एक साथ है ! वह जीवन का खोजी , दार्शनिक ,चिंतक जैसी कोई शख्सियत है जिसे पहचान पाना समझ पाना सहज नहीं है ! कई बार लगता है कि उनका लिखा एक बार में हाथ नहीं आया दोबारा - तिबारा पढते हुए अर्थ के कई- कई लेयर दिखते हैं ओझल होते हैं ! भाव, कल्पना , यथार्थ , इतिहास वर्तमान और भविष्य - एक ही साथ एक पोस्ट में अपने रेशे परस्पर उलझाए हुए ! एक उत्कृष्ट कोलाज या एक मार्डन कलाकृति ! उनकी आज की पोस्ट स्टिल लाइफ पढकर आप स्वयं जानिए -

घोड़े घोड़े होंगे इशारा पाते ही दौड़ने लगेंगे, क्‍योंकि वही किया होगा उन्‍होंने उम्रभर, इशारों की राह तकते दौड़ने की थोड़ी सी ज़मीनों की पहचान करते, उनपर अपनी दुलकियों की पिटी हुई चार बाई चार और सात गुणे तीन की मापवाले कलमकारी सजा आने की सिद्धहस्‍तता को कलमबंद करते. इस पहचानी हुई ज्‍यूगराफ़ि‍या की कलामंदी से बाहर मन और दिमाग़ की सारी अलामतें घोड़ों के लिए दुनिया में कृषि के अविष्‍कार से पहले का ‘हंटर-गेदरर्स’ का पथरीला घिसा संसार होगा, माने अभी हाल अट्ठाहरवीं सदी तक का किसानी से वंचित ऑस्‍ट्रेलिया होगा. कागज़ पर सुघड़ लिखायी की उसमें कला न होगी, सारंगी की मार्मिकताओं की उसमें रुला न होगी, घोड़ा अदद घोड़ा बना होगा, अपनी ‘ये है रेशमी जुल्‍फ़ों का अंधेरा’ की ऐंठ में घना सरपट-सरपट, माने तलछट की पानियों में महज़ आयतन का घना हो

प्रमोद जी के लेखन में एक पोस्टकार और एक साहित्यकार एक साथ क्रियाशील रहता है !उनकी महीन बुनावट वाली ब्लॉगिंग के लिए खास सब्र, बौद्धिक सक्रियता और गहरी संवेदना की दरकार होती है ! उनकी पोस्ट पर तनु शर्मा जोशी जी टिप्पणी करती हैं -

जब भी लिखते हैं...बहुत गूढ़ लिखते हैं...कई बार मैं समझ नहीं पाती हूं...लेकिन समझने की समझदारी करती रहती हूं..यूं ही नहीं छोड़ना चाहती...इस गहरे अर्थ को...कई बार यूंही हंस-हंस के पागल हो जाती हूं...पढ़ती हूं बारंबार...हंसते भी...समझते भी...और कई बार उदास भी हो जाती हूं.

इसपर प्रमोद जी का जवाब देते हैं -

@तनुजी शर्माजी जोशीजी,
खामख़्वाह भाव दे रही हैं. बहुत क्‍या, गूढ़ जैसा भी कुछ नहीं होता.. और होता है तो उतना ही होता है जैसे ज़ि‍न्‍दगी होती है. समझ में नहीं आता तो इसलिए कि लिखते-लिखते मैं भी समझ बनाने की कोशिश ही करता रहता हूं, सब जाने रहने की गुरुवायी नहीं.. आप आकर पढ़ जाती हैं, इसका शुक्रिया.

यहाँ लिखते लिखते समझ बनाना ,खुद और दुनिया को आडे तिरछे एंगिलों से तलाशना –परखना परंपरा की लीक से हटकर  लेखन चिट्ठाकारी की खासियत है जिसे हिंदी ब्लॉगिंग का यू. एस .पी कहा जा सकता है ,प्रमोद जी के ब्लॉग पर सबसे ज़्यादा दिखाई देता है ! वे सबसे अधिक समर्पित हैं प्रयोगशीलता को ! एक समय में उनके द्वारा चलाया गया पतनशील साहित्य का टैग ब्लॉग जगत का सबसे ज़्यादा इलास्टिसिटी वाले और संभावनापूर्ण शब्द के रूप में इस्तेमाल हुआ था ! प्रमोद जी की रचनात्मकता और प्रयोगशीलता के लिए समर्पण भावना और और उसका चुपचाप चलते रहना वाला प्रयास सराहनीय है ! उनका ब्लॉग "अजदक " , ब्लॉग जगत को उथलों , भडासियों ,और खाजखायों के लेबल से मुक्ति दिलवाने वाले श्रेष्ठ ब्लॉगों में से एक है !

आज नारी ब्लॉग के जन्मदिवस के मौके पर बधाईयों का तांता लगा हुआ है ! आपने न दी हो दे आएं ! मेरी ओर से भी ढेरों शुभकामनाएं ! नैनो से नैन मटक्का वाली कई पोस्टों की भीड कई दिनों से हिट लिस्ट में दिख रही हैं ! नैनो के बाजार में आने भर से ब्लॉगर इतने शुख हैं तो उसके घर मॆं आ जाने की खुशी क्या होगी ! ऎसे दीवानेपन में शेफाली पांडे की कविता आंखॆ खोलती है

पैर रखने की यहाँ जगह नहीं
पैदल चलने में होती टक्कर
जाम में पैदा होते बच्चे
मौत भी होती जाम में फंसकर

सिग्नल में ही पौ फटती है
सिग्नल में ही गुज़रे शाम
ऐसे देश में नैनो प्यारी 
बोलो तुम्हारा है क्या काम

परिकल्पना ब्लॉग पर बहुत अच्छी व्यंग्य करती कविता "इलेक्सन के घाट पर भई नेतन की भीड " अवश्य पढिए ! आधुनिक श्रवण कुमार की कथा की चर्चा करते हुए एक गंभीर सामाजिक मसले को घुघूती जी उठाया है ! अपनी से दुगुनी उम्र की स्त्री से विवाह करने वाले मातृप्रेमी युवक की कहानी से हमारी सामाजिक व्यवस्था पर कई सवाल उठते हैं !

-आज के वन लाइनर

कसम तोड देता मैं  तोड डालिए इसमें हमें क्या बताना

लोकतंत्र पुख्ता होता जाएगा पुख्ता पुख्ता पुख्ता आपको अगर इतना ही विश्वास था तो तीन तीन बार पुख्ताने की का जरूरत थी ?

जवाब चाहिए ब्लॉगिंग बेमकसद का काम है या कुछ और  पहले ई बताओ सच- सच बतलाना है या कि आपका दिल बहलाना है ?

सामने उनके जुबां ये कुछ भी नहीं कह पाती ज़ुबा नहीं खुलती तो इशारों के काम लीजिए :)

मौका है तो बदल डालो अब नहीं तो कब पहले आप , पहले आप !

उफ मुक्केबाज नहीं बल्कि कवि होना  हाउ ट्रेजिक ! ईश्वर आपको हौसला दे !!

इस दलदल में प्रेम क्रीडा करो प्रिये   डर्टी जाब्स

आज का चित्र बामुलाहिजा से

[cartoon02.JPG]

आप सब का शुक्रिया ! शुक्रिया कि आपने ढेर सारी पोस्टें लिखीं ! शुक्रिया कि आपने ये चिट्ठाचर्चा पढी/देखी ! शुक्रिया ( ऎडवांस में )कि आपने टिप्पणी करी !

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गुरुवार, मार्च 26, 2009

कसम को तोड़ देता मैं : लेकिन शरीर कमज़ोर टाइप लग रहा है आज

चुनाव आने वाले हैं. आने वाले क्या, आ गए हैं. हमारे सर पर खड़े हैं. खड़े क्या, बैठने के लिए तैयार हैं. चुनाव बैठने के लिए तैयार होते हैं तो नेता खड़ा हो जाता है. खड़े-खड़े बोर होता है तो दौड़ने लगता है. लोकतंत्र की रक्षा के लिए दौड़-भाग ज़रूरी हो जाती है. लोकतंत्र का महोत्सव समाप्त होता है तो दौड़ बंद हो जाती है. खुरचन के रूप में जो बच जाता है, वह होता है, भाग.

नेता भागने लगता है. भागता है अपने कर्तव्यों से. अपनों से. वोटर से. देश से. जनता के हिस्से में भी भाग ही बचता है. जनता अपने भाग को 'रोटी' है. अब देखिये न, टाइप करना चाहता था रोती लेकिन ट्रांसलिटरेट ने जिस शब्द की उत्पत्ति की वह है रोटी. बड़ा अंतर है रोती और रोटी में लेकिन यह बात ट्रांसलिटरेट जी को नहीं न बुझायेगा.

खैर, चलिए चर्चा शुरू करते हैं. बात हो रही थी चुनावों की. चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण किरदार है नेता. उसके बाद जनता. इन दोनों से जितनी किरदारी बचती है वो मीडिया अपने कब्जे में ले लेता है और जेब के हवाले कर देता है. हवाला की बात पर......

खैर जाने दीजिये. हरि अनंत हरी कथा अनंता, इनसे बढ़िया संता-बंता.

हाँ तो मीडिया जब नेता और जनता से बची किरदारी की खुरचन को अपने जेब के हवाले करता है तब नए-नए बिम्ब सामने आते हैं. आज संगीता जी ने पत्र-पत्रिकाओं के हवाले से बताया कि नेता अन्धविश्वासी होते जा रहे हैं. नेताओं का अन्धविश्वास किन-किन बातों को लेकर है?

पता नहीं. लेकिन मुझे तो यही लगता है कि नेताओं का अन्धविश्वास वोटर की वजह से है. वोटर के अंधेपन पर बहुत विश्वास है नेता जी को. वे इतने विश्वास से भरे रहते हैं कि कुछ भी बोल सकते हैं. कर सकते हैं. प्लान बना सकते हैं. क्यों? क्योंकि उन्हें वोटर के अंधेपण पर विश्वास है. शायद इसी को नेता का अंधविश्वास माना जाता है.खैर, आते हैं संगीता जी के लेख पर. वे लिखती हैं;


"पत्र पत्रिकाओं में पढ़ने को मिला कि भारत के अधिकांश नेता अन्धविश्वासी होते जा रहे हैं, जिन्हें देखकर वैज्ञानिकों को बहुत चिंता हो रही है. वैज्ञानिकों के अनुसार वे समाज को जो सन्देश दे रहे हैं, उससे समाज के अन्य लोगों के भी अन्धविश्वासी हो जाने की संभावना है."

अगर वैज्ञानिक जी नेता को देखकर चिंतित हो लें तो हमें समझ लेना चाहिए कि ऐसी चिंता व्यक्त करते समय वे विद्वत्ता के ऐशगाह की सैर कर रहे होंगे. मैं पूछता हूँ, जनता को देखकर चिंतित क्यों नहीं होते ये वैज्ञानिक? जनता का अन्धविश्वास जनता को कहाँ लिए जा रहा है? ऊपर से तुर्रा यह कि नेता के अन्धविश्वास को देखकर जनता अन्धविश्वासी हो जायेगी.

प्रभो, आप जब कल्पना-परिकल्पना वगैरह में डूबते-उतराते हैं, तो उस समय क्या मंगलग्रह की यात्रा पर निकल जाते हैं? कौन से नेता से जनता प्रभावित हो रही है आजकल? जब भी प्रभावित होती है, गाली फेंक कर मारती है. गाली की मार खाकर नेता का एपीडर्मिश और मोटा हो जाता है. उसका उत्साह दोगुना हो जाता है.

वैज्ञानिकों की यह बात जब संगीता जी ने पढीं तो उन्हें अचम्भा हुआ. वे आगे लिखती हैं;

"मैंने पढ़ा तो अचम्भा हुआ, नेता और अन्धविश्वासी? अरे अन्धविश्वास तो गरीबों, निरीहों और असहायों का विश्वास है जो उन्हें जीने की शक्ति देता है.......इनकी तुलना नेताओं से की जा सकती है?"

कैसे की जा सकती है. कहाँ नेता और गरीब?

आप संगीता जी का यह लेख पढिये और जानिए कि गरीब, निरीह टाइप के लोग नेता क्यों नहीं बन पाते? क्योंकि वे असली अन्धविश्वासी हैं न. नेता तो नकली अन्धविश्वासी है.

चुनाव जनप्रतिनिधियों से क्या-क्या करवाता है? काम-वाम की बात जाने दीजिये, जो सबसे पहला काम करवाता है वह है आचार संहिता का उल्लंघन. कानून का उल्लंघन.

असल में देखा जाय तो कई उल्लंघन का मिश्रण ही लोकतंत्र की सृष्टि करता है. आज फुरसतिया जी ने जनप्रतिनिधियों की व्यथा-कथा पर प्रकाश डाला है. वे लिखते हैं;


"जनप्रतिनिधि बेचारा कुछ भी करता है करने के बाद पता चलता है यह काम तो आचार संहिता के खिलाफ़ था। पैसा बांटो तो आफ़त, गाली दो तो आफ़त, धमकाओ तो आफ़त, दूसरे धर्म की निन्दा करो तो आफ़त, गुंडे लगाओ तो आफ़त, बूथ कैप्चर करो तो आफ़त, राहत कार्य करो तो आफ़त। मतलब चुनाव जीतना का कॊई काम करो तो आफ़त। जनप्रतिनिधि को खुल के खेलने ही नहीं दिया जाता। कैसे लड़े वो चुनाव!"

सही बात है. केवल चुनाव के समय जनप्रतिनिधि खुलकर नहीं खेल पाता. एक बार चुनाव ख़तम तो ऐसे खुलकर खेलता है जैसे सेंचुरी मारने बाद सचिन खुल जाते हैं. और चार साल पूरा होने पर तो क्रॉस बैट स्ट्रोक मारता है. डील-वील पास करवाता है. फिर बंद होकर खेलते हुए चुनाव लड़ता है.

फुरसतिया जी आगे लिखते हैं;

"चुनाव आयोग और जनप्रतिनिधि के बीच वैचारिक मतभेद भी एक लफ़ड़ा है। चुनाव योग मानता है कि जो जनप्रतिनिधि चुनाव जीते बिना गड़बड़ तरीक अपनाता है वो चुनाव जीतने के बाद क्या करेगा? और गड़बड़। वहीं जनप्रतिनिधि मानता है कि जनता समझती होगी कि जो जनप्रतिनिधि चुनाव के पहले हमारे लिये पैसा खर्चा नहीं कर सकता वो बाद में क्या करेगा? "

सबको अपनी-अपनी तरह से सोचने का अधिकार है. यही असली लोकतंत्र की नींव है. चुनाव, संसद, मंत्री, प्रधानमंत्री वगैरह तो दीवार टाइप होते हैं.

आचार संहिता के उल्लंघन को लेकर चुनाव आयोग द्बारा दी गई नोटिस का जवाब जनप्रतिनिधि अलग-अलग बहाने बनाकर दे सकता है. जैसे;

"हम अपने वोटरों को शिक्षित कर रहे थे। उनके वोट की कीमत समझा रहे थे। वो मान ही नहीं रहे थ कि उनके वोट की कोई कीमत भी होती है। फ़िर हमने बताया कि वोट की ये कीमत ये होती है। ये तो बयाना है। बाकी बाद में मिलेगा। तो साहब हम तो जनता को जागरूक कर रहे थे। उनको उनके अधिकार के महत्व के बारे में बता रहे थे।"

और भी बहाने बताये हैं फुरसतिया जी ने. सारे बहाने तो आप उन्ही के ब्लॉग पर जाकर पढिये. वे तो और बहाने बताने के लिए तैयार थे लेकिन आफिस टाइम ने बीच में भाजी मार दी. वैसे आशा है कि उनकी पोस्ट पढ़कर कई राजनीतिक पार्टियाँ उन्हें और बहाने लिखने के लिए अप्लिकेशन भेज सकती हैं. ऐसे में लोकतंत्र को मजबूती मिलने के पूरे आसार हैं.

आचार संहिता का उल्लंघन अकेला नेता करे तो वह खबर होती है. लेकिन अगर पूरी सरकार ही अचार संहिता का उल्लंघन करे तो? तो उसे अचार संहिता का उल्लंघन नहीं बल्कि अधिसूचना कहते हैं.
अनिल रघुराज जी ने आज लिखा है;

"पांच एकड़ से ज्यादा जोत वाले इन किसानों को बकाया कर्ज की पहली किश्त 30
सितंबर 2008 तक, दूसरी किश्त 31 मार्च 2009 तक और तीसरी किश्त 30 जून 2009 तक
चुकानी है। लेकिन रिजर्व बैंक ने दूसरी किश्त की अंतिम तिथि से आठ दिन पहले सोमवार को अधिसूचना जारी कर पहली किश्त को भी अदा करने की तिथि बढ़ाकर 31 मार्च 2009 कर दी है। दिलचस्प बात यह है कि रिजर्व बैंक के मुताबिक तिथि को आगे बढ़ाने का फैसला भारत सरकार का है। जाहिर है, इससे सीधे-सीधे देश के उन सारे बड़े किसानों को फायदा मिलेगा, जिन्होंने अभी तक पहली किश्त नहीं जमा की है।"

यह तो अच्छी बात है न. केंद्र सरकार किसानों को फायदा पहुंचाना चाहती है. ऐसे में अचार संहिता का उल्लंघन हो जाए तो कोई खराबी नहीं है. अकेला नेता कितने दिनों तक उल्लंघन करता फिरेगा. थक जायेगा बेचारा. उसकी थकान की भरपाई सामूहिक उल्लंघन करके की जा सके तो अच्छा रहेगा. केंद्र सरकार वही कर रही है.

अनिल जी की इस पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए पाबला जी ने लिखा;

"कमाल है."

उनकी टिप्पणी पढ़कर लगा जैसे कोई जादूगर कुछ अद्भुत सा जादू दिखा देता है तो हमसब कह उठते हैं, "कमाल है!", वैसे ही केंद्र सरकार जादू दिखा रही है और पाबला जी आश्चर्य के साथ कह रहे हैं, "कमाल है."

जहाँ पाबला जी को यह अधिसूचना कमाल की लगी, वहीँ संगीता पूरी जी को इससे आश्चर्य हुआ. उन्होंने अपनी टिप्पणी में लिखा;

"आश्‍चर्य है ..."

इस तरह की बातें अगर हमारे अन्दर अभी भी आश्चर्य पैदा करती हैं तो हम यही कहेंगे कि अभी बहुत आश्चर्य करना बाकी है. भविष्य में हम ऐसे ही आश्चर्यचकित होते रहेंगे.

जहाँ सब तरफ चुनाव, नेता, अचार संहिता वगैरह की बातें हो रही हैं, वहीँ धीरू सिंह जी कहते हैं;

"कश्मीर में हो रहे शहीद सैनिकों को भी तो याद कर लो मेरे साथियों."

धीरू सिंह यह आह्वान करते हुए लिखते हैं;

"मुंबई का हमला तो हम को हिला देता है लेकिन कश्मीर पर अघोषित युद्ध हमें आंदोलित
नही कर रहा है न जाने क्यों ? कितने जावांज सैनिक शहीदहो गए उनके बारे मे कोई मोमबत्ती नही जल रही ।"

सैनिक तो सैनिक होता है. सैनिक ब्राह्मण, क्षत्रिय, दलित, सूचित, अधिसूचित.....नहीं होता. सैनिक वोटबैंक भी नहीं होता. ऐसे में सैनिक महत्वपूर्ण है या वोट?

ताल, तालाब वगैरह का सूख जाना बड़ा कष्टदायक होता है. भोपाल के बड़े ताल को ही ले लीजिये. बड़ा ताल सूख रहा है. धीरे-धीरे मैदान में परिवर्तित होने की कगार पर है. ऊपर से सूरज इतना निर्दयी कि तपिश बढ़कार उसे मैदान में तब्दील कर देना चाहता है.

प्रशासन ने इसे गहरा करने के कदम उठाये. प्रशासन का यह कदम कहाँ-कहाँ पड़ा उसके बारे में बताते हुए आज सरीता जी कथाकार युगेश शर्मा की एक लघुकथा प्रस्तुत की है. कथा का अंश पढिये. वे लिखते हैं;

"वातानुकूलित कार से नीचे पैर ना रखने वाले दर्ज़न भर आभिजात्य जन तालाब के हरीकरण के लिये जमा थे । औरों की तरह वे भी विशिष्ट अतिथि का इंतज़ार कर रहे थे । सुबह की ताज़गी भरी ठंडी हवाएँ भी इन लोगों को पसीने से निजात दिलाने में नाकाम थीं । नर्म आयातित तौलिये माथे से चू रहा पसीना नहीं सोख पा रहे थे । अतिथि आगमन में हो रही देरी ने उनकी बेचैनी को बदहवासी में बदल दिया।"

आप यह कथा ज़रूर पढिये. पता चलेगा कि सभ्यता के अवसान में केवल प्रशासन की भूमिका नहीं है. और भी बहुत से लोग अपनी भागीदारी करते हैं.

अब गुरुदेव फुरसतिया जी के आशीर्वाद से कुछ एक लाइना...
०१. सामने उनके जुबाँ ये, कुछ भी कह पाती नहीं : गर नहीं वे सामने तो चुप भी रह पाती नहीं.
०२. कसम को तोड़ देता मैं : लेकिन शरीर कमज़ोर टाइप लग रहा है आज.
०३. चुनाव आचार संहिता क्या है : यह जानने के लिए कमीशन की रिपोर्ट आने तक इंतज़ार करें.
०४. दवा पी ली थी क्या? : क्या करता, प्यास बहुत जोर की लगी थी.
०५. कल्याण को लेकर अमर सिंह को कवच की तलाश : एसटीऍफ़ को तलाशी के लिए लगाया गया.
०६. ग्रामीण भारत के उत्थान का मन्त्र : फूंक डालो.
०७. सूखी अमराईयों में : कोयल प्यासी है.
०८. इश्क और कॉफी : दोनों घुल गए.
०९. जनप्रतिनिधि और आचार संहिता : एक-दूसरे को खोज रहे हैं.
१०. सस्ती सब्जी की तलाश में सुपरमैन : अन्टार्कटिका पहुंचा.
११. पानी नहीं तो वोट नहीं : रहीम त कहे रहे कि कि पानी नहीं तो इज्ज़त नहीं.
१२. आज की कारस्तानियाँ : एक दो नहीं...पूरे नौ दो ग्यारह.
१३. सारे कैमरे जा रहे हैं दूसरे युद्धों की तरफ : एक भी होता तो गृहयुद्ध की फोटो खींच लेता.
१४. शुक्र है : शनीचर कल आएगा.
१५. उनसे मिलने से पहले : अपने हाथ धो ले विजय.
१६. एक अन्तरिक्ष यात्री का चिट्ठा : एक वैज्ञानिक के पास से बरामद.
१७. मंजिल की विसात ही क्या : जब चाहेंगे ढहा देंगे.
१८. पहेली - बताईये आज कौन सा दिवस है : चिट्ठादिवस.
१९. खुशबुओं का डेरा है : तुम भी आकर यहीं टिक जाओ.
२०. हम गायत्री माँ के बेटे तुम्हें जगाने आये हैं : कितनी देर और सोओगे?

आज के लिए बस इतना ही.

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बुधवार, मार्च 25, 2009

बिना ऊंट के रेगिस्तान मुकम्मल नहीं होता

कल रात को पोस्ट लिखी। अब सुबह-सुबह फ़िर बोर करना क्या ठीक होगा। लेकिन हम कहे भी थे कि कल मुलाकात होगी। वादा किया है वो निभाना पड़ेगा इसलिये लिख ही देते हैं। जो होगा देखा जायेगा।

आप ब्लाग क्यों लिखते हैं? जबाब आप सोचें लेकिन हम यह नहीं कह रहे हैं कि आप हमें बतायें ही। हम तो आपको विकास की बात बता रहे हैं जो कहते हैं-
कविता लिखना क्या है? कहानी लिखने का क्या प्रयोजन? क्या जो मैं लिखता हूँ उससे किसी का कुछ भी भला हुआ है आजतक? मेरा भी? फिर मैं क्यूँ लिखता हूँ? फिर इतने सारे लोग क्यूँ लिखते हैं? क्यूँ लिखते रहे आज तक? कब तक लिखते रहेंगे? रोज सुनता हूँ की १५ नए हिन्दी ब्लॉग बन गए - इतना लेखन क्या भी पढा जा सकेगा? जो पढा नही जा सके, उसे क्यूँ लिखना? इतने सारे विचार हैं - उनका क्या करें? लिख फेकें? 'लिख फेंकना' क्या सही प्रयोग है? क्या आजकल हर कोई अपना विचार फेंकने को लिखता है?

आप शायद सोच में पड़ गये कि आप क्यों लिखते हैं। आगे विकास कहते हैं-
कोई अंग्रेज़ी में कह रहा था कि "पीपुल दीज़ डेज़ यूज़ दियर ब्लॉग एज इमोशनल डस्टबीन"। तो क्या हम भी एक कचरे के डब्बे में अपना मुंह मार रहे हैं? जो महान लेखक लोग हैं, वो लिखते वक्त क्या जानते थे कि वो महान सा कुछ लिख रहे हैं? 'हाँ' - तो कैसे? 'नहीं' - तो क्यूँ लिखा फिर? फिर क्या हमें भी महान होने की संभावना को ध्यान में रखकर लिखते रहना चाहिए?


ब्लाग को लोग भावनात्मक कूड़ादान की तरह प्रयोग करते हैं! क्या आप इस बात से सहमत हैं? या कुछ और कहना चाहते हैं।

अहमदाबाद के जिग्नाशा पटेल प्यार के बारे में क्या कहते हैं यह पढ़ने से पहले जान लें कि जिग्नाशा पटेल हैं कौन?पटेल जी कहते हैं:
मैं उस वक्त भी आपको दिल से प्यार करता था और आज भी सिर्फ़ और सिर्फ़ दिल से प्यार करता हु नाही उस वक्त मैंने आपके शरीर को निगाहें उठा के देखा था और नाही आज भी मुझे तो सिर्फ़ आपकी सादगी(own simple style) और आपका बहोत ही सुंदर सुंदर स्वभाव(nature) पसंद था और मैं आपके अंदर से मिली वही दो बातो से atract हुआ था

आगे शायद और कुछ पता चले!

अपने गणित वाले अभिषेक बाबू अब प्रोफ़ेशनल खतरा मैनेजर हो गये हैं।

अपनी व्यथाकथा सुना रहे हैं अभिषेक। सुन लीजिये दुख बंट जायेगा:
बाकी जो भी हो इनके कस्टमर केयर वाले बड़े सहनशील लोग है इन्हें हमारी भाषा में 'थेथर' कहा जाता है अर्थात बेशर्म. ये खुद फैसला करते हैं की इनकी सर्विस कितनी अच्छी है. आपके मत पर बिलकुल ध्यान नहीं देते. मैंने इन्हें हड़काते हुए बड़ी कड़वी मेल लिखी. पर इन्हें काहे की शरम... आप भी देखिये इनकी रिप्लाई. बड़े भले लोग हैं. जिस दिन साले डूबेंगे मैं मिठाई बाटूंगा.


नीरज रो्हिल्ला दौड़ते भागते रहते हैं। अब अच्छे खासे जवान भी हो गये हैं। ब्लागर तो हैं ही हिन्दी के सो मौका और दस्तूर के अनुसार वे एडल्ट ह्यूमर और हिन्दी ब्लाग जगत !!! लिख मारे। आप इसे बांचिये और नीरज के हुनर की तारीफ़ कर ही डालिये। इससे नीरज का हौसला बढ़ेगा, मंजिल का फ़ासला कम होगा।

प्रभात गोपाल का मानना है कि नेताओं को माइक पर हुंकारने के बजाय आपने-सामने बहस करने चाहिये। वे कहते हैं:
उदारीकरण का दौर है। प्रतिस्पर्द्धा का युग है, तो नेताओं को प्रोफेशनल होना होगा। इन्हें भी टारगेट ओरिएंटेड माइंड सेट के साथ जनता के दरबार में जाना चाहिए। उन्हें बताना चाहिए कि हम इतने सालों में, इतने समय में और इतनी लागत में आपका ये काम कर देंगे। विकास का इतने साल बाद ये पैमाना होगा। पूरी गणितीय प्रणाली पर बहस करें ये दल। भावना में बहा-बहाकर कितने दिनों तक वोट लेते रहेंगे, पता नहीं।


अनिल पुसदकर ब्लाग लिखाई में जित्ता माउस और की बोर्ड का इस्तेमाल करते हैं। ब्लाग जगत के साथियों के अप्रत्याशित फोन से उल्लिसत होकर यह पोस्ट लिखी है उन्होंने! पीडी से बतियाने के बाद उन्होंने लिखा:
पीडी पता नही कैसा होगा लेकिन बातचीत मे एकदम खरा सोना।उससे बात करते समय एक पल के लिये भी नही लगा कि उससे पहली बार बात हो रही है। ऐसा लगा कि अपने किसी बाल सखा से सालो बिछड़ने के बाद बात हो रही हो।शुद्ध और एकदम शुद्ध प्यार छलक रहा था पीडी की आवाज मे।कंही कोई बनावट नही,कंही कोई स्वार्थ नही,कंही कोई दिखावा नही और कंही कोई छल-कपट-प्रपंच नही।खालिस ईमानदार बातचीत।


अब आप बोलेगे कि पीडी कौन? तो भैया ये है पीडी बोले तो प्रशान्त का ब्लाग। खिचड़ी एक्स्पर्ट हैं। आज रेसिपी भी बताये हैं। अपने जोखिम पर बनाये।
अब गद्य पढ़ते-पढ़ते भन्ना गये होंगे। तो लीजिये एक झन्नाटे दार कवि सम्मेलन सुन लीजिये। हिंदी ब्लाग जगत के तमाम अमेरिकी खलीफ़ा यहां आपको कवितागिरी करते दिख जायेंगे। सबसे पहले अनूप भार्गव को सुन लीजिये वे कहते हैं:
शादी के बाद वे कुछ बदल से गये हैं,
पहले थे महाकव्य अब क्षणिका रह गये हैं।


कोचीन के यहूदियों के बारे में जानने के लिये यहां पर आयें।

एक लाईना



  1. मीठी खिचड़ी का रहस्य(बनाने की विधि के साथ) : किसी को खिलाने के पहले शरीर का तोड़-फ़ोड़ जोखिम बीमा करवायें

  2. फतेहपुर:दिन में तीन बार शिवलिंग का रंग परिवर्तित होता है यहाँ :बड़े रंगबाज हैं फ़तेहपुर के शंकरजी

  3. कवि की कमज़ोरी :कबाड़खाने में दिखी

  4. उसके चहरे का संतोष लोगों को खलता है.. :क्योंकि वह आज भी पांच रूपये में दुनिया बदलने का हौसला रखता है

  5. ताऊ बना हनुमान :वुधवार को? ताऊ कभी लेट लतीफ़ी से बाज न आयेगा

  6. रिंग टोन में गुम भगतसिंह:वतन पर मरने वालों का बाकी यही निशां होगा

  7. कुत्ते की याद में: एक भावुक पोस्ट

  8. अगले जन्म मोहे ब्लोगर का पति ना कीजो .....:ब्लागर पत्नी बना दिया जाये?

  9. बिना ऊंट के रेगिस्तान मुकम्मल नहीं होता :बिना दाद के कोई खाकसार मुकम्मल नहीं होता

  10. तुम ही तो हो :जो कब्भी मेरे ब्लाग पर टिपियाते नहीं!

  11. श्रीगंगानगर में ओले पड़े :वो तो भला हो कि सर नहीं मुड़वाये थे



मेरी पसन्द


वो,
जब मुँह अंधेरे निकलते हैं
बाहर घर से
साथ होती है उम्मीदों भरी झोली
जिसमें कैद करने हैं
सारे सपनें और रोटी भी
कचरे के साथ

वो,
इस उम्र में भी सीख लेते हैं
वो सब और उन चीजों के बारे में
सभी कुछ
जिनके बारे में हमें बतियाते
अक्सर शर्म आती है

वो,
जब बिनते हैं कचरा
तो छांटते है, पहले
प्लास्टिक एकदम पहली पसंद पर
फिर पन्नियाँ / लोहा या और कुछ
इसी दौरान
उनके हाथ लगते हैं
इस्तेमाल के बाद फेंके हुये कण्डोम
कचरे के ढेर में
शायद पहली बार ठिठके होंगे
उनके हाथ उठाते हुये /
या कौतुहलवश छुआ होगा

बस,
यहीं से वो बच्चे सीखते है
कण्डोम, क्या होता है /
क्या काम आता है /
फिर वो सीखते है इस्तेमाल करना
और संस्कार हस्तांतरित होते हैं

यह,
सब सीखने के बाद
वह सीखते है कि
विकास के इस तेज दौर में भी
अभी नही ईजाद हुआ है तरीका
कण्डोम को इस्तेमाल बाद
डिस्पोज करने का

कण्डोम,
अब भी
रातों के अंधेरे में फेंके जाते है
कुछ इस तरह
जैसे कोई बच्चा उछाल देता है
पत्थर हवा में बिना किसी बात के
और यह भी नही सोचता कि
जिस आँगन में गिरेगा
वहां भी कोई बच्चा होगा
या कोई बस यूँ ही बहा देता है
फ्लश में और वह चोक किये होता है
ड्रेनेज घर से अगले मोड़ पर
या, यदि फेंका गया सड़क के उस पार
तो कचराघर को बदल देगा
जिन्दगी की पाठशाला में
और,
सीखने में मदद करेगा उन ब्च्चों की
जिनके घर नही होते
समय के पहले ही
कण्डोम क्या होता है

मुकेश कुमार तिवारी

और अंत में


कल रात आपको चर्चा पढ़वाई। अब सुबह फ़िर। सो नया कुछ नहीं है। वैसे आपको बता दें कि पाबलाजी ने ब्लागरों की एकता का आवाह्नन किया है। आगे की कहानी उनके ब्लाग पर देख लीजिये।

फ़िलहाल इत्ता ही। आपका दिन शुभ हो। आप खुश रहें। मुस्करायें और हो सके तो खिलखिलायें भी। सब कुछ मुफ़्त है आज के दिन।

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मंगलवार, मार्च 24, 2009

कल फ़िर मुलाकात होगी


कविताजी

कल की चर्चा बड़ी मुश्किल से प्रकाशित हो पायी। न जाने क्या लफ़ड़ा था। लेकिन कविताजी लगातार लगी रहीं बिना सोये, बिना कुछ खाये पिये। अंतत: रात को दस बजे चर्चा पोस्ट हो पायी। एतिहासिक महत्व की चर्चा होने के कारण सोचा गया कि आज की चर्चा सुबह की बजाय शाम को की जाये ताकि ,जैसा ताऊजी ने कहा, अधिक से अधिक लोग इस चर्चा को देख लें।

कल की चर्चा के बाद कविताजी ने अपने ब्लाग हिन्दी भारत में बलिदानी शहीदों से संबंधित अनेक दुर्लभ एवं अद्भुत चित्र संजोये हैं।

सिद्धार्थ त्रिपाठी ने निन्न्याबे पर पूरे दस दिन नर्भाने के बाद आज सौवीं पोस्ट लिख ही डाली। सौवीं पोस्ट ठेलने के पहली की पीड़ा बयान करते हुये वे कहते पाये गये:

सिद्धार्थ त्रिपाठी
लेकिन चाह से सबकुछ तो नहीं हो सकता न...! कोई झन्नाटेदार आइटम दिमाग में उतरा ही नहीं। इसलिए सीपीयू का बटन ऑन करने में भी आलस्य लगने लगा। मैं टीवी पर वरुण गान्धी का दुस्साहसी भाषण सुनता रहा। चैनेल वालों की सनसनी खेज कवरेज देखता रहा जैसे मुम्बई पर हमले के वक्त देखता था। सोचने लगा कि चलो कम से कम एक नेता तो ऐसा ईमानदार निकला जो जैसा सोचता है वही बोल पड़ा। अन्दर सोचना कुछ, और बाहर बोलना कुछ तो आजकल नेताओं के फैशन की बात हो गयी है। ...लेकिन दिल की बात बोल के तो बन्दा फँस ही गया। तो ऐसे फँसे आदमी के बारे में क्या लिखा जाय?

एक वर्ष से कम समय में तमाम बेहतरीन पो्स्टों के साथ सैकड़ा मारना बधाई लायक काम है सो हमारी बधाई। आशा है कि सिद्धार्थ जी आगे भी नियमित लिखते हैं। यह आशा इस लिये भी करना लाजिमी है क्योंकि अब उनको खराब पोस्ट लिखने के फ़ायदे भी पता चल गये हैं।

अल्पना जी अपनी एक गजल पेश करती हैं जो उन्होंने पांच मार्च ,२००९ को हुये एक मुशायरे में पढ़ी:

अल्पना जी
जाने क्यूँ वक़्त के अहसास में ढल जाती हूँ,
जाने क्यूँ मैं अनजान डगर जाती हूँ.

टूट कर जुड़ता नहीं माना के नाज़ुक दिल है,
गिरने लगती हूँ मगर खुद ही संभल जाती हूँ.

ज़िन्दगी से नहीं शिकवा न गिला अब कोई,
वक़्त के सांचे में मैं खुद ही बदल जाती हूँ.


यह गजल अगर आप अल्पनी जी की आवाज में तरन्नुम में सुनना चाहते हैं तो उनके ब्लाग पर पहुंचिये। देर न करिये वर्ना और लोग सुन ले जायेंगे।

घुघुतीबासूती दिन पर दिन घर परिवार वालों द्वारा ही महिलाओं/स्त्रियों/बालिकाऒ पर होते यौन शोषण का मुद्दा उठाती हुयी सवाल करती हैं-स्त्री कहाँ सुरक्षित है? यदि अपने घर में नहीं तो फिर कहाँ? वे लिखती हैं:

घर वह जगह है जहाँ से संसार भर से त्रस्त व्यक्ति भी चैन से निश्चिन्त हो सकता है। जहाँ उसे हर तरह की स्वतंत्रता मिलती है। जहाँ वह आराम से पैर ऊपर करके या लटका के या जैसे भी बैठ सकता है। जहाँ वह कुछ भी पहनता है, कैसे भी रहता है, एक बार घर का दरवाजा बन्द किया तो बस केवल सुरक्षा का एहसास होता है। परन्तु जब समाज जिस व्यक्ति को गृहस्वामी कहता है वह अपनी ही पुत्रियों पर यूँ अपना स्वामित्व जताए तो उस पुत्री की तो घर के भीतर पाँव रखते ही रूह काँपती होगी। घर से अधिक असुरक्षित स्थान तो उसके लिए कोई हो ही नहीं सकता।


कंचन ने एक खराब काम ये किया कि अपनी एक पोस्ट डिलीट कर दी। मेरी समझ में अगर आपको कोई पोस्ट खराब लगती है तो उसे मिटाना नहीं चाहिये। रखना चाहिये ताकि आपको पता लगे कि आप यह भी लिख चुके हैं। लेकिन अगली पोस्ट कंचन ने लिखी उसमें पुरानी यादें हैं जब वे घर से दूर थीं:

कंचन

ऐसा क्यों हो जाता है हम जिनकी खातिर जीते हैं,
खुद जीने की खातिर उनके विरहा का विष पीते हैं,
अपने सपनो की खातिर अपनेपन की आहुति,
ये मेरा स्वारथ है या फिर जीने की है रिति
अक्सर द्विविधा में कर देती है मुझको ये बात
खुद से मिलने की फुरसत थी कई दिनो के बाद।

एक लाईना


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और अंत में


रात के साढ़े दस बज चुके अब और कुछ लिखने की बजाय आपको शुभरात्रि कहना ही सबसे बेहतर होगा।

आप आराम से पढ़िय। कल फ़िर मुलाकात होगी।

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