गुरुवार, नवंबर 30, 2006

कुछ चिराग जलाने होंगे दिन में

जाड़े के दिन शुरू हो गये हैं। रात ठिठुरन भरी और दिन-दोपहर गुनगुनी होने लगी हैं। ये आदर्श दिन हैं जब कोई कोमल कविमना ब्लागर नयी-पुरानी कवितायें दनादन पोस्ट कर दे और हमारे पास सिवा वाह-वाह के कोई चारा न रहे। पता नहीं क्यों इस पर अभी तक समीरलाल जी की न तो कोई कुंडलिया आई और न ही उनके काबिल चेले, गिरिराज जोशी, की कोई त्रिवेणी।

दूसरी तरफ़ भारतीय क्रिकेट टीम से पता नहीं क्यों भारत के उसके प्रशंसक नाराज हैं। एक तो वे बेचारे अपने शानदार प्रदर्शन से मैच-दर-मैच अपनी हार का अंतर कम करने में पसीना बहा रहा हैं वहीं दूसरी तरफ़ लोग उनसे और बढि़या प्रदर्शन की उम्मीद लगाये बैठे हैं।

बहरहाल आज जब हम चिट्ठाचर्चा करने जा रहे हैं तो सबसे पहले गुरुदेव बोले तो मास्साब का जिक्र कर लें। तरकश में सुडोकु, और दूसरे मनभावन खेलों के साथ-साथ अब ई-शिक्षक का भी प्रवेश हो गया है। पहले प्रायोगिक संस्करण में मास्साब ने केवल चिट्ठा लिखना बनाना बताया है। हालांकि जो भी लोग इसे पढ़ेंगे उनमें से अधिकांश इससे परिचित होंगे लेकिन यह उन तमाम लोगों को सहायको होगा जो लोग ब्लाग के बारे में अभी नहीं जानते। आशा है कि ई-शिक्षक जी नियमित रूप से ज्ञान बांटते रहेंगे।

गुरूजी के साथ ही तरकश पर आज शोयेब का लेख है जो ड्राइवरों की स्थिति बयान करता है :

हर किस्म के लोगों को उनकी मंज़िलों तक पहुंचाना , लोगों से गाली सुनना और गुस्से मे दूसरों को गाली देना - टैक्सी मे बैठने वालों के दुःख सुख सुनना। छोटी छोटी बात पर इन बेचारों को पुलिस पकड़ कर ले जाती और ये कोर्ट कचहरी का मुंह देख-देख आदी हो जाते हैं जैसे ये उनका दूसरा घर हो। पूरे दिन भर की थकान लिए घर आए तो फिर पत्नी के ताने-बाने - ये सारी बातें बेचारे टैक्सी ड्राईवरों के अंदर चिड़चिड़ाहट पैदा कर देती है। अब अमीर बाप के बेटा तो टैक्सी चलाएगा नहीं, टैक्सी ड्राईवर अक्सर गरीब होते हैं जो हमें आधी रात को भी हमारी मंज़िल तक पहुंचाते हैं। इनकी चिड़चिड़ाहट को देख कर पैसेंजर को ज़रूर गुस्सा आता है मगर इस पैसेंजर को पता नही होता कि उस से पहले जो पैसेंजर बैठा था उसने सिर्फ दो चार रुपयों के लिए ड्राईवर का मूड ही खराब कर दिया था। हम भी पेट पूजा के लिए कमाते हैं और टैक्सी ड्रायवर भी, ज़रूरत है आपस मे झगडा करने कि बजाए हम एक दूसरे की ज़रूरतों को समझें. खाली गाडी घूमाने की जगह धूप मे बस के इंतजार मे खडे इनसान को थोडा आगे तक ड्राप कर दे तो सच्ची खुशी क्या है खुद-ब-खुद महसूस होगी।


शायद आप शोयेब का यह लेख देखकर उनसे बेहतर ढंग से व्यवहार करने के बारे में सोचें।

कल जब समीरलाल जी ने चिट्ठाचर्चा की तो आम दिनों के विपरीत चर्चा के लिये चिट्ठे कम थे। इससे वे कुछ खिन्न और अनमने थे। ऐसी हालत में कोई भी प्रवासी अपने देश की याद में डूबने-उतराने लगता है। और अगर प्रवासी कहीं कवि हुआ तो मामला करेले में नीम की तरह हो जाता है। समीरलाल जी भी इसी व्यथा का शिकार हुये। बहुत दिन पहले प्रवासियों की स्थिति का वर्णन करते हुये जीतेंन्द्र ने लिखा था:-

हम उस डाल के पन्क्षी है जो चाह कर भी वापस अपने ठिकाने पर नही पहुँच सकते या दूसरी तरह से कहे तो हम पेड़ से गिरे पत्ते की तरह है जिसे हवा अपने साथ उड़ाकर दूसरे चमन मे ले गयी है,हमे भले ही अच्छे फूलो की सुगन्ध मिली हो, या नये पंक्षियो का साथ, लेकिन है तो हम पेड़ से गिरे हुए पत्ते ही, जो वापस अपने पेड़ से नही जुड़ सकता

इसी बात को और महीन काटते हुये समीरलालजी ने, प्रवासी पीड़ा बयान करते हुये, बड़ी खूबसूरत कविता लिखी है और पोस्ट भी कर दी । वे लिखते हैं:-

बहुत खुश हूँ फिर भी न जाने क्यूँ
ऑखों में एक नमीं सी लगे
मेरी हसरतों के महल के नीचे
खिसकती जमीं सी लगे

बात यहीं तक सीमित नहीं रही वो दिल, धड़कन, एहसास, नाराज़गी, अजनबीपन के गलीकूचों से होते हुये उस राजमार्ग पर पहुंच गयी जहां सूरज से दीपक की बराबरी का मुकाबला है:-

कुछ चिराग जलाने होंगे दिन मे
सूरज की रोशनी अब कुछ कम सी लगे
चलो उस पार चलते हैं
जहॉ की हवा कुछ अपनी सी लगे.


इधर जब समीरलाल जी सूरज की कमी को चिराग से पूरी करने की योजना बना रहे थे तभी प्रियंकर जी की पोस्ट के माध्यम से भारतीय पुलिस सेवा के तहत पश्चिम बंगाल में पोस्टेड संवेदनशील युवा कवि, महेन्द्र सिंह पूनिया कीकविता में जीवन की कुछ कमियों की चर्चा की गयी:-
दाल में कम पड़े नमक की तरह
जीवन में कहीं कुछ कम है

क्या कम है ?

सरसों भी फूली हुई है खेतों में
आम पर आ गया है बौर
कूक रही है कोयल भी उस पर
तुम भी बैठी हो पास में


साइबेरिया के सारस लौट रहे हैं
कतार बांध कर अपने घरों को
झबरी कुतिया ने दिये हैं चार-चार पिल्ले

मां भी तो हैं स्वस्थ
पिता गए हैं खेत देखने
कई दिनों के बाद

फिर भी दाल में कम पड़े नमक की तरह
जीवन में कहीं कुछ कम है

इन दोनों कविताऒं के उलट डा. रमा द्विवेदी की कविता में नायक के तेवर कुछ और ही हैं:-
अब तो मेरा जीवन ही मयखाना हो गया है,
इस मयखाने का साकी कहीं खो गया है,
जीने की चाह जगाता है तेरा नाम।
तीनों ही तेरे नाम………..


शैलेश जी की हालत तो और भी माशाअल्लाह हो गयी और उनकी पोस्ट से जो बयान जारी हुआ उसे अगर कोई रिपोर्ट कर दे पुलिस को तो आत्महत्या के प्रयास में मामला बन सकता है। कविता का शीर्हक ही ऐसा है-मैं मरना चाहता हूं:-

मैं मरना चाहता हूँ
हाँ, मैं मरना चाहता हूँ
पर ऐसे नहीं,
तुम्हारे कदमों में सर रख कर।


जहां मरने की बात शुरू हुयी वहीं एक गाय ने एक बछड़े को जन्म दिया ताकि जीवन प्रक्रिया बाधित न हो। जैसा कि कैलाश चन्द्र दुबे जी कहते है:-

कुदरत की बनाई दुनियां में
मां की ममता
और उत्पीड़ित मात्रत्व का
अनुपम - मजबूत प्रमाण-
पुजारीजी की गैय्या-
"गंगा"-
बड़ी कुशलता के साथ
प्रस्तुत कर रही थी।

ममत्व की परीक्षा में
आखिर वह उत्तीर्ण हो ही गई।


इस बीच और पोस्टों में प्रमुख हैं रेलवे में दिल के मरीजों के हिसाब से खाना पेश जाने की खबर जिसे कि पेश कर रही हैं दिल्ली से मनीषाजी जो कि एक घरेलू महिला हैं और जनहित में काम करती हैं तथा पाठकों से जनहित के सार्थक सहयोग चाहती हैं। इसके अलावा हैं इधर-उधर से आने वाली जंक मेल से बचने की तरकीबें जो कि रमन कौल ने बतायी हैं। रवि रतलामीजी का बनाया कार्टून, आदम और हव्वा/ संसदीय क्रिकेट आप खुद देख लें। कुछ समझने में अड़चन हो अनुनादजी को मोबाइल में हिंदी में संदेश भेजकर बात समझ लें। इन सब से मन उचटे तो आप उर्दू की कुछ बेहतरीन गज़लें पढ़कर मन ताजा कर लें:-
दिल की बिसात क्या थी निगाह-ए-जमाल में
एक आईना था टूट गया देखभाल में


लक्ष्मी शंकर गुप्त जी ने अपनी याददाश्त के आधार पर भक्त कवि नरोत्तम दास का संक्षेप में परिचय और उनकी प्रसिद्ध रचना सुदामा चरित पेश की है। जो अंश छूट गये या याद नहीं आये मैं उनको जल्द ही विकीपीडिया पर डाल दूंगा। सुदामा चरित को विकीपीडिया पर डालने का काम सागर चंद नाहर ने शुरू भी कर दिया है। सुदामाचरित की कुछ पंक्तियां हैं:-
ऐसे बिहाल बिवाँइन सो पग कंटक जाल गड़े पुनि जोये।
हाय महा दुख पायो सखा तुम आये इतै न कितै दिन खोये।
देखि सुदामा की दीनदशा करुणा करि कै करुणानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं नैनन के जल सों पग धोये।


और इसके बाद आज की शायद सबसे उल्लेखनीय पोस्ट जिसे मुन्ने की मां ने लिखा है। इस लेख में मुन्ने के बापू, उन्मुक्त जी के कार्यों, सोच, रुचि आदि का परिचय दिया है। मुन्ने की मां ने अपने बारे में भी लिखा है और टेलीग्राफ़ अखबार में छपी खबर के बारे में भी बताया है। सरल भाषा में लिखी यह पोस्ट पूरी की पूरी पठनीय है। मुन्ने के बापू और अपनी सोच के बारे में बताते हुये मुन्ने की मां लिखती हैं:-


मेरे पास तो नहीं, पर इनके पास अक्सर इमेल आता है जिस पर लोग इनसे इनका परिचय पूछते हैं, लिखते हैं कि क्या मिल चुके हैं, या मिलने की बात करते हैं। इनका हमेशा यही जवाब रहता है कि:-

'मैं भारत के एक छोटे शहर से, एक साधारण व्यक्ति हूं। मेरा चिट्ठा ही मेरा परिचय है। मैं अपने विचारों के लिये पहचाने जाना पसन्द करता हूं न कि नाम या परिचय के कारण।'

कई लोग इस पर, इनको गलत भी समझ लेते हैं। चूंकि यह अपने विचार और जो इन्हें पसन्द है - लोगो को बताना चाहते हैं, इसलिये इनकी सारी चिट्ठियां कॉपीलेफ्टेड हैं। इन्हें किसी को भी कॉपी करने, संशोधन करने, की स्वतंत्रता है - इन्हें (उन्मुक्त जी को) श्रेय देंगे तो अच्छा है, न देंगे तो भी चलता है।





आज की टिप्पणी/प्रतिटिप्पणी:-


टिप्पणी1.बहुत खूब मास्साब! बहुत मजेदार प्रेजेंटेशन बनाई है। क्या फ्लैश पर काम सीखना आसान है? क्या मैं अपने काम के लिये इस तरह के प्रेजेंटेशन बनाना आसानी से सीख सकता हूं?

जगदीश भाटिया-ई शिक्षक पर
प्रतिटिप्पणी:
भाटियाजी आप सीखने का ट्राई मारिये क्या पता सीख ही जायें लेकिन फैशन के दौर में (सीखने की) कोई गारन्टी नहीं होती।

टिप्पणी2.कभी मरना चाहता हूँ, कभी सँवरना चाहता हूँ....
पहले एक मत होईये. :)
और मरने मारने की बाते छोड़ दे अभी उमर नहीं हुई है.
अगली बार कुछ जीने तथा प्रेम मोहब्बत की कविता लिखें. ;)
संजय बेंगाणी मेरे कवि मित्र पर

प्रति टिप्पणी:- उमर किसकी नहीं हुई है? मेरी या आपकी? सवाल साफ पूछा जाये। वैसे हम मरने की बात कहां कर रहे हैं, हम तो कविता लिख रहे हैं। और ये बताइये कि मोहब्बत करना और जीना एकसाथ कैसे होता है। आपको तो प्रेम का अनुभव है ई शंका समाधान करिये ज़रा ताकि आगे का प्लान बनाया जा सके।

3. टिप्पणी:-काश कोई अच्छी आवाज़ वाला इसे सुर में गाए। :)

पंकज बेंगाणी उड़न तश्तरी पर
प्रति टिप्पणी: काश आपकी बात सच हो जाये। कोई आवाज अच्छी हो जाये, उसके सुर भी अच्छे बन जायें, और वह कविता गाने को तैयार भी जाये और हम चाहे सुर में चाहे बेसुरे होकर गायें- आप जैसा कोई मेरी जिंद़गी में आये तो बात बन जाये।

आज की फोटो:-


आज की पहली फोटो मुन्ने की मां के लेख से तथा दूसरी फोटो रविरतलामी के देशी कार्टूनसे है।

उन्मुक्त घर
उन्मुक्त घर


आदम और हव्वा / संसदीय क्रिकेट
आदम और हव्वा / संसदीय क्रिकेट

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बुधवार, नवंबर 29, 2006

विकास के यह रंग

आज ऐसा लगता है सब आराम करने में जुटे हैं। जिसे आराम करना चाहिये था वो बस काम करते दिखे। हमारे काव्यात्मक चिट्ठाचर्चक राकेश खंडेलवाल जी अपनी शादी की २५वीं वर्षगांठ मनाकर छुट्टी से लौट आये हैं और आते ही सप्तपद के वचन सुना रहे हैं:

चाँद तारे उतर द्वार पर आ गये
चांदनी आई ढोलक बजाने लगी
फूल की पांखुरी में भरे ओस को
नभ की गंगा भी कुछ गुनगुनाने लगी
पारिजातों को ले साथ निशिगन्ध ने
गूंथे जूही के गजरे में कुछ मोगरे
शतदलों ने गुलाबों के भुजपाश में
प्रीत की अर्चना के कलश आ भरे

पूर्णिमा से टपकने शहद लग पड़ा
और गंधर्व खुशियाँ लुटाने लगे
रात घूँघट को अपने हटाने लगी
फिर से संकल्प सब याद आने लगे.......


बहुत सुंदरता से रची गयी यह दिल की आवाज अवश्य पढ़ें.

आराम करने के मूड़ में अपनी बेबाक लेखनी के लिये चर्चित जगदीश भाटिया जी दिखे क्योंकि एक छोटी सी पोस्ट के माध्यम से वो दिल्ली के विकास को आईना दिखा गये।

गीता के अध्याय २ के श्लोक ५-६ को अर्थ के साथ लेकर हाजिर हैं रा.च.मिश्र जी. मिश्र जी के इस सार्थक और साहसिक प्रयास को साधुवाद और शुभकामनायें.

हृदय रोगियों के लिये रेल्वे द्वारा प्रद्धत डाईट मील की सुविधाओं का लेखा जोखा पेश कर रहीं हैं मनीषा जी. हालांकि अभी यह शताब्दी और राजधानी ट्रेनों तक सिमित है, मगर एक अच्छी शुरुवात है.

मानसी अपने संगीत के सफर की गाथा सुना रही हैं, आप भी सुनें:

संगीत सीखना मेरी मां ने शुरु करवाया था मुझे। शौक तो था मुझे संगीत का, मगर सीखने जाना, रोज़ टीचर के पास...किस बच्चे को पसंद होगा। तब मैं ७-८ साल की थी जब संगीत की शिक्षा शुरु हुई। श्रीमति जयश्री चक्रवर्ती से। वहाँ वैसे सप्ताह में २ बार ही जाना होता था। मैं जाती थी भैया के साथ, साइकिल पर। और हर बार जाकर वही वही अलंकार, एक जैसा, अभ्यास करो, अभ्यास से ही गले में स्वर बैठेगा..उंहु..। मुझे लगता कि अब तो कोई गाना सीखूँ, भजन आदि। पर नहीं वो मुझे वही सा, रे, ग, की प्रक्टीस...तो खै़र...दो साल मैं उनसे सीखती रही और दो साल बाद उनका तबादला हो गया।


अब चलते हैं, आज जब सब आराम कर रहें हैं, तो हम ही क्यों पीछे रहें, हम भी चलते हैं.

बस चलते चलते मेरी पसंद: (किसने लिखा है, मुझे नहीं मालूम)

जो पूछता है कोई सुर्ख़ क्यूं हैं आज आखें
तो आंख मल के ये कहता हूं रात सो ना सका
हज़ार चाहूं मगर ये ना कह सकूंगा कभी
कि रात रोने की ख्वाहिश थी मगर रो ना सका


आज की तस्वीर:




इस तस्वीर पर चर्चा: आइना पर:

जगदीश भाटिया: आज इस सुअर से बहुत मनुहार किया कि एक बार सिर ऊपर करके अच्छा सा पोज़ दे दे, मगर उसे केवल कूड़े में ही मजा आ रहा था, मेरे ब्लाग के लिये पोज़ देने में उसे जरा भी रुचि नहीं थी।

समीर लाल: आप उसे मंत्री पद का लालच दे देते तो जरुर सिर उठा लेता.

जगदीश भाटिया: ठीक कहा समीर जी!
और फिर अपने ही सचिव की हत्या करने वाले मंत्रियों से बेहतर मंत्री साबित हो सकता है ये बेचारा !

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मंगलवार, नवंबर 28, 2006

मध्यान्हचर्चा दिनाकं 28-11-2006

संजय ने नियत समय पर कक्ष में कदम रखा, तब धृतराष्ट्र ‘टी-ब्रेक’ के दौरान कोफी का जायका लेते हुए चिट्ठों का हालचाल सुनने को तैयार थे. उन्होने संजय का मुस्कुराकर स्वागत किया तथा अपनी कुर्सी में धंस गए. संजय संजाल का संचार करने में व्यस्त हो गए.
धृतराष्ट्र : देखो संजय आज चिट्ठाकार किस मूड में हैं?
संजय : महाराज, आज लगता है सब के सब चिट्ठाकार उपयोगी जानकारियाँ बांटने पर उतारू हैं. पहले यह देखें, जिन्हें अपना ब्लोग बनाना हैं पर इसका अनुभव नहीं हैं, उन्हे परेशान होने की आवश्यक्ता नहीं हैं, अब वे सरल-सदृश्य ई-शिक्षक की सहायता ले सकते हैं, जानकारी दे रहें हैं पंकज बेंगाणी.
एक बार चिट्ठा बन जाने पर उसे पूरी दुनियाँ देखे इसका इंतजाम किया है नितिनजी ने.
इधर चोरी के विण्डोज को मुफ्त में अधिकृत करने का तरीका खोज लाए हैं बनारसीबाबू.
धृतराष्ट्र : वाह! बहुत खूब.
संजय : तकनीकी ज्ञान के बाद थोड़ा धर्म-ध्यान करना हो तो रा.च.मिश्रजी से गीता-पाठ सुने तथा होम, हवन, यज्ञ में हिस्सा लें या हनुमानजी के दर्शनों का लाभ लें.
साथ ही अवधियाजी से सुनें कृष्ण शंकर के युद्ध की कथा सुखसागर से.
धृतराष्ट्र ने पहलु बदला, तथा एक घूँट कोफी का भरते हुए संजय की ओर देखा.
संजय : महाराज इसके अलावा एक कवि भी मैदान में हैं, संगीताजी अंतर्मन से हथेलियों में चाँद उगा रही हैं.
इधर साहिलजी का मानना है की इंसान कभी नहीं सुधरेगा, तो शुएब टेक्सी-चालको के व्यवहार से खिन्न है. इस पर रविजी का कहना है की इंटरनेट ही सभी बुराईयों की जड़ है.
धृतराष्ट्र की कोफी समाप्त होने को थी. वे तल्लीनता से सुन रहे थे.
संजय : अब कुछ हल्का-फुलका खोजता हूँ, हाँ यहाँ ई-पण्डितजी सुना रहे हैं चुटकुला, तथा देशी टूंज लेकर आए हैं कार्टून. तथा फिल्म ‘कैसिनो रोयाल’ की समिक्षा करने की कुलबुलाहट हो रही है विजयजी को.
अब महाराज आप अपने काम की जुगाड़ बटोरीये, तथा सुनिलजी के साथ गयाना की सैर पर निकल पड़ीये.
अब मैं होता हूँ लोग-आउट.

(आज के अबतक के सभी चिट्ठो को शामिल करने कि कोशिश की है, फिर भी नारदजी की अनुपस्थिती में छूट गए चिट्ठो के लिए क्षमाप्रार्थि हूँ.)

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सोमवार, नवंबर 27, 2006

मध्यान्हचर्चा दिनांक : 27-11-2006

चिट्ठाचर्चा से ज्ञानार्जन के बाद धृतराष्ट्र काफी ओजस्वी लग रहे थे. संतो जैसी मुस्कान के साथ कोफी के घूंट भर रहे थे. संजय थोड़े हिचकिचाहट महसुस कर रहे थे. नारदजी तक उनकी आवाज नहीं पहुंच रही थी, तब पूरक को पुकार लगायी.
धृतराष्ट्र : संजय लगता है आज गीत-संगीत का माहौल है, चिट्ठा दंगल में.
संजय : हाँ महाराज, अनुभवशाली गीरिन्द्रनाथजी गुलजार की गज़ले सुना रहे हैं, तो राजीवजी भी गजल के माध्यम से खुदा कह रहे है की ज़िन्दगी अब सही नहीं जाती.
इधर आदित्यजी कह रहे हैं की हम हम हैं.
धृतराष्ट्र : (कोफी का घूँट भरते हुए) अच्छी बात हैं की आप, आप हैं, आप कोई और नहीं हैं.
संजय : महाराज जब भारतीय क्रिकेट-टीम ‘जे रामजी की’ हो गई हैं, उनके गुरूजी को राजेशजी राम-राम कर रहे हैं.
धृतराष्ट्र : एक बात समझ लो, जब पूरा देश राम-भरोसे चल रहा है, तो टीम को भी गुरू नहीं राम ही तारेंगे.
संजय : महाराज जब बात की निकली है तो स्वामीजी भी बात को पकड़ कर कह रहे हैं की हमारे यहाँ लोकतंत्र नहीं खटारातंत्र है.
धृतराष्ट्र : यानी कम से कम कोई तंत्र तो है, हम तो समझ रहे थे...
संजय : आप मजाक के मूड में हैं महाराज, लिजीये एक हरीयाणवी छोरे स्युं एक मखौल ‘सुणते’ हुए आगे चलें. आगे है छायाचित्रकार जो एक और तस्वीर लिए खड़े हैं, तथा शीर्षक सुझाने के लिए कह रहें हैं. फिल्म ‘कैसीनो रॉयाल’ की समीक्षा लेकर आएं हैं अमित तथा फिल्म धूम-2 की समीक्षा कर रहें हैं संजय-रवि. यानी मनोरंजन का फुल मसाला है. महाराज आप आनन्द लें तथा मैं होता हूँ लोग-आउट.

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तमाम ज्ञान बांटता एक अज्ञानी...


आवेग में आकर हम कुछ ऐसी-वैसी टिप्पणियाँ कर देते हैं, परंतु आमतौर पर अज्ञानतावश ऐसा हो जाता है. लोगों की अज्ञानता को बहुत से बुद्धिमान - शयाणे भुनाते भी हैं, और, यह तो सदियों से चला आ रहा है. यूँ, अज्ञानता दूर भगाने के लिए, अंधेरे में प्रकाश करने के लिए, लोग-बाग़ अपने स्तर पर प्रयास करते हैं और कुछ तो आवेग में आकर अपने घर को ही जला लेते हैं. और जब ज्ञान मिल जाता है तो दुनिया जहान से, हिन्दी से भी प्यार हो जाता है!

कुछ (सरकारी) अज्ञानी, ज्ञान के प्रसार में यत्र-तत्र प्रतिबंध लगा देते हैं, परंतु ज्ञानियों के लिए कई रस्ते होते हैं और कई तोड़ होते हैं , जो जाहिर है, प्रतिबंध लगाने वाले अज्ञानियों को पता ही नहीं होते. पता होता तो क्या वे प्रतिबंध की सोचते भी?

गांधी गीता का ज्ञान इतना समग्र है कि नित्य नए स्तर पर मीमांसाएँ होती हैं. तमाम नक्षत्रों के बारे में भी बहुत से लोगों को बहुत सा ज्ञान बांटा गया है, परंतु शुक्र है कि अब लोगों को अपने गांव घर के बारे में ज्ञान मिलेगा.

क्या कोई पत्थर भी ज्ञानी हो सकता है? भारत के हर कोने में जहाँ पत्थरों को गाड़ कर सिंदूर पोत कर पूजा अर्चना प्रारंभ कर दी जाती है, तब तो यह मानना ही पड़ेगा - ज्ञानी पुरुष पत्थरों को भी ज्ञानी बना देते हैं जो उनके लिए रोकड़ा कमा कर लाते हैं.

प्रश्न यह है कि ज्ञान कैसे मिलता है. ज्ञान की रौशनी पाने के लिए जिंदगियों की मशालें जलानी होती हैं. ज्ञान फिर भी नहीं मिलता और ज्ञान प्राप्ति के लिए वांटेड का इश्तिहार लगाना होता है.

कम्प्यूटर सीख चुके लालू ने प्रबंधन संस्थान में अपना ज्ञान क्या बांटा, भावी प्रबंधकों को यह ज्ञान आ गया कि काम के बेहतर माहौल भारत में नहीं, विदेशों में हैं!

किसे मानें ज्ञानी जब ज्ञानियों के ही विविध रंग हैं - ज्ञानी, महाज्ञानी, पराज्ञानी, अज्ञानी, अद्वितीयज्ञानी इत्यादि इत्यादि...

**-**

व्यंज़ल


मैं अगर कभी मुसकुराया होऊंगा

अज्ञानता में ऐसा किया होऊंगा


जमाने को पता नहीं है ये बात

मजबूरन ये उम्र जिया होऊंगा


हंसी की क्षणिक रेखा के लिए

जाने कितना तो रोया होऊंगा


वो हासिल हैं ये तो दुरुस्त है

क्या क्या नहीं मैं खोया होऊंगा


ज्ञान के लिए कोशिशें करूं रवि

मैं यहाँ क्योंकर आया होऊंगा

**-**

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रविवार, नवंबर 26, 2006

आइये मनाए, रक्तरंजित आभार-दिवस

साथियों मेरा नाम पप्पू भैया है, आप मेरे से अक्सर चौधरी साहब के ब्लॉग मे मिले होंगे। आज चौधरी साहब टहलने गए है, इसलिए चिट्ठा चर्चा का भार हम पर डाल गये है। अब जैसे तैसे करना तो पड़ेगा ही, दोस्ती का सवाल है। हम बिहार-यूपी के बार्डर वाले इलाके से हूँ,इसलिए खिचड़ी भाषा मे बतियाएंगे। हम भी सोचता हूँ पिछले जनम मे पता नही कौनो बुरे करम किए रहे कि इयाँह कुवैत मे चौधरी साहब से टकरा गए। बस तब से हमारे बड़े बुरे वकत शुरु हुई गए। एक तरफ़ मिर्जा की गुड़्गुड़ और उधर चौधरी साहब की खिट-पिट, बहुत झिलाय देत है दौनो महारथी। खैर, आइए चर्चा करते है चिट्ठों की।




सबसे पहले तो पंकज बेंगानी को जन्मदिन की बहुत बहुत शुभकामनाएं। पंकज तोहरे जन्मदिन पर आधा बिहार तुम्हारे नाम,रंगदारों से वसूल सको तो वसूल लो।


तारीख: २५ नवम्बर, दिन शनिवार, मौसम : ठन्डा हवाए: मध्यम, तापमान :.....
अरे..इ तो हमऊं, मौसम वाला चैनल जैसा बोल दिया, सॉरी...गलती से मिस्टेक हो गया। पहला चिट्ठा रहा, उन्मुक्त का, पूछे रहे, कुछ लेते काहे नही, अरे उन्मुक्तवा, बहुत कुछ लिए रहे, लेकिन इ बिल्लुवा की खिड़की से झांकने की लत लग गई है रे.. उन्मुक्त कुछ गिटिर पिटिर कर रहे है:
क्या आप कंप्यूटर वायरस से परेशान हैं? हाँ
क्या आप विन्डोस़ के बढ़ते दाम से से परेशान हैं? हाँ
क्या आप चोरी किया गया सॉफ्टवेर नहीं प्रयोग करना चाहते? हाँ भई हाँ
तो कुछ करते क्यों नहीं। : ‘क्या करूं’ :-(
कंप्यूटर पर लिनेक्स का प्रयोग क्यों नहीं करते :-)


साथ ही एक दूसरे लेख मे बहुत सुन्दर बात कह गए है:
बड़े व्यक्तियों का पहला गुण – यदि वे गलत हैं, तो स्वीकार करने में कभी नहीं हिचकते।


उधर अफ़्रीका से भावना बहन जी, एक सुन्दर कविता कह रही है:
फुरसत से घर में आना तुम
और आके फिर ना जाना तुम
मन तितली बनकर डोल रहा
बन फूल वहीं बस जाना तुम ।

इ का बहन जी, इ कविता मेहमानों को मत सुनाना, बे-वजह आएंगें और लम्बा टिक जाएंगे। हम इन्डिया मे बहुत झेल चुका हूँ। तभंई तो कुवैत मे हूँ, इयाँह सबको बुलाते है, कौनो नही आता लेकिन ऊ दिल्ली मे हमरा घर तो बिहार हाउस की तरह हुई गवा रहा।


आज की सबसे बिन्दास पोस्ट है ईस्वामी की अमरीकी आभार दिवस (Thanksgivingday) पर। ईस्वामी लिखते है:
इतिहास गवाह है की गोरे बडे ही विनम्र और एहसानमंद टाईप के लोग होते हैं - पहले स्वागत करने पर आभार जताते हैं फ़िर जिसके प्रति आभारी होते हैं उसकी जान लेकर एहसान चुकता कर देते हैं.

अमरीका के मूल निवासियों की वाट सबसे पहले स्पेन के निवासियों ने लगाई. भारत में गोरा बोले तो अंग्रेज होता है लेकिन मैं यहां यूरोप के सभी सफ़ेद नस्ल के लोगों की बात कर रहा हूं. १४९२ से १५५० के बीच गोरों नें दसियों लाख मूल अमरीकी निवासियों जिन्हें अंग्रेज और अब देसी भी “रेड इंडियन्स” के नाम से जानते हैं, का तकरीबन समूल विनाश ही कर दिया.

पूरा लेख पढिए, काफ़ी विचारोत्तेजक लेख है, फिर स्वामी की बेलगाम लेखनी ने इस लेख को अमर बना दिया है।

पंकज बेंगानी के जन्मदिन पर उड़नतश्तरी वाले समीर लाल ने पंकज का इन्टरव्यू ले डाला, आप भी पढिए।

रवि रतलामी जीरो बेस्ड सिस्टम के बारे मे बतला रहे है, इ तो अपने लालू बहुत दिनो से कह रहे थे। मनीष अपने ब्लॉग पर बात कर रहे है, नए गज़ल एलबम "कोई बात चले" की। जरुर पढिएगा। देबाशीष इस हफ़्ते के जुगाड बता रहे है। प्रतीक बता रहे है कि फायरफाक्स ब्राउजर पर पासवर्ड मत संचित करो। प्रभाकर भोजपुरी कहावते सुना रहे है। उधर मिसिर विन्डोज लाइव का परीक्षण कर रहे है। साथ ही दुकान लगाए हुए है, पूछ रहे है बोलो जी तुम क्या क्या खरीदोगे? देसी टून्स देखिए। जिया कुरैशी से छत्तीसगढ के समाचार सुनिए।

उधर भुवनेश परेशान है पूछते है क्या लिखें? शुकुल से उन्होने यही सवाल किया तो सुकुल उनको बोले, यही लिखो कि क्या लिखें। सुकुल तो आइडिया बता कर टरक लिए, अब आप ही इन्ही समस्या का समाधान करो। नितिन हिन्दी चिट्ठाकारों के लिए कोई स्कीम लाने वाले है, देखिएगा जरुर। रमा जी की बाल श्रमिकों के शोषण का यथार्थ चित्रित करती हुई कविता 'पत्थर से गम सहते है। देखना मत भूलिएगा।

जगदीश भाटिया जी विरह के सुल्तान "शिव कुमार बटालवी" के बारे मे बता रहे है,एक कलाम नोश फरमाएं:

की पुछदे ओ हाल फकीरां दा
साडा नदियों विछड़े नीरां दा
साडा हंज दी जूने आयां दा
साडा दिल जलयां दिल्गीरां दा.


आज का फोटो : पंकज बेंगानी की फोटो, समीर लाल के ब्लॉग से, ऊपर देखिए।
आज की टिप्पणी: श्रीश द्वारा, मिसिर के ब्लॉग पर
अगर ऊपर दिखाया सब कुछ खरीद लिए हो तो थोड़ा इधर भी भिजवा देना।

पिछले वर्ष इसी सप्ताह : चुटकुलों की बहार, इच्छा मन मे है और पुस्तकें

अच्छा तो अब चलता हूँ, कोई कमी बेसी रह गयी हो तो चिठिया, पत्र, तार द्वारा सूचित किया जाए। ईमेल द्वारा ना गिटपिटाया जाए।

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शनिवार, नवंबर 25, 2006

मध्यान्हचर्चा दिनांक : 25-11-2006

धृतराष्ट्र अच्छे मूड में नहीं हैं. बेमन-से कोफी पी रहे हैं और संजय को देखे जा रहे हैं. संजय भी मूड को भाँप कर बीना कुछ बोले चुपचाप संजाल को टटोल रहे हैं. समय-सर चर्चा सुनने को न मिले तो इनका मूड खराब हो जाता है. मूड को ठीक करने का एकमात्र रास्ता यही है की इन्हे चिट्ठो का हाल सुनाओ. जल्दी ही अपने शाही रंग में आजाएंगे.
संजय : महाराज आज उडनतश्तरी बस्ती से दूर उड़ते हुए शैतान तथा भगवान के क्रियाकलाप देख रही है.
धृतराष्ट्र : बजाओ ताली..
संजय ने उखड़े हुए धृतराष्ट्र की बात को अनदेखा कर दुसरी ओर नजर दौड़ाई.
धृतराष्ट्र : ये भीड़ क्यों जमा है यहाँ?
संजय : महाराज ये ई-पंडित हैं, जो सब को अपने नाम ‘श्रीश’ की वर्तनी, अर्थ आदी चुटकुले के साथ-साथ सुना-समझा रहें हैं. और बार बार कह रहे हैं कि आप कुछ भी लिख देते हैं, मेरा नाम श्रीश है, श्रीश है, श्रीश है.
धृतराष्ट्र : बात तो ‘शिरिष’ सही कह रहा है. सुनते काहे नहीं. साथ में और भी है जो कुछ सिखा रहा है, कौन है?
संजय : महाराज ये प्रभाकरजी हैं जो सबको भोजपुरी कहावते सुना रहे हैं. पास में ही ‘फाइनमेन ने कहा था’ कहते हुए उन्मुक्तजी कहते हैं कि किसी बात को तब स्वीकार करो जब वह तर्क पर खरी उतरे.
चर्चा के असर से धृतराष्ट्र का मूड सही हो रहा था, कोफी भी अब मजे ले कर पीने लगे थे. इधर नियमीत चर्चाकार भी दरबार में देर से ही सही, लौट आए थे.
संजय : महाराज सुखसागर से एक और कथा सुना रहे हैं अवधियाजी. सुनिये प्रद्युमन के जन्म की कथा.
और महाराज जन्मदिन तो आज तीरंदाज पंकजजी का भी है. दस्तक देते हुए सागरचन्दजी सबको केक खिलाने में व्यस्त है. वहीं रविकामदार आज मौका देख अपना हथोड़ा चलाते हुए पंकजभाई की खिंचाई कर रहे हैं, लेकिन पंकज तो खोया-पाया का हिसाब ही लेकर बैठ गये हैं.
धृतराष्ट्र : और यह सुन्दरीयों के कक्ष में आज कौन घुसा चला आ रहा है?
संजय : महाराज आज यहाँ समय नष्ट करने कोई सुन्दरी नहीं आई है. आज आया है भारत का कोमन-मेन.
महाराज आप इसका हाल-चाल पुछें, और मैं होता हूँ लोग-आउट.

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मध्यान्हचर्चा दिनांक : 25-11-2006

धृतराष्ट्र अच्छे मूड में नहीं हैं. बेमन-से कोफी पी रहे हैं और संजय को देखे जा रहे हैं. संजय भी मूड को भाँप कर बीना कुछ बोले चुपचाप संजाल को टटोल रहे हैं. समय-सर चर्चा सुनने को न मिले तो इनका मूड खराब हो जाता है. मूड को ठीक करने का एकमात्र रास्ता यही है की इन्हे चिट्ठो का हाल सुनाओ. जल्दी ही अपने शाही रंग में आजाएंगे.
संजय : महाराज आज उडनतश्तरी बस्ती से दूर उड़ते हुए शैतान तथा भगवान के क्रियाकलाप देख रही है.
धृतराष्ट्र : बजाओ ताली..
संजय ने उखड़े हुए धृतराष्ट्र की बात को अनदेखा कर दुसरी ओर नजर दौड़ाई.
धृतराष्ट्र : ये भीड़ क्यों जमा है यहाँ?
संजय : महाराज ये ई-पंडित हैं, जो सब को अपने नाम ‘श्रीश’ की वर्तनी, अर्थ आदी चुटकुले के साथ-साथ सुना-समझा रहें हैं. और बार बार कह रहे हैं कि आप कुछ भी लिख देते हैं, मेरा नाम श्रीश है, श्रीश है, श्रीश है.
धृतराष्ट्र : बात तो ‘शिरिष’ सही कह रहा है. सुनते काहे नहीं. साथ में और भी है जो कुछ सिखा रहा है, कौन है?
संजय : महाराज ये प्रभाकरजी हैं जो सबको भोजपुरी कहावते सुना रहे हैं. पास में ही ‘फाइनमेन ने कहा था’ कहते हुए उन्मुक्तजी कहते हैं कि किसी बात को तब स्वीकार करो जब वह तर्क पर खरी उतरे.
चर्चा के असर से धृतराष्ट्र का मूड सही हो रहा था, कोफी भी अब मजे ले कर पीने लगे थे. इधर नियमीत चर्चाकार भी दरबार में देर से ही सही, लौट आए थे.
संजय : महाराज सुखसागर से एक और कथा सुना रहे हैं अवधियाजी. सुनिये प्रद्युमन के जन्म की कथा.
और महाराज जन्मदिन तो आज तीरंदाज पंकजजी का भी है. दस्तक देते हुए सागरचन्दजी सबको केक खिलाने में व्यस्त है. वहीं रविकामदार आज मौका देख अपना हथोड़ा चलाते हुए पंकजभाई की खिंचाई कर रहे हैं, लेकिन पंकज तो खोया-पाया का हिसाब ही लेकर बैठ गये हैं.
धृतराष्ट्र : और यह सुन्दरीयों के कक्ष में आज कौन घुसा चला आ रहा है?
संजय : महाराज आज यहाँ समय नष्ट करने कोई सुन्दरी नहीं आई है. आज आया है भारत का कोमन-मेन.
महाराज आप इसका हाल-चाल पुछें, और मैं होता हूँ लोग-आउट.

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प्रेम याने प्रेम याने प्रेम होता है

प्रस्तुत है आज की चिट्ठा चर्चा ज़रा संक्षिप्त रूप में।

मुकेश बंसल कहते हैं कि हिंदी को अपनाने के मामले में हम दोहरे मापदंडों का इस्तेमाल करते रहे हैं,
"हर पढ़ा-लिखा हिंदुस्तानी अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में डालना चाहता है, लेकिन सामाजिक तौर पर अंग्रेजी के महत्व का विरोध करता है। बातचीत में ज्यादा से ज्यादा अंग्रेजी बोलता है, लेकिन हिंदी के अखबार में अंग्रेजी के शब्द देख कर नाराज हो जाता है। उसकी खुद की जिंदगी में पैंट, शर्ट, टाई, हलो, हाय शामिल हो जाए तो अच्छा है, लेकिन अखबार की भाषा नहीं बदले। इस दोहरेपन से हम जितनी जल्दी मुक्त हों, उतना अच्छा होगा।"

अपनी बात कहने के अपने मौलिक अधिकार का बखूबी उपयोग करते हुये रचना भारतीय क्रिकेट टीम के हारने के संभावित कारणों पर विवेचना कर रही हैं। सारे टेलीविज़न नेटवर्क इंटरनेट और मोबाईल के साधनों पर अपना आधिपत्य सिद्ध करने को आमादा हैं, NDTV ने भी अपना ब्लॉगिंग प्लैटफॉर्म मुहैया कराया पर जगदीश सख्त ख़फा हैं वहाँ प्रकाशित भद्दी, अशलील और नफरत फैलाने वाली टिप्पणियां देख। इस बीच जानिये कि लोग नौकरियाँ क्यों बदलते हैं और पढ़िये असल जीवन में कॉमेडी आफ एरर्स का उदाहरण, डॉ टंडन की कलम से
मैने उससे कहा, "आप को रात मे सावधानी रखनी चाहिये या फ़िर आप गोलियों का सहारा भी ले सकती हैं।"
"तो आप का कहना है कि यह सिर्फ़ रात मे ही होता है।"
मैने उसकी बात को पकडा, "नही-नहीं! मेरे कहने का मतलब है किसी भी समय आप कर सकती है, जब भी आप का मूड करे, लेकिन पूरी सुरक्षा के साथ।"
अब कि बार वह कुछ परेशान सी दिखी, "इसमे मूड से क्या मतलब।"
मै उस का मतलब शायद कुछ-कुछ समझ रहा था, "यह हो जाता है, इसमे मूड की कोई बात नही है।"


तुषार ने मंगेश पाडगावकर की मराठी कविता का सुंदर भावांतरण प्रस्तुत किया है
प्रेम शेम कुछ नही, कहने वाले मिलते हैं
प्रेम याने ढोंग ये भी सोचनेवाले मिलते हैं

ऐसा ही एक व्यक्ति हमसे कहने लगा
पाँच बच्चे हो गए मगर प्यार व्यार कुछ किया नहीं
हमारा काम निकल ही गया, प्यार के सिवा चल ही गया

उसे लगा मै मान गया
लेकिन मैं उस दिन जान गया

प्रेम याने प्रेम याने प्रेम होता है
इनका और हमारा सेम नहीं होता है।
नितिन पई के हवाले से खबर मिली चिट्ठे आफ स्टंम्प्ड के बारे में जो विभिन्न मुद्दों पर ठोस राय का मुज़ाहरा करता है। नितिन कुछ हिन्दी चिट्ठाकारों की तलाश में हैं जो कि इन चिट्ठों को हिन्दी में प्रस्तुत कर सकें। अगर आप को रुचि हो तो मुझे लिखें।

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शुक्रवार, नवंबर 24, 2006

अपने सपनों को रखिये, अपनी मुठ्ठी में भरके

जगजीत-गुलज़ार
जगजीत-गुलज़ार

आज वैसे तो चर्चा करने की अतुल का बारी है। लेकिन वो कल ही हमारे हिस्से की चर्चा छू के निकल लिये लिहाजा जुमे की नमाज हमें पढ़नी पड़ेगी। हम खुशी-खुशी इसके लिये अपना माउस और की बोर्ड पोछ के बैठ गये हैं। काफी के मग पर चूंकि संजय का अकेला कब्जा है लिहाजा सबेरे-सबेरे चाय की चुस्की लेते हुये बतियाना शुरू करते हैं।

कल पंकज ने जब गुजराती ब्लाग चर्चा की तो कुछ लोगों के बड़े बढ़िया कमेंट आये। एक सवाल यह भी कि-"आप इतना लंबा लिखते कैसे हैं?" पंकज ने जो बताया वह चर्चा में देखें लेकिन यह सच है कि उनके लिखने से गुजराती ब्लाग जगह का अच्छा परिचय मिलता रहता है। संजय दोपहर की चिट्ठाचर्चा लिखते हैं उसमें उनका हास्य भाव खिलकर निखरता है। दोपहर चर्चा उनके स्वास्थ्य के लिये मुफ़ीद टानिक है। गुजराती ब्लाग चर्चा को पढ़कर लगता है कि भारत की दूसरी भाषाऒं मराठी, बंगाली ब्लाग की चर्चा भी कोई साथी कर सकें, चाहे हफ्ते में एक ही दिन, तो कितना अच्छा हो। नागपुर वासी, दिल से अध्यापकतुषार जोशी भी मराठी चिट्ठों की चर्चा के प्रस्ताव पर विचार करें।

आज जब हम यह लिख रहे हैं तो दोहरे वदन वाले, कुंडलिया किंग समीरलाल सुडोकु खेलना छोड़कर खुशी में दोहरे हो रहे हैं क्योंकि उनको भारत की दोहरी नागरिकता मिल गयी है। इस सम्बंध में उनकी तमाम योजनायें हैं जो वे कह रहे हैं कि हम अभी नहीं, नहा-धोकर बतायेंगे। तो जब तक वे नहा धोकर बबुआ बनकर आते हैं तब तक कुछ चिट्ठाचर्चा हो जाये।

शुरुआत राजगौरव की शेरोशायरी से। शेरोशायरी के शौकीन राजगौरव अपने दिन की शुरुआत एक बेहतरीन शेर से करते हैं। कल का दिन शुरू किया उन्होंने मुकेश के गाये गीत की याद करके-
मै किसी का नहीं, कोई मेरा नहीं..
इस जहां मे कहीं भी, बसेरा नहीं..
मेरे दिन का कहीं भी, अंधेरा नहीं..
मेरी छांव का है सवेरा नहीं..
हाय, भूला हुआ एक फ़साना हूं, मैं..
हां दीवाना हूं मैं.. हां दीवाना हूं मैं..


मुकेश के याद ताजा करके आगे बढ़े तो देखा मनीश के ब्लाग पर जगजीत-गुलजार की बातें चल रही थीं
:-
नज़र उठाओ ज़रा तुम तो क़ायनात चले,
है इन्तज़ार कि आँखों से “कोई बात चले”

तुम्हारी मर्ज़ी बिना वक़्त भी अपाहिज है
न दिन खिसकता है आगे, न आगे रात चले


गुलजार की लिखी त्रिवेणियों का जिक्र कुछ दिन पहले समीरजी ने किया था। इस एलबम में वे कुछ त्रिवेणियां भी शामिल हैं :-

तेरी सूरत जो भरी रहती है आँखों में सदा
अजनबी चेहरे भी पहचाने से लगते हैं मुझे

तेरे रिश्तों में तो दुनिया ही पिरो ली मैने


कुछ दिन पहले हमारे एक कलकतिया-कुलीग ने फोनवार्ता के दौरान बताया कि प्रसिद्ध अंग्रेजी दैनिक टेलीग्राफ में मुन्ने के बापू और मुन्ने की मां के ब्लाग का जिक्र हुआ था। वह विवरण तो हम न देख पाये लेकिन मुन्ने की मां ने हरिवंशरायबच्चन जी की रूस यात्रा का जो जिक्र किया वह हम आपको बमार्फत नारद जी बता दे रहे हैं। मुन्ने की मां ने भी रूस अपनी आंखों से देखा और यह आश्चर्य हुआ उनको कि वहां सब डरे हुये से लोग दिखे, कोई हंसता हुआ नूरानी चेहरा नहीं दिखा। इसपर मुझे 'नंदनजी' की गजल के ये शेर याद आये:-
वो जो दिख रही है किस्ती,इसी झील से गयी है,
पानी में आग क्या है, उसे कुछ पता नहीं है।

वही पेड़, साख, पत्ते, वही गुल वही परिंदे,
एक हवा सी चल गयी है कोई बोलता नहीं है।

रत्नाजी के लेखन की पठनीयता गजब की है। उनका घर, पति, बच्चे, परिवार उनके लिये वह धुरी है जिसके चारो तरफ घूमकर वे सारी दुनिया की परिक्रमा कर लेती हैं। आज मोबाइल चर्चा के बहाने अपने कष्ट का बयान करते हुये बात शुरू करती हैं:-
हम सामने बैठे होते और पतिदेव उससे गाल सटा कर, मुस्काते बतियाते तो हमारे सीने पर हज़ारों सांप लोट जाते। मौके-बेमौके उसके अंग-प्रत्यंग टटोलना, उसके चेहरे की इबारत पढ़ना और उसकी हर प्रतिक्रया को आंकना-जांचना, जब हद से ज्यादा बढ़ने लगा तो हमारे सब्र का सोत्र सूख गया।


मुआ मोबाइल
मुआ मोबाइल

इसके बाद नैन लड़ि जैहें तो मनवा मां कसक हुइवै करी की जगह की बात जैसे को तैसा तक पहुंच गयी और उनके हाथ में भी एक मोबाइल खेलने लगा और वातावरण में गूंजने लगा:-
तुम न जाने किस जहाँ में खो गए–, आजा-आजा, मैं हूँ प्यार तेरा–, हम-तुम इक कमरे में बंद हो और मोबाइल गुम जाए।


जिस मोबाइल के माध्यम से रत्नाकी के यहां इजहारे मोहब्बत और खोना-डूबना हो रहा है उसी की मदद से हवा में उड़ता एक परिंदा एअरटेल वालों को चूना लगाने के लिये लोगों को लामबंद कर रहा था। और इसी बीच नितिन हिंदुस्तानी को तमाम धोखे दिख गये। क्या हैं वे धोखे ये आप खुद जानिये उनके ब्लाग पर। बड़े धोखे हैं इस ब्लाग पर।


इन धोखों को देखते-देखते आप कहीं दुनिया की कुंजी गूगल को न देखना भूल जायें जिसे आपको खासतौर पर दिखा रहे हैं राजेश बुले।

तुषार जोशी ने मराठी के चर्चित कवि संदीप खरे की कविता अनुवाद करके पेश की है:-
वक्त हाथ से निकला, पता चलता रह रह के
अपने सपनों को रखिये, अपनी मुठ्ठी में भरके
मुठ्ठी खुलने से पहले, मन जाने को करता है
लेकिन गाडी का पहिया, घुमता चला जाता है
ये बड़ा कठिन होता है...


उधर बालेंदु शर्मा वाह मीडिया में पंजाब केशरी के कैप्शन के बारे में बता रहे हैं। अब यह कल्पना की उड़ान है या होंठों की भाषा बांचने का हुनर, यह कौन बताये!

डा.टंडन के ब्लाग पर आप पढ़िये डा किशोर शाह, गायनकालोजिसट मजेदार संस्मरण-वह कौन थी। यह संस्मरण पूरा का पूरा एक साथ पढ़ने वाला है।

जी के अवधिया आज बता रहे हैं पूतना वध की कहानी और जीतेंन्द्र दिखा रहे हैं एक और जुगाड़

उधर अनूप भार्गव एक खूबसूरत फिल्म डोर के बारे में बता रहे हैं जिसको पढ़ते ही कई लोगों के दिल मचल उठे फिल्म की डोर पकड़कर गुलपनाग को देखने के लिये। आप भी देखिये न कोई टिकट तो लगा नहीं यहां। यह अनूप भार्गव जी की पहली फिल्म आलोचना थी सो ये पूछ रहे हैं कैसा रहा उनका शुरुआती ओवर! बताया जाय भाई! नामराशि होने के नाते हम तो बिना पढ़े-देखे वाह-वाह करने के लिये मजबूर हैं।

अनुराग मिश्र आज "धर्म, भगवान, धर्मांतरण, मैं और आप"
पर विस्तार से चर्चा करते हैं:-
धर्म के नाम पर रोटी सेकने वालों की मौज हो गई। इतिहास गवाह है कि बड़े बड़े धार्मिक संस्थान भ्रष्टाचार के गढ़ रहे हैं। धर्म डर दिखाने का एक अच्छा माध्यम भी है, भेंड़चाल से चलने वालों लोगों को चलाने का एक बढ़िया माध्यम भी मिल गया। धर्म को नैतिक आचरण परिभाषित करने का भी जरिआ बना दिआ गया। जो हो गया, सो हो गया, लेकिन सैकड़ों, हजारों साल पहले स्थापित, परिभाषित किए गए नियमों से आज भी समाज को हाँकने का प्रयास किया जाता है। समय के साथ समाज का नियम और आचरण भी बदलते हैं, लेकिन धर्म के तथाकथित ठेकेदार आज भी चाहते हैं कि दुनिया पुराने नियमों के अनुसार आचरण करे और धर्माधिकारियों और भगवान से डरे। जो अपने नियम बनाए और आधुनिक विचारों से चले वो नास्तिक, भ्रष्टाचारी और ना जाने क्या क्या।


इसके बाद वे धर्मान्तण के गोरखधंधे की बात बताते हैं:-
जिस तरह धर्म एक गोरख़धंधा है, और भ्रष्टाचार करने वालों के लिए एक अच्छा माध्यम है, और उसी तरह से धर्मांतरण भी एक गोरख़धंधा है। आपकी वफादारी "एक तरह के भगवान" से "दूसरे तरह के भगवान" में बदलने की कोशिश की जाती है। काफी पैसा भी इसमें बनता है, बड़े बड़े दान मिलते हैं, और समाजसुधार का ढोंग भी होता है।

आज की टिप्पणी/प्रति टिप्पणी:-


1.टिप्पणी:
How do you get time to write so much ? Really great !

सुरेश जैनी पंकज की गुजराती चिट्ठाचर्चा पर
प्रति टिप्पणी:वैसे तो हम किसी को बताते नहीं लेकिन आप पहली बार पूछ रहे हैं तो बता देते हैं। जब मैं, मेरा की बोर्ड और माउस आपस में बाते करते हैं तो चिट्ठे अपने आप लंबे लिख जाते हैं।
2.टिप्पणी
अनूप के लेख हर बार पढ़ता हूँ, कभी आनलाउन, अधिक लंबे हो तो आफलाईन, पर पढ़ता हर बार इस उम्मीद से हूँ कि कभी तो किसी चिट्ठे पर टिप्पणी करने का साहस संजो पाउंगा पर फिर पोस्ट मगज से छ सात फुट उपर निकल जाती है और मन मसोस कर रह जाना पड़ता है। खैर, प्रयास जारी हैं!

देबाशीष: समीरलाल की चर्चा पर
प्रतिटिप्पणी: ठीक है भैये अब जल्दी ही मुथैया मुरलीधरन के 'दूसरा' की तरह, मगज से छ सात फुट उपर निकल जाने वाले बाउंसर, की जगह जमीन पर घिसटने वाली,'सुर्रा' गेंदबाजी की रियाज शुरू करते हैं। अब ये न पूछना कि सुर्रा क्या होता है! ये केवल जीतेंन्दर और अतुल ही नहीं और तमाम लोग भी जानते हैं।

3.टिप्पणी:गुज्जु काका सही मिलें हैं आपको-लगे रहो, बढ़ियां जोड़ी जमीं हैं. थोड़ा सम्भालना उनको, हल्के से फिसलू नजर आते हैं.:)
-वैसे गुजराती चिट्ठों की चर्चा के उतकृष्ट कार्य के लिये आप बधाई के पात्र हैं.
समीरलाल पंकज की गुजराती चिट्ठाचर्चा पर
प्रति टिप्प्णी: तारीफ के शुक्रिया। फिसलने के लिये तो वही गाना -आज रपट जायें तो हमें न बचइयो...!

आज की फोटो

:-
आज की फोटो राजेश के ब्लाग से गूगल की चाबी

दुनिया की कुंजी गूगल
दुनिया की कुंजी गूगल

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गुरुवार, नवंबर 23, 2006

आज के चिठ्ठे

सायबर कैफे कैसे चलाया जाये इस बारे में कुछ हाट टिप्स को ओपेन सोर्स कर रहे हैं भुवनेश। कयह वाली तो न सिर्फ बिजनेस चलायेगी बल्कि चिठ्ठाकारी के जंगल में आग लगा देगी।
ग्राहकों को ब्लॉगिंग के बारे में बताएं और स्वयं का चिट्ठा बनाने में मदद भी करें। जो जिस भाषा का हो उसे उसी की भाषा में चिट्ठा बनाने को उकसायें, दीवारों पर सूचना लगा सकते हैं कि 'now be the publisher of ur own literature' या 'अपनी भाषा में खुद को अभिव्यक्त करें ब्लॉग्स्पॉट और वर्डप्रेस का प्रयोग करें'। लोगों को बताएं कि वे खुद का डोमेन खरीद सकते हैं मात्र रुपये ५०० में।

गुगल खोजक की हिंदी की पहुँच यूनिकोड से बाहर निकल कर अब नाना प्रकार के फोंट वाली साईट्स तक पहुँच गयी है। अब कूपमँडूक साईट्स के रखवालो को नानयीनोकोडित फोंट के खोल में छुपा रहने का एक और बहाना मिल गया।

सर्दी का मौसम आते ही ज्वार की रोटी याद आ गयी गुप्त जी को और मुँह में पानी आ गया ब्लाग बिरादरी के।
ज्वार की रोटी आटे को हाथ से थपथपा कर पतली और गोलाकार कर के तवे पर सेंकते हैं। इस आटे को बेलन से बेलना बहुत मुश्किल है। इस रोटी को पनेथी भी कहते हैं जैसे बेली हुई रोटी को बेली।

युद्ध सैनिको की मनोदशा पर गहन प्रभाव डालता है , सकारात्मक और नकारात्मक दोनो तरीको से झेलते सैनिको को देखिये पैट्रिक्स की नजर से।

कुछ दिन पहले रविरतलामी ने रिव्यू मे के बारे मे लिखा था। इस पे जिन लोगो ने भागदौड़ कर रजिस्ट्रेशन कराया है इसे जरूर पढ़ लें।

आज की फोटो

राह चलते भक्ति!

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बुधवार, नवंबर 22, 2006

मध्यान्हचर्चा दिनांक : 22-11-2006

धृतराष्ट्र कुर्सी पर पसरे हुए हैं. एक हाथसे पेपरवेट घुमा रहे हैं, दुसरे में उनकी पहचान बन गए कोफी कप को थामे हुए हैं. संजय अपनी नज़रे कमप्युटर स्क्रीन पर गडाये हुए, नारदजी का आह्वान कर रहे है. तभी धुं-धुं की आवाज सुनाई दी, तो धृतराष्ट्र ने आकाश की ओर देखनी की कोशिश में छत को घुरा और ताली बजाई. धुं-धुं की आवाज आनी बन्द हो गई. संजय ने प्रश्नवाचक नजरों से उन्हे देखा.
धृतराष्ट्र : कुछ नहीं उडनतश्तरी गुजर रही थी, ताली बजा देने पर शांति से गुजर जाती है. छोड़ो, तुम देखो कौन अपना कुंजिपटल टकटका रहा है.
संजय : महाराज ई-पंडितजी भारतवर्ष के पृथ्वी नामक प्रेक्षापास्त्र के सफल परिक्षण का समाचार दे रहे हैं, साथ ही वे चाहते हैं भारत के प्रधानमंत्रि आइना दिखाते कंगारूओं से कुछ सिख ले.
धृतराष्ट्र : यह तो हमने सिखा ही नहीं, आगे बढ़ो और कौन द्वन्द में उलझा हुआ है.
संजय : यहाँ तो महाराज डॉ. बेजी ही अपने मन से द्वन्द कर रही है. सुखसागर में कृष्णावतार की कथा चल रही है, तो जितेन्द्र चौधरी नामक योद्धा गागर में सागर भरने की युक्ति बता रहे हैं.
धृतराष्ट्र : दिलचस्प.
संजय : महाराज, दिलचस्प तो यह जैम नामक पत्रिका है, जिसे कानपुर में मात्र रविशंकरजी ही जम कर पढ़ते हैं. तथा जम कर चुटकुले भी सुनाते हैं.
धृतराष्ट्र : पर तुम मन बहलाने के बहाने ‘जमो’ मत आगे देखो.
संजय : आगे महाराज गयाना में छायाचित्रकार एक तस्वीर लिए खड़े हैं, पुछ रहें हैं इसे क्या नाम दूँ. और यह एक और तीर चला तरकश से, पंकज बता रहे हैं एक ही पटरी पर दौड़ती भारतीय मोनोरेल के बारे में.
महाराज अब आप इस रेल की सवारी का आनन्द लें मैं लोग-आउट होता हूँ.

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पानखर नी प्रितडी [गुजराती चिट्ठे]

आज युँही बैठा था तभी गुज्जु काका आ गये।
गुज्जु काका : शुं छे? मजा मां?
मैं: अरे काका, किधर चले गए थे आप?
गुज्जु काका : यु.एस. और कहाँ! गुजराती नो एक पग यहाँ ने दुसरा पग ...... सी.....धा....... यु.एस.।
मैं: ह्म्म.. बराबर है। समझ गया। हो आए।
गुज्जु काका : तो पछी शुं! मज्जा नी लाइफ छे।
मैं : ठीक है भाई, हम तो यहीं अच्छे।
गुज्जु काका : कुछ चर्चा वर्चा करी क्या?
मैं: मूड नहीं था।
गुज्जु काका : ओये.... वल्गर बात।
मैं: क्या वल्गर?
गुज्जु काका : मूड्स...
मैं: मैने... यह एक्स्ट्रा स्स्स्स नहीं लगाया ओके! उमर का लियाज करो ना काका।
गुज्जु काका : उर्मीबेन ने कुछ लिखा क्या?
मैं: क्यों, बहुत याद आ रही है?
गुज्जु काका : ही ही ही ही।
मैं: बेशर्म होते जा रहे हो आप। चलो देखते हैं... कुछ तो होगा ही... वही एक सक्रीय है।

लो देख लो है ना...अरे बाप रे इस बार तो मुक्तक लेकर आई हैं:
રે થાક્યું મન,
અટક હવે!
લે, લઇ લે ચરણ
મારા, દઉં છું
હું દાન તને!
*
બોલાઇ ગયુ
કૈંક, પણ શેં
પાછું ખેંચી શકું હું?!
લાવ, બીજો
કો’શબ્દ ઉમેરું!

रे थके मन,
रूक अब
ले ले ले इसे
मैरे, देती हुँ
दान
तुझे

कह दिया
कुछ, पर क्या
ले सकती हुँ फिर से
ला कुछ
और
शब्द मिलाऊँ

गुज्जु काका : खाश पता नहीं चला।
मै: काका वो तो समझ समझ का फेर है।
गुज्जु काका : एम? छोड बीजु क्या है?
मै: उर्मीजी, प्रेम के विषय में भी बता रही हैं।
गुज्जु काका: मन्ने उसमें इंटरेस्ट छे।
मैं : पता है मुझे, देखिए वो एक दोहा पोस्ट करते हुए कहती हैं
નેહ નિભાવન હય કઠન,સબસે નીભવત નાહ,ચઢવો મોમ તુરંગ પે,ચલવો પાવક માંહ.नेह निभावन है कठनसबसे निभवत नाहचढवो मोम तुरंग पेचलवो पावक माहंअर्थात प्रित निभानी कठीन है और हर कोई इसे निभा नही सकता। यह ऐसा ही है जैसे
मोम के घोडे पर बैठकर आग से निकलना हो।
गुज्जु काका: ऐसी बात है?
मै: बिल्कुल ऐसी ही बात है, पर आप क्यों उदास हो गए?
गुज्जु काका: रेवा दे। आगे चल।
मै: मोरपिच्छ में दलपत चौहान की बडी प्यारी कविता है:
સોનાની સેરોથી સૂરજને લીંપો ને
કાજળની દાબડી અમારી.
આપ્યાં રે ગીત રીત ફાગણનાં તમને,
પાનખરની પ્રીતડી અમારી

सोने के रेशों से सुरज को मढ लो,
काजल की शीशी हमारी,
दिए रे गीत तुझे फागुन के मैने,
पतझड की प्रित हमारी

गुज्जु काका: बहुत प्यार व्यार नी वात थई गई, कुछ और नही है।
मै: ह्म्म्म, चलिए देखते हैं, वाह... देखिए तो...अमीझरणुं में भीखुभाई "नादान" की क्या मस्त कविता है:
કહો આ આપણા સંબંધની ના કઇ રીતે કહેશો ?કે મારે ત્યાંથી નીકળી આપને ત્યાં જાય
છે રસ્તો.
જતો’તો એમને ત્યાં, એ રીતે સામા મળ્યાં તેઓ,પૂછીપૂછીને પુછાયું કે આ
ક્યાં જાય છે રસ્તો.

कहो तो अपने संबन्ध की ना कैसे कहोगे
कि मेरे यहाँ से निकलकर आपके पास जाता है रास्ता
जा रहा था उनके यहाँ, कि वो युँ सामने मिले,
रह रह कर भी पूछ ही लिया कि कहाँ जाता है यह रास्ता।

गुज्जु काका: पंकज!!!!
मै: जी, काका।
गुज्जु काका: प्यार मोहब्बत प्यार मोहब्बत प्यार मोहब्बत। कुछ और नहीं है क्या...?
मै: अब मैं क्या करुं काका? चलो देखते हैं.... वैसे आपको हुआ क्या है?
गुज्जु काका: अपना काम करो ना....
मै: ह्म्म... भई ठीक है.. देखते हैं.... अंतर नी वाणी में रामकृष्ण परमहंस के द्वारा रचित एक भजन है।
गुज्जु काका: तो लिखो ना...
मै: ना.. जाकर ही पढ लो..
गुज्जु काका: ऐसा क्या है?
मै: वो... प्या...मोह... वही है!
गुज्जु काका: नह्ह्ह्ही.. नहीं... आगे चल दिकरा आगे चल।
मै: कार्तिक भाई गुजराती ब्लोगर मीट करवाना चाहते हैं हिन्दी ब्लोगर मीट की तरह।

गुज्जु काका: यह तो सारुं आइडिया छे। क्यारे करे छे।
मैं: अभी डिसायड नही है।
गुज्जु काका: हम्म... हो तो अच्छा है।
मै: चलो छोडो, काका वैसे आज हुआ क्या है?
गुज्जु काका: काकी की याद आवे छे। एने यु.एस. मुकी आव्यो छुं (उसे यु.एस. छोडकर आया हुँ)
मै: अरे रे। चलो यह कहो अमेरीका से मैरे लिए क्या लाए?
गुज्जु काका: छे ने! आ जो खमण ने ढोकळा। (है ना.. यह देखो खमण ढोकळा)
मै: वाह अमेरीका में यह भी मिलता है?
गुज्जु काका: तो क्या, चाखी ने जो।(चख कर देख)
मैने एक टुकडा मुँह में लिया।
गुज्जु काका: केवु छे? (कैसा है)
मै: अच्छा है काका पर.........
गुज्जु काका: पर क्या?
मै: देश की मिट्टी की खुश्बु तो कहाँ से आएगी

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कृप्या टिप्पणियाँ करने दें

आज की यात्रा शुरु हुई तो अनूप भार्गव जी बड़े दुखी स्वर में मनुहारी गीत पेश कर रहे थे;

तुम जब से रूठी हो
मेरे गीत अपना अर्थ खो बैठे हैं
मेरे ही गीत मुझ से ही खफ़ा हो
मुझ से दूर जा बैठे हैं

माना कि तुम मुझ से नाराज़ हो
लेकिन मेरे गीतों से तो नहीं
क्या तुम उनको भी मनानें नही आओगी ?

मेरे गीत फ़िर से नया अर्थ पानें को बेताब हो रहे हैं ।



इस कविता को लेकर 'फुरसतिया' जी इतने विचलीत हुए कि अनूप शुक्ल जी से घंटों गीत और गीत का अर्थ समझते रहे:

पहले तो खबर सुनाई गई:

फुरसतियाजी बोले-पता है गुरू, ये अनूप भार्गव जी की उनके गीत से खटक गयी और वे उनसे दूर भाग गये हैं।



और गीत का अर्थ बताते हुए कहते हैं:

गीत, कविता घराने में पाया जाता है। अब कविता तो इधर-उधर तमाम जगह टहलती रहती है, डांय-डांय घूमती रहती है। कभी इस भेस में कभी उस भेस में। लेकिन इन्हीं कविताऒं में कुछ ऐसी अनुशासित कवितायें भी होती हैं जिनको सुनकर मन खुश हो जाता है। ये कवितायें अच्छे, पढा़कू बच्चों की तरह अनुशासित सी होती हैं। बढ़िया शब्दों का फेसपैक लगाते ऐसी कवितायें अलग से चमकती हैं। कोमलकांत शब्दों से ये कवितायें उसी तरह लदी-फदी रहती हैं जैसे अप्रैल-मई के महीने में मलीहाबाद में आम के पेड़ दशहरी आमों से लदे रहते हैं। खुशबूदार शब्दों से घिरी हुई इन कविताऒं से दूर-दूर तक सौंन्दर्य महकता है। यहां तक कि अगर कोई न्यूयार्क में कविता पढ़ता है तो उसकी महक से लखनऊ की रेवड़ियां और कन्नौज का इत्र तक महकने लगता है। इसी तरह की कविताऒं को लोग अलग रखकर गीत के रूप में पहचान दे देते हैं।



फिर अज्ञानता का कुछ और सफाया करते हुए:

शुकुलजी ने चेले की अज्ञानता पर अपना माथा ठोंका और बताया- जब आदमी को कुछ समझ में नहीं आता कि दूसरे से किस तरह से व्यवहार किया जाये तो वह उसकी इज्जत करने लगता है। इज्जत करने की महत्ता इसी बात से समझी जा सकती है कि जो आदमी कुछ भी नहीं कर सकता वह भी किसी की भी इज्जत कर सकता है। दूसरी ओर कोई चाहे किसी भी काम लायक न हो लेकिन वह इज्जत के लायक हमेशा हो सकता है।


और अंत में:

शुकुलजी ने जुम्मन मियां और अलगू चौधरी की आत्मा थोड़ी देर के लिये किराये पर ली और अपनी राय जाहिर की- देखो मेरी और जनता की जानकारी में अनूप भार्गव इज्जतदार आदमी हैं। उनको ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिये जिससे गीत इतने नाराज हो जायें कि दूर जाकर बैठ जायें और जाड़े में ठिठुरकर अपना अर्थ खो दें। अर्थ खो देने का मतलब क्या है -’टोटल मेमोरीलास’ मतलब आगरे की तरफ प्रस्थान। यह सब नहीं करना चाहिये और वे स्थितियां बचानी चाहिये जिससे घर वाले इतना नाराज हो जायें कि बात सरेआम कहनी पड़े। और ये सब घरेलू बाते कहने से क्या फायदा, किस घर में नहीं होता।



थोड़ा लम्बा लेख है, मगर इतनी बड़ी बात के लिए इतनी लंबाई आपेक्षित है। है भी बड़ा मजेदार, आन्नद आयेगा.

यह तो हुई एक तरह की मनुहारी कविता और उस पर चर्चा और दूसरी तरफ देखें राममनोहर जी के अलग तेवर:

रुठ के तुम कहां जाओगी,
लौट के तुम जरूर आओगी,

भूल हम से हुइ है क्या ऐसा,
जिसकी सजा इतनी बेरूखी जैसा,

सजा जब तुम हमको देती हो,
बन्द कमरे मे तुम क्यों रोती हो,...........


अब भाई, सबके अपने अपने अंदाज हैं, अपनी तरह से अपना मामला निपटायें, हम तो आगे चलते हैं.

इन सब गमगीन वातावरण से दूर संजय बैंगाणी एक अलग तरह की कब्जियत का शिकार हो गये हैं, उनकी टिप्पणी करने की अभिलाषा के पूर्ण निस्तार के लिये सबसे निवेदन कर रहे हैं कि सब उन्हें टिप्पणी करने दें. हमसे उनकी हालत देखी नहीं गई और हमने तो कम से कम अपने चिट्ठे पर टिप्पणी करने के द्वार सबके लिये तुरंत खोल दिये. शायद कुछ आराम लगे. आज तो संजय भाई इसबगोल खाकर किसी तरह सोये हैं, देखिये कल क्या होता है.

एक तो अगला कब्जियत से परेशान है वो भी दूसरों की प्रशंसा के लिये, उस पर भुवनेश टॉनिक लेकर खड़े हैं और वो भी आत्माप्रशंसा का:

कुछ लोगों की सेहत के लिए आत्मप्रशंसा का टॉनिक बेहद जरूरी होता है। ये जब तक किसी से अपनी प्रशंसा में दो-चार शब्द ना कह लें इन्हें भोजन हजम नहीं होता, कई बार तो हालत इतनी बिगड़ जाती है कि रात को नींद तक नहीं आती और यदि भूल से आ भी जाये तो बुरे-बुरे सपने आते हैं। इसलिए इन्हें सुबह जल्द उठकर फ़िर से किसी शिकार की तलाश में निकलना होता है।


संजय, अगर आराम न लगे, और ज्योतिष, टोने वगैरह की तरफ मन भटके तो उन्मुक्त जी को पकड़ना, वो लेकर बैठे हैं ज्योतिष, टोने टुटके पर पूरे ज्ञान का भंडार:

सच में हम बहुत सी बातो को उसे तर्क या विज्ञान से न समझकर उस पर अंध विश्वास करने लगते हैं, जिसमें ज्योतिष भी एक है। ज्योतिष या टोने टोटके में कोई अन्तर नहीं। यह एक ही बात के, अलग अलग रूप हैं। यही बात अंक विद्या और हस्तरेखा विद्या के लिये लागू होती है। यह दोनो, टोने टोटके के ही दूसरे रूप हैं।

खैर, इन्हें इनके हाल पर छोड़कर निकलने मे फायदा दिखा तो निकले, अब रचना बजाज जी घोर चिंतन में मिलीं,

छोटे बच्चों के किसी काम को करने या नही करने के अपने तर्क होते हैं.कई बार वे अपने उत्सुकता भरे सवालों से अपने माता-पिता को स्तब्ध कर देते हैं.

इस विषय में कुछ कह देने को उत्साहित है: नन्हें दिमाग और मासूम तर्क:

बेटी- जब मै बडी हो जाउँगी तब दीदी छोटी हो जायेगी ना? तब वो मुझे दीदी बोलेगी!
मै- नही ऐसा नही हो सकता, उसका जन्म तुमसे पहले हुआ है, तो तुम ही उसे दीदी बोलोगी हमेशा..
बेटी- ये तो गलत बात है! मै ही उसे दीदी बोलूँ?, फिर आपने मुझे आपकी बडी बेटी क्यूँ नही बनाया???




फिर मिले सृजन शिल्पी जी लोक सरोकारों में कवि नागार्जुन की भूमिका पर श्रॄंखलात्मक लेख लेकर:

एक जनकवि के रूप में नागार्जुन खुद को जनता के प्रति जवाबदेह समझते हैं, किसी राजनीतिक दल के प्रति नहीं। इसलिए जब वे साफ ढंग से सच कहते हैं तो कई बार वामपंथी दलों के राजनीतिक और साहित्यिक नेताओं को भी नाराज करते हैं। जो लोग राजनीति और साहित्य में सुविधा के सहारे जीते हैं वे दुविधा की भाषा बोलते हैं। नागार्जुन की दृष्टि में कोई दुविधा नहीं है।….यही कारण है कि खतरनाक सच साफ बोलने का वे खतरा उठाते हैं।

और लेख के प्रवाह में जो कवितायें हैं, वाह, वाह, मेरी पसंद:

अपने खेत में हल चला रहा हूँ
इन दिनों बुआई चल रही है
इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही
मेरे लिए बीज जुटाती हैं
हाँ, बीज में घुन लगा हो तो
अंकुर कैसे निकलेंगे!
जाहिर है
बाजारू बीजों की
निर्मम छँटाई करूँगा
खाद और उर्वरक और
सिंचाई के साधनों में भी
पहले से जियादा ही
चौकसी बरतनी है
मकबूल फिदा हुसैन की
चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक
हमारी खेती को चौपट
कर देगी!
जी, आप
अपने रूमाल में
गाँठ बाँध लो, बिल्कुल!!


आज मनीष जी अपनी पचमढ़ी यात्रा की अंतिम किश्त लेकर आये हैं, एक से एक तस्वीरें और लिखने का वही निराला अंदाज. मनीष जी का यात्रा वृतांत लिखने का तरीका सभी को बहुत भाया, जो कि टिप्पणियों से जाहिर है, वे बधाई के पात्र हैं.

चलते-चलते पचमढ़ी की यादों को किसी चित्र के जरिये समेटने की कोशिश करूँ तो यही छवि मन में उभरती है ।पहाड़ियों और चने जंगलों की स्याह चादर के बीच इस नन्हे हरे-भरे पेड़ की तरह इन उँघते अनमने जंगलों के बीच हरियाली समेटे जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा !

ज्ञानियों की चर्चा भी हमने सुनी और आप भी ज्ञानार्जन कर सकते हैं, शिरिष जी डॉ.टंडन को रंगीन शब्द लिखना सिखा रहे हैं. हम समझे कुछ रंगीन बात होगी तो चले गये मगर वो तो लाल, पीले, नीले रंगों में शब्द लिखना सिखा रहे हैं.सो हम चले आये.

अब रंगों के बात चली है तो रजनी जी भी पतझड़ के रंगों पर अपना लेख लाईं है जो पढ़ने में बिल्कुल कविता की अनुभूति देता है. वाकई बहुत सुंदर लेख बन पड़ा है.

हल्की सी खुनक हवा में बस रही थी. मुझे अंदर जाने के लिए बाध्य कर रही थी. आकाश में पक्षियों का झुण्ड अपने नीड़ की ओर जा रहा था. हरी घास पर बिछी लाल, पीली पत्ति्याँ लोटने के लिए निमंत्रण दे रहीं थी. ठँड से बचने के लिए मैं अपने को अपनी ही बाँहों के घेरे में कसती जा रही थी. हार कर अन्दर जाने के लिए उठी, कुछ लाल पीली पत्तियाँ मुट्ठी में बँद कर के पतझड़ को मन में अंकित करना चाह रही थी.

अब चलने का समय हुआ, आज तो कोई नई मुण्ड़लियां हुई नहीं, परसों कि हमारी ताली पुराण से ही मेरी दो पसंद की सुन लें फिर से:

नेता, कवि, महात्मा कि गायक गीत सुनाय,
बिन ताली सब सून है, रंग न जमने पाय.
रंग न जमने पाय, ताली से मच्छर हैं मरते
डेंगू, गुनिया, मलेरिया, पास आने से डरते.
गुरु मंत्र लो; तुम डिप्रेशन को दूर भगाओ
सुन कर मेरे कवितायें, ताली खुब बजाओ.

सदियों का इतिहास है, इस पर हमको नाज
मानव की पहली खोज में, आता है यह साज
आता है यह साज कि हरदम मंदिर में बजता
भजन, कीर्तन या आरती, जब भक्त है करता
इसकी ही सुर ताल है जो सबको रखे जगाये
वरना अखंड रामायण में, भक्त सभी सो जाये.



अरे, हां चलते चलते, तरकश पर देखें रचना बजाज की कविता-नेता और जनता और पंकज बैंगाणी का आईडिया. फिर बोर होने लगें तो वहीं मध्यान्तर मस्ती मे सुडोकु और शतरंज खेलें. क्या कहा, सुडोकु खेलना नहीं आता, तो हमसे बताओ, हम एक पोस्ट के माध्यम से सिखा देंगे. जब कुण्ड़ली और त्रिवेणी सिखा सकते हैं, तो यह क्यूँ नहीं. मगर थोड़ा आग्रह तो किजिये, भले ही यहीं टिप्पणी में. और हां, वो सुनील जी की गयाना यात्रा का वृतांत सुनें यहीं पर. बेहतरीन चित्रों के साथ.

आज की टिप्पणी:

सागर नाहर प्रतीक की पोस्ट पर:

बिल्कुल सही है प्रतीक भाई
गाँधीगिरी फ़िल्मों में ही ठीक लगती है, यथार्थ में अगर यह सब करना मूर्खता ही होगी।
अब तो हमें कृष्णनीति, सावरकरनीती या शिवाजीनीती सीखनी चाहिये।


अनूप शुक्ल रवि रतलामी पर:

आपै बताओ क्या है मामला.छोले वाले का इंटरव्यू लीजिये. पूछिये ब्लाग काहे नहीं लिखता जितनी देर ग्राहक नहीं रहते.


आज की तस्वीर:

मनीष जी की पचमढ़ी यात्रा से:


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मंगलवार, नवंबर 21, 2006

मध्यान्हचर्चा दिनाकं 21-11-2006

धृतराष्ट्र कोफी की प्रतिक्षा कर रहे थे, संजय संजाल का संचार करने में व्यस्त दिखे. तभी सामने से धृतराष्ट्र की नीजि सचिव ने कोफी का मग लिए कक्ष में प्रवेश किया. चपरासी आज आया नहीं था. मौका देख संजय ने भी अपने लिए कोफी का अनुरोध कर दिया. धृतराष्ट्र ने तीरछी नज़र से देखा पर तब तक नारदजी की करतालों की ध्वनि गूँजने लगी थी. अनुज भी साथ था.
धृतराष्ट्र : तुम्हारी कोफी का इंतजार करें या चिट्ठा दंगल का हाल सुनाओगे?
संजय : कोफी तो आती रहेगी महाराज, स्क्रीन पर जो दृश्य उभर रहे हैं..... अरे यह सब हिन्दी में कैसे हो गया? महाराज ई-पंडितजी कोई मंतर बता रहे है, जिससे संगणक हिन्दीमय हो जाते है, पर सावधान चोरी के माल पर मंतर काम नहीं करता.
धृतराष्ट्र : खुश होने से पहले ही निराश कर दिया खैर.... यह दो का पहाड़ा कौन रट रहा है?
संजय : महाराज ये प्रत्यक्षाजी है, जो अब तक समझ नहीं पायी है की दो और दो, चार होते हैं या बाईस. उम्र के साथ गणित बदल जो जाता है. इधर लगता है दुबेजी का भी गड़बड़झाले के साथ दर्द का रिश्ता है. दार्शनिक बने बयान कर रहे है, कभी रिश्तों का दर्द तो कभी दर्द के रिश्ते.
धृतराष्ट्र : इस तरह तो हम भ्रमित हो जाएंगे... आगे देखो....लो तुम्हारे लिए कोफी भी आ गई.
संजय : धन्यवाद
फिर वे कोफी का एक घूँट भरते हैं.
संजय : महाराज दुःख की बात है पर अत्याचार हर युग में हुआ है. देखिये, कंस का अत्याचार बयान कर रहे हैं सुखसागर से अवधियाजी, तथा आधुनिक युग में श्रमिको पर हो रहे अत्याचार को बता रहे हैं अफ्लातुनजी.
धृतराष्ट्र : संजय यह तो तुमने कोफी का स्वाद कड़वा कर दिया, दिल दर्द से भर गया है.
संजय : क्या करूँ महाराज जहाँ जैसा हो रहा है मुझे तो बताना है, आप इन तस्वीरों को देखिये तथा कुछ मन बहलाईये. इन्हे दिखा रहे हैं, मिश्राजी तथा जितुजी
एक काम की जुगाड़ भी लेकर आएं हैं लूँटना न भूलें. अब महाराज आप जुगाड़ का विश्लेषण करें, तब तक मैं कोफी खत्म करता हूँ.

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गोविंदा, सलमू और अक्की को चुनौती देने आया मेंबले !

शराफत अलीः मिर्जा साहेब अरे ओ मिर्जा साहेब!
मिर्जाः अमाँ क्या हो गया , काहे गले की गली को तकलीफ दे रहे हो?
शराफत अलीः अमाँ सुना क्या, अपने सलमू , अक्की और चींची के दिन लद गये।
मिर्जाः ये कौन लोग हैं भई, छुट्टन के भतीजे हैं क्या?
शराफत अलीः अमाँ नही, बॉलीवुड के कमर मचकाऊ हीरो है , अक्षय सलमान और गोविंदा। इनकी छुट्टी करने आ गया है मेंबले
मिर्जाः ये कौन है भाई, अजब नाम है। किस हीरो हिरोईन के लख्तेजिगर हैं ये मेंबले मियाँ?
शराफत अलीः ये कौन्हो हीरो हिरोईन के लरिका नही, ई तो पेंग्विन है , ज्यादा जानकारी सुनो रोजनामचा पर।
मिर्जाः अरे हम तो समझे कि अनिल कपूर या ऋषि कपूर का लौंडा आ गया पिक्चर में।
शराफत अलीः अमाँ तुम तो समझ गये पर एक बात समझ नही आती, ये सारे के सारे बुजुर्ग,समझदार और शरीफ समझे जाने वाले वरिष्ठ ब्लागरो को क्या हो गया है?
मिर्जाः क्या , ये सब छोटो के झगड़े सुलझाते सुलझाते खुद लड़ पड़े?
शराफत अलीः नही, लड़े तो नही, पर पिट जरूर जायेंगे किसी दिन घर में। पहले एक गुलबदन के चर्चे आम हुये थे अब माशूका पटाने के एक सौ एक नुस्खे आनलाईन हुई गये।
मिर्जाः अँदर की बात बतायें, चौधरी जी जवानी के दिनो में जिन किताबी नुस्खों से जू.. आई मीन धोखाखाये उससे नयी जवान नस्ल को बचाना चाहते हैं। अमाँ मुलायम सिंह को इन्हे देना चाहिये था हिंदी सम्मान।
शराफत अलीः सही बात है, शोभा नही देता ब्लागजगत बिन जीतू के जैसे अहिर बिना घोठा के और बाभन बिना लोटा के !
ससुराल बिना साली के, पटौनी बिना नाली के,
रात बिना तारा के, पायजामा बिना नारा के,
क्षत्रिय बिना शान के, बनिया बिना दुकान के,
अहिर बिना घोठा के, बाभन बिना लोटा के ।।..
शोभा नहीं देता...

मिर्जाःखैर मियाँ इस इश्कबाजी के बीच अवधिया जी पूरी तल्लीनता से पुराण सुना रहे हैं।
शराफत अलीः कोला जंग देख रहे हो मियाँ?
उदारीकरण के आर्थिक दर्शन में मजदूरों की छंटनी औद्योगिक सक्षमता की अनिवार्य शर्त है

मिर्जाः देख रहा हूँ, सुन रहा हूँ। अपना यह मानना है कि ऊपर वाले खुदा ने हर इंसान को दिये दो हाथ कि बंदे इन हाथो से अपने पास की जमीन खोद और निकला ले अपने हिस्से की दो रोटी, खींच ले अपने हिस्से का पानी। लेकिन इन कोला कंपनियो ने पैसे के बल पर गरीबो के हिस्से का पानी खींच लिया, अब जमीन से जितना खींचोगे उतना वापस दोगे नही तो सूखा पड़ेगा कि नही? अगर मजलूम के हिस्से की रोटी छीन छीन कर उसको उसकी बेबसी पर चिढ़ाते जाओगे तो एक दिन उसके हाथ से पत्थर छूट कर सीधे तुम्हारी कार का शीशा तोड़ेगा , वह इसे क्रांति बोलेगा और तुम इसे नक्सलवाद!
शराफत अलीः अरे मियाँ , तुम यहाँ किस्सेबाजी करने आये हो कि खुद ही फलसफा झाड़ने लगे?

मिर्जाः अब क्या कहे जिसे देखो गाँधी के पीछे पड़ गया है। पहले गाँधीगिरी की बखिया उधेड़ी गयी थी अब प्रतीक बाबू भी उसी सुर में सुर मिला लिये है।
हालाँकि गांधीवाद बिल्कुल ही बेकार हो, ऐसा नहीं है। लेकिन उसका दायरा बहुत सीमित है और व्यापक तौर पर उसका प्रयोग करना ठीक उसी तरह मूर्खतापूर्ण होगा, जिस तरह सब्ज़ी काटने के चाकू का इस्तेमाल युद्धक्षेत्र में करना। हिन्दू धर्म के गीता में प्रतिपादित सिद्धान्त हर देश-काल में कार्य रूप में परिणत किए जा सकते हैं और गांधीगिरी की तरह सीमित नहीं है।

शराफत अलीःयह रतलाम के बताशे कब्रिस्तान के बाहर क्यो मिलते हैं?
मिर्जाः बात ये है कि परसो जीतू यहाँ कोई फोटू न देख कर अबे तबे करने लगे। उससे घबरा के रतलामी जी ने चाट वाले को दो झापड़ रसीद किये और कहा कि चल कब्रिस्तान के बाहर खड़ा हो और खींच ली उसकी फोटू। अब सिचुऐशन बनाने को मीडिया वाले जो कुछ करते है उससे रवि भईया को भी इंस्पीरेशन मिली होगी कि नही?
शराफत अली:शराफत का जमाना ही नही रहा। सारे लगुए भगुओं की बन आयी है।
खाकी चड्ढी वालों की एक विशेषता है कि जब तब इनके फ़ैशन शो आयोजित होते हैं जिनमें कार्यकर्ताओं को रैंप की तरह सड़क पर कैटवाक करना होता है।

मिर्जाः जैसे फील गुड का गुब्बारा पिचका वैसे इनका भी पिचकेगा तब पता चल जायेगा कि पब्लिक के कंटाप में आवाज नही होती।
शराफत अली: अमा छोड़ो मिर्जा तुम भी कहाँ पालिटिक्स ले बैठे। चलो अब सभी चिठ्ठाकारो के लिये ताली बजाते हैं जिन्होने इतने दिल से चिठ्ठे लिखे।


आज की फोटू सीधे रतलाम से!

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सोमवार, नवंबर 20, 2006

हरियाणवी मखौल एक मिनट सैं....


भई, मैं कोई मखौल नहीं कर रहा. आज हमारे अजीज चिट्ठाकार राम चंद्र मिश्र जी का जन्म दिन है. आइए, सबसे पहले उन्हें जन्मदिन की बधाईयाँ दें. चिट्ठाचर्चा की ओर से तथा समस्त चिट्ठाकारों की ओर से उन्हें जन्मदिन की हार्दिक बधाईयाँ.

शनिवार को जीतू की धमकी का क्या असर हुआ कि रविवार को तो समझो चिट्ठों की बहार आ गई. हर चिट्ठा एक से बढ़कर एक, ई-पंडित के हरियाणवी मखौल की तरह!

बहरहाल, दो मिनट का इंतजार करने के बजाए मैं ई-पंडित के चिट्ठे से फूट लिया और अपने कुछ अहसासों को टटोलने लगा. कुछ दर्द भरे से थे ये अहसास. जब आप बहुत सारा हँस लेते हैं तो फिर आँसुओं भरे अहसास तो आते ही हैं-

आँसुओं का रोक पाना कितना मुश्किल हो गया

मुस्करहट लब पे लाना कितना मुश्किल हो गया.१

बेखुदी में छुप गई मेरी खुदी कुछ इस तरह

ख़ुद ही ख़ुद को ढूंढ पाना कितना मुश्किल हो गया.२

जीत कर हारे कभी, तो हार कर जीते कभी

बाज़ियों से बाज़ आना कितना मुश्किल हो गया.३

बिजलियूँ का बन गया है वो निशाना आज कल

आशियाँ अपना बचाना कितना मुश्किल हो गया.४

हो गया है दिल धुआँ सा कुछ नज़र आता नहीं,

धुंध के उस पार जाना कितना मुश्किल हो गया.५

यूँ झुकाया अपने क़दमों पर ज़माने ने मुझे

बंदगी में सर झुकना कितना मुश्किल हो गया.६

साथ देवी आपके मुश्किल भी कुछ मुश्किल न थी

आपके बिन मन लगाना कितना मुश्किल हो गया.७

अपने आँसुओं को रोकने की नाकाम कोशिश करता हुआ दूसरे चिट्ठे पर डबडबाती निगाहें फिराईं तो दिल को कुछ सुकून सा मिला. नितिन खुशखबरी बता रहे थे हिन्दी के नए, सरकारी सर्च इंजिन की क्षमताओं के बारे में-

"...चलो देर से ही भारत सरकार को आखिर इंटरनेट पर हिन्दी में खोज करने वालों की समस्या का ख्याल आ ही गया. मिनिस्ट्री ऑफ कम्युनिकेशन एंड इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी सीडेक के साथ मिलकर भारत सरकार 'सेतु' नाम से एक खोज इंजन बनाने जा रही हैं. जिसमें अंग्रेजी में मांगे जाने वाले किसी भी विषय को स्वत: ही हिन्दी में अनुवाद कर सभी प्रकार की सुचनाएं आसानी से इंटरनेट उपयोगकर्ता तक पहुंचाई जा सकेगी।..."

परंतु जब मैंने इस चिट्ठे पर रमण की यह टिप्पणी पढ़ी तो मेरी खुशी काफ़ूर हो गई :

"....खबर तो अच्छी है, पर भारत सरकार से ज़्यादा उम्मीद न ही रखें तो अच्छा है। सरकारी साइटों और सॉफ्टवेयरों का हाल देखें तो काम अधकचरा ही दिखता है। हिन्दी इंटरनेट का उद्धार नेट-नागरिकों द्वारा ही संभव है सरकारों द्वारा नहीं।..."

तकनीकी विशेषज्ञ नितिन इस चिट्ठे से कवि भी बन गए! संभवतः यह उनकी प्रथम कविता है-

बैठा मैं आज लेकर सवेरे जब अख़बार

बन रहा है हिन्दी खोजी इंजन मिला ये समाचार

प्रसन्न हो गया मन जब सोचा ये

टिप्पणी पर ही निर्भर नहीं होगी हमारी प्रसिद्धि

हमें भी खोजेंगे खुद हमारे पाठकगण

हमारा चिट्ठा देखेगा अब पूरा ये संसार

हिन्दी खोजी 'सेतु' बनाने जा रही है हमारी सरकार.

सरकारी-असरकारी सेतु से बाहर निकल कर मैं आगे विचरने चला तो अपने आप को सृजन शिल्पी के हमेशा की तरह विचारणीय चिट्ठे पर पाया. विचारोत्तेजक लेख में सृजन शिल्पी मध्य वर्ग की क्रांतिकारी भूमिका के बारे में कुछ यूं बता रहे हैं-

"...उन्नीसवीं शताब्दी में धार्मिक सुधार आंदोलनों की मध्यवर्गीय प्रगतिशील विचारधारा के विकास में सकारात्मक भूमिका रही थी, लेकिन आज जिस तरीके से स्वघोषित गुरुओं और संतों की फौज आधुनिक प्रचार माध्यमों की सहायता से कर्म फल और पूर्वजन्म के सिद्धांतों में विश्वास करने का उपदेश देने में दिन-रात जुटी हुई है, उसने भी आम मध्य वर्ग को अपनी दशा सुधारने के लिए परिवर्तनकारी संघर्ष करने के मार्ग से विमुख करने का काम किया है।..."

साधुसंतों के पंडालों में जनता की अथाह भीड़ देखकर मैं स्वयं बहुत व्यथित होता हूँ. सृजन शिल्पी के इस चिट्ठे को पढ़कर घंटों व्यथित होता रहा. बहुत देर के बाद दूसरे चिट्ठे पर निगाह उठ पाई.

और, जो निगाह उठी तो अपने आप को प्रेम के चक्कर में पाया. परंतु यहाँ प्रेम का फंडा नया है गुरु. और क्या वाकई नया फंडा है. मुझे तो सचमुच बढ़िया लगा. मैं भी भुक्तभोगी हूं. नए लोगों से इल्तिजा है कि इस नए, असली फंडे को ही आजमाएँ -

"...प्रेम के कारण मरे सब

तुमसे यह फरियाद है।

प्रेम ही करना है यदि तो

प्रेम भोजन से करो।..."

प्रेम के फंडे से निकलना किसी के लिए भी मुश्किल होता है. यह नया फंडा तो ऐसा था कि तमाम दिन रसगुल्ले-रसमलाई के सपने आते रहे. बड़ी मुश्किलों से पीछा छुड़ाया तो आगे राग दरबारी का छटवां दरबार बाबू रामधीन भीखमखेड़वी का मजमा लगा पाया-

"...रिक्शे पर अपनी दोनों जाँघो पर हाथों की मुट्ठियाँ जमाये हुए बद्री पहलवान बैठे थे। रिक्शे पर उनके पैरों के पास एक सन्दूक रखा हुआ था। दोनो पैर सन्दूक के सिरों पर जमाकर स्थापित कर दिये गये थे। इस तरह पैर टूटकर रिक्शे के नीचे भले ही गिर जाएं, सन्दूक के नीचे गिरने का कोई खतरा न था।..."

मजमे का पहला हल्ला ही जब इतना शोरगुल वाला है तो आगे आप कल्पना कर सकते हैं कि पूरा आख्यान कैसा होगा. इसीलिए तो रागदरबारी, रागदरबारी है!

मेरा रिक्शा थोड़ा आगे बढ़ा तो मैं सोचने लगा क्या भूलूं क्या याद करूं. सामने अमिताभ बच्चन का पोस्टर लगा था दशद्वार से सोपान तक. अमिताभी, जंजीरी, धांसू डायलॉग चल रहे थे जिसकी हर पंक्तियों से शोले निकल रहे थे-

"...'कलकत्ता प्रवास में अमिताभ जी एक व्यवहार मुझे बहुत पसंद आया। एक शाम को उन्होंने याद कर-करके बर्ड और ब्‍लैकर्स के अपने पूर्व सहयोगियों को चाय पर आमंत्रित किया और एक-एक से ऐसे मिले जैसे अब भी उनके बीच ही काम कर रहे हों। वे लोग भी अमिताभ की इस भंगिमा से बहुत प्रसन्न हुए। कई तो अपने बच्चों को साथ लाए जो अमिताभ के फैन हो गए थे और जिनकी आँखें यह विश्वास न कर पाती थीं कि यही व्यक्ति उनके पापा या डैडी के साथ बरसों काम कर चुका है। कभी उनके दफ्तर के पुराने चपरासी आदि भी आते तो वे उनको बुला लेते, खुशी से मिलते; और वे तो अपना भाग्य सराहते विदा लेते। अमिताभ की इस मानवीयता ने उनके कलाकार को कितना उठाया है शायद स्वयं उन्हें भी अभी इसका अंदाजा नहीं है।'..."

इसीलिए तो अमिताभ, अमिताभ हैं. किंग खान हैं तो अमिताभ शहंशाह हैं!

लो, मैं भी डॉयलॉग बाजी करने लगा. पंरतु सामने जब यमराज जी पृथ्वी पर दिख गए तो मेरा मुँह सूख गया और बोलती बंद हो गई.

"...आज प्रथ्वीलोक पर

राम और श्याम की बजाय

यमराज रह्ते है

अपने कारखाने को

चौबीसों घन्टे खुला रख,

प्रतिस्पर्र्धात्मक

उपलब्धियां देने के लिये।

चौबीसो घन्टे, हर पारी में

कारखाने में

बेरोक-टोक, काम चल रहा है।..."

बमुश्किल मैं अपने आप को संभाल पाया और खुदा को खोजने के लिए आगे अगले चिट्ठे को देखने की हिम्मत जुटा पाया. परंतु खुदा जाने कहाँ पर था!

"...इधर खोजा उधर खोजा खुदा जाने कहां पर था

वो धरती पर कहाँ मिलता मुझे जो आसमाँ पर था.१..."

खुदा को खोजते खोजते मैं थक गया और भूख लग आई. भूखे को लज़ीज़ पुलाव मिल गया. 6 साल के रासायनिक अनुभव से तैयार रासायनिक खाद्य पदार्थ को खाने का अनुभव अतीव असीम अनंत आनंददायी था. आप भी निमंत्रित हैं:

आपने खा लिया स्वादिष्ट व्यंजन? क्यों खाया? आप दोषी हैं. क्यों? यह मैं नहीं, अमित बता रहे हैं.

अपना दोष स्वीकार कर मैं आगे चिट्ठा बांचने गया तो पाया कि फुरसतिया जी सबको अखिलेश की आत्मकथा पढ़ा रहे हैं. पढ़कर लगा, यह तो मेरी अपनी आत्मकथा है! और क्यों न लगे-

"...प्रारम्भ जैसे भी हुआ, लेकिन लेखन कर्म अपना लेने के बाद, वह मुझे हमेशा एक श्रेष्ठ तथा सार्थक गतिविधि महसूस हुआ। बुरे वक्त में, दुर्दिन में, घोर हताशा और घनघोर अंधेरी मन:स्थिति में भी अपने चयन को लेकर मुझे कोई पछ्तावा नहीं हुआ। यह भी कभी नहीं लगा कि मैं कुछ और क्यों नहीं हुआ। मैं समाज के अन्य कार्यक्षेत्रों को साहित्य से नीचे नहीं ठहरा रहा हूं। बल्कि यह कहने की विनम्र कोशिश कर रहा हूं कि साहित्य सृजन किसी भी दशा में कम महत्वपूर्ण या घटिया कार्य नहीं है।..."

मैं ढूंढने लगा कि घटिया कार्य क्या होता है? क्या होता है घटिया कार्य? मुझे नहीं मिल पाया. मेरी तरह मेरे कवि मित्र भी कुछ न कुछ ढूंढ रहे हैं -

"...ढ़ुंढ़ती है ये नज़रें हर पल जिसे

याद करता है दिल हर पल जिसे

भूला पाना उसे यूँ आसां तो नहीं॰॰॰..."

मेरी तलाश जारी है. अगले सोमवार को बताऊंगा कि हिसाब क्या रहा.

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रविवार, नवंबर 19, 2006

चिट्ठा ए चर्चा, बमार्फत मिर्जा

सलाम वालेकुम मियां, कैसे मिजाज है?
चौधरी साहब आज थोडा मसरुफ़ थे, इसलिए वो हमको अपना थैला टिका गये है, बोले हफ़्ते(रविवार) के दिन हमको सबकी चिट्ठा चर्चा करनी है। अब चूंकि हम नये नये है, इसलिए थोड़ी सी गलतियां को नजरअन्दाज किया जाए। (सबसे पहले तो हम आपको बता दें, कि चौधरी साहब ने किन्ही हिन्दी राइटर का लिंक दिया था, उसी से लिख़ रहे है, इसमे कंही कंही निक्ते नही दिख़ रहे है, ख़ैर, होंगे, हमे पता नही कि कैसे लगाते है।)

तो जनाब शनिवार के दिन जो कुछ लिख़ा गया वो आपके सामने परोसा जा रहा है, नोश फरमाएं। अव्वल तो हम ताकीद कर दें कि बहुत कम लिखा गया है, ऐसे चलेगा नही| खैर… सबसे पहले तो राजेश कुमार C और C++ का भयंकर लफड़ा ले आए है|बाकी तो आप वहीं पर जाकर देख़िए, और हाँ अपने अपने बच्चों के आपरेटिंग सिस्टम का ध्यान रख़िएगा|

जीके अवधिया जी आजकल, सुख़सागर पढा रहे है, मानवों के उद्दार के लिए बनाए गये आश्रम व्यवस्था के बारे मे सुख़ सागर मे लिख़ा है:
शास्त्रो में चार प्रकार के आश्रमों की व्यवस्था की गई है - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास। ब्रह्मचर्य आश्रम में गुरु की सेवा करते हुये विद्याध्ययन करना चाहिये। विद्याध्ययन पूर्ण होने पर गृहस्थ आश्रम में देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथि सत्कार आदि करते हुये वंश परम्परा में वृद्धि के लिये सन्तानोत्पत्ति करना चाहिये। वानप्रस्थ आश्रम में वन में कुटी बना कर भगवत्भक्ति करना चाहिये। अन्त में सन्यास आश्रम धारण कर आत्म शुद्धि के लिये स्वयं को परमात्मा में लीन कर देना चाहिये।

लेकिन अवधिया जी, कई लोग तो आनंद की ख़ोज करने के लिए "वानप्रस्थ आश्रम" या हरिद्वार की तरफ़ कूच कर जाते है|लेकिन कई कई लोग, जैसे हमारे चौधरी और फुरसतिया (जिनसे यही उम्मीद है कि) अगर ख़ोज का आनंद उठाने गोवा की तरफ़ कूच कर जाएं, तो इसका क्या इलाज है?

इधर देबाशीष हफ़्ते के जुगाडों के बारे मे बता रहे है, साथ ही विकीपीडिया पर लेख़ों की हजामत और गलत तथ्यों से फ़जीहत से परेशान है| इस बारे मे विकीपीडिया के संस्थापक जिमी वेल्स के बयान का हवाला देते हुए देबाशीष बता रहे है :
वेंडेलिस्म के सवाल पर जिमी ने बड़ी बेफ़िक्री से कहा था, “वेंडेलिस्म कुल मिलाकर एक छोटी सी समस्या है और खास महत्वपूर्ण नहीं।” सच कहूं तो मुझे उनकी बात से इत्तफ़ाक नहीं था, आखिरकार 1.4 मिलियन पृष्ठ हैं विकीपिडिया पर। पर हाल ही में एक प्रोफेसर ने इस बात की पुष्टि की कि विकीपिडिया पर गलत तथ्यों का टिक पाना काफी मुश्किल है। एलेक्ज़ैंडर हेलेवाईस नामक इस प्राध्यापक ने जानबूझकर विकीपिडिया के कुछ पृष्ठों में मामूली फेरदबल किये जैसे कि यह लिखा कि एक डिज़्नी की फिल्म द रेस्क्यूअर्स डाउनअंडर को फिल्म संपादन के लिये आस्कर मिला था (जबकि फिल्म को आस्कर नहीं मिला था)। उनका अनुमान था कि यह त्रुटियाँ सालों यूं ही पड़ी रहेंगी, पर विकीपिडिया के स्वयंसेवकों ने तीन घंटों के भीतर ने केवल सारी गलतियों को सुधार दिया वरन् एलेक्ज़ैंडर को चेतावनी भी दे दी।


चलिए अच्छा है तुषार जोशी की कविता हम बनाएंगे वतन को देख़िए, ये विकीपीडिया पर भी लागू हो रही है:
हम बनाएंगे वतन को
हम सजाएंगे चमन को
हम।

मंज़िल सबको लेकर चलना
मुश्किल राहों से गुज़रना
आँधी आए तुफाँ आए
हौसला हुआ कभी ना
कम ।


रवि रतलामी मंड्रिवा लिनक्स 2007 के बारे मे बता रहे है जो लगभग 65 भाषाओं मे उपलब्ध है|तकनीकी लेखों मे रवि भाई को महारत हासिल है|रवि भाई बताते है:
मंड्रिवा लिनक्स 2007 में 65 से अधिक भाषाओं का समर्थन है. हिन्दी, गुजराती, पंजाबी, तमिल इत्यादि समेत कई अन्य भारतीय भाषाओं का भी इसमें समर्थन है. मंड्रिवा संस्थापक का हिन्दी अनुवाद धनञ्जय शर्मा का है.

वीरेन्द्र चौधरी सभ्यता की कहानी कहते हुए, भौतिक जगत और मानव पर एक लेख़ लिख़ा है, जरुर देख़िएगा|नितिन भाई, बेचारे शर्मा जी (आम आदमी) की परेशानियों का बख़ान करते हुए भारतीय रेल की उपलब्धियों का जिक्र कर रहे है|ना ना, हम नही बताएंगे, आप ख़ुद पढिए|

अनूप भार्गव, पवन किरण की एक कविता… किस तरह मिलूँ तुम्हें पढा रहे है:

किस तरह मिलूँ तुम्हें

क्यों न खाली क्लास रूम में
किसी बेंच के नीचे
और पेंसिल की तरह पड़ा
तुम चुपचाप उठा कर
रख लो मुझे बस्ते में

क्यों न किसी मेले में
और तुम्हारी पसन्द के रंग में
रिबन की शक्ल में दूँ दिखाई
और तुम छुपाती हुई अपनी ख़ुशी
खरीद लो मुझे

बहुत सुन्दर कविता है, जरुर पढिएगा|

अब इससे ज्यादा चिट्ठे तो थे नही, अभी लिख़ते लिख़ते उडनतश्तरी वाले समीर लाल, टकरा गये, धमकाते हुए बोले, हमारी तारीफ़ करो, हम बोले, कुछ लिखो तो, बोले लिख़े की तो सभी करते है, बिना लिख़े की करो तो जाने| मरता क्या ना करता, उनके बेहद इसरार इस जबरई पर पेश है उनकी ये तारीफ़ (आप लोग इसे विज्ञापन की तरह से पढिएगा, और किसी सज्जन को अपनी तारीफ़ करवानी हो तो सम्पर्क करिएगा|)

नाम : समीर लाल (चित्र के लिए यहाँ पर क्लिक करें|
पाये जाने का स्थान : कनाडा के ओंटारियो शहर के आसपास, लेकिन ज्यादातर अपनी उड्नतश्तरी के खोल मे ही रहते है|
पसन्द : तारीफ़ करवाना।
ख़ान-पान की आदतें : रात बे-रात उठकर, फ्रिज से ख़ाना निकालकर ख़ाना|
व्यवहार : सुबह सुबह, पडोसी पिंजरे वालों को धमकाना, कि अपने हिस्से का ख़ाना नही दिया तो 'कुन्डली' अटैक कर देंगे|
सावधानी : चैट करते समय सावधानी रख़िएगा, कभी कभी आपके ऊपर कुन्डली लिख़ सकते है|
फेवरिट पास-टाइम : आफिस आफिस खेलना|
खोज में : कोई नाजुक बदन लड़की
समीर भाई काफी है कि पूरा निबन्ध लिख़ें?

आज़ का चित्र : अबे कोई छापे तब तो दिखाएं ना| लाहौल बिला……… बहरहाल हमे जो अच्छी लगी हम उसे दिखा दे रहे है:
सौजन्य से : Chrysanthemum
आज की टिप्पणी: कौई करे तब तो चर्चा करें ना, सभी पोस्ट सूनी मांग की तरह दिख रही है|
पिछले साल इसी हफ़्ते : आलोक का दर्द और सारिका की यादें बचपन की|

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शनिवार, नवंबर 18, 2006

द्विपक्षीय वार्तालाप के आकांक्षी

प्रतीक को लगता है भारत में माईटी हार्ट फिल्म की शूटिंग पर पधारे ब्रेंजेलीना ने बॉडीगार्ड को भारत की हवा लग गई है तभी तो सारे नियमों को ताक में रख दादागिरी करते फिर रहे हैं। पुणे में इन्होंने एक छायाकार की गर्दन लगभग मरोड़ ही दी, एक स्कूटर सवार को टक्कर मार दी, जयपुर में बिना इजाजत अपना निजी विमान उतार लिया और अब मुंबई में एक स्कूल में बिना घोषणा शूटिंग और अभिभावकों से धक्कामुक्की। वैसे शुरुवात में सूरते हाल यह था कि "जब ब्रेंजेलीना न राज़ी, तो क्या करे पापाराज़ी", दोनों मीडिया को अपनी परछाई से भी दूर रख रहे थे और अब हर तईं बेशुमार चित्र छप रहे हैं, भई पहले ही ये काम हंसी खुशी करने देते। खामख्वाह तैश खाने का (या गीतकार समीर के अंदाज़ में कहें तो "हद से गुज़र जाने" का) जो चरित्र इन पहलवानों ने भारत में चटपट आत्मसात कर लिया वो वाकई कमाल का है, इसी प्रविष्टि में संजय की टिप्पणी पर नज़र डालें, कहते हैं,
"'ब्लडी इंडियन' सुन कर इतना गुस्सा आया था की इच्छा हुई बन्दे को वहीं जमीन में गाड़ दें. अब कम से कम उस पर मुकदमा तो चलना ही चाहिए. क्योंकि इस गाली के साथ हमारी राष्ट्रीयता जुड़ी हुई है."
इसके बावजूद प्रिय रंजन भारत की सॉफ्ट नेशन की छवि से परेशान हैं

कभी चैट के समय जीतू ने एक बार मुझे कहा था कि जैसे ही हिन्दी का प्रचलन नेट पर बढ़ेगा सेक्स से लेकर जूते चप्पल बेचने वाले भी "यूनीकोड शरणम् गच्छामि" की तोतारटंत शुरु कर देंगे। अपनेराम का कहना था कि हम तो बस इतना चाहते हैं कि नेट पर हिन्दी की जयजयकार बढ़े, बस! अमिताभ ने दिल्ली में संपन्न भाषाई अखबारों के संपादकों के सम्मेलन का ज़िक्र किया है, अपने शशि भी वहां आमंत्रित थे, जहाँ तक मुझे पता है विहिप के तत्वावधान में यह आयोजन था। तो "द्विपक्षीय वार्तालाप" के आकांक्षी चाहते हैं कि अपना "हिन्दू" नेट सर्फिंग के वक्त भी सोता न रहे और "वैश्वीकरण की बाजारमूलक शक्तियों के सबसे बड़े हथियार" का उसी हथियार से जवाब दे। भले ही यह अस्त्र "पश्चिमी आविष्कार हो" पर "भारत की विविधतावादी संस्कृति" को नुकसान पहुंचाते "जेहाद" और "कण्डोम संस्कृति" के खिलाफ महाआरती का यह मंच बड़ा सुहाना लगता है। तो जीतू भाई, "अधिक से अधिक लोगों को अपनी संस्कृति से जोड़ने के लिये लोकशिक्षण से जन-जागरण की तकनीक अपनाने" का समय आखिरकार आ ही गया, आपके अनुमान से कहीं पहले! जय हो! रचनाकार पर प्रकाशित हास्य रचना "कंप्यूटरजी को एक ख़त" में गोपाल चतुर्वेदी ने लिखा है,
"भारत ज्योतिष संघ हर गांव में एक कंप्यूटर-मंदिर बनवाने को प्रस्तुत है. लोग आज जैसे हनुमानजी की शरण में जाते हैं, वैसे ही आपके दर्शन को जाएंगे. मन्नतें मानेंगे, चढ़ावा चढ़ाएंगे. हमारा पुजारी प्रसाद पाएगा. नाम आपका, नामा हमारा! आप करोड़ों देवताओं की श्रेणी में आ जाएंगे।"
हिन्दी ब्लॉगर ने न्यू साईंटिस्ट पत्रिका के विशेषांक की चर्चा की है। मानव अंगों की फार्मिंग से प्रत्यारोपण में आंदोनकरी परिवर्तन और अंतरिक्ष विज्ञान में लंबी छलांग जैसे मानव और पृथ्वी के भविष्य से जुड़े लोमहर्षक और अविश्वसनीय तथ्यों का उल्लेख किया गया है। यूनीवर्सिटी ऑफ़ ब्रिटिश कोलंबिया के डेनियल पॉली की एक भविष्यवाणी का ज़िक्र करते वे लिखते हैं,
"कुछ दशकों के बाद पूरी दुनिया शाकाहारी होनेवाली है. दरअसल पॉली साहब एक ऐसे यंत्र की कल्पना साकार होते देख रहे हैं, जिसके ज़रिए हम जंतुओं की भावनाओं और विचारों को जान सकेंगे, महसूस कर सकेंगे. ऐसे में किसी विचारवान जीव को मार कर खाने की अनैतिकता भला कितने लोगों को पचेगी!"
इस पर अतुल ने टिप्पणी की,
"लेकिन इन विज्ञानियों को अगर जगदीश चंद्र बसु का शोध याद आ जाता, जिन्होनें पौधों की भावनायें होने का प्रमाण दिया था, तब मनु्ष्य के खाने को क्या बचता?"
मनीष ने उमराव जान के लिये लिखे जावेद अख़्तर के मर्मस्पर्शी गीत "अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो" की प्रशंसा की तो रचना खुद को अपनी कविता बेटी प्रकाशित करने से रोक न सकीं।
सब कामों को वो कर लेगी,
सब मुसीबतें वो हर लेगी,
सबके सपने सच कर देगी,
उसके सपने तो बुनने दो!!!
उन्मुक्त ने पटना की महिला न्यायाधीश लीला सेठ की आत्मकथा आन बैलैंस का रोचक वर्णन किया है। लीला नामचीन लेखक विक्रम सेठ की माता हैं। यह प्रविष्टि इतनी अच्छी है कि इस पर समाजवादी जनपरिषद ने भी टिप्पणी की है ;) हितेंद्र ने अर्थशास्त्री फ्रेड्रिक आगस्ट की पुस्तक का ज़िक्र किया है, पुस्तक को डाउनलोड करने की कड़ी भी दी है उन्होंने।

उधर समीर अपनी "लाल बत्ती की गाड़ी" से भावविभोर हो गये और लगे तरकश सलाम ठोकनें, तीर से बचने के लिये। ये रहा उनको लगा एक तीर,
"कोर टीम में पोस्ट लेते समय तो बड़े खुश दिख रहे थे, कोई सरकारी कापरेटिव समझ रखा है क्या, कि बस अध्यक्ष बन गये, लाल बत्ती की गाड़ी मिल गई, अब ऐश करो, काम करने की क्या जरुरत"।
खबरिया जी के हरिराम नाई "एक्सक्लूज़िव" खबर लाये हैं कि लोहा मंत्री राम विलास पासवान को आने वाले दिनों में लोहे के चने चबाने पड़ सकते हैं। पर भैये जो खबर पहले ही चैनलवा पर आ गई (edited word) वो काहे की एक्कूलूजिब?

बढ़िया चिट्ठे पूंजी बाजार में जगदीश यूनिट लिंक्ड इंश्योरेंश प्लान यानि युलिप के फायदे गिना रहे हैं। हिन्दी चिट्ठाजगत में इस तरह के विषयों पर टॉपीकल ब्लॉग की काफी कमी है। कितना ही अच्छा हो अगर हिन्दी लिखने पढ़ने वाले विविध पेशे से जुड़े लोग, डॉक्टर, चित्रकार, वैज्ञानिक अपने हिन्दी चिट्ठे शुरु करें।

आज की फोटो

आज का चित्र डॉ सुनील के चिट्ठे सेः

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