सोमवार, अप्रैल 30, 2007

मेरे क्षीण महीन भी क्यों लिख दिए अपराध ?

कुछ दिनों से पाठकों की मांग थी - टिप्पणियों के जरिए नहीं, और न ही ई-संपर्कों से. बल्कि सिक्स्थ सेंस से. इसीलिए प्रस्तुत है फ़रमाइशी, व्यंज़लमय चिट्ठा-चर्चा.

**-**

उनके धीर गंभीर थे फिर भी छोड़ दिए
मेरे क्षीण महीन भी लिख दिए अपराध

कव्वों को दो टुकड़ा डाल वो सोचते हैं
अब तो हमारे भी सारे मिट गए अपराध

कल कुछ और था कल होगा कुछ और
यारों आज तो हमने छोड़ दिए अपराध

लोगों ने किए होंगे तो आखिर क्योंकर
यही सोच के हमने भी कर दिए अपराध

बहुत सोच के किए थे ये कुछ सवाब
उन्होंने फिर भी करार दे दिए अपराध

मेरे हाथों का करम है या उनकी तकदीर
जब भी किए सवाब वो हो गए अपराध
**-**

निवेदन है कि व्यंज़ल के अर्थ से लिंकित चिट्ठा-पोस्टों को न जोड़ें. व्यंज़ल पहले लिखने में आ गया(यी) और टॉस-उछाल कर उटपटांग तरीके से चिट्ठों के लिंक दे दिए गए. आपका गरियाना स्वाभाविक है. जूते चप्पल अंडे टमाटर सब चलेंगे.

चलते चलते - सृजन-गाथा के श्री जयप्रकाश मानस को हिन्दी चिट्ठाकारी के लिए हाल ही में पुरस्कृत किया गया है. अपनी बधाईयाँ व शुभकामनाएँ यहाँ दें.

चित्र - ऊपर का चित्र किस चिट्ठे के बाजू पट्टी का है?

एक नजर इधर भी - देखें बिना पलस्तर की दीवार पर टंगे चिट्ठे का अद्भुत दर्शन.

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रविवार, अप्रैल 29, 2007

कल (की) कथा वाया बाईपास


चिट्ठाचर्चा हम नित प्रतिदिन एक कठिन काम बनता जा रहा है कारण साफ है पोस्‍टों की संख्‍या बढ़ रही है, इतनी पोस्‍टें समेटना तो छोडिए देख भर पाना कठिन होता जा रहा है। हम तो ऐसी कोशिश भी नहीं करने वाले आज।
आसान सा काम करेंगे करेंगे, आज की चिट्ठाचर्चा में पोस्‍टों पर चर्चा नहीं करेंगे बाईपास से निकल लेंगे केवल टिप्‍पणियों पर चर्चा करेंगे। वैसे जानने वाले जानते हैं कि पोस्‍टों वाले काम से कहीं मुश्किल काम है। भला लगे तो आशीर्वचनों के लिए टिप्‍पणियों का कटोरा नीचे रखा है...टपका दें। वरना कोई बात नहीं....अपने काकेश भाई अपनी पसंद के चिट्ठों की चर्चा शुरू किए हैं और अच्‍छी किए हैं। नजर डालें...पता नहीं क्‍यों नारद पर तो अभी हैं नहीं, शायद सोमवार का चक्‍कर होगा, पर हमें तो प्रयास अच्‍छा लगा। आप बांचें और बताएं। हम तो बता आए हैं।

तो कुल मिलाकर आज की पोस्‍ट हैं यहॉं पर उनमें से कुछ पर की गई टिप्‍पणियॉं यहॉं हैं बाकी चिट्ठों पर तो हैं ही।

कविताओं से कल की चर्चा में किनारा सा था इसलिए उन पर हुई टिप्‍पणियों से शुरू करते हैं। रंजू की कविता पर डिवाइन इंडिया ने बदलाव के लिए साधुवाद दिया है। अभिषेक के चिट्ठे पर आतिफ के संगीत को मनीष ने सूदिंग म्‍यूजिक करार दिया है। तुषार जोषी की कविता पर सबने उन्‍हें जन्‍मदिन की बधाई दी है। देवेश की कविता के शीर्षक पर अमरीका में दादा कोंडके की छाप हो देखी गई जो रविरतलामी और जितेंद्र ने बाकायदा दर्ज की। कविता एड्स से बचाव पर नहीं है। मेरी भी एक मुमताज थी पर टिप्‍पणियों में मन्‍ना डे का जन्‍मदिन मनाया गया। रमा के घर विषयक उच्‍छवास पर काव्‍यात्‍मक उच्‍छवास ही व्‍यक्‍त हुए, अच्‍छा हुआ न तो वहॉं नोट पैड पहुँचीं न अभय तिवारी...महाभारत टल गया। कविताकोश वाले मुफ्त में लोगो चाहते थे वहॉं ईपंडित उन्‍हें नाम ही बदलने की सलाह दे रहे हैं, गए थे रोजा छुड़ाने नमाज गले पड़ गई।

बाकी सब सुझाव बाद में पहले इसकी वर्तनी सही कीजिए। कोश नहीं कोष होना
चाहिए। अतः नाम बदलकर कविता कोष करें।
पता नहीं कोष की गलत वर्तनी क्यों प्रचलित हो गई ?


पर वहाँ हम उनसे भिड़ गए हैं- वे पता नहीं स्‍कूल में कौन सा विषय पढ़ाते हैं पर हम हिंदी के मास्‍टर हैं :) ।
दीपक बापू की कविता पर दिव्‍याभ की टिप्‍पणी खूब रही।

वो कहते हैं न कि शराब भी हम पियें और देख कर भी हम ही चलें…यही बात यहाँ भी लागू होती नजर आती है…। बधाई!!सुंदर रचना…।

बची, अंतर्मन की कविता उसमें सूरजमुखी हैं पर टिप्‍पणी नहीं (अब तक)

गैर कविताई पोस्‍टों पर में नई टिप्‍पणियों पर विचार करें तो सृजन बनाम मोहल्‍ला (अच्‍छा भला केवल मोहल्‍ला विवाद था, सृजन आकर न जाने क्‍यों फंस गए..) पर श्रीश की टिप्‍पणियॉं और सृजन की प्रतिटिप्‍पणियॉं आईं हैं देखें..मिलेगा वही जो आप बिना देखे सोच रहे हैं कि मिलेगा। इस मामले से नारद पर सवाल श..श..श की आवाज में उठने लगे हैं यह मेरा ई पन्‍ना पर हुई टिप्‍पणियों से पता चलता है। इस विवाद के हाशिए पर अरुण ने नया पंगा लिया है लेकिन इसबार तो सृजन तक उनसे सहमत नहीं हैं-



@ अरुण,जैसा कि मैंने ऊपर कहा कि किसी के भी धार्मिक विश्वासों के बारे में
अशोभनीय या अप्रिय बातें कहने का आपको अधिकार नहीं है। जो काम मोहल्ला कर रहा है, आप भी उसी पर उतर आए! इन वीभत्स तस्वीरों को दिखाकर कुछ साबित नहीं किया जा सकता।आप अपने विश्वासों और आस्थाओं की पवित्रता और महानता का प्रचार कर सकते हैं तो वह कीजिए। दूसरों को भला-बुरा कहने से, खासकर धर्म के मामले में कुछ हासिल नहीं होता।


अब पंगे का क्‍या है नोटपैड तो शनि से भी पंगे ले रही हैं और लोग भयभीत से सलाह दे रहे हैं कि ऐसा न करें। प्रमोद ने अपने उपन्‍यास में पंगा लिया मान्‍या से-



चार कदम आगे मान्‍या मिल गई. सिर झुकाये गुमसुम बैठी थी. मैं हैरान हुआ.
कहे बिना रह नहीं पाया- क्‍या बात है, भई.. बहुत दिनों से तुम्‍हारी शेरो-शायरी, दोहा-चौपाई कुछ दिख नहीं रहा?

इस पर बेनाम ने कहा...


बहुत अच्‍छा है, छंद के तो कहने की क्‍या। लेकिन संभलो गुरु, कहीं मान्‍या
ने देख लिया तो दौड़ाकर मारेगी।

एक अन्‍य पुरबिया पोस्‍ट में बकौल अभय तिवारी प्रमोद लल्‍लन टाप माल लाए हैं।
बजारवाले राहुल पेठिया की पैठ लेकर आए और रंजू शहर गांव के बीच दोलन करने लगीं।



गांव की याद दिला दी आपके इस लेख ने ..पर नीचे वाला चित्र देखा तो वापस
अपने शहर में आ गये :)अब तो यही अपना हाट बाज़ार है ..:)

अनामदास की शब्‍दों की शवयात्रा की चर्चा को सब सार्थक मान रहे हैं।

और अंत में दो दिन की शादी वाली छुट्टी में सुना है कि समीर भाई फिर से अदनान सामी बनकर लौटें हैं,


इतने दिन की मेहनत सारी
अब तो मटिया मेट हो गई
शर्ट कसी है पेट के उपर
पैन्ट लगे लंगोट हो गई.

मोटों की बिछड़ी दुनिया में,
फिर से मेरी पूछ हो गई!!!!!
मेरी मेहनत की अब दुश्मन
दो ही दिन की छूट हो गई!!!



उन्‍हें टिप्‍पणियॉं मॉडरेट करने का अभी मौका नहीं मिला है।

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शनिवार, अप्रैल 28, 2007

इंटरनेट के तार के पंछी

अनूप ने डपटकर पूछा क्यों आजकल बड़ा जी चुराते हो चिट्ठा चर्चा से। कहीं ऐसा तो नहीं कि शनिवार को चर्चा न करने का कोई धार्मिक तोड़ निकाल लाये हो। मैंने कहा नहीं चिट्ठे इतने लिखे जाने लगे हैं कि अब चर्चा करना मुशकिल होता जा रहा है। अनूप बोले तुम तो खामखां टेंशन लेते हो ये बोलो कि चिट्ठे पढ़ने का शऊर ही नहीं है तुम्हारे पास, पचास प्रतिशत चिट्ठे तो कवितायें हैं, उसमें से आधी अतुकांत जो तुम्हारी लयकारी के पैमाने पर फिट नहीं बैठतीं पर कम से कम बेजी की कविता देख लो, सरल भाषा में लिखा है, कोई युग्म वुग्म का चक्कर नहीं है। मैंने कहा चलिये कविता न सही बकिया चिट्ठे तो हम बाँच ही लिया करते थे पर अब तो हर तरफ खेमेबाजी है, सारा ब्लॉगमंडल मुहल्ला के नाम पर कब्बडी खेल रहा है, कुछ लोग तो इसी का नाम लेकर झांसा भी दे देते हैं, बात क्रिकेट की नाम मुहल्ला का। अनूप बोले तुम खेमेबाजी से डर रहे हो या गलत खेमे में होने से? मैं बोला, "अनूप ये तो कई लोग कह ही रहे हैं कि हिन्दी चिट्ठाकारी का हनीमून पीरीयड खतम हुआ और पंगेबाजी का शुरु और अपनी तो पंगों से वैसे भी फटती है"। अनूप बोले, "किस ने कहा, हनीमून तो शुरु हुआ है अभी, अब तो लोग ब्लॉगिंग कर ना करें अखबारों में ज़िक्रित हो रहे हैं, गोया पेपर ब्लॉगर कोई जुमला होता तो फिट बैठता"। मैंने कहा, "वई तो, ब्लॉगिंग से ज्यादा मेटा ब्लॉगिंग"। अनूप ने हामी भरी, बोले, "अब बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे, तुम्हारी तरह मैं भी व्यथित हूं, पर इंटरनेट के तार पर हमारे जैसे और भी पंछी हैं ये भरोसा रखो, तुम्हें कोई गुप्त रोग नहीं हुआ है। तुम अकेले नहीं हो जो कंफ्यूज्ड हो, नौ साल आईटी में रहकर मिर्ची सेठ तक समझ नहीं पाये, दुविधा छोड़ो, तुम्हारी ब्लॉगराईन तो वैसे भी मायके में हैं, तो रविश के फ्रिज से एक ग्लास ठंडा पानी पियो और अच्छे बच्चे की तरह लिखने बैठो चर्चा नहीं तो जीतू की जगह नारद का कामकाज तुम्हारे हवाले करवा देता हूं फिर साइबर गलियों में घूमते फिरना हेल्मेट पहने"। मरता क्या न करता।

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बुधवार, अप्रैल 25, 2007

एक चिट्ठे की चर्चा!!!

आज तो मैने ठान लिया है. आज मैं बस एक चिट्ठे की चर्चा करुँगा. ये जो रोज रोज ५० पोस्टें आ रही हैं, किस किस की बात करुँ. यह चिट्ठाजगत के लिये तो अच्छी बात है और मेरी शुभकामनायें हैं कि ५० की जगह ५०० हो जायें. भाँति भाँति के विषय पर पढ़ने मिलेगा. जितना पसंद आये पढ़ो, नहीं तो बत्ती बुता के सो जाओ. मगर जब चर्चा करने बैठो, तो इतनी तो नहीं की जा सकती है न!! कहीं तो सीमा निर्धारित करनी होगी कि एक बंदा इतनी ही चर्चा करेगा. सो हमने सीमा निर्धारित कर ली है कि एक चिट्ठे पर चर्चा करेंगे बस.

अब झंझट ये फंसी है कि वो एक कौन?

क्या मैं फुरसतिया जी का चयन करुँ, जो रिचर्ड गियर के द्वारा शिल्पा शेट्टी को लिये चुंबन का पोस्ट मार्टम कर रहे हैं.


क्या नज़ाकत है, कि फुरसतिया पीले पड़ गये
उसने तो बोसा लिया था रजामंद जागीर का.


अरे, भाई जी, दोनों की रजामंदी मे हो गया अह्हा, आनन्दम आनन्दम. अब आप लाख पोस्टमार्टम करेंगे अपने बेहतरीन अंदाज में तो हमें तो दो बार मजा आ जायेगा. एक बार जब उसने चूमा और एक बार जब आपने उस चुंबन को अपनी कलम से चूमा.

मगर फुरसतिया जी को तो सब नारद पर देखते ही पढ़ लेते हैं तो उनकी चर्चा क्या करना. किसी और को ही देखता हूँ.

एक बार दिल में आता है कि किसी कविता पर बात कर देता हूँ. आज तो कविता की तादाद भी ठीक ठाक है, उसी में से एक उठाता हूँ.

शैलेश भारतवासी को सुनाऊँ :


ज़िंदगी बस मौत का इंतज़ार है, और कुछ नहीं।
हर शख़्स हुस्न का बीमार है, और कुछ नहीं।।



या फिर मोहिन्दर भाई की रचना तो कोई बात नहीं हिन्द युग्म पर या कि फिर राजेश चेतन जी की दादा बी और उन्हीं की राहुल जी :



अपनी कॉपी खुद ही अब तो जांच रहे हैं राहुल जी
निज पुरखों की गरिमा को ही बांच रहे हैं राहुल जी
अटल बिहारी के शासन में रोड़ बने जो भारत में
अब उन पर क्यूं झूम झूम कर नाच रहे हैं राहुल जी


वैसे तो बात ही करना है तो मोहिन्दर जी अपने खुद के ब्लॉग पर भी कविता लिखें हैं:

छोड दुनिया के काम बखेडे,
आ बैठ, कुछ बात करें

उसी पर कर लें. मगर फिर लगता है कि नेता और नरक का द्वार भी तो बढ़िया कविता है और टू फेसेस जब धर्म वीर भारती जी सुनवा रहे हैं तो उन्हीं को सुनवा दें.

वैसे तो नये नये पधारे अरविंद चतुर्वेदी की कवरेज की बनती है इनकी पहली कविता के साथ: स्वर बदलना चाहिये मगर इसके चक्कर में रमा जी की हास्य रचना 'चमचे का कमाल' भी तो नहीं छोड़ी जा सकती. और जब एक हास्य रचना नहीं छोड़ी जा सकती तो दूसरे ने क्या पाप किया है. प्रॉमिस कि खतरनाक गोली को कैसे छोड़ दें. इनको नहीं छोड़ रहे तो दीपक बाबू कहिन को कैसे छोड़ सकते हो. क्या लिखे हैं: दर्द का व्यापार यहाँ होता है . वैसे, एक बात ज्ञान की बताता हूँ, आपने हर चीज में आत्म निर्भरता देखी होगी , मगर अगर टिप्पणी पाने मे आत्म निर्भरता का रिकार्ड देखना हो तो दीपक बाबू के चिट्ठे पर जरुर जायें. हर पोस्ट पर पहली टिप्पणी खुद की...जिन पर भी सिर्फ़ एक टिप्पणी है. इत्मिनान से मान लें कि इनकी खुद की है. अरे, कुछ तो सीखो बंदे से....फाल्तू ईमेल भेजते हो कि भईया टिपिया दिजियेगा.....अरे, खुद काहे नहीं टिपिया लेते, दीपक की तरह. मुझे उम्मीद है कि यह कृत चिट्ठा समाज में एक नई अलख जलायेगा---जय अलख निरंजन!!!


चलो, हिम्मत करके इनकी भी न बात करे, जब एक ही करनी है और वो भी कविता में तो हाशिये की करते हैं...अपना देश एक खस्सी है और अगर वो भी न जमती हो तो फिर तो कोई और कविता है नहीं, गद्य पर ही जाना होगा.

मगर गद्य में भी कौन..कोई एक..बड़ा मुश्किल है फिर भी कोशिश तो करते हैं: कमल कहते है NTPC खरीद लो. गारंटी शून्य है तो इनको छोड़ देते हैं. रेल्वे स्टेशन पर पलते बच्चे पर ज्ञानदत्त जी का आख्यान भी बेहतरीन है, काहे छोडूं मगर फिर क्या विकास की मजनूँ पुराण न कवर करूँ. बड़ा डूब कर आत्ममंथन करते हुए लिखा गया है. यह मेरे बस में नहीं है.

मेरे बस में तो यह भी नहीं कि राजलेख जी अपना दर्द सुनाने चले तो उन्हें छोड़ दें. मगर क्या करें जब एक ही पोस्ट की बात करना है तो अरुण को कवर कर लें जो कह रहे हैं कि आओ माफी माफी खेलें. अरे, इनको नहीं पहचाना, यही तो पंगेबाज हैं. इनसे पंगा नहीं-वरना!!! अब इनसे नहीं तो उनसे भी नहीं...वो तो हमारे खास हैं भाई मसीजिवी- कहते हैं कि सागर अविनाश से नाराज है तो मसीजिवी क्या करे. हम समझने की कोशिश कर रहे हैं कि इनसे कुछ करने को किसने कहा?? हा हा!!! मगर ई करेंगे जरुर. बहुत खूब, महाराज!!

लोकमंच तो खैर हमेशा से अपनी बात कहता रहा है अलग अंदाज में सो आज भी कह गया कि ये पत्रकार नहीं...चारण भाट हैं, अब इस पर क्या बात करें. मजबूरी है न!! एक ही पर बात करना है.

तो जब एक ही पर बात करना है तो हमारे प्रिय अभय तिवारी का आख्यान सुनें कि मुम्बई की किताबी दुनिया कैसी है या फिर मनीष भाई की नजरों से देखें कि हिन्दी चिट्ठा का वर्तमान और भविष्य कैसा है.

मैं तो उलझ कर रह गया हूँ. अब महावीर जी की बात न करुँ तो यह कैसे हो सकता है जबकि वो बता रहे हैं कि अनिद्रा से विष्णु जी परेशान हैं , क्या हास्य व्यंग्य में बात कही है. वैसे हो तो यह भी नहीं सकता कि दीपक जी जिक्र न किया जाये जो बता रहे हैं कि गर्मी में पंगा, गले से पंगा... अगर आपको समझने में तकलीफ हो तो उन्होंने शीर्षक में ही बता दिया है कि यह व्यंग्य है वरना कहीं आप इसे आप इसे कहानी न मान लें.

अब ऐसा है, जब ठान ही ली है कि एक की बात करेंगे तो क्या सोचना. चाहे रवि रतलामी का बेहतरीन अति लम्ब आलेख ऑटो के पीछे क्या है , जो कि गजब का है, वो छूटे या हर्षवर्धन का कि चीनी विकास का SEZ मॉडल भारत में काम का नहीं , क्या करें. छोड़ तो हम सुनील दीपक जी जैसे उच्च स्तरीय लेखक का आलेख भी दे रहे हैं मानव शरीरों की आमूर्त कला , मगर आप जरुर देखना और इसे भी, जो राजेश भाई ने लिखा है कि क्या चंद्रयान वाकई चाँद पर जायेगा.....इसी बहाने आप पंकज बैगाणी का आलेख भी वही की लिंक से पढ़ लेंगे, यह हुई न एक पंथ दो काज वाली बात. मगर यह सब तो हम छोडे दे रह हैं और हम तो प्रत्यक्षा जी के गन्ने के खेत और गुड निर्माण तक की बात नहीं कर रहे. हम तो नोट पैड की लैंस डाउन
की यात्रा वृतांत
तक नहीं कवर कर रहे..क्या चित्र पर्दशनी लगाई है, मगर हमारी मजबूरी है.

हम तो आज पद्य गद्य का मिलावड़ा- बेजी की प्रस्तुति गांधी के तीन बंदर बस कवर करेंगे और कुछ नहीं. चाहे वो यह ही क्यूँ न हो कि गाँधी बिकाऊ है या जीतू के आलसी लोगों के लिये उपाय ..हमें तो रेडियो सिलोन तक नहीं सुनना .

चलो अब चला जाये, यह एक की तरफदारी करना लफडे का काम है, अपने बस का नहीं..आगे से ऐसा नहीं करेंगे. और ऐसा करने में जो छूट गये हो, वो निश्चिंत रहें, रचना जी, जिन्हें आज चर्चा करनी थी, घूमने निकल गईं, शायद कल आ कर आप लोगों को कवर कर दें. यह मेरी आप लोगों के प्रति हितैशी भावना बोल रही है.जबकि ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला है..बाकि सब चंगा..आप लोग टिप्पणियां करें वरना बुरा लगता है.

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मंगलवार, अप्रैल 24, 2007

बनती एक गज़ल

समय अगर हमको मिल पाता बनती एक गज़ल
किन्तु आज बस पढ़ना केवल, बनती एक गज़ल

आये वे फिर चूमा फिर वो चले गये निज पथ पर
कहाँ गये वे ढूँढ़ रही है नजर अभी भी सत्वर

व्यवसायिकता की उड़ान ले दॄश्य देख अनचाहे
फ़ुरकत की शब बिना शीर्षक गाहे और बगाहे

मैं आवारा ढूँढ़ रहा खुश्बू में रँगा ज़माना
जिसमें सबका एक ध्येय हो चिट्ठों पर टिपियाना

सही जगह पर महानगर की दीवारों मे बचपन
ज़हर सभ्यता की पी, बाँधें माफ़ी के अनुबन्धन

नज़्म फ़ैज़ की सुन कर देखें घुंघरू क्या क्या बोले
बाकी के चिट्ठों का बक्सा बस नारदजी खोले

विघ्नविनाशक के वाहन की गाथा जो कोई गाये
हर कोई उसके चिट्ठे पर जा जाकर टिपियाये

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सोमवार, अप्रैल 23, 2007

दूरदर्शन का अदूरदर्शी चेहरा...



पिछले दिनों भारतीय टीवी समाचार चैनलों ने हिन्दी चिट्ठाकारों को इतना आंदोलित और उद्वेलित कर दिया कि अंततः उन्होंने विरोध स्वरूप अपने कम्प्यूटर के कुंजीपट उठा ही लिए.

सुनील तथा रीतेश को एक तालिबानी किशोर द्वारा एक मासूम व्यक्ति का गला काटने के फुटेज दिखाया जाना जहाँ परेशान करता है वहीं मीडिया युग विदेशी चैनल द्वारा विदर्भ के किसानों की आत्महत्या पर एक विदेशी टीवी चैनल के कवरेज की जानकारी देते हुए सवाल खड़ा करते हैं कि सरकार और प्रधानमंत्री चुप क्यों हैं?

टेलिविजन के नव पपाराजियों की धुलाई को सुरेश सही मानते हैं - जिससे इत्तेफ़ाक नहीं रखा जा सकता - क्योंकि, फिर, ये भी तो एक तरह की तालिबानी विचारधारा ही हुई. ममता को टीवी पर ऐशअभि की अधिकता से बदहजमी हो गई. सर्वेश ऐशअभि शादी के दौरान दिखाए गए हया उर्फ जाह्नवी के नाटक को टीवी चैनलों के टीआरपी की ललक से जोड़कर सवाल खड़े कर रहे हैं. हर्षवर्धन बालाजी भगवान के दरबार में बिग बी भगवान के हाजिरी की कहानी बताते हुए टीवी भक्तों की भी बातें बता रहे हैं. दीपक, मीडिया के उस शोर को यह कह कर खारिज करते हैं - ‘जिन पर माया का वरद हस्त, उनको मिलना ही चाहिए दर्शन का पहला हक.' रियाज़ भी व्यथित हैं कि जब भारत का मीडिया बाज़ार के दो देवताओं की एक आडंबरपूर्ण शादी के पीछे पगलाया हुआ था तब किसी ने एलेन जांस्टन के बारे में पूछा भी नहीं. उमाशंकर तो सीधे-सीधे टीवी संपादकों को मदारी की श्रेणी का मानने के लिए कुछ अकाट्य तर्क दे रहे हैं.


और, अब चिट्ठाचर्चा पाठकों से कुछ सवाल -

अंकुर दुविधा में है. क्या आप उसकी मदद कर सकते हैं? दीपक को बताएं कि सौंदर्य-बोध दिल से होता है या फिर नज़रों से? विकास का स्थायी भाव क्या है? ज्ञानदत्त की असली खुशी की दस कुंजियाँ क्या हैं? काकेश किसके आदेश पर काक-वाणी प्रसारित कर रहे हैं? कमल किसे तो हीरो और किसे मालामाल बना रहे हैं? चतुर्भुज को बताएँ कि क्या मनुष्य पशु-पक्षियों के बराबर पहुंच गया है? यूनुस को समझाएँ कि मुम्बई, मुम्बई है या महज़ एक बड़ा कूड़ाघर? चन्द्रशेखरन को यह स्पष्ट किया जाए कि किसान सो रहे हैं या जाग रहे हैं?

चलते चलते -

एक दोहा:

लिखता है तो बिकना सीख

नहीं तो भूखा रहना सीख

एक शेर-

अब नहीं काफी महज़ आलोचना

आग कलमों को उगलना चाहिए

एक संस्मरण :

लोग कह रहे हैं उसके जाने के बाद

तू उदास और अकेला रह गया होगा

मुझे कभी वक़्त ही नही मिला

ना उदास होने का ना अकेले होने का ..

और, अंत में -

सुनील की खुशी से मनोरंजक बातचीत सुनें तरकश पर तथा सुनील के चिट्ठा- व्यक्तित्व पर नीलिमा द्वारा डाली गई एक शोध-परक दृष्टि यहाँ पढ़ें.

चित्र : ऊपर दिया गया चित्र, ठोकरें खाने वाले किस चिट्ठे के बाजूपट्टी का हिस्सा है?

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रविवार, अप्रैल 22, 2007

एक डुबकी दार्शनिक व्यंग्यवाद की निर्मल स्रोतस्विनी में

आज मन जरा दार्शनिक हो चला है ! दूरदर्शन के जमाने भी एक बार यह तकलीफ हम झेल चुके हैं , सो बेखटके कह सकते हैं की जाके पैर न फटी बिवाई सो क्या जाने पीर पराई ! दर्शन भी एक दर्द के समान है ! हमारे दार्शनिकों ने कितनी पीडा झेली होगी दर्शन का ग्यान –भंडार खडा करने में ! हमारे ब्लॉगर भाई भी जुटे हैं कुछेक इस दिशा में अपना जोगदान देने ! पर भई जमाना तो व्यंग्य का है-- सामाजिक व्यंग्य, राजनैतिक व्यंग्य , आर्थिक व्यंग्य आदि – अनादि ! अस्तु हमने भी सोची कि क्यों न इसी तर्ज पर आज दार्शनिक व्यंग्य की सख्त जरूरत महसूस करें और उसे न केवल रचॆं बल्कि सारी ब्लॉगर जाति को इस दिशा में आगे लाएं , न हो तो लिखी लिखाई पोस्टों में यह नई विधा खोज निकालें और दिखाएं ! वैसे राम और खुदा झूट न बुलवाए ! हमने जब देखा तो यह मिल ही गया यहां पर ! तो आगे की दार्शनिक - व्यंग्य कथा इस भांति है-----

हम ज्‍यादा बहकें इससे पहले देखें आज की सारी पोस्‍टें यहॉं पर
कल्पतरू जी ने बहुत ही सटीक एकलाइना पोस्ट लिखी है जिसका सार यह है कि लक्ष्‍यहीन ताकत बेकार जाती है (शायद) वैसे सार-संक्षेपण में मैं कमजोर हूं ! राजलेख जी कहते हैं कि जान पहचान का नाम दोस्ती नहीं होता ! मुझे इस दर्शन से मैचिंग एक गाना बनाने का मन हुआ आप भी नोश फरमाएं --- इस रंग बदलती दुनिया में दोस्त की नीयत ssssss ठीक नहीं -----------

सुषमा कौल जी शीर्षक निरपेक्ष दार्शनिक धारा की हैं उनका प्रश्न है ---कि जाति पाति धर्म कर्मकांड से छोटा क्यों है इंसान !
दर्शन की विज्ञानवादी धारा के मोहिन्दर कुमार दिल का दर्पण में जो कह रहे हैं आप जरूर देखें मुझे तो उत्तल अवतल आवर्ती परावर्ती की स्कूली क्लास में अपना फिसडडीपन याद आ गया ! कवि कहते हैं –


ढोल को देखो, पिट कर भी
बांसुरी को देखो, छिद कर भी
भाषा, जाति, र‍ग भेद से ऊपर ऊठ
माधुर्य की भाषा बोलते हैं


दीपक बाबू कहिन कि बर्बरता भी नहीं देखती धर्म, जात , भाषा , आयु , की कोई सीमा अर्थात -------- मनुष्य की बर्बरता को कोई डर नहीं
कोई जोर बर्बरता पर नहीं sssssss
(मुआफ करना आज गाने कुछ ज्यादा ही बन रहे हैं ! यह दरासल दार्शनिक व्यंग्यवाद का संगीतात्मक उच्छवास है-----)


हम पंछी उन्मुक्त गगन के दिल्लीबद्ध न रह पाएंगे
माल बिल्डिंगों से टकराकर पुलकित पंख टूट जांएगे

जन हित में बता दें अभी –अभी नोट पैड जी की कविता से उत्प्रेरित ( उत्पीडित की तरह ) होकर बनाई है !

वेदमंत्रवादी दार्शनिकाचार्य श्री अंतरिम जी का प्रवचन है -----तमसो मा ज्योतिर्गमय-- अर्थात


1 तुम सो जाओ मां मैं ज्योति के साथ जा रहा हूं
2 तुम सो जाओ मा बिजली तो चली गई है

बजार बाबा के मुख श्री से आज हिंदू समाज के लिए प्रवचन धारा में हिंदू होने के फायदे गिनाए गए हैं ! हिंदू स्नान पर्व पर धाट से सीधा प्रसारण देते हुएअ कहते हैं -



.....और भीड़ चढ़ रही थी। आगे ढलान था और थोड़ी देर ढुलकने के बाद सरयू का पहला घाट आने वाला था। हम सबकी आंखें चमकने लगी। पतारू बोला , 'अबे ! पिछली बार वाला किस्सा भूल गया ? ' मैंने कहा, ' कौन सा वाला ' वह बोला , ' अबे साले वही !! पिछली बार एक लडकी सिर्फ बनियान पहन कर नहा रही थी। और.... बड़ा मजा आया था।' इतना सुनना था कि कल्लू ही ही करके हंसने लगा। मैं भी ही ही करने लगा। फिर पतारू बोला, ' इस बार भी ऐसा ही माल दिख जाये तो भैयिया अपना तो जनम सफल हो जाय

जिज्ञासावादी दार्शनिक मंचों से उठाए गए दो ज्वलंत सवाल हैं



1 क्या संस्कृत एक मृत भाषा है ?
2 समृद्ध भारत भूखा नंगा क्यों हो गया है ?


समय अर्थात काल दर्शन बहुत पुराना है ! इसके एक विद्वान विचारक का मानना है कि आज का समय नष्टशील है इसे अच्छी तरह से नष्ट करने के लिए हृषिता भट्ट की फोटू देखी जानी चाहिए ! उधर चित्र दर्शन के चतुर चितेरे बने मिश्राजी सोनी कैमरे की कृपा से हृदयभेदी चित्र उतार लाए हैं ! आप सब देखें न देखें नोटपैड जरूर देखें !

मनोरंजन जीवन का जरूरी हिस्सा है –ऎसा मानते हुए 0 कमेंटधारी अंकुर महात्मा का कहना है कि सावधान कोई कमेंटस देने का दुस्साहस न करे ! वैसे किसी ने किया भी नहीं ! दूसरी ओर कह रहे हैं आप कैसा मनोरंजन चाहते हैं अब कैसे बताए हम तो डर गए हैं न !

विरोधवाद के प्रवर्तक धुरविरोधी का मानना है कि अविनाश भैया को अपनी थीम अब बदल कर कुछ नया ट्राई करना चाहिए किंतु अविनाश भैया परिवर्तनवाद के सख्त खिलाफ हैं ! सो परमोद भैया को आगे आकर अविनाशी शोले बरसाने पडे



वृहत हिंदी ब्‍लॉगजगत (माने साढ़े पांच ब्‍लॉग) ने हिंदी फिल्‍मों के क्‍लाइमैक्‍स की तरह ‘शैतान’, ‘पाजी’, ‘कुत्‍ता कुमार’, ‘मिस्‍टर ज़हरीले’ का नगाड़ा पीट-पीटकर मोहल्‍ले के जंगली जानवर को उसके जंगले से बाहर खींच उसका पर्दाफाश कर दिया है, और आखिरकार अविनाश को अमरीश पुरी की श्रेणी में ला पटका है-
तो अमरीश जी के पदचिन्‍हों पर चलते हुए स्‍वाभाविक हो जाता है कि अविनाश जंगले से कूदकर पहाड़ की तरफ भागें

आलोक शंकर अपने अपने अजनबी की तर्ज पर अज्ञेय की याद दिलाते हुए अपने अपने खंडहर की रचना करते हैं ! आलोक जी ने व्यक्ति की बात की तो रवीशाचार्य जी समिष्टिवाद पर शंकावादी होते हुए कहते हैं कि पत्रकारिता का गुट काल आ गया है भाई लोग (जिसकी जैसी मर्जी हो )अपना अपना पंजीकरण करवाऎं ! शुएब अभी देश की महक का मजा ले रहे हैं। सृजन भी मान रहें हैं कि देश की मिट्टी की बात ही कुछ और है।

बुडबकवाद के अग्रणी मसिजीवी दलेर मेंहदी के एक गीत में नई अर्थछाया भरते हुए इंटरनेट काल के निंदक हसन जमाल के (अ)बोधवाद पर अपने विचार रखते हैं ! इस माध्यम से उन्होंने दलेर मेंहदी के गाने में भी नए प्राण फूंके हैं –तू तक तू तक तूतिया हई जमाल हो ! वाह वाह वाह ! वैसे जीव जगत के चिंतक ने आत्म हत्या का एक्सक्लूसिव आइडिया बताया है ! जिससे मेरे मन में भी एक आइडिऎ का जन्म हुआ है कि इससे पहले कोई हमारी हत्या करें क्यों न हम आत्महत्या करे लें ? ;)

तो अप्रैल 21 के सभी सुधी चिट्ठाकारों को शत शत नमन जिनकी पोस्टों के माध्यम से दार्शनिक व्यंग्यवाद की यह निर्मल स्रोतस्विनी बहा पाई हूं ! उम्मीद से दुनिया कायम है ! सो आपसे आगे भी ऎसी ही दर्शनगूढ व्यंग्यात्मा प्रधान मार्मिक पोस्टों की आशंका ( कृपया एक बार फिर मुआफ करें ) आशा है। आज का चित्र नोटपैड के कैमरे से लैंसडाउन छावनी का .........बाकी सब माया है। है तो टिप्‍पणी भी माया पर क्‍या आनंददायी माया है...मायादान महादान हो कल्‍याण।

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शनिवार, अप्रैल 21, 2007

जी का जंजाल मोरा बाजरा....जब मैं बैठी बाजरा सुखाने...

जब जनसत्ता वाले हमें छाप रहे थे हम पहाडों की हवा खा रहे थे। यहाँ दिल्ली की गर्मी मे हमारा कंपूटर बाबा प्राण त्याग गया । वापस आकर देखा तो समस्या गम्भीर थी। खैर जैसे तैसे कल शाम इन्हे जिला पाए, लॉगिन करते ही चिटठा चर्चा का आदेश मिला। तो प्रस्तुत है नारद के कल के चिट्ठों का ब्यौरा। सारे चिट्ठे यहाँ देखें {वैसे देख ही चुके होंगे ,फिर भी चिट्ठा चर्चा की रवायत के तकाज़े से कह रहे हैं, जो देखे उसका भला जो ना देखे उसका तो कल्याण निश्चित ही है :) }
कल नारद पर एक शादी ने बडा तंग किया भाई लोगों को,शादी थी ऐश- अभि की, उसमें बेगानो की तरह हमारा मीडिया -मुल्ला जाने क्यो दीवानों की तरह नाच रहा था।मीडिया की हरकतें देख कर बचपन का यह खेल/गाना याद आ गया -जी का जंजाल मोरा बाजरा.. जब मै बैठी बाजरा सुखाने, उड -उड जाए मोरा बाजरा।...क्या कहें बात का बतंगड बन गया। शादी हो तो ऐसी कि देस बिदेस सबे बौरा जाँय,और मीडिया हो तो ऐसा कि इत्ता बकबक कि लोगों के सर मे दर्द कर दे। संजय सही कहे हो प्रेम विवाह तो होते रहेंगे, इसमे बडी बात क्या है।एंग्री गणेशन भी इस मौके पर गुस्साने से बाज़ नही आए ,आखिर पकवान् इतने फीके जो थे।मोहल्ले वाले केटरिंग करेंगे तो पकवान तो तीखे होए चाहिए थे।,पर प्रमोद भाई गणेशन पर जो आप टिप्पणी दिए हैं वाकी टोन कया है ? मिश्रा जी ने नए जोडे के हनी मून के लिए मोहक स्थानों की तस्वीरे भिजवा दी है।।

आशीर्वाद तो हो गए अब कोई ऐश अभि को शादी का मर्म भी तो समझा दे भाई... ए भाई..पंगे बाज़ ही यह पंगा ले सकता है लो लिया लिया..



शादी:एक ऐसा समझोता जो आदमी से उसकी बैचुलर डिग्री छीन कर औरत को मास्टर डिग्री दे
तलाक: शादी का भविष्य
आंसू: दुनिया का सबसे बडा अहिसंक हतियार



थोडा गणित भी सीख लो ,शादी मे काम आएगा।





तेज बन्दा + तेज महिला = प्यार

तेज बन्दा + ढीली महिला = लफ़डा
ढीला बन्दा + तेज महिला = शादी
ढीला बन्दा + ढीली महिला = पंगे के अलावा कुछ नही




अब आप पंगा लोगे तो दामोदर दास को गुस्सा नही आएगा क्या? बोलो? उस पर गँवार थाना प्रभारी से पाला पडा। सुबाचन यादव ।रागदरबारी की याद करने वाले सबाचन यादव के पास इत्ता काम है कि सारा काम ही ठप्प पडा है।



"थाना प्रभारी सुबाचन यादव कुछ और सोच रहे थे. कुछ और सोचते हुए माचिस की तीली से (जबकि दांत में कुछ था नहीं) दांत खोद रहे थे."


उस पर किसी प्रेत का फोटू भी लगा दिया । पता है प्रत्यक्षा कितना डर गयीं।



इत्ता डरने के बाद कैसे कोई हत्या ,बलात्कार करने स्टूडियो मे जाएगा जी ! न्यायाधीश पर मिलकर शक करने से क्या वह डर जाएगा? अजी मोटी चमडी है। वैसे अविनाश तुम्हारी लगाई आग बुझाते बुझाते फुरसतिया जी का अग्नि शमन दस्ता थक गया है।समकाल चिंतित है । उसे थकना नहीं चाहिये। वैसे आग की खोज हुई हकैसे यह भी पता है किसी को इसलिए सोचो थोडी देर् कि





आखिर कब तक
सरकारों का बदल जाना
मौसम के बदल जाने की तरह
नहीं रहेगा याद





इत ना ही कर सकते हैं कि खुन्नस निकालकर जीने लगें और मज़बूत होकर।गुरनाम जीने का गुर बता रहे हैं कि ख्वाब देखो पर उसकी चर्चा मत करो। फिर वे पूछते हैं किस पर लिखूँ "इस बाहर की प्रकृति पर या अन्दर कुर्सी पर मुहँ फुलाए इस अन्जान प्रकृति पर"भैय्ये लिखना नही आता तभी तो पूछते फिर रहे हो। :)
कल की ताज़ा खबर{?} श्रीष को सर्वज्ञ पर लिखने को एक और टेकनोक्रेट मिल गया अंकुर गुप्ता के रूप में।


और हम ब्लॉगियों की क्या हस्ती ,हैं आज यहाँ कल वहाँ चले। अब दैनिक भास्कर पर भी झंडे गाड दिए।
भई प्रयास के उत्तम विचार"प्रशंसा से परोपकार" पदकर भले ही ई-पन्डित ने उनकी प्रशंसा की और 0 टिप्पनी से उबारकर परोपकार किया और भले ही रवि जी कहें कि





" स्वस्थ जीवन से अभिप्राय है कि हमारा जीवन चिन्ता, मानसिक तनाव, दु:ख, रोगों से
रहित हो, शरीर देदीप्यमान हो तथा युवा शक्ति से परिपूरित हो। हमारा अपनी निम्न
इच्छाओं, भावनाओं, विचारों पर नियंत्रण हो तथा जीवन दायिनी प्राण शक्ति को संचालन
करने की कला हमें आती हो।"






चाहे ई-स्वामी नया शगूफा लेकर हाज़िर हुए हों



तो भी हमे तो नोट दुगुने करने का आइडिया ही ज़्यादा भाया :) रमण जी भी जापानियों को हिन्दुस्तान पर लिखते देख हैरान ना होएँ। यह फार्मूला अपनाएँ।
आखिर पैसा बोलता है। तो सोचते हैं एडसेंस लगवा डालना चाहिए। क्यों क्या खयाल है ?
जी का जंजाल वैसे यह चर्चा भी थी। तकनीक मे हम पैदल हैं। इत्ता किया सम्झो मैदान मार लिया । रात भर सोचा लिंक कैसे लगेंगे ,वगैरह..। हो ही गया कुछ तो ।गलत लिंक हों तो मुआफ करना। वैसे भी नारद म्एं भाई चारा चलता है...आपका लिंक किसी और भाई पर लग गया हो तो बुरा ना मानना।:):):)




----नोटपैड की कलम .......से। तस्‍वीर अज़दक से

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बुधवार, अप्रैल 18, 2007

झुकना हमें भी गवारा नहीं है

वहसीयत कहें, दीवानापन कहें कि पागलपन!! बिना किसी बात के, बिना किसी खता के निर्दोष ३३ लोग मौत के घाट उतार दिये जाते हैं और सब हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं मजबूर. न जाने क्या क्या सपने रहे होंगे-एक क्षण में मिट्टी में मिल गये. फिर भी कोई सबक ले ले तो इनकी मौत शहादत कहलाये. आपस में झगड़ रहे हैं, एक दूसरे को काट रहे हैं, न जाने कौन सी दौड़ में विजयी होने के फिराक में हैं जबकि जिंदगी का अगले क्षण क्या होगा, कुछ पता नहीं.

वर्जिनिया टेक यूनिवर्सिटी केम्पस में हुये इस दर्दनाक हादसे की आँखों देखी बयाँ कर रहे हैं भाई अनुराग मिश्रा जो कि साधूवाद के पात्र हैं. उन्होंने न सिर्फ अपने चिट्ठे पर लगातार ताज़ा जानकारी पेश की बल्कि India TV के लिये भाई नीरज दीवान के सहयोग से घटना के सबसे करीब से हालात की जानकारी बतौर पत्रकार सारे भारत को उपलब्ध करा कर एक नया सिर्फ एक नये युग की शुरुवात की बल्कि अनेकों जिज्ञासुओं की जिज्ञासा को कुछ हद तक शांत किया.

इसी तरह की उन्मादी घटना में बलि चढ़े यूगांडा में देवांग रावल की जानकारी दी चंद्रप्रकाश जी ने.

समस्त हिंदी चिट्ठाजगत इन घटनाओं से दुखी है और अपनी संवेदनायें प्रकट करता है.

अब आज की चिठ्ठा चर्चा, आज यूँ तो कहानी रचना जी सुना रही होतीं मगर हमने अपने लेख गगन चढहिं रज पवन प्रसंगा में उनका जिक्र क्या कर दिया, उन्हें लगा कि अब तो चिट्ठा चर्चा खाली भी छप जाये और उनका नाम हो, तो X Factor के चलते टिप्पणियां तो आ ही जायेंगी. चलो, मान लेते हैं और आप भी मान लें कि यह चर्चा वही कर रही हैं और टिप्पणियां करते चलें.

आज भी कवि और कविताओं का ठीक ठाक माहौल रहा. इस श्रृंख्ला में एक अलग तरह की शुरुवात हुई, जब राम चन्द्र मिश्रा जी ने अपने मित्र की गज़ल की ऑडियो पेश की, मजा आ गया..आप भी सुनें. इसी श्रृंख्ला में आनन्द लें मुक्तक महातोस्व की अगली कड़ी का:


चांद बैठा रहा खिड़कियों के परे, नीम की शाख पर अपनी कोहनी टिका
नैन के दर्पणों पे था परदा पड़ा, बिम्ब कोई नहीं देख अपना सका
एक अलसाई अंगड़ाई सोती रही, ओढ़ कर लहरिया मेघ की सावनी
देख पाया नहीं स्वप्न, सपना कोई, नींद के द्वार दस्तक लगाता थका


कविताओं मे हिन्द युग्म पर मोहिन्द्र कुमार जी लाये हैं, अब नहीं कोई सवाल, अब जवाब चाहिये और मेरी कविताएँ में शैलेश भारतवासी जी राष्ट्रीय जल आयोग और हमारा नल में जल समस्या की बात कर रहे हैं. मुझे शैलेश भाई से सहमत हूँ कि जब तक यह सब आधारभूत समस्याओं का निराकरण नहीं होता, तब तक सार्वांगीण विकास की बात करना सिर्फ मन बहलाने का साधन मात्र है-मात्र छलावा.

आज पंगेबाज अरुण भाई सारे पंगे छोड़कर एक कविता लेकर हाजिर हुये हैं "ढ़ेरों दी कुर्बानी, राहुल". कविता कविता में ही पूरे नेहरु गाँधी खानदान की बखिया उधेड दी. बहुत रोचक प्रस्तुति है. मेरा दावा है अगर आप पढ़ना शुरु कर देंगे तो अंत होने के पहले रुक न पायेंगे, तो देर किस बात की, पढ़ना यहीं शुरु करें और आगे यहाँ पढ़े:

माँ कह एक कहानी

"माँ कह एक कहानी।"
बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?"
"कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी
कह माँ कह लेटी ही लेटी,
मै हू राजकुंवर भारत का और तू है महारानी?
माँ कह एक कहानी।"

"तू है हठी, मानधन मेरे, सुन भारत में बड़े सवेरे,
प्रधान मंत्री बने परनाना तेरे,चली गांधी की मनमानी।
चली गांधी की मनमानी
हाँ माँ यही कहानी हाँ माँ वही कहानी"


हमारे जैसी कांग्रेसी मानसिकता के लोग भी इसे पढ़ें और मजा लूटें, भले ही मजबूरीवश टिप्पणी न करें. :)

डिवाईन इंडिया पर दिव्याभ भाई बहुत दिन बाद एक और बेहतरीन कविता के साथ वापस आये हैं, उनका स्वागत किया जाये. उनकी कमी जाहिर हो रही थी. साथ ही पूनम मिश्रा जी फलसफे सुनना न भूलें, हमेशा की तरह एक गहरी रचना: साथ है पर फिर भी नही.

आज की सबसे सुखद घटना. वो अपने मोहल्ला वाले अविनाश भाई हैं न!! वो भी कविता करने लगे हैं. मैथली में लिखे हैं मगर उससे क्या होता है. कविता तो कविता है. वाह!! भईया, अब यहीं रहो, हम मैथली सीख लेंगे मगर वहाँ वापस न जाना. वो भाषा हम न सीख पायेंगे. कितने अच्छे तो लग रहे हो. दिल सा आ गया फिर काहे वहाँ जाते हो. खैर, आपकी इच्छा, हमें आप यहाँ ज्यादा अच्छे लगे सो बता दिया. सच में अच्छी कविता करते हो. हिन्दी में भी लिखो, हम इंतजार करेंगे.

इनके साथ सुनिये राजलेख पर, दर्द का यहाँ होता है व्यापार और सुनिये रामधारी सिंग दिनकर जी की कविता, जिसे पेश कर रहे हैं संजीव तिवारी जी. जाते जाते दीपक बाबू क्या कहिन तो जान लिजिये कि कभी बेवजह दया सीखा होता.

अभी यह सिलसिला थमा नहीं है, अरुणिमा को सुनें बिना तो जा नहीं सकते. क्या सधी हुई बात करती हैं : झुकना हमें गवारा नहीं है और जब यह सुन लिया तो घुघूती बासूती जी से क्या नाराजगी, उनको भी पढ़ो-उनके क्व्वों के राजा के नाम संदेश को-गद्य पद्य मय रचना में.

तो यह तो हो गई आज की काव्य प्रस्तुति. मगर सिर्फ यही थोडे ही है. बाकि लोगों ने भी तो कहा है. उनको न सुनोगे, तो चल नहीं पाओगे यहाँ. बड़े बड़े लोग हैं. काफी वजन रखते हैं.
इन लोगों को आप न भी जानते हों, मगर लोग उनकी बात करके पूर पोस्ट बना लेते हैं. इसे गासिप कहते हैं. मगर होती है.

आज एक नई खबर मिली और वो भी कविराज से गद्य में..हम ओ नहीं मानते इसे-कहते हैं अलविदा सागर भाईसा मुझे तो स्टंट लगता है. अब देखें क्या सही है. ऐसी ही लकझक खबर तो जीतू भी लाये कि शिल्पा के किसिंग कांड का आँखों देखा क्या हाल रहा गुल्लु ड्राइवर का. हम तो यूँ भी शिल्पा से नाराज हैं यह दोहा देखो न!!:


शिल्पा को अब छोडिये, हमको वो न भाय
गोरन सब चुम्मा धरें, हम चूमें गुस्साय


हम ही नहीं, बिहारी बाबू भी कहे हैं कि कितने गिरे गिअर

खैर, यह शिल्पा की मरजी. मगर तरुण को तो देखो, कहे हैं कि हरि अनंत हरि कथा अनंता का क्या अर्थ है आज. हद है भाई, हम तो चुप्पे टिपिया आये, आप भी जाओ न!! और अभय तिवारी जी को भी पढ़ना न भूलें. बहुत विचारोत्तजेक प्रविष्ठी नैतिकता का हथौड़ा लेकर आये हैं.

फिर बात करें, स्टार न्यूज के ऑफिस पर हुये एक विशेष संगठन के द्वार हमले पर. इससे रिलेटेड पोस्ट देखें:

कलंकित होता केसरिया - संजय बेंगाणी

स्टार न्यूज पर हमला- मोहल्ला

हममें भी दम मगर दिखा तो नहीं- संजय बैंगानी

जड़ों पर प्रहार जारी रखो - नीरज दीवान

हमारी आवाज में है दम- मौहल्ला

इन सबसे दूर, हमारे फुरसतिया जी आज बता रहे हैं कि चुनावी नारों का क्या छिपा अर्थ है- हर जोर जुर्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है. कई सारे चुनावी नारों का विश्लेश्ण कर डाला है अपने बेहतरीन अंदाज में. जरुर पढ़ें.


तंग आकर गलतबयानी से, हम अलग हो गये कहानी सेआम तौर पर यहा नारा केवल चुनाव के समय लगाया जाता है। चुनाव की घोषणा होते ही अपने पुराने दलों से सौदा न पटने पर अपनी पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी ज्वाइन कर लेते हैं या अपना खुद का दल बना लेते हैं। आम तौर पर भाई-भतीजों को टिकट न मिलने पर, मनचाहा पद न मिलने पर या अपने जनाधार के बारे में गलतफहमी होने पर इस तरह की स्थितियां पैदा होता हैं। लोग ये शेर कहकर पार्टी से विदा हो लेत हैं नयी खिचड़ी पकाने के लिये।


अरे हां, चलते चलते शुएब का स्वागत कर लें और काकेश भाई का नाम का सन्धि विच्छेद का परिणाम

चलिये, अब चला जाये. कल संजय बैगाणी जी तो कुछ करें. हरि ओम.

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मंगलवार, अप्रैल 17, 2007

पत्थर को भी जीने का विश्वास

कहता कैलेन्डर बसन्त है, पर मौसम देता है धोखे
बाहर चलते तेज हवा के साठ मील की गति के झोंके
तापमान चालीस अंश फ़हरनहाईट पर रुका हुआ है
मौसम की इस मनमानी को रोक सके जो कोई, रोके

आज यहाँ पर देखें कितने रंग बिखेरे गये जाल पर
कोई ढूँढ़ रहा है मीटर, लोई कहे कहीं तो होगा
कहीं मुसाफ़िर की सूची है, कहीं रंज अंग्रेज न हुए
एम ए एल एल बी , चपरासी अगर न होगा तो क्या होगा

कोई लिखता गज़लें, कोई कविता में करता प्रयोग है
कोई होता है सम्मोहित कोई खबरें खोज रहा है
देखें क्या उन्मुक्त कह रहे,अंकुर बिना शीर्षल फूटे
धन के नियम कोशिशें करता कोई कहीं पर तोड़ रहा है

गीता का अनुवाद देखिये, परिभाषा भी पढिये मां की
मेरी कलम से निकल रही है फिर थोड़ा उड़ने की चाहत
गांव विषय पर कुछ बातें हैं, बाकी में बस राजनीति है
और शेष से आती लगता, फिर से धर्म गर्म की आहट

बाकी चर्चा कल समीर जी आशा है पूरी कर लेंगे
एक शेर, जो बात अरुणिमा कहती है क्या संभव होगा ?
सिंहासन पर ताजपोशियों की खातिर बढ़ती भीड़ों में
जो पत्थर को भी जीने का
दे विश्वास, कहीं तो होगा

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सोमवार, अप्रैल 16, 2007

चिट्ठाकार कवि सम्मेलन



ये सच नहीं है कि चिट्ठापाठकों द्वारा और चिट्ठाचर्चा में भी कविताओं को तरजीह नहीं दी जाती. ये क्या - देखिए तो, आज चिट्ठाचर्चा में धुंआधार कवि सम्मेलन हो रहा है -

अनहद नाद

मां सब कुछ कर सकती है

रात-रात भर बिना पलक झपकाए जाग सकती है

पूरा-पूरा दिन घर में खट सकती है

धरती से ज्यादा धैर्य रख सकती है

बर्फ़ से तेजी से पिघल सकती है.....

हिन्द-युग्म

माँ, क्या तुम्हारा कर्तव्य नहीं?

...तुम कहती हो,

हर सवाल का जवाब है

तुम्हारे पास...सच?

जवाब दे पाओगी?

कल, जब पूछा जायेगा...

"दादी, पेड़ क्या होता है?....

शब्द सृजन

देख उजड़ती फसल को, रोता रहा किसान.

बेटा पढ लिख कर गया, बन गया वो इंसान.

देख उजडती फसल को, रोता रहा किसान.

सारी उम्र चलाया हल, हर दिन जोते खेत.

बूढा हल चालक हुआ, सूने हो गए खेत.

दो बेटे थे खेलते इस आंगन की छांव.

अब नहीं आते यहां नन्हें नन्हें पांव. ......

हिन्द युग्म

मिथ्या

क्या है जीवन, क्या है लक्ष्य,

क्या है इस जीवन का लक्ष्य,

क्या है इन श्वासों का मतलब,

क्या वह जीवन व्याख्या है?

अजब है अचरज, अजब अचंभा,

इस दुनिया का गोरखधंधा,

जिस आयाम में रहता है,

अनभिज्ञ उसी से रहता है,....

हम भी हैं लाइन में

प्यार की निष्ठाओं पर उठते सवालों के बीच रहता हूँ इस घर में

शब्द ,जब मौन की धरातल पर सर पटक चुप हो जायें

आस्था, जब विडम्बना की देहली पर दस्तक देने लगे

गीली आँखों के कोने में कोई दर्द , बेलगाम पसरा हो

तनहाइयां ,जब चीख के बोलना भूल जायें....

दीपक बाबू कहिन

अपने मौन से मैत्री कर लो

मैं बोलूँ अपनी बात

वह सुनते नज़र आते हैं

कभी लगता है कि मुझे कुछ

कहते देख रहे हैं

पर गुनते नज़र नहीं आते

मुझे नहीं लगता कि वह

मेरा कहा सुन पाते हैं....

घुघूती बासूती

मेहरबानी मेरे दोस्त

मेहरबानी मेरे दोस्त तूने मुझे उड़ना सिखा दिया,

चाँद सितारों की सैर करा स्वर्ग दिखा दिया,

सुनहरे सपनें दिखा मुझे प्यार करना सिखा दिया,

तूने ही तो मुझे प्रेम सोमरस प्याला पिला दिया,

जड़वत थी मैं अब तक तूने हिला दिया,

मर मर कर जी रही थी, जी जी कर मरना सिखा दिया ।....


राजीव रंजन प्रसाद

शक

तुम याद आये और हम खामोश हो गये

पलकों पे रात उतरी, शबनम से रो गये

सौ बार कत्ल हो कर जीना था फिर भी मुमकिन

अश्कों के सौ समंदर पीना था फिर भी मुमकिन

फटते ज़िगर में अंबर आ कर ठहर गया है

टुकडे बटोर कर दिल सीना था फिर भी मुमकिन

नफरत नें तेरे दिल को पत्थर बना दिया है

सपनों नें तेरी आँखें देखीं की सो गये

पलकों पे रात उतरी, शबनम से रो गये....

ब्रह्मराक्षस का शिष्य

ब्रह्मराक्षस का शिष्य

बावड़ी की उन घनी गहराईयों में शून्य

ब्रह्मराक्षस एक पैठा है ,

व भीतर से उमड़ती गूँज की भी गूंज ,

हड़्बड़ाहट- शब्द पागल से

गहन अनुमानिता

तन की मलिनता

दूर करने के लिए, प्रतिपल

पाप-छाया दूर करने के लिए, दिन-रात

स्वच्छ करने -

ब्रह्मराक्षस....

कुछ लम्हे

सपने..जो अक्सर टूट जाया करते हैं......

खामोश शाम के साथ -साथ

सपने भी चले आतें हैं।

बिस्तर पर लेटते ही

घेर लेते हैं मुझे

और नोचने लगते है अपने पैने नाखूनो से ..

जैसे चीटियों के झुंड में कोई मक्खी फंस गयी हो

घर , कार, कम्प्यूटर, म्यूजिक सिस्टम, मोबाईल , महंगे कपड़े ,डांस पार्टी ,वगैरह -2

मक्खी के शरीर से खून टपकने लगता है.....

हिन्द-युग्म

आओ जेहादियों

साठ सालों से सभी नोचते आ रहे हैं,

आ , तू भी आ

आ ,मेरी पथराई निगाहों से पानी निचोड़ ले,

ओ , धर्म के रखवाले,

इंसानियत के ठेकेदार,

इस जहां से

मिटती मानवता की कहानी निचोड़ ले।....

और, अंत में...

कवि सम्मेलन के दौरान हिन्दी कवि का परिचय पढ़ा गया. आप भी अवश्य पढ़ लें.



चित्र - क्या आप बता सकते हैं कि यह किस हिन्दी चिट्ठे से लिया गया है?

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रविवार, अप्रैल 15, 2007

मुग्‍धा नायिकाओं के देश में आइनों का व्‍यापारी

अक्‍सर देखने में आता है कि विवेक और उन्‍माद चिट्ठाजगत में बारी बारी से आते हैं, ओर देखो अनचाहे ही मोहल्‍ला जिसे 'वी लव टू हेट' ही इसे तय करने लगा है। नहीं नहीं ये नही कि वह जब कहता है तब हम विवेकशील हो जाते हैं वरन ये कि जब वह विवेकशील होने का अवकाश देता है तो हम वैसा हो पाते हैं। खैर सारे बांचेय चिट्ठे यहॉं देखें, खुशकिस्‍मती से आज चारों ओर शांति कायम है हालांकि अभी अरुण अलविदा कह रहे हैं पर हम उम्‍मीद करते हैं कि वे यहीं रहेंगे। खुद मोहल्‍ले ने भी इस बार हिंदू मुसलमान का सवाल प्‍यार के बरक्‍स उठाया है, ठीक ही लगता है- मिंयॉं बीबी राजी तो भाड़ में जाए काजी। लेकिन शाम होते न होते उन्‍होंने इसे भी जोड़ दिया बजरंगियों से...... इनैं कितेक बेर कहली पर यू नी मान्‍नैं।
पर चिट्ठाकारों ने नजरअंदाज करने की कला सीख ली है ओर विवादों के अनन्‍तर विवेक को विराम न देने की नीति अपनाई जा रही दिख रही है। कमल शर्मा की ओर से वैकल्पिक मीडिया के तौर पर रेडियो पर सूक्ष्‍म विचार-



रेडियो एफएम के साथ 30 रुपए से लेकर 500 रुपए तक की हर रेंज में ईयर फोन के साथ मिलते हैं। दो पैंसिल सेल डाल लिए, और जुड़ गए देश, दुनिया से। यह आकाशवाणी है...या...बीबीसी की इस पहली सभा में आपका स्‍वागत है...। आया न मजा.... क्‍या खेत, क्‍या खलिहान, पशुओं का दूध निकालते हुए, उन्‍हें चराते हुए, शहर में दूध व सब्‍जी बेचने जाते हुए, साइकिल, मोटर साइकिल, बस, रेल, दुकान, नौकरी, कार ड्राइव करते हुए सब जगह समाचार, मनोरंजन वह भी 30 रुपए के रेडियो में..

अन्‍य विवेकप्रधान विचारप्रधान पोस्‍टों मे ज्ञानदत्‍त पांडेय विकलांगता पर संवेदनशीलता की राय दे रहे हैं। दीपक भारतदीप का चिंतन में जलसंकट की ओर ध्‍यानाकर्षण है। छत्‍तीसगढ़ी नगाड़े के अनवरत स्‍वरों की सूचना सुनिए अंगारे पर। लचर भारतीय कूटनीति पर अफसोस मेरा कमजोर भारत शीर्षक पोस्‍ट में। उधर ममता को अझेल्‍य टीवी सीरीयल भी देख सकने की क्षमता पर गर्व है- जाओ आप भी समझाने की कोशिश कर देखो। मीडिया के गैर-जिम्‍मेदाराना व्‍यवहार पर रोष व्‍यक्‍त कर रहे हैं विप्‍लव। अच्‍छी चीजों की तारीफ की सलाह मिल रही है अपूर्व से। प्रियदर्शन बॉलीवुड की मौलिकता पर सवाल करते हैं, मौलिकता ही कहानी से जुड़ाव देती है।


प्रेम करने की ललक, धोखा खाने की कसक, अकेले होने की तकलीफ, असहाय होने की कातरता, घुटने टेकने की मजबूरी, लड़ने की चाहत, तमाम उल्टे हालात के पार जाने का जज्बा- ये सब वो चीजें हैं जो दुनिया के किसी कोने में हो, उनमें हमारी परछाई होती हैं।


वैसे ज्‍यादा विचार करना भी ठीक नहीं वायुदोष का इससे गहरा संबंध है- आई हैव नो क्‍लयू। और हॉं अनुराग मुस्‍कान कुत्‍तों के बहाने आदमियत पर एक बहस चला रहे हैं


वैसे भी डॉगी आजकल बहुत पहुंच वाले हो गए हैं। इंसान जब से इंसान के लिए समस्या बना है तब से डॉगी समाधान बन गए हैं। डॉगी लोग को खतरा सूंघने की जिम्मेदारी देकर ही तो हम और आप आतंकवाद की तरफ से बेफिक्र हो लिए हैं। नतीजा यह कि इंसान अब इंसान से ज्यादा डॉगी पर भरोसा करता है।


फुरसतिया अपने सुभाषितों के नए बंडल के साथ आए हैं और नायिका भेद में ब्‍लॉगर का स्‍थान निर्धारण कर रहे हैं-


हर ब्लागर के अंदर एक अदद मुग्धा नायिका रहती है। जो अपनी खूबसूरती पर फिदा होती है। कोई नायिका किसी से भी पूछे- बताओ मैं कैसी लग रही हूं तो किसी के पास भी -बहुत अच्छी, खूबसूरत कहने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। ऐसे ही अगर कोई ब्लागर अपनी पोस्ट दिखाता है तो बहुत अच्छा लिखा है से कम कुछ नहीं सुनना चाहता है। अगर उसने सुन भी लिया तो इसके बाद निश्चित तौर पर वह आपके खिलाफ़ राशन पानी लेकर चढ़ जाता है

चर्चा लिखे जाने तक 22 लोग टिप्‍पणी में इसे अच्‍छा बहुत अच्‍छा ही कह चुके थे, जिन्‍होंने इससे कम कहा है उनके साथ क्‍या होने वाला है अनूप बता चुके हैं :)

हम खचेढ़ू चिंतामणि के अगले अंक में उत्‍साह पर विचार कर रहे हैं। और हॉं आज की बड़ी खबर है कि कल कि बड़ी खबर होगी हिंदी ब्‍लॉगिंग पर पहली कवर स्‍टोरी जन सत्‍ता में । इसी बात की तस्‍दीक बाद में खुद लेखिका ने नोटपैड पर की। एक और जोरदार खबर यह कि जाने अनजाने नए ब्‍लॉगर से एक प्रयोग हो गया कि एक ब्‍लैंक पोस्‍ट डल गई, टाईटल ये इशारा करता था कि चिट्ठाचर्चा है ( ड्यू भी थी....आखिरकार अब तक न हो सकी है) इस खाली पोस्‍ट को खूब हिट मिले और यह दिन भर की चौथी सबसे लोकप्रिय पोस्‍ट बन गई- अरे भई कुछ करो इस रेटिंग का।

कुछ सूचनाएं भी हैं- मसलन ये कि अब हिंदी में ब्‍लॉगिंग हो सकती है....नहीं समझ आया न। जाकर देखो तब भी नहीं समझ आएगा। और जीतू लाएं हैं बिछुड़े लोगों को खोजने का तरीका। रवि रतलामी ने यह भी बताया कि दीवानापन उनके शहर भी पहुँच गया है। और है सूचना एक बड़ी शादी की। और चंद महत्‍वपूर्ण पुस्‍तकानुभव जो हमारी मानें तो जरूर पढ़े जाने की मांग करते हैं। घर से भागकर शादी करके कोई कैसा महसूस करता है या आवारा कुत्‍ते की मौत पर शहर कैसा महसूस करता है जाने अंकुर से। अविनाश नाराज न हों ये पहले ही कह दिया गया है।


अब बातें कविताओं की-

रीतेश की कविता का शीर्षक है न्‍यायप्रिय और सत्‍यनिष्‍ठ, शुभ्रा की कविता का शीर्षक है एक बुत-


पहले होठों से मुस्कान छीनी
फ़िर मन मस्तिष्क से विचार,
फ़िर भावनाओं को दफ़न कर,
उसे भावशून्य बना दिया गया
अब वह एक शून्य था


हरिहर ने टीसती रचना मेरी मर्जी शीर्षक से लिखी है। रमा द्विवेदी दो रचनाएं बेशुमार तन्‍हाइयाँ और एक और परीक्षा शीर्षक से लाईं हैं। बेजी की रचना से कुछ पंक्तियॉं


तू कहे तो…
इन बूँदों को...
सागर से बढा दूँ मैं ...
सावन में बरसा दूँ ...
झरने में गिरा दूँ मैं ...
सरगम की रागों में ...
रंगों की महफ़िल में...
आँछल के तारों में ...
गोदी में छिपा दूँ मैं...


इन सबके अलावा कुछ टेलीग्राम मार्का पोस्‍ट भी हैं। गद्य में भी और कविता में तो हैं ही।




आज की तस्‍वीर आरंभ से

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शनिवार, अप्रैल 14, 2007

ये सब देख सुन आंख रोने बिलखने लगी

हमेशा की तरह निठल्ले को कंधे में डाल हम चल पड़े नारद से मिलने, अचानक निठल्ले की आवाज आयी गुरूदेव आज चिट्ठाचर्चा ही करते चलो। हमें कहना पड़ा कि आज तो कर नही सकते, पिछली बार मुन्नाभाई, बापू और सर्किट साथ थे मदद करने को। अब मुन्ना और बापू का कहीं कोई पता नही और सर्किट चंपा के बिलाग के बाजू में अपना बिलाग बनाने के जोड़तोड़ में लगा है उसके अलावा कुछ सुनता ही नही। निठल्ला बोला घर में छोरा शहर में ढिंढोरा, हम हैं ना हमारे होते चिंता करने का नही, देखो हमने गणित भी कर लिया है आज (१३ तारीख) टोटल लगभग ६३ चिट्ठे नारद से मिलने आये।

हम सोच रहे थे कि शुरू कहाँ से करें तभी निठल्ला बोला ऐसा करते हैं कि शुरूआत कमजोर तबके के लोगों से करते हैं, हम चौंक गये कमजोर तबका यहाँ कहाँ से, भैया ये कोई नेतागिरी नही चिट्ठे बांचने हैं। निठल्ले ने समझाया - कमजोर तबका यानि वो चिट्ठे जिन्हें सबसे कम हिट मिले, उच्च वर्ग यानि जो सबसे ज्यादा हिट लेकर गये और मध्य वर्ग यानि कि बीच का तबका जो ना इधर के ना उधर के। आइडिया हमें जँच गया, हमने तपाक से जवाब दिया ठीक है लेकिन ऐसा करेंगे कि कम हिट वालों को थोडा ज्यादा जगह देंगे और ज्यादा हिट वालों का सिर्फ लिंक। तो शुरूआत करते हैं सबसे कम हिट पाये चिट्ठे से -

आज का बोल वचन क्या? आतंकवाद या कलयुगी राक्षस और क्या? ये दोनों ही १-१ हिट लेकर आपस में उलझे रहे लिहाजा लगता है पाठक समझ ही नही पाये क्या करें। क्योंकि हम भी पहले में जाकर चक्कर ही खाकर वापस आये और दूसरे में वहाँ कुछ कहने से पहले कही और का रस्ता दिखाया जा रहा था।

इन के बाद २-२ हिट पाने वाले चिट्ठे के देख के हमें कहना ही पड़ा कोलकोता तोमार कोतो रूप और इतना रूप देख कर संयत रह पाना ये हमारे बस की बात नही है । हालीवुड स्टार अर्नोल्ड अपनी मशल-वशल के बावजूद कुछ खास नही कर पाये और ३ हिट लेकर बाकि हिट का इंतजार करते रहे।

४ हिट लेकर पहले अंबेडकर व्यक्तिगत स्वाधीनता की बात करते रहे फिर वारिस शाह अमृता प्रीतम से बोले जेल बनेंगे ऐशगाह तो व्यवस्था होगी तबाह

सबसे ज्यादा हिट पाने वालों का हाल कुछ ऐसा रहा - अतीत के झरोखे से कोई बोला चिट्ठाकारो आखिरी चिट्ठी नारद के नाम पढ़ने से डरते क्यू हो नोटपेड में लिखी इस स्पाम मेल को हर कोई पढ़ना चाहेगा। इससे पहले आप किसी को कुछ बोलो आपको स्पॉम पढ़वाने का मैं हूँ जिम्मेदार

हम अभी यह बात कर ही रहे थे कि कनाडा से एक आवाज सुनायी दी स्पॉम के चक्कर में कहाँ हो यहाँ मोटापा बदनाम हो गया है। निठल्ला कहाँ चुप रहने वाला था उसने भी जवाब में बोला पहले यहाँ आईये इस अनाम के अस्तित्व को स्वीकारिये मोटापे का रोना क्यों रोते है मोटापे का कुछ नाम तो है।

मेरे दोस्त गौरी तो सिनेमा देखने में बिजी है उसको इससे कोई मतलब नही कि उमर मुस्लिम समाज से बहिष्कृत हो गया हो या दंगों के यज्ञ से हिंदुओं को मोक्ष मिलेगा या नही लेकिन हमारी तो ये सब देख सुन आंख रोने बिलखने लगी। माहौल बदलने के लिये चलो एक खेल खेलते हैं - अटकन बटकन दही चटाकन हमने देखा सर्किट की शादी का विज्ञापन बूझो किस जगह? अंडमान निकोबार में और कहाँ ?

चलो अब हम कुछ खबरों की खबरें बताते हैं कह दो अपनों से प्रथम भारतीय का मूल चित्र शायद गायब हो गया है, आज दिन भर पत्रकारिता में दलाली चलती रही, जहाँ कुछ लोगों ने सवाल उठाये टैक्नॉराती हिंदी ब्लागिंग का कर्बला क्यों है वहीं किसी का कहना था कि वो बाद में देखेंगे पहले पत्रकारों गांवों की तरफ लौटो । वैसे कहीं आप को ये तो नही लग रहा कि इस आने वाल मादक शनिवार को हम कितने सभ्य हो गये हैं, जो बगैर तू तड़ाक के बात कर रहे हैं। अब क्या करें थोडा वायरस का अटैक हो गया था सभी यही कह रहे हैं ध्यान रखना ज्यादा शरारतें मत करना बल्कि एक भले मानस ने तो यहाँ तक कह डाला आजा मेरी गाड़ी में बैठ जा। चलो आज के लिये बहुत हुआ यहाँ बहता नाला है इसलिये हम मस्ती की बस्ती में तब तक घर बदल कर देखते है। जाते जाते आप लोगों के लिये एक सवाल छोड़ जाते हैं, क्या आप बता सकते हैं बॉस की तनख्वाह ज्यादा क्यों होती है?

आज के सारे चि्टठे आप यहाँ देख सकते हैं।

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शुक्रवार, अप्रैल 13, 2007

हिन्दू मुस्लिम खुदा और भारत

यह खिलवाड़ है, जो कईयों के लिए खेल है. खिलाड़ी खेल रहे है अपना खेल. उकसा कर तमाशा देखना, फिर बदनाम करना. क्या बाहरी दुनियाँ क्या नेट-जगत, यही खिलवाड़ जारी है. क्या अब यह खिलवाड़ बन्द करेंगे?

रवि रतलामी जी अपनी असहजता व्यक्त करने के लिए पहले ही इस विषय पर चिट्ठाचर्चा कर चुके है.
तो अज्ञानी चिट्ठाकारों, अपने चिट्ठे की रेटिंग की, क्लिक दर की कुछ चिंता करो और अपने चिट्ठे को हरा रंग दो. या तो हरा हरा लिखो या चिट्ठे को केसरिया बाना पहनाओ.
मगर सभ्य भाषा शायद समझ में नहीं आती, न ही उसके पीछे छीपा दर्द ही. रचनाजी इतनी दूःखी हुई है की उन्होने निर्दाष नारद को ही अलवीदा कहने का मन बना लिया. रचनाजी रणछोड़ मत बनीये.

यह पहली बार हुआ है ऐसा तो नहीं, फिर से वही वही बाते एक विराम के बाद क्यों उठाई जा रही है? जहाँ कई लोग मोहल्ला पर इक्कठे हुए वहीं क्रिया की प्रतिक्रिया रूप गुटो में बटे दुसरे पक्ष पंगेबाज, ये क्या हो रहा, लोकमंच (जिसकी मरम्मत का काम जारी है) ने अपनी तरफ से मोर्चा सम्भाला. जब इस प्रकार के खिलवाड़ चल रहे होते है, तब अज्ञात टिप्पणीकार दोनो पक्षो पर ज्वनशील पदार्थ डाल आनन्द लेता रहता है तथा घूँघट में छीप नारद के कर्ता-धर्ताओं को नामर्द कहता है.

इस कौलाहल में जो महत्वपूर्ण चिट्ठे टी.आर.पी. में पीछड़ गए उनका उल्लेख यहाँ आवश्यक हो रहा है. एक प्रविष्टी है अफ्लातुनजी द्वारा लिखी गई, मीडिया प्रसन्न, चिट्ठाकार सन्न
इस माध्यम (चिट्ठाकारी) में सबसे जरूरी है पारदर्शिता । कहीं का ईंट और कहीं का रोड़ा जोड़ते वक्त यदि स्रोतों का जानबूझकर जिक्र न हो या अथवा किसी के अन्य स्थलों पर लिखे गये बयानों को ऐसे जोड़ देने से मानो वे बयान भी वहीं दिये गये हों बवेला ज्यादा होता है । ऐसे में चिट्ठालोक में विश्वसनीयता ज्यादा तेजी से लुप्त हो जाती है और लुप्त हो जाते हैं पाठक टेलिविजन, अखबार या रेडियो फोन कम्पनियों से व्यावसायिक सौदा तय कर के चाहे जितने पूर्व-निर्धारित, निश्चित
विकल्पों वाले एस.एम.एस. प्राप्त कर लें और उन्हें फ़ीडबैक की संज्ञा दें , इन माध्यमों में संवाद मोटे तौर पर एकतरफा ही होता है । संजाल पर परस्पर होने वाले संवाद की श्रेष्ठता इन सब पर भारी है । ऐसे में अन्य माध्यमों द्वारा संजाल पर हाथ आजमाने को जरूर बढ़ावा दिया जायेगा ।

फिर दिल्ली की राष्ट्रीय मीडिया हस्तियाँ अपने कारिन्दों को अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया समूहों की नकल करने के लिए प्रोत्साहित ही करेंगी अथवा नहीं ? क्योंकि कागजी घोड़ों से भी तेज होता है साइबर घोड़ा ।

और आँखे खोलने के लिए प्रयाप्त दुसरी शुएब की प्रविष्टी, हिन्दू, मुसलिम भारत और खुदा.

दो हाथ वाले, चार हाथ वाले, बगैर हाथ वाले और बगैर दिखाई देने वाले, क़बरों मे सोए हुए सूली पर लटके हुए हर किसम के ख़ुदा हमारे देश मे मौजूद हैं। आप जाओ यहां से, हम भारतीयों को किसी दूसरे ख़ुदा की ज़रूरत नहीं। हम भारती ख़ुद ख़ुदा हैं ख़ुद क़यामत मचाते हैं, ख़ुद लुटेरे हैं, ख़ुद फितनेबाज़ भी हैं, ख़ुद दंगा फसाद मचाते हैं, अपने फैसले हम ख़ुद करते हैं। हम भारती हैं अपनी मर्ज़ी के राजा हैं - आप जाओ यहां से, हमारा किसी भी ख़ुदा पर ईमान नहीं।

मगर इन सब से दूर कहीं पंगेबाज ललकार रहा है, “डरते क्यूँ हो, कुछ तो बोलो...” और संत बना मोहल्ला लिखता है, “स्टोप हेट...बन्द करो यह नफरत”। शर्म करो यह तस्वीर दिखा कर आग में पानी डाल रहे हो या पेट्रोल? मीडिया के पेंतरे खुब आजमा रहे हो, कहीं और की तस्वीरे किसी और ही संदर्भ में दिखा कर नफरत फैलाना बन्द करो.

बहुत हुआ, अब बन्द करो.

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चिट्ठा चर्चा- एक और महिला चिट्ठाकार

पिछले कुछ दिनों से गिरिराज जोशी के यहाँ नेट का कनेक्शन सही नहीं चल रहा और उसकी वजह से वे नियमित चर्चा नहीं कर पा रहे हैं। कई दिनों से तो उनकी कोई खोज खबर भी नहीं है। वैसे वे किसी काम में व्यस्त होते हैं तो चर्चा का जिम्मा मुझे सौंप देते हैं। कल मुझे भी याद नहीं रहा कि आज चर्चा का जिम्मा उनका है और उनकी अनुपस्थिती में मेरा। कल रात १० बजे ध्यान आया कि चर्चा लिखनी तो रह ही गई, अब क्या होगा?? ऐसे में मदद के लिये आई कोटा राजस्थान की डॉ गरिमा तिवारी! उन्होने कहा आप निश्चिंत हो घर जाईये आपका काम सुबह मिल जायेगा, और वाकई ऐसा हुआ भी जब सुबह आकर मेल चैक की तो गरिमाजी ने चर्चा कर मुझे मेल में भेज दी थी।
डॉ गरिमा ने अभी जमा तीन चार पोस्ट ही लिखी है पर नारद पर पंजीकरण ना होने से किसी के नजर में नहीं आई। गरिमा परिचर्चा में सबसे सक्रिय सदस्यों में से एक हैं और बहुत सुन्दर कवितायें लिखती है।
यहाँ से शुरु होती है डॉ गरिमा की लिखी चर्चा।

आज कल महिला अधिकार के चर्चा हर मोड पर मिल जाते हैं उसी कडी मे कुछ नया जोडते हूए उन्मुक्त जी संजीदगी के साथ बता रहे है
व्यक्ति' शब्द पर उठे विवाद पर सबसे पहला प्रकाशित निर्णय Chorlton Vs. Lings (१८६९) का है। इस केस में कानून में पुरूष शब्द का प्रयोग किया गया था। उस समय और इस समय भी, इंगलैंड में यह नियम था कि पुलिंग में, स्त्री लिंग भी शामिल है। इसके बावजूद यह प्रतिपादित किया कि स्त्रियां को वोट देने का अधिकार नहीं है। "
तो यही आशीष जी पत्रकारिता पर निराश हो रहे हैं, पर और लोगो की हताशा को नही बल्कि अपने नाम कि तरह हिम्मत से नयी दिशा मे बढने के लिये अग्रसर भी हैं|
लेकिन एक बात तो तय है कि अब पहले जैसी पत्रकारिता संभव नहीं है। अब तो जो है, इन्‍हीं के बीच में से रास्‍ता निकालना होगा। लेकिन हाथ पर हाथ रखकर बैठना भी सही नहीं है।

इस सबके बीच महाशक्ति जी कहा चुप बैठने वाले हैं, ये समाजवाद पर शक्ति प्रहार कर रहे हैं.. देखिये कैसे! और रवि रतलामी जी तकनीक क्षेत्र मे नयी रोशनी दिखा रहे हैं.. आप खुद ही देखिये और जानिये मै किस तरफ इशारा कर रही हूँ!

यहाँ तक गम्भीरता से पढते आये तो अब "मस्ती की बस्ती" मे भी गोता लगा लिया जाये... हाँ तो मस्ती के बस्ती मे गोता लगाते वक्त एक कथानक याद आ गया..." एक पंडित जी कहते थे, भईया हमरे ऑमलेट बनाना तो उमे प्याज मत डालना हम ब्राम्हण है ना" नही समझ मे आया ... तो देखिये... कैसे बनते है हम मह्त्वपूर्ण

मान लीजिये किसी आनुवांशिक या अन्य कारण से - जिसमें आपका कोई दोष नहीं है, आप साढ़े छह फ़ुट के हो गये तो आप हो गये महत्वपूर्ण।
कुछ लोग इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि वे खाने में नमक नहीं लेते और पीने में शराब के अलावा कुछ नहीं लेते। कुछ इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि दारू पी लेते हैं मगर चाय किसी हालत में नहीं पीते या वे अल्लमगल्लम सब कुछ खा लेते हैं मगर पालक नहीं खाते।

और भी महत्वपूर्ण होने के कायदे कानून है.. पढिये और महत्वपूर्ण बनिये ...

जनाब अब तक मस्ती के बस्ती मे ही घूम रहे हैं तो यथार्थ के दुनिया मे भी कदम रखिये... घबराईये नही जिन्दादिल अपूर्व कुलश्रेष्ठ आपका जिन्दादिली से स्वागत कर रहे हैं... आपको यथार्थ मे आसमान छूने के उपाय या यूँ कहिये कि रास्ता दिखा दिया चलना तो आपको है.. तो सैर कर ले आसमान का.. फिलहाल ब्लाग.. जब ये मंत्र जिन्दगी मे अपनायेंगे तो अपनी जिन्दगी मे भी|
इसी जमीनी हकिकत को एक नया दर्जा भी मिल रहा है... कल्पना ही कहिये.. खुदा नहीं आता यहाँ.. आ जाये तो पहले यहा के पंडितो और मौलवियो पर शामत आ जाये... तब हम ईंसान बन के रहने लगे.. तब को धर्म के नाम पर दंगा ना हो... शूऐबजी कह रहे हैं
शुक्र है आज हम भारतीयों के नौजवान बच्चे हर किसम की ज़ंजीरों से आज़ाद हैं - एक आज़ाद देश मे मज़े से सांस ले रहे हैं। और धर्मों की परवाह किए बगैर अपने देश की तरक्की मे सब एकसाथ जुटे हैं। माईक्रोसॉफ्ट, याहू, गूगल पंटागॉन और नासा दुनिया की हर तरक्की मे हमारे भारती बच्चे बराबर शामिल हैं। और आज हमारी नई पीढी के बच्चे शान से सीना तान कर कहते हैं: हम भारती हैं - कोई धर्म हमारे देश से बडा नहीं - और हम ना हिन्दू हैं ना मुस्लमान बल्कि अपने देश के ख़ुद ख़ुदा हैं।

अब इतने भी संजीदा ना हो जाईये.. मनीषा जी एक मजेदार तथ्य ले कर आयी हैं .. गाँधीजी जहाँ कागज के टुकडे़ भी सँभाल के रखते थे.. अब हम भारतीय आपातकालीन स्थिती के लिये भी बचत नही कर रहे हैं... है ना मजेदार तथ्य.. वक्त के साथ सब कैसे बदलता है,तो मसिजीवी अपने एकालाप मे ही व्यस्त लग रहे हैं, और बिहारी बाबू नेताओं की समीक्षा मे लगे हूये है... पर क्या नेता जी समझ पायेंगे...??

कमल शर्मा जी कर रहे हैं व्‍हर्लपूल इंडिया लिमिटेड कि समीक्षा... जानिये क्या होगा व्‍हर्लपूल का भविष्य। और चंद्र प्रकाश जी जो बताते है बात पते की आज खोल रहे हैं ढोल की पोल... देखिये..
ढोल की पोल अपनी जगह.. पर मुहब्बत का दिया इन सब बाधाओ से दूर जलता रहता है.. उसे बुझाना का दम किसमे...
वो कहते है ना.... प्यार मे ऐसी ताकत होती है कि पर्वत भी सर झुकाता है,कुछ ऐसा ही बताने कि कोशिश मे है रन्जू जी
तुझे सोचा है इतना महसूस किया है रूह से
कि बस अब तेरी जुदाई का भी हम पर कोई असर नही

और योगेश जी अपने बदलते हूए गाँव की पीडा या यूं कहिये अपने प्यार को सम्भाल रहे हैं
बीमारी तब से बढी जब पडे शहर के पांव.
कितना बूढा हो गया वो मेरे वाला गांव.


बदल गया है गाँव पर नही.. आज भी उसी पुराने ढकोसले पर चला रहे हैं हम, जो कहने को आधुनिकता का चोंगा भर बदला है, पर मन दिल दिमाग वही 40 साल पुराना... अगर ऐसा ना होता तो पंकज जी को उमर-प्रियंका के शादी पर हूये बवाल को लेकर यह लेख नही लिखना पडता
उमर-प्रयंका अपने घर लौटना तो चाहते हैं उनके साथ पूरे देश और न्यायालय का समर्थन भी है, लेकिन उनके घर और समाज के सम्मान की चिंता करने वाले लोगों के बयान और तेवरों को देखकर उमर-प्रयंका के चेहरे पर उभरे भावों से तो ये नहीं लगता कि वे जल्द से जल्द अपने घर जाने को तैयार हो जाएँगे। अब उनके लिए ये तय करना वाकई मुश्किल है कि कौन उनका है कौन पराया।


यहाँ तक की चर्चा की है गरिमा ने और आगे मैं कर रहा हूँ प्रतीक को हम चिट्ठा जगत कामदेव कहते हैं क्यों कि वे सबसे अच्छी अच्छी तस्वीरें लेकर आते हैं पर कल उनके साथ पंकज भाई को कामदेव बनने का भूत लग गया और दोनो ही मंदिरा बेदी के पीछे पड़ गए। और जहाँ प्रतीक अपने टाइमपास वाले चिट्ठे पर मंदिरा की Maxim में छपी तस्वीरों को बता रहे हैं तो पंकज बैंगाणी अपने स्तम्भ पर और सागर अपनी पसंदीदा अभिनेत्री की तस्वीरों को देखकर दोनों जगहों पर प्रलाप करते पाये गये.. हे मंदिरा तूने यह क्या किया..... लाहौल विला....

आज की सबसे दुखद: खबर यह है कि चिट्ठाजगत में हो रहे विवादों से दुखी हो कर रचना बजाज जी ने चिट्ठा लिखना बंद करने का फैसला किया है जो हम सबके लिये वाकई आघात जनक है। रचना कहती है
…..…..ज्यादातर इस तरह का लिखा जा रहा है कि एक चिट्ठा समझने के लिये कम से कम चार अन्य चिट्ठे पढने जरूरी हैं..हम आपके पास आते हैं तो परिचित नामों को ढूँढते ही रह जाते हैं….आप बिल्कुल हिन्दुस्तानी मीडिया की तरह हुए जा रहे हैं जिससे ऊब कर ही हम यहाँ आए थे…३० पेज के अखबार और चौबीसों घन्टे की खबर से परेशान होकर…मानो खबरों के बाहर जिन्दगी है ही नही….
सब नये लेखकों (या शायद पुराने लेखक लेकिन नये चिट्ठाकार!)से भी कुछ न कुछ सीखने को मिलेगा ही..लेकिन फिलहाल जितना सीखा उतना ही काफी है..माना कि कम ज्ञान खतरनाक होता है लेकिन अत्यधिक ज्ञान शायद उससे भी ज्यादा खतरनाक!!
हम आपका बोझ कम करना चाह्ते हैं, और अब से अपने ‘फेवरिट‘ की लिस्ट से ही नये पोस्ट देख लिया करेंगे.
अपनी सेहत का खयाल रखियेगा, आजकल ओवर टाइम काम जो कर रहे हैं

चिट्ठा चर्चा मंडल की तरफ से और अपनी तरफ से मैं रचनाजी से अनुरोध करना चाहता हूँ कि कृपया आप ऐसा ना करें। आप जो चिट्ठे ना पढ़ना चाहें ना पढ़ें पर कम से कम लिखना तो बंद ना करें। प्लीज रचना जी अपने निर्णय पर एक बार फिर से विचार करें।
पंगेबाज, पंगे लेते लेते और गलियॊं और होहल्ले के मुकदमें को जनता की अदालत में सौंपने के बाद एक बहादुर बच्चे अंकित की बहादुरी को सलाम कर रहे हैं, वाकई उस छोटे से बच्चे अंकित की बहादुरी को मैं नमन करता हूँ।

मोहिन्दर कुमार आज एक अच्छी गज़ल ले कर आये हैं और पूछ रहे हैं
आज तक किसने किसी गुमशुदा
अजनबी की शिनाखत की है
कुछ के हिस्से में है जमीदोजी
कुछ चिताओं पर चढ खाक में मिल जायेंगे
हश्र हर एक को मालूम तो है लेकिन
कब किसने ईमान पर चलने की जुर्रत की है


एक दिन पहले तक हम तुम गंगू हैं.. हिन्दू नाहीं.. कहने वाले अभयजी आज माफी मांग रहे हैं कि
हमारा एक ठो प्रस्ताव है.. जैसे बॉम्बे का नाम बदल कर मुम्बई किया गया है.. कलकत्ता का नाम बदल कर कोलकाता किया गया है..उसी तरज पर हम लोगो को चहिये कि हिन्दू का नाम बदल कर गंगू किया जाय.. टिप्पणी कर के सिगनेचर कैम्पेन में सहयोग कीजिये..


हिन्द युग्म पर कवि मित्रों की महफिल बढ़ती जा रही है और अब रंजना भाटियाजी भी उस महफिल से हमें उनकी अपनी कवितायें और गज़लें पढ़ायेंगी। और इस कड़ी में उन्होने अपनी पहली गज़ल लिखी है..... जिसे मैं यहाँ लिख नहीं पा रहा हूँ आप खुद ही वहाँ जा कर पढ़िये

साहब सलाम ... रमाशंकर जी आज महिला प्रशाषनिक अधिकारियों से पूछे जा रहे प्रश्नों से बड़े रोष में है। आज का दिन गज़लों के नाम रहा, एक और सुन्दर गज़ल प्रकाशित हुई है अन्तर्मन
पर हम खड़े तकते रहे इन आशियानों पर क़हर
ख्वाब सारे जल गए पर ना पड़ी उसकी नज़र
दूसरों के दर्द को भी देख आंखें न हों नम
ऐ ख़ुदा नाचीज़ को इस तू न दे ऐसा हुनर


अनाम रह कर बेहूदा टिप्प्णीयाँ करने पर प्रमोद जी के रोष और कमल जी के उनका समर्थन करने पर काकेशजी अपनी बैचेनी कुछ यूं व्यक्त कर रहे हैं
आज मैं बैचेन हूँ.. इसलिये नहीं की मेरी पिछली पोस्ट “निश:ब्द” की तरह पिट गयी.. इसलिये भी नहीं कि मुझे फिर से “नराई” लगने लगी … इसलिये भी नहीं कि मुझे किसी ‘कस्बे’ या ‘मौहल्ले’ में किसी ने हड़का दिया हो .. इसलिये भी नहीं कि मेरा किसी ‘पंगेबाज’ से पंगा हो गया हो .बल्कि इसलिये कि मुझे ‘नाम’ की चाह ना रखने वाले अनामों ,बेनामों का गालियां सुनना अच्छा नहीं लग रहा
.
काकेश अनाम रहने वालों को अच्छे अच्छे सुझाव भी दे रहे हैं मसलन
आप अनाम-बेनाम-गुमनाम नहीं हो सकते लेकिन आप चाहें तो अनामचंद , बेनामदास या गुमनाम कुमार रख सकते हो . आजकल बाजों का भी बहुत महत्व है ( बहुत दूर दूर की देख लेते हैं ) तो आप चालबाज , तिकड़मबाज , दंगेबाज रख सकते हैं . यदि कोई नया सा नाम रखना हो तो फिर फंटूस , कवि कानपुरी , निंदक , चिंतक जैसे नाम रख लें . वैसे एक राज की बात बताऊं आप अपना नाम कोई स्त्रीलिंग में रख सकें तो बहुत अच्छा

इसी विषय पर अनामदास भी कह रहे हैं कि
अनाम लोगों के संदेश को नाम वालों के मुक़ाबले ज़रा ज़्यादा ग़ौर से सुनना चाहिए क्योंकि उसमें संदेश प्रमुख होता है न कि उसे भेजने वाला. गुप्त मतदान के महत्व को लोकतंत्र में रहने के कारण आप अच्छी तरह समझते हैं. अनाम लोग अक्सर जनभावनाओं के प्रतिनिधि होते हैं, टीवी पर जो आदमी कहता है कि 'महँगाई बहुत बढ़ गई है' वह अनाम ही होता है. गुप्त टिप्पणी करने वाले को एक आम मतदाता समझने में क्या कष्ट है?

पोलियो की दवाई पर एक मुस्लिम समाज के कुछ लोगों द्वारा विरोध किये जाने पर पोलियो से अपाहिज हुए एक मुस्लिम की पर शैलेष भारतवासी एक मुसलमान की आत्मकथा को यूं व्यक्त कर रहे हैं
अब्बा!
काश!
मैं दो घूँट पीकर
नामर्द बन गया होता।

अल्लाह उन सबको बुद्धि दे जो पोलियो की दवाई से अपने बच्चों को दूर रख कर अपने बच्चों के साथ देश का भविष्य भी बर्बाद करने पर तुले हैं।
आज की तस्वीर हमेशा की भाँति डॉ सुनील दीपक जी के चिट्ठे छायाचित्रकार से।

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बुधवार, अप्रैल 11, 2007

दो कप चाय हो जाये!!

आज फिर चर्चा में हमारा हाथ बटाने रचना जी हाजिर थीं, और देखते देखते पूरी ही चर्चा कर गयीं और हमें कोई काम नहीं रह गया, वाह!! तो हम मुण्ड़ली लिखने लगे, बहुत दिन से लिखी नहीं थी. आप भी सुनें:


रचना जी को देखिये, लिखती जाती आज
चर्चा कुछ हमहू करें, छोड़ा नहीं यह काज
छोड़ा नहीं यह काज कि अब आराम करेंगे
टिप्पणी बाजी जैसा अब, कुछ काम करेंगे
कहत समीर कविराय, हरदम ऐसे बचना
टिप्पणी करते जायें, बाकी लिखेगी रचना.

-समीर लाल 'समीर'

वो तो जब लिख कर चलीं गई तो छपने के पहले दो-चार चिट्ठे और आ गये तो हमने भी कलम साफ कर ली, वरना तो आप आज हमको पढ़ ही न पाते. :)

तो सुनें रचना जी की कलम से:

अहा! आज जब राकेश जी की चर्चा के बाद नारद पर पहला चिट्ठा देखा तो चाय पीने को मिल गई! तमाम लोगों ने वहाँ चाय पी है,आप भी पीजिये! क्या? खत्म हो गई? कोई बात नही कुछ ही दूरी पर ई-स्वामी की चाय की लैब है. अब मैने आपको 'टोक' दिया है तो वहाँ चाय पीकर ही आगे बढियेगा! वरना कुछ भी ऊट-पटांग हो सकता है.

चाय पी ली? तो अब पूजा याने धर्म का वक्त.भाइयों केसरिया और हरे रंग से बाहर आकर 'अन्तर्मन' से भी कुछ जानो!

अब थोडा खेल हो जाये? ह्म्म देखें एक गुगली से सात कैसे आउट होते हैं! ये सिर्फ और सिर्फ अच्छा खेलने से हो सकता है, भविष्य वक्ताओं की अतिउत्साही भविष्यवाणियों से नही!

उफ्फ! अनुराग क्या बात बता रहे हैं, आप ही देखें! बच्चे तो बच्चे, वे पहले माँ- बाप को भी शिक्षित होने को कह रहे हैं! अब भारतीय संस्कारो के तले दबी मै, ये हकलाते हुए ही लिख पा रही हूँ!


आओ थोडा सा बैठें, देखें 'हवा का डाकिया' क्या लाया है! डाकिया एक नहीं कई खबर कई लोगों के लिये लाता है..एक खबर जो सबको पता है, 'अभिएश' की शादी की! शादी से जुडे अभिन्न शब्द 'बरबादी' के बारे मे नोटपेड जी. नोट कीजिये कि उनके विचारों को उनके व्यक्तिगत जीवन से जोडकर न देखा जाए.

अब चलें मोहन राणा के बगीचे में और मिले दो नन्ही चिडिया से! वर्षा के अनकहे शब्द सुनें और मोहिन्द कुमार से उनकी गज़ल और एक बढिया कविता.

कल्पतरु कुछ पूछ रहे हैं, भगवान के बारे मे आपको पता हो तो बतायें! ओह इधर ये शुरुआत का क्या मामला है ? इसे भी देखिये जरा.

हाँ! ये तो बिल्कुल सही कह रहे है अपूर्व जी कि 'संघर्ष आदमी को निखारता है'!और 'काम और वेतन मे सन्तुलन हो! लेकिन सन्तुलन रख पाना आसान नही होता देखिये फिर गडबड कर दी सचिन ने, इसिलिये पंकज उन्हे सम्हलने की सलाह दे रहे हैं.

अब चर्चा का अन्त करती हूँ रचनाकार पर..असगर वजाहत की ईरान यात्रा के संस्मरण के साथ--


एक विद्वान; नाम मत पूछिएगा क्योंकि यह किसी विद्वान ने नहीं बल्कि अज्ञानी ने कहा है कि किसी देश को समझना हो तो उसकी सड़कों पर जाओ। किताबों में गये तो देश को न समझ पाओगे। वैसे भी किताबों की तुलना में मैं सड़क को बेहतर समझता हूं इसलिए अगले ही दिन से मैं तेहरान की सड़कों पर आ गया और वह भी पैदल- यानी रुक-रुककर और मुड़-मुड़कर देखने की सुविधा के साथ।


चलते-चलते उड़न तश्तरी की नजर से:

संजीव तिवारी जी से सुनिये: छत्तीसगढ़ राजभाषा दिवस पर रिपोर्ट और ज्ञानदत्त पांडे जी से किस्सा पांडे सीताराम सूबेदार और मधुकर उपाध्याय .

छुटपुट बता रहें हैं कि ब्लॉग, पॉडकास्ट और विडियोकास्ट पॉर्टमेन्टो शब्द हैं,अब यह क्या होता है, यह वहीं जा कर देखे. वो तो हमेशा एक से एक आईटम बताते हैं, जो पहले कभी न सुने हों और कहते हैं छुट-पुट. :)

अतुल श्रीवास्तव लखनवी जी ने इंदू जैन जी कीकथा से एक गीत सुनाया और राकेश खंडेलवाल जी ने अपना गीत:

गीत श्रृंगार ही आज लिखने लगा:


लौंग ने याद सबको दिलाये पुन:शब्द दो नेह के और मनुहार के
आँज कर आँख में गुनगुनाते सपन, गंध में नहा रही एक कचनार के

तोड़िया झनझना पैंजनी से कहे, आओ गायें नये गीत मधुमास के
पायलों के अधर पर संवरने लगे बोल इक नॄत्य के अनकहे रास के
और बिछवा जगा रुनझुनें पांव पर की अलसती महावर जगाने लगा
झालरें तगड़ियों की सुनाने लगीं बोल गलहार को आज विश्वास के

यों मचलने लगा रस ये श्रंगार का, गीत लिखने लगा और श्रंगार के
लेखनी ओढ़ मदहोशियां कह रही, दिन रहें मुस्कुराते सदा प्यार के


पूरा गीत गीत-कलश पर पढ़ें.


अब अक्षरग्राम पर अनूप शुक्ला जी बतला रहे हैं कि हमारे ब्लागर साथी अपने ब्लाग पर लिखने के अलावा अब पत्र-पत्रिकाऒं में भी स्थान बना रहे हैं। आप भी देखें कि कौन कौन इस क्षेत्र में बढ़ रहा हैं.. ब्लागर साथी छापे की दुनिया में. यह आशा है कि हिंदी ब्लागजगत के साथियों की भागेदारी आगे भी प्रिंट मीडिया में उल्लेखनीय प्रगति करेगी।

इन्द्रधनुष की छटा निराली तो इनसे जाने शादी की उम्र और जब शादी की बात चली है तो उससे मुखातिब अमित भाई कहते हैं फैलता हुआ युद्धक्षेत्र , हालांकि उनका शादी वाली बात से कुछ लेना देना नहीं है, वो तो याहू गुगल बतिया रहे हैं.

अंत में काकेश से सुनिये “नराई” के बहाने सिर्फ “नराई”

अब चलते हैं, थोड़ा आराम करें, थोड़ा टिपियाये और फिर मिलते हैं. रचना जी ने पुनः मन लगा कर चर्चा की, बहुत साधुवाद.

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