मंगलवार, अक्तूबर 31, 2006

हालोवीन का असर

फिर मंगल आ गया सामने चर्चा करने आना है
इधर उधर से ढूँढ़ ढांढ कर फोटू भी चिपकाना है
लिखना क्या है सोच सोच कर कलम सरकती हाथॊं से
किसका चिट्ठा छोटा है, किस पर लंबा अफ़साना है


चिट्ठा चर्चा से पहले चर्चाकारों से मिलते हैं
जिनके कारण ही रोजाना चर्चा के गुल खिलते हैं
कितनी मेहनत करते हैं, शब्दों में बांध नहीं पाता
हमको तो पढ़ने में ही लगता है पापड़ बिलते हैं


एक फ़ुरसतिया आख्यान जिसने पढ़ा
वो वहीं का वहीं रह गया फिर खड़ा
टिप्पणी को मचलने लगे सब गणक
कुंजियों के पटल खड़खड़ाने लगे

एच ओ वी लेन में मिल गया था टिकट
थे अकेले तभी, यह समस्या विकट
कोई सहयोगी बन कर चले साथ में
रोज ही अपनी जुगतें भिड़ाने लगे

एक स्पर्श जो कि रतलाम से आ गया
यों लगा पूरे ही जाल पर छा गया
ऐसा है उस छुअन का नशीला असर
जाल पर जा गणक लड़खड़ाने लगे

एक नारद से जो खत पठाता रहा
वो घटाओं सा घिर घिर के छाता रहा
जब से कासिद को जीवन दिया दूसरा
सब ब्लागी कबूतर उड़ाने लगे

एक तरकश है, है इक उड़नतश्तरी
जान पाये न कितनी विधायें भरी
ली कलम हाथ में, कुछ लिखूँ, क्या हुआ
कोष के शब्द सब गड़मड़ाने लगे

जब से भाषाओं के सिलसिले जुड़ गये
कुछ इधर आ गये, कुछ उधर मुड़ गये
एक ये जो कभी बन के पुरवा बहे
तो कभी बन घटा तड़तड़ाने लगे


लम्बी चर्चा में दोषी नहीं मैं तनिक
क्या लिखूंगा न इसकी भनक थी तनिक
कैद होकर जो माऊस की क्लिक में रहे
खूँटे वे शब्द, सब अब तुड़ाने लगे


छुट पुट बतलाते हैं हमको ओपन सोर्स कहां से आया
किसने इस पर काम किया है किसने इससे नाम कमाया
उत्तर भारत क्यों कर फिछड़ा, दक्षिण भारत है जो आगे
अपने चिट्ठे पर बिन उत्तर दिये, प्रश्न यह एक उठाया

रत्ना की रसोई तकनीकी और अधिक कुछ होती जाती
ढूँढ़ ढाँढ़ कर इधर उधर से अब सबको चलचित्र दिखाती
बना बना कविता की गुझिया पहले तो परोस देती हैं
फिर खुद ही उसमें मिस्रण की कितनी हैं कमियां गिनवाती

और रात जो सपना देखा वह मध्यान्ह तलक बाकी था
इसीलिये कुछ नजर न आया, इतनी ज्यादा चढ़ी खुमारी
दूरबीन को लगा लगा कर, जाल, जाल पर फेंके मैने
कोई ऐसा मिला न मुझको जो हो चर्चा का अधिकारी




आज की टिप्पणी:-

और टिप्पणी एक आज की रत्ना की रसोई पर पाई
जो समीर ने लिखी" वाह क्या बात खोज कर लेकर आईं
मजा आ गया, दाद कबूलें, रखें रसोई अपनी चालू
इसी बहाने हम सब खायें नई नई हर रोज मिठाई


वाकई, शायर/कवि साहब का अंदाज़ और आत्मविश्वास देखने लायक है।
क्या बात खोज कर लाईं हैं, इस पर तो आप दाद कबुल करें, मजा आ गया.
ऐसे ही परोसते रहें, सच में, कोई शिकायत नहीं रहेगी.





आज का फोटो:-

भात बाजी से


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सोमवार, अक्तूबर 30, 2006

मध्याहन चिट्ठाचर्चा

यह किसी भी चिट्ठाचर्चाकर्ता के काम में टाँग घुसेडने का प्रयास नहीं हैं. हमे ऊपर से आदेश हुआ था कि इस प्रकार का कोई प्रयास करो. यानी अगर पुरा भोजन न परोस सको तो बीच-बीच में अल्पाहार ही करवाते रहो. तो यह मध्याहन चर्चा हैं, फूलमफूल चर्चा नियमित चर्चाकार करेंगे ही.

आधुनिक धृतराष्ट्र के सामने संजय लेपटोप लिए बैठे हैं. अचानक महाराज का आदेश हुआ की उन्हे चिट्ठादंगल में कौन-कौन अपनी कलमे भाँज रहा हैं बताया जाए. आदेश आखिर आदेश होता हैं, संजय ने अपनी उँगलीया कुंजीपटल पर चलानी शुरू की. नारदजी के करतालो की ध्वनि कानो से टकराई साथ ही चिट्ठादंगल का दृश्य स्पष्ट उभरने लगा.
संजय: महाराज जितेन्द्र चौधरी नामक यौद्धा कुछ मुफ्त के कुछ अस्त्र बटोर कर लाए हैं तथा यहाँ बाँट रहे हैं. जरूरतमंद यौद्धा लाभ ले.
धृतराष्ट्र : ठीक हैं, अब आगे कौन हैं?
संजय : महाराज आगे मैं देख रहा हूँ रमाजी फिरंगी भाषा में अपना श्रृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन विस्तार से कर रहे हैं,
"ब्रह्मा जी ने श्रृष्टि रचने का दृढ़ संकल्प किया और उनके मन से मरीचि, नेत्रों से
अत्रि, मुख से अंगिरा, कान से, पुलस्त्य, नाभि से पुलह, हाथ से कृतु, त्वचा से
भृगु, प्राण से वशिष्ठ, अँगूठे से दक्ष तथा गोद से नारद उत्पन्न हुये। “

महाराज अधिक जानने के लिए यहाँ चटका लगाएं.
धृतराष्ट्र : ठीक हैं, तुम आगे बढ़ो.
संजय : जी महाराज. नए यौद्धाओं के लिए उपयोगी कड़ीयो का संकलन प्रश्नोत्तरी के रूप में हिन्दी-चिट्ठे एवं पोड्कास्ट पर किया गया हैं.
धृतराष्ट्र : हूँ... यह अच्छा काम हुआ हैं.
संजय : महाराज बेजी इंडीया अपनी कटपुतलियों के साथ जुगलबन्दी करते नजर आ रहे हैं, आप भी आनान्द ले

“गीत है........

साँसें साँसों में घुल...........

संगीत है........

रब़ भी हो चला मगन रे.........”


धृतराष्ट्र : अच्छा आज इतना ही. बाकी हम नियमित चर्चाकार से सुनेंगे.
संजय : जी महाराज.

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कल रात एक सपना देखा

यही तो प्यार है
बच्चा मेरा प्यारा हैं


आज की चिट्ठाचर्चा कुछ देरी से काहे से आज हफ्ते का पहला दिन है। सोमवार पर इतवार की खुमारी का कब्जा है। कल रात जब कंप्यूटर को शुभरात्रि बोलने जा रहे थे कि रवि रतलामी जी ने बताया कि आज की चर्चा हम करें या करायें। सो हम जिम्मेदारी वीरता पूर्वक अपने कंधों पर ऒढ़कर सो गये। सबेरे उठे तो अलार्म बज चुका था, सब कुछ बज चुका था सो हम नमस्ते का बोर्ड लगाकर चले गये आफिस और अब जब आये हैं खाना खाने तो वायदा निभाने के लिये लिखने के लिये तैयार
हैं।

शुरुआत भावना कंवर की कविता से जो उन्होंने बाल दिवस के अवसर के लिये लिखी है/थी:-

खुद तो लेकर भाव और के बात सदा ही कहते हैं
ऐसा करने से वो खुद को भावहीन दर्शाते हैं।

हैं कुछ ऐसे उम्र से ज्यादा भी अनुभव पा जाते हैं
और हैं कुछ जो उम्र तो पाते अनुभव न ला पाते हैं।


साथ की फोटो देखकर निदा फाजली का शेर याद आता है:-

यूं जिंदगी से टूटता रहा, जुड़ता रहा मैं,
जैसे कोई मां बच्चा खिलाये उछाल के।

दीक्षा भूमि
दीक्षा भूमिं

लगे हाथ आप महाभारत कथा में यदुवंश का नाश भी देख लें जो दिखा रहे हैं जी के अवधिया जी। इसी क्रम में मिर्ची सेठ ने निहंग सिख के बारे में संक्षिप्त जानकारी दी। शैलेश अपने प्रिया को आते देख कन्फ्यूजिया गये कि उनका स्वागत कैसे करें:-
प्रिये,
कल रात एक सपना देखा
देखा तुम उतर रही हो आसमान से
पंखों के आसन पर बैठी हो तुम
हाथ में केवल आशीर्वाद है
शायद वह 'क्रिसमस' का दिन था
मैं दौड़ने लगा था इधर-उधर
कहाँ से लाऊँ फूल
कहाँ से लाऊँ सुगन्ध
कहाँ से लाऊँ स्वागत-मालिका
किस-किस को बुलाऊँ
किसको ना बुलाऊँ?


समोसे गरम
समोसे गरम


हितेंद्र बता रहे हैं साइट के बारे में जो हिंदी में विज्ञान प्रसार का काम करती है लेकिन लोग बताते हैं कि उसकी भाषा में कुछ लोचा है और वैज्ञानिकों की की जीवनी के लिये हल्की भाषा का उपयोग किया हुआ है। लेकिन आप वो सब छोड़िये और चलिये सैर पर मनीष के साथ पचमढ़ी के लिये। वहां आप वह जगह भी देखिये जहां भगवान बुद्ध ने बौद्ध धर्म में दीक्षा ली थी। समोसे वाले की दुकान देखकर आपका मन करेगा कि पहले खा लें फिर आगे बात करें। और जब आप गर्म समोसे से निपटेंगे तो आपको मल्लिका शेरावत मिलेंगीं जिनकी उमर प्रतीक को भी नहीं पता। लेकिन आप कुछ भी कर लो, कुछ भी दिखा लो निठल्ले यही कहेंगे कि मजा नहीं आया। इस पर नीरज दीवान ने एक जांच बैठा दी और फैसला भी दिया कि असली क्या है नकली क्या है? उधर उन्मुक्त गायब होने का वरदान के बारे में बता रहे हैं।

अब मिसिर जी की दुविधा आप उनके ही मुंह से सुने:-

आजकल कुछ दिनो से लगता है, कुछ तो हुआ है क्योंकि हिन्दी ब्लाग जगत मे कविता लिखने पढ़ने का शौक जोरों पर है, यहाँ तक कि बहुत सारे ब्लागर तो टिप्पणियाँ भी इसी विधा मे करने लगे हैं।
इसी धुन मे मैने अपनी एक मित्र को एक कविता सुना डाली तो अब अक्सर फ़रमाइश हो जाती है :(।
तभी पता चला कि श्वेता जी भी कवितायें लिखती है..तो लगे हाथों हमने भी फ़रमाइश कर डाली, कविता तो आ गयी इस आदेश के साथ कि
Now u have to listen to me. That is I want ur detailed reaction about the poem, even if u dont like it. ok?


मिसिरजी को लगता है बात समझ में आ गयी और उन्होंने कविता पेश कर दी:-

कविता की तारीफ समीरलाल जी ने कर दी और अपनी कुंडलिया भी सुना दी:-
चैंम्पियन ट्राफी में हुआ, यह कैसा अत्याचार
पाकिस्तान पहले गया, फिर भारत का बंटाधार
फिर भारत का बंटाधार कि अब खेलो गुल्ली डंडा
ग्रेग गुरु ही बतलायेंगे,जीत का फिर से हथकंडा.
कहे समीर कवि कि बैठ कर अब पियो शेम्पियन
गुल्ली डंडे के खेल में,बनना तुम विश्व चैंम्पियन.


कुंडलिया से निपटे से हायकू का रन भी चुरा लिया:-

खेलें क्रिकेट
गुरु ग्रेग हों संग
रंग में भंग.


अब इसके बाद सारे चिट्ठे आउट हो गये और हमारी पारी घोषित। कल की बागडोर रहेगी राकेश खंडेलवाल के हाथ। आप और कुछ पढ़ें तब तक यह देख लें कि पिछले साल इसी हफ्ते क्या छपा था चिट्ठों में।

आज की टिप्पणी:-


इस पत्रिका के जीवनी वाले विभाग में जाकर वैज्ञानिकों की की जीवनी पढिये किस तरह की घटिया भाषा का उपयोग किया हुआ है। उदाहरण देखिये ये जगदीश चन्द्र बोस के लिये लिखे लेख में किन शब्दों का प्रयोग हुआ है-

बोस अपनी छुट्टियां सुरम्‍य सुन्‍दर एतिहासिक स्‍थानों की यात्रा करने और चित्र लेने में बिताता था और पूर्ण-साइज़ कैमरा से सुस‍‍ज्जित रहता था। अपने कुछ अनुभवों को उसने सुन्‍दर बंगाली गद्य में लिपिबद्ध किया।
अपने पिता के उदाहरण का अनुसरण करते हुए उसके सामने सहज विकल्प प्रसिद्ध भारतीय सिविल सेवा में भरती होना था। तथापि उसका बाप नहीं चाहता था कि वह सरकारी नौकर बने जिसके बारे में उसने सोचा कि उसका बेटा आम जनता से परे चला जाएगा।
इसके फलस्वरूप उसकी नियुक्ति को पूर्वव्याप्ति से स्थायी बना दिया। उसे गत तीन वर्ष का वेतन एकमुश्त दे दिया गया जिसका इस्तेमाल उसने अपने बाप का ऋण उतारने के लिए किया।

इस के बारे में मैने पहले भी जुगाड़ वाली पोस्ट में लिखा है। देखिये

भारत सरकार के इस जाल स्थल में डॉ ए पी जे कलाम के लिये शब्दों का प्रयोग देखिये, मानों यह लेख एक देश के राष्ट्र्पति के बारे नहीं किसी ऐरे गैरे इन्सान के लिये लिखा गया हो। इस लेख को तो पढ़ा भी नहीं जाता
http://nahar.wordpress.com/2006/10/26/abtakkejugad/

आज की फोटो:-

आज की फोटो घुमक्कड़ के कैमरे से जो रामचंद्र मिश्र जी को सबसे ज्यादा पसंद आयीं।
क्या खूबसूरती है
नदी तुम कैसे बहती हो




क्या खूबसूरती है
नदिया की धारा

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रविवार, अक्तूबर 29, 2006

चिट्ठा विवेचना: शनिवार २८ अक्टूबर, २००६

तो भई, हम फिर से हाजिर हूँ, चिट्ठा चर्चा के लिए। एक तो ये ब्लॉगरवा (ब्लागर डाट काम) आज बहुत नटखटिया रहा है, ऊपर से ले दे कर गिनती के पाँच सात चिट्ठे। अब अनूप भाई ने बहुत कम स्कोप रखा है, क्योंकि काफी चिट्ठों की तो वो चर्चा कर ही चुके है, फिर भी हम कुछ चिट्ठे तो बाँचगे ही। आखिर हमारी भी दिहाड़ी का सवाल है। तो भई शुरु करें? (तनिक आवाज दे दोगे तो क्या बैंक बैलेन्स खाली हो जाएगा?)

शनिवार २८ अक्टूबर, २००६
हाँ तो यजमान, आज शनिवार का दिन था, जैसे हिन्दी चिट्ठा संसार मे छुट्टी का दिन। सबसे पहले तो अवधिया जी ने भगवान के विराट रूप के दर्शन कराए, धन्य हो अवधिया जी। जीवन सफल कर दिया हमार। उधर हमारे वरिष्ठ चिट्ठाकार रमण कौल जी टी वी के छोटे नवाब वाले कार्यक्रम सारेगामापा के लिए कहते है:
इस सीज़न में चल रहा है लिट्ल चैंप्स का मुकाबला, और सीज़न के अन्त में बचे हैं तीन फाइनलिस्ट - दिल्ली का दिवाकर, मुंबई का समीर और कोलकाता की संचिता। मुकाबले में इस से पहले के दौर में कई बढ़िया बाल कलाकार बाहर हो गए। शुक्र है कि एक उत्कृष्ट गायिका अभी भी बची हुई है - संचिता।

रमण भाई, आपने खूब पहचाना, अभी अभी ख़बर मिली है कि संचिता ने यह प्रतियोगिता जीत ली है।

उन्मुक्त हरिवंश राय बच्चन आत्मकथा का तीसरा भाग प्रस्तुत कर रहे है। उन्मुक्त जी, देख लीजिएगा, शायद बच्चन साहब की आत्मकथा कापीराइट की श्रेणी मे आती है, कंही लेने के देने ना पड़ जाएं।बच्चन साहब कहते है:
इलाहाबाद की मिटटी में एक खसूसियत है – बाहर से आकर उस पर जमने वालों के लिये वह बहुत अनुकूल पडती है । इलाहाबाद में जितने जाने-माने, नामी-गिरामी लोग हैं, उनमें से ९९% आपको ऐसे मिलेंगे जो बाहर से आकर इलाहाबाद में बस गए, खासकर उसकी सिविल लाइन में - स्यूडो इलाहाबादी । और हां, एक बात और गौर करने के काबिल है कि इलाहाबाद का पौधा तभी पलुहाता है, जब वह इलाहाबाद छोड दे ।


अरे ये क्या? यजमान पंकज बेंगानी छुट्टियां मना रहे है, अकेले नही वो भी पूरे गुजरात के साथ कहते है:
क्या कहुँ... सब सुना सुना है। गुजरात का भी बडा भारी काम है भाई। दिवाली क्या आई... सब भाग गए। छुट्टियाँ जो आ गई। दिवाली के बाद लाभ पंचमी तक सब बन्द। सब बन्द यानि सब बन्द। पुरे हफ्ते ऐसा लगता है जैसे शहर में कर्फ्यु लगा है। सडकें सुनी, दुकानों मे ताले... और जीवन के लाले। सच में लाले पड जाते हैं।


आप कन्फ़यूजिआए नही, ये गुजराती हिन्दी है, इन्हे सब सूना सूना लगता है, ना कि सुना सुना। वो आपको चुटकुला नही पता, एक गुज्जू भाई ने अपने (ड्राइंग)हॉल के लिए इन्टीरियर डेकोरेटर को फोन किया और बोले "जल्दी आ जाइए, हमे अपने 'होल' को डेकोरेट कराना है।"
उधर आगरा मे प्रतीक भाई, हिन्दी भाषा का रोमन लिपि मे भविष्य तलाशने पर बहस कर रहे है। जितेन्दर जी कहते है नैणों की मत सुनना, बहुत ठगी होते है कौन जितेन्दर, अरे नही यार! नैणा। प्रभाकर जी भी शेर सुनाने मे पीछे काहे रहें। गिरिराज जी अपने बिखरे शब्दों की समीक्षा कर रहे है। बिखरी जुल्फें तो सुना था, बिखरे शब्द पहली बार सुन रहे है, समझने के लिए पोस्ट को पढना जरुरी है भई। कालीचरण को फिर कब्ज की शिकायत हो गयी है। टॉयलेट मे लिखते लिखते ये उनकी पोस्ट का सैकड़ा हो गया। प्रतीक एक बहुत ही बेहतरीन दिखाने की चीज दिखा रहे है, जरुर देखिएगा। हिन्दी चिट्ठे और पॉडकास्ट वालो को भी देखिए।

आज का चित्र प्रतीक के ब्लॉग पर देखिए, हमे तो बहुत पसन्द आया, यहाँ इसलिए नही चिपका रहे है कि कंही शुकुल दौड़ा ना ले।

पिछले साल इसी सप्ताह:

हमारी कुवैत डायरी के कुछ अंक , अजनबी देश अन्जाने लोग ये चिट्ठा भी भूले बिसरे मे चला गया है। एक और ब्लॉग है सुधीर शर्मा का, उनकी एक पोस्ट विलय की नीति जरुर देखिएगा। पिछले साल शशि सिंह छठ की धूम धाम दिखाए थे, अब वो भी टहल गए है, कंही पकड़ मे आएं तो पानी मे दुई ठो डुबकी लगवाकर चार ठो, पोस्ट जरुर लिखवाइएगा।

सभी बिहारी साथियों को छठ के त्योहार की शुभकामनाओं के साथ।

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शनिवार, अक्तूबर 28, 2006

ये बेचारे क्रिकेट के मारे

वैसे तो काम भर के चिट्ठों की चर्चा मैं सबेरे कर चुका था लेकिन कुछ रह गये। रह इसलिये गये कि उनकी चर्चा करने के लिये समय कम पड़ गया। सो अब यह एरियर चिट्ठा लिख रहा हूं। कारण यह है कल जब जीतेंद्र छुट्टी से लौटकर चिट्ठाचर्चा करें तो हलके महसूस करें।

आज जब कि पूरा देश सा रे गा मा देखने में जुटा है तो रमन कौल अपना वोट तो संचिता को देने की बात कर ही रहे हैं, आपसे भी अनुरोध करते हैं कि अपना वोट संचिता को ही दें। इसके पहले वे पूंजीवादी बनाम समाजवादी सर्वेक्षण कर चुके हैं। आज जब पूंजीवाद और समाजवाद में नाम के अलावा भेद कर पाना मुश्किल होता जा रह है तो ऐसे सर्वेक्षण में कैसे वोटिंग की जाये !

क्या खूबसूरती है
ये तो पेड़ हैं


ये बेचारे क्रिकेट के मारे आज की एक बेहतरीन पोस्ट रही। मुरैना के भुवनेश धीरे-धीरे करके जमते जा रहे हैं हास्य-व्यंग्य लेखन में। राष्ट्रपति कलाम की तुलना में सचिन का देश के विकास में ज्यादा योगदान है यह बात व्यंग्य भी है और विडंबना भी:-

लोग राजनीति में नैतिकता और इसमें अच्छे लोगों को आना चाहिए जैसी कुछ बातें कर रहे थे। इतने में एक महाशय को राष्ट्रपति कलाम साहब का खयाल आया और उसने उनके सादा जीवन, उच्च विचारों और देश के लिए उनके योगदान की तारीफ़ कर दी। अन्य लोगों ने भी उसकी हाँ में हाँ मिला दी। जब ऐसी बातें सुन-सुन कर इनके कान का दर्द बहुत बढ़ गया तो ये उबल पड़े- " किसने कहा आपसे कि कलाम ने देश का सबसे ज्यादा भला किया है, सचिन को तो लोग ऐसे भुला देते हैं जैसे उसने कुछ किया ही ना हो। जितना योगदान सचिन ने इतनी छोटी सी उम्र में देश के लिए दिया है उतना कोई माई का लाल सात जन्मों में भी नहीं दे सकता!"
किसी ने उनसे पूछ लिया कि- "बताईये सचिन का देश के विकास में क्या योगदान है उसने तो सिर्फ़ अपना ही भला किया है पैसे कमाकर।"
ये भड़क गये बोले- " अच्छा आपको उसका योगदान ही नजर नहीं आ रहा उसने कितने मैच जिताये सब भूल गये, आजकल के पढ़े लिखे लोग भी ये बात नहीं समझते। लानत है। "

भेड़ाघाट
भेड़ाघाट

लेकिन इस सब हास्य व्यंग्य से अलग पंकज बेंगाणी अपनी दुकान खोले बैठे हैं। प्रतीक ने एक नयी बात उठायी कि अगर हिंदी को देवनागरी की जगह रोमन लिपि में लिखा जाये तो कैसे रहेगा। बहुत बाहियात बात है यह कुछ ऐसा विचार है पंकज बेंगाणी का जो कहते हैं:-
बकवास बात है। हिन्दी को देवनागरी में ही लिखा जाना चाहिए। जो है वही है। देखिए पहली बात जो जिसकी चीज उसीको सोहे... रोमन में हिन्दी कभी ढंग से पढी नहीं जा सकती.. sms ya email तक ठीक है। बाकि हिन्दी देवनागरी लिपि में ही बेहतर है।

जो लोग हिन्दी को रोमन लिपि में लिखने के पैरोकार हैं उनकी मानसिकता गुलामी की है। हिन्दी की अपनी लिपि है और वही रहनी चाहिए... आज युनिकोड आने के बाद इतने सारे संजाल हिन्दी में भी बन गए हैं। तो रोमन में लिखने की क्या जरूरत है? और हमारी तो खुद की लिपि है.. कोई फ्रेंच या जर्मन या स्पेनिश थोडे ही है।


भेड़ाघाट
भेड़ाघाट


उन्मुक्त हरिवंशराय बच्चन के इलाहाबाद के बारे में विचार बता रहे हैं और उधर जीतेंद्र को नैनों ने ठग लिया । अब यह बात जीतेंद्र को हम कैसे बतायें कि उनके ब्लाग के नये रंग रूप ने हमें ठग लिया है और हम यही नहीं समझ पाये अभी तक कि टिप्पणी कहां / कैसे करनी है।

गिरिराज जोशी आजकल बहुत सक्रिय हैं। परिचर्चा में हुये कवितागीरी का हवाला देने के साथ-साथ अपने कुछ पसंदीदा शेर पेश किये।
हमारी बात वे अपने शब्दों में कहते हैं:-
हमने गुजार दी ताउम्र जिनकों समझने में
वो कहते है नहीं कोई सुलझा हुआ हमसा ॰॰॰


रीतेश अपनी कविता में जीवन के अकेलेपन को दूर करने की बात करते हैं:-
तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो
अकेले फ़ूल से उपवन नहीं बना करते
सात रंगों के साथ से बनता है इन्द्र्धनुष
जीवन गुलशन कर लीजिये
इस बेखुदी में क्या रख्खा ह

रजनीजी जिंदगी का खाका खींचते हुये कहती हैं :-
इस कोने से उस कोने तक
इस मकान से उस चौराहे तक
हर रोज़ बाँग लगाती है ज़िन्दगी
गली में कस्बे सी समाती है ज़िन्दगी


प्रभाकर पांडेय ने भी अपने कुछ पसंदीदा शेर पोस्ट किये मुझे जो सबसे ज्यादा जमा वो है:-
अगर ये जिद है कि मुझसे दुआ सलाम न हों,
तो ऐसी राह से गुजरो जो राहे आम न हो ।



आपने ये जो ऊपर के फोटू देखे वे हमारे कालीचरण भोपाली जी के खींचे हुये हैं। बाकी फोटू भी आप यहां देख सकते हैं।

आज की टिप्पणी:-


1. यह शो देखता रहा हूँ, जहाँ नन्हे गायको को सुनना काफी अच्छा लगता हैं, वहीं झुठी नौक-झौंक तथा अभिजीत का लहरी से विवाद मन को खट्टा करता रहा
हैं. जजो में पक्षपात भी देखने को मिला.ऐसे शो में वोटींग कमाई का माध्यम हैं जो विजेताओं के चयन को बुरी तरह से प्रभावित करता हैं. कई अच्छे गायक बाहर हो गए तो कुछ उतने अच्छे न होते हुए भी बने हुए हैं. हालमें संचिता जीत की हकदार हैं पर निर्णय वोट से होना हैं.
संजय बेंगाणी
2.सा रे गा मा मेरा भी पसंदीदा कार्यक्रम है । २००५ में हिमानी, विनीत, देबजीत और हेमचन्द्र के गाये गीतों का बहुत लुत्फ उठाया था हम सब ने ।
http://indianspirit.blogspot.com/2005/12/sa-re-ga-ma-challange-2005.html
हालांकि बच्चों वाला सिलसिला मुझे २००५ के शो की तुलना में काफी फीका लगा ।

रही बात जजों की नौटंकी की तो रियाल्टी शो के नाम पर ये लोग संगीत सुनने का मजा बिगाड़ देते हैं और भाग लेने वालों के साथ जो होता है उसकी बानगी तो आपने बखूबी पेश की ही है । सन २००५ के सा रे गा मा के विजेता के चुनाव के पहले देबजीत को असम से मिलने वाले वोटों का नाटकीय ढंग से दिखा कर सनसनी पैदा करना हो या इंडियन आइडल - I में पंजाब के एक प्रतिभागी की वेश भूषा को ले कर की गई फराह खान की तल्ख टिप्पणी हो ये भोंडापन संगीत प्रतिस्पर्धाओं का अभिन्न अंग बनता जा रहा है। इस बारे में गुस्से में आकर ये पोस्ट लिखी थी
http://indianspirit.blogspot.com/2005/09/are-we-really-entertained-on_25.html
मनीष

आज की फोटो:-



आज सबेरे जब मैंने कुछ फोटो लगाये थे तो संजय बेंगाणी की टिप्पणी थी कि दो ही (बंदर) क्यों दिखाये। उनकी शिकायत दूर करने के लिये मैं बाकी साथियों के फोटो भी लगा रहा हूं ये भी घुमक्कड़ ने ही खींचे हैं:-

पियो जी खोलकर
पियो जी खोलकर



वे दो हैं और हम तीन
आओ यार इधर

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कि लूटने जाओ तो काग़ज और कलम निकले [ गुजराती चिट्ठे ]

बहुत दिन हो गए कुछ लिखा ही नहीं। छुट्टियाँ खत्म हो गई दिवाली कि पर ये गुजराती लोग भी कमाल के होते हैं। अब कहते हैं कि चलो ना यार सोमवार से ही काम पर लौटते हैं। वैसे भी आधा गुजरात तो बाहर घूम रहा है। कोई सिंगापुर तो कोई मलेशिया तो कोई उत्तरांचल तो कोई केरल। आधे मेरे जैसे हैं जो अभी तक यहीं है और आलस उडाने के उपाय खोज रहे हैं।

दिवाली आते ही यहाँ छुट्टियों का ऐसा मौसम आता है कि लगता है जैसे गाडी पटरी पर आएगी ही नहीं। खैर उम्मिद पर दुनिया कायम है और मेरा अनुमान है कि सोमवार तक सब बेक टु पवैलियन हो जाएंगे। मैं कहीं घुमने तो गया नहीं तो सोचा गुजराती चिट्ठों के संसार में ही थोडा मन बहला आऊँ, आप भी चलिए:

एक जनाब मौलिक सोनी हैं, उनको तकलीफ है कि उन्हें प्रसिद्ध गुजराती लोकगीत के एक प्रकार "सनेडो" के बारे में जानकारी चाहिए और जो इंटरनेट पर पुरी उपलब्ध नहीं है। मैं सबसे जानकारी मांग रहे हैं।

मै जोडना चाहुंगा कि सनेडो शैली के गीत ग्रामिण गुजरात में अत्यंत लोकप्रिय हैं। कुछ दिन पहले ही सनेडो फेम सुपरस्टार मणीराज बारोट का निधन हुआ था। उनके जाने से सनेडो गाने वाले उत्कृष्ट गायकों की कमी सी हो गई है।

सुरेश जानी आज़ादी का महत्व बता रहे हैं। उन्होने इसपर पुरी श्रृंखला शुरू की है। वे इसका प्रारम्भ इस शेर से करते हैं:


બની આઝાદ જ્યારે માનવી નિજ ખ્યાલ બદલે છે,
સમય જેવો સમય આધીન થઇને ચાલ બદલે છે.

और इसका अनुवाद:

होकर आज़ाद जब मानव अपने खयाल बदलता है,
समय जैसा समय भी अधिन होकर चाल बदलता है।



सुरेश भाई ने एक बहुत अच्छी बात की कि आजादी का अहसास होना निसन्देह बहुत ही सुखद अनुभव है पर ये इतनी आसानी से हासिल नही होता. हमे मन से, विचारों से और प्रतिभावों के प्रति सचेत भी होना पडता है। वे आगे कहते हैं आकाश में उडना है तो पंख तो फडफडाने ही पडेंगे।

एक हैं श्री कार्तिक सोनी। बडी दुविधा में हैं, कुछ लिखना भी पर क्या लिखें तो इतना लिखा कि भई कुछ लिखना तो है, पर क्या लिखें तो यही लिखा है कि बस कुछ लिखा है। कमाल है।

"अंतर नी वाणी" में सुरेश भट्ट विनम्रता का महत्व समझा रहे हैं। भगवान बुद्ध और एक किसान के वार्तालाप को प्रेषित करते हुए वे नम्रता के महत्व को समझा रहे हैं।


તથાગત એક વખત કાશીમાં એક ખેડૂતને ઘેર ભિક્ષા માંગવા ગયા. ખેડૂતે ખૂબ પરિક્ષમ કરી
હમણાં જ ખેતરેથી આવ્યો હતો. થાકેલો હતો. તેણે તથાગતનું પગથી માથા સુધી નિરિક્ષણ
કર્યું પછી કતરાતા સ્વરે બોલ્યો – હું તો ખેડૂત છું – પરિક્ષમ કરી મારું અને
પરિવારનું પેટ ભરું છું. તમે મહેનત કર્યા વિના ભોજન મેળવવા કેમ ઇચ્છો છો
?
બુદ્ધે તદ્દન શાંત
સ્વરે જવાબ આપ્યો – ભાઇ, હું પણ ખેડૂત છું અને ખેતી કરું
છું.
ખેડૂતે
કહ્યું – તો પછી ભિક્ષા કેમ માગો છો
?
બુદ્ધે
સ્પષ્ટતા કરી, અને ખેડૂતની શંકાનું સમાધાન કરતા બોલ્યા – “ વત્સ ! હું
આત્માની ખેતી કરું છું. હું જ્ઞાનના હળથી શ્રદ્ધાનાં બી વાવું છું.
તપસ્યાના જળથી એ બી નું સિંચન કરું છું. વિનય મારા હળનું લાંબુ લાકડું,
વિચારશીલતા ફાલ અને મન નારિયેળની કાચલી છે. સતત અભ્યાસનું વાહન મને લક્ષ્ય તરફ લઇ
જઇ રહ્યું છે. જ્યાં નથી દુઃખ, નથી સંતાપ. મારી ખેતીમાં અમરત્વનો ફાલ લહેરાય
છે. તમારી ખેતીના ભાગમાંથી થોડો ભાગ આપો, હું મારી ખેતીમાંથી તમને કેટલોક ભાગ
આપીશ…..સોદો બરાબર છે ને ?”
ખેડૂતને
બુદ્ધનો પરિચય થયો અને ચરણોમાં નમી પડ્યો.

भावार्थ:

तथागत एक बार एक किसान के यहाँ भिक्षा लेने आते हैं। किसान कहता है- मैं किसान हुँ, धूप में खेती करके मेहनत करके अपने परिवार का पालन करता हुँ। आप तो मुफ्त में खाना ले जाते हैं।

बुद्ध कहते हैं: भाई मैं भी किसान हुँ। आत्मा की खेती करता हुँ। ज्ञान के हल से श्रद्धा के बीज बोता हुँ। मेरी खेती से अमरत्व की फसल लहलहाती है। थोडी फसल आप दिजीए, थोडी मैं देता हुँ।

किसान नतमस्तक हो जाता है।

और अंत में उर्मी सागर एक बार फिर एक उम्दा गज़ल लेकर आई हैं:

ચાહું તો છું કે આ પરદો ઉઠે ને એ સનમ નીકળે,મગર ડર છે - ન નીકળે કોઇ ને મારો ભરમ
નીકળે.
તો નક્કી માનજો - મેં રાતે એનું ખ્વાબ જોયું છે,સવારે આંખ હું ખોલું અને
એ આંખ નમ નીકળે.
બધા પર્વત સમા છે, બોજ દિલનો થઇ રહ્યો છે
એ,નદી જેવા નથી કે આંસુ વાટે મારા ગમ નીકળે.
ત્રણે ત્રણ કાળને ભૂલવા હું આવ્યો
છું સુરાલયમાં,ન એવું થાય સાકી, જામ મારો જામે જમ નીકળે.
પ્રણયને પાપ કહેનારા,
થશે તારી દશા કેવી?કદાચ અલ્લાહને ત્યાં એ જ જો દિલનો ધરમ નીકળે?
જગત જો ગોળ છે
તો ચાલવામાં રસ પડે ક્યાંથી?ગણું છું જેને આગેકુચ એ પીછે કદમ નીકળે.
બધાનાં
હાથમાં લીટા જ દોર્યા છે વિધાતાએ,પછી ક્યાંથી કોઇ વાંચી શકે એવા કરમ નીકળે?
ફક્ત
એથી જ કોઇની મદદ માંગી નથી શકતો,શરમથી હાથ લંબાવું અને એ બેશરમ નીકળે.
કદી મારા
જિગરમાં એ રીતે ના આવશો કોઇ,તમે જ્યાં છાપ પાડી હોય ત્યાં મારા જખમ નીકળે.
બીજો
સામાન તો ક્યાં છે કવિ બેફામના ઘરમાં?કે લૂંટવા જાઓ તો થોડાક કાગળ ને કલમ
નીકળે.

कुछ पंक्तियों के अनुवाद:

चाहता तो हुँ कि ये पर्दा उठे और सनम निकले,

पर डरता हुँ कि ना निकले और मेरा भरम निकले।

तो यह तो तय है कि मैने एक ख्वाब है देखा,

कि सुबह आँख खोलुँ और वो नम निकले।

दुनिया जो गोल है तो चलने में क्या रखा है,

लगे जो है आगे की कूच वो पीछे के कदम निकले।

सबके हाथों में लकिरें ही खिंची है रब ने,

कोई क्या पढे अब क्या करम निकले।

इसिलिए तो किसी से मदद नहीं मांगता,

कि शरम से हाथ बढाऊँ और वो बेशरम निकले।

सामान तो कहाँ है कवि "बेफाम" के घर में,

कि ढुंढने जाओ तो काग़ज और कलम निकले।



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इश्क में राय बुज़ुर्गों से नहीं ली जाती

अतुल अपने लेखन में नित नये आयाम जोड़ते चले जा रहे हैं। कल उन्होंने बैट-बाल खेलते हुये चिट्ठाचर्चा की। इस मामले में वे क्रिकेट गुरू ग्रेग चैपेल के अंदाज़ में काम कर रहे हैं नित नये प्रयोग। अब ये अलग बात है कि अपने प्रयोगों के कारण बेचारे चैपेल तौलिये से पसीना पोछ रहे हैं जबकि अतुल उसी तरह की तौलिये से अपनी मुस्कान छिपा रहे हैं। किस्सागोई और कल्पनाशीलता का अद्भुत संगम रही कल की अतुल चिट्ठाचर्चा लेकिन हमारे लिये परेशानी का कारण बन गयी। यह होता है कि अगर कोई कवि शानदार कविता पढ़कर गया है तो अगले को बहुत मेहनत करने पढ़ती है वर्ना उसके हूट होने की सम्भावना निश्चित होती है।

आज की कुछ खास पोस्टों के जिक्र की शुरुआत शुऐब की पोस्ट से। शुऐब जब लिखते हैं तो अपना पूरा दिल अपने लेख में नत्थी कर देते हैं। अपनी बात भारत के त्योहार प्रधान देश होने की बात से शुरू करते हैं:-

क्या अजीब देश है हमारा, यहां कभी त्योहार खतम होने का नाम ही नही लेते कभी दीपावली की खरीदारी तो कभी रमज़ान की गहमा गहमी, कभी दशहरा तो कभी दर्गाग पूजा। पिछले चंद महीनों मे त्योहारों का जैसे एक सिलसिला चल रहा है।


त्योहारों के मेले में होते हुये वे धर्म की दुकान की पड़ताल करने पहुंच जाते हैं और अपने दिल का बटुआ खोलना शुरू करते हैं:-

भारत कोई ऐसा वैसा देश नही जहां हिन्दू-मुसलमानों के बीच सिर्फ दंगे ही होते हैं - भारत के हिन्दू और मुसलमान अपस मे लडते ज़रूर हैं मगर एक दूसरे के बगैर रह भी नही सकते। वैसे तो मैं सिर्फ नाम का मुसलमान हूं और हर दिन मुसलमानों मे उठता बैठता हूं लेकिन अपने देश के कल्चर को ही अपना धर्म और भारत को अपनी मां सम्मान मानता हूं। मैं ने हमेशा से हिन्दू को हिन्दू नहीं बल्कि अपना भाई माना है हालांकि दंगों के वक्त अपने हिन्दू भाईयों से मार भी खा चुका हूं।


लेकिन सच बात तो यह है कि वे अपने दोस्त से मिलवाना चाहते हैं आपको:-
यहां दुबई मे कहने को बहुत सारे दोस्त हैं मगर अपना जो सच्चा दोस्त है वो एक हिन्दू है, ज़रूरतों पर काम आने वाला, खुशी और दुःख मे साथ देने वाला हालांकि वो अभी तक मुझे मुसलमान ही समझता है फिर भी अपनी सच्ची दोस्ती निभाता है। हम पिछले चार वर्षों से साथ हैं लेकिन आज तक उस ने मुझ से ये नही पूछा कि दूसरे मुसलमानों की तरह तू नमाज़ क्यों नही पढता? जबकि मैं ने उस से पूछ डाला तू पूजा पाठ क्यों नही करता? उसने जवाब दियाः “हालांकि मेरे माता-पिता हिन्दू हैं और पूजा भी करते हैं लेकिन जब से मैं ने दुनिया देखा धर्म पर से विश्वास उठ गया। ये सारे लोग झूठे हैं जो सुबह शाम राम अल्लाह का नाम लेते हैं और छुप कर गलत काम भी करते हैं लेकिन मैं राम अल्लाह का नाम नही लेता सिर्फ अपने दिल की सुनता हूं जो बुरा लगे वो बुरा और जो अच्छा लगे वो अच्छा।”


यह पढ़कर भाटिया जी का दिल भर आया और संजय बेंगाणी मुस्करा उठे।

रत्नाजी मुनव्वर राना के बारे में लिखने से बचना भले न चाह रहीं हों लेकिन जाने-अनजाने टाल जरूर रहीं थीं। लेकिन पाठकों के दबाव और सूचना के अधिकार के आगे उनकी एक न चली और उनको मुनव्वर राना की शायरी के बारे में लिखना पड़ा। रसोई के खाने का मजा रसोई में ही है इसलिये आप बेहतर होगा कि रत्नाजी की पोस्ट पढकर ही मुनव्वर राना की शायरी का मजा लें लेकिन कुछ ऐसे शेर यहां मैं दे रहा हूं जिनको पढ़कर मुझे डर है कि आप आगे की चर्चा पढ़े बिना रसोई की तरफ़ जा सकते हैं:-
मैं इक फकीर के होंठों की मुस्कुराहट हूँ
किसी से भी मेरी कीमत अदा नहीं होती।

हम न दिल्ली थे न मज़दूर की बेटी लेकिन
काफ़िले जो भी इधर आए हमें लूट गए।

दिल ऐसा कि सीधे किए जूते भी बड़ों के
ज़िद इतनी कि खुद ताज उठा कर नहीं पहना।

मियां मै शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मैं लहजा नरम भी कर लूँ तो झुंझलाहट नही जाती।

इश्क में राय बुज़ुर्गों से नहीं ली जाती
आग बुझते हुए चूल्हों से नहीं ली जाती।


अब मुझे अपने हरीफ़ों (प्रतिद्वंदी)से ज़रा भी डर नहीं
मेरे कपड़े भाइयों के जिस्म पर आने लगे।

ना कमरा जान पाता है न अंगनाई समझती है
कहाँ देवर का दिल अटका है भौजाई समझती हैं।


रत्नाजी की रसोई में जितना अच्छा बनता है उससे अच्छा यह भी है कि परसने में कोई कंजूसी नहीं - कहां भूखे का दिल अटका है, रसोई समझती है।
सृजन शिल्पी ने व्यंग्य के प्रतिमान और परसाई में हरिशंकर परसाई के लेखन और उनकी सोच के बारे में विस्तार से चर्चा की है। व्यंग्य के बारे में लिखते हुये वे कहते हैं:-
व्यंग्य वही कर सकता है जो जगा हुआ है और अपने संस्कार एवं चरित्र से नैतिक है। हर कोई व्यंग्य नहीं कर सकता। व्यंग्य मजाक या उपहास नहीं होता, कटाक्ष भी नहीं होता और यह किसी का अहित चाहने की भावना से नहीं किया जाता। व्यंग्य में सुधार की दृष्टि अनिवार्य रूप से होनी चाहिए, यदि यह दृष्टि उसमें नहीं है तो वह कुछ और भले हो, परंतु व्यंग्य वह नहीं हो सकता।


मनीष एक खूबसूरत गजल के शेर सुना रहे हैं:-

पुराने ख्वाब पलकों से झटक दो सोचते क्या हो
मुकद्दर खुश्क पत्तों का, है शाखों से जुदा रहना


डा. रमा द्विवेदी कुछ अलग-अलग परिभाषायें देती हैं:-

कोई खुश है परिश्रम की रोटी कमाकर,
कोई खुश है हराम की कमाई पाकर।
कोई खुश है बैंक बैलेन्स बढाकर,
कोई खुश है अपनी पहचान बनाकर॥

इन परिभाषाऒं के बाद वे कुछ रिश्ते परिभाषित करती हैं:-

पल-पल रिश्ते भी मुरझाते हैं,
उम्र बढते-बढते वे घटते जाते हैं।
मानव कुछ और की चाह बढाते हैं,
इसलिए वे कहीं और भटक जातेहैं॥

इन रिस्तों तक तो प्रधानमंत्री जी नहीं पहुंचे लेकिन उनको लगे रहो मुन्ना भाई बहुत पसंद आयी जैसे कि प्रतीक ने खबर दी। खबर तो गूगल की रोटी वे भी अधपकी के बारे में भी छपी है न मानो तो देख लो राजेश की बूंदे और बिंदु।
आजकल के बच्चे कमउम्र में जवान हो जाते हैं। प्रत्यक्षा अभी कल अपना जन्मदिन मनाया(कौन सा यह नहीं बताया और इसपर नया ज्ञानोदय में छपी उनकी ताजा कहानी के परिचय में रवींन्द्र कालिया ने लिखा है- प्रत्यक्षा ने अपनी उम्र नहीं बतायी) और आज अपने बच्चे के भविष्य की चिंता में लग
गयीं। बच्चे की पेंटिंग देखकर वे वैसे ही चकित रह गयीं जैसे कभी हम लोग उनकी पेंटिंग देखकर हुये थे । और यही सब बताते हुये वे आलस्य के पल पीने लगीं (क्या च्वाइस है!):-
ऊन के गोले
गिरते हैं खाटों के नीचे
सलाईयाँ करती हैं गुपचुप
कोई बातें
पीते हैं धूप को जैसे
चाय की हो चुस्की
दिन को कोई कह दे
कुछ देर और ठहर ले
इस अलसाते पल को
कुछ और ज़रा पी लें
जिन्दगी के लम्हे
कुछ देर और जी लें


आज की चर्चा में अभी इतना ही। बाकी बचे चिट्ठों के बारे में चर्चा देखिये दोपहर तक। तब तक अपने विचार ही व्यक्त कर दीजिये कैसी लगी इतनी चर्चा!

आज की टिप्पणी:-


१.बहुत बढ़िया सोच है आप की। आप का पढ़ता हूँ तो लगता है, अपना ही पढ़ रहा हूँ — अब तो अपने चिट्ठों का रंग भी एक ही है।
धर्म के ढ़ोंग से दुनिया का कोई कोना नहीं बचा, अच्छा तब हो जब यह ढ़ोंग व्यक्तिगत क्रिया कलापों तक ही सीमित रहे और दूसरों को बदलने या मारने पीटने तक न पहुँचे। त्यौहारों का दौर अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों में भी शुरू हो चुका है। यहाँ अभी हालोवीन है, फिर थैंक्सगिविंग, फिर क्रिस्मस, हानक्का… नव-वर्ष तक यही दौर चलता रहेगा। इस बार दीवाली और ईद के साथ मेरी पिछले साल की कुछ ग़मग़ीन यादें जुड़ी हुई हैं।

रमन कौल
२.मौका ये त्योहार का, मची हर तरफ है धूम
क्या हिन्दु क्या मुसलमां, सभी रहे हैं झूम.
सभी रहे हैं झूम कि नेता सब खुशी से आते
मिठाई दिवाली की और ईद की दावत खाते
कहे समीर कि इनको देख है हर कोई चौंका
गले मिल ये ढ़ूंढ़ते, कल लड़वाने का मौका.

समीरलाल

आज की फोटो:-


आज की फोटो घुमक्कड़ की नजर से

क्या ये भी ब्लागर हैं
पहचानों हम कौन हैं



हम फूल हैं
हम फूल हैं

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शुक्रवार, अक्तूबर 27, 2006

चिठ्ठा कमेंटरी का सीधा प्रसारण

कमेंट्रेटरः भाईयो और जीतू भाई की बहनों

आप सबका चिठ्ठाऐ मैदान में स्वागत है। अभी अभी समीर लाल जी और फुरसतिया जी की जोड़ी अविजित शतकिय पारी निभा कर पैवेलियन वापस गई है। धुरंधर बैटिंग के छक्के चौको के मध्य एक जोरदार अपील भी कर दी गई। अपील पर अंपायर बकनर ने फैसला दिया है कि लगे रहो प्रेमेन्द्र भाई। और प्रेमेन्द्र भाई है कि सिर्फ एक दो अंपायरो के अलावा सारे अंपायरो को आईसीसी पैनल से रूखसत करवाने का परवाना तलाश रहे हैं।

भरोसे और विश्‍वास पर पूरा संसार टिका है और कुछ लोगों ऐसे है, जिन पर मै अपने से ज्‍यादा भरोसा करता हू। पर मानवीय भूल भी कुछ होती है। मैने अपनी पोस्‍ट दीवार मे सेध की सूचना चिठ्ठा चर्चा को दी थी पर उसका कही भी जिक्र नही हुआ। तब मै कैसे विश्‍वास कर लू? एक दो चिठ्ठाचर्चाकारो पर तो विश्‍वास हे कि मेरे लेख और कविता को इस चर्चा पर जगह देगें पर सब पर नही है।


खैर अब देखते हैं कि कौन से नये खिलाड़ी आज मैदान पर हैं।
अरे बाप रे , यह कौन शोएब अख्तर है जिसकी बाऊँसर अपने सिर के ऊपर से निकल गई। हमारे एक्सपर्ट कमेंटेटर स्वामी जी भी साथ है। स्वामी जी आपका क्या कहना है मिसिर जी के ताबड़तोड़ कवर ड्राईव पर?
स्वामीः अरे यार मिसिर ने न्यू दिल्ली टाईम की डीवीडी देख ली है, जिसमे डायलाग है "हम इस उम्मीद में छींकते है कि सरकार को जुकाम हो जाये।" जब तक यह खासी जुकाम अखबारी खबरचियो तक था , सरकार मीसा वगैरह के जरिये निपट लेती थी। अब तो ब्लाग वगैरह से पूरा देश छींकना शुरू कर दिया है तो ये बैन वगैरह ही लगायेगी सरकार।
कमेंट्रेटरः हम्म,तो भाईयो और जीतू भाई कि बहनो अगली बाल, फुलटॉस और इसे हुक कर दिया है फुरसतिया जी ने हमेशा की तरह इस बार भी मनचाही दिशा में। फुरसतिया जी की बैटिंग की खासियत है , बाल चाहे आन साईड से आये चाहे आफ साईड से , उनके हुक और पुल उधर ही पड़ते है जिधर उन्हें बाल बेजने होती है।
स्वामीः बिल्कुल सही, फुरसतिया जी का शॉट सीधा प्रत्यक्षा जी के आँगन मे गिरा है और सारे ब्लागर बाल उठाने साथ साथ जा रहे हैं, बिना बधाई दिये बाल नही मिलने वाली।
कमेंट्रेटरः और ये अगली दो टप्पे वाली गुगली फेंकी है जीतू भाई ने।
स्वामीः ये जो जीतू हैं, उनकी गुगली आजकल मिर्जा और छुट्टन बहुत शिद्दत से याद करते हैं। पर जीतू भाई क्या करे, कोच चैपल ने उन्हें टॉप आर्डर में परिचर्चा , जुगाड़ और नारद के चौके छक्के लगाने को भेज दिया है। स्वामी जी आप कौन सी गहन सोच में पड़ गये?
स्वामी जीः जैसे भाटिया जी बाल से खाल निकालने की कोशिश कर रहे हैं कुछ वैसा ही फितूर हमारे दिमाग मे भी है।
कमेंट्रेटरःक्या आप हमारे दर्शको को नही बताना चाहेंगे?
स्वामीः अब क्या बतायें,पहले जीतू भाई की यह लाइन देखो।
एक सेक्सोलाजी एक्सपर्ट: काहे का एक्सपर्ट, साले के कन्सलटिंग आफिस मे मक्खियां भी नही आती

फिर उनकी यह पोस्ट पढ़ो
अब दोनो मे कनेक्शन लगाओ तो पहला सवाल यह आया कि जीतू भाई को बिना सेक्सोलाजिस्ट के आफिस जाये कैसे तो यह पता नही लग सकता कि सेक्सोलाजिस्ट के कन्सलटिंग आफिस मे मक्खियां भी नही आती! हमको तो यही लगता है कि हमेशा कमर में मोबाइल खोंसकर सारी दुनिया को टिप्स देने के चक्कर में जीतू भाई को कुछ शकोसुबहा हो गया होगा तबही वो सेक्सोलाजिस्ट डा. झटका के पास गये , वहाँ उसे मक्खी उड़ाते देख कर लौट आये और सारी दुनिया को बता रहे हैं कि ...., अब यार ज्यादा मुँह न खुलवाओ, यह काम शुकुल बढ़िया करते हैं।
कमेंट्रेटरः स्वामी जी, वह देखिये, टीम के तेज गेंदबाज आपके नामभाई ईस्वामी कभीअलविदा वाले शाहरूख की तरह लंबा रनअप ले रहे हैं। शेन बांड की तरह तेज गेंद फेंकते हैं। बहुतो की खोपड़िया के ऊपर से निकल जाती है। और यह उनकी अगली गेंद और यह क्या वाईड बॉल! स्वामी जी यह क्या?
स्वामीः ये अपने ईस्वामी जी ने बहुत दिन से गेंदबाजी नही की है न, इसलिये थोड़ा रस्टी हो गये हैं, खुद ही कबूले हैं कि
यार अब तो ऑफ़िशियली उम्रदराज़ तो हो ही गये हैं हम

इनको एक ओवर में छः अलग अलग तरह की बॉल न डालकर एक तरह की बॉल डाले तो कयामत ढा सकते हैं।
कमेंट्रेटरः जरा खुलासे से बताइये स्वामी जी।
स्वामीः भई अब या तो नोस्टालजिया लो, या नई तकनीक का बखान कर लो, या फिर फिल्म चर्चाकर लो, पिछले सारे महीनो की खसलत एक पोस्ट में दाखिल खारिज करोगे तो पब्लिक के सर के ऊपर से जायेगी कि नही?
कमेंट्रेटरःअगले ओवर से पहले एक नानकामर्शियल ब्रेक लेते हैं , सुनिये यह कविता मोहन राणा से।
मैं एक बूढ़े आदमी को सुन रहा हूँ
कला दीर्घा की छत पर
सीले हुए अँधरे में
केवल देख रहा हूँ अपने को थोड़ी देर पहल

कमेंट्रेटरः और अब अगला विज्ञापन इंटरनेट रेडियो कंपनी के सेल्समैन नाहर जी से सुनिये।
कमेंट्रेटरः इसको कहते है अब्दुल कादिर वाली गुगली। बॉल जाती दिख रही थी ईरान, पहुँच गयी तूरान और बल्लेबाज पढ़ने वाले क्लीन बोल्ड!
स्वामीः वैसे एक बात तो है , ईस्वामी और दादा, जैसे बैट्समैन चाहे क्रीज पर जितनी देर भी रहे, बल्लेबाजी मनलुभावन करते हैं। आज दादा बहुत दिन बाद बैटिंग को आये तो लोगो को शाट अच्छे लग रहे हैं।
कमेंट्रेटरः प्यारे दर्शको अगर आपको किसी भी बॉलर की गति नापनी हो आज शाम को क्रिकेट स्पेशल देखना न भूलिये, इस एक्सपर्ट ने सबकी चाल नाप रखी है।

कमेंट्रेटरः भाईयो और जीतू भाई की बहनों , अभी अभी मैदान पर दर्शको ने हामरी बोरिंग कमेंट्री से उकता कर टमाटर अँडे फेंकने शुरू कर दिये है। अतः हमें कमेंट्ररी रोकनी पड़ेगी। अब अगले विशेषज्ञ का इंतजार कीजिये तब तक हम स्वमी को जीतू भाई के घर छोड़ कर आते हैं।
आज की टिप्पणी (1):गिरिराज जोशी
वाह भूवनेशजी आपने किया खूब कमाल
तमाचा मार गाल पर खूब किया है लाल
ब्रेकिंग न्य़ूज ला रहे दनादन समाचार चैनल
खबरों के स्तर पे आप बिठा दिये हो पैनल
खूब लाये बानगी खबरें होगी कैसी कल
हँस-हँस के पेट में पड़ गए हमारे बल
दुःख हुआ अन्त्येष्टि में ना हो पाऊँगा शामिल
सलाम ऐसे जांबाज को कुत्ता था बड़ा काबिल
गोरेलालजी के ग्राहक हैं अरे हम भी तो हाय
दूध बिना ना हुई नसीब स्फुर्तिदायक चाय
आँखे मलते बैंक पहूँचे ना मिला वहाँ भी कोय
बताया आपने तो मालूम पड़ा गाड़ी पंचर होय
सांडो के लिए बनेगा अखाड़ा, यह तो अच्छी बात
धार्मिक दंगा कम भड़कादे बककर अपनी जात
पर्यावरण की स्थिति तो सचमुच है गंम्भीर
बिजली की किल्लत भी रही कलेजा चीर
देश को बरबाद करेगा लगता है यह क्रिकेट
जिसे देखो थाम के निकला हाथ अपने बेट
खबरीलाल और पैंदीलाल को खिलाओ मिठाई
लेख बहूत अच्छा लिखा स्वीकार करो बधाई!!!

आज की टिप्पणी (2): समीर लाल
वैसे एक बात बताऊँ, कि आप अपने मनसूबों में कामयाब रहीं. अब रसोई में तो जो भी पकाया हो, यहाँ तो वाकई खुब पकाया. हम तो ट्यूब लाईट के पीछे भी राना जी को ढूंढते रहे मगर वो न जाने कहां छिप गये

आज की फोटो: कल्यान वर्मा के फोटोब्लाग से

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गुरुवार, अक्तूबर 26, 2006

हम अंधविश्वासी कब सुधरेंगे

घर अपना जब से लिये,लखनऊ शहर में जाय
फुरसतिया गंजिंग करें,चर्चा लिखत कविराय.
चर्चा लिखत कविराय कि हर दिन नई कहानी
लिखते लिखते बीत रही,यह नादान जवानी
कहे समीर कि थकते नहीं हम इतना लिख कर
छुपकर समय निकालते,फिर दफ्तर हो या घर.


(गंजिंग लखनऊ में हजरतगंज में मजे के लिये घुमने को कहते हैं)
--समीर लाल ‘समीर’

तो जैसा कि आप सबको कुंड़लीनुमा रचना से विदित हो गया होगा कि आज फुरसतिया जी पुनः अवकाश पर हैं और लखनऊ गये हुये हैं, तो आपको चिट्ठा चर्चा सुनाने हम फिर अवतरित हुये हैं. कहते हैं कि बोलना जरा सोच समझ कर चाहिये, कई बार जुबान पर देवी विराजमान रहती हैं और आपका कहा सच हो जाता है. हमने कल चिट्ठा चर्चा की समाप्ती करते हुये लिख दिया था:

“आज के लिये इतना ही, बाकी समाचर लेकर हम फिर आयेंगे, देखते रहें चिट्ठा चर्चा.”

और देखिये, तुरंत ही सच हो गया. खैर, आगे से सतर्क रहूँगा.

शुरु करते हैं, उड़न तश्तरी के चिट्ठों का वार्षिक भविष्यफल से. आशा है आप सभी ने अपने अपने चिट्ठों के बारे में अगले एक वर्ष में क्या गुजरेगा, जान लिया होगा. कुछ अच्छे फल प्राप्ति के उपाय भी सुझाये गये हैं और उस पर भी जो संतोष न मिले तो आप उड़न तश्तरी पर ५१ टिप्पणी की भेंट चढ़ा ईमेल से जानें. भक्तजनों ने इस दिशा में प्रयास भी शुरु कर दिये हैं और जैसा कि होता है, जब तक देवी का बुलावा नहीं आता, आप लाख कोशिश कर लें, आपको दर्शन नहीं होते. इसका रोना हमारे गिरिराज रो रहे हैं, हाय रे ब्लाग स्पाट, ये तुने क्या किया? और महाशक्ति इस पर भी लगे कविता लिखने, भविष्यफल के फेर मे न करो सत्यानाश

भविष्य जानने के बाद सब बड़े सिरियस टाईप हो गये तो माहौल हल्का करने को, रवि रतलामी ले आये एक बेहतरीन व्यंग श्याम सुंदर व्यास द्वारा रचित उधारी के दर्शन

पान-बीड़ी और परचूनी की दुकाने से लगाकर वित्त निगमों तक आप अपनी ‘साख' को भुना सकते हैं. एक बार साख जमी कि आपकी पौ बारह. साख जमाने का सरल गणित है समय पर भुगतान. सामने वाला आपको परखता है और जब उसे विश्वास हो जाता है कि ‘आसामी' डूबत खाते वाला नहीं है, न रास्ता बदलने या नज़रें चुराने वाला तो आपकी सीमित चादर, उधारी के पैबन्द से लम्बी चौड़ी हो जाती है.


और जीतू भाई ने कुछ चुट्कुले मारे हुये जोक्स सुनाये, बस मजा आ गया. अभी हम हंस ही रहे थे कि जीतू भाई आंसू बहाने लगे उल्लूओं का कत्ले आम देख कर, कहने लगे- हम अंधविश्वासी कब सुधरेंगे:
और कहते कहते बड़ी गहरी बात कह गये:

आखिर हम कब सुधरेंगे? कब बन्द करेंगे बेजुबान जानवरों पर जुल्म ढाना? अव्वल तो मै नही मानता कि इससे लक्ष्मी जी प्रसन्न होंगी, ये सब तांत्रिको, पंडितो का किया धरा है। एक परसेन्ट भी यदि इस बात मे सच्चाई है तो लानत है ऐसे इन्सान पर जो अपने स्वार्थ के लिए बेजुबान जानवरों का खून बहाता है। हम अंधविश्वासी लोग कब जागेंगे? कब फैलेगा ज्ञान का उजाला? जिस दिन हम ढोंगी तांत्रिको और पंडितो के जाल से निकलेंगे वही दिन हमारे लिए असली दीपावली होगी।


माहौल देखा तना तना सा है, तो संगीता मनराल जी अपनी इनर व्याइस लेकर उभरी. उन्हें आज फिर एक अंतराल के बाद खरगोश पकड़ में आ गया और उन्होंने अपनी दिवाली का हाल एक कविता के माध्यम मेरी दिवाली से सुनाया:

तुम्हारे संग मनाई
हर वो दिवाली
कुछ याद सी
आ रही है


उन्मुक्त जी किताब की दुकान में बजते संगीत और वो भी कान फोडू और वो भी दो अलग अलग भाषाओं के गाने, भईया तो झुंझला गये और लगे पूछने आप किस बात पर, सबसे ज्यादा झुंझलाते हैं . अब भईया, हम तो टिप्पणी न मिलने पर झुंझलाते हैं. :)

तरुण जी ने फूलों का सुंदर चित्र दिखाया और अमित जी ने वर्ड प्रेस के नये आयामों के बारे में जानकारी दी और वर्ड प्रेस के मल्टी यूजर संस्करण के बारे में रमण कौल जी जानकारी दे रहे हैं.

सुखसागर पर रोज की तरह आज की नई कथा है कलियुग का आगमन.

पृथ्वी बोली - "हे धर्म! तुम सर्वज्ञ होकर भी मुझ से मेरे दुःख का कारण पूछते हो! सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, सन्तोष, त्याग, शम, दम, तप, सरलता, क्षमता, शास्त्र विचार, उपरति, तितिक्षा, ज्ञान, वैराग्य, शौर्य, तेज, ऐश्वर्य, बल, स्मृति, कान्ति, कौशल, स्वतन्त्रता, निर्भीकता, कोमलता, धैर्य, साहस, शील, विनय, सौभाग्य, उत्साह, गम्भीरता, कीर्ति, आस्तिकता, स्थिरता, गौरव, अहंकारहीनता आदि गुणों से युक्त भगवान श्रीकृष्ण के स्वधाम गमन के कारण घोर कलियुग मेरे ऊपर आ गया है। मुझे तुम्हारे साथ ही साथ देव, पितृगण, ऋषि, साधु, सन्यासी आदि सभी के लिये महान शोक है। भगवान श्रीकृष्ण के जिन चरणों की सेवा लक्ष्मी जी करती हैं उनमें कमल, वज्र, अंकुश, ध्वजा आदि के चिह्न विराजमान हैं और वे ही चरण मुझ पर पड़ते थे जिससे मैं सौभाग्यवती थी। अब मेरा सौभाग्य समाप्त हो गया है।"


गपशप इंडिया पर मिर्च मसाला प्रणव मुखर्जी के विदेश मंत्री बनने के बाद उनकी स्थितियों का आंकलन करते हुये कह रहे हैं कोई मेरे दिल से पूछे.

हिन्दी ब्लाग पर प्रतीक भाई लेकर आये हैं फिल्म डॉन की समीक्षा. अगर आप भी फिल्म देखने का मन बना रहें हैं तो पहले समीक्षा तो पढ़ लें. नहीं तो बाद में मत कहियेगा कि बताया नहीं.

डॉ.भावना दिवाली के शुभकामना संदेश को हाईकु की थाली में सजा कर लाईं और छुटपुट जी प्रकट हुये फेडोर-६ का डाउनलोड लिंक लेकर और उसके बारे में बताने का जिम्मा रवि रतलामी को पकड़ा गये.

अब आज की चर्चा समाप्त करने का समय हो चला है, चलते चलते फुरसतिया जी की उस पोस्ट, इसे अपने तक रखना पर राजू श्रीवास्तव का जिंस पर प्रवचन और राकेश जी के आधुनिकीकरण वाले गीत से प्रेरित एक कुण्ड्लीनुमा प्रस्तुति के साथ बिदाई:

भागे धड़ाधड़ जिन्दगी,लगे हावड़ा मेल
बातें छोटी हो रहीं, रिश्ते हो गये खेल
रिश्ते हो गये खेल के भाषा भी छुटियाई
दीदी को दी, डैडी को हैं डैड बुलाई
कहे समीर अजीब हमें यह फ़ैशन लागे
नीचे खिसके पैंट, शर्ट उपर को भागे.

--समीर लाल ‘समीर’

अब नमस्कार, कल आगे का हाल लेकर आयेंगे अपने सुपर डुपर अंदाज में भाई अतुल..देखते रहिये चिट्ठा चर्चा.

आज की टिप्पणियां:

अनुराग, उन्मुक्त पर:

कई जगहों पर संगीत सरदर्द बन जाता है, मुंबई की टैक्सी या तिपहिये पर बैठिये, झंकार बीट्स वाले गाने इस तरह धमा-धम फुल वाल्यूम पर बजाते हैं कि मन करता है कि पैदल ही निकल लो!
अधिकतर रेस्तोरां में तो गाना ऐसा ज़ोर से बजता है कि बातें करने के लिये चिल्लाना पड़ता है।
कभी कभी तो मन करता है कि उनके स्पीकर्स फोड़ गें तो चैन आये - कसम से!!

रत्ना जी, उड़न तश्तरी पर:

समीर की उड़ान लिए उड़ा कुन्डली रूपी यान
गद्य-पद्य मय हास्य-व्यंग्य,सुसज्जित सब सामान
सुसज्जित सब सामान, देख कर हम चकराए
विभिन्न स्वाद एक तश्तरी किस विधी समाए
कह 'रत्ना' मुस्काए समां बस बंध सा जाए
'समीर लाल' की कलम जब करतब दिखलाए।


राकेश खंडेलवाल, फुरसतिया पर (फरमाईश पूरी करते हुये):


पालीथीन हवा में उड़ कर सोचा बन ले उड़नतश्तरी
और घूम ले टोरंटो की गलियां या घूमे वाशिंगटन
पासपोर्ट, वीसा के बिन्ही छोड़े कानपुरी गलियों को
साथ दिलाया झोले के संग, झोली का भी तो अनुमोदन
पालीथीनी थैलियों में भी छुपी हैं अहल्यायें
हो नजर अवधी, तभी तो ढूँढ़ पाये गौतमी को
आपको अपना समझ, फ़रियाद के स्वर गुनगुनाये
वरना राहों पर फिरी वह ढूँढ़ती थी आदमी को .


आज की तस्वीरें:

१.रचनाकार से:




२. मेरा पन्ना से:


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आपके चिट्ठे का भविष्य

कल ईद के मौके पर मैं समीरलाल जी को बोलकर गया था कि मैं बाहर जा रहा हूं आप अपने साथ हमारा दिन भी देख लीजियेगा और गुरुवार की चिट्ठाचर्चा कर दीजियेगा। अब जब मैंने देखा कि उनका लेख भी चर्चित होना है तो सोचा हम ही काहे न उनकी तारीफ़ कर दें। तो अभी रात बारह बजे तक के चिट्ठे हम देखते हैं बाकी के सज्जन व्यक्ति की उपमा धारण किये हुये कुंडली किंग समीर लाल जी करेंगे।

आज का सबसे खास लेख समीरलाल जी का ही रहा। चिट्ठा जगत के ब्लागों के भविष्य के बारे में बताया गया है इस पोस्ट में। गजब की कल्पनाशीलता और मौज मजे का अंदाज। इसमें लोगों ने अपने-अपने ब्लाग के बारे खबरें ग्रहण कीं। मतलब कि:
जाकी रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।।


लेख वैसे तो पूरा का पठनीय है और इसका मजा ही तब है जब आप इसे पूरा बांचे लेकिन कुछ अंश यहां भी देख लिये जायें:-
यह साल आपके चिट्ठे के लिये बहुत शुभकारी रहेगा. वर्ष के पूर्वार्द्ध में टिप्पणियां बहुतायत में मिलेंगी. इस अति प्राप्ति के अहम में डुबकर आप अपने आपको एक वरिष्ठ चिट्ठाकार मानने लगेंगे और आपकी प्रविष्टियों की गुणवत्ता पर इसका प्रभाव दिखने लगेगा और उसमें कमी आने की संभावनायें हैं.



अगर आप ब्लाग स्पाट पर हैं तो संभव है आप वर्ड प्रेस पर स्थानान्तरित हो जायें मगर प्राईवेट होस्टिंग का अगर मन बनाते हैं तो पहले ट्रेफिक काउंटर लगा कर अपनी औकात का आंकलन कर लें अन्यथा कहीं लेने के देने न पड़ जायें. कभी आपको यह अहसास भी हो सकता है कि आप इससे कुछ कमा लेंगे. तो ऐसे बहकावे में न आयें. इस तरह की अफवाह फैलाने वाले खुद भी फ्री ब्लाग स्पाट पर ही हैं और वो इतना बेहतरीन लिख लिख कर कुछ नहीं उखाड़ पा रहे तो आप क्या कर लोगे. कम से कम दृष्टिगत भविष्य में तो इसकी संभावनायें नहीं दिखती हैं.



चिट्ठे का तो खैर जो भी हो, आपके तिरछे तेवर के कारण आपकी बदनामी तय है और उसका परिणाम झेलेगा बेचारा आपका चिट्ठा बिना किसी वजह के. कोशिश करके इस वर्ष कम से कम लिखें और जब भी लिखें तो सिर्फ लिखें न की बकर करें. दूसरों के उपहास से सबको फायदा नहीं पहूँचता, यह आपको याद रखना चाहिये.


ये अंश ऐसे ही बिना किसी तरतीब के दे दिये हैं। आप इसके झांसे में न आयें। आप पूरा लेख पढ़ें। पसंद आयेगा। पसंद न आये तो समय वापस।

इस लेख में दो टिप्पणियं भी एक से एक बढ़कर हैं। समीरजी के काबिल चेले ने तो लगता है कि ५१ टिप्पणियों की यात्रा शुरू की थी लेकिन लगता है एक बार फिर सांस फूल गयी कविराज जी की और मात्र तीस की गिनती तक टिप्पणियां करके बैठ गये। प्रेमेंद्र ने राज को राज नहीं रहने दिया और ब्लाग के नाम का खुलासा कर दिया अलग से एक पोस्टलिख कर जिसे वे बताते हैं कि कविता है। प्रेमेंन्द्र लगता है आत्म्विश्वास की कमी के दौर से गुजर रहे हैं। वही कविता(?) टिप्पणी में लिखी, उसी को पोस्ट में लिखा। इसके बाद सबको बताने के लिये मेल किया। अरे हमें बता दो यार और भरोसा रखो कि हम सबको बता देंगे। ये रुपये में तान अठन्नी काहे भंजाते हो भाईजी!

इसी कारण से महाभारत मेंकलयुग आ गया जिसके बारे में बता रहे हैं जी के अवधियाजी। उन्मुक्त जी किताबों की दुकान में बता रहे हैं जहां आप तरह-तरह की चाय पीते हुये किताब खरीदने के बारे में विचार बना-मिटा सकते हैं।

फिलहाल इतना ही। आगे की चर्चा समीरजी से सुनिये।

सूचना:- इसके पहले कि हम भूल जायें हम आपको बता दें कि आज यानि कि प्रख्यात महिला चिट्ठाकार को कवि, कथाकार, चित्रकार, टिप्पणीकार, कलाकार प्रत्यक्षा का जन्मदिन है। इस अवसर पर चिट्ठाचर्चा की तरफ से प्रत्यक्षाजी को ढेर सारी शुभकामनायें। जन्मदिन के अवसर पर खासतौर से प्रत्यक्षा से बातचीत पढ़ने के लिये आप फुरसतिया देखते रहिये। पता नहीं कब पोस्ट हो जाये इंटरव्यू।

आज की टिप्पणी:-
१.समीर की उड़ान लिए उड़ा कुन्डली रूपी यान
गद्य-पद्य मय हास्य-व्यंग्य,सुसज्जित सब सामान
सुसज्जित सब सामान, देख कर हम चकराए
विभिन्न स्वाद एक तश्तरी किस विधी समाए
कह 'रत्ना' मुस्काए समां बस बंध सा जाए
'समीर लाल' की कलम जब करतब दिखलाए।
रत्ना

2.हमारे नामाराशि अनूप भार्गव जिनको विदेशों में हिदी प्रसार के लिये सम्मानित किया गया है अक्सर एक शब्द बोलते हैं- अमेजिंग. वे इसका कापीराइट नहीं कराये इसलिये हम भी कह रहे हैं इस लेख के बारे में -अमेजिंग. बहुत अच्छा लिखा .बधाई. अब हम अपने को खोज रहे हैं कि हम किस कैटेगरी में हैं. हर जगह कुछ-कुछ हैं, कैसे सब जगह से समेट के अपना कोलाज बनायें समझ में नहीं आता. चिट्ठे में कोई परिवर्तन हमारे स्वामी के हाथ में है. वही कुछ करेगा तभी कुछ होगा. बहरहाल बाकी लोग करें अपना काम-धाम. सबको शुभकामनायें.

अनूप शुक्ला

3.बांग्ला में जोरदार प्रशंसा के लिए कुछ बहुप्रयुक्त शब्द हैं, यथा 'दारुण' और 'दुर्दान्त'. इस चिट्ठा चर्चा के लिए इन्हीं का इस्तेमाल करना चाहूंगा .

प्रियंकर

आज की फोटो:-
आज की फोटो तरुन के ब्लाग अंखियों के झरोखे से

फूलों के रंग से..
फूलों के रंग से..

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बुधवार, अक्तूबर 25, 2006

पहली नज़र का प्यार

इधर पिछले कुछ दिनों से आप एक से एक उच्च स्तरीय चिट्ठा चर्चा पढ़ रहे हैं. अतूल भाई, राकेश जी, रवि जी, अनूप जी और फिर मुनिवर जीतू भाई के साथ साथ संजय और पंकज बैगाणी बंधु, सब नये नये तरीकों से झंड़े गाड़ते रहे और हम सोचने लगे कि अब हमारा तो गुजारा मुश्किल है, क्या करें क्या न करें की स्थिती लगातार बनी रही. फिर भी लिखना तो है ही, वादा दिया हुआ है तो मुकरें कैसे, तो चलिये, बस लिख ही देते हैं. तो शुरुवात एक कुंडलीनुमा रचना से:

मौका ये त्योहार का, मची हर तरफ है धूम
क्या हिन्दु क्या मुसलमां, सभी रहे हैं झूम.
सभी रहे हैं झूम कि नेता सब खुशी से आते
मिठाई दिवाली की और ईद की दावत खाते
कहे समीर कि इनको देख है हर कोई चौंका
गले मिल ये ढ़ूंढ़ते, कल लड़वाने का मौका.

-समीर लाल 'समीर'


पटाखों का धुऑ अभी छंट ही रहा था कि ईद का जश्न शुरु हो गया. लोग डूबे हुये हैं त्योहारों का जश्न मनाने में. इसी भीड़ को छांटते हुये हम भी चल पडे़ देखने कि क्या गतिविधियां रहीं चिट्ठा जगत में.

सबसे पहले मुलाकात हुई भाई लक्ष्मी गुप्ता जी, बड़े सारे प्रश्न लिये अपनी राग में गाते हुये मिले:

इतनी बार दिवाली आई

अंधकार पर ज्यों का त्यों है

इतना मधु उपलब्ध

कण्ठ फिर सूखा क्यों है

इतने आशा दीप जले पर

ऐसी अंध निराशा क्यों है

इतनी बार……


और जैसे ही हम आगे बढ़े, तो रत्ना जी से मुलाकात हो गई. अब तो वो विडियो लगाना सीख गईं हैं ब्लाग पर तो बस संभलिये, लगातार कुछ न कुछ मिलता रहेगा. ज्यादा लिखना भी नहीं पड़ेगा और हिट पोस्ट तैयार, वाह भई, क्या तरीका निकाला है..:)
आज वो दिखा रहीं है..एक शाम मुन्नवर राना के नाम,वाकई दर्शनीय है.

इसी पोस्ट पर हमारी बात से सहमत अनूप शुक्ल जी लिखते है:

रत्नाजी, ये फोटो लगाना सीखा आपने, चलचित्र लगाना सीखा आपने उसके लिये बहुत-बहुत बधाई. लेकिन आप लिखना काहे भूल गयीं! अरे फोटू लगाने, चलचित्र लगाने का मतलब यह नहीं कि लिखें न! अनुरोध है कि विस्तार से मुनव्वर राना के बारे में लिखें.

ई छ्त्तीसगढ़ पर जिया कुरेशी ने देशी दवा का दर्द बढ़ेगा की बात करते हुये बताया:

फार्मा सेक्टर की कई मल्टीनेशनल कंपनिय़ों को भारत में ब़डे पैमाने पर अपने उत्पाद लांच करने का अवसर जल्दी मिलने जा रहा है, ऐसा इसलिए संभव हो रहा है कि भारत सरकार जल्द ही 5 वर्षीय़ डाटा संरक्षण की अनुमति देने की तैयारी में है।

सृजन शिल्पी एक अत्यंत विचारोत्तेजक लेख 'भूख' लेकर आये जो कि अगर आप पढ़ेंगे तो एक ही सांस में पढ़ जायेंगे और पीछे न जाने कितने सवाल साथ हो लेंगे. सृजन शिल्पी जी को बधाई.

भूख ही है जिसके कारण मजबूर होकर इंसान दूसरे इंसानों की दासता स्वीकार करता है और औरतें वेश्यावृति के कलंक को अपनाने के लिए विवश हो जाती हैं। आज भी मनुष्य को सबसे अधिक मजबूर भूख ही करती है। भूख एक निर्मम सच्चाई है। विवेकानन्द जैसे महान तपस्वी साधक को भूख ने कई बार अत्यंत विचलित किया था।


लेख के अंत मे आपने बाबा नागार्जुन की अत्यंत प्रसिद्ध कविता ‘अकाल और उसके बाद’ में भूख और गरीबी से बदहाल परिवार की दशा का वर्णन किस तरह से किया है, यह बताया:

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन के ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।


भुवनेश भाई बोले कि मुझे कुछ कहना है, हम भी कुछ थोड़ा बहुत कहेंगे तो वो शुरु हुये गिद्ध भोज पर और कहते ही चले गये, मगर कहे बहुत अच्छा हैं तो हम भी नहीं टोके:

वो जमाने हवा हुए (या कहें बस हवा होने ही वाले हैं) जब किसी समारोह या उत्सव में लोग साथ बैठकर पंगत में भोजन किया करते थे। पर आजकल लोगों को ये तरीका आउटडेटेड लगने लगा है, हालांकि आज भी कुछेक आउटडेटेड टाइप लोग अपने यहाँ शादी-विवाह में इसी तरीके से मेहमानों को भोजन कराते हैं।


फिर इसके फायदे बताते हुये कहते हैं:

वैसे गिद्ध-भोज के भी अपने फ़ायदे हैं। बेचारे जवान लङकों को वॉलन्टियर्स की तरह बार-बार भोजन परोसने जैसा पकाऊ काम नहीं करना पङता और वे हर आने वाली लङकी को आराम से प्रत्येक एंगल से निहार सकते हैं। कई युवा जोङे तो एक-दूसरे को अपने हाथ से खाना खिलाकर अपने भावी जीवन की रिहर्सल कर रहे होते हैं( वैसे शादी के बाद ऐसा कुछ नहीं होता)।

उधर क्षितिज जी अपने पहली नजर के प्यार का आंकलन कर रहे हैं और एक सज्जन से मिल कर उनसे पीछा छुड़ा कर अभी अभी कुछ हल्का महसूस करना शुरु किये हैं.

सुखसागर में जानिये पाण्डवों के हिमालय गमन के बारे में, तो उधर इंडिया गेट पर चिंता व्यक्त की जा रही है कि नारायण अपने सुरक्षा सलाहकार हैं कि पाक के

सृजन शिल्पी फिर अवतरित हुये और इस बार वो लाये: मुहम्मद साहब का आखिरी संदेश और कबीर के राम

आज के जुगाड़ में नुक्ता चीनी बता रहे हैं कि बनाओ अपना गूगल खोजी और अपने सागर भाई कैसे छुट जाते सो वो ले आये कि नोटपेड को डायरी में कैसे बदलें पूरा स्टेप बाई स्टेप समझा गये और रमण भाई ने लोगों की नजरंदाजी को ध्यान में रखते हुये बता दिया कि जब .LOG टाईप करें तो ध्यान रखें कि वह केस सेंसिटिव है.

हिन्दी चिट्ठे और पोड्कास्ट प्रविष्टियों की जानकारी देता रहा. मगर अब नारद के वापस आ जाने पर इसकी कितनी महत्ता है, यह कहना तो मुश्किल ही है. वैसे इस चिट्ठे पर एक लेख भी छपा है, पौत्री का बाबा से मिलन इस लेख में न्याय मूर्ति एम.सी.देसाई की जीवनी पर आधारित है. साथ ही उनकी पौत्री किरन देसाई द्वारा रचित २००६ के बुकर पुरुस्कार प्राप्त कृति The Inheritance of Loss का भी जिक्र है.

चलते चलते हमें प्रभाकर गोपालपुरिया ईश्वर को तलाशते नजर आये, ईश्वर कहां है? :

मैंने किए तप, पूजा-पाठ भारी,
उपवास रखे कई-कई दिन,
यहाँ तक कि नहीं पिया पानी,
फिर भी ना मिले, ना दिखे,ना बोले,
त्रिपुरारी,दीनदयाल,वामनरूपधारी ।...........


और शुऐब भाई ले कर आये अपना कालम ये खुदा है-३६, ईद का भाषण, वाह भई वाह.

तथा गीत सम्राट राकेश खंडेलवाल जी आधुनिकीकरण पर अपने उसी मनोहारी अंदाज में गीत गाते मिले:

रोता कासिद गई हाथ से नौकरी
काम ईमेल से चल रहा आजकल
कोई संदेस बन्धता गले में नहीं
इसलिये हो रहा है कबूतर विकल
अब पड़ौसी के बच्चों को मिलती नहीं
टाफियां, या मिठाई या सिक्का कोई
सिर्फ़ आईएम पर और मोबाईल पर
इन दिनों है मोहब्बत जवां हो रही...........


बस दुकान बंद कर ही दी थी हमने, बत्ती बुझा दी, गल्ला बंद और फुरसतिया जी टपके कि भईया, हमऊ को सुन जाओ. हमने बहुत समझाया कि कल सुनाना और वैसे भी तुम सुनाते बहुते लंबा हो, अब घर जाने दो, तो वो मुँह फूला लिये. अब उनको नाराज छोड़ कर जाना तो अच्छे खाँ के बस की बात नहीं तो हम क्या चीज है, बैठ गये सुनने.
कहिन वो पॉलीथीन से सुबह सुबह मार्निंग वाक पर मुलाकात हुई थी, उसी की कथा है. हम कहे, यार, यह सब क्या लिखते हो? कल को गोबर पर लिखोगे फिर न जाने क्या क्या. कुछ तो टापिक ठीकठाक जैसे फूल पत्ते आदि पर लिखा करो.

तुरंत दो मुँह जवाब सांट दिये कि आप ही तो वो झोला पर लिख कर हमें बिधवाये हो, तबहिं तो लिखना पडा़.

घर-घर वासी, गली-निवासी, नाली-प्रवासी, मैदान-विलासी पालीथीन की महिमा से कौन अभागा परिचित नहीं है? दसो दिशाऒं में आपकी पताका फहरा रही है। मैदान की सारी घास के ऊपर आपका उसी तरह से कब्जा है जैसे पूरे देश को जड़ता और भ्रष्टाचार ने अपने चंगुल में कर रखा है। बतायें देवी मैं आपके लिये क्या कर सकता हूं?


आगे पॉलीथीन को टरकाने की कोशिश में बताते हैं:

अच्छा मैं लिखने की कोशिश करूंगा। लेकिन तब जबकि समीरजी एक कुंडलिया लिखेंगे इस पर और राकेश खंडेलवालजी चार लाइन की कविता।
आप भी एकदम मिडिलची बुद्धिजीवियों की तरह बात करते हैं जो कि यह चाहते हैं कि पहले देश से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाये, भाई-भतीजा वाद खत्म हो जाये, सारी स्थितियां सुधर जायें तब वे देश सेवा के काम में जुटें। देश के लिये कुछ करने की सोचें। अरे समीरजी को, राकेशजी को जो लिखना होगा वो तो लिखेंगे ही। आप अपना काम करिये न! लिखिये न कुछ मेरे बारे में।


अब हमारे पास कोई जवाब नहीं बस लेख के माध्यम से पॉलीथीन पर कुंड़लीनुमा लिखने की फरमाईश पूरा करने के सिवाय.तो पेश है:

झोले की पोती पॉलीथीन महिमा

अंग्रेजी नामों का झंडा, घर घर जाकर लहराय
झोला का बेटा तो झोला, पोती पॉली कहलाय
पोती पॉली कहलाय कि सब उसके गायें भजन
फल फुल सब्जी किताब, सबहि का ढ़ोये वजन
कहे समीर कि इससे प्रदुषण फैले है मनमर्जी
फिर भी प्रचलन में क्यूँकि, आईटम है अंग्रेजी.

--समीर लाल 'समीर'



आज के लिये इतना ही, बाकी समाचर लेकर हम फिर आयेंगे, देखते रहें चिट्ठा चर्चा.


आज की टिप्पणी:

अनुनाद, नुक्ताचीनी पर:

दादा, आपने अच्छी जानकारी दी, इसके लिये धन्यवाद।
किन्तु मुझे लगता है कि इस समय हिन्दी के लिये एक ऐसे यन्त्र की जरूरत है जो-
१) अनयूनिकोडित हिन्दी पृष्ठों को भी खोज सके, और
२) बिना किसी फांट डाउनलोड के उन पृष्ठों को दिखा सके। (यदि लगे हाथ यूनिकोडित भी कर दे तो सोने पे सुहागा)


राकेश खंडेलवाल , प्रभाकर गोपालपुरिया पर:

हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा
मान्यता दी बिठा बरगदों के तले
भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे
घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले
धूप अगरू की खुशबू बिखेरा किये
और गाते रहे मंगला आरती
हाथ के शंख से जल चढ़ाते रहे
घंटियां साथ में लेके झंकारती

भाग्य की रेख बदली नहीं आज तक
कोशिशें सारी लगता विफल हो गईं
आस भरती गगन पर उड़ानें रही
अपने आधार से कट विलग हो गई.



आज की तस्वीर:
आज किसी भी चिट्ठे पर कोई तस्वीर नहीं छपी, तो पुरानी तस्वीरों की तलाश में हम जब निकले, तब अतुल भाई के ब्लाग सात समंदर पार से यह टीप लाये:


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मंगलवार, अक्तूबर 24, 2006

पहली दर्शनीय सफलता

मना दिवाली, अन्नकूट खा, पूजा है गोवर्धन
श्रद्धा सहित किया है देवी देवों का अभिनंदन
और दूज के दिन अपनी भगिनी के घर पर जाकर
आशीषों का सहज लगाया है माथे पर चन्दन

गुझिया, लड्डू और इमरती, बरफ़ी, बालूशाही
सोहन पपड़ी, काजू कतली, पिस्ते की कतराई
रसगुल्ले, सन्देश, केवड़े वाली चमचम लेकर
दीवाली पर जो भी है उपलब्ध, मिठाई खाई

फिर तलाशनी निकला, लगता चिट्ठाकर सो गये
दीवाली की मदहोशी में लगता कहीं खो गये
सिर्फ़ अनिद्रा से पीड़ित जो रहे वही बस आकर
जल्दी जल्दी लिखा और फिर अन्तर्ध्यान हो गये

रत्ना की रसोइ कविता की संध्या दिखा रही थी
देख न पाया कोई सफ़लता जिसको बता रही थी
उधर खड़े गिरिराज पूछते मेरे कवि मित्रों से
प्रश्न, मगर असफ़लता केवल, पंजा दिखा रही थी

आकर थे चौपाल खड़े अनुराग वहां बतियाते
उठो पार्थ गांडीव संभालो रह रह कर दोहराते
औए टिप्पणी को अनूप शुक्लाजी उनसे आकर
अच्छी रचना को बकवास न बोलो, ये समझाते

आदिम प्रवॄत्तियों का वर्णन, शिल्पी सॄजन कर रहे
नींद, सेक्स के और भूख के चक्रव्यूह में खोये
दएशी दवा और दारू की खबरें लगे सुनाने
ये छत्तीसगढ़ी खबरों की दुनिया रहे संजोये

और कोई फिर नजर न आया, लौटा मैं अपने घर
किन्तु तभी कुंडली लिखने का याद आ गया वादा
चन्द पंक्तियां लिख कर सोचा चर्चा बन्द करूं मैं,
अबकी बार रहा है विवरण केवल सीधा सादा

शुक्लाजी के पै लागी, लाल साब की जय
पंकज,जीतू साथ हैं, फिर काहे का भय
अतुल अरोड़ा हैं इधर, उधर हैं देवाशीष
रवि रतलामी की मिली चर्चा को आशीष
संजय को भी देखिये, नये रंग हर रोज
अब फ़ुरसतियाजी किसे, देखें लायें खोज

लगा खोजता चित्र मिले कोई तो जो भी पाया
वही एक नत्थी कर मैने चर्चा तक पहुंचाया
पहले तो सोचा था मैने बिना चित्र के चल दूँ
याद वाक्य आ गया कि जिसने खोजा उसने पाया.

आज की टिप्पणी:
अनूप शुक्ला चौपाल पर:
अपनी उद्बोधनात्मक कविता को बकवास क्यों कहते हैं अनुराग भाई. ये तो अच्छी बात नहीं है.

आज की फोटो:


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सोमवार, अक्तूबर 23, 2006

रविवार, अक्तूबर 22, 2006

बाँध रोशनी की गठरी

सबसे पहले तो चिट्ठा चर्चा के सभी पाठकों और उनके परिवारजनों को दीपावली की बहुत बहुत बधाई।
तो जनाब शुरु करते है शनिवार के चिट्ठों की चर्चा।

दिनांक : २१ अक्टूबर, २००६ दिन शनिवार



आज का दिन ज्यादातर तो चिट्ठाकारों का एक दूसरे को बधाई देते निकल गया। फिर भी कुछ साथी चिट्ठाकारों ने कुछ लेख लिखे है जो आपके सामने प्रस्तुत है। डाकटर बाबू सबको दीपावली की बधाईयां दे रहे है। लपक लीजिए, इसके पहले कि वो होम्योपैथी की गोलियाँ भी साथ मे तत्थी करें, बधाई लेकर सरक लीजिए।
उधर आशीष गुप्ता बधाईयों के साथ साथ इस हफ़्ते की चुटकियों के बारे मे बताते हुए कहते है:
राजस्थान में एक गाँव में एक मादा कोबरा ने नर कोबरा के दाह संस्कार में कूद के अपनी जान दे दी तो आशानुरूप लोगों ने उसे सती मान लिया और शुरू हो गई पूजा। पर परेशानी यह है कि लोग अब वहाँ मंदिर बनवाना चाहते हैं और एक अकेली विधवा को बेघर करने के प्रयास जारी है। लो भाई, मृत साँपो के लिये मंदिर बनवाना जरूरी है, जीवित इंसानो के लिये घर बनवाना नही। कौन सी नही बात है?

आशीष भाई, हिन्दुस्तान की यही तो विडम्बना है, यहाँ मंदिर,गिरजे, गुरद्वारे बनते तो देर नही लगती, लेकिन घर बनने मे जमाना बीत जाता है।

हमारे इम्पोर्टेट आइटम, विजय वडनेरे सिंगापुरी नास्टलिजियाते हुए दीपावली की यादों का दर्द बयां करते हुए कहते है:

तो जनाब बात ये है कि (शादी के बाद) पहली पहली दिवाली है...तो सारे परिवार के साथ खुशियाँ मनाते, दोस्तों के बीच हुडदंग होता, मगर कहाँ?? घर से कोसों दूर...पड़े हैं अलग-थलग किसी और दुनियाँ में. अकेले-अकेले (हाँ यार..! मैडम तो है, पर मैं - हम दोनों अकेले-अकेले हैं - ऐसा कह रहा हूँ).वैसे, वीकेण्ड जोड़ कर चार दिन की छुट्टियाँ तो हैं - पर वो क्या है ना कि - नंगा नहायेगा क्या, निचोडेगा क्या.अमा यार आने जाने में ही चार दिन निकल जायेंगे हैं - हाँ कहने को जरुर सिंगापुर "पास" में है.

अरे विजय भाई, ऐसा नही कि सिंगापुर मे दीवाली नही मनाते, अमां जरा आसपास देखो, नही तो इस वीकेन्ड लिटिल इन्डिया निकल जाओ, और नही तो NUS के कैम्पस मे चले जाना, बेहतर होगा किसी इन्डियन एसोसियशन के सदस्य बन जाओ। फिर देखो, विदेशों की दीवाली, मजा ना आए, तो पैसे वापिस की गारंटी। (प्लीज रुपये पैसों का तगादा, चिट्ठा चर्चा के मालिकाना हक रखने वाले, अनूप शुक्ला से ही किया जाए, हम तो बौद्दिक श्रमिक है, मोह माया से दूर रहते है।)

रचनाकार मे दुर्गाप्रसाद अग्रवाल का दीपावली के ग्रीटिंग कार्ड के ऊपर का लेख तमसो मा ज्योतिर्गमय जरुर देखिएगा। लेख के बीच मे एक कविता है, उसकी कुछ पंक्तिया प्रस्तुत है :
सूरज से कह दो बेशक अपने घर आराम करे
चांद सितारे जी भर सोयें नहीं किसी का काम करें
आंख मूंद लो दीपक ! तुम भी, दियासलाई! जलो नहीं
अपना सोना अपनी चांदी गला-गला कर मलो नहीं
अगर अमावस से लड़ने की ज़िद कोई कर लेता है
तो, एक ज़रा-सा जुगनू सारा अंधकार हर लेता है!


जीके अवधिया जी श्रीकृष्ण के द्वारिका प्रस्थान का विस्तृत विवरण पेश करते हुए कहते है:
सभी लोगों को वापस जाने के लिये कह कर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने केवल उद्धव और सात्यकी को अपने साथ रखा। वे विशाल सेना के साथ कुरुजांगल, पाञ्चाल, शूरसेन, यमुना के निकटवर्ती अनेक प्रदेश, ब्रह्मावर्त, कुरुक्षेत्र, मत्स्य, सारस्वत मरु प्रदेश आदि को लांघते हुये सौवीर और आभीर देशों के पश्चिमी भाग आनर्त्त देश में पहुँचे। थके हुये घोड़ों को रथ से खोल कर विश्राम दिया गया। जिस प्रान्त से भी भगवान श्रीकृष्णचन्द्र गुजरते थे वहाँ के राजा बड़े आदर के साथ अनेक प्रकार के उपहार दे कर उनका सत्कार करते थे।

मेरा पन्ना के जीतेन्द्र चौधरी भी दीपावली की शुभकामनाएं देते हुए कहते है :
इस दीपावली विशेष ध्यान दें:

* पटाखों का कम से कम प्रयोग करके, पर्यावरण को वायु प्रदुषण से बचाएं।
* बच्चों को अपनी उपस्थिति मे ही आतिशबाजी जलाने दें।
* आतिशबाजी जलाते समय पानी की बाल्टी पास मे रखें।
* आतिशबाजी जलाते समय सूती कपड़े पहने।
* अपनी जरुरत के मुताबिक ही सामान खरीदें, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के बहकावे मे ना आएं।

मिर्जा बोले, अमाँ बरखुरदार जनता समझदार है खुद निर्णय करे ना, काहे सरकारी चैनल बने हुए हो। सबको इन्जॉय करने। तुम तो बस पत्ते बाँटो, काहे सरकारी मीडिया के पीआरओ बने हुए हो।

प्रतीक सवाल पूछते नही थकते, थके भी कैसे ये तो उनका टाइमपास है। एल्लो अब पूछने लगे
शोले में अमिताभ बच्चन बतौर गब्बर सिंह
कौन है बेहतर - नया गब्बर या पुराना गब्बर?

अमां अभी माल की डिलीवरी तो होने दो, रैपर देखकर कैसे बताएं कि स्वादिष्ट है कि नही।

दूसरी तरफ़ रवि रतलामी का दीवाला निकल गया। कैसे अरे बिल्लू के चक्कर में। आप खुद ही समझिए।
कवि गिरिराज जोशी भी दीपावली की शुभकामनाओं के साथ कविता पाठ कर रहे है:
चरण-कदम से पावन कर दो
खुशियों से तुम झोली भर दो
गरीबी का सर्वनाश कर दो
धन-कुबेर की वर्षा कर दो

उन्मुक्त के लिए कुछ भी असम्भव नही। मासिक राशिफल पढिए, पुनीत के साथ। डा. जगदीश व्योम कुछ हाइकू और अपना एक नवगीत प्रस्तुत करते है:
पूरी रात चले हम
लेकिन मंज़िल नहीं मिली
लौट-फेर आ गए वहीं
पगडंडी थी नकली
सफर गाँव का और
अंधेरे की चादर काली।
बाँध रोशनी की गठरी
फिर आई दीवाली।।


जगदीश भाटिया जी, दीपावली की शुभकामनाओं के साथ साथ, दिल्ली का ट्रेफिक और नास्डेक की दीवाली दिखा रहे है।साथ ही सूचना भी दे रहे है कि मुम्बई स्टाक एक्सचेंज की हिन्दी साइट शुरु हो रही है। अमां जगदीश भाई, इन लोगों से हिन्दी साइट की उम्मीद करना बेकार है, या तो ऐसे बनाएंगे कि जिसके फोन्ट डाउनलोड नही होंगे, या फिर ऐसी साइट बनाएंगे जिसमे चील बिल्लौवे दिखायी देंगे, हिन्दी तो दूर दूर तक नदारद रहेगी। वो क्या है ना अभी इनको पता नही कि यूनीकोड किस चिडिया का नाम है।
इधर बेजी हिन्ग्रेजी मे अपनी कविता लिख रहे है। हम समीक्षा नही करेंगे, पहले हिन्दी मे लिखकर लाओ, तब करेंगे।
मिर्ची सेठ सभी जन सुखी हों का शान्ति पाठ कर रहे है। (शायद आफिस वालों के लिए, विशेष प्रस्तुति है इनकी) कहते है:
सर्वेषां स्वस्ति भवतु । सर्वेषां शान्तिर्भवतु ।
सर्वेषां पूर्नं भवतु । सर्वेषां मड्गलं भवतु ॥

सभी के साथ अच्छा हो एवं सर्वस्व शांति हो। सभी सम्पूर्ण हों व हर तरफ मंगल हो

सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥

सभी जन सुखी व आरोग्य हों। हम सभी के साथ अच्छा हो व किसी को भी दुःख न देखना पड़े।


आज का चित्र : जगदीश भाटिया के ब्लॉग से:

पिछले वर्ष इसी सप्ताह:
योग ब्लॉग से एक बहुत सुन्दर कथा मेहनत की रोटी खाओ, जरुर पढिएगा। और साथ ही देखिएगा सुप्त ब्लॉगर शशि सिंह के भोजपुरिया ब्लॉग से छटी मईया के गीत

अच्छा है भई, सभी जन सुखी हो। आप सभी दीपावली की छुट्टियां मजे से मनाएं, हम भी आज ही निकल रहे है, शहर के पास बने एक रिसोर्ट की तरफ़। जिन लोगों के चिट्ठे छूट गएं हो वो भाई/बहन कमेन्ट मे लिख दे। लौट कर उनको भी शामिल कर लिया जाएगा।

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शनिवार, अक्तूबर 21, 2006

जलाऒ दिये पर रहे ध्यान इतना...

ज्योति पर्व
ज्योति पर्व


आज दीपावली है। ज्योतिपर्व के मनाये जाने के कारण दुनिया जानती है। वंस अपान अ टाइम त्रेता युग में जब रामचंद्र रावण का तीया-पांचा करने के पश्चात चौदह साल बाद अयोध्या वापस आये तो सारे अयोध्यावासियों ने खुशी प्रकट करने के लिये बल भर रोशनी की। जिनके पास पैसा नहीं था उन्होंने उधार लेकर किया लेकिन किया, खुशी मनायी। जितनी खुद मना सकते थे मना ली, बाकी छोड़ दी आगे की पीढ़ियों के लिये। उसी खुशी को हम आज तक मनाते आ रहे हैं और बकौल नीरज जी कामनाकरते हैं:-

लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी
निशा की गली में तिमिर राह भूले।
दिल्ली ब्लाग से
दिल्ली ब्लाग से



तमाम लोग रामकथा को नहीं भी जानते हैं। ऐसे ही साथियों के लिये हमारे जी के अवधिया जी ने विकिपीडिया पर रामकथा की जानकारी दी है। हरि अनंत हरि कथा अनंता की तरह इस कथा में जितनी जानकारी दी गयी है उससे ज्यादा देने की संभावना होगी। आप इसमें जानकारी जोड़ें, बदलें और सुधार करें। हमें इसके बारे में जानकारी दी मितुल् ने जो कि खुद् कोई ब्लाग नहीं लिखते लेकिन अपनी रिमोट गुंडई के बल पर दूसरों से लिखवाते हैं। हमें जब सबेरे उनकी मेल मिली कि मैं इसकी जानकारी लोगों को दी तो लगा कि ये भाई कितना समर्पित है हिंदी विकिपीडिया के लिये।

लेकिन बात रामकथा की ही नहीं है। कल हम् जब अतुल् के चिट्ठाचर्चा को पढ़ते हुये गदगदायमान थे तो उसी समय हमारे एक ब्लागर साथी हमारे साथ गूगलायमान थे। प्रियंकर जी की टिप्पणी, जिसमें उन्होंने अतुल की शैली की तुलना नागरजी( अमृतलाल नागर) और के.पी.(के.पी.सक्सेना) से की थी , के बारे में बात करते हुये साथी ने पूछा कि नागरजी और के.पी.जी क्या सीनियर ब्लागर हैं?

वैसे तो यह बात कोई भी पूछ सकता है और् हर् एक् व्यक्ति सब कुछ् जान नहीं सकता लेकिन् मुझे ऐसा लगता है कि यदि आप साहित्यिक बातें लिखते हैं और नागरजी के बारे में नहीं जानते तो ब्लाग लिखना कम करके कुछ पढ़ने के लिये भी समय निकालना चाहिये।

अतुल की पोस्ट् को पढ़ते हुये मुझे अपनी ही लिखी बात भी याद आ रही थी-"सच पूछिये तो कुछ साथियों की रचनाऒं का स्तर तो ऐसा है कि वे जिस पत्रिका में छपेंगी उसका स्तर ऊपर उठेगा"। कल का अतुल का लेख हमारी बात की सनद थी।

बहरहाल आप सभी को दीपावली की शुभकामनायें देते हुये अपनी बात शुरू करता हूं। आज अधिकतर साथियों ने दीपावली के अवसर पर शुभकामनायें प्रेषित करते हुये अपने चिट्ठे लिखे हैं। राकेश खंडेलवाल लिखते हैं:-

रोशनी ओढ़ कर आई है ये अमा
आओ दीपक जला कर करें आरती
साथ अपने लिये, विष्णु की ये प्रिया
कंगनों और नूपुर को झंकारती


दीपाजोशी का मन कुछ दुखी सा है तभी वे लिखती हैं:-

हो रहा जीवन तिल तिल राख
मन में लिए मिलन की आस
उज्जवल आलौकिक फिर से
नव जीवन दीप जला दो

जुगलबंदी से
जुगलबंदी से

इसीलिये प्रेमेंद्र दुश्मन (अंधेरे)की नली तोड़ने के लिये जय बजरंगबली कह रहे हैं और जीके अवधियाजी महाभारत कथा कह रहे हैं।

दीपावली के अवसर् पर अनूपभार्गव बोले मुझे कुछ् कहना है हम बोले कहिये तो उन्होंने दीपावली की शुभकामनायें टिका दीं:-
:-
दीपिका की ज्योत बस जलती रहे
स्नेह की सरिता यूँ ही बहती रहे
आप जैसे दोस्तों का साथ हो
ज़िन्दगी यूँ ही सदा हँसती रहे


हम जब तक कुछ् कहें तबतक रजनीजी उनको रिटर्न् गिफ्ट् थमा गयीं:-

य़ूँ ही आशा बनी रहे हर क्षण,
गुँथे वेणी गेंदे और गुलाब से हर पल,
दीपावली जब भी आए
अमावस में दूज का चाँद खिले हर पल


प्रभाकर पांडेय् , दिल्ली ब्लाग, मत्सु, क्षितिज कुलश्रेष्ठ, विरेंद्र विज ने भी दीपावली की शुभकामनायें दीं। संजय बेंगाणी दीपावली के बाद भी मौज करेंगे काहे कि पूरा गुजरात बंद् है पांच दिन।

इस बीच् गिरिधर जी भाषा राजनीति के बारे में बता गये और जीतेंद्र जुगाड़ी लिंक् टिका गये तथा उन्मुक्तजी टोनाटटका करते हुये हेर संगीत नाटक दिखा गये।

वंदेमातरम् के साथी प्रख्यात कार्टूनिस्ट आर.के.लक्ष्मण के बारे में विस्तार से जानकारी दी यह अच्छा प्रयास है और अच्छा होता कि वे आर के लक्ष्मण के कुछ् कार्टून् भी साथ् में पोस्ट् करते।

इधरा जब दीपावली पर पटाखेबाजी हो रही थी तो लक्ष्मी नारायण गुप्त जी भगवान के दरवार का ड्रेस कोड तय कर रहे थे:-
कैसे कपड़े पहिन के जायें, प्रभु दरबार।
प्रश्न उठा है मनस में, सज्जन करें विचार।।
प्रश्न पादरी से करो, तो यह उत्तर देय।
सूट बूट टाई बिना चर्च न आवे कोय।।
चर्च न आवे कोय, करे ना प्रभु का आदर।
सुन्दर वस्त्रों बिना घुसे, जो प्रभु के मन्दिर।।
हिन्दू मन्दिर बहुत से, हैं जग में विख्यात।
जिनमें धोती ही पहिन, घुस सकते हैं आप।।


इस पर कुंडली मारते हुये राकेश खंडेलवालजी ने टिप्पणी में लिखा:-
अच्छे संकट में लिया, तुमने खुद को डाल
रोज लगाते हो नये जी को तुम टंटाल
भक्ति-प्रेम मन में रहे तो क्यों भटको यार
वो जो प्रभु हैं आयेंगे, खुद चल कर के द्वार
अपने घर में नग्न रहो या पहनो कच्छे
प्रभु को भेज निमंत्रण कर्म करो बस अच्छे


सागर चंद नाहर अपने लेख में साध्वी सिद्धा कवँर उर्फ़ समता के जैन के साध्वी जीवन को त्यागकर सांसारिक जीवन में प्रवेश की पड़ताल करते हैं अपना सुझाव देते हुये वे लिखते हैं:-

जैन धर्म में दीक्षा के लिये भी नियम होने चाहिये की जब तक लड़का या लड़की बालिग नहीं हो जाते उन्हें दीक्षा नहीं देनी चाहिये, लोग तर्क देते हैं कि कई महान साधू और साध्वियाँ बहुत कम उम्र में दीक्षा लेकर इतने विद्वान और महान बने है, पर वो यह बात भूल जाते हैं कि जिस तरह जमानाहम सब के लिये बदला है उन मुमुक्ष { दीक्षा के उम्मीदवार} के लिये भी बदला होगा।


आज की सबसे विचारणीय पोस्ट अमित ने लिखी है और देसीपंडित के बंद होने का हवाला देते हुये ब्लाग, समूह ब्लाग, नारद, चिट्ठाचर्चा के बारे में अपने विचार व्यक्त किये।

अमित के अनुसार समय सबसे बड़ा निर्णायक तत्व है इस तरह के प्रयासों की नियति तय करने के लिय। इन बातों के बारे में और लोग अपने विचार व्यक्त करें तो बेहतर रहेगा।

अमित का अपना कहने का अंदाज है, उनका ब्लाग है वे जैसा चाहें वैसा कहें,लिखें, जबाब दें इसके लिये वे पूर्णत: स्वतंत्र हैं लेकिन मुझे लगता है कि जिस अंदाज में उन्होंने राकेश खंडेलवाल की टिप्पणी पर टिप्पणी की वही बात और बेहतर अंदाज में कही जा सकती है। और मुझे यह भी लगता है कि जो कुछ समूह ब्लाग उनके समन्वयन में बंद हुये उनमें कहीं न कहीं इस तीखे अंदाज ने भी जरूर सहयोग किया होगा।

उनके श्रीमुख से:-
१.चिठ्ठा चर्चा को कौन्हो रोजनामचा या मुंबई ब्लाग समझ रखा है जो ईमान ईकराम मिलते ही चादर तान के सो जाये। अमां बड़े जहीन लोग चलाते है इसे और फिर कौन सा इसकी होस्टिंग पर किसी का धेला भी लगता है।
अतुल्

२.गाड़ी और लदे हुए ट्रक को धक्का लगाने में ज़मीन आसमान का अंतर है। अमित
३.शुरू शुरू में उत्साह से आरम्भ किया गया प्रयास बाद में साबुन के झाग की तरह बैठने लगता है। और जब पूरी तरह झाग बैठ जाता है तो दुकान बढ़ाने का समय आ जाता है।अमित

आज की टिप्पणी:-


१.अरे आप तो उन जगहों की बात कर रहे हैं जहां ईश्वर कैद हैं . प्रभु का दरबार तो यह अखिल विश्व है . वह उस आत्मा में भी रहता है जो हर क्षण हमारे अंतर का उजास बिखेरती रहती है और इस जीवन को आलोकित करती है. हां ! आत्मा के वस्त्रों के बारे में मुझे कुछ पता नहीं है,उधर कोई नया अध्ययन या शोध हो तो बताइएगा.

प्रियंकर

आज की फोटो:-



आज की फोटो जापान के कोने से
मैसूर महल
मैसूर महल

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