रविवार, मई 31, 2009

वीडियो चर्चा

वीडियो चर्चा का आइडिया निम्न ईमेल से आया -

 

रवि भाई

एक मज़ेदार चीज़ भेज रहा हूँ. अँगरेजी में है पर आप के पाठकों को हैरानी  भरा मज़ा आएगा.

मुझे यह मेरे मित्र ऐड थाम्पसन ने   भेजा है. वह मेरे ज़माने में रीडर्स डाइजेस्ट के प्रधान संपादक थे.

अरविंद

 

अब आप भले ही इसे ईमेल फारवर्ड जैसा अपराध मान लें, मगर ऐड थाम्पसन द्वारा भेजा गया यह वीडियो वाकई हैरानी भरा मजा देता है -

अब जब बात वीडियो की हो रही हो तो देखते हैं कि हिन्दी चिट्ठों के संसार में पिछले दिनों कहां कहां वीडियो दिखाए गए.

नीरज रोहिल्ला अपने धावक क्लब के चुनाव का वीडियो दिखा रहे हैं कि कैथी का चुनावी अभियान कैसा रहा -

मीनाक्षी अपनी दम्मम यात्रा का वीडियो दिखा रही हैं, मगर ये क्या? यात्रा तो सिर्फ दो मिनट में खतम भी हो गई!

 

अमित जैन फरमाओ जान की अदा के जलवे दिखा रहे हैं

अपराजिताये क्या दिखा रही हैं कि पिपरा के पतवा सरीखे डोले मनवा...

सीमा सचदेव वैसे तो नन्हे मुन्नों के लिए दादी मां की कहानियाँ दिखा रही हैं, मगर हमारा मन इसे देख कर नन्हा बन गया -

आम के आम और गुठलियों के दाम? आदित्य के अलावा कोई और इस बात को ज्यादा अच्छे से सिद्ध कर सकता है भला? खेलो भी और खाओ भी!

अंकुर गुप्ताएक नई चीज के बारे में बता रहे है, पर पहले वे पूछते हैं कि यदि ईमेल अभी, इक्कीसवीं सदी में ईजाद किया जाता तो क्या होता? क्या होता? वीडियो में देखें, और खुश हों...

अच्छा चलिए, अब जरा ये बताइए, कि चूहा, बिल्ली को मार सकता है क्या? अपराजिता तो यही दिखा रही हैं -

मानसून की पहली पहली फुहार कहीं कहीं आने लगी है. न भी आई हो तो जरा इंतजार कर लें और इस वीडियो का पारायण कर लें. गरमी तनिक दूर हो जाएगी -

और, अंत में, सप्ताह का चित्र -

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(चित्र साभार - आलोक तोमर के ब्लॉग से)

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शनिवार, मई 30, 2009

जो नृप होय, हमे ही मानी वर्ना याद दिला देंगे नानी

एक लाईना


  1. जो नृप होय, हमे ही मानी :वर्ना याद दिला देंगे नानी

  2. भाड़ में जाय तुम्हारी व्यस्तता : हम तो बिजी रहते हैं,व्यस्त कभी नहीं

  3. काश ब्लॉगजगत की महिलाए इनसे सीखे :इस बार चूक गये, अगली बार टांग टूटे तब बताना नटखट बच्चे

  4. तरही कविता, तरह-तरह की कविता:ऒं की तेरही ज्ञानजी के सौजन्य से संपन्न

  5. शुक्रिया जिंदगी :इत्ती फ़ार्मेलिटी! क्या लफ़ड़ा है जी?

  6. कौन कहता है मैं कहता हूं गजल : किसकी हिम्मत जो ’पजल’ को’गजल’ कहे

  7. जब पैरों तले धरती खिसक जाये!!:शास्त्रीजी का ब्लाग खोलके पढ़ने बैठ जायें !

  8. भगवान न करे बीबी के हाथ का "वैसा" गरम पराठा खाने की नौबत आये! :बीबी नहीं पास गरम पराठा खाने की लगाये आस

  9. फ्रीलांसर का दर्द:न जाने कोय

  10. भारत की अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या और बढ़ी : वकील साहब ब्लागिंग में जुटे हैं

  11. आई लव यू दद्दू .....!! सेम टू यू बुद्दू.....!! : वैसे ये बताओ क्या भाव चल रहे हैं कद्दू

  12. तरही कविता - मंदी के मारे उर्वशी और पुरुरवा : कोलकता के अर्थसलाहकार की शरण में

  13. पसन्द करना सीख लो : ताकि नापसन्द करने में आसानी रहे

  14. फूल और कांटे :गठबंधन के लिये मचल रहे हैं

  15. आज की कारस्तानियां :बस यही बचा है करने को?

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शुक्रवार, मई 29, 2009

हर यात्रा पूरी जिंदगी का निचोड़ है

छुट्टियॉं चल रही हैं तथा अवसर है यात्राओं पर होने का। हम भी अभी एक यात्रा से लौटे हैं और आकर देखा तो पाया कि अलग अलग लोग यात्राओं पर हैं तो मुफीद जान पड़ा कि सबको इस चर्चा में भी यात्रा पर ही लिए चला जाए। तो चर्चायात्रा की शुरुआत में सवाल ये कि किस माध्‍यम से की जाए। अगर रेलगाड़ी को यात्रा के लिए चुना जाए तो पहले तो रेल में मारपीट बहुत हो रही है। मंत्री बदल गए हैं और अफसर लोग प्रतियोगियों यानि ट्रकवालों की तरफ प्रशंसा भरी निगाह डाल रहे हैं।

इतने इण्टरस्टेट बैरियर हैं, इतने थाने वाले उनको दुहते हैं। आर.टी.ओ. का भ्रष्ट महकमा उनकी खली में से भी तेल निकालता है। फिर भी वे थ्राइव कर रहे हैं – यह मेरे लिये आश्चर्य से कम नहीं। बहुत से दबंग लोग ट्रकर्स बिजनेस में हैं। उनके पास अपने ट्रक की रीयल-टाइम मॉनीटरिंग के गैजेट्स भी नहीं हैं। मोबाइल फोन ही शायद सबसे प्रभावशाली गैजेट होगा। पर वे सब उत्तरोत्तर धनवान हुये जा रहे हैं।

ज्ञानदत्‍तजी कुछ अलग कारण से ट्रकों की एक दिन की यात्रा करना चाहते थे पर ट्रक की यात्रा अपना भी सपना रहा है जो ढंग से अभी तक पूरा नही हुआ पर उम्‍मीद है कभी तो होगा...या शायद न हो क्‍योंकि उस लेवल का डिस्‍कंफर्ट सहने लायक शायद हम भी नही रहे।

अगर आप यात्रा की बात को हल्के में ले रहे हैं तो आपको जानना चाहिए कि सुविज्ञों की नजर में यात्रा का समय ही जीवन का निचोड़ है डेबिट क्रेडिट में संजय की थीसिस है कि हर रोज यही 100 मिनट की ट्रेन है जिसमें आप आप होते हैं।

हर दिन ट्रेन के वह १०० मिनट. मैं कोई ट्रेन की सबारी या फिर उस से जुडी किसी घटना को तरफ अपने इस पहली लेखनी को इंगित नहीं कर रहा हूँ बल्कि यह बतना चाह रहा हूँ कि यह हर दिन के वह १०० मिनट पूर्ण रूप से पूरी एक जिंदगी का निचोड़ हैं, और हर ब्यक्ति जो हर रोज अपने कर्म क्षेत्र के लिए इसका या इस तरह के किसी वाहन का प्रयोग करता हैं , रोज मात्र १०० मिनट में पूरी एक जिंदगी जी लेता हैं

हम संजय की बात से पूरी पूरी सहमति दर्ज करना चाहते हैं। पूरी पूरी बल्कि कहें पूरी पूरी से भी ज्‍यादा पर दिक्‍कत ये है कि अभिषेक का गणित ऐसा करने नहीं दे रहा। उन्‍होंने कोई मल्‍टीबेरिएबल समीकरण तो नहीं दिया पर कुछ कुछ भाषावालों की तरह बता दिया कि प्रोबेबिलिटी 1 से ज्‍यादा या 0 से कम नहीं हो सकती।

आज बारिश होने की सम्भावना ० है मतलब आज बारिश होना असंभव है. अब कोई कहता है कि कल बारिश होने की सम्भावना ० से भी कम है. (बोलचाल की भाषा में हम कह सकते हैं इसका मतलब ये है कि कल बारिश होने की सम्भावना आज से कम है.) पर गणित ये नहीं मानता अगर कल बारिश होने की संभावना आज से कम है तो आज बारिश होने की सम्भावना ० हो ही नहीं सकती ! क्योंकि असंभव से कठिन भला क्या हो सकता है?! पूर्ण से अधिक पूर्ण भला क्या हो सकता है और शून्य से अधिक शून्य !

चिटठों की यात्रा के दौरान ही सोचा कि भला इंसान यात्रा करता क्‍यों है...एक वजह ये होती है कि वो जहॉं होता है वहॉं से खुश नहीं होता इसलिए वो कुछ बेहतर जगह पहुँचना चाहता है और यात्रा करता है...ये अपने विद्यमान से विद्रोह है... स्‍थूलत: भी और जीवन में भी। पर शायद एक तरीका ये भी हो सकता है कि जहॉं हम हैं वहीं से कुछ और तकलीफदेह जगहों को देख लें । हम दिल्‍ली के तिरयालीस डिग्री के पारे में कोसानी-मनाली की ओर निहार सकते हैं या अल्‍पना वर्माजी के शहर के मौसम को देखकर सुकून महसूस कर सकते हैं

गरमी इस बार भी अपनी हदों को पार किये जा रही है.कल भी पारा ५० से ऊपर ही था.धूल भरी गरम खुश्क हवाएं दिन भर कहर ढाती हैं.सुबह ९ बजे के बाद नलों में आते पानी को हाथ लगा नहीं सकते. इतना गरम हो जाता है!हर साल अलऐन शहर यू.ऐ.ई का सब से गरम शहर होता है इस बार भी अपना रिकॉर्ड बनाये रखेगा! मई तो गुजरने वाला है,जल्दी से जून और जुलाई भी गुज़र जाएँ तब ही इस मौसम से निजात मिलेगी

यात्राक्रम में बिना तीरथ की बात किए बात न बनेगी इस लिहाज से दो चिट्ठों की चर्चा करना चाहेंगे। हिन्‍दयुग्‍म के साथी तपन गंगासागर के केकड़ों से मिलकर आ रहे हैं। इसी तरह विनीता नैनीताल से हरिद्वार तथा ऋषिकेश की यात्रा को साझा कर रही हैं आप भी घूम आएं।

उसने दुकान के आगे बड़ी सी घंटी लगाई थी और जोर से घंटी को झटका देते हुए आवाज लगा रहा था - आइये प्रभु ! सेवा का अवसर दीजिये। हमने सोचा की चलो भक्त को अवसर दे ही देते हैं सो हम अंदर आ गये और सबने एक-एक प्लेट गुलाब जामुन का ऑर्डर भक्त को दे दिया। कुछ देर बाद वो दोनों में रख के गुलाब जामुन ले आया। उसके गुलाब जामुन भी बहुत स्वादिष्ट थे और पत्तल के दोनों में परोस के देना भी बहुत अच्छा लगा। कम से कम कहीं तो कुछ बचा हुआ है और इसी खुशी के चक्कर में एक-एक प्लेट गुलाब जामुन और साफ किया गया।

(एकदम साफ बता दें कि ऊपर का उद्धरण हमने टाईप नहीं किया है जब भी कोई तालेवाला चिट्ठा सामने आता है हमारे पास दो ही विकल्‍प होते हैं या तो ओपेरा में खोलकर सीधा कापी पेस्‍ट करें या मटिया दें, रखो अपना कंटेट संभालकर...अचार डालो, यहॉं कापी पेस्‍ट किया है)

तो यह हुई यात्रा वाले चिट्ठों की चर्चा। इस क्रम में चलते चलते हंस के आवरणपृष्‍ठ का आनंद लें-

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गुरुवार, मई 28, 2009

मिजाज वाली पोस्ट एंकरिंग....पोस्ट एंकरिंग वाली चर्चा

चर्चा के लिए समय निकाला. जिस पोस्ट पर सबसे पहले नज़र पड़ी, वह है अलोक तोमर जी की लिखी पोस्ट जो आज हिंदी भारत पर छपी है. शीर्षक है; 'हिंदी जो सिर्फ शब्द या अक्षर नहीं है.'

आलोक जी ने टीवी पर हिंदी और खासकर कई लोकप्रिय चैनलों पर बोली जाने वाली हिंदी पर लिखा है. वे लिखते हैं;

"अचानक टीवी चैनलों के प्रस्फुटन और विस्फोट ने मीडिया में ग्लैमर और पैसा दोनों ही ला दिया है इसलिए भाई लोग एक वाक्य लिखना सीखें, इसके पहले किसी चैनल के न्यूज रूम में प्रोडक्शन असिस्टेंट से शुरू करके सहायक प्रोड्यूसर से होते हुए प्रोड्यूसर और सीनियर प्रोड्यूसर तक बन जाते हैं और गलत मात्राएँ लगाने और मुहावरों का बेधड़क बेहिसाब और बेतुका इस्तेमाल करते रहते हैं."


वे आगे लिखते हैं;

"चूंकि टीवी एक बड़ा माध्यम भी बन गया है इसलिए जो पीढी बड़ी हो रही है वो यही भाषा हिंदी के तौर पर सीख रही है. यह हिंदी के लिए डूब मरने वाली बात है."


ऐसा होना क्या हिंदी के लिए डूब मरने वाली बात है? एक भाषा के लिए?

अगर भाषा के लिए डूब मरने वाली बात है तो वे 'भाई लोग' किस बात पर डूब मरेंगे जो यह भाषा सिखा रहे हैं या फिर वे किस बात पर डूब मरेंगे जो सीख रहे हैं? उनके डूब मरने के लिए कौन सा बहाना चाहिए?

शायद भारतीय क्रिकेट टीम का ट्वेंटी-ट्वेंटी वर्ल्ड कप के पहले राउंड में ही बाहर हो जाना एक महत्वपूर्ण बहाना हो सकता है.

मेरा सवाल यह है कि निकम्मे लोगों के लिए भाषा क्यों डूब मरे? भाषा के लिए डूबना या मरना इतना ही आसान होता तो भाषा कब की डूब गई होती. निकम्मे केवल टीवी संस्कृति की उपज नहीं हैं. पहले भी थे. भविष्य में भी रहेंगे.

हिंदी पहले भी थी. भविष्य में भी रहेगी.

उन्होंने और क्या-क्या लिखा है, ये तो आप उनकी पूरी पोस्ट पढ़कर ही जानिए. कारण यह है कि 'हिंदी भारत' सुरक्षित है. ऐसे में अंश टाइप करना थोड़ा समय खर्च करने का काम है.

खैर, एक और अंश टाइप कर ही देता हूँ. तोमर जी लिखते हैं;

"मगर सौभाग्य से अब समाचार चैनल भाषा के प्रति सचेत होते जा रहे हैं. जी न्यूज में पुण्य प्रसून बाजपेयी, एनडीटीवी में प्रियदर्शन और अजय शर्मा, जी में अलका सक्सेना और एन डी टीवी में ही निधि कुलपति, आई बी एन - ७ में आशुतोष और शैलेन्द्र सिंह की भाषा उस तरह की है जिसे टीवी की आदर्श वर्तनी के सबसे ज्यादा करीब माना जा सकता है."


अब अगर पुण्य प्रसून बाजपेयी जी की भाषा और वाक्य रचने की कला पर जाएँ तो कल रात को ही मेरे एक मित्र के साथ हुई बातचीत याद आ जाती है. बाजपेयी जी की कला (या फिर उलझने की कला) पर मेरे मित्र का कहना था; "अरे सर, ये किस तरह के न्यूज रीडर हैं? मनमोहन सिंह जी की कैबिनेट और उसकी साइज़ पर इन्होने बोलना शुरू किया. पॉँच मिनट तक बोलने के बाद भी पता नहीं चला कि ये क्या कहना चाहते हैं?"

अगर आपको मेरी बात अटपटी लग रही है तो चलिए मैं उनकी 'इश्टाइल' में आज की चर्चा की 'पोस्ट एंकरिंग' (न्यूज एंकरिंग की तर्ज पर) कर देता हूँ.....

नमस्कार

देश में... कह सकते हैं, परिवर्तन का दौर है. और कोई भी परिवर्तन तमाम तरह के मिजाज लेकर आता है. कह सकते हैं मिजाज मौसम का है. जहाँ एक ओर पश्चिम बंगाल में इस महीने की सोलह तारीख से ही जहाँ राजनीतिक मिजाज बदला-बदला सा है वहीँ दूसरी तरफ प्रकृति का मिजाज भी बदल गया है.

राजनीति का मिजाज यह कि वाम की सत्ता उखड़ती हुई नज़र आ रही है. दूसरी तरफ हाल ही में आये तूफ़ान ने एक बार फिर से साबित कर दिया कि प्रकृति के सामने हम कितने बौने हैं. जहाँ एक तरफ मतदाता ने बताया कि वह शक्तिशाली है वहीँ दूसरी तरफ प्रकृति ने बताया कि उसकी शक्ति भी कम नहीं. शक्ति का यह खेल तो चलता रहेगा.

लेकिन बात केवल यहीं आकर ख़त्म नहीं हो जाती. शक्ति परीक्षण की बात आती है तो कहीं न कहीं समाज का मिजाज भी सामने आता है. समाज का वह तपका जो खुद को दबा कुचला पाता है...ऐसे में उन्हें तलाश रहती है ऐसे प्रबुद्ध लोगों की, जो उनकी मदद करें.

हम बात कर रहे हैं विनायक सेन की. जी हाँ, डॉक्टर विनायक सेन जो कई महीनों से जेल में बंद थे....लेकिन बात वो भी नहीं है.

जहाँ एक ओर वे रिहा हो गए हैं, वहीँ दूसरी तरफ अनिल पुसदकर जी सवाल कर रहे है; 'डॉक्टर विनायक सेन की रिहाई पर पर्चे बाँट कर खुशियाँ मना रहे है नक्सली! इसे क्या कहेंगे मानवाधिकारवादी!'...

यहाँ बात केवल मानवाधिकारवादियों की नहीं है....विनायक सेन को लेकर मीडिया का मिजाज भी कुछ मिला-जुला ही लगता है...प्रदेश की मीडिया इसके बारे में क्या कहती वो जानने से पहले हम चलते हैं....

उससे पहले मैं बात करना चाहूँगा साहित्य के मिजाज की...हाल ही में संपन्न हुए चुनावों और उसके नतीजों पर नज़र डालें तो पता चलेगा कि मुंहफट जी का साहित्यिक मिजाज क्या सन्देश दे रहा है....आईये देखते हैं कि मुंहफट जी क्या लिखते हैं...

वे लिखते हैं;

रोगी थे, धनवंत्री होगै
लोकतंत्र के तंत्री होगै
नेता, सांसद मंत्री होगै
हे राहुल के लटकन जी!
सटकनरायन सटकन जी!!

कांगरेस की रेस महान,
अहा मीडिया-गर्दभ-गान,
झूठ-मूठ में तोड़े तान
सरकारों के लटकन जी!
पुआ-पपीता गटकन जी!!


देश के वर्तमान राजनीतिक मिजाज पर साहित्य का मिजाज देखें तो पायेंगे कि साहित्यकार का उत्साह उस तरह का नहीं है जैसा मीडिया और बाकी नेताओं का है...कहीं न कहीं.......

बात साहित्य के मिजाज की भी नहीं है...

लेकिन बात कहीं न कहीं गणित तक आकर रुक जाती है. राजनीति और सत्ता का मिजाज भी गणित का ही मोहताज है...वैसे तो कह सकते हैं गणित का अपना मिजाज है.

ऐसे में हम बात करते हैं अभिषेक ओझा की पोस्ट की. देखा जाय तो बात केवल गणित के मिजाज की भी नहीं है. बात है शत-प्रतिशत से ज्यादा की. गणितज्ञ की बात करें तो वो शत-प्रतिशत से ज्यादा की संभावनाओं से इनकार करता है. अभिषेक लिखते हैं;

"पहले तो इस टिपण्णी को बस पढ़ लेता हूँ, पहली लाइन पढ़ कर प्रसन्न: बिलकुल सही कह रहे हैं आप... ऐसे ही डेढ़ सौ, दो सौ परसेंट की सहमती जताते रहिये. हमारी किस्मत ! या पोस्ट की सफलता या फिर दोनों का मेल... जो भी हो पर यकीनन रूप से सौ प्रतिशत से अधिक सहमति हो सकती है...."


अभिषेक आगे लिखते हैं;

"'शत प्रतिशत से अधिक की संम्भावना प्रॉबेबिलिटी में कैसे व्यक्त होती है?!' अब प्रॉबेबिलिटी को याद करके इस सवाल का जवाब देने का मन नहीं हुआ. अब सीधी सी बात है... प्रसन्नता को कम करने वाले सिद्धांत की काहे व्याख्या की जाय ! अरे मैं तो कहता हूँ… गणित के ऐसे सिद्धांतों को दरकिनार किया जा सकता है जो मानवीय आनंद पर सवाल खड़े करें ! :)"


मतलब यह कि गणितज्ञ का मिजाज भी कभी-कभी साहित्यकार के मिजाज से मेल खाता है...हाँ साहित्यकार का मिजाज अलग ही होता है....तुलसी बाबा ने खुद लिखा है कि;

अस मैं सुना श्रवण दशकंधर
पदुम अठारह जूथप बन्दर


तुलसी बाबा ठहरे साहित्यकार...उन्हें गणित की इस गणना से क्या लेना-देना कि अठारह पदम बन्दर पृथ्वी पर कहाँ फिट होंगे... गणितज्ञ की सोच से उन्हें कुछ खास लेना-देना नहीं...देखा जाय तो कहीं न कहीं बात विश्वास की है...

विश्वास की बात चली तो भौगोलिक और ऐतिहासिक बातों पर विश्वास की परत कैसे जमती है...आईये एक नज़र डालते हैं इस बात पर और बात करते हैं गुजरात की. बात गुजरात की भी नहीं...बात है असल में लक्ष्मीनारायण बालसुब्रमण्यम की.

वे लिखते हैं;

"गुजरात के प्राचीन इतिहास के संबंध में तो यह और भी अधिक सच है। इसलिए गुजरात के संबंध में पुराणों व अन्य प्राचीन ग्रंथों में जो उल्लेख आए हैं, उनका ऐतिहासिक महत्व है।"


लेकिन बात करें गुजरात की तो राजनीति का मिजाज कहता है कि गुजरात को नरेन्द्र मोदी से अलग रखकर नहीं देख सकते...सामाजिक ताने-बाने के टूटने की निशानी बन गई है गुजरात...कहीं न कहीं....ऐसे में मोदी और गोधरा से अलग रखकर गुजरात को देखना शायद.....

इतनी देर से चल रहे हैं...एक कोस भी नहीं जा पाए..

कहीं न कहीं....

नमस्कार

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बुधवार, मई 27, 2009

मैं हारी नहीं, बस थकी हूँ थोड़ी

साउदी अरब की राजधानी रियाद के होटल के कमरे से अनसिक्योर्ड नेट के ज़रिए इस चर्चा को करने की ठान ली.... हालाँकि फुरसतिया हमेशा की तरह मदद के लिए तैयार थे.... बस सोच लिया कि विपरीत परिस्थिति का सामना करके देखना होगा....सफलता मिली तो आत्मशक्ति भी मिलेगी.... आज की चर्चा जैसी भी हो उसे पढ़िएगा ज़रूर.... क्योंकि .......
मैं हारी नही !
बस थकी हूं थोड़ी ...........
वैसे ...... आज कुछ भी भूमिका बाँधने की न तो इच्छा है और न ही जरुरत!!
सीधे पढ़िये मनोभाव, बड़े अजीब से हैं: मेरे नहीं उड़नतश्तरी के मालिक के.....


इरशाद अली शबाना आज़मी की डायरी के कुछ पन्ने खोलते हैं वहाँ भी पिता की यादों का ज़िक्र है......... दुनिया में कम लोग ऐसे होते हैं जिनकी कथनी और करनी एक होती है। अब्बा ऐसे इंसान हैं-उनके कहने और करने में कोई अंतर नहीं है। मैंने उनसे ये ही सीखा है कि सिर्फ सही सोचना और सही करना ही काफ़ी नहीं, सही कर्म भी होने चाहिए.....

पिता के बारे में पढ़कर माँ की याद आ जाती है मुझे.....

मेरे पिता नहीं रहे
मेरी माँ
शून्यहीन सी
इस जग में होकर भी
नहीं थी....
न ही रहना चाहती थी॥
लेकिन
अपने बच्चों को देखती
उनकी ममता में डूबती उतरती
अपने आँचल की
शीतल छाया देती...
और सुख पाती.....
अपने अकेलेपन के
दुख को भुला देती.....है !

माँ की याद आते ही अपनी भारत माता की याद आने लगी.....
जो भरा नहीं है भावों से
जिसमें बहती रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।' नीशू ही नहीं हम सभी मैथिलीशरण गुप्त जी को खड़ी बोली को नया आयाम देने वालेकवि के रूप में मानते हैं....
देश को आज़ादी दिलाने वाले क्रांतिकारी देशभक्तों को भी हमेशा याद किया जाता है..... कई बार उनसे जुड़े कई सवाल जो आज भी मांगते हैं जवाब.... कि भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को सुबह के बजाय रात में ही क्यों दी गई फांसी??

आज नेहरूजी की पुण्य तिथि है। उनका जन्म १४ नवम्बर १८८९ और मृत्यु २७ मई १९६४ को हुई थी। बच्चों से प्रेम करने वाले चाचा नेहरू भारत के प्रथम प्रधानमंत्री थे। बच्चों के चाचा नेहरू को हम सभी फूलों सी महकती श्रद्धाजंलि देते हैं....

लावण्याजी की यादों के अनमोल खजाने में और भी बहुत कुछ देखने और सुनने को मिलता है ....
होश सम्हालो , रूक जाओ न , और सुन लो ,
रागिनी मधुर सी , बजती है जो फिजाओं में !

जरा सा व्यंग द्रौपदी का रच जाता है महाभारत सा इतिहास ताऊजी और सीमाजी की इस कविता ने प्रभावित किया ही .... लेकिन एक टिप्पणी ने भी दिल मोह लिया.... संजय बैंगनी ---- एक नन्ही सी टिप्पणी जन्म देती है होनहार ब्लॉगर को ... छोटे को छोटा न समझे...

डॉ रूपचन्द मयंक की नई पोस्ट के शीर्षक ने ध्यान आकर्षित किया.....और रेखा छोटी हो गई....
"किसी को मिटा कर उसका वजूद छोटा नही किया जा सकता है, अपितु उससे बड़ा बन कर ही छोटे बड़े के अन्तर को समझाया जा सकता है।"

दिल्ली को इन चरसियों से मुक्त करवाने के लिए 'कल्पतरु' ब्लाग पढ़कर कोई बंधु जो यह अधिकार रखता हो या मीडिया में हो तो कृप्या सहयोग करें और दिल्ली को सुँदर बनाने में योगदान दें।
हमने भी दिल्ली की जे।एन.यू.रोड पर एक चरसी को फुटपाथ पर पड़े देखा..... एक तरफ चरसी है...देश की चिंता... दूसरी तरफ होनहार युवा शक्ति भी है....दोनों के लिए समाज की चिंता स्वाभाविक है...

आखिर आइआइटी के ख्वाब तले पसरा अंधेरा कब रौशनी से जगमगायेगा।.......? प्रभात गोपाल की गपशप एक गम्भीर मुद्दे पर सोचने पर विवश करती है --- एजुकेशन इंफ्रास्ट्रक्टचर के नाम पर झारखंड और बिहार जैसे राज्य में कुछ नहीं है। साठ सालों से जनता को लुभावने नारों के साथ धोखा देने का काम किया जाता रहा है। इंटर के बाद हायर एजुकेशन के नाम पर इन दोनों राज्यों में संस्थानों की ऐसी कड़ी नहीं है कि जो लाखों छात्रों के बोझ को संभाल सके।

कुछ दुलर्भ और रोचक जानकारी --- शास्त्री जी का कहना है ....चंदन के जंगल खतम होते जा रहे हैं। आज चंदन का सिर्फ नाम चल रहा है, तेल किसी ने नहीं देखा, कल नाम से भी कोई इनको नहीं जानेगा।

अरविन्दजी की चित्र पहेली का समाधान अंतर सोहिल ने दिया जिसमें एक दुर्लभ फूल का ज़िक्र है .... इस फूल के बारे में हमने पहली बार जाना.... कार्प्स फ्लावर जिसे सूरन कहते हैं, यह ५-६ वर्षों में एक बार ही फूलता है ! दुनिया के बड़े फूलों के परिवार से नाता है इसका यानि रफ्लेसिया कुल का है यह ! खिलते ही मरे जानवर की दुर्गन्ध फैलता है जो कीटों को आकर्षित करने और परागण के लिए एक उपाय है ! पूरी तरह खिल जाने के बाद दुर्गन्ध मिट जाती है !


राजकुमार ग्वालानी का राजतंत्र भी एक रोचक जानकारी देता है॥ .....एक शोध में यह बात सामने आई है कि चीटियों में एक प्रजाति ऐसी है जो बिना नर के न सिर्फ बच्चे पैदा करने की क्षमता रखती है, बल्कि इस प्रजाति को नरों से ही परहेज है।

व्यंग्य जो जानने समझने और पचाने का विषय है .....आलोक पुराणिक - चुनाव सारे मजे जीतने वाले के ही नहीं होते हैं, हारने के भी कई फायदे हैं।
डॉ अमरकुमार कहते हैं -- अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल एक मिन्नी सी, सौम्य.. लजायी हुई पोस्ट देकर अपने जीवित होने की गवाही देनी पड़ी


हरकीरत हक़ीर को उनकी पुस्तक ' इक दर्द ' के लिए सम्मान-पत्र , कुछ राशि और शाल से सम्मानित किया गया । उन्हें बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ ....

शब्दों के सफ़र के अजितजी के सुपुत्र अबीर को दसवीं कक्षा में अच्छे अंकों में उत्तीर्ण होने पर बहुत बहुत बधाई... भविष्य उज्ज्वल और मंगलमय हो....

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मंगलवार, मई 26, 2009

रूठें कैसे नहीं बचे अब मान मनोव्वल के रिश्ते

चिट्ठा चर्चा: रूठें कैसे नहीं बचे अब मान मनोव्वल के रिश्ते

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बेअसर हो तो फ़िर दुआ क्या है


मंत्रिपद

ब्लागर मन का विश्लेषण करते हुये विवेक रस्तोगी ने लिखा:
हिन्दी में अपने प्रोफ़ेशन के बारे में कुछ लिखूँ । ( लिखा था पर न ज्यादा हिट्स आये और न ही प्रतिक्रिया)
तो ताऊजी ने ब्लागिंग का निचोड़ निकालकर उनके टिप्पणी बाक्स में धर दिया:
ये टीपणिबाजी तो शादी मे लिये दिये गये लिफ़ाफ़े का व्यवहार है. आप दोगे तो कोई आपको देगा, वर्ना यहां कोई पूछने का समय नही रखता.

एकदम यही बात हमलोगों ने इलाहाबाद में आठ मई को कही थी-
टिप्पणी करना एक तरह रिश्तेदारी में व्यवहार निभाना है। आप दूसरे के यहां नहीं जाओगे तो अगला भी आपके यहां आना बंद कर देगा या कम कर देगा।
क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि दो ब्लागरों के विचार आपस में मिल भी सकते हैं।

विचार का तो चलो भला हो गया लेकिन मौज का क्या किया जाये? मौज वो भी एक्सक्लूसिव। अमित अपने मित्र से एक्सक्लूसिव मौज लेते हुये सूत्र वाक्य बताते हैं-
एक्सक्लूसिव तो कचरे का डिब्बा भी होता है, जमादार के अलावा कोई नहीं ले जाता, तो क्या कीजिएगा एक्सक्लूसिविटी का!!


नीरज गोस्वामी उपेन्द्र की किताब खुशबू उधार ले आये का जिक्र करते हुये कुछ चुनिन्दा शेर पढ़वाते हैं:

मंत्रिपद
बेअसर हो तो फ़िर दुआ क्या है
चल के रुक जाये तो हवा क्या है

लोग हंसते हुये झिझकते हैं
ये इन्हें रोग सा लगा क्या है

गम हैं,मजबूरियां हैं, किस्मत में
फ़िर ये कोशिश ये हौसला क्या है
और कुछ शेर उधर से टीप के पढ़वाते लेकिन नीरजजी भी तालाबाजों में शामिल हो गये हैं इसलिये वहीं पढ़ना होगा आपको!
द्विजेन्द्र द्विज कहते हैं:

पंख कुतर कर जादूगर जब चिड़िया को तड़पाता है
सात समंदर पार का सपना , सपना ही रह जाता है




मंत्रिपद
दुष्यन्त कुमार की गजल की ये लाइने हम अक्सर कई दोहराते हैं:
मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूं ।

तू किसी रेल-सी गुज़रती है,
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूं ।

युनुस रेडियोवाणी में मीनू पुरूषोत्‍तम खूबसूरत आवाज में इस गजल को सुनवा रहे हैं। सुनिये आनंदित होंगे।

बबली ने अपने बारे में अपने प्रोफ़ाइल में लिखा है
मैं एक बहुत ही दिलचस्प और हसमुख लड़की हूँ और नए लोगों से दोस्ती करना बेहद पसंद करती हूँ !
वे लिखती हैं:
हम न कभी मिले तुमसे,
पर तुम्हारा चेहरा हमेशा देखते रहे,
राह पे जब एक दिन तुम्हारी झलक मिली,
उस दिन हकीकत को ख्वाब समझकर चलते रहें



लवली कुमारी
हम सभी लोगों ने प्रेमचंद की कहानी मंत्र पढ़ी होगी जिसमें बूढ़ा भगत डा.चढ्ढा के बेटे का इलाज करता है जिसको सांप ने काट लिया था। सांपो के बारे में आम लोगों की जानकारी बहुत सीमित होती है। हर सांप को जहरीला समझना और सही समय पर उचित इलाज न मिलने से अनेकानेक दुर्घटनायें हो जाती हैं। लवली कुमारी अपने ब्लाग के माध्यम से लोगों को सांपों के बारे में जानकारी देती रहती हैं। सांपों के संबंध में जानकारी देने के काम में डा.अरविन्द मिश्र उनका सहयोग करते हैं। अरविन्दजी लिखते हैं:
सबसे आश्चर्य की बात तो यह है की भारत में विषैले साँपों की संख्या अधिक न होने के बावजूद भी यहाँ सर्प दंश से होने वाली मौतों की संख्या सबसे अधिक है ! जबकि आस्ट्रेलिया जैसे देश जहाँ विषैले सांपों की संख्या काफी है हर वर्ष बस कोई एकाध मामलों में मौत की खबर आती है ! दरअसल भारत में जून से सितम्बर मांह तक सर्प दंश के संदर्भ में आपात काल जैसी स्थिति होती है ! पर इस आपात काल से निपटने की हमारी कोई तैयारी नही होती !

सांप के काटने पर क्या होता है इसबारे में वे बताते हैं:

डा.अरविन्द मिश्र
सर्प दंश की घटना के आरम्भ के ही कुछ लम्हे बहुत हड़कंप की सी स्थिति वाले होते हैं ! लोगों की भीड़ आ जुटती है और फिर शुरू हो जाता है जितने मुंह उतनी बातों का सिलसिला ! जिससे सर्प दंश पीड़ित और भी घबरा उठता है ! तरह तरह के उपायों और चिकित्सा विधियों की नीम हकीमीं पेशकश होने लगती है -कोई नीम की पत्ती खाने पर जोर देने लगता है तो कोई शुद्ध देशी घी पिलाने की हिमायत करता है ! कोई घडों पानी से नहलाने की पुरजोर वकालत !


गर्मी में गुलमोहर और अमलतास के फ़ूल दिखते हैं। रंजना भाटिया गुलमोहर और अमलतास के बारे में लिखती हैं:

गुलमोहर

गुलमोहर के फूल
जैसे हाथ पर कोई
अंगार है जलता ...



अमलतास
जेठिया आग से
झुलसे है बहार
अमलतास से मिटे
कुछ गर्मी की आस



हिमांशु कहते हैं:
बस आँख भर निहारो मसलो नहीं सुमन को
संगी बना न लेना बरसात के पवन को ।

वह ही तो है तुम्हारा उसके तो तुम नहीं हो
बेचैन कर रहा क्यों समझा दो अपने मन को ।


खाद्य पदार्थ
आज पाबलाजी के जुड़वां बच्चों के जन्मदिन हैं। पाबलाजी के बेटे, बेटी को उनके जन्मदिन पर हमारी मंगलकामनायें।

इसी क्रम में एक खुशखबरी और है कि अनीताकुमार जी के बेटे आदित्य के विवाह की बात पक्की हुई और रोका हुआ उनकी
होने वाली बहू का नाम रोमा है। अनीताजी को हमारी बधाई।

और अंत में


आज के लिये फ़िलहाल इतना ही। चलते-चलते ज्ञानजी की पोस्ट का जिक्र जरूरी है जिसमें वे लिखते हैं:
धरती पर हमारी दशा उस मेंढ़क सरीखी है जिसे बहुत बड़े तवे पर हल्के हल्के गरम किया जा रहा है। गरम होना इतना धीमा है कि मेढ़क उछल कर तवे से कूद नहीं रहा, सिर्फ इधर उधर सरक रहा है। पर अन्तत: तवा इतना गरम होगा कि मेढ़क तवे से कूदेगा नहीं – मर जायेगा। हममें और मेढ़क में इतना अन्तर है कि मेढ़क सोच नहीं सकता और हम सोच कर आगे की तैयारी कर सकते हैं।


आपका दिन शुभ हो।

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सोमवार, मई 25, 2009

रूठें कैसे नहीं बचे अब मान मनोव्वल के रिश्ते


समाज में ‘आधुनिकता’ के प्रवेश के साथ जिन नवीन मूल्यों (?) ने अपना स्थान बनाया उन्होंने यों तो समस्त विश्व को एक बाज़ार में रूपान्तरित कर दिया किन्तु भारतीय समाज पर इसका सर्वाधिक दुष्प्रभाव इसलिए हुआ क्योंकि इस देश का मुख्य आधार {इसका पारिवारिक ताना-बाना व संबन्धों के प्रति एक निष्ठ समर्पण भाव (सामूहिकता व सामासिकता )} ही दरक गया। आज हम जिस आधुनिक समाज मॆं जी रहे हैं, उसमें परिचय तो बहुतेरे हैं, सम्पर्क भी बेशुमार हैं, सम्पर्कों से लाभ लेने की प्रगति भी बहुतेरी ऊपर को है, इन्टरनेट पर नेटवर्किंग का जाल बिछा है, ......... प्रतिदिन फ़ोलोवर्ज़, फ़्रेंडज़, ...या ग्रुप -मेम्बर्ज़ बढ़ते ही जाते हैं...... परन्तु इनमें ‘अपने’ कितने हैं, कितने सच्चे साथी है? अस्तु ! मुद्दा विचारणीय है।


मैंने इस दृष्टि से हिन्दी के चिट्ठों को तलाशा कि सम्बन्धों या रिश्तों को लेकर हिन्दी- चिट्ठाकारों की चिन्ताएँ किस प्रकार की व कितनी हैं। जो परिणाम सामने आए, आप भी उन्हें देखें। यह सामग्री सम्पूर्ण नहीं है, न अन्तिम है। यह गत कुछ समय में आई थोड़ी सामग्री है। मैं बीच में बिना कोई टिप्पणी किए ज्यों का त्यों इसे क्रमवार नीचे प्रस्तुत कर रही हूँ। यह कविता,गज़ल, विचार,संस्मरण, समाचार-विश्लषण आदि रूपों में है।






एक रिश्ता जो ठहर गया: ओम् आर्य

वो पानी नही ठहरा.......

हजार दफा पोंछी आँख
पर
बहती रही
बारिश की नजर मुसलसल
गुबार के काले बादल
बरस कर खाली हो गए
पर सुबकिया थमी नहीं
ना सुबकिया ठहरी और ना वो पानी ठहरा
एक रिश्ता था जो बस ठहर गया था



रिश्ते : जेन्नी शबनम
रिश्तों की भीड़ में,
प्यार गुम हो गया है |
प्यार ढूँढती हूँ ,
बस, रिश्ते हीं हाथ आते हैं |






रिश्ते : निर्झर नीर
लोग अक्सर मुझपे फिकरे कसते हैं
पडा रहता है टूटी खाट मैं
बुन क्यों नही लेता इसे फिर से
कैसे कहूँ क्यों नही बुन लेता ?
सोचता हूँ तो हाथ कांपने लगते है
ये खाट और रिश्ते मुझे एक से लगते हैं !




रिश्ता
: ऋचा शर्मा
उस ठिठुरते रिश्ते पर, कोई और रिश्ता अपने रहमो करम की चादर को तो ढकता है !
लेकिन ..........
फिर भी उस चादर में से बारिश का पानी बूँद बनकर टपकता है !



अनाम सा रिश्ता


अनकहे रिश्ते , और उम्रों का इंतज़ार...: नाम गुम जाएगा

रिश्ते...
जनम के, कर्म के, सोच के, जिस्मों के, दोस्ती के
और बहुत से रिश्ते....
टूट जाने वाले...
टूट सकने वाले...
जिनका होना हम नही मांगते, वो रिश्ते...
जिन्हें चाहते हैं, लेकिन पा नही पाते..., वो रिश्ते...
रिश्ते
अपने होने की कीमत मांगते हैं....
अलग अलग शक्लों मैं....
अब वो चाहे कुछ भी हो....
कभी कभी सालों लंबे इन्तेज़ार की शकल मे....
और अगर वो इन्तेज़ार ख़तम होता लगते हुए भी लंबा खिंचता चला जाए
अपनी अहमियत बताते हैं....
और हमें तड़पाते हैं...
कब ख़त्म होगा ये...
इंतज़ार....
और समाज मे तुम्हे दे पाऊंगा, तुम्हारा रुतबा और तुम्हारा नाम....
और तब तक
अनकहे रिश्ते , और उम्रों का इंतज़ार...
और इस सब के दरम्यान , सिर्फ़ प्यार






ये रिश्ते : - ऋतु जैन

ये रिश्ते ,ऐसे हैं जो,
छूटकर भी,छूटते नहीं
कुछ बन्धन ऐसे हैं जो ,
टूटकर भी टूटते नहीं,
तुम को दिल का हाल,बता सकते अगर,
तो यूँ लिखकर बयां करते नहीं,
अपनी ,हर खुशी तेरी आंखों में,
बेवफा,हम ढूँढा करते नहीं।



रिश्ते बस रिश्ते होते हैं : आम आदमी
रिश्ते बस रिश्ते होते हैं
कुछ इक पल के
कुछ दो पल के

कुछ परों से हल्के होते हैं
बरसों के तले चलते-चलते
भारी-भरकम हो जाते हैं

कुछ भारी-भरकम बर्फ़ के-से
बरसों के तले गलते-गलते
हलके-फुलके हो जाते हैं

नाम होते हैं रिश्तों के
कुछ रिश्ते नाम के होते हैं
रिश्ता वह अगर मर जाये भी
बस नाम से जीना होता है

बस नाम से जीना होता है
रिश्ते बस रिश्ते होते हैं



कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पर : अरुण कुमार

कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पर
कुछ बिना मांगे मिलतें हैं
कुछ हम बनातें हैं।

कुछ रिश्तो में अजीब सी घुटन
साथ रहकर भी कोसो की दूरी

एसा जैसे नदी के दो किनारे
साथ-साथ चलतें हैं, मिलने को तरसते हैं
निभाते हैं एसे सजा हो जैसे

प्यार, विश्वास, ममता नही
खून के रिश्ते बेमानी से लागतें हैं

लेकिन कुछ रिश्ते जीवन में खुशियां भरते हैं

ना खून का रिश्ता, ना भाषा का
ना धर्म एक, ना रीत-रिवाज
फिर भी उनका साथ कितना शुकून देता है

जहां सारे रिश्ते बैमानी लागतें है
वहीं कुछ रिश्ते ..............





रिश्तों की नई दुनिया : अखिलेश्वर पांडेय
कैरियर को नई ऊंचाइयां देने, भागदौड की जिंदगी में लगातार समय की कमी हमारी नयी पीढी की आम समस्या है। खासकर शहरी युवाओं के पास रिश्ते को निभाने के लिए समय का अभाव है। दूर के रिश्तेदारों को कौन कहे बच्चे अपने मां-बाप के साथ भी काफी कम समय बिता पाते हैं। ऐसे में उनकी संवेदनाएं रिश्ते के प्रति खत् होती जाती है। कई बार मां-बाप के पास भी बच्चों के लिए समय होने के कारण बच्चे इंटरनेट को अपना साथी मानने लगते हैं। हर जिज्ञासा, हर समस्या के लिए उनको इंटरनेट से बढिया साथी कोई दूसरा नहीं लगता।

यही वजह है कि सोशल नेटवर्किंग साइट- आरकूट, यू-टयूब, ब्लाग और मेल दोस्ती की पींगे बढाने, किसी समस्या के लिए सलाह-मशविरा करने और आम राय बनाने के लिए न्यू जेनरेशन को सबसे आसान राह नजर आता है। अगर देखा जाये तो इसमें कुछ गलत भी नहीं है, पर इस सबके बीच न्यू जेनरेशन अपनों से काफी दूर होता जा रहा है। उसे नहीं पता कि उसके घर में क्या हो रहा है, उसके मां-बाप किस समस्या से गुजर रहे हैं, उसके लिए उसके रिश्तेदार क्या धारणा रखते हैं, उसे कभी-कभार अपने सगे संबंधियों का हालचाल भी जानना चाहिए। इसका असर तत्काल भले दिखे पर हमारी निजी जिंदगी पर पडता जरूर है। परिवार एक अमूल् निधि है इसे बचाये बनाये रखना हमारा पुनीत कर्तव् है।



परिवार कहाँ जाएँगे, रिश्ते कहाँ जाएँगे : कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

हमें विशेष यह नहीं लगा कि दोनों वृद्ध अपने आपको किस तरह यहाँ एक दूसरे को सहारा देते हुए लाये होंगे वरन् जिस बात ने हमें चकित किया वह यह थी कि वह स्त्री बड़े ही मातृत्व भाव से उस पुरुष की देखभाल कर रही थी। कमरे में होने के बाद भी वह वृद्ध पुरुष के सिर को लगातार कपड़े से ढाँकती जाती थी, बीच-बीच में बड़े ही दुलार के साथ उसके सिर पर हाथ भी फिरा देती। पुरुष उस समय बड़े ही निरीह भाव से उसको देख लेता और बीच-बीच में अपनी आँखों की नमी को पोंछ भी लेता।
उस महिला का थोड़ी-थोड़ी देर में पानी ले आना, कभी साथ में लिये छोटे से पंखे से हवा करने लगना, कभी बातों के द्वारा उस व्यक्ति को सांत्वना देना और उस व्यक्ति के द्वारा भी बीच-बीच में पानी की बोतल से (जिसमें रखा पानी निश्चय ही गर्म हो चुका होगा) पानी निकाल कर उस महिला को देना, उसके हाथ से पंखा लेकर उसको हवा करने से रोकना, अपनी स्थिति को लेकर उस महिला को भी हिम्मत बँधाना बतला रहा था कि दोनों में किस कदर प्रेम-स्नेह है।




निभें तो सात जन्मों का,अटल विश्वास हैं रिश्ते
: विवेक रंजन श्रीवास्तव
मुलायम दूब पर,
शबनमी अहसास हैं रिश्ते
निभें तो सात जन्मों का,
अटल विश्वास हैं रिश्ते
जिस बरतन में रख्खा हो,
वैसी शक्ल ले पानी
कुछ ऐसा ही,
प्यार का अहसास हैं रिश्ते
कभी सिंदूर चुटकी भर,
कहीं बस काँच की चूड़ी
किसी रिश्ते में धागे सूत के,
इक इकरार हैं रिश्ते
कभी बेवजह रूठें,
कभी खुद ही मना भी लें
नया ही रंग हैं हर बार ,
प्यार का मनुहार हैं रिश्ते
अदालत में
बहुत तोड़ो,
कानूनी दाँव पेंचों से लेकिन
पुरानी
याद के झकोरों में, बसा संसार हैं रिश्ते
किसी को चोट पहुँचे तो ,
किसी को दर्द होता है
लगीं हैं जान की बाजी,
बचाने को महज रिश्ते
हमीं को हम ज्यादा तुम,
समझती हो मेरी हमदम
तुम्हीं बंधन तुम्हीं मुक्ती,
अजब विस्तार हैं रिश्ते
रिश्ते दिल का दर्पण हैं ,
बिना शर्तों समर्पण हैं
खरीदे से नहीं मिलते,
बड़े अनमोल हैं रिश्ते
जो
टूटे तो बिखर जाते हैं,
फूलों के परागों से
पँखुरी पँखुरी सहेजे गये,
सतत व्यवहार हैं रिश्ते



गज़ल : जुनैद मुंकिर

मोहलिक तरीन रिश्ते निभाए हुए थे हम,
बारे गराँ को सर पे उठाए हुए थे हम.


खामोश थी ज़ुबान की अल्फाज़ ख़त्म थे,
लाखों गुबार दिल में दबे हुए थे हम.


ठगता था हम को इश्क, थगाता था खुद को इश्क,
कैसा था एतदाल कि पाए हुए थे हम.


गहराइयों में हुस्न के कुछ और ही मिला,
हक वफ़ा को मौज़ू बनाए हुए थे हम.


उसको भगा दिया कि वोह कच्चा था कान का,
नाकों चने चबा के अघाए हुए थे हम.


सब से मिलन का दिन था, बिछड़ने की थी घडी,
"मुंकिर" थी क़ब्रगाह की छाए हुए थे हम




'मेरे अपनी माँ से बहुत अच्छे संबंध थे। मेरे कुछ कहे बगैर ही वो मेरी हर जरूरत को पूरा कर देती थी। 16 बरस की उम्र तक वो मेरी सबसे अच्छी दोस्त थी। बाद में मैंने उनसे कुछ बातें इसलिए शेयर नहीं कि ताकि मेरी बातों से उनकों कोई तकलीफ ना पहुँचे।'

अमूमन हर माँ-बेटी के रिश्ते इतने ही मधुर सामंजस्य से परिपूर्ण होते हैं। अपवादस्वरूप इस रिश्ते में यदि मनमुटाव आता है तो वह सामंजस्य के अभाव नासमझी की वजह से होता है। विशेषज्ञों की माने तो 'जो माँ अपनी बेटी पर गर्व करती है तथा अपनी बातों में अपनी खुशी को दर्शाती भी है। उन माँ-बेटियों के संबंध मधुर होते हैं तथा जो माँ हमेशा अपनी बेटी से लड़ती-झगड़ती है। उनके अपनी बेटियों से संबंध तनावपूर्ण होते हैं।'



एक रिश्ता !!! : मुक्ता

विचारो की उन्मुक्त बयार
और अन्तर्मन का स्वछन्द आकाश
कल्पना करता है एक ऐसे रिश्ते की
जो हो पवित्र प्रेम की तरह,
और हो उसी के रस में सींचा-बसा,
जो हो पावन इस वर्षा जल की तरह,
और हो मासूम एक रात की तरह,
जो हो उन्मुक्त पंछियों की उड़ान की तरह,
और हो कोमल एक पंखुडी की तरह,
एक रिश्ता
जिसकी प्राण-वायु हो अहसास, और पोषक रस हो विश्वास
जिसमे व्यर्थ के आडंबरो की जगह, हो केवल मौन-मुक्त वार्तालाप
और हो एक दूसरे के लेश-मात्र दुःख से, काँप उठने की शिद्दत
केवल प्यार और बस प्यार की चाहत
मैं एक ऐसा ही रिश्ता बनाना चाहती हूँ
अपनी कल्पनाओं को एक नाम देना चाहती हूँ
अन्तर्मन की परिधि में तुझे बांधना चाहती हूँ
अपने विचारो को नए आयाम देना चाहती हूँ





पैसा है तो रिश्ते जोड़ो : अभिषेक आनन्द

कई बार आर्थिक कारण अप्रत्यक्ष रूप से भी रिश्तों को प्रभावित करते है। और इस बात को तो मैंने ख़ुद के साथ अनुभव किया है। कुछ एसे रिश्ते जो मेरे लिए बहुत अहम् थे बस आर्थिक स्थिति के कारण टूट गए। आज भी यद् है जब मुझे बुलाया जा रहा था और मेरे से कहा गया कि अगर तुम नही आए तो शायद सब बिगड़ जाएगा। इसके बाद भी अपनी आर्थिक स्थिति के कारण मै नही जा सका और नतीजा मेरा सबसे अहम् रिश्ता टूट गया।
आज भी लगता है कि अगर मेरी आर्थिक स्थिति सही होती तो सब नही होता। अपने अच्छे समय मे बनाये गए कुछ रिश्तों को बुरे दौर मे बुरी तरह से टूटते हुए देखा है।
मुझे लगता है कि संबध और रिश्तो की विवेचना करते समय इसे भावनात्मक जुडाव और दिल से जुड़ी चीज मन कर आर्थिक कारक को गौण बनाना सही नही है। सम्बन्ध तभी तक स्थाई है जब तक आप उसे हर स्तर से बनाये रखने मे सक्षम है। इसलिए अगली बार जब रिश्तों की पड़ताल करे तो इस कारक को भी जरुर ध्यान मे रखे।





रिश्ते : डॉ. अजित गुप्ता
एक दिन उदयपुर से आबूरोड की यात्रा बस से कर रही थी। जनजातीय क्षेत्र प्रारम्भ हुआ और एक बीस वर्षीय जनजातीय युवती मेरे पास आकर बैठ गयी। मेरा मन कहीं भटक रहा था, टूटते रिश्तों को तलाश रहा था। मैं सोच रही थी कि क्या जमाना गया है कि किसी के घर जाने पर मुझे आत्मीय रिश्तों की जगह औपचारिकता मिलती है और सुनने को मिलता है एक सम्बोधन - आण्टी। इस सम्बोधन सेहम एक परिवार नहीं हैका स्पष्ट बोध होता है। मुझे बीता बचपन याद आता, कभी भौजाईजी, कभी काकीजी, कभी ताईजी, कभी बुआजी, कभी जीजीबाई आदि सम्बोधन मेरे दिल को हमेशा दस्तक देते हैं। लेकिन आज मेरे आसपास नहीं थे ये सारे ही। मेरे समीप तो रह गया था शब्द, केवल आण्टी। इन शब्दों के सहारे हमने दिलों में दूरियां बना ली थी।
मैं किसी कार्यक्रम में भाग लेने जा रही थी और मुझे वहाँ क्या बोलना है इस बात का ओर-छोर दिखायी नहीं दे रहा था। इतने में ही झटके के साथ बस रुकी। एक गाँव गया था। नवम्बर का महिना था और उस पहाड़ी क्षेत्र में इस महिने बहुतायत से सीताफल पकते थे। अतः बाहर टोकरे के टोकरे सीताफल बिक रहे थे। मेरे पास बैठी युवती बस से उतरी और हाथ में सीताफल लेकर बस में वापस चढ़ गयी। उसने एक सीताफल तोड़ा और मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोली किबुआजी सीताफल खाएंगी’?




शाखाओं के रिश्ते
: मोना परसाई

कभी एक छत के नीचे रहे लोग
मिला करते हैं अब भी कभी-कभी
उसी छत के तले
मजबूरियों की केंचुल से निकल,
दुनियादारी की गर्द में लिपटी
एक दूसरे की आँखों में
अपना अक्स टटोलते हैं
दीवारों की दरारों को
हथेलियों से ढंकते हुए,
छत को बचाए रखने के
ताम-झाम जुटाते हैं
और त्यौहार बीतते-बीतते
यह जानते हुए भी कि
कोई बारिश ढहा देगी
आपस में मिलने के
इस बहाने को भी,
लौट जाते हैं वापस
बोनसाई की डालों पर
लटके आशियानों में।




फूलों वाले रिश्ते...!: डॉ.चन्द्रकुमार जैन


निकल जाए कांटा, काँटे से

फिर भी कभी भूलें हम

फूलों वाले रिश्तों को

काँटों से कभी तौलें हम

शब्दों में मीठापन चाहे

मत घोलें पर याद रहे

अन्तर आहत करने वाली

वाणी कभी बोलें हम


अपना रिश्ता: ज्ञानेश

ये दोस्त का रिश्ता बड़ा ही प्यारा है
जैसे खिला हुआ गुलिस्ता हमारा है
महक फूलों की तरह
चहक चिडियों की तरह
गुजते गुंजन की तरह
यह रिश्ता हमारा है दोस्ती

दोस्ती का रिश्ता बड़ा ही प्यारा है
दुःख दर्द में भी साथ चलना
गेरों के बिच में अपना बनाये रखना
रखना विश्वाश मेरा , हमेसा अपने दिल में
ग़मों के पतझड़ में ख़ुद को बनाये रखना
रखना विश्वाश ख़ुद का ख़ुद को बनाये रखना
अपना ये रिश्ता खुदा से भी प्यारा है
दोस्ती का रिश्ता बड़ा ही प्यारा है
आगन में साथ चलना
राहों में साथ चलना
जिन्दगी के सफर में भी साथ साथ चलना
दूरियां बहुत हों पर दिल के पास रहना
खुशियों से दामन ख़ुद का सजाये रखना
हँसाना और मुस्कुराना और एक साथ रहना
वादा हमेशा मुझसे बस इतना ही करना
बस दोस्ती का रिश्ता अपना बनाये रखना


रिश्तों से क्या कहूँ ? : सिफ़र


ज़र में भी अब अलफाज़ लड़खड़ाते हैं।
खता अब सज़ा बन चुकी है।
हर मोड़, एक-एक नाते, भूली बिसरी हर वो बातें,
चाहत और फिर एक आहट सी।
कि, अब उन्स के दीपक में भी लौ नहीं।
कि, अब बाती से रौशनी कज़ा बन चुकी है।
रिश्तों से क्या कहूँ?

अलफाज़ अब भी कोरे कागज़ पर हैं।
नज़रें रूकती नहीं, जाने कौन अब आएगा।
सतरंगी आँचल सा साया तो छूट गया।
कि, आकाश का सूनापन शायद अब छाएगा।
रिश्तों से क्या कहूँ?

रस्म धागों की, धागों में बंध चुकी है।
जिस्म का ज़र दहकता है।
कि , धागों से रिश्ते तो टूट चुके।
आज़ मैं पुकारता हूं, तुम आओगे?
कि, गुज़र जाएगा पल-पल ये,
कि, बहुत सहाएगा हर पल ये।
रिश्तों से क्या कहूँ?

वक्त का जिस्म जल तो गया।
कि, मौका परस्त रूह, है बिखरी कहीं।
हर पत्ते तो मेरी शाखों से टूट गए।
पर उन पत्तों कि काली ज़ुबाँ,
अब सच के दर पर मरती नहीं।
रिश्तों से क्या कहूँ?


क्या आप मानते हैं : विश

'दोस्ती' के पर्वत से ही प्रेरणा के झरने बहकर सफलतारूपी सरोवर में जा मिलते हैं। 'दोस्ती' वह जुगनू है, जिसकी टिमटिमाती रोशनी प्रतिकूलताओं की निशा में उम्मीद की किरण की तरह हमेशा जगमगाती रहती है। 'दोस्ती' उस सुरभि का नाम है जिसका अहसास 'अपनत्व' का अनुभव कराता है। कोई कहे 'दोस्त' हमदर्द होता है परंतु सच्चाई तो यह है कि 'दोस्त' वह गुरूर होता है, जिसके आश्रय में हममें मुसीबतों से लड़ने का साहस जाग जाता है।तो बोलिए... क्या आप बन सकते हैं, ऐसे दोस्त। यदि 'हाँ' तो आज ही के दिन से इसकी शुरुआत कीजिए...



रिश्तों को दागदार करते रिश्ते : गुफ़्तगू
मुझे आज भी वो दिन याद है जब मेरी माँ मुझे डराने के लिएकहा करती की घर से बाहर मत जा बाबा उठा कर ले जाएगा। समय के काल चक्र ने आज उस बाबा को अपराध का नामदे दिया है आज कहा जाता है की समय पर घर पर आजाया करो अपराध और अपराधी दिन पर दिन बढ़ रहे है ।लेकिन लड़कियों के लिए तो अपराधी आज घर में ही बैठे है ।मेरी इसी बात से पहलु निकलता है की अपराधी वही है जोअपने ही रिश्ते को दागदार कर रहे है।




रिश्ते : दो स्थितियाँ :कविता वाचक्नवी

(1)

रूठें कैसे नहीं बचे अब
मान मनोव्वल के रिश्ते
अलगे-से चुपचाप चल रहे
ये पल दो पल के रिश्ते .


कभी गाँठ से बंध जाते हैं
कभी गाँठ बन जाते हैं
कब छाया कब चीरहरण, हो
जाते आँचल के रिश्ते


आते हैं सूरज बन, सूने
में चह-चह भर जाते हैं
आँज अँधेरा भरते आँखें
छल-छल ये छल के रिश्ते


कच्चे धागों के बंधन तो
जनम-जनम पक्के निकले
बड़ी रीतियाँ जुगत रचाईं
टूटे साँकल कल के रिश्ते


एक सफेदी की चादर ने
सारे रंगों को निगला
आज अमंगल और अपशकुन
कल के मंगल के रिश्ते


(2)





रँगी परातों से चिह्नित कर
चलते पायल-से रिश्ते
हँसी -ठिठोली की अनुगूँजें
भरते, कलकल-से रिश्ते


पसली के अंतिम कोने तक
कभी कहकहे भर देते
दिन-रातों की आँख-मिचौनी
हैं ये चंचल-से रिश्ते



उमस घुटन की वेला आती
धरती जब अकुलाती है
घन-अंजन आँखों से चुपचुप
बरसें बादल -से रिश्ते



पलकों में भर देने वाली
उंगली पर रह जाते हैं
बैठ अलक काली नजरों का
जल हैं, काजल -से रिश्ते


कभी तोड़ देते अपनापन
कभी लिपट कर रोते हैं
कभी पकड़ से दूर सरकते
जाते, पाग -से रिश्ते



सम्बन्ध या रिश्ते की सर्वाधिक स्वत:संपूर्ण अर्थवत्ता मानवीय सरोकारों के साथ जुड कर आती है, और सबसे संकुचित या संकीर्ण भंगिमा स्त्री-पुरुष के आकर्षणजन्य संबंधों की भावभूमि पर से गुजरते हुए. इन कसौटियों पर आप स्वयं सामग्री का आकलन कर सकते हैं . इसे क्या कहा जाए कि रिश्ते के नाम पर बहुधा संबंधों की उसी कोटि की सामग्री का बाहुल्य दिखाई देता है, जिन संबंधों में अभी रस - परिपाक वाली स्थिति का लेश होना तो दूर, प्रेम भी पूरा पनपा नहीं होता. ऐसा नहीं है कि उन विषयों पर लिखा नहीं जा रहा होगा, वस्तुत: वह प्राप्त इसलिए भी न हुआ होगा कि उसे `रिश्ता' या `रिश्ते' शब्द द्वारा परिभाषित न किया गया हो. कारण कई हो सकते हैं, मेरी क्षमता व समय की भी अपनी सीमाएँ कारक हो सकती हैं, सामग्री की कालावधि भी . अस्तु, जो भी हो. आज बिना अधिक प्रस्तावना या उपसंहार के आप सामग्री का आनंद लें व लेखकों को तो अपनी प्रतिक्रिया दें ही, चर्चा पर भी आपकी राय महत्वपूर्ण हैं, इसे अवश्य स्मरण रखें.

आपका सप्ताह आह्लादकारी हो, प्रगतिदायी हो। शुभकामनाएँ.

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