बुधवार, फ़रवरी 28, 2007

दीवाने हो भटक रहे हो मस्जिद मे बु्तखानों में

एक बड़ा उमदा शेर पढ़ता था, अब यह भी याद नहीं किसका है, मगर जिसका भी है, उनको साधुवाद कि मौके पर याद आये. आप भी सुनें:


लहरों को शांत देखकर यह मत समझना,
कि समंदर में रवानी नहीं है,
जब भी उठेंगे तूफान बन कर उठेंगे,
अभी उठने की ठानी नहीं है.


लेकिन आज उठ ही गये. जब प्रत्यक्षा जी ने अपने इरफान से मिलवाया था, तभी फुरसतिया जी कह आये आये थे कि अब हमें भी लिखना पड़ेगा और उठे आज. आये तो ऐसा आये कि आते ही चले गये और लिखते ही चले गये, वही बेहतरीन अंदाज, वही बहाव और वही लम्बाई :).

लेख दीवाने हो भटक रहे हो मस्जिद मे बु्तखानों में आधी चिट्ठा चर्चा भी कर गये: यह देखें:

ये भैये हमारे मोहल्ले वाले अविनाश जो न करायें!
पहले बोले आओ इरफ़ान-इरफ़ान खेलें। फिर जब लोग खेलना शुरू किये तो बोले ऐसे नहीं खेला जाता। तुमको खेलना ही नहीं आता। लोग बोले हम तो ऐसे ही खेलेंगे। ये बोले-हम ऐसे तो नहीं खेलने देंगे चाहे खेल होय या न होये। इसके बाद बोले खेल खतम पैसा हजम! हम खुश कि चलो इरफ़ान को चैन मिला। कम से कम होली में तो चैन से बैठेगा।
लेकिन फिर देखा कि भैया अपने इरफ़ान को फिर जोत दिहिन। जैसे शाम को ठेकेदार काम बंद करने के बाद फिर से लगा देता है कभी-कभी जरूरी काम होने पर।
उधर से हमारे प्रियंकर भैया बमक गये- आप कैसे बहस स्‍थगित कर सकते हैं?
उधर से धुरविरोधी चिल्लाये जा रहे हैं हम नफरत फैलाने नहीं देंगे, वाट लगाने नहीं देंगे। नफरत का गाना गाने नहीं देंगे। जहर फैलाने नहीं देंगे। हमें लगा कि आगे की कड़ियां हो सकती हैं खाट खड़ी कर देंगे/ खाट खड़ी नहीं करने देंगे, चाट खिला देंगे/ चाट खाने नहीं देंगे, परदा गिरा देंगे/परदा गिरने नहीं देंगे( यशपाल की कहानी परदा)। हमें तो एकबारगी यह भी लगा कि मोहल्ले वाले और धुरविरोधी कोई मैत्री मैच खेल रहे हैं। इधर से मोहल्ले वाले ने गेंद फेंकी नहीं उधर से धुरविरोधी ने गेंद के धुर्रे उड़ा दिये। अब स्ट्राइक बदलने के लिये इधर से अभिषेक भी जुट गये। इस चक्कर में प्रत्यक्षा के इरफ़ान को घरेलू टाइप बताकर किनारे कर दिया गया कि भाई जरा कुछ सनसनाता सामाजिक उदाहरण पेश करो। बेंगाणी बन्धु तो बेचारे मोदी गुजरात के हैं, उनकी कौन सुनता है।


यह है फुरसतिया जी का सहायता करने का तरीका. हमें पता चलने भी नहीं दिया और चर्चा लिखने में मदद कर के चले गये. बहुत धन्यवाद, महाराज. तो एक मददगारी वाला पहलू तो आप जान गये, अब उनके व्यक्तित्व का संवेदनशीन पहलू देखें:



चलते-चलते मैंने कहा कल इतवार को फैक्ट्री चलेगी आप आइयेगा थोड़ी देर के लिये। नवी
साहब चूंकि फोरमैन थे। उनको ओवरटाइम नहीं मिलता था इसलिये उनको आने की बाध्यता नहीं
थी। लेकिन जब मैंने कहा आप आइये तो वे मुस्कराते हुये बोले अच्छा, आप कहते हैं तो आ
जाउंगा आपके साथ चाय पीकर चला जाउंगा।
अगले दिन सबेरे फोन की घंटी बजी। फोन नवी
साहब के घर से था। उनको दिल का दौरा पड़ा था। मैंने तुरन्त उनको अस्पताल में लाने को
कहा और वहां पहुंचकर उनका इंतजार करने लगा। मैं यह सोच भी रहा था कि नवी साहब को
हड़काउंगा, ‘ये कौन तरीका है आने का भाई?‘
लेकिन हमको उन्होंने कोई मौका नहीं
दिया। अस्पताल पहुंचते-पहुंचते उनकी सांसे थम गयीं थीं। उस दिन मैं जिंदगी में पहली
बार किसी की मौत पर रोया। वह मेरे जीवन का ऐसा वाकया था कि जब याद करता हूं आंसू आ
जाते हैं।


और उदगार:




अपने देश में तमाम समस्यायें हैं। गरीबी, अशिक्षा, जनसंख्या, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सम्प्रदायवाद, जाति वाद,भाई भतीजा वाद। कौन किसके कारण है कहना मुश्किल है। मुझे तो लगता है कि सब एक दूसरे की बाइप्रोडक्ट हैं। इनका रोना रोते-रोते तो आंख फूट जायेगी। कोई फायदा भी नहीं रोने से। हो सके तो अपनी ताकत भर जहां हैं जैसे हैं वैसे इनसे निपटने की कोशिश करते रहें बस यही बहुत है।


खैर, मौहल्ला से लेकर फुरसतिया जी तक के सारे आलेख इत्मिनान से पढ़ियेगा मन लगाकर. कुछ धड़म धड़ाम की इच्छा जागे तो इस पर कुछ लिख भी डालिये, काल्पनिक भी चलेगा मगर लगे यथार्थ सा. फिर और लोग आयेंगे, फिर और बात बढ़ेगी, फिर से हम आयेंगे और चर्चा कर चले जायेंगे. :) अभी तो मौका है, होली है, थोड़ा ऐसा मसाला भी चलेगा जो अन्य मौकों पर शायद नहीं चल पाता.

अरे हाँ, होली को बचे ही कितने दिन हैं. भांग तो घुटने भी लगी, लोग मस्तिया रहे हैं, यह देखो. गीत सम्राट राकेश खंडेलवाल जी को, फिर कहना कि होली के सिवा कभी देखे हो इनके इस रुपहले अंदाज को: होली और हो ली पर :



पार्किंग में श्रीजी को पुलिस ने दबोच लिया
ईव टीजिंग कर रहे हो शर्म नहीं आई है
पढ़े लिखे इज़्ज़तदार देखने में लग रहे हो
फिर बोलो कैसे ऐसी धूर्तता उठाई है
श्रीजी ने हाथ जोड़ कहा, सुनें आफ़ीसर
ईव जिसे कह रहे हो, धर्म पत्नी मेरी हैं
शापिंग से ये लौटी, मुझे पहचान पाईं नहीं
चेहरे पे मेरे क्योंकि दाढ़ी बढ़ आई है


बाकी तो वहीं जाकर पढ़ो, बहुते खूब है, इसी मौके पर हमारे मसिजिवी निलिमा के प्रश्नों का जवाब दिये हैं अपनी अलग होलिया अदा में: कह्ते हैं हमार का करिबै नीलिमा...जबाब फागु की पिचकारी से ... ये लो करलो बात होली की उमंग इनसे बरजास्‍त नहीं होती।

हमारी पसंद इनके जबाब में:



वह बहुत मामूली बात जो आपको बहुत परेशान किए देती है?

लो कल्‍लो बात। ससुरी बड़ी बात की तो औकात नहीं कि हम परेशान हों। अब नीलिमा की सादी हुई ...हुए हम परेशान...। बाजा आदमी होता तो बजीराबाद के पुल से छलांग लगा देता परेशानी में। नहीं भाई लोग हम परेशान नहींए होते। (हम तो पहिले ही कहे थे मान जाओ होली पर पंगा मत लो नहीं मानी...अब पता नहीं क्‍या क्‍या राज खुलेंगे आज।


बहुत ही बढ़िया होली की उमंग में झूले भाई!! बाह, बाह कि वाह वाह!!

ऐसे ही पाँच सितारा जवाब और लोग भी एक से एक दिये जा रहे हैं और कोई कोई तो दो से दो और तीन से तीन:

जानिये सबको:

डॉ भावना कुँवर का जबाब: चमत्कार हो गया ! भई चमत्कार... और हाज़िर हैं एक ब्रेक के बाद राकेश जी के लिये: दूसरा वाला काव्यात्मक है और हो भी क्यूँ न, गीत सम्राट को समर्पित जो है.

हरिराम के क्म्प्यू से...जवाब : टैग-वार्ता के कहते हैं कि अब मेरे कुछ प्रश्न हैं जिनका उत्तर अपेक्षित सभी हिन्दी के विद्वानों से-- (अभी हिन्दी ब्लागिंग गुरुओं से सम्पर्क स्थापित कर रहा हूँ, जिन्हें टैग बाद में करूँगा।) तो हम बच गये, मगर फंसे कौन, यह तो जबाब देने वालों को देखकर बाद में समझ आयेगा. :)

जवाब तो रंजू जी ने भी दिये है मगर हमारी पोस्ट पर ही टिप्पणी के द्वारा दे कर चलीं गईं. निवेदन है कि वो इसे अपने चिट्ठे पर पोस्ट के माध्यम से दें.

अभी यह दौर जारी है, लोग अटकाये जा रहे हैं, लोग भटकाये जा रहे हैं और सच मानो तो कुछ लोग हड़काये जा रहे हैं. मगर जैसा कि होता है, दूसरे फंसे तो मजा तो बहुत आता है, तो सब मजा ले रहे हैं.

अब, एक अति आवश्यक सूचना:

बकौल जीतू भाई:

काफी समय के अन्तराल के बाद अनुगूँज फिर से आपके सामने प्रस्तुत है। इस बार अनुगूँज का आयोजन कर रहे है, तरुण भाई, जो निठल्ला चिंतन करते है। इस बार का विषय है, हम काहे बताएं, आप खुद ही यहाँ जाकर देखो ना।




हमारे कई नए साथियों को पता नही होगा कि अनुगूँज क्या है। अक्सर हम अपने साथी चिट्ठाकारों से किसी विषय विशेष पर उनके विचार जानना चाहते है। हो सकता है किसी मुद्दे पर सभी लोग विचारों से सहमत हो अथवा नही, लेकिन आपको आपके विषय विभिन्न विचारधाराओं को जानने का मौका मिलता है। सभी लोगों के विचारों के सामने लाने के लिए अनुगूँज का मंच प्रदान किया गया है। पहले यह आयोजन पाक्षिक किया जाता था, काफी समय से आयोजन नही हुआ।

सभी चिट्ठाकारों से उम्मीद की जा रही है कि वो इसमें सम्मलित हो अपने विचार रखेंगे. अनुगूँज की सफलता के लिये शुभकामनायें और इसे रुके हुये आयोजन को फिर से हवा देने के लिये तरुण भाई को साधुवाद और बधाई.

जिस वक्त हमारे लखनऊ वासी अमेरीका मे रह रहे अतुल श्रीवास्तव जी एक आदमी और एक देश के दो दो तीन तीन नाम बता कर अमेरीकन को अचंभित कर रहे हैं कि भारत घर का नाम, इंडिया बाहर का और हिन्दुस्तान तीसरा. जैसे कि रिंकू या चिंकू का बाहर का नाम पुनीत और सुनीत...आदि आदि. ठीक उसी वक्त लोग दो दो ब्लागों के एक ही नाम से रिवर्स परेशानी का सामना करते पाये गये अंतर्मन, एक ब्लाग और जिसकी चर्चा नहीं हुई वो भी दो ब्लागों का नाम है जैसे रंजू जी का चिट्ठा कुछ मेरी कलम से.

अब रेपिड फायर राऊंड कविता का:

खूनी सागर स्वर्णा ज्योति जी की पेशकश. और सुनिये योगेश समदर्शी को: सबसे सुंदर और टिकाऊ पति को:


दौर है बाजार का,
हर हुनर एक माल है.
आंकडौं का खेल है,
सैंकडों की चाल है.


बहुत करारा और गहरा व्यंग्य, व्यवस्था पर चोट, बधाई.

और सुनिये, टू फेसेस पर हरिवंश राय बच्चन जी को: अंधेरे का दीपक

रुमी हिन्दी पर जादूगर:


जादूगर तुम अनोखे हो निराले हो.।
शिकारी, शिकार को बनाने वाले हो॥


और हमारे मोहिंदर भाई को सुनें हिन्द-युग्म पर: दोषी कौन


हमें ही चिन्हित करना है
कौन है दोषी यदि
हर मानव के पेट में अन्न नही है
हर पांव में नही है जूता
क्यों कोई पटडी पर है लेटा
क़्यों इतने हाथ पसर रहे हैं
क्यों हैं इतने दुखियारे
किसने है सारा सुख समेटा

पीडा, पीडा में अन्तर अगम है


वाह, वाह, बहुत खूब ( और यह पढ़कर किया है वाह, वाह, तो हल्के में मत लेना) :) देबाशिष भी सुन लें, हा हा!!

आज जगदीश भाई का आईना निवेषकों को आईना दिखा रहा है कि सही गलत को पहचानों और कहीं एल आई सी ऐजेंटों द्वारा की जा रही गलत पेशकश का पर्दाफाश कर रहे हैं, जगदीश भाई का धन्यवाद ऐसे आँख खोलू लेख के लिये. भविष्य में भी वो इसी तरह चिट्ठे के माध्यम से ज्ञानवर्धन और आगाह करते रहेंगे, ऐसी उम्मीद की जा रही है.

माँ बाप को समर्पित भगवान सलामत रहें माँ बाप हमारे ! नीरज की पोस्ट को साधुवाद.
और हँसने हँसाने के लिये महाजाल पर सुरेश चिपलूनकर जी लाये हैं कई सारी मसाले दार चटपटी पोस्टें. सभी पठनीय हैं.

पढ़ो, खूब पढ़ो जैसे अगले एक महिने तरस जाओगे नितिन बागला जी को देखने क्योंकि उन्हे दस ठो एक से एक गजब की किताबें मात्र १०० रुपये में हैदराबाद में मिल गई हैं और वो अगले एक माह तक उन्हें पढ़ेंगे, उसके बाद ही अब आप उनको पढ़ेंगे. चलो किसी का तो कहीं और मन लगा.


ताजा उत्प्रेरक प्रसंगो के लिये हमेशा पढ़िये, लोकमंच और हिन्दी चिट्ठाकारी के व्यवसायीकरण पर अमित द्वरा लिखे लेख की जानकारी लिजिये रवि रतलामी जी से. अरे कहाँ चले, बस काम की सुनी और चल दिये. यह गलत बात है, कहानी भी तो पढ़ते जाओ: कल्लो और कस्बा पर रविश की रिटेल साहू , बहुत बेहतरीन लगीं दोनों हमे तो. अब आप भी पढ़ो.

सुनील दीपक जी जो कह न सके वो हम बताते हैं: जो हुआ वो क्यों हुआ? और अंत मे, स्वागत योग्य कदम के लिये हमारे भाई श्रीश को बहुत बधाई प्रथम हरियाणवीं चिट्ठे के लिये.

यह हमारी होली के पहले आखिरी चर्चा है तो आप सबको होली की बहुत रंग बिरंगी शुभकामनायें और बधाई.

बहुत सारे चिट्ठों में अधिक अधिक से कवर करने का प्रयास किया मगर फिर भी छूट ही गये होंगे, क्षमा चाहूँगा.

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मंगलवार, फ़रवरी 27, 2007

होली पर चर्चा करी आज उड़ा कर रंग

होली का उड़ने लगा है गलियों में रंग
रतलामी जी घोलते ठंडाई में भंग
नंदगांव जीतू गये, बरसाने श्री शुक्ल
चिट्ठा चर्चा कीजिये आप हमारे संग

लोकमंच पर देखिये, जाकर नौ दस पोस्ट
ये न समझिये पी रखी हमने भी है पोस्त
कुछ जो मेरी कलम से गया लिखा है आज
आधे जीवल की कथा है वह, मेरे दोस्त

एक क्लिक तरकश हुआ, नारद भी बस एक
चले आज दिव्याभ हैं रथ को ले सविवेक
ई पंडित बतला रहे आडम्बर का धर्म
ऐसे गुरुओं को उठा अब दरिया में फ़ेंक


यक्ष प्रश्न को हल करें हिन्दी वाली बात
क्यों ? मंथन करती रही बचपन की सौगात
प्रभासाक्षी संकलन में करते गिरिराज
दुनिया मेरी नजर में, है सरगम दिन रात

मेरे पन्ने पर पढ़ें ज़ेड गुडी के भेद
कैसे रेटिंग की हुई उनके साथ परेड
लिखते चिट्ठा मैथिली आज यहां अविनाश
महाशक्ति बोले कि अब मेरे उत्तर देख

चिट्ठाकारी पर करें पुन: नीलिमा शोध
और कहें उन्मुक्त जी, वर्षगांठ है सोच
एक नजरिया और का भी है पूरा वर्ष
वर्षगांठ शुभ आपको,बोले दिल के बोल

देखें या सीतामढ़ी या कि सिनेमा आप
जोगलिखी संजय मगर, देंगे नये जवाब
धारावाहिक अमित का देश योद्धा वीर
स्ट्रिन्ग्स को जानें यहाँ आकर आप जनाब

जन्म दिवस भुवनेश का, नमन करें कविराज
कथा सत्यनारायणी नहीं हो सकी आज
पर होकर रामायणी अभिलाषित हम लोग
शुभ दिन हो, शुभ वर्ष हो, पूरे हों सब काज

कविवर श्री ज्ञानेन्द्र का करे पहल सम्मान
गंगातट के वे कवि,किया शब्द संधान
पढ़ें आप्संशयात्मा, औ, पढिये भिनसार
शीश स्वयं झुक जायेगा करते हुए प्रणाम

कल परसों कुछ रह गये चिट्ठे चर्चाहीन
उड़न तश्तरी एक था, गिनता था दो-तीन
बाकी खुद ही ढूँढ़िये नारद के संग आप
इतने ज्यादा हो नहीं पाये वे प्राचीन

और यहां पर बर्फ़ अभी भी गिरी कल तलक शाम को
यही चित्र में लगा रहा हूँ. अब इस पूर्ण विराम को

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सोमवार, फ़रवरी 26, 2007

पुछल्लित प्रश्नोत्तरी


हिन्दी चिट्ठा जगत में टैग किए जाने का खेल चरमोत्कर्ष पर पहुँच चुका है है. इस बीच बचे खुचे चिट्ठाकार भी टैगियाए जा चुके हैं और जो इक्का दुक्का बचे हैं, वे टैगियाए जाने की कतार में हैं. कई अभागे तो दुबारा, तिबारा टैगियाए जा चुके हैं. श्रीश को तीन चिट्ठाकारों ने एक साथ टैग कर दिया तो बदले में उन्होंने पंद्रह चिट्ठाकारों को अपना कोप-भाजन बनाया. आज देखते हैं कि किसने किसे फांसा और फंसा हुआ कौन क्या उत्तर दे रहा है और आगे किसे फांस रहा है.

लक्ष्मी गुप्त फंसे तो उनका कवित्व कुछ यूँ बाहर आ निकला-

"...उड़नतश्तरी वाले हैं जो समीरलाल

पूछे हैं उन्होंने कुछ अजीब सवाल

पहले तो समीर जी पुरस्कार की बधाई हो

ठेठ भारतीय परम्परा के अनुसार दावत कब देने वाले हो..."

दावत तो भाई, समीर हमें भी चाहिए. अब कोई तिथि तय कर ही लें.

टैगियाए गए ईस्वामी अपना पर्चा कुछ यूँ हल कर रहे हैं-

प्रश्न १. आपकी दो प्रिय पुस्तकें और दो प्रिय चलचित्र कौन सी हैं?

उत्तर १. रजनीश की "दी बुक ऑफ़ सीक्रेट्स" और खलील जिब्रान की "द प्राफ़ेट" दो सबसे अधिक प्रिय पुस्तकें हैं. "गीता" को मैं धर्मग्रंथ मानता हूं सो उसका स्थान ज़रा अलग है.

जाहिर है, अब आपको पता चल गया होगा कि उनके चिट्ठे रजनीशी व ख़लीली विचारों से क्यों अटे पटे होते हैं.

जगदीश को भी टैग दिखा दिया गया. वहां से उत्तरों का प्रतिबिम्ब कुछ यूँ बनता दिखाई दे रहा है-

बहुत ही अनोखी दुनिया है हिंदी चिट्ठाकारिता की। दुनिया के अलग अलग कोने पर बैठे लोग एक दूसरे से इतना प्यार और सहयोग रखे हैं| बिना किसी स्वार्थ के. बिना किसी लालसा के संबध बन रहे हैं| एक दूसरे का विरोध करते हैं, सहमत होते हैं, फिर विरोध करते रहने के लिये सहमत हो जाते हैं| एक दिन जिस पर गुस्सा दिखाते हैं, दूसरे दिन उसी के ब्लाग पर जाकर प्यार भरी टिप्पणी कर आते हैं...

अभिनव ने टैगियाए प्रश्नों को वस्तुनिष्ठ रूप में लिया, जो कुछ को जँचा और कुछ को नहीं. शाहरूख को तो उनका यह उत्तर कतई नहीं जंचेगा-

प्र.५.यदि भगवान आपको भारतवर्ष की एक बात बदल देने का वरदान दें, तो आप क्या बदलना चाहेंगे/चाहेंगी?

उ.-- मैं के बी सी में शाहरुख़ की जगह दुबारा अमिताभ को देखना चाहूँगा।

तो उन्मुक्त उनसे पूछते हैं -

क्या शाहरुख़ इतना खराब प्रोग्राम करते हैं?

वैसे तो इनके वस्तुनिष्ठ उत्तरों से प्रसन्न होकर संजय ने इन्हें पास कर दिया, मगर राकेश ने इन्हें पूरक दे दिया, और प्रश्न फिर से हल करने की मांग करने लगे-

नंबर आधे अभी मिलेंगे, क्योंकि मिले हैं उत्तर आधे

एक बार फिर पढ़ कर देखो, मैने क्या क्या प्रश्न उठाये

दोहराता हूँ फिर से नीचे, मौका मिला और दोबारा

छूट नकल करने की भी है, उतार सूझ अगर न पाये :-)

प्रश्न पाँच यह- क्यों लिखते हो, क्या लिखने को प्रेरित करता

कला पक्ष से भाव पक्ष का कितनी दूर रहा है रिश्ता

कितना तुम्हें जरूरी लगता,लिखने से ज्यादा पढ़ पाना

मनपसंद क्यों विधा तुम्हारी, और किताबों का गुलदस्ता.

मुजरिम नीलिमा अपने आरोपों के जवाब खुलकर देती हैं-

हां चिट्ठाकारी छपास पीडा को शांत करती है दैविक दैहिक भौतिक तापों में एक इस ताप को भी शामिल मान लेना चाहिए। अपन तो जबरिया लिखि है ......वाला दर्शन सही है अब अपन के लिखने से कोई दुखी हो तो हो...

नीलिमा ने अपने एक उत्तर में अंतरंग सवाल के रूप में जानना चाहा है कि -

- वैसे कभी अवसर मिला तो जानना चाहूंगी कि जीतू, अनूप, रवि रतलामी आदि को कैसा लगता है जब उन्‍हें एक दिन अपने ही खड़े किए चिट्ठाजगत में आप्रासं‍गिक हो जाने का खतरा दिखाई देता होगा।

यह सवाल भले ही नीलिमा अंतरंग मानती हों, परंतु है यह उनका शोध विषयक सवाल ही. अनूप, जीतू, देबाशीष ने टिप्पणियों में जवाब दे दिए हैं. श्रीश ने भी मामला स्पष्ट किया है. इस बारे में मेरा जवाब है - शुद्ध लालू स्टाइल - प्रश्न पॉलिटिकली अनकरेक्ट, हाइपोथेटिकल है! हमहूँ कभी प्रासंगिक तो था ही नहीं फिर ये अप्रासंगिक बनाने का क्या चक्कर है? इ प्रश्नवा तो मुझे नॉनसेकुलर दिख्खे है! :)

पुछल्लित प्रश्नोत्तरी का दौर जारी है, और अगले कुछ हफ़्तों तक चलने की संभावना है. उत्तरों के वेल्यूएशन-रीवेल्यूएशन के काम भी, जाहिर है लगातार जारी हैं. प्रश्नोत्तरी से इतर सरसरी निगाहें अन्य चिट्ठों की अलग तरह की प्रश्नोत्तरी पर डालते हैं-

घुघूती किस चिड़िया का नाम है - यह अगर आपको नहीं पता तो उत्तर के लिए यहाँ देखें. अगर आप कामरेड नहीं हैं तो आप अपना दुःख इनके साथ बांट सकते हैं. सूफ़ी कहाँ से आया आप बता सकते हैं? यदि नहीं तो उत्तर यहाँ देखें. मीडिया ठसक क्यों बढ़ी और हनक क्यों चली गई? इसका विस्तृत उत्तर यहाँ है.

चित्र - रूमी हिन्दी से

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रविवार, फ़रवरी 25, 2007

मत चिरागों को हवा दो बस्तियाँ जल जाएँगी


गुलाब


ये लेव आज फिर इतवार आ गया। आज की चर्चा हमें करनी थी। हम गये थे कल बाहर। बाहर बोले तो लखीमपुर-खीरी। लौटे तब तक तीन बज गये थे। ये मुये इतवार का सबेरा जितना खुशनुमा लगता है, दोपहर के बाद का इतवार उतना ही दिलजला लगता है। रास्ते से आशीष को फोनियाया तो पता चला कि बच्चा चेन्नई से मुम्बई की उड़ान पकड़ने के लिये अपने को तैयार कर रहा था। बहरहाल,हम लखीमपुर से लखनऊ होते हुये वापस कम्पू आये और नहा-धोकर राजा-बाबू बनकर बैठ गये सारे चिट्ठे बांचने के लिये। अब बांच रहे हैं और लिख रहे हैं और आप भी मन लगा के बांचिये।


कल हम रात को लखीमपुर में एक बारात का इंतजार इंतजार करते हुये समाज-चर्चा कर रहे थे तो हमारे कुछ दोस्त प्रदेश के बारे में हमारी जानकारी बढ़ा रहे थे। बता रहे थे फलां नेता की रखैल का नाम ये है, फलां का खाता उनके यहां खुला है। फलाने का एनकाउंटर ऐसे कराया ढिमाके को ऐसे टपका दिया गया। हम सन्न होते हुये पूछे कि भैये जब तुमको पता है तो नेता विरोधी दल ,पत्रकारों को भी पता होगा। लोग इसके बारे में हल्ला काहे नहीं नहीं मचाते! हमारे काबिल दोस्त में हमारे बचकाने सवाल पर मुस्कियाते हुये बताया- कौन हल्ला मचाये सबका तो यही हिसाब है। रही पत्रकार वाली बात तो भैये मरने से सब डरते हैं।

बहरहाल, कितना सच है यह बात कह नहीं सकते लेकिन प्रेमेंन्द्र कुछ ऐसा ही लिखते हैं कि उ.प्र. की राजनीतिक हालत बहुत खराब है।

इरफ़ान पर हुयी बहस आगे जारी रही। लोग अपना-अपना सच बयान कर रहे हैं। अपने परिवेश की सोच का जिक्र करते हुये मनीषा पांडेय ने लिखा- मौसी हम मुसल्लों की वाट लगा देंगे| इसके जवाब में धुरविरोधी जी ने लिखा -
ये सब कैसे सुन लेती हो ? अगर हमारे घर या पास पडोस में अगर ये कोई बोले तो सुनने बाला उसके गाल पर चांटा जड देगा. मेरा बाप अगर मुझे एसा बोलते सुने तो मुझे गोला लाठी लगाकर रातभर को टट्टर पर डाल देगा.

धुरविरोधी की यह पोस्ट सागर को बहुत पसंद आयी। धुरविरोधी अपनी पोस्ट के माध्यम से आवाहन करते हैं-
इस मोहल्ले से बाहर निकलो और देखो दुनिया उतनी बुरी नहीं है जितना उस मोहल्ले से तुम्हें दिखायी देती है.हमारे साथ आओ, हम नफ़रत फ़ैलाने वालों की वाट लगा देंगे.

रवीशकुमार ने सद्भावना होनी चाहिए। मगर उसके बनने के रास्ते में जो रुकावटें हैं, उसकी पहचान हो तो क्या गलत? कहते हुये अपने बचपन के दोस्त रोशन अफ़रोज की कहानी बतायी तो धुर विरोधी ने लिखा-
अरे यार, कभी तो अच्छी बात करो, शादी शुदा हो ना? भाभी जी कहतीं होगीं कि चौबीस घन्टे की ड्यूटी करते रहते हो, कभी उनके साथ जाओ. अगर कुंवारे हो तो किसी से प्यार कर के देखो. इस जहर को थूक दो मेरे भाई. फ़िर देखो ये दुनिया कितनी भली लगेगी.
आज की अपनी दो पोस्टों से धुरविरोधी ने दिल खुश कर दिया और कोई तो बोला -आप तो धुर समर्थक निकले!

नारद का हिट मीटर जहां सागर को लुभाता है वहीं रविरतलामी को डराता है। लेकिन रवि भाई आपने ही योगेश समदर्शी कीगजल पेश की है न! उसी की लाइने आपके लिये:-
आज आंसू बह रहे है देख जिनकी आंख में
वक्त की तहजीब है उनको हंसी भी आएगी

परसों हम पूनमजी बतियाये तो यह अनुरोध भी उछाल दिये कि कुछ लेख-वेख भी हुआ करे तो कित्ता अच्छा हो! हमें अपने जीतू की तबियत की फिकर है। बेचारे का रक्तचाप एक कविता पढ़कर पांच प्वाइंट उचक जाता है। हमें नहीं पता था कि हमारे अनुरोध की इतनी कद्र की जायेगी कि पूनमजी अगले दिन ही कविता छोड़कर लेख लिख देंगी। लेकिन उन्होंने लेख में अपनी रचना प्रक्रिया के साथ आगे के वायदे भी कर डाले-
कविता का क्या है.कुछ दिल ने मह्सूस किया,बच्चों का टिफिन पैक करते कुछ पंक्तियां भी पैक हो गईं , आफिस पहुँचे ,दो कामों के बीच टाइप किया,और तीसरा कोइ काम करते करते पोस्ट कर दिया. बाकी का काम नारद्जी के जिम्मे .जिसको पढना पढे,और जिसको नहीं पढना वो आगे बढ जाये,पर एक नज़र डालने के बाद! लेख का क्या किया जाए.टिफिन जल्दी पैक हो जाता है और तब तक लेख की आत्मा तक पास नहीं फटकती.अब सोचा है कि कुछ रास्ता तो निकालना होगा . तो अब अभियान -गद्य चालू हो गया है.

पांच सवालों के तीरों से लोग घायल होते जा रहे हैं। आज के शिकार लोगों में सागर,
नीलिमा,नितिन व्यास । नीलिमा के एक अंतरंग सवाल
वैसे कभी अवसर मिला तो जानना चाहूंगी कि जीतू, अनूप, रवि रतलामी आदि को कैसा लगता है जब उन्‍हें एक दिन अपने ही खड़े किए चिट्ठाजगत में आप्रासं‍गिक हो जाने का खतरा दिखाई देता होगा
पर जीतेंद्र सेटिया गये और लरजते हुये से उवाचे-
अप्रासंगिक? (इस शब्द पर मुस्काराने को जी करता है)वैसे आलोक, रवि, देबू, जीतू, फुरसतिया एक सोच है, व्यक्ति नही। और सोच कभी नही मरती। हमने हिन्दी चिट्ठाकारी के लिए जो योगदान करना था वो किया,इमानदारी से किया और जितना हो सकेगा करेंगे। लेकिन भविष्य तो युवा कंधो पर ही होगा ना। उनको आगे लाने के लिए भी हमने पूरे पूरे प्रयत्न किए। उदाहरण देना नही चाहता था, लेकिन आपने कहा है तो सुनिए, इस बार के इन्डीब्लॉगीज के चुनाव मे मैने या किसी वरिष्ठ चिट्ठाकार ने चुनाव प्रचार नही किया। ये नए चिट्ठाकारों को आगे लाने के प्रयास ही था।
हम रहे या ना रहें, हिन्दी चिट्ठाकारी रहेगी, हमारी सोच जिन्दा रहेगी, हमेशा।

बकिया तो सब ठीक जीतू ये युवा कंधे की बात करके क्या तुम अपने बुढौ़ती की घोषणा कर रहे हो? अरे अभी तो बचपना तुम्हारे ऊपर रोज लाइन मारता है। अभी काहे बदे अनिल कुम्बले बन रहे हो :) अरे हमसे भी पूछा गया था यह सवाल सो अपना जवाब हम वहीं लिख दिये। आप देख लीजिये नीलिमाजी, जवाब ठीक है न! :)

गुलाब

अविनाश अंग्रेजी की लेखिका रूपा बाजवा के ३१ साल की उमर में साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने को हिंदी कवि ज्ञानेन्द्रपति और उर्दू लेखक मख़मूर सईदी के ५० साल की उमर में इसी इनाम से नवाजे जाने की तुलना करते-करते मैथिली के वयोवृद्ध लेखक चंद्रनाथ मिश्र अमर से होकर अपने दादाजी को याद करते हुये कहते हैं
हिंदी के कितने ही लेखक अभी रूपा बाजवा की उम्र में हैं और वे दरियागंज से लेकर मंडी हाउस में सर उठाये घूमते रहते हैं, लेकिन कलमकारी के नाम पर हंस और कथादेश में कविता-कहानी छप जाने से आगे उनका उत्‍साह जवाब दे देता है. ज्‍यादा से ज्‍यादा इस काबिलियत का इस्‍तेमाल अख़बारों या व्‍यावसायिक तरीक़े से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिकाओं में नौकरी हासिल करने तक ये उत्‍साह बना रहता है. और जब तक ऐसी नौकरियां नहीं मिलती हैं घरों से पैसे आते हैं, फ्रीलांसिंग चलती है और कभी कभार एक अदद साहित्‍य अकादमी की लाइब्रेरी में वे पाये जाते हैं.
क्या अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी लेखकों की बहुतायत उनके कम उमर में इनाम पाने का कारण है?

तकनीकी तहलकों में नितिन फोटोशाप के बारे में बात करते हैं तो भोलाराम मीणा अपने ब्लाग की कीमत आंकने की कसौटी बताते हैं जिस पर मसिजीवी अपने ब्लाग को कसते हैं और बताते हैं कि ब्लाग मंडी में उनका भाव फर्जी है। देबू के पुस्तक चिंन्ह स्वादिष्ट कैसे होते हैं किसी ने खायें हों तो बताये। नितिन व्यास डिजाईनरों की दुविधा बयान करते हैं। उधर हरिराम को यही नहीं समझ आया कि कंप्यूटर पुल्लिंग है या स्त्रीलिंग! यहीं मौका है कि आप झट से जान लें कि सोमेश से लड़कीकहती क्या है!

पद्म्नाथ मिश्र अपनी लेखनी वियोग की कथा कह रहे हैं तो जीकेअवधियाजीरामकथा! इसीबीच बात पते की में एनडीटीवी के पत्रकार प्रियदर्शन समाज की बदलती हुयी सोच और खेलों में सट्टेबाजी के ताने-बाने का जिक्र करते हुये कहते हैं:-
ये वो क्रिकेट है जो पैसे की मदद से खेला जाता है। जिसमें कभी दुनिया का सबसे शानदार माना जाने वाला हैंसी क्रोनिए जैसा कप्तान फंस चुका है और एक दौर में भारत का सबसे कामयाब कप्तान रहा अजहरुद्दीन भी। लेकिन ये सिर्फ खिलाड़ियों का मामला नहीं है, चमक-दमक और शोहरत से घिरी एक पूरी जमात का मामला भी है, जिससे रातों-रात हासिल हुई अपनी अमीरी संभाली नहीं जा रही। इसमें फिल्मी सितारे हैं, बार डांसर हैं, इन सबके करीब रहने वाले वैसे बिगड़े हुए लोग हैं जिन्होंने सट्टेबाजी को धंधा बना रखा है। इन सबके ऊपर अंडरवर्ल्ड है जो कभी मैच फिक्स करवाता है और नाराज होने पर किसी खिलाड़ी के लिए सुपारी देने से भी नहीं हिचकता।

अभय तिवारी आपको सट्टे के संसार से नींद की दुनिया में ले जाते हैं अफलातून साने गुरु का समग्र साहित्य हिंदी में पढ़ाते हैं।

तुषार जोशी हमारे चर्चाकार हैं। पता नहीं क्यों वे मराठी चिट्ठों की चर्चा स्थगित किये हुये हैं? बहरहाल,वे समीरखरे की कविता काभावानुवाद पेश करते हैं:-
कितना प्यारा, कितना सुंदर
ऐसा अपना दूर ही रहना
मेरे लिये तुम बाद में मेरे
उसी जगह फिर आकर जाना


एक और कविता में संदीप खरे लिखते हैं:-
शोख इन गालों पे देखो छुप के आती लालियाँ
छुपके छुपके जब से मुझको तुम लगे हो देखने
बिजली ना बादल लगे फिर मोर कैसे नाचने

कितनी कोमल फूल मेरे उम्र तेरी है अभी
रंग हो गए बोझ लगती पंखुडीयाँ है कापने
बिजली ना बादल लगे फिर मोर कैसे नाचने



कविता में जहां एक तरफ़ रंजू का दर्द है:-
बदल गये वो भी हवाओ, की रुख़ की तरह
कुछ तो अपने जाने की ख़बर हमको दी होती
वहीं रवीशकुमार जानकारी देते हैं:
इस बीच अभी अभी खबर मिली है
पत्थरों में विसर्जित गांधी को अब
पुरातत्व विभाग के हवाले कर दिया गया है
और गुजरात नरेंद्र मोदी को दे दिया गया है

उधर मान्या लिखती हैं-
अजनबी,नामालूम सा
दिल से गुजर गया कोई
किसी को मन ने चाहा मानो भी ऐसा
मानो कुछ चाहा ही नहीं
हां कुछ हुआ ऐसा कि कुछ हुआ ही नहीं!

अब हम अजनबी, मालूम, न मालूम के बारे में तो कुछ नहीं कहेंगे लेकिन एक बात यह है कि मान्या के चिट्ठे से कापी-पेस्ट नहीं होता सो मालूम हो!

बनारसी पांडे़ अभिषेक से सुनिये अगले शेरों की किस्त:-
ना हमने बेरुखी देखी न हमने दुश्मनी देखी
तेरे हर एक सितम मे हमने कितनी सादगी देखी

अभिनव पेश करते हैं सुरेन्द्र चतुर्वेदी की कविता पंक्तियां:-
मत चिरागों को हवा दो बस्तियाँ जल जाएँगी,
ये हवन ऐसा कि जिसमें उंगलियाँ जल जाएँगी,
उसके बस्ते में रखी जो मैंनें मज़हब की किताब,
वो ये बोला, "अब्बा, मेरी कापियाँ जल जाएँगी"।

आप लोकमंच पर भी कविता देखें, एक किसान की तारीफ़ करें कि वह अपने बीज से अपनी फसल उगाने का प्रयास कर रहा है, बाजरवाले का लेख देखें और चलते-चलते रवीश कुमार का कस्बे में किया हुआ यह वायदा देखें-
चुनावों के मौसम में झूठे वादों की बरसात है।
फर्क सिर्फ इतना है कि कोई भींगता नहीं।

तो साथियों यह रही हमारी चिट्ठाचर्चा २४ फरवरी के चिट्ठों की।आप बताइये कैसी लगी। हम देर से आये यह तो सबको पता है लेकिन दुरुस्त आये कि यह भी बताया तो जाये। आगे की चर्चा कल करेंगे रवि रतलामी।



आज की टिप्पणी


मनीषा ने इस बहस को बढ़ाया है। आखिर मौजूदा हाल में धर्मनिरपेक्ष होने से पहले हम अपने भीतर सांप्रदायिकता के तत्व पालते ही तो रहे हैं। उसका लिखना इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों के सामाजिक सैंपल लेते वक्त हम लड़कियों के अनुभवों को कम ही शामिल करते हैं। करते भी है तो महिला क्रिकेट टीम की तरह। मनीषा के संस्मरणों में अपना भी एक संस्मरण जोड़ रहा हूं

क्रिकेट ने मुझे कुछ समय के लिए खास किस्म के राष्ट्रवादी कुंठा में डाल दिया था। जब रेडियो से कमेंटरी सुनकर क्रिकेट के रोमांच को अपने भीतर उकसा रहा था। तभी अफवाहें भी रोमांच के साथ धारणा बना रही थीं। जब भी भारत हारता पटना के गांधी मैदान में खेलते वक्त यह समाचार मिल जाता था। घर लौटते वक्त सब यही बातें करते कि सब्ज़ीबाग जो मुस्लिम बहुल इलाका है वहां पटाखे छूट रहे होंगे। भारत हारता है तो मुसलमान खुश होता है। बहुत जी करता था कि कभी भारत के हारते ही सब्ज़ीबाग़ पहुंच जाऊं और खुद अपनी आंखों से देख लूं कि वाकई में पटाखे छूट रहे हैं या नहीं। एक बार पिताजी ने दर्जी के यहां से अपनी कमीज लाने के लिए सब्जीबाग ही भेज दिया। मुस्लिम दर्जी की दुकान में सरफराज़ नवाज़ और इमरान ख़ान की तस्वीर देख कर मेरे हाथ कांप गए। लगा कि मैं पाकिस्तान आ गया हूं। दोस्तों ने ठीक कहा है। यहां ज़रुर पटाखे छूटते होंगे। बहुत देर तक सोचता रहा। घर आकर भी सोचा हम जब दीवाली मनाते हैं तब तो मुसलमान पटाखे नहीं छोड़ते फिर पाकिस्तान की जीत पर क्यों छोड़ते होंगे? क्या उनके मज़हब में गुनाह नहीं होगा। खैर रात को बिस्तर पर अपनी एक कापी निकाल ली। तब मैं पत्रिकाओं से क्रिकेट खिलाड़ियों की तस्वीरें काट कर चिपकाता था। दीवारों पर चिपकाने का चलन शुरु नहीं हुआ था। मैं उन तस्वीरों को देख सन्न रह गया। डर गया कि अगर दोस्तों ने देख लिया तो क्या कहेंगे। पहली तस्वीर इमरान ख़ान की थी। और दूसरी ज़हीर अब्बास की। मुझे दोनों खिलाड़ी बहुत अच्छे लगते थे। कपिल देव की भी तस्वीर थी लेकिन रिचर्ड हेडली के बाद। मैं बहुत दिनों तक डरा रहा कि कहीं कोई मेरे भी देशप्रेम पर सवाल न उठा दे। अब वह डर खत्म हो गया है। इमरान खान और अकरम हमारे देश के अखबारों में कालम लिखते हैं। टीवी में आकर राय देते हैं। अच्छा लगता है।
रवीश कुमार मोहल्ले की पोस्ट पर

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शनिवार, फ़रवरी 24, 2007

धर्म से पहले जीवन आता है

सूचक आशावान व्यक्ति हैं, अब भी टीवी बहसों में मर्यादा की अपेक्षा रखते हैं
एक चैनल को क्या सूझी कि वो दो समझदारों के साथ "वन साइज डजेंट फिट एवरी वन" पर बहस करे...सवाल ये है कि क्या ये बहसें अपनी मर्यादा जानती हैं? जिस कार्यक्रम की बात यहीं हो रही है उसमें सभी हंस हंस कर ये बता रहे थे कि साइज से क्या, क्यों और कैसे...वे हंस क्यो रहे थे! शर्म से।
महंगाई जैसे विषयों पर सरोकार रखने वाले छद्म लेखों के बाद लोकमंच अब अपनी औकात पर आ रहा है। भले ही ख़बरों के थाल पर परोसा जा रहा हो पर खोमचा वैमनस्य का ही है। "इस्लाम के अपमान के नाम पर ब्लागर को चार साल की कैद", "पाकिस्तान में नये पाठ्यक्रम का कट्टरपंथियों ने विरोध किया" जैसी खबरोंं को प्रमुखता।

इस्लाम और मुसलमान शब्दों के प्रति भारतीय पूर्वाग्रह अद्वितीय है। यह विषय हिन्दी ब्लॉग जगत में गये हफ्ते से इरफ़ान के रूप में छाया रहा। मोहल्ले में इरफ़ान के हवाले से अविनाश ने एक लेख लिखा, मुद्दे सही पर ट्रीटमैंट अतिनाटकीय। यह चर्चा मुद्दे पर ही। ओम ने प्रतिक्रिया में कहा, "मैं तो हिंदू हूं पर दिल्ली में बिहारी कहा जाता हूँ...मुझे घिन्न हो गई हैं ऐसी व्यवस्था से..."। प्रियंकर ने लिखा, "समाज में कई स्तरों पर जाति, धर्म और भाषा को लेकर भेदभाव भी है। सारा के साथ स्कूल में अंडे वाली घटना को समाजीकरण की प्रक्रिया का हिस्सा मान कर देखना चाहिये जो बहुधा संख्याबहुलता से अनुकूलित होती दिखाई देती है। कोलकाता में मेरे बेटे को यदि रहना और पढना है तो उसे मांसाहारी वातावरण में ही रहना होगा...इसे किसी सामाजिक अन्याय की तरह देखने की बजाय समाजशास्त्रीय प्राचलों के आधार पर देखना बेहतर होगा"। मैं सहमत हूँ।

पर यह हमारा ही समाज है जहाँ सहस्त्रों बरसों पहले मुस्लिम शासकों ने जो किया उसकी दुहाई देकर आज तक मुसलमानों को कोसा जा रहा है। उन्हीं मुग़लों का बनाया ताजमहल बस एक हेरीटेज मोन्यूमेंट है। और जिन अंग्रेज़ों ने २०० सालों तक पैरों तले रौंदा उनकी भाषा और संस्कृति के तलुवे चाटने में ज़रा भी हया नहीं। मुसलमान शासक काफ़िर हमलावर रह गये और अंग्रेज़ हमलावर सॉफिस्टीकेटेड शासक। मदरसा बुरा है, पर मिशनरी स्कूल और वैदिक स्कूल दूध के धुले हैं। मदरसों से हर बच्चा आतंकवादी हो कर निकलता है और बाकी स्कूलों से कल्चर्ड अंग्रेज़ बन कर। भारतीय कौन सा स्कूल बना रहा है फिर आजकल? क्या हम अब भी उपनिवेश नहीं हैं? जगदीश ने कहा, "यह जो दुनिया-समाज हम सारा को दे रहे हैं न अविनाश, यह तुम्हारी, मेरी और मोदी जैसों की ही बनाई है और हमीं को ध्यान देना होगा इस तरफ।" मुनीश ने लिखा, "ये दुखद सत्य है कि अधिकाँश मुसलमान धर्मांध हैं, मुट्ठी भर लोग की पढ़े लिखे और प्रगतिवादी हैं। जब पाकिस्तान क्रिकेट मैच जीतता है तो वे खुशियाँ मनाते हैं"। यह भारत में ही हो सकता है जहाँ इस तरह के फोकलोर प्रचुरता से मशहूर हों, मुसलमान अशिक्षित है, मुसलमान ज्यादा बच्चे पैदा करता है, मुसलमान आतंकवादी है। इन्हीं के दम पर मुख्याधारा से इन्हें अलग रखिये, अपना न बनने दीजीये और "मुसलमान के घर कटार पर हिन्दू के यहाँ तो कुत्ते भगाने के लिये लाठी तक नहीं होती" के आग्रह पर कट्टरता को गाली देते हुये खुद कट्टर बन जाईये। मस्त देस है मेरा! जीवन से पहले धर्म आता है यहाँ। धुरविरोधी की तरह कहने को जी करता है कबीरः
कितना दुर्बल धर्म हमारा एक पशु गन्दा कर जाता
और एक पशु की खातिर ही भारत आपस में लड़ जाता
इससे तो मैं भला नास्तिक, चादर ताने सो रिया
गणपति बप्पा मोरिया।
चलते चलतेः भारतीय और अतर्राष्ट्रीय सिनेमा पर एक नया ब्लॉग सिलेमा प्रशंसनीय है अगर पढ़ा न हो तो आज ही पढ़ें।

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गुरुवार, फ़रवरी 22, 2007

पाँच प्रश्न - शीर्षक चर्चा

1. चिट्ठाकार होने का मतलब क्या है?
2. जिन ताजा प्रविष्टियों की ख़बर प्रभू नारद नहीं दे पाते है, उनकी चर्चा कैसे की जाये?
3. यह पाँच-प्रश्नों का सिलसिला कब थमेगा?
4. क्या पाँच-प्रश्न सोये चिट्ठाकारों को जगाने में उपयोगी हो सकते है?
5. आपने आज का चिट्ठाचर्चा क्यों पढ़ा?

अनुपजी ने उम्र का लिहाज किये बगैर अपनी फ़ुरसत को आमजन की फ़ुरसत समझकर आमजन को फ़ुरसत का भी फ़ुरसत से आनन्द नहीं लेने दिया। बेजीजी ने लम्बी पोस्ट लिखने का कष्ट शुरूआत में ही यह लिखकर जता दिया कि – “अनुपजी जवाब लिख रही हूँ” तो मैथिली जी घबरा गये। उन्हें लगा कि चिट्ठाजगत के चाचु गुस्से में आकर कहीं फिर से चोर-चोर का चक्कर ना चला दें इसलिए कहे उठे – “मेरे जवाब हाज़िर है”… यह माहामारी पानी के बताशे में भी मिक्स हो गई, इल्ज़ाम प्रत्यक्षाजी पर लगा... श्रीशजी घबराने लगे कि अब पंडितजी को तकनीकी ज्ञान छोड़कर इन बकवास प्रश्नों के जवाब देने पड़ेंगे।

हालांकि मौहल्लें में रहने वाले इसे पसंद नहीं करते मगर लोकमंच के लिए तो यह भी एक सच है। मगर मौसम और प्यार का जादू चलाकर प्रमेन्द्रजी पुनमजी को हौसला दिया तो उन्होनें वक्त को रोक लिया। जो कह ना सके वो मानवाधिकार की बाते करने लगे और कांतजी नयनों के चक्कर में नयनाभिमुख होकर कहते दिखे कि “वो नयनों में अपलक नयनों से ताकती थी”, अज़दक ने गिनाये ब्लॉग के फायदे और आशीष जी अपनी पोस्ट चोरी होने पर ढ़ोल-नगाड़े-ड्र्म और भी पता नही क्या-क्या बजाने लगे।

रितेश गुप्ताजी की भावनाओं को समझे बगैर गिरिन्द्र नाथा झाजी अपने अनुभवों से रीति-रिवाजों का किला तोड़ कर मुक्त होने की कोशिश में लगे रहे। अवधियाजी ने रामायण में पिनाक की कथा सुनाई, राजेशजी विश्व-कप क्रिकेट की समय सारणी बाई-मार्फत गुगलदेव लेकर हाजिर हुए, हरिरामजी “एड्स से बचाती हैं या बढ़ाती है- डिस्पोजेबल सीरिंज?” में खोये रहे और छायाचित्रकार फूलों की टोकरियों में मगर इन सबसे अलग गुरूदेव ने जो किया उसके लिए बाकि चिट्ठों की चर्चा को संक्षिप्तता में शीर्षक चर्चा बनाकर निकलना पड़ रहा है। मगर जाते-जाते मार्फत जीतु भाई से यह लिंक ले जाइये, काम आयेगा।

(नोट : गुरूदेव की पोस्ट को पढ़ने के बाद कल चर्चा विस्तार से करने को बाध्य हूँ इसलिए देर होने की प्रबल संभावनाएँ है, अब तक दिखी प्रविष्टियों की संक्षिप्त चर्चा तो कर चुका हूँ मगर कोशिश रहेगी की कल गुरूदेव की पोस्ट के साथ-साथ इनकी भी विस्तार से चर्चा की जाये)

कल चर्चा विस्तार से की जायेगी, अवश्य पधारें।

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आकस्मिक चर्चा

नमस्कार साथियों,
मै आपका मित्र जीतेन्द्र चौधरी फिर से हाजिर हूँ, चिट्ठा चर्चा करने के लिए। अरे आप लोग सोचेंगे ये फिर आ गये, अभी रविवार को तो इसके झेला था, फिर पकाएगा? अरे का करें अपने शुकुल महाराज जो ना कराएं सो कम। एक दिन बोले, तो शनिवार की चर्चा, रविवार की रात तक करते हो, ये बात अच्छी नही। हम बोले महाराज तो कोई उपाय सुझाइए, बोले जाओ, तुम्हारा दिन बदल दिया, अब तुम बुधवार के चिट्ठों की चर्चा, गुरुवार को किया करोगे, इसके साथ ही फरमान टिका दिया, बिना रसीदी टिकट के। उल्टा पुल्टा करके कई बार पढा, समझ मे नही आया, लेकिन वो जो चैट पर कहा था, उसी के अनुसार प्रस्तुत है बुधवार के चिट्ठों की चर्चा।


बुधवार दिनांक २१ फरवरी, २००७, के सारे चि्ट्ठे


जब आज सुबह-सुबह अखबार उठाकर देखा तो बहुत हैरान परेशान हुआ, लेखिका अरुंधती राय का मन हिंसक हो गया, पढकर दु:ख हुआ, अगले शुक्रवार को चाँद निकलने का इन्तज़ार करें और हाथ मे हरा फीता बाँधे और नारद पर जाकर दुआ करें, जल्द ही ठीक हो जाएंगीं। लेकिन श्री अरविंद के विचार पढकर भी निठारी बेहाल, सुलगते सवालनेताजी से जुड़े सवालों की आर पार की लड़ाई मे युद्द का आज तीसरा दिनसंजय भाई की टिप्पणी पाकर, आज फ़ूल उदास है, मेरा चाँद और शाम बहुत उदास है,अर्ध कुम्भ के दर्शन पाकर भी कबीरा तो रोन्दा ही रैंदा है। तो क्या हुआ प्रमेन्द् भाई, इन्तज़ार कैसा, आओ जिन्दगी पर बतिआते है। लेकिन इससे पहले अपनी समझ साफ़ करें मोहल्ले वाले, ये खलिश कहाँ से होती है, गुजरात प्रवास के दौरान भी नितिन भाई समझ नही सके। अखबार मे पढा कि ये कैसी कैसी बिमारियां है, कंही शादी के दौरान चन्द वाक्ये तो कंही एड्स की प्राकृतिक चिकित्साअमरीकन आइडल के एक भारतीय मूल के युवक ने एक जगह पढा कि देवीगढ मे मुलायम के एकलव्य, महंगाई पर तेजी से खाली होती जेब पर हैरान परॆशान है। एक तरफ़ रात, नींद, ख्वाब और गुलज़ार तो दूसरी तरफ़ ना विसाले यार होता जैसे खयाल, कहाँ निठारी का मातम और कहाँ हिन्दी फिल्म संगीत पुरस्कार का शोर। सच ही है, दुनिया विरोधाभास मे ही जीती है।


सुनील भाई कहते है कि
बहुत से लोग सोचते हैं कि हाथ की लिखाई से व्यक्ति के व्यक्तित्व के बारे में छुपी हुई बातों को आसानी से पहचाना जा सकता है. कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि हाथ की लिखाई से वह बता सकते हैं कि कोई खूनी है या नहीं.


लोकमंच निठारी कांड सुलगते सवालों मे कहते है:
निठारी कांड को जिन प्रमुख कोणों से देखा जा रहा है उनमें नरभक्षण, वेश्यावृत्ति, पीडोपफीलिया जैसे मुद्दों पर तो लगातार बहस जारी है, मगर मानव अंग व्यापार का असल मामला जिन सबूतों के अभाव में गंभीरता से उठाया नहीं जा पा रहा, उसे अधिक देर तक दबाया नहीं जा सकेगा क्योंकि नोएडा के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक डा. विनोद कुमार के मुताबिक बच्चों के शरीर के अंग जिस सधे और पेशेवर तरीके से काटे गये हैं उसमें अंग व्यापार की आशंका से कतई इंकार नहीं किया जा सकता है। साथ ही, इन कंकालों में गुर्दों, जिगर, पैंक्रियास, आंतों, आंखों आदि का न मिलना अंग व्यापार के मुद्दे को दबने कहां देंगे और जब यह मुद्दा उठेगा, तब यह सवाल भी उठेगा ही कि खूनी कोठी के ठीक पड़ोस में रहने वाले उस डाक्टर की कोठी की तलाशी पांच दिनों तक क्यों टाली गयी जो नोएडा के अवैध किडनी ट्रांसप्लांटेशन का आरोपी भी है।



इनके साथ रोजाना के जुगाड़ी लिंक हो है ही, इस बार रविशंकर का याहू पाइप्स पर तगड़ा तकनीकी लेख जरुर देखिएगा।



आज की कविता टू फेसेस के ब्लॉग से

आज शाम है बहुत उदास
केवल मैं हूँ अपने पास ।

दूर कहीं पर हास-विलास
दूर कहीं उत्सव-उल्लास
दूर छिटक कर कहीं खो गया
मेरा चिर-संचित विश्वास ।
-भगवती चरण वर्मा


अच्छा भाई, इक सप्ताह में आपने दो दो बार झेला, आपका धन्यवाद।

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बुधवार, फ़रवरी 21, 2007

आठ पोस्ट डिलीट, दो ब्लॉगों के पासवर्ड चोरी

भाई मैथली जी, थोड़ी सी जमीं, थोड़ा आसमां, पर बड़ा जोशीला प्रश्न उठाते हुये डिलिटल फिल्म और भारत पूछ रहे हैं कि क्या आप इस आने वाली डिजिटल क्रांति के लिये तैयार हैं?

जब तक आप पढ़कर मैथली भाई को बताईये, हम आपको आज प्रकाशित कविताओं के संसार में ले चलते है. कवियों और उससे भी ज्यादा कविताओं की बढ़ती तादाद को देखते हुये वो दिन दूर नहीं, जब शायद कविताओं की चर्चा हर रोज अलग से करने की टीम तैयार की जाये. इतनी अच्छी अच्छी कवितायें आ रहीं हैं कि क्या बतायें. एक पढ़ो, तो आँख भर आती है, दूसरी पढ़ो तो हँसी छूट जाती है और फिर अगली में जोश से चेहरा तमतमा जाता है और फिर एकाएक प्रेम के भाव. पत्नी सामने बैठी टीवी देख रही है. बीच बीच हमारे चेहरे को देख लेती है और यह सब भाव देखकर पागल समझने लगी है.

अब आगे जो भी हो, वो आगे, अभी तो यहीं चर्चा करना है:

स्वागत करते हैं वरिष्ट कवियत्री लावण्या शाह जी का उनके काफी दिनों से लिखे जा रहे चिट्ठे अंतर्मन पर जो कि आज ही नारद पर पंजीकृत हुआ है मौन गगन गीत

ओ मेरे, सँध्या के मीत!
मेरे गीत हैँ अतीत.
बीत गई प्रीत !
मेरे सँध्या के मीत
-कामना अतीत
रे कामना अतीत !
मौन रुदन बीन,
मौन गगन दीप!

और मृणाल भाई से एक नये तेवरी अंदाज में, क्या अमरीका के वासी हो? यह लो, हम ही कहे थे कि कविता सुनाओ और फुल टाईम कविता लिखने लगो. तो वो तो हमें ही दम दे रहे हैं. मगर नहीं भाई, हम तो कनाडा के वासी हैं:


२३० वर्ष की आज़ादी -
वाह! क्या आदर्श दिया है।
बिना बात के कारागार मे
कितनों ने संघर्ष किया है,
ऐसे युद्ध-विजय ने तुमको
जाने कैसा हर्ष दिया है।

भोले या अभिनय मे माहिर,
नही जानते जो जग-जाहिर?


अब अमरीका वालों से आप निपटना, हम तो आपको अमरीका वालों की कविता सुनवाते हैं, गीत सम्राट भाई राकेश खंडेलवाल जी के गीत कलश की:

चाँदनी रात के:


ढूँढ़ते ढूँढ़ते थक गई भोर पर
मिल न पाये निमिष चाँदनी रात के

डायरी के प्रथम पॄष्ठ पर था लिखा
नाम जो, याद में झिलमिलाया नहीं
तट पे जमुना के जो थी कटी दोपहर
चित्र उसका नजर कोई आया नहीं
बूटे रूमाल के इत्र की शीशियाँ
फूल सूखे किताबों की अँगनाई में
चिन्ह उनका नहीं दीख पाता कोई
ढल रहे एक धुंधली सी परछाईं में



और कलकत्ता से मान्या को सुनिये:


जब भी मिलता हूं तुझसे..
तू अलग, अलबेली..
मुझको बिल्कुल पगली सी लगती है..
कभी उलझती.. कभी सुलझती..
कभी अनगढ, अबूझ पहेली सी..
अजनबी..पर बिल्कुल अपनी सी लगती है..


और आलोक शंकर जी, जो कि नवागंतुक हैं, कह रहे हैं, कवि तू कर अब निर्मम गान ।


निज कविता के कर्कश स्वर से,
आज कँपा दे सबके प्राण
भर , कविता में अब कटु -स्वर भर
कवि तू कर अब निर्मम गान ।


गजब हाल तो हमारे संजीत त्रिपाठी जी का है जो कभी कभी होने वाली स्थिती का विवरण दे रहे हैं:


क्यों होता है ऐसा कभी-कभी
कि कुछ सोचना भी भारी लगे
और सोचे बिना रहा न जाए!
क्यों होता है ऐसा कभी-कभी
लगे ऐसा मानों हाथ-पैरों में जान न हो!.....और भी जाने इस तरह की कितनी स्थितियां.


इस पर समीर लाल से रहा नहीं गया. वैसे तो वो कुछ बोलते नहीं हैं, मगर यहाँ उनके संवेदनशील मन से रहा नहीं गया और बहा दिये ज्ञानधारा संजीत बाबू के लिये:


इस स्थिती को चिकित्सा शास्त्र में डिप्रेशन और धर्म शास्त्र में आत्म मंथन की स्थिती बताया गया है. मगर साहित्य में इसे भावुक लेख और भावुक कवितायें लिखने की सर्वोत्तम स्थिती माना गया है. एक से एक कविता लिख जाती हैं, ऐसे महौल में. मैने तो खुद लिखकर देखा है लेख और कविता दोनों. बिल्कुल भाई, ऐसा ही माहौल था, बड़ी हिट गई वो रचनायें. ऐसी हिट कि मुँह से निकल पड़ा, अह्हा, आनन्दम! :)आननदम!! और हम महौल के बाहर. फिर नार्मल सा लिखने लगे. अब तो इंतजार लगा रहता है कि कब यह माहौल फिर मिले. :)
लिख मारो दो चार कविता और, बेहतरीन जायेंगी, जैसे यह उपर वाली.इसकी तो बधाई अभी ले लो!!


और इन कविताओं के क्रम में रीतेश भाई भी हाथ साफ कर गये कि सबकी सुनी जा रही है तो हमारी भी सुनो. चलो, अच्छा सुनाओ, जल्दी जल्दी सुनाना. तुरंत शुरु , ये होता है असली कवि. न सुनना हो तो भी टंगडी मार कर सुना दे. लगे रहो बाबू, एक दिन लोग यहीं जमावड़ा लगायेंगे, शुभकामना:


आसान होता है कहना
पाप से नफ़रत करो पापी से नहीं
कठिन होता है पापी से नफ़रत न करना
आसान नहीं होता सुख-दुख में समान रहना
कठिन होता है दुखों में विचलित न होना....


अब आप पढ़ो, हम तो सुन आये. आज की कविता चर्चा यहीं समाप्त. हम अभी भी लिखते रहने में सक्षम हैं, बहादुर जो हैं. दावा करता हूँ कोई और इतनी कवितायें सुनने के बाद जगा भी रह जाये तो, लिखना तो दूर. पता नहीं बड़े दिनों से मन था कि एकाध चर्चा ऐसी हो कि सबसे बदला निकाल लूँ. मगर एक तो मेरी चुप रहने की आदत, उस पर शर्मीला व्यक्तित्व और उन सबके उपर, हमेशा लटकती चुनावी तलवार कि कहीं कोई बुरा न मान जाये तो जो दो चार वोट मिलने हैं, उसमें से एक गया ही समझो. मगर आज ही चुनाव खतम हुये हैं और अगला डिक्लेयर होते एकाध महिना तो लग ही जायेगा, तो आज कविता सुनवा सुनवा कर निकाल ही लिया. अब मन हल्का लग रहा है.

अच्छा याद आया, सूचना: इंडिक ब्लागर की वोटिंग का चरण पूरा हो चुका है. अब आपने जिसको भी वोट दिया हो, आप जानें. हमें दिया तो वाह वाह, नहीं दिया तो करनी का फल भगवान देगा. आप इस चुनाव में तो हमारा अब क्या कर लोगे. अरे भाई, मजाक कर रहा हूँ, अभी तो और चुनाव लड़ने हैं. यह कोई आखिरी थोड़े ही था. आगे भूल सुधार कर लेना.

इस दौर में आई आज की सबसे तूफानी और चर्चित धमाकेदार पोस्ट, कीबोर्ड के सिपाही की, भाई नीरज दीवान ने तो आज सबको अपना दीवाना बना दिया.हम तो अपने अगले चुनाव का उन्हें प्रचारक भी घोषित कर आये. अगर आपने यह आठ पोस्ट डिलीट, दो ब्लॉगों के पासवर्ड चोरी नहीं पढ़ी तो इसका मतलब आज आपने कुछ नहीं पढ़ा. अभी भी कल आने में समय है और अगर आज की सारी पोस्टों में से केवल एक पढ़ने की कसम खायी हो, तो यही पढ़ो, बस तर गये समझो:


इस रचना का किसी से कोई लेना-देना नहीं है अलबत्ता रचना पढ़कर कुछ लोगों को लेने के देने पड़ सकते हैं. यदि आपको इसमें कुछ आपत्तिजनक लग रहा है तो भी आप आपत्ति नहीं जता सकते क्योंकि होली के रंग में भंग डालकर यह रचना लिखी गई है. उखड़ने-उखाड़ने की बातों में उलझकर अपना और लेखक का मूड ना उखाड़े.. आप इसे अन्यथा ना लें क्योंकि लेखक ने अन्यथा ले लिया तो अगला लेख विशेष रूप से आप पर लिखा जाएगा. रचना पढ़ें और कमेंट ज़रूर दें. औरों की कमेंट पढ़कर ना कमेंटियाएं .. धन्यवाद
:

इसी पोस्ट पर चिपकी तस्वीर देखें और फुरसतिया जी को जरा ध्यान से देखें क्योंकि अभी उन्हें पढ़ना बाकी है. क्या पर्सनाल्टी है बॉस, दुकान वाला तक हिल गया:




इन्हीं सिपाही महाराज की वजह से हम भी कुछ पोस्ट किये थे मगर पोस्ट पिट गई, बॉक्स ऑफिस पर, इसके पिटने पिटाने के माप दंड अलग जो हैं. खैर आप देख भर लो, मन रह जायेगा गरीब का वाह रे यह चैनल . अभी से हौसला अफजाई को शुक्रिया कहे देते हैं, वहाँ तो मौका ही नहीं लग रहा.

तो यह तो रहा चुनावी चटखट का अंत. मतदान पेटिका में हमारे जैसे आठ लोग, जो कि आपसे संबन्धित हैं, अपनी किस्मत बंद करवाये बैठे हैं. बाकि सब अनिश्चित है सिवाय इसके कि सात का तो पक्का बंटाधार है और हम तो वो सातों नाम जानते हैं मगर बतायेंगे नहीं, चुप रहेंगे. :) देखिये, समय कैसे बदलता है, अब से चंद घंटों पहले तक आप सब चाँद थे और यह आठ चकोर, सब आपकी तरफ टकटकी लगाये बैठे थे. अब वोटिंग खत्म, अब यह आठ चकोर तो चकोर ही हैं, मगर अब चाँद आप नहीं देबाशीष हो गये हैं. अब आठों मुँह बाये उनको ताक रहे हैं. खैर, कल फिर समय बदलेगा. यही प्रकृति का नियम है.

अब चलते हैं मछली पकड़ खेल देखने. इस खेल में, आप पहले स्वयं मछली बनते हैं फिर अपने को पोस्ट लिखकर फ्राई करते हैं और फिर पाँच अच्छे स्वाद वाली नई मछलियां पकडते हैं, फिर वो पाँचो भी यही करते हैं जब तक कि पूरा तालाब न फ्राई न हो जाये. फ्राई होने से मना करने पर और नई मछलियां न पकड़वाने पर आपको समाज निकाला दिया जाता है और इसका बुरा माना जाता है.

इस मछली पकड़ खेल के करेंट सेशन में रचना जी फ्राई होते हुये जिन पाँच को पकड़ा, उनमें से एक तो उन्मुक्त बाबू पहले ही हाजिर होकर जवाब दे गये और अन्य दो हाजिर होकर फ्राई हुये और अपनी पसंद की नई मछलियाँ पकडवा कर किनारे हो लिये. इसमें पहले, रोहू के स्वाद वाले, फुरसतिया जी चिट्ठाकारी-पाँच सवाल पाँच जवाब यह तो भला हो उपर वाले का कि इनसे पाँच ही सवाल पूछे गये, दस होते तो आप उपन्यास पढ़ रहे होते. पूरा हिन्दी चिट्ठाकारी का इतिहास बता गये :


तो रचनाजी, चिट्ठाकारी यात्रा ने हमें ‘ अब कबतक ई होगा ई कौन जानता है के मौज-मजे और कौतूहल से शुरू करके इधर-उधर की गप्पाष्टक करते हुये हिंदी को समृद्ध करने के संकल्प के उस मोड़ पर ला खड़ा किया है जहां हम सोचने और कहने लगे हैं ‘अब हम देखते हैं ई कैसे नहीं होगा’। चिट्ठाकारी हमारे लिये ‘कइसे होगा’ से ‘कइसे नहीं होगा’ तक की यात्रा है जिसकी मंजिल है ‘देखो हम कहते थे अब हो गया न!‘ अपनी तमाम तकनीकी सीमाऒं के बावजूद मुझे इस बारे में कोई दुविधा नहीं है कि अगर हम चाहे तो हिंदी भाषा की समृद्धि के लिये इतना योगदान दे सकते हैं कि खुद हमको ताज्जुब होगा एक दिन -अरे यह हमने किया, हमने कर डाला, वाह क्या बात है।


इसी इतिहास को आगे-पीछे करते, अगली मछली, रोहू की समकक्ष कतला, भाई जीतू हाजिर हुये मेरी पाँच बातें लेकर और अपनी पाँच मछलियों को चिनिहाते ज्ञानी टाईप नजर आये:


रचना ने हमे सम्पर्क तब किया था जब नारद डाउन हुआ था, रचना की बहुत ही मर्मस्पर्शी चिट्ठी मेरे पास आयी थी, जिसमे रचना ने नारद के लिए सहयोग करने के लिए इच्छा जाहिर की थी। रचना की चिट्ठी इतनी भावभीनी और मर्मस्पर्शी थी कि मै भी रचना को जवाबी चिट्ठी लिखने के लिए मजबूर हुआ। इस चिट्ठी के बाद रचना को ब्लॉग जगत मे एक भाई मिला और मुझे एक प्यारी, नटखट और संवेदनशील बहन। वो रिश्ता आज तक कायम है और शायद ताउम्र रहे। कहने का मतलब है कि सम्मान, प्यार और स्नेह कमाया जाता है, मांगा नही जाता।


इसी क्रम में रचना के साथ मछली बनीं प्रत्यक्षा जी अब आईं और कहने लगीं कि चिट्ठाजगत में यह कैसी महामारी प्रभु , मगर फ्राई बहुत स्पीड से हुई जैसे रैपिड फायर राऊंड चल रहा हो और फिर पांच नई मछलियां अटकवा कर आगे चल दीं. यह अच्छी बात नहीं, आपको फिर टैग किया जायेगा और आपको अपनी शैली में ही जवाब देना होगा. बस समय का इंतजार करें. :)

और यहाँ खत्म मछली पकड़ खेल. तरकश आया, तीर छूटा, नया सर्वर स्पेस ले लिया जो संजय भाई ने बताया, मगर तारीफे काबिल यह कदम रहा. आप खुद देखें, खुशी का आत्म विश्वास , अमिताभ बच्चन के स्टेचर के आदमी से बात करते हुये. मान गये भई, खुशी ने जो उत्साह दिखाय है इतने बडे चिट्ठाकार से बिना घबराये बात की, वो तारिफे काबिल है. हर एक के बस की बात नहीं है यह. नहीं मानते तो सुनो इसे, और सुन कर हमें धन्यवाद देते न थकोगे कि वाह गुरु, क्या बात बताये हो. मगर वहाँ खुशी को बधाई संदेश लिख आओ, उसके बिना यह संभव नहीं था कि आप इतने बडे चिट्ठाकार के वाणी दर्शन कर पाते. खुशी को बहुत बधाई, और आगे और बेहतर करने को और शुभकामनायें.


अब आप सब पढते पढते थक गये होगे मगर इन्हें नज़र अंदाज मत करना:

भाई सुनील दीपक जी की छाया चित्रकारी और उनका आलेख भारत में बनी दवाईयां .

फिर देखें: तरुण भाई की फिल्म समीक्षा एकलव्य और दो बोनस और आईना वाले जगदीश भाई की प्रस्तुति: मुन्नाभाई इन अमरीका

और भी बातें हैं जैसे रवि भाई को सुनें- पुस्तक समीक्षा-तुर्रम तथा दिवा स्वपन.

और निलिमा द्वारा पेश का करूँ सजनी आये न बालाम यह पोस्ट विवादित होने की पूरी काबिलियत रखती है और अच्छा हुआ हमारे पहुँचने के पहले हमारे प्रिय प्रियंकर जी हाजिर थे वरना हम तो आदतन कह आये होते, वाह क्या भाव हैं :)
प्रियंकर जी कहे:



आतंकवादी घटना जिस पर क्रोध आना चाहिये और जिसकी कड़े-से-कड़े शब्दों में तीव्र भर्त्सना होनी चाहिये उसके संदर्भ में आपको विप्रलम्भ श्रंगार की भावुकता से भरी ठुमरी का मुखड़ा याद आ रहा है यह देख कर कुछ अज़ीब सा लगा . आपका शीर्षक 'पोस्ट' और 'पोस्ट के साथ लगी फोटो' के साथ कतई न्याय नहीं करता. पता नहीं आपने इस घटना को किस तरह लिया और लिखा है .


चलो, यह सब तो होता रहता है, निपट ही जायेगा. पहले भी इससे बड़े बड़े विवाद निपट गये मगर मैं अभी शोध कर रहा हूँ कि मसिजिवी ने किस तरह जवाब दिया. इसी में डूबा हूँ.

सबको सुना है तो हमारे आज के चाँद देबाशिष को भी सुनो, फेरी लगाते घुमते कह रहे हैं कि डोमेन ले लो, डोमेन!!

यदि आप को रुचि हो तो मुझे debashish at gmail dot com पर ईमेल कर बोली लगायें (टिप्पणी न करें केवल ईमेल करें)। अपने ईमेल में मुझे यह भी बतायें कि आप की इन डोमेन का क्या प्रयोग करने की योजना है। हो सकता है मैं मदद करने के लिहाज़ से आपका साथ भी दे सकूं।


सारे प्रलोभन हैं कि बस खरीद ही लो.

बस कोशिश की कि सब कवर हो जायें फिर भी कुछ छुट ही गये होंगे हमेशा की तरह. तो आप यहीं टिप्पणी में लिंक दे दें लोग पढ़ लेंगे और हमारे चिट्ठाचर्चक कल चर्चा कर लेंगे.

इजाजत हो तो थोडी देर सो लूँ, १२ बज रहा है और ऑफिस वाले समझते ही नहीं कि चिट्ठाचर्चा उनके प्रोजेक्टस से ज्यादा महत्वपूर्ण है, बेवकूफ हैं वो!!! :)

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मंगलवार, फ़रवरी 20, 2007

हे पाठक हरु मम परितापम

हे पाठक हरु मम परितापम
टिप्पणि विरह अनल संजातम
टिप्पणि शीतल मन्द समीरा
अथ अब चर्चाकार उवाचम

सबसे पहले बात खुशी की जो कि खुशी ने खुश होकर की
अपने मित्र समीरानंदा, कुंडलियों की खान रसभरी
पाड्कास्ट पर हुए अवतरित, आप देखिये तरकश जाकर
फिर न शिकायत करना, इसकी चर्चा हमने नहीं जरा की


उड़नतश्तरी सन्दर्भों को टिप्पणियों से जोड़ रही है
चीनू चिन्नी फ़सल काटते, किसी और के बीजों वाली
विन्डो की स्क्रीन बदलना सिखलाते हैं तरुण आज कल
श्रीलंका की तमिल समस्या लोकमंच ने आज उठा ली

जो न कह सके वही बताते छायाचित्रकार मेले में
क्या है अशुभ और शुभ क्या है उलझे हैं दिव्याभ उसी में
अपनी कविता लेकर आया एक यहां पर भारतवासी
नये विचार राम पर लिखते तिरपाठीजी नव कविता में

पढ़ी नीलिमाजी ने बचपन में जो याद उन्हें वह कविता
नस्लवाद से जुड़ी हुई जो, आप पढ़ें, मैं क्या कह सकता
और बात जब चली यहाँ पर पढ़ने और पढ़ाने वाली
ई-पंडितजी को पढ़कर फिर हिन्दी कौन नहीं लिख सकता ?

--इस टूल की मदद से आप Internet Explorer, Firefox, Opera, Notepad, WordPad, MS-Word, Google Talk आदि सभी विंडोज ऐप्लीकेशन्स में हिन्दी टाइप कर सकते हैं। हिन्दी तथा English में Switch करने के लिए F11 या F12 कुँजी का प्रयोग करें। अर्थात आप एक साथ दोनों भाषाओं में लिख सकते हो। हिन्दी टाइपिंग संबंधी किसी भी मदद के लिए आप मुझे ईमेल कर सकते हैं या परिचर्चा Hindi Forum में हिन्दी लिखने मे सहायता नामक Subforum में पूछ सकते हैं। - -




सुखसागर में कुरुक्षेत्र के दूजे दिन का हाल लिखा है
रंजू जी की बुझी राख को कोई आकर हवा दे रहा
जेल कंपनी के चिट्ठों को खोला जाता जनपरिषद में
और मॄणाल पूछते कोई भौंक यहां पर किसलिये रहा

डेस्कटाप पर हैं कीटाणु, नितिन बताते हिन्दुस्तानी
नव आगंतुक एक साथ ही नौ नौ पोस्ट साथ में लाये
तुम होते तो, ख्वाहिश होती, एक कहानी कर्मवीर की
बाकी आप पढ़ें चिट्ठे पर , समय आपको जब मिल पाये

लोकमंच से अंतरिक्ष तक, सब कुछ कॄष्णम समर्पायामी
एक मोहल्ले में घर की हैं बातें सभी बड़ी अरमानी
एक चित्र है, एक बाग है, एक राग हिन्दी वाला है
एक सत्य है, एक ख्याल है, इक कुछ अमरीका वाला है

मसिजीवी ने दिखलाया है, बात कहाँ पर है मर्दानी
दिल के दर्पण में जीवन के पूछ्ह रहे मोहिन्दर माने
इन्द्रधनुष गुजराती गाथा, साहिर की मदमाती रचना
हिन्द युग्म पर शिवशंकर को बुला रहे राजीव सयाने

दिल है हिन्दुस्तानी जिसमें यादों की तितलियां उड़ रहीं
शाम वही है,वो ही गम है और बढ़ रही तन्हाई है
है निनाद गाथा बतलाती खून बह रहा मासूमों का
इसीलिये तो अब नस नस में फिर से बिजली भर आई है.

जितने चिट्ठे पढ़े सभी में टिप्पणियां भी थीं गिनती की
लेकिन एक टिप्पणी जिसका ज़िक्र यहां नीचे करता हूँ
आप सभी अनुसरण करें स्वामी समीर का टिप्पणियों में
बन्द यहाँ पर ये आशा लेकर, मैं ये चर्चा करता हूँ

आज की टिप्पणी: ( मॄणाल कान्त के ब्लाग पर )

अनूप शुक्ला said...
कविता मजेदार है। सिर्फ दो माह लेट। सतर्कता दिवस के समय आनी चाहिये थी। बहरहाल,देर आयद दुरस्त आयद। यह पंक्तियां खासकर जमीं

कण्ठ को मत अनावश्यक कष्ट दो, क्या फ़ायदा है
-जिसको जब मौका मिले तब लूट लो, यह कायदा है।

वैसे कवि को इन कायदों के बारे में जानकारी कैसे मिली?

और जैसा समीर भाई ने कहा कि कनाडा और अमेरिका में इन दिनों ठंड की ही बात होती है





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सोमवार, फ़रवरी 19, 2007

हिन्दी चिट्ठाकारी की रनिंग कमेंटरी...

आज सुबह सुबह एनसीटीबी पर हिन्दी चिट्ठाकारिता के लिए एंकर जी लाइन पर आए और कुछ यूं चालू हो गए-

मसिजीवी के अनुसार लोग दो तरह के होते हैं - एक तो वे जो मनुष्य होते हैं और दूसरे वे जो मनुष्य नहीं होते. उन्मुक्त चिट्ठाकारों को तोहफ़ा दे रहे हैं - उन्होंने पाँच लोगों को और तोहफ़े बांटने के लिये फ़ांस लिया है. उधर हिन्दी-ब्लॉगर चीनी सूअर वर्ष के बारे में बता रहे हैं. महाशक्ति ने लिखा पाँच दिन पहले है, छापा आज है और फिर भी शीर्षक आपके लिए छोड़ दिया है. घुघूती बासूती आज सूर्यमुखी बन गई हैं, और कुछ विचार में 1992 के विचार याद आ गए हैं. निठल्ला चिंतन व्यावसायिक चिट्ठाकारिता पर टिप्पणीनुमा पोस्ट पर चिंतन-मनन में मगन दिखाई दे रहे हैं. हिन्द-युग्म में आलोक शंकर की ईनामी कविताएँ हैं. सिलेमा में प्यास ही प्यास देखी गई. मानसी के यहाँ शाम के नजारे बड़े भले हैं. राग अताउल्लाह खान के साथ राग भैरवी गा रहे हैं. मोहल्ले में पुराने फ़िल्मी गानों को याद किया जा रहा है और इधर मेरा पन्ना में भारत सरकार के राष्ट्रीय पोर्टल पर भरपूर दृष्टि डाली जा रही है....

अचानक लिंक फेल हो गया और स्क्रीन पर नीचे दिया चित्र फ्रीज हो गया -

अब ये बात दीगर है कि तमाम लोग जांच में लगे हुए हैं कि घटिया प्रस्तुतीकरण के कारण लिंक जानबूझकर फेल किया गया या वास्तव में तकनीकी गड़बड़ी थी...

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रविवार, फ़रवरी 18, 2007

रविवारीय चिट्ठा

साथियों,
हम भी आ गया हूँ, रविवारीय चिट्ठा लेकर, यानि कि शनिवार दिनांक १७ फरवरी, २००७ के चिट्ठों की। सबसे पहले तो आइए स्वागत करें नए चिट्ठाकारों अंतर्मन और गोरखपुर से टू फेसेस के हिन्दी ब्लॉग का।

आज के सारे चिट्ठे यहाँ पर देखे जा सकते है।

ई-पंडित जी अपनी ब्लॉगर के हैक वाली कक्षा मे सिखा रहे है पेज हैडर को संशोधित करना । वाल्मिकी रामायण मे गंगा जन्म की कथा पढिए, वहीं उधर महाभारत मे युद्द के प्रथम दिन की कहानी पढिए। देखा जो तुम्हे मैने, कुछ हो रहा है, बहुत दर्द होता है माँ, बेटिकट लालू बोले मै निर्दोष हूँ । मानते हो स्वयं को मेरा शिव, किसका घर जैसे एक से बढकर एक रचनाए आपके लिए प्रस्तुत है। मितुल विकीपीडिया वाले लेख को आगे बढा रहे है। लखनवी परेशान है, कभी ये डे, कभी वो डे, करें भी तो आखिर क्या करें। अनूप शुक्ला बता रहे है भुवनेश द्वारा लिखे हिन्दी ब्लॉगिंग से सम्बंधित एक लेख के बारे में। पूनम मिश्रा की एक कविता दो कप चाय :

मैँ सवेरे दो कप चय बनाती हूँ
और हर रोज़ तुम्हें नींद से उठाती हूं
जानती हूं तुम्हारा अभी जागने का मन नहीं
तुम कुनमुनाओगे, पेट के बल लेटोगे
पर फोन उठाओगे ज़रूर.
तुम "गुड मार्निंग" कहोगे
और मेरी चाय में चीनी घुल जायेगी.



रवि भाई जवाब दे रहे है व्यवसायिक चिट्ठाकारी से सम्बंधित सवालों का। एक सवाल और उसका जवाब मुलाहिज़ा फ़रमाइए:

प्रश्न - मेरे चिट्ठे को नित्य कम से कम कितने लोग पढ़ेंगे तब आय होगी?

उत्तर - एडसेंस दो तरह से भुगतान करता है - प्रतिहजार पेज लोड तथा प्रति क्लिक. यदि मात्र दस लोग भी आपके चिट्ठे को पढ़ते हैं और दसों उच्च भुगतान वाले विज्ञापनों को क्लिक करते हैं तो आपको हो सकता है दस डॉलर मिल जाएँ, और, यह भी हो सकता है कि हजार लोग पढ़ें और कोई क्लिक न करे तो एक भी डालर न मिले. परंतु औसतन यह बात भी सत्य है कि जितना अधिक आपका चिट्ठा पढ़ा जाएगा उतना ही पेज लोड व पेज क्लिक के जरिए अधिक आय होने की संभावना होगी. नित्य कम से कम एक हजार पेज लोड होने पर कुछ बोलने-बताने-लायक आय हो सकेगी. और, जब आपके चिट्ठे को एक लाख लोग प्रतिदिन पढ़ने लगेंगे तो आप यकीन मानिए, अमित अग्रवाल से बाजी मार ले जाएंगे.


अप्रवासियों के लिए बनी निजी जेल के बारे मे बता रहे है, अफ़लातून जी। अजदक आज बता रहे है टाइम की किल्लत के बारे में


खबरी चैनलों पर खामखा बमगोला होना फिजूल है, किसके पास टाईम है? किसी के पास नहीं है. सब टाईम को पैसा में बदलने के बडे सामाजिक उपक्रम में लगे हुए हैं. इस गलतफहमी में मत रहियेगा कि इस उच्‍चादर्शी अभियान में सिर्फ टाटा और अंबानी ही पहलकदमी ले रहे हैं. अहां, पूरा समाज ले रहा है. जो तत्‍काल और झमाझम पैसे बना नहीं पा रहे, उनका टाईम आह भरने और खुद पर शर्म करने में फंस रहा है.


चिट्ठों के नामो पर बता रही है नीलिमा, अपने शोध ब्लॉग लिंकित मन में। जनार्दन भैया की पाती देखिए। जगदीश बढती ब्लॉग पाठकों की संख्या पर पूछ रहे है कि क्या वो लोग आ गए, जिनकी हमे तलाश थी? साथ ही उन्होने अमिताभ बच्चन को चिट्ठी भी लिखी है। जितेन्द्र मुलायम सरकार के गिरने की अंतिम घडियां गिन रहे है वहीं फुरसतिया इन्डीब्लॉगीज अवार्ड के वोट देने की अपील कर रहे है। मनीष की गीतों के पायदान # 5 पर है मेरा भी मनपसन्द गीत "तेरे बिन मै यूं कैसे जिया..."

और अंत मे सूचना के अधिकार के बारे मे बात कर रहे है मसिजीवी जी, बहुत अच्छा लेख, जरुर पढिएगा।

आज का चित्र मनीषा के ब्लॉग से:


जिन मित्रों का चिट्ठा छूट गया है वे इसका दोषारोपण मेरी व्यस्तता को दें, आज दिन भर की व्यस्तता और श्रीमती जी की शापिंग लिस्ट के बीच मे से समय चुराकर चर्चा की है। आशा है आप सभी लोग मेरी परेशानी को समझेंगे।

अच्छा तो भई हम चलते है, श्रीमती जी को शापिंग मॉल मे छोड़कर आए है, वाप्स नही लाए, तो खाना नही मिलेगा। मिलेंगे अगले हफ़्ते, नयी चर्चा के साथ।

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शनिवार, फ़रवरी 17, 2007

देर है पर अंधेर नहीं

चर्चा के दरबार में देर है पर अंधेर नहीं, यह साबित करने के लिये पेश आज की डीलेड चर्चा।

केबल पर पैनल चर्चाओं में समय के टोटे का हाल सुना रहे हैं अज़दक, पर मृणाल थोड़ी गंभीरता से कह रहे हैं

अखबार और टेलीविज़न चैनल बमवर्षक विमानों की तरह जिस ब्रेकिंग न्यूज़ की गोलाबारी हमारे बेडरूम और मस्तिष्क पर कर जाते हैं वह विषय महत्वपूर्ण विषय बन जाता है। परेशान करने वाली बात यह है कि क्या हम इतने सीमित बुद्धि वाले प्राणी हैं कि एक समय में हम कई ध्यान देने योग्य मुद्दों को भुलाकर केवल एक विषय को सर्वाधिक महत्वपूर्ण और गम्भीर मान पाते हैं।

रवि रतलामी ने गूगल एडसेंस के साथ अपने तजुर्बे के हवाले से राय ज़ाहिर की कि "हिन्दी चिट्ठाकारी भी व्यावसायिक रूप से सफलता के झंडे गाड़ने के लिए तत्पर और तैयार है, बस समय की बात है"। इस पर ताउ बोल बैठे, "मेरे विचार से इस लेख का लिंक हर जगह होना चाहिए।" जाल पर हिन्दी का बोलबाला ऐसा बढ़ रहा है कि रवि जैसे चिट्ठाकारों के लेख लोग लिंक क्या समूचा उड़ा कर ही चैंप देते हैं।

पूनम ने "उनको" जगाने के लिये चाय बनाई। दो कप बनाई। रोज़ बनाती हैं पर मेरे ख्याल से चाय में चीनी नहीं मिलातीं। वो "उनके" गुड मार्निंग कहने पर खुद ब खुद घुल जाया करती है। पूनम पहले चाय में अदरक डालती थीं, अब नहीं डालती। अदरक डालने से चाय "ढाबे वाली" बन जाती है। पूनम ने "उनकी" चाय कभी नहीं पी। पूनम जिद्दी हैं। जिद्दी मैं भी हूँ। पूरे पाँच मर्तबा कविता पढ़ी। छठवीं बार पढ़ने से पहले नज़र आई उड़न तश्तरी की टिप्पणी, "मन की उहापोह का सजीव चित्रण, बधाई! बिना कुछ कहे भी बहुत कुछ कहती रचना"। कविता छठवीं बार नहीं पढ़ी मैंने। जब समीर ने नहीं पढ़ी तो मैं क्यों पढ़ूं?#

वैंलैटाईंस डे जैसे हर डे से विचलित अतुल "लखनवी" की धपजी उन्हें मन्ना डे के दर्दीले पार्श्वगीतों के साथ लौकी थमा लर निकल पड़ी शॉपिंग डे पर और ताउ ने हमारे मौकापरस्त देश की परंपरा को कायम रखते हुये घोषणा कर दी ब्लॉग रीडर्स डे की!

हिन्दी ब्लॉगजगत में मेम (Meme) खास लोकप्रिय नहीं। रचना ने "अपने बारे में पाँच तथ्य" के टैग में अपना पक्ष दिया और बकौल उनमुक्त चार "जी" और एक "भाई" को टैग किया।

हिन्दी विकीपिडिया पर अनूप के लेख पर कई पाठकों ने सवाल किया कि लिखना तो है पर आखिरकार विकीपीडीया पर लिखें कैसे। मितुल ने इसी पर हिंदिनी पर दो भागों में लेख लिखा। लेख के भाग 1 और भाग 2 ज़रूर पढ़ें।

बजट क्या है और इसे कैसे प्रस्तुत किया जाता है जानें लोकमंच पर

मासीजीवी बता रहे हैं कि गोदना विमर्श में हिंदी अब हाशिए पर नहीं है। घुघूती बासूती ने टिप्पणी की "अब गर्दन पकड़कर लोगों को हिन्दी पढ़वा नहीं सकते तो उनकी गर्दन पर लिख तो सकते हैं।"

आज का चित्र

आज का चित्र, शुऐब के चिट्ठे पर हमारे राष्ट्रपति की चित्रमय झांकी से

#दिल पे मत लो यारों!

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शुक्रवार, फ़रवरी 16, 2007

॥ॐ नम शिवाय॥

॥ॐ नम शिवाय॥

चिट्ठाचर्चा कैसे की जाये?
क्या सभी चिट्ठों की चर्चा की जाए?
क्या चिट्ठाचर्चा नारद का पूरक है?
क्या चर्चा में एकरूपता होनी चाहिये?
क्या चर्चाकार प्रत्येक चिट्ठे की चर्चा करने को बाध्य है?
ऐसे बहुत से प्रश्न है जो पिछले दिनों उभरकर सामने आ रहें है, फिर चाहे पाठक प्रश्न खड़े करें या फिर चर्चाकार। एक बात जिससे सभी सहमत दिखे वो यह कि इन सभी प्रश्नों के उत्तर उस दिन का चर्चाकार तय करे, सब-कुछ उस दिन के चर्चाकार पर छोड़ दिया जाये कि चर्चा कैसी हो?

इसी उधेड़बुन में चर्चाकार चर्चा छोड़कर सफाई देने, इनका प्रतियूत्तर खोजने में जुट गये। मुख्य कार्य गौण सा होता जा रहा है, पाँच-सात चिट्ठों की चर्चा कर बाकि चिट्ठों के लिंक दिये जा रहे हैं। मैं एक बात अपने सभी चर्चाकार साथियों से कहना चाहुँगा कि पाठक/चिट्ठाकार चर्चा पढ़ने चिट्ठाचर्चा पर आते हैं ना कि चिट्ठों तक पहुँचने के लिए। यह तो चर्चा के साथ लिंक होनें के कारण पाठक/चिट्ठाकार की पहुँच चर्चा से चिट्ठों तक बनी है। चर्चाकार का पहला कार्य है चर्चा करना, इसलिए पसंदीदा चिट्ठों के अलावा भी सभी चिट्ठों की चर्चा की जानी चाहिए, पाठकों/चिट्ठाकारों सभी चिट्ठों के बारे में बताने का प्रयास होना चाहिए, और यही चर्चा का मुख्य उद्देश्य भी है कि समस्त चिट्ठों की चर्चा की जा सके।

अब आज की चर्चा की शुरूआत करते हैं, कविता/गीत/ग़ज़ल से -

सबसे पहले गीतकार की कलम से निकली इन पंक्तियों की गुढ़ता को समझने का प्रयत्न करें –


था बदलता रहा करवटें रात भर
लेटे लेटे मैं बिस्तर पे उल्टा पड़ा
एक जलकाक आवाज़ करता रहा
खिड़कियों के परे झाड़ियों में खड़ा
रोशनी कोई छन छन के आती हुई
मेरी पलकों पे दस्तक लगाती रही
और टपटप की आवाज़ थी इस तरह
जैसे जल का लुढ़कता हो मटकी भरी

और जब समझ में आ जाये तो हिन्द-युग्म पर जाकर अनुपमा जी खूबसूरत गजल का आनन्द लिजियेगा, जहाँ उनका चेहरा हाथों की चादर ओढ़ शर्मसार हो गया है –


उसका नाम जुबाँ पर आता नहीं महफिल में,
चेहरा हाथों की चादर ओढ शर्मसार हो गया..

तो वहीं प्रमेन्द्रजी कह रहे हैं उन्हें यह मालूम ही न था -

मौजूद था मै,
तेरी मौजूदगी में।
शिकायत न करना
कि मालूम न था।।


शैलेशजी को यह परिस्थितियाँ बहुत मुश्किल लगती है, तभी तो वो पूछ रहें हैं (?, शायद बता रहें है) कि कितना मुश्किल होता है -


कितना मुश्किल होता है
पिताजी को यह समझाना
कि
बाबूजी
पढ़ते-पढ़ते अब
जी ऊब गया है।
सब ढकोसले हैं।
बड़ी मुश्किल से
तो मुझे

यह बात समझ में
आयी है

मगर आप नहीं समझ
पावोगे।।

एक ही दिन में पोस्टों का शतक ठोकने का लक्ष्य लेकर उतरे हरिराम जी इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए शक्ति-अर्चना करते नज़र आये –


हे भाई‍‍! इन महामाया जी की बातें, तो मैं सुन चकराया।
पूर्णब्रह्म परमात्मा को भी, जिसने पग-पग नाच नचाया॥

साहित्यकारों की चाटुकारिता, जग को विभ्रम में यूँ डाला।
संग्राम समर में पूर्ण निपुण, नारी का नाम दिया क्यूँ अबला??

आठों अवगुण आठ पहर नित, इनके तन में बसा हुआ।
कामदेव धनुष सन्धाने, त्रिनेत्र भृकुटि पर सदा चढ़ा हुआ॥

हरि ने जब अवतार लिया तो, स्वयं राधिका बन आई।
कृष्ण के हाथ में दे बाँसुरी, प्रेम मदमाती धुन सुनवाई॥

तो प्रियंकरजी अपनी बहन नंदनी के लिए कविता-पाठ करते नज़र आये -


नंदिनी
मेरी बहन
कहती है
मैं लिखूं उस
पर एक कविता

उसे कैसे समझाऊं कि
कविता लिखने से
कहीं अधिक
मुश्किल है

कविता पर लिखना
यानी कितना कठिन है
शब्द में भाषा में
व्यक्तित्व का
वैसे का वैसा दिखना


वह मानेगी ही नहीं
यह सच कि
कविता को जीना

उसके द्वारा संभव है
पर जीवन की लय
को

कागज पर उतारना
मेरे लिये असंभव है
प्रियंकर जी इस कविता का शायद देवेश वशिष्ठजी को पूर्वाभास हो गया था तभी एक दिन पहले ही वे बहुत खुश हुए और उन्होंने इसी शीर्षक से एक कविता भी लिख डाली (निवेदन : नये चिट्ठाकार हैं, टिप्पणी अवश्य प्रदान करें) -


अब खुश हूँ ।
अब तक सब कुछ एकतरफा था॰॰॰
अब भी है॰॰॰
पर सुबह
तुम्हारा सपना आया,

सुबह-सुबह॰॰॰॰।
घर में मेरी मम्मी है॰॰॰
मैं हूँ॰॰॰
तुम भी हो ।
वैसी ही जैसी
तब थी।

गुरनाम सिंह जी पहले तो काव्य का गुलिस्ताँ बनानें में जुटे रहे और जब काव्य बन गया तो मुस्कुराने लगे -


चलो आज मिल कर एक गुलिस्तां बनाएँगें, जिसमे रंग बिरंगे फूल खिलाएँगे
हर आपसी रिश्ते को आपस मे मिलाएँगें, ख्वाबों का एक नया महल बनाएँगे



मै भी हँसना चाहता हूँ, मुझे एक मुस्कान दो,
खुशी की छोटी सी लहर, मुझे भी कहीं से ला दो,
इन बदिंशो की बेड़ियों सो मुझे अब आराम दो,
जी लूँ मै अपनी ज़िन्दगी के कुछ पल अपने लिए,मुझे ये वरदान दो

इसी मुस्कान के साथ आगे बढ़ते हुए आप बच्चनजी की कविता प्रतिक्षा का भी आनन्द लें -


मौन रात इस भाँति कि जैसे, को‌ई गत वीणा पर बज कर,
अभी-अभी सो‌ई खो‌ई-सी सपनों में तारों पर सिर धर
और दिशा‌ओं से प्रतिध्वनियाँ, जाग्रत सुधियों-सी आती हैं,
कान तुम्हारी तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता ?

और मिर्जा ग़ालिब के अल्फ़ाज उन्हीं के शेरों में पढ़ने का भी आनन्द प्राप्त करें -


हम भी मुहँ मे जबान रखते हैं
काश पूछो कि मुद्दा क्या है

जब की तुझ बिन नही कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ऐ खुदा क्या है

क्या कहा? आपको यह सब अच्छा लगता है तो भय्या अपनी स्वर्णाजी भी यही कहती है, तभी तो उन्होंने अपने चिट्ठे का नामकरण करने के साथ-साथ अपनी पुस्तक का नाम भी यही रखा है – “अच्छा लगता है”, कल उन्होनें एक साथ दो-दो कविताएँ प्रकाशित की -

काश.....
राह पर खडे दऱख्त
कुछ बोल पाते
अपनी ज़बानी
अपनी गवाही
दे पाते
तो

कितने किस्से कह पाते
काश......
ये कुछ बोल पाते

जहाँ अपनी पहली कविता में वो राह पर खड़े दरख्त के न बोल पाने पर चिंतित दिखी तो वहीं दूसरी कविता में उन्होनें सभी को महाशिवरात्री पर शुभकामनाएँ भेंट की -

जोगी है आया तेरे द्वारे
जटाजूट भस्म विभूत हैं धारे

प्रिय दरसन की आस है पर
भवति भिक्षांह देहि पुकारे

नील अंग है मृग छाला वसन
भूत पिशाच का देव करे भजन

वृषभ पर सवारी है करे
ताज बना शीश पर भागीरथी धरे


मान्याजी ने भी मौका देखकर एक पाती अपने सांवरे के नाम लिखकर भिजवा दी -

तुम पीताम्बर पहन जब बांसुरी बजाते...
मैं सोलह सिंगार किये भाव-विह्वल हो,
सुनती तुम में खोकर, पल-पल बजती निगौड़ी पायल
ऐसे ही बीतता हर पल जो तुम होते मेरे संग।


डिवाइन-इण्डिया भी सपनों के साथ अठखेलियाँ करता नज़र आया -


मैं प्रात: था इस जीवन में जब
त्रियमा नें अंधकार रचा...पर...कैसा था...
वो रूप सुहाना जिसके विभिन्न रस्मियों ने
अपना चैतन्य विस्तार किया


सिलेमा भी कल काव्य-रस में भीगा नज़र आया, शिल्पा के लिए रचा काव्य बहुत ही सुन्दर है -


जिंदगी भी क्‍या फ़रेब है शिल्‍पा
इसे तुमसे बेहतर कौन जानता है
और अब इसी फ़रेब को तुम
हक़ीकत और अपनी जिंदगी
बना रही हो. खुद नाच रही हो अपने पीछे
हम सबको नचा रही हो.


बढ़ती ठंड के कारण में चर्चा बीच में ही छोड़कर जा रहा था तभी रंजनीजी ने बुलाया और कहा कि गर्म हवाओं की तरह तुम्हारे आस-पास मेरा साया है -


एक सिरा नहीं, एक मंज़िल नहीं
जब से तुझे पाया है.
क्षितिज की स्वर्णिम रेखा कहाँ गई
यह प्रश्न तेरे से खिचीं रेखा में पाया है.
लहर का कौन सा किनारा है,
समुद्र की थाह को चुप सा पाया है.
गुम हो तुम गर्म हवा की तरह
आसपास शायद मेरा साया है.


और अब इस श्रेणी में सबसे अंत में मगर सबसे खास रामचंद्र मिश्रजी का शेर -


नींद तो मौत के बिस्तर पे भी आ जाती है,
उन के आगोश मे सर हो ये जरूरी तो नही।


यहाँ तक चर्चा का मेरा उद्देश्य मात्र यही था कि समस्त चिट्ठाकारों और पाठकों को अवगत करवा दूँ हिन्दी चिट्ठाजगत में कवियों की संख्या जिस रफ़्तार से बढ़ रही है उसे देखते हुए यह तो तय लग रहा है कि भविष्य काव्य का ही है। :)

अब संक्षिप्त चर्चा में बाकि बचे चिट्ठों को निपटाते है, इसी क्रम में सबसे पहले हरिराम जी कल की पोस्टों से शुरूआत करते हैं -


उन्होनें सबसे पहले तो अंतर्जाल पर हिन्दी की समस्याओं एवं संभावनाओं को व्यक्त करते हुए एक आलेख लिखा और फिर पुछने लगे कि क्या कम्प्यूटर क्रांति लायेगी हिन्दी क्रांति? इसके बाद उन्होंने श्रम विद्युत की बैटरी, शक़ का भुमण्डलीकरण, वाहन के प्रदूषण से बचाव, बूँद-बूँद से मिल सागर भरता, भगवान की भूल... जैसे आलेख लिख मारे, मगर बाद में उन्हें चिंता सताने लगी की लोग क्या कहेंगे? अरे भाई जब लिख मारा तो लिख मारा चिंता काहे कि।

ई-पंडितजी अपनी क्लास में ब्लॉगर टैम्पलेट का बैकअप लेना और उसे रिस्टोर करने का तरिका बतला रहें है और साथ में जगह-जगह सभी को धमका भी रहें है कि क्लास से बंक मारी तो अंजाम अच्छा न होगा। जुगाड़ी लिंक पर जितु भाई बता रहें है कि अपने चिट्ठे पर गाने कैसे बजायें और इसके अलावा भी बहुत से मस्त जुगाड़। लोकमंच पर पढ़े – हिन्दू दार्शनिक चिंतन के सोपान, नींद तो सिर्फ़ नींद है, लद गया जमाना रिमिक्स का और संसद में अपराधी या अपराधियों की संसद। ये चारों आलेख शुरू से अंत तक बांधे रखने के साथ-साथ सोचने को भी मजबूर करते हैं।

वाल्मिकी रामायण में धनुष यज्ञ के लिए प्रस्थान हो चुका है और सुखसागर में एक बार और धार्मिक कार्यक्रम छोड़ इघर-उधर की चर्चा की जा रही है। मंतव्य में पाताल भैरव की अगली किस्त हाज़िर है, जो कह ना सके मैं कान खींचे जा रहे हैं, अफ़लातूनजी बी.बी.सी हिन्दी से साभार बता रहें है कि ‘दो तिहाई आबादी को होगी पानी की किल्लत’, तो झा जी बतला रहें है बिहार का पहचान से विकास तक का सफ़र, सुरेशजी बतला रहें है कि काग़ज एक राष्ट्रीय सम्पति है, मिसीजीवीजी ने बादशाह को नंगा करने प्रयत्न किया तो शुएब चुटकुला सुनाने लगे। अज़दक पर दमदार आलेख छूटी सोच की सोहबत योगिता के संग पढ़ने को मिला तो रवि भाई विंडों विस्टा पर हिन्दीमयी नज़र डालते नज़र आये, अच्छी जानकारी है विस्टा के बारे में। इस अवसर पर जीतु भाई भी एक अनमोल उपहार दे रहे हैं तो उन्मुक्त प्रेम पर प्रश्न चिन्ह लगा रहें है। सागर भाई बतला रहें है कि उनके पसंदीदा धारावाहिक कौन-कौन से है, तो मोहल्ले में धीरूभाई अंबानी और सुब्रत राय सहारा वाया गुरुकांत देसाई का नक़ाब उतारने का प्रयास किया जा रहा है। अज़दक पर एक और उम्दा आलेख ऊँची इमारतों के अंधेरे प्रकाशित हुआ है और मिश्रजी बतला रहें है कि 14 फ़रवरी की सुबह क्या-क्या हुआ?


और अब अंत में समस्त चिट्ठाकारों एवं पाठकों को महाशिवरात्री पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ देते हुए विदा लेता हूँ।

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