सोमवार, मई 31, 2010

बेकार के विवादों की निन्दा करना भी उन्हें बढ़ावा देना है

विनीत कुमार ने कल बज पर लिखा:
चार लड़कियां एक साथ। किसी के हाथ में मदर डेरी दूध की थैली,किसी के हाथ में लीची,एक के हाथ में कोक और एक के हाथ में सब्जी की पॉलीथीन। सब मैगजीन की दूकान पर खड़ी होकर पढ़ रही थी- कैंपस- प्रेम,पॉलिटिक्स और पढ़ाई। मैं खड़ा देख मुस्करा रहा था कि उसके पलटने से नजरें टकरा गयी। वो मैगजीन में छपे लेखक की तस्वीर से मिलान करने की कोशिश में थी कि मैं आगे बढ़ गया। ले लेख कादंबिनी के जून अंक में है।
इस बज से क्या पता चलता है! यही न कि बजकार का रवैया असहयोगात्मक है। जब कोई फ़ोटो मिला रहा है तो आप आगे बढ़ लिये। आप जब अकेले आगे बढ़ेंगे तो कोई प्रगति क्यों कर होगी।

ये वही विनीत कुमार हैं जिन्होंने चार दिन पहले लिखा- अब ब्लॉगिंग करना पहाड़ लगता है.. । इस पहाड़ को पार करने के बाद एक लेख लिख मारा और अगले का शीर्षक जीमेल के स्टेटस में झिलमिला रहा है-श्री श्री रविशंकर पर हमला किसी संत पर हमला नहीं है

बात विश्वविद्यालय के लोगों की हो रही है तो दिल्ली विश्वविद्यालय के किस्से भी सुन लिये जायें योगेश गुलाटी की पोस्ट के माध्यम से। इसमें बताया गया है कि कैसे उनके एक देहाती मित्र ने 96% अंक पाने के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के छुआ-छुऔव्वल और लेटेस्ट फ़ैशन ट्रेंड वाले माहौल को देखकर वहां दाखिला लेने से इंकार कर दिया। इस पोस्ट पर इसके बाद नीरज रोहिल्ला और योगेश गुलाटी में मजेदार टिप्पणीचार हुआ जिसमें बकौल नीरज , योगेश गुलाटी की दूसरी टिप्पणी गुस्से में है। आप ये सब मसला उधर ही देखिये न!

अब जब बात चली गुस्से की तो ये देखिये कि मीनाक्षीजी क्या कहती हैं! वे लिखती हैं- गुस्सा बुद्धि का आइडेन्टिटी कार्ड है । मीनाक्षीजी की इस पोस्ट पर कई साथियों ने अपने गुस्सैल होने की बात कही है।

कुछ साल पहले ब्रेन ड्रेन का मतलब यह समझा जाता था कि कोई प्रतिभा उचक कर विदेश निकल ली। इससे यह भी आभास होता था कि जो भी ड्रेन हो रहा है वह ब्रेन ही है। इससे कभी-कभी असमंजस की स्थिति पैदा होती होगी। इस समस्या का हल निकालते हुये सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने। उन्होंने अपने देश में ही एक सेवा से दूसरी सेवा में जाने की प्रक्रिया को ब्रेन ड्रेन बताकर इस बात की कड़ी आलोचना की और इस तरह के निर्णय को घटिया बताया। सिद्धार्थ की तकलीफ़ आप उन्हीं के शब्दों में देखिये:
साल दर साल हम देखते आये हैं कि आई.आई.टी. जैसे उत्कृष्ट संस्थानों से निकलकर देश की बेहतरीन प्रतिभाएं अपने कैरियर को दूसरी दिशा में मोड़ देती हैं। जिन उद्देश्यों से ये प्रतिष्ठित संस्थान स्थापित किए गये थे उन उद्देश्यों में पलीता लगाकर देश के ये श्रेष्ठ मस्तिष्क `नौकरशाह’ या `मैनेजर’ बनने चल पड़ते हैं। यह एक नये प्रकार का प्रतिभा पलायन (brain drain) नहीं तो और क्या है?

उनका गुस्सा आई.ए.एस. के टॉपर डा.फ़ैजल शाह पर उतरा:
इस साल जो सज्जन आई.ए.एस. के टॉपर हैं उन्हें डॉक्टर बनाने के लिए सरकार ने कुछ लाख रुपये जरूर खर्च किए होंगे। लेकिन अब वे रोग ठीक करने का ज्ञान भूल जाएंगे और मसूरी जाकर ‘राज करने’ का काम सीखेंगे। क्या ऐसा नहीं लगता कि चिकित्सा क्षेत्र ने अपने बीच से एक बेहतरीन प्रतिभा को खो दिया?

अब आप इस पर विचार कीजिये कि प्रतिभा के साथ कैसा सलूक किया जाये। वैसे तीन दिन पहले जब यही सवाल डा.फ़ैजल से रवीश कुमार ने किया था एक साक्षात्कार में तो उन्होंने यह बताया कि हर व्यक्ति अपने लिये बेहतर विकल्प चुनता है। अभी मैं समझता हूं कि मैं आई.ए.एस. में रहकर बेहतर कर सकता हूं कल हो सकता है मेरी सोच बदले और मैं कुछ और करना चाहूं।

ये पीडी भी अजीब हैं। एक गंजेड़ी की सूक्तियां सुनाने के बाद सालों पहले उड़ गये तोते के किस्से सुनाने लगे:
खैर उसे जाना था सो वह चला गया.. अब भी कभी रात सपने में देखता हूँ कि मेरा तोता भूखा है और मैं उसे खाना देना भूल गया हूँ.. सुबह तक वह सपना भी भूल जाता हूँ अक्सर.. मअगर जेहन में कहीं ना कहीं वह याद बची हुई है जिस कारण उसे सपने में देखता हूँ.. हाँ, मगर यह भी प्रण कर चुका हूँ की कभी किसी पंछी को कैद में नहीं रखूँगा..

पीडी की इस पोस्ट पर अपनी बात कहते हुये डा.अरविन्द मिश्र लिखते हैं:
उसे तोतापारी आम कभी खिलाया था क्या -वो परभ्रित(अहसान फरामोश) पक्षी उड़ गया तो जाने दीजिये ...दूसरा पालिए ..
नीड़ का निर्माण फिर फिर ...यहाँ जीवित मृत मनुष्यों को लोग भूल जाते/गए हैं और आप तोते को और आराधना कली की याद में अधमरी हो रही हैं -
किसी तरह सामान्य भी हो रही होगीं तो आपकी यह पोस्ट फिर रुलाने के लिए पर्याप्त है -यह देहाती औरतों का गुण कहाँ से सीखा पी डी साब ? :)


पीडी ने अभी तक उनके सवाल का जबाब नहीं किया है। इसके पहले वे एक और सवाल अपनी पोस्ट पर उछाल चुके हैं-क्या हिन्दी ब्लागिंग के ये अशुभ लक्षण हैं ? अब सब सवाल-जबाब आप उधर ही देखिये।

काजल कुमार आजकल इधर-उधर बहुत घूमते हैं। देखिये अबकी बार वे संयुक्त अरब अमीरात टहल आये और उसकी रपट भी पेश कर दी। इस रपट का यह अंश देखिये:
यहां भी, भारत की ही तरह, कभी-कभी बिजली की भयंकर कमी रहती है. 27 मई, 2010 को Gulf News के पेज 2 पर छपी शरजाह की यह रिपोर्ट देखिये. यह बात अलग है कि दुबई में एक लीटर पेट्रोल 90 फिल्स (1 दिरहम से भी कम) में मिलता है पर एक लीटर वाली पानी की बोतल दो दिरहम की आती है. यहां मीठे पानी का स्रोत केवल समुद्री पानी को desalinate करना है पर पानी की कमी नहीं मिलती.

सयुंक्त अरब अमीरात जाने के बावजूद काजल कुमार वहां अल्पना वर्मा जी से बिना मिले चले आये। इस शिकायत की सफ़ाई देते हुये उन्होंने क्या कहा यह आप उधर ही देखिये। फ़ोटो भी हैं भाई। क्यूट काजल कुमार का भी है।

जब घुमक्कड़ी की बात चली तो देखिये वन्दनाजी भी गोवा घूम कर आयीं और उसके किस्से सुनाये। जब उन्होंने स्वर्ग से सुन्दर गोवा के किस्से लिखे तो मैंने सोचा कि भैये ये स्वर्ग कैसे देखा इन्होंने और कब देखा। उसके किस्से किधर हैं। बहरहाल जब सस्ते में निपटाने की कोशिश की उन्होंने तब लोगों जो कहा उसका जिक्र करते हुये उन्होंने आगे लिखा-
गोवा की अधूरी पोस्ट पर इतनी झिड़कियां (स्नेहसिक्त) मिलीं, कि तुरन्त आगे का वृतांत लिखने बैठ गई.
तो शुरु करूं? :)
और बिना किसी की हां सुने वे आगे शुरू हो गयीं और लिखा-परीकथा सा सुन्दर, गंगाजल सा निर्मल.... गोवा लिखना भूल गयीं वे। आप जोड़ लीजिये। इसके आगे के किस्से सुनने के लिये आप देखिये-जहां शराब है, नशा नहीं... इसके बाद की पोस्टें भी हैं। वन्दनाजी की सफ़र से लौटकर लिखने की गति देखकर लगता है कि जिसको लिखने के मसाले की कमी लगे उसको कैमरा लेकर यायावरी पर निकल लेना चाहिये।

सतीश पंचम ने अपने ब्लॉग के दो साल पूरे किये। इसके बाद एक ठो कोलाज बना डाला। उनका शुरुआती कान्फ़ीडेन्स तो जरा निहार लीजिये:
कभी मुझे अपने लेखन पर इतना कॉन्फिडेंस था कि जब पोस्ट लिखने के कुछ देर बाद तक यदि कोई टिप्पणी नहीं आती थी........ तब एक टेस्ट कमेंट लिख चेक करता था कि कहीं टिप्पणी आदि के बारे में कोई तकनीकी रूकावट तो नहीं है :)
यही गजब का कान्फ़ीडेन्स है जिसके चलते उनको लगता है कि उनकी कोलाजी पोस्ट शायद सबकी समझ में न आये इसईलिये उन्होनें अपने कोलाज का हिन्दी अनुवादभी जारी किया।

शिखा वार्ष्णेयजी ने भी अपने ब्लॉग के दो साल पूरे किये! दूसरी वर्षगांठ पर उन्होंने लड्डू भी बांटे। इस मौके पर उन्होंने अपने सभी पाठकों को आभार दिया। पाठकों की प्रतिक्रियायें भी रोचक हैं। उनको एक बार फ़िर से बधाई। इसके बाद वाली पोस्ट में उन्होंने लिखा:
अब तो नया लिव इन का फैशन है
हर रिश्ते पर स्वार्थ की पैकिंग
हर रिश्ते पर एक्सचेंज ऑफर है
सेटिसफाइड नहीं तो डस्टबिन है
पर प्यार की कस्टमर सर्विस डिम है
सुना है आजकल एक स्कीम नई है
दहेज़ के साथ एक दुल्हन फ्री है


समीरलाल अपने नये दर्द का बयान कर रहे हैं:
पिछले बरस इसी सीजन में महबूबा थी एसीडीटी और अब की बार है यह कमर दर्द. उसी महबूबा की याद के समान कमर दर्द किसी को दिखता भी नहीं. चोट लगी हो, प्लास्टर बँधा हो, आँख सूज आई हो तो लोगों को दिखता है, साहनुभूति मिलती है. मगर कमर दर्द, पत्नी सोचे कि काम न करना पड़े इसलिए डले हैं और ऑफिस वाले सोंचे कि ऑफिस न आना पड़े, इसलिए डले हैं, और मित्र तो खैर आलसी मान कर ही चलते हैं.


कुश भी अब भूले-बिसरे गीत हो लिये हैं। बहुत दिन बाद एक ठो पोस्ट लगाये उसका शीर्षक क्या दिया देखिये- स्पिट...फार्ट... एंड स्टार्ट ब्लोगिंग । हमको तो कुछ शीर्षक का मतलब बुझाया नहीं लेकिन बकिया लोगों की टिप्पणियों से पता चला कि उनकी पोस्ट जिसमें केवल एक ठो फोटो है के बहुत सारे मतलब हैं। हमें सबसे आश्चर्य इस बात का है कि यह सब बातें शिवकुमार मिश्र कैसे समझ गये। क्या सिर्फ़ इस लिये कि उनको राष्ट्रीय ब्लॉगर दल बनाना है।

इस बीच और भी बहुत हो गया। सुना है कि नीशू जी हैं कोई उन्होंने ब्लॉगिंग में हड़कम्प मचा रखा है, कोई पलक जी हैं उन्होंने कविताओं का ऐसा भंडार खोला है कि पूछिये मत उधर महाशक्ति जी हैं वे एक बार फ़िर से हिन्दी ब्लॉगिंग की दशा पर चिन्तित हो गये हैं।

इस सबको देखकर ऐसा लगता है कि हिन्दी ब्लॉगिंग का भविष्य उज्ज्वल है। यह सब हिन्दी ब्लॉगिंग के लिये शुभ संकेत हैं।

चलते-चलते उन्मुक्तजी की बात पर ध्यान दिलाया जाना जरूरी समझ गया सो बांचिये उन्मुक्तजी को एक बार फ़िर से:
विवाद हर जगह है। लेकिन हिन्दी चिट्ठों की मुश्किल यह है कि कुछ लोग फज़ूल के विवाद (अनावश्यक बहस, व्यक्तिगत आक्षेप, हिन्दू मुस्लिम सौहार्द्य, हिंदी ब्लॉगिंग को किसी मठ का रूप देकर इसे नियम कानून में बांटना, महिला पुरुष विवाद) उठाते हैं। उनसे कहीं अधिक चिट्ठाकार, उन बेकार के विवादों की निन्दा करते हैं। वे सोचते हैं कि ऐसा कर वे अच्छा कार्य कर रहे हैं। लेकिन इससे, इसका उलटा होता है।

बेकार के विवाद के बारे में लिखा जाय, या उसकी तरफदारी की जाय, या उनकी निन्द की जाय - इन सब से उसे बढ़ावा मिलता है। अधिकतर बेकार के विवाद मुझे उसकी निन्दा करने वाले लेखों से पता चलते हैं।

मेरे विचार से, बेकार के विवादों की निन्दा करना भी उन्हें बढ़ावा देना है। हमें इससे बचना चाहिये।

यह भी सच है कि यहां
"कई बार लोग यहां अच्छी विषय वस्तु के उपलब्ध नहीं होने पर शिकायतें भी करते हैं।"
यह भी मुझे कुछ अजीब सा लगता है। इन सब को चाहिये यह लिखना या विवादों की निन्दा करना छोड़, जिस विषय पर माहिर हों उस पर लिखना शुरू करें। कुछ तो अच्छा उपलब्ध होगा।


उन्मुक्तजीकी बात को मानते हुये हम किसी बेकार के विवाद की निन्दा का काम स्थगित करते हुये यह पोस्ट प्रकाशित करते हैं।

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रविवार, मई 30, 2010

फत्तू की कहानियाँ

कहानी नं. 1

 

:) फ़त्तू की सास का आई.क्यू. तो पता चल ही चुका है, आज ससुर का भी आई.क्यू. देख लीजिये। फ़त्तू अपनी ससुराल गया तो घर में केवल उसका ससुर ही था। थोड़ी देर के बाद फ़त्तू, जोकि अभी अभी कुछ महीने लखनऊ में बिताकर आया था, अपने ससुर से बोला, “जी, अब आप इजाजत दे दो तो मैं जाऊं वापिस”। ससुर के होश गायब कि ये पता नहीं क्या मांग रहा है। बात घुमाते हुये उसे कहने लगा कि यार ये खेती का काम ऐसे और वैसे। फ़त्तू ने फ़िर इजाजत मांगी। ससुर ने फ़िर गांव जवार की बात फ़ैलाई। फ़त्तू ने फ़िर इजाजत मांगी, ससुर का गुस्सा अब फ़तू की सास पर बढ़ने लगा कि मुझे बताकर नहीं गई ये इजाजत नाम की बला के बारे में। इतने में फ़तू की सास आ गई और जब फ़त्तू ने इजाजत मांगी तो उसने अपनी कुर्ती की जेब से पांच का नोट निकाला, न्यौछावर किया और फ़त्तू को सौंप दिया। जब वो चलने लगा तो ससुर बोला, “अबे ओ, बावली बूच, इजाजत इजाजत मांग के मेरा खून पी लिया तैने, तन्नै पांच रुपल्ली चाहिये थे तो सीधे-सीधे न कह सके था कि पांच रुपये दे दो।”

 

कहानी नं. 2

 

:) फ़त्तू पहली बार अपनी ससुराल गया था। चाय नाश्ता करने के बाद उसने जेब से पचास का नोट निकाला और अपने छोटे साले से कहा, "जाकर बाईस का बीड़ी का बंडल और सत्ताईस की माचिस ले आ"। सासू ने सुना तो सोच उठी कि जमाई तो बहुत पैसे लुटाने वाला है। हैरान होकर पूछने लगी, "इत्ते इत्ते रूपये तुम फ़ूंक देते हो, बीड़ी वीड़ी में"? फ़त्तू के मौका हाथ आ गया, बढ़ाई चढ़ाई का, बोला, "सासू मां, ये तो ससुराल हल्की मिल गई हमें जो बाईस सत्ताईस से काम चला रहे हैं, न तो हम तो 501 या 502 से कम की बीड़ी फ़ूंका ही नहीं करते थे कभी भी"।

 

कहानी नं. 3

:) फ़त्तू ने कंधे पर अपनी जेली(भालानुमा लाठी, जिसके सिरे पर तीखे फ़लक लगे होते हैं, और जो बनी तो तूड़ी वगैरह निकालने के लिये थी पर उसका उपयोग सबसे ज्यादा लड़ाई झगड़े में किया जाता है) रखी हुई थी और वो शहर में पहुंचा। एक दुकान पर उसने देखा कि एक मोटा ताजा लालाजी(हलवाई) चुपचाप बैठा है और उसके सामने बर्फ़ी से भरा थाल रखा था। फ़त्तू ने देखा कि लालाजी बिना हिले डुले बैठा है तो वो अपनी जेली का नुकीला हिस्सा एकदम से लालाजी की आंखों के पास ले गया।

लालाजी ने डरकर अपना सिर पीछे किया और बोले, "क्यूं रे, आंख फ़ोड़ेगा क्या?"

फ़त्तू बोला, "अच्छा, इसका मतलब दीखे है तन्ने, आन्धा ना है तू।"

लालाजी, "तो और, मन्ने दीखता ना है के?"

फ़त्तू, "फ़ेर यो बर्फ़ी धरी है तेरे सामने इत्ती सारी, खाता क्यूं नहीं?"

लालाजी, "सारी खाके मरना थोड़े ही है मन्ने।"

फ़त्तू, "अच्छा, खायेगा तो मर जायेगा?"

लालाजी, "और क्या?"

फ़त्तू ने बर्फ़ी का थाल अपनी तरफ़ खींचा और बोला, "ठीक सै लालाजी, हम ही मर लेते हैं फ़िर।"

 

 

कहानी नं. 4

रुकिए, फत्तू की सारी कहानी यहीं छाप देंगे तो मूल ब्लॉग में कौन जाएगा? तो, बाकी की कहानी वहीं पढ़ें. वैसे भी, ब्लॉग पोस्टों में फत्तू तो फिलर की तरह है. सोचिए, फत्तू जब इतना नमकीन है, तो पूरा पकवान कैसा होगा!

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चलते चलते -

देसी पंडित में हर शुक्रवार को कुछ फोटो ब्लॉग से फोटो प्रदर्शित किए जाते हैं. अभी-अभी फ्राइडे फ़ोटो के अंतर्गत 100 पोस्टें पूरी हुईं. कमाल का चयन. हर फोटो दर्शनीय. एक खासतौर पर आपके लिए, शीर्षक है – लाइट इन द शेडो :

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शुक्रवार, मई 28, 2010

देसी तबेले में गर्मी बहुत है

उफ्फ गर्मी बहुत है...आग लगी है...प्‍यास लगी है। बिजली है...पंखे हैं...एसी भी है पर गर्मी फिर भी है। कमरा ठंडा है पर एसी अंदर की गर्मी बाहर फेंके दे रहा है पर यहॉं से वहॉं चले जाने से गर्मी खत्‍म नहीं होती, बनी रहती है। इस भीतर बाहर गर्मी के माहौल में ब्‍लॉगजगत में झांकना शीतल अनुभव तो होने से रहा। माहौल यहॉं भी गर्म ही है पर चिपचिपाती गर्मी में तापमान बढ़ाती पोस्‍टों पर लोग कान नहीं दे रहे हैं...भला है। मीट में पहुँचने से हम चूक गए पर अजयजी भी अब खिन्‍‍न हो गए हैं... वे भी शायद अब ब्‍लॉगिंग को ब्‍लॉगिंग ही रहने देने का मन बना चुके हैं-

आखिर संगठन बनेगा किसके लिए । हमने क्या कोई प्रधानमंत्री चुनना है , क्या कोई आंदोलन खडा करना है , देश की स्थिति बदलनी है , या कि हमें इस संगठन बनाने से अपने अपने घरों की रसोई का जुगाड करना है भाई ?

तापमान दिल्‍ली-कोडरमा का ही नहीं बढ़ रहा काश्‍मीर का भी बढ़ रहा है, पंकज ने सूचना दी है कि हमारे काश्‍मीर के के बारे में बताया जा रहा है कि 95 प्रतिशत लोग आजादी चाहते हैं पर कहीं भी बहुमत 'आजादी' के पख में नहीं है। अरे भई हमारे गणितज्ञ दोस्‍त अभिषेक ओझा कहॉं हैं बताएं किस गणित से बीबीसी ऐसा कह रहा है।

एक तरफ लिखा है कि घाटी के 74% से 95% लोग आज़ादी चाहते हैं (इतना बड़ा फर्क?). चलो ठीक है मान लेते हैं. परंतु आगे लिखा है भारतीय प्रशासित कश्मीर के 43% लोग आज़ादी के पक्षधर हैं. कमाल है!

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अब आगे देखिए - कश्मीर के किसी भी हिस्से में (यानी कि घाटी भी) आज़ादी को लेकर बहुमत नज़र नहीं आया. तो पहली पंक्ति में ऐसा क्यों लिखा है कि 95% लोग आज़ादी चाहते हैं. क्या 95% बहुमत नहीं होता?

रही आजादी चाहने की बात तो चाहें न... आजादी चाहने की पूरी आजादी है भारत देश में। पड़ोस में एक देश है चीन वहॉं आजादी चाहने भर की आजादी नहीं है करो क्‍या कल्‍लोगे।

 

गंदा नाला, गर्म गड्ढा, डबरापारा, ढिबरापारा, गधा पारा.... सुनकर अगर आपका पारा गर्म हो रहा हो तो जान लें कि ये सब जगह के नाम हैं। जो टिप्‍पणी पूरित पोस्‍ट से निकले हैं। जब जगहों की बात हो ही रही है तो हमारी संस्तुति तो ये है कि आप राजजी के साथ उनके गॉंव की सैर पर निकलें ... अजी गॉंव काहे का हमें तो एम्‍यूजमेंट पार्क सा लगा... जहॉं सबकुछ इतना व्‍यवस्थित हो... न कोई खाप पंचायत न दलित उत्‍पीड़न...बहू जलाने की कोई व्‍यवस्‍था नहीं... ऑनर किलिंग के लिए स्पेस नहीं....  खेत में बंटाईधार के शोषण का इंतजाम नहीं... नो नो नो नाट गुड। आप खुद ही देखें राजजी के इस गुड फार नथिंग गॉंव को पहली किस्त, दूसरी किस्त अब तीसरी किस्‍त   हम सेंपल के लिए वहॉं के तबेले का अगाड़ी व पिछाड़ी दिखा रहे हैं। दूध (और मॉंस) का भरपूर स्रोत हैं ये तबेले।

 

नीरज की रोचक टिप्‍पणी -

आज अपने देसी गांव के बारे में कुछ नहीं कहूंगा क्योंकि मुझे अपने गांव की धूल से, गांव की गन्दगी से, असुविधाओं से बेहद प्यार है।
हां, आपका गांव देखकर लगा कि तकनीकी इन्सान का काम कितना आसान कर देती है।
हम तो जी आज के समय में भी चिलम भरना, दूध दुहना, खाट बुनना, भैंस के ऊपर बैठकर जोहड में जाना जानते हैं

अब कहॉं ये सजे संवरे तबेले जहॉं पशुओं तक को सीवर सुविधा उपलब्‍ध है, कहॉं गर्मी से बेहाल हमारे पशु-पक्षी जिन्‍हें पीने का पानी भी मयस्‍सर नहीं

 

अगर हो सके तो अपने घर के आस पास कुछ मित्रो पड़ोसियों के साथ मिलकर किसी पेड़ के नीचे अथवा किस अन्य छायादार स्थान पर कुछ घड़े थोड़ी रेत ड़ालकर रखा दे . तथा उस पर किसी साफ़ बोरी को लपेट कर गीला करदे . आपका थोड़ा सा श्रम किसी के लिए जीवन दाई हो सकता है

 

इस संबंध में कुछ दिनों पुरानी इस पोस्‍ट को भी देखें-

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सोमवार, मई 24, 2010

....पढने के पहले टिपिया लें!

एक लाईना





  1. यशस्वी ब्लॉगर भवः !! :पैरोडी लेखनम कुरु

  2. उन्माद सुख .... :टुन्नावस्था की सहज उपलब्धि

  3. ऎ बहुरिया साँस लऽ, ढेंका छोड़ि दऽ जाँत लऽ : उनका फ़िरि-फ़िरि टिपियान दे!

  4. गबन की राशि लौटाने को कोषाध्यक्ष के नाम खुला पत्र : अधरस्ते से गायब

  5. छठा वेतनमान, सेल्स वालों का आक्रमण और छठी का दूध :एक ही पैकेज में आसान किस्तों पर

  6. तोर रूप गजब...... धान के कटोरे की महक पहुँचाती एक अनुपम कृति.....सतीश पंचम :के पास से बरामद

  7. मनोरंजात्मक गणित के जनक - मार्टिन गार्डनर को सलाम :उन्मुक्तजी की आवाज में

  8. दुआ है कि तुम्हें तुम जैसे अजीब लोग मिलें! :तुम उनको दूर खोजते रहो वो एकदम नजदीक मिलें

  9. कार्टून:- ब्लागर मीट अब जल्दी ही बन्द होने वाली हैं :बस सौ-पचास साल की बात है

  10. भालू भाग रहा था, उसके पीछे मैं : भालू पलट लिया होता तब क्या होता?

  11. ब्लॉग पढ़ने की चीज है? : हां , लेकिन टिपियाने क बाद!

  12. देख कचहरी में चलती हैं... : हरी-हरी दरखास मोदगिल

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रविवार, मई 23, 2010

चिट्ठाचर्चा – बरास्ते पीडी : हिन्दी ब्लॉगिंग आखिर किस चुड़ैल का नाम है?

हिंदी ब्लॉगिन्ग को लेकर मेरी समझ


मैं पहले ब्लौगिंग की प्रकृति को समझना जरूरी समझता हूँ फिर हिंदी ब्लॉगिंग की बात करूंगा.. ब्लॉग लिखने वाले सभी व्यक्ति जानते होंगे कि ब्लॉग शब्द "वेब लॉग" को जोड़कर बनाया गया है, और इसमें आप जो चाहे वह लिख सकते हैं.. मैंने सर्वप्रथम किसी ब्लॉग को पढ़ना शुरू किया था सन् 2002 में, और वह एक टेक्निकल ब्लॉग था.. उस समय भी और अभी भी मैंने यही पाया है कि टेक्निकल और करेंट अफेयर से संबंधित जितने भी ब्लॉग हैं उसे अन्य विषयों के मुकाबले अधिक लोग पढ़ते हैं.. अगर अंग्रेजी ब्लॉग की बात करें तो इन दो विषयों से संबंधित ब्लौग के मालिक कमाई भी अच्छी करते हैं..


अनावश्यक बहस और व्यक्तिगत आक्षेप मैंने तकरीबन हर भाषा के ब्लॉग पर देखा है.. मेरे कुछ मित्र जो मलयालम, तमिल एवं कन्नड़ भाषा में ब्लॉग लिखते हैं उनसे अक्सर ब्लॉग पर चर्चा होती है, और मैंने पाया है कि वे सभी इस तरह के अनावश्यक विवाद से चिढ़े हुये हैं, जैसा कि हिंदी ब्लॉगों में भी अक्सर देखा गया है..


मुझे याद आता है शुरूवाती दिनों में जब सौ-दो सौ ब्लॉग हुआ करते थे तब अधिकांश प्रतिशत, ब्लॉग लिखने वाले, पत्रकारिता से ही आते थे, और धीरे-धीरे लोग समझने लगे कि ब्लॉग भी एक प्रकार की कुछ छोटे स्तर की पत्रकारिता ही है.. यहां एक बहुत बड़ा अंतर स्पष्ट देखा जा सकता है अन्य भाषा, खासतौर से अंग्रेजी, के ब्लौग और हिंदी ब्लौगों में..

जहां अंग्रेजी भाषा में लोग तकनीक और सामान्यज्ञान से संबंधित ब्लौग को ही असली ब्लॉग धारा माने बैठे हैं वहीं हिंदी में लोग इसे पत्रकारिता से जोड़कर देख रहे हैं..


मेरी समझ में बस यहीं यह समझ में आ जाना चाहिये कि ब्लॉग क्या है? आप जिस विषय पर ब्लॉग को खींचकर ले जाना चाहेंगे या फिर यूं कहें कि जिस विषय पर अधिक ब्लॉग लिखे जायेंगे, पढ़ने वाले उसे ही सही ब्लॉगिंग की दिशा समझने लगेंगे.. मतलब साफ है कि ब्लॉग किसी खास विषय से बंधा हुआ नहीं है..


दो-तीन बातें हिंदी ब्लॉगिंग में ऐसी है जिसे लेकर अक्सर बहस छिड़ती है, बवाल उठता है.. जिसमें हिन्दू मुस्लिम सौहार्द्य, हिंदी ब्लॉगिंग को किसी मठ का रूप देकर इसे नियम कानून में बांटना.. तीसरी बात व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप लगाना.. कई बार लोग यहां अच्छी विषय वस्तु के उपलब्ध नहीं होने पर शिकायतें भी करते हैं..


हिन्दू मुस्लिम या फिर किसी भी धर्म को लेकर लड़ते लोग मेरी समझ में इस दुनिया में बैठे सबसे बेकार बैठे लोग हैं और जिनके पास कोई काम नहीं होता है वे इसमें अपना और दूसरों का समय बर्बाद करते रहते हैं.. सो बेकार कि बातों को लेकर मेरे पास समय नहीं है.. :)

जहाँ तक बात लोग कोई एक नियम क़ानून लागू करने को लेकर करते हैं तो मेरा मानना है कि वे ऐसे लोग हैं जिन्हें इंटरनेट का कोई ज्ञान नहीं है, तभी वो ऐसी बात सोच भी सकते हैं.. यह एक ऐसी दुनिया है जहाँ कोई भी नियम लागू नहीं किया जा सकता है.. हर चीज का तोड़ है यहाँ.. एक उदहारण चीन और गूगल के बीच हुई लड़ाई है.. जहाँ गूगल ने अपना व्यापर समेत लिया मगर चीन में अभी भी गूगल पर काम किया जा सकता है.. वो सारे रिजल्ट हांगकांग से डायवर्ट कर रहे हैं(सनद रहे, यह लेख महीने भर पहले का लिखा हुआ है, अभी के हालात मुझे पता नहीं)..

व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप लगाने वाले लोग जो खुद को समझदार मानते हैं, बस वही बता जाता है कि कितनी समझ है उनमे.. सामाजिक बहस करने कि सीमा में कोई एक व्यक्ति नहीं आता है.. सबसे आखिरी, मगर मेरी समझ में सबसे महत्वपूर्ण बात, अच्छी सामग्री को लेकर चलने वाली बहस.. जिस दिन हिंदी ब्लॉगिंग से पैसे आने शुरू होंगे उस दिन से मुझे पूरा भरोसा हो जायेगा हिंदी में अच्छी सामग्री को लेकर.. क्योंकि अभी गिने चुने ब्लॉग ही हैं जहाँ विषय आधारित लेख लिखे जा रहे हैं.. और विषय आधारित ब्लॉग ही हिंदी ब्लोगिंग कि दिशा और कमाई यह तय करेगा यहाँ, यह मेरा विश्वास है..

मैं कभी भी हिंदी ब्लॉग पर साहित्य कि उम्मीद में नहीं आता हूँ.. ठीक ऐसा ही अंग्रेजी ब्लॉगों के साथ भी लागू होता है.. जो लोग ब्लॉग को साहित्य समझ कर इधर झांकते हैं मेरा उनसे यह कहना है कि पहले वे ब्लॉग और इन्टरनेट को लेकर अपनी समझ विकसित करें.. यहाँ हर विषय पर लेख लिखे जाते हैं.. हाँ मगर यह तय है कि अधिकांश कविता कहानी विषयों पर ब्लॉग लिखने वाले इसका अधिक से अधिक लाभ उठा कर अपनी रचना लोगों तक पहुंचा रहे हैं.. कई अच्छा भी लिख रहे हैं..


फिलहाल तो मैं ब्लॉग के भविष्य को लेकर बेहद आशान्वित हूँ..

यह लेख मैंने विनीत के कहने पर लिखा था, उन्हें कुछ लेखों कि जरूरत थी.. आज मैं बस कापी-पेस्ट से काम चला रहा हूँ.. :)

- प्रशांत प्रियदर्शी.

(प्रशांत प्रियदर्शी के इस आलेख को हिन्दी ब्लॉगरों को अपनी ब्लॉग दूकान में निंबू-मिर्ची की तरह टांग लेना चाहिए. यकीनन हिन्दी ब्लॉगिंग का बहुत और बहुत-जल्द भला होगा. :))

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शनिवार, मई 22, 2010

एक नन्हीं सी बेटी बड़ी हो गई

नमस्कार मित्रों!

मैं मनोज कुमार एक बार फिर चिट्ठा चर्चा के साथ हाज़िर हूं।

अदत से लाचार हूं। चर्चियाने से पहले बतियाने की आदत सी पड़ गई है।

हमें लगता है हमें ऐसा समाज बनाना चाहिए जिसमें जाति, जातिसूचक शब्‍द, संकेत, प्रतीक भाव, आंतरिक संस्‍कार आदि का सर्वथा अभाव हो। जिसमें व्‍यक्ति की पहचान व्‍यक्तिगत हो जाति में नहीं ।

मैंने तो वर्षों पहले जब देश के एक नेता ने कुछ पांच या सात सुत्री कार्यक्रम चलाया था, जिसमें से एक था नाम के साथ जाति सूचक शब्द को हटाना, तो हटा लिया था। मेरे बच्चों के नाम के साथ भी नहीं है। मुझसे कोई नहीं पूछता आप किस जाति के हो। मुझे कोई ज़रूरत नहीं पड़ती जाति बताने की।

 

आइए अब चर्चा शुरु करें।

 

आलेख

ज्ञान जी कहते हैं संचार तकनीक में कितना जबरदस्त परिवर्तन है! कितनी बेहतर हो गयी हैं कम्यूनिकेशन सुविधायें। उन्हें यह विचार इसलिए अचानक सूझा है कि सरकार को 3जी की नीलामी में छप्परफाड कमाई हुई है।

बिजली की दशा देखिए हर जगह किल्लत। लूट और कंटिया फंसाऊ चोरी! यह शायद इस लिये कि कोई प्रतिस्पर्धा नहीं। कहते हैं

clip_image002हमारे पास यह विकल्प नहीं है कि राज्य बिजली बोर्ड अगर ठीक से बिजली नहीं दे रहा तो टाटा या भारती या अ.ब.स. से बिजली ले पायें। लिहाजा हम सड़ल्ली सेवा पाने को अभिशप्त हैं।

आर्थिकी विषयों पर ज्ञान जी की पोस्ट जानकारी और विचार बिंदु देती रहती है। जनता को सुविधा चाहिये। शायद निजीकरण इसका एक अच्छा विकल्प हो। पर क्या ये समाधान हैं?

My Photoशिक्षामित्र हमें बहुत अच्छी सलाह देते हुए कहते हैं ग़लती का मूल्यांकन करें और आगे बढ़ें

आपको जब किसी काम में असफलता हाथ लगती है तब आप हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाते हैं। अच्छा तो यह होगा कि आप जब अपने प्रयासों में असफल रहते हैं तब आपको उसकी वजह ढूंढ़ने की कोशिश करनी चाहिए। असफलताओं से सीखना एक टेढ़ी खीर है।

आप असफल प्रयासों के मूल्यांकन के सहार ही अपनी गलतियों को ठीक कर सकते हैं। आप अवसरों की ताक में लगे रहिए। आपको दोबारा मौके मिलेंगे।

गलतियों को मन से स्वीकार कर पाना भी तो एक बड़ी जीत जैसा ही होती है। आप नकारात्मक परिणामों को भी उपहार की तरह स्वीकार करें। आपको अपनी की गई गलतियों से बहुत सारी सीख मिलती है।

एक बहुत ही अच्छी और उपयोगी प्रस्तुति। सच है सफलता के तीन रहस्य होते हैं - योग्यता, साहस और कोशिश ।

दीप्ति परमार का आलेखः समकालीन हिन्दी उपन्यासः नारी विमर्श एक संग्रहणीय पोस्ट है। इसे प्रकाशित किया Raviratlami ने।

imageपिछली सदी का अंतिम दशक और प्रारंभिक सदी का प्रथम दशक लगभग दलित और स्त्री विमर्श के दशक रहे हैं। इन दशकों में महिला लेखन एक नयी पहचान लेकर आया। समग्र साहित्य जगत ने एक स्वर से यह स्वीकार किया है कि हिन्दी साहित्य साहित्य में नारी जीवन सम्बन्धित साहित्य अब पूर्णतः परिवर्तित हो चुका है। प्राचीनकाल से नारी जीवन और उससे जुड़ी समस्याएँ अधिकांश पुरुष लेखकों की लेखनी से ही हुई है। लेकिन साठ के दशक के बाद महिला लेखिकाओं का आगमन बड़ी तेजी से हुआ और सदी के अंत तक आते आते तो इसकी संख्या और रचना शक्ति भी एक वैचारिक परिवर्तन के साथ शिखर पर पहुँची दिखाई देती है।

समकालीन महिला लेखिकाओं के उपन्यासों के माध्यम से स्त्री की भयावह समस्याएँ प्रस्तुत हुई है। पितृसत्तात्मक मर्यादाओं की कड़ी आलोचना है जिसने स्त्रियों का खुला शोषण किया है। यह समकालीन कथा लेखन स्त्रियों के लिए मुक्ति का मार्ग खोजता हुआ विविध पहलुओं पर विमर्श करता हुआ पूर्ण क्षमता से प्रस्तुत हो रहा है।

सामाजिक , पारिवारिक ताने बाने की यह नेक प्रस्‍तुती समस्या के विभिन्न पक्षों पर गंभीरती से विचार करते हुए कहीं न कहीं यह आभास भी कराती है कि अब सब कुछ बदल रहा है। अपने सामाजिक अधिकार और हक के लिए आधुनिक नारी के संघर्ष की प्रस्‍तुति म्रें खुल कर चर्चा हुई है।

कृष्ण कुमार मिश्र* दो फणों वाला अदभुत सर्प- नन्हा रसेल वाइपर -एक एतिहासिक घटना!
आप ने कई सिरों वाले राक्षसों, दैत्यों के बारे में कहानियां सुनी होगी, लेकिन यह मिथक सत्य भी हो सकता है, इस बात का प्रामाणिक उदाहरण है, लखीमपुर खीरी जनपद के मीरपुर गांव में मौजूद दो सिर वाला सांप! हमारी कई सिरों
वाली शेषनाग की परिकल्पना को सिद्व कर रहा है।

कृष्ण कुमार मिश्र, इस आलेख के लेखक वन्य जीवन के शोधार्थी है, पर्यावरण व जीव-जन्तु सरंक्षण को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए प्रयासरत  हैं।

यह एक महत्वपूर्ण व जानकारीपरक लेख। हिन्दी में ऐसे विषयों पर मौलिक लेखन का क्रम बना रहना चाहिए, यही हमारी कामना है।

My Photoक्या आप जानते हैं कि एटीएम के जनक कौन थे? क्या आप जानते हैं कि वे अब नहीं रहे? नहीं! तो पढिए शिवम् मिश्रा की यह पोस्ट। शिवम् मिश्रा बताते हैं कि भारत में जन्मे स्काटिश व्यवसायी जान शेफर्ड बैरन दुनिया को अलविदा कह चुके हैं लेकिन उनके द्वारा अविष्कार की गई एटीएम मशीन स्मृति के रूप में लोगों के दिलो दिमाग में बसी रहेगी। बैरन का जन्म 1925 में भारत में हुआ था। रोचक जानकारी के इस आलेख के कई किस्से काफ़ी मनोरंजक है, जैसे

वर्ष 1967 में लंदन स्थित बैंक में पहली एटीएम स्थापित की गई। उस समय के लोकप्रिय टीवी कलाकार रेग वार्ने एटीएम से पैसा निकालने वाले पहले व्यक्ति बने थे।

My Photoविश्वास कीजिए जब खुद को तकलीफ होती है तो सारी दवाएं भूल जाती हैं। ऐसा ही हुआ ALKA SARWAT MISHRA जी के साथ। सच ही कहा गया है कि डॉ. अपना ईलाज खुद कभी नहीं कर सकता। उन्होंने भी अपना इलाज खुद नहीं किया। हां मम्मी की एक बार दी हुई दवा याद आ गयी ,बस दो घंटे में तकलीफ हवा हो गयी।
पेट के नीचे इक हिस्सा होता है जिसे आम बोलचाल की भाषा में पेडू भी कहते हैं ,जब आपके शरीर [मूत्राशय] में मूत्र रुकेगा अर्थात यूरिया [जहर ]आपके कोमल शरीर में रुकेगा तो दस और बीमारियाँ पैदा होगी और जब पेडू दर्द करता है तो लोग कहते हैं कि पेट दर्द कर रहा है और ये दर्द जननांगों को ज्यादा प्रभावित करता है .अब आप खुद सोचें कि एक मूत्र पाल पोस कर आप कितनी बीमारियों को निमंत्रित कर लेते हैं। ALKA SARWAT MISHRA बता रही हैं मूत्र विसर्जन के वक्त होने वाले इस दर्द से छुटकारा पाने का घरेलु उपचार।
साथ ही यह सलाह कि पानी खूब ज्यादा पीते रहिये ,और जैसे उन्होंने आपको बताने में संकोच नहीं किया वैसे ही आप भी संकोच त्याग कर घर के सारे लोगों का मूत्राशय शुद्ध करने पर तुल जाइए

कुछ बेटे ऐसे हैं जिनके लिए माँ-बाप की सेवा से बढ़कर कुछ भी नहीं है और वे माँ-बाप की इच्छा को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। उनकी राह में न तो मौसम बाधा बन पाता है और न पैसों की तंगी!

मेरा फोटोऐसे ही एक बेटे मध्य प्रदेश के जबलपुर के कैलाश के बारे में बता रहे हैं संजीव शर्मा। उसने अपनी बूढ़ी दृष्टिहीन मां को देश के सभी प्रमुख तीर्थ स्थलों की यात्रा कराने की ठानी है। उसने बद्रीनाथ की कठिन पैदल यात्रा तय कर अपनी मां को बद्रीविशाल के दर्शन कराए।

कैलाश कहते हैं

बड़े बुजुर्गों की सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है और वह अपना धर्म निभाते हुए पिछले 14 सालों से अपनी मां को एक टोकरी में रखकर श्रवण कुमार की तरह कंधे पर उठाए हुए पैदल ही देश के प्रमुख तीर्थ स्थलों की यात्रा कराने निकले हैं।

अब भी श्रवण कुमार है यह जानकार अच्छा लगा। उस महान शख्स को मेरा प्रणाम।

ग़ज़लें

clip_image004आनन्द पाठक की ग़ज़ल : यहाँ लोगों की आँखों में.......

यहाँ लोगों की आँखों में नमी मालूम होती है
नदी इक दर्द की जैसे थमी मालूम होती है
हज़ारों मर्तबा दिल खोल कर बातें कही अपनी
मगर हर बार बातों में कमी मालूम होती है
दरीचे खोल कर देखो कहाँ तक धूप चढ़ आई
हवा इस बन्द कमरे की थमी मालूम होती है
तुम्हारी "फ़ाइलों" में क़ैद मेरी ’रोटियां’ सपने
मिरी आवाज़ "संसद" में ठगी मालूम होती है

ग़ज़ल का विजन बहुत समर्थ भाषा में संप्रेषित हुआ है । जीवन संघर्ष को पूरे बोल्डनेस से खोलते शे’र के जरिये जीवन की देखी-सुनी विडंबनाओं को पूरे पैनैपन से बेनकाब किया गया है।

वारा सजदे। क्या अशआर  एकत्रित किया है ASHISH ने।

हमसे ना पूछ मोहब्बत के मायने ए दोस्त

हमने बरसो एक बन्दे को ख़ुदा माना है

~

कदम रुक से गए हैं फूल बिकते देख कर मेरे

मैं अक्सर उससे कहता था मोहब्बत फूल होती है

~

उसने कहा कौन सा तोहफा मैं तुम्हे दूँ

मैंने कहा वही शाम जो अब तक उधार है

~

वो भी शायद रो पड़े वीरान कागज़ देख कर

मैंने उनको आखरी ख़त में लिखा कुछ भी नहीं

My Photoबरसों बाद हिमान्शु मोहन प्रस्तुत कर रहें एक ग़ज़ल। कहते हैं

ग़ज़ल कहते बना है बरसों बाद
दर्द से सामना है बरसों बाद
आज फिर ख़ंजरों का जलसा है
एक सीना तना है बरसों बाद
ज़ुल्म सहने से कब गुरेज़ हमें
हँसते रहना मना है बरसों बाद
ख़ुद को ख़ुद से मिलाने की ख़ातिर
फिर कोई पुल बना है बरसों बाद
दिल की पगडण्डी पे निकले हैं ख़याल
याद का वन घना है बरसों बाद

भाव और कथ्य दोनों स्तर पर यह रचना सशक्त है। इस ग़ज़ल में विचार, अभिव्यक्ति शैली-शिल्प और संप्रेषण के अनेक नूतन क्षितिज उद्घाटित हो रहे हैं।

अदा जी कह रही हैं जिक्र हो फूलों का बहारों की कोई बात हो! ये एक आशा का संचार करती रचना है।

My Photoजिक्र हो फूलों का बहारों की कोई बात हो
रात का मंजर हो सितारों की कोई बात हो
रेत पर चलते रहे जो पाँव कुछ हलके से थे
ग़ुम निशानी हो अगर इशारों की कोई बात हो
नाख़ुदा ग़र भूल जाए जो कभी मंजिल कोई
मोड़ लो कश्ती वहीं किनारों की कोई बात हो
आ ही जाते हैं कभी बदनाम से साए यूँ हीं
बच ही जायेंगे जो दिवारों की कोई बात हो
बुझ रही शरर मेरी आँखों की सुन ले 'अदा'
देखूं तेरी आँखों से जब नजारों की कोई बात हो

My Photo--योगेन्द्र मौदगिल जी की ग़ज़ल सामयिक सच को अंगीकार करती एक गंभीर रचना है।

हो गये रिश्ते आलपिन जैसे.

दिलो-दिमाग़ डस्टबिन जैसे.

मन में अंबार कामनाऒं का,

अब तो जीना हुआ कठिन जैसे.

होड़ जोखिम की और पैसे की,

लोग हैं बोतलों के जिन्न जैसे.

आज उनका दीदार जम के हुआ,

आज का दिन है खास दिन जैसे.

साल दर साल उम्र खो बैठे,

लम्हा-लम्हा या दिनबदिन जैसे.

 

कहानी

Kuchh tazatareen-2भूख से आँख खुलते ही सुबह-सुबह मुकेश को अपने घर के सामने से थोड़ा बाजू में लोगों का मजमा जुड़ा दिखा. भीड़ में अपनी जानपहिचान के किसी आदमी को  देख उसने अपने कमरे की खिड़की से ही आवाज़ देते हुए पूछा-

''क्या हुआ अरविन्द भाई? सुबह से इतनी भीड़ क्यों लगी है?''

''यहाँ कोई भिखारिन मरी पड़ी है मुकेश जी, शायद सर्दी और मर गई.''

दीपक 'मशाल' की लघुकथा तलब का नायक दुखी मन से दातुन करते हुए पछता रहा था कि उसकी सिगरेट की तलब किसी की भूख पर भारी पड़ गई।

लोगों को न सिर्फ जागरूक करती लघु कथा बल्कि कुछ खास परिस्थिति के प्रति सजग रहने का संदेश भी देती है।

- सुलभ जायसवालमध्यमवर्गी परिवार की मजबूरियों को भोला बचपन भी समझने लगा है ... कुछ ही शब्दों में इस त्रासदी को प्रभावी तरीके से लिख दिया है सुलभ सतरंगी ने लघु कथा नौकरी के ज़रिए।

कभी कभी बच्चे ऐसी बात कह देते हैं कि इंसान की सोच से परे होती है

"अंकल... पर पापा तो मम्मी से कह रहे थे की जब रमन नौकरी के लिए दुसरे शहर चला जाएगा तब हम इस कमरे को किराए पर लगा देंगे...कुछ पैसे आ जायेंगे हाथ में"

बच्चों का बचपना और बड़ों का बड़प्पन !!!सभी कुछ सामने आ गया इस छोटी सी कहानी में।

एक बहुत अच्छी और सीख देती कहानी सुना रहे हैं ’उदय’ जी। कहानी क्या है समझिए आपको खजाना ही मिल गया संतोष का। एक झलक देखिए

यार जब हमको खजाने के बारे में सोच-सोच कर ही नींद नहीं आ रही है जब खजाना मिल जायेगातब क्या होगा !!! .... बात तो सही है पर जब "खजाना" उस "डाकू" के किसी काम नहीं आया तो हमारे क्या कामआयेगा जबकि "डाकू" तो सबल था और हम दोनों असहाय हैं ...
कहीं ऎसा न हो कि खजाने के चक्कर में अपनी रातों कीनींद तक हराम हो जाये ... वैसे भी मरते समय उस "डाकू" के काम खजाना नहीं आया, काम आये तो हम लोग.... चलो ठीक है "नींद" खराब करने से अच्छा ऎसे ही गुजर-बसर करते हैं जब कभी जरुरत पडेगी तो "खजाने"के बारे में सोचेंगे ...... !!!
एक गाना सुना था “जब आबे संतोष धन सब धन धुरि समान … जय गोविन्दम जय गोपालम!”

 

 

कविताएं

 

 

मेरा परिचय यहाँ भी है!“मखमली लिबास” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)
  मखमली लिबास आज तार-तार हो गया!
मनुजता को दनुजता से आज प्यार हो गया!!
सभ्यताएँ मर गईं हैं, आदमी के देश में,
क्रूरताएँ बढ़ गईं हैं, आदमी के वेश में,
मौत की फसल उगी हैं, जीना भार हो गया!
मनुजता को दनुजता से आज प्यार हो गया!!

अति उत्तम!! इस कविता को पढकर मुझे एक कवि की कुछ पंक्तियां याद आ गई
महाकाव्‍य‍ लिख डालो इतना पतन दिखाई देता है
घोर गरीबी में जकड़ा ये वतन दिखाई देता है ।
जनता की आशाओं पर इक कफन दिखाई देता है।
उजड़ा उजड़ा सच कहता हूँ चमन दिखाई देता है ।

मेरा फोटोरावेंद्रकुमार रवि की ख़्वाइश है हम भी उड़ते। बाल सुलभ कल्पना की उडान लिए एक बाल गीत प्रस्तुत करते हैं सरस पायस पर।

हम भी उड़ते आसमान में

जैसे उड़े पतंग!

सजाकर सुंदर-सुंदर रंग!

देख-देख जिनकी उड़ान हम

रह जाते हैं दंग,

वे चिड़ियाएँ उड़ें मज़े से

मस्त हवा के संग!

बाल मन को आकृष्ट करने वाली इस कविता में अद्भुत ताजगी है।

पी.सी.गोदियाल जी कह रहे हैं “कल रात को मैं कुछ लिख न पाया !” क्यों? क्यों भाई My Photoक्यों? क्या कहा…..!

पतंगा कोई एक गीत गा रहा था,
शम्मा के इर्द-गिर्द मंडरा रहा था !
प्यार के जुनून में था वह मनचला,
जब तक जली शमा वो भी जला !

कभी साथ ऐसा किसी ने निभाया,
कल रात को मैं कुछ लिख न पाया !

दीपक जी इस पर कहते हैं जब कुछ लिख ना पाए तब इतनी सुन्दर रचना मिली सर.. अगर लिखेंगे तो सच में अंधड़ ही ला देंगे.. हा हा हा!!!

समाज के छुवाछूत को
इसी ने किया होगा
छिन्न-भिन्न सर्वप्रथम
जब एक सिगरेट को
दस लोगों ने बांटा होगा
साथ-साथ

My Photoये किसी साधु महात्मा के प्रवचन नहीं हैं जी, ये तो "एक गंजेरी की सूक्तियां" के अंश हैं। PD द्वारा प्रस्तुत इस कविता के एक और अंश देखिए

धुवें में
बनती है शक्लें भी
बिगड़ती हैं शक्लें भी
यह कोई जेट प्लेन का धुवाँ नहीं
जो सीधी लकीर पे चले

सारी सूक्तियां पढ ही डालिए। देखिए स्तुति जी कितना प्रेरित हैं

सुट्टे की सूक्ति ने तो ऐसी मस्ती वाली बात बतलाई की अब सोच रहे हैं एक आध सुट्टा हम भी मार ही लें....कहीं पछतावा न रह जाए

.कम शब्दों में सशक्त और गहरी अभिव्यक्ति! प्रस्तुत कर रहे हैं राजकुमार सोनी जी।

My Photoदिल की जमीं पर
नफरत का यूरिया
और फिर देखिए
सांप-बिच्छुओं की
लहलहाती फसल
काटते हैं यही फसल
बड़ी फुर्ती से

कुछ बौने हाथ

इंसानियत की दर्दनाक अवस्था का वर्णन करती कविता

 

मेरी पसंद

 

चन्द्रकान्त देवताले जी की प्रमुख कृतियों में लकड़बग्घा हँस रहा है (१९७०), हड्डियों में छिपा ज्वर(१९७३), दीवारों पर ख़ून से (१९७५), रोशनी के मैदान की तरफ़ (१९८२), भूखण्ड तप रहा है (१९८२), आग हर चीज में बताई गई थी (१९८७) और पत्थर की बैंच (१९९६) शामिल हैं। देवताले जी हमारे समय के सबसे महत्वपूर्ण रचनाकारों में गिने जाते हैं। आज गुनिये Ashok Pande द्वारा कबाड़ख़ाना पर प्रस्तुत उनकी एक कविता : अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही

अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही
तो मत करो कुछ ऐसा
कि जो किसी तरह सोये हैं उनकी नींद हराम हो जाये
हो सके तो बनो पहरुए
दुःस्वप्नों से बचाने के लिए उन्हें
गाओ कुछ शान्त मद्धिम
नींद और पके उनकी जिससे
सोए हुए बच्चे तो नन्हें फरिश्ते ही होते हैं
और सोई स्त्रियों के चेहरों पर
हम देख ही सकते हैं थके संगीत का विश्राम
और थोड़ा अधिक आदमी होकर देखेंगे तो
नहीं दिखेगा सोये दुश्मन के चेहरे पर भी
दुश्मनी का कोई निशान
अगर नींद नहीं आ रही हो तो
हँसो थोड़ा , झाँको शब्दों के भीतर
खून की जाँच करो अपने
कहीं ठंडा तो नहीं हुआ

 

चलते-चलते

बादलों से उलझी हुई चांदनी

आके सिरहाने गुमसुम खड़ी हो गई।

बाप के शीश पे उम्र के बोझ सी

एक नन्हीं सी बेटी बड़ी हो गई।

---------- महेन्द्र शंकर

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शुक्रवार, मई 21, 2010

दुविधा से मुझे डर लगता है वेताल

एक सहचर्चाकार आजकल गायब हैं उनसे पूछा कि ऐसा कयों ? उन्‍होंने कहा कि यार कुछ बोर होने लगे हैं कुछ नया दिखता ही नहीं ब्‍लॉग पर.. हमें हैरानी हुई इतने ब्‍लॉगर इतने पुरस्‍कार, इतने विवाद, कुत्‍तों से लेकर चॉंद तक हर विषय पर तो लिखा जा रहा है फिर दिक्‍कत क्‍या है। इस पर उनहोंने खुलासा किया कि हॉं लिखा जा रहा है पर एक एक साफ साफ पैटर्न है जैसे तितली का जीवन चक्र होता है वैसे- अंडा-इल्‍ली-प्‍यूपा- तितली वैसे ही ब्लॉगर आता है यानि ब्‍लॉगर के रूप में जन्‍म पाता है या कहें ब्‍लाूगर गति को प्राप्‍त होता है--- आह ब्‍लॉग वाह ब्‍लॉग करता है... टिप्‍पणियों की महिमा लेता देता है... फिर 5-7 पोस्‍अ होते न होते एक पोस्‍ट हिट पोस्‍ट कैसे लिखें पर लिखता है.... दो चार महीने होते न होते ..ये ब्‍लॉग जगत में क्‍या हो रहा है की पोस्‍ट लिख बैठता है... एकाध बार टंकी आरोहण करता है... साल भर होते न होते उसका ब्‍लॉग चक्र पूरा हो जाता है अब वह या तो गुटबाजी का रोना रोता है या वह स्थितप्रज्ञ नए ब्‍लॉग शिशुओं का ब्‍लॉगचक्र देखने लगता है...ऐसे में हे विक्रम ये बताओं कि ब्‍लॉगसंसार पर नजर डालकर क्‍या होगा (इस सवाल का उत्‍तर जानते हुए भी न दोगे तो तुम्‍हारे सिर के सहस्‍त्र टुकड़े हो जाएंगे..;)

हमारी दिक्‍कत ये है कि हमें इस दुविधा नाम की चीज से ही परेशानी होती है। अब ब्‍लॉग लिखे जा रहे हैं तो पढ़े भी जाएंगे। नहीं लिखे जाएंगे तो याद किए जाएंगे। एक ब्‍लॉगर थे पंगेबाज पंगे लेते थे पढ़े जाते थे..लोग आहत होते थे...कोर्ट शोर्ट की धमकी। लिखना बंद किया तो याद किए गए और लो अब सुना है कि वे पंगे लेने वापस आ रहे हैं।

आखिरकार मेरी जिद्द काम कर गई और अरूण जी ने मेरी बात मान ली और इसी के साथ चिट्ठकारी मे अरूण अरोड़ा जी पुन: पदार्पण कर रहे है। मेरी पुरानी पोस्‍ट के बाद अरूण जी ने मुझे फोन किया, और लम्‍बी बातचीत हुई। मेरी और उनके बीच यह बातचीत उनके चिट्ठकारी छोड़ने के बाद पहली बातचीत थी। मेरे निवेदन पर वह चिट्ठाकारी मे पुन: आ रहे है और अपना नियमित लेखन महाशक्ति पर करेगे

हम वैसे भी खुश थे ऐसे भी खुश... किस में ज्‍यादा खुश ये न पूछो दुविधा से हमें डर लगता है। ख्‍ौर सूचना ये है कि अरुण अरोरा उर्फ पंगेबाज की पहली वापसी पोस्ट महाशक्ति पर आ गई है जिसमें उन्‍होंने सीधे सरकार से पंगा लिया है-

देश के सैनिक देश मे मर रहे है लेकिन मारने वालो से सरकार की सहानुभूति है, छत्ती सगढ मे काग्रेस की सरकार का ना होना ही सबसे बडा कसूर बन गया है छत्तीसगढ का . लिहाजा वहा का आतंकवाद काग्रेस समर्थित होने के कारण न्योचित है ,वहा किसी कार्यवाही के बजाय सैनिक मारने पर केन्द्र सरकार अपराधियो से हाथ जोड कर गुजारिश करती दिखती है . सारे देश का हाल कशमीरी पंडितो जैसा दिखता है, न्याय और अन्याय मे वोट बैंक का पलडा अन्याय को न्याय से ज्यादा बडा बना देता है ।

कुछ और दुविधाओं पर नजर डालें- अगर आप किसी विवाह समारोह में जाने वाले हैं तो दुविधा ये है कि रबड़ी-जलेबी खाएं कि चाट-सलाद उत्‍तर बेहद दुखदाई है न ये खाएं न वो खाएं। डाक्‍टर का दोस्‍त होना बेहद दुखदायी काम है- है कि नहीं:

उधर तरफ़ से जलेबियों और अमरतियों की बहुत जबरदस्त खुशबू आ रही है। तो, चलिये एक एक हो जाये लेकिन रबड़ी के साथ तो बिलुकल नहीं, क्योंकि पता नहीं क्यों हम भूल जाते हैं कि इतनी रबड़ी के लिये कहां से आ गया इतना दूध -----लेकिन जलेबी-अमरती भी तभी अगर उस में नकली रंग नहीं डाले गये हैं।

डाक्‍साब ने केवल दाल चावल को निरापद पाया है -

आप मुझ से पूछना चाहते हैं कि फिऱ खाएं क्या--- चुपचाप थोड़े चावल और दाल लेकर लगे रहें।

इतने सख्‍तजान डाक्‍टर है कि जब अविनाश ने चुपके से इसमें दही जोड़ना चाहा- वैसे सबको चावल दाल और दही इन पार्टियों में बनवाने शुरू कर देने चाहिए तो डाक्‍टर ने झट डपट दिया-

@ अविनाश जी, इस पार्टी में आप दही कैसे ले आए? क्या हम बाहर इस के इस्तेमाल से बच सकते हैं? सही बात है, इन पार्टियों में तो दाल चावल ही ठीक है।

न जी हम नही जाते फिर ऐसी शादी में - किस लिए जाएं कार्टून बने दूल्‍हे को देखने जो पैंतालीस डिग्री तापमान में शेरवानी पहले है या दुल्‍हन को जो ग्‍यारह एमएम के मेकअप में दबी है, मेहमानों को मच्‍छरदानी जैसी साडि़यों में लिपटी हैं जिनपर चमकीले सितारे उन्‍हें अभ्रक की बदसूरत प्रतिमा बनाए हैं। नहीं जी हम नहीं जाते घर पर ही ठीक हैं।

हम जैसे सरकारी कर्मचारियों तिस पर भी मास्‍टरों की नए वेतनमान विषयक दुविधा पर शेफाली पांडे का व्‍यंग्‍य दमदार है जरूर पढ़ें-

विभिन्न लोगों की इस विषय में विभिन्न धारणाएं हैं| एक पक्ष यह मानता है कि मास्टरों को सिर्फ़ वेतन मिलना चाहिए,मान नहीं| दूसरा पक्ष मानता है कि मास्टरों को सिर्फ़ मान मिलना चाहिए, वेतन नहीं| तीसरे वे लोग हैं जो ये मानते हैं कि मास्टरों को न मान मिलना चाहिए और न ही वेतन| चूँकि इनके बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ते इसीलिये ये मानते हैं कि मास्टर बच्चों को विद्या का दान करे और खुद घर-घर से दान मांग कर अपना जीवनयापन करे| वह ज़िंदगी भर दरिद्र रहे और उसके शिष्य अमीर बनकर उसका नाम रौशन करते रहें|

ज्ञानदत्‍तजी 3जी की छपपरफाड़ नीलामी से इतने पुलकित च किलकित हैं कि बिजली विभाग को भी नीलामक रने पर उतारू हैं फिर मुश्किल सवाल खुद उठाते हैं और झट पलान कर बैठते हैं कि आखिर रेवले क्‍यों न नीलाम होनी चाहिए। उनका माना है कि दुर्झाअना छोडि़ए हर साल दिल्‍ली के प्‍लेटफार्म की भगदड़ में ही कुचलकर न जाने कितनोंको मार देने वाली रेलवे 'अच्‍छा' काम कर रही है। दिल्‍ली में मैट्रो का परिचालन देख लेने के बात शहर के बाशिंदों का प्‍लेटफार्म पर बेवजह मारा जाना सहने वालों को इनकी ये बात कितनी आहत करेगी..इसका उन्‍हें अनुमान नहीं-

आपके पास यह विकल्प नहीं है कि राज्य बिजली बोर्ड अगर ठीक से बिजली नहीं दे रहा तो टाटा या भारती या अ.ब.स. से बिजली ले पायें। लिहाजा आप सड़ल्ली सेवा पाने को अभिशप्त हैं। मैने पढ़ा नहीं है कि इलेक्ट्रिसिटी एक्ट एक मुक्त स्पर्धा की दशा का विजन रखता है या नहीं। पर अगर विद्युत सेवा में भी सरकार को कमाई करनी है और सेवायें बेहतर करनी हैं तो संचार क्षेत्र जैसा कुछ होना होगा।

आप कह सकते हैं कि वैसा रेल के बारे में भी होना चाहिये। शायद वह कहना सही हो – यद्यपि मेरा आकलन है कि रेल सेवा, बिजली की सेवा से कहीं बेहतर दशा में है फिलहाल!

एक दुविधा ये भी कि अपने लिए लिखे या अलेक्‍सा या पेजरेंक के लिए। साफ राय सबको भाड़ में जाने दो मन की लिखो-

चित्र काव्‍यमंजुषा से-

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बुधवार, मई 19, 2010

बधाई,विडंबना, बहादुरी, अपनापन,कहानी और ब्लॉगिंग

अल्पना जी का नाम लिम्का बुक ऑफ़ रिकार्डस में शामिल किया गया----बधाई पोस्ट का यह शीर्षक जब मैंने देखा और उत्सुकतावश देखा तो पता चला कि अल्पना देशपांडे जी का नाम ग्रीटिंग कार्ड बनाने के लिये लिम्का बुक ऑफ़ रिकार्ड्स में शामिल किया गया।

ललितजी ने अल्पनाजी के बारे में विस्तार से लिखते हुये बताया-
जी हाँ! खवाब ही हकीकत में बदला करते हैं, ऐसा ही कुछ ख्वाब आज से 20 वर्ष पुर्व देखा था अल्पना देशपान्डे जी ने, उन्होने हस्त निर्मित ग्रीटिंग कार्ड का निर्माण प्रारंभ किया, फ़िर धीरे-धीर उन्हे सहेज कर रखना प्रारंभ किया । एक अंतराल के बाद उनके पास हस्त निर्मित ग्रीटिंग कार्ड का जखीरा खड़ा हो गया। फ़िर उनके सहयोगी मित्रों ने भी उन्हे ग्रीटिंग कार्ड बना कर दिए। मेरी जब मुलाकात हुई तब तक उनके पास 10008 ग्रीटिंग कार्ड का संग्रह हो चुका था। उनकी इच्छा थी कि लिम्बा बुक ऑफ़ रिकार्डस में उनका नाम दर्ज हो और वह हो गया।

अल्पनाजी को बधाई। ललित जी को शुक्रिया यह सूचना देने के लिये। आप अल्पना जी के बनाये ग्रीटिंग कार्डस उनके ब्लॉग पर देख सकते हैं।

शिखा वार्ष्णेय जी ने उन बच्चों के बारे में लिखा जिनका बचपना रियलिटी शो, माडलिंग और कम उम्र में शूटिंग की भेंट चढ़ जाता है। पूरी पोस्ट पठनीय है। कुछ अंश यहां दिये हैं:
कहीं कोई ५ साल की बच्ची पूरा शो होस्ट कर रही होती है..
तो कहीं ६-६ साल के बच्चे किसी शादी वाले शो में प्रतियोगियों को डेटिंग टिप्स दे रहे होते हैं.
कहीं छोटे छोटे बच्चे किसी रोमांटिक गाने पर उत्तेजक मुद्राओ और हाव भाव के साथ डांस करते हुए दीखते हैं ...और जज तालियाँ बजाते हुए कहते हैं वाह कमाल के हाव भाव थे...थोडा और काम करो इन पर.


इस तरह के शो के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुये शिखाजी कहती हैं:
मुझे बहुत दुःख होता है ये सब देख कर ,बहुत ग्लानि होती है क्यों हम इन बच्चों से इनका बचपन छीन रहे हैं? क्या एक ६ साल की बच्ची को उन व्यस्क चुटकुलों का मतलब पता होगा?
या उस ८ साल के बच्चे को पता होगा कि अवार्ड ज्यूरी किस कैटगरी में उसे अवार्ड दे रही है...? जो उसने उस कैटगरी का अवार्ड ही लेने से इंकार कर दिया


ये जो बालकलाकार इतने संभावनाशील होते हैं वे सब आगे जाकर सब बड़े कलाकार बनते हैं! इस पर वे लिखती हैं:
देखा जाये तो अब तक जितने भी बाल कलाकार हुए हैं उनमे से कोई भी सफल अभिनेता या अभिनेत्री नहीं बन पाया है ..उर्मिला मतोड़कर जैसे .कुछ अपवादों को छोड़ दे तो... सारिका, पल्लवी जोशी, जुगल हंसराज ,आफ़ताब शिवदासानी इन सब का क्या हाल है हम देख रहे हैं


इस मसले पर वे अपनी बात कहती हुयी लिखती हैं:
एक सर्वे के अनुसार हमारे देश में बाल कलाकारों का जीवन आम लोगों के अनुपात में छोटा होता है...खेलने - कूदने की उम्र में प्रेस कांफ्रेंस , ग्लेमरस पार्टी और फेशन परेड अटेंड करने वाले ये बच्चे कब अपनी उम्र से बहुत पहले ही व्यस्क होने पर मजबूर हो जाते हैं इन्हें खुद भी अहसास नहीं होता. कैमरे कि तीव्र रौशनी और दिखावटी दुनिया में कब इन नन्हें मासूमो पर एक दिखावटी आवरण चढ़ जाता है. और कब इनका व्यक्तित्व धूमिल हो जाता है ये शायद वक़्त निकल जाने पर इन्हें या इनके घरवालों को पता चलता हो . परन्तु इस नकली चूहा रेस में इनके बचपन के साथ साथ इनका भविष्य भी वयस्कों की स्वार्थपरता और लालच की भेंट चढ़ जाता है.


डा.दराल लिखते हैं-अपनेपन की मिठास का अहसास आदमी को तभी होता है जब आदमी अपनों से दूर होता है--- डा. दराल की इस आत्मीय पोस्ट को पढ़कर सत्ताइस साल पहले की वाकया याद आ गया जब केरल में ओणम के दिन एक अनजान व्यक्ति ने मुझसे कहा था तुम हमको जानते नहीं लेकिन हम तुम्हारे पिताजी के दोस्त हैं


लछमिनिया : एक बहादुर नारी को प्रणाम में अफ़लातून जी ने बरसों अपने रूम पार्टनर रहे नत्थू के जरिये एक बहादुर नारी के बारे में जानकारी दी है। इस पोस्ट पर प्रतिक्रिया देते हुये रंजनाजी ने लिखा है:
सहज ही विस्मृत न हो पायेगा यह प्रसंग….
लछमिनिया का जीवन और जीवटता सदैव मुझे उर्जा देती रहेगी…

घुघुतीबासूती जी की प्रतिक्रिया है:
लछमिनिया के जीवन पर तो पूरा एक उपन्यास लिखा जा सकता है, जो स्त्री शक्ति का प्रेरणा स्रोत हो सकता है। उसके भाई चुन्नू के लिए तो कोई भी स्त्री लछमिनिया से ईर्ष्या कर सकती है। कितने सवर्ण भाई अपनी दीदियों का साथ दे सकते हैं?
लछमिनिया को मेरा सलाम।


ब्लॉगजगत की तमाम लन्तरानियों से अलग प्रमोदजी का गजनट गद्य पढ़ने का अलग ही आनन्द है। किसी मनभावन चीज को बार-बार उलट-पलट के देखने, धर देने और लपककर फ़िर से देखने जैसी ललक जैसा कुछ। कल उनके यहां दो लेख बांचे। एक में देखिये गफ़ूर मियां की धज:
सस्‍ते उपन्‍यासों और सरकारी कर्मचारियों के घपलों की ऊल-जुलूल क़तरनें इकट्ठा करते रहने से अलग गफ़ूर के कोई शौक था तो अपने माथे पग्‍गड़ बांधने का. दांतों के बीच जीभ दबाये गफ़ूर जब पग्‍गड़ बांधते होते तो फिर पग्‍गड़ ही बांधते होते, नज़र सामने की नोक में बनी रहती और पट्टे फेंटते व उसे ठोंक-बजाकर माथे पर साटते वक़्त फिर दुनिया का अन्‍य कोई मसला (या मसाला) गफ़ूर को उनके खुशपने की सौ फ़ीसदी केन्‍द्रीयता से अलग कर सकने में पूरी और बुरी तरह नाक़ाबिल होता. सिर्फ़ और एक दावं ऐसा था जिसे खेलते हुए फिर अपने पग्‍गड़ तक को गफ़ूर किनारे कर जाते थे! वह दावं था हमारा चूतिया काटना.

पग्गड़ बांधने का यह सीन न जाने कहां बिलाया हुआ था। प्रमोदजी ने लाकर धर दिया सामने। लेव देखो। लेकिन गफ़ूर मियां के कने एक ठो स्प्लेन्डर भी है। उसके लिये उनके मन में नेह भी है:
गफ़ूर चार कदम पीछे हटकर अपने स्‍प्‍लेन्‍डर सिंगार का एक नेहभरा नज़ारा लेते, ‘हां, तुम तिलकुट को दुनिया के कौनो अनोखी चीज़ का यूं भी क्‍या करना है. जाने हो, जदव्वा कहां-कहां घूम आया? बग़दाद, बख्‍शी सराय, तिफलिस, दमिश्‍क, इस्‍ताम्‍बुल, तेहरान, तुम कहीं गये हो, अयं?’

अगली कहानी एक बच्चे की कहानी है। बच्चे की क्या हममें से बहुतों की कहानी है। आधी या पूरी लेकिन कुछ न कुछ तो हैइऐ:
देर रात जब झिंगुर अपना हल्‍ला मचा-मचाकर थक गए होते, और सब तरफ़ सन्‍नाटा छा जाने के बाद जब जागी आंखों के सपने में कहीं दूर से उठी चली आती मेले की आवाज़ें आत्‍मा में गड्ढे गोड़ना शुरु करतीं, मैं चिंहुककर और जल्‍दी-जल्‍दी अम्‍मां के पैर दबाने लगता. अम्‍मां बिना पैर सिकोड़े और खींचें साड़ी से मुंह ढांपे-ढांपे शिकायत करती, ‘पैर दबाने में तेरा मन नहीं है, जा तू मेला देखे जा!’


आखिर में क्या होता है देखिये:
स्‍कूल में झा सर पता नहीं पुस्‍तक के किस हिस्‍से से कौन पाठ पढ़ा रहे हैं, मैं सुन नहीं रहा, सच कहूं तो मुझे झा सर से पिटने का डर भी नहीं, क्‍योंकि कापी में मैं अपने सपने का नक़्शा बना रहा हूं, जिसमें दूर-दूर तक फैली, उठती समुंदर की लहरें हैं, एक बड़ी डोलती नाव का मीठा, गुमसुम अंधेरा है, और मैं कप्‍तान साहब की नज़र बचाये औंधा पड़ा माथे पर हाथ से धूप छेंके पता नहीं किस मुलुक का विदेशी गाना है, गुनगुना रहा हूं, कि तभी पीछे कहीं अम्‍मां का उलाहना गूंजता है, ‘अरे, गये कहां, उजबक?’ मैं अपने में मुस्‍कराता हौले फुसफुसाता हूं कि अम्‍मां के कानों तक मेरा जवाब न पहुंचे, ‘अम्‍मां, मैं भाग गया हूं!’


सतीश पंचम उनकी इस पोस्ट पर टिपियाते हैं-
पोस्ट तो बढ़िया है।

बकि आप पूरा लिखिए कि - अम्मा मैं अपने आप से भाग कर मुंबई आ गया हूँ।

क्यों मेरे और मेरे जैसे कईयों के अतीत को खुलिहार रहे हैं जनाब....

चिठियाना टिपिआना वाद-विवाद .... आंखों देखा हाल .... लाईव फ़्रॉम ब्लॉगियाना मंच -- कमेंटेटर -- छदामी लाल और निर्धन दास
मजेदार किस्से लिखते हुये मनोज कुमार जी चर्चियाना किस्से दबा गये। स्वाभाविक भी है। वे दो-दो जगह चर्चा करते हैं। :)

कल दिल्ली में इंडिया हैबिटेट सेंटर में ब्लॉगिंग के बारे में जमावड़ा हुआ। दिग्गज जमा हुये और ढेर बयानबाजी हुई। इसकी विस्तार से रपट देखिये लेखक बेहतर राष्‍ट्रीय प्रवक्‍ता हो सकते हैं, पर वे सुस्‍त हैं-मोहल्‍ला लाइव, यात्रा बुक्‍स और जनतंत्र के साझा सेमिनार में भिड़े दिग्‍गज

कैलिफ़ोर्निया में हुई ब्लॉगर मीट के किस्से यहां देखिये।

अपनी अठारह मई के किस्से सुनाये सरदार द्विवेदीजी ने। सुनिये। उनको उनकी वैवाहिक वर्षगांठ फ़िर से मुबारक।

और अंत में


फ़िलहाल इतना ही। आपका दिन शुभ हो।

यहां दिया फ़ोटो अजित मिश्र जी के ब्लॉग से। इस पोस्ट में उन्होंने लिखा था-धर्म कौन बड़ा है शायद इसका उत्तर इससे बेहतर नहीं हो सकता। उसके नीचे वाला फोटो कल दिल्ली में हुई ब्लॉगिंग बहस के हाल की है।



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मंगलवार, मई 18, 2010

...ये दुनिया की सबसे प्यारी आँखें हैं

ये फ़ोटो नीरज जाट की पोस्ट से लिया है। इसके बारे में लिखते हुये नीरज ने लिखा है:
त्रिवेणी झरने का विहंगम दृश्य। त्रिवेणी नाम कहीं भी लिखा नहीं मिलेगा। मैं केवल सुविधा के लिये इस शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूं। इन पहाडों में इस तरह के अनगिनत झरने हैं, एक से बढकर एक।

यात्रा विवरण और छायाचित्र देखकर राज भाटिया जी ने लिखा-आप की जिन्दा दिली ओर बेफ़िकरी को सलाम भाई!
इस पोस्ट में फ़ोटो के साथ वीडियो भी हैं! ग्लेशियर के बारे में जानकारी भी है। देखियेगा।

पंकज उपाध्याय की पोस्ट शुरू होती है यहां से:
किताबें ही किताबें हैं.. टेबल पर उनका एक ढेर बनता जा रहा है… एक मीनार सी बन गयी है… झुकी हुई… कुछ कुछ पीसा की मीनार के जैसी… बस एक दिन गिरेगी धड़धडाकर और उसमे दबे दबे मैं भी किताबों के कीड़ो की मौत मर जाऊँगा…


पोस्ट की आखिरी लाइने हैं:
सोचता हूँ कि काश सिर्फ इतना होता कि तुम कहीं नहीं जाती या सिर्फ इतना कि तुम इन बेजुबानो को बोलना सिखा देती जैसे ये तुमसे बोला करते थे या सिर्फ इतना कि ये खिड़की बंद कर जाती या सिर्फ इतना कि मैं चला जाता…… तुम यहीं रह जाती……


लेकिन मैं बार-बार पंकज की बीच-बयानी देखता हूं:
टीवी में कभी कभी किसी की धुंधली धुंधली शक्ल भी दिख जाती है… मेरी ही होगी… तुमने कभी मेरी आँखें चूमकर कहा था न कि ये दुनिया की सबसे प्यारी आँखें हैं… अभी भी आँखों में उसकी एक गिलावट/नमी सी रहती है…


समीरलाल के शब्दों में --जबरदस्त आत्मालाप!! बढ़िया छूता हुआ!

मीनाक्षीजी के त्रिपदम देखिये:
सभी निराले
गुण अवगुण संग
स्वीकारा मैंने।


कल का दिन बहुत दुखद रहा। पचास लोग नक्सली हिंसा का शिकार हुये। अनिल पुसदकर ने अपने भाव व्यक्त करते हुये लिखा-चिदंबरम जी नक्सली यात्री बस उडाने लगे हैं,तीस लोग मरे हैं,क्या अब भी आप कहेंगे कि सेना नही भेजेंगे!

गर्मी भयंकर पड़ रही है। इससे बचने के कुछ उपाय यहां देखिये। ऐसी विकट गर्मी में परदुखकातर सिद्धार्थ लिखते हैं:
वैशाख की दुपहरी में सूर्य देवता आग बरसा रहे हैं… ऑफ़िस की बिजली बार-बार आ-जा रही है। जनरेटर से कूलर/ए.सी. नहीं चलता…। अपनी बूढ़ी उम्र पाकर खटर-खटर करता पंखा शोर अधिक करता है और हवा कम देता है। मन और शरीर में बेचैनी होती है…। कलेक्ट्रेट परिसर में ही दो ‘मीटिंग्स’ में शामिल होना है। कार्यालय से निकलकर पैदल ही चल पड़ता हूँ। गलियारे में कुछ लोग छाया तलाशते जमा हो गये हैं। बरामदे की सीलिंग में लगे पंखे से लू जैसी गर्म हवा निकल रही है। लेकिन बाहर की तेज धूप से बचकर यहाँ खड़े लोग अपना पसीना सुखाकर ही सुकून पा रहे हैं।





जब कुछ लिखने को न हो तब भी बहुत कुछ ब्लॉग लिखा जा सकता है। यह सलाह आपको मिलेगी कबाड़खाने में। इसके पहले आप अगर ब्लॉगिंग करने वाले मुर्गे से मिलना चाहते हैं तो
इधर आइये

कल कुछ साथियों ने पापुलर मेरठी की और रचनायें सुनवाने के लिये कहा। सुनिये पापुलर मेरठी को उनकी आवाज में।

मेरी पसंद



हम धनवान हैं
हमारे पास कुछ भी नहीं है खोने को
हम पुराने हो चले
हमारे पास दौड़ कर जाने को नहीं बचा है कोई ठौर
हम अतीत के नर्म गुदाज तकिए में फूँक मार रहे हैं
और आने वाले दिनों की सुराख से ताकाझाँकी करने में व्यस्त हैं।

हम बतियाते हैं
उन चीजों के बारे में जो भाती हैं सबसे अधिक
और एक अकर्मण्य दिवस का उजाला
झरता जाता है धीरे - धीरे
हम औंधे पड़े हुए हैं निश्चेष्ट - मृतप्राय
चलो - तुम दफ़्न करो मुझे और मैं दफ़नाऊँ तुम्हें।
वेरा पावलोवा-कबाड़खाने से साभार

और अंत में


फ़िलहाल इतना ही। आपका दिन शुभ हो। नीचे की पेंटिंग सिद्धार्थ त्रिपाठी की। जनाब ये हुनर भी रखते हैं।

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सोमवार, मई 17, 2010

जेसिका, मित्रता, नास्टेलजिया, बापी , कृष्ण और पापुलर मेरठी

कल अभय ने जुझारू जेसिका के बारे में जानकारी दी! देखिये:
सात मास समुद्र में अकेले! चालीस फ़ुट ऊँची लहरों के मुक़ाबिल एक ‘अबला’ षोडशी? जिसके लिए एक आम राय ये बन रही थी कि उसके माँ-बाप ने उसे एक आत्मघाती अभियान पर जाने की अनुमति दी है, वो लड़की लौट आई, न सिर्फ़ सही सलामत बल्कि एक ऐसे अनुभव की विजेता होकर जो जीवन भर उसके भीतर चट्टान जैसा हौसला भर देगा और उसकी संतति की कोशिकाओं में ‘जीन’ बनकर जिएगा। जेसिका वाटसन – ट्रूली अमेज़िंग!

इस पर भी कुछ लोग मानते जाते हैं कि मनुष्य जाति के संवर्धन और संस्कार की सारी ज़िम्मेदारी अकेले आदमी की है और औरत का कुल योगदान सिर्फ़ उस संवर्धन को (कुछ तो संवर्धन के विचार को ही नहीं बूझते) कोख उपलब्ध कराना है? जब दकियानूसी कट्टरपंथी औरत के कामुक प्रभाव से घबरा कर उसे परदे में करने की जुगतें करते हैं तो वे औरत के कामपक्ष ही नहीं पूरी मनुष्यता की आधी समभावनाओं पर पहले परदा और फिर बेड़ी डाल रहे होते हैं।


जेसिका के बारे में पढ़कर बहुत अच्छा लगा और मन किया कि हम भी कहीं निकल चलें घुमक्कड़ अभियान में। अपना तीन महीने का साइकिल यात्रा अभियान- जिज्ञासु यायावर याद आ गया।

प्रियंकरजी बहुत दिन से शांत थे। अफ़लातूनजी के उकसावे पर आ गये मैदान में और लिख मारा मैत्री पर एक टीप और विवाद जो नहीं था अपनी बात कहते हुये उन्होंने लिखा:
कहते हैं चेले-चांटे और चमचे नेताओं को भरमा देते हैं,उनका दिमाग और चाल-चलन बिगाड़ देते हैं. अगर ऐसा हमारे साथ भी होने लगे तो या तो हमें अपने तथाकथित चेलों से किनारा कर लेना चाहिए या फिर उन्हें समझाना चाहिए कि हमारी यह आलोचना-समालोचना दो अभिन्न मित्रों के मध्य का आत्मीय संवाद है जिसमें उनके हस्तक्षेप की गुंजाइश बहुत कम है. यदि तब भी न समझें तो उन्हें अपना शत्रु मान लेना चाहिए. सबसे बड़ी दिक्कत तब होती है जब अपनी संवेगात्मक कमजोरी के चलते आप गलदश्रु भावुकता के नाटकीय प्रदर्शन के साथ उन्हें अपना शुभचिंतक मानने लगते हैं. यह रोग का चरम है .

आगे वे कहते हैं:
हिंदी समाज मूलतः हिपोक्रिसी में गले तक धंसा ढोंगी समाज है. हम मुगालते में रहने वाला समाज हैं. हम अपना मूल्यांकन करने में अक्षम , पर करने पर अपना अधिमूल्यन करने वाला समाज हैं. दूसरा मूल्यांकन करे तो उस पर हमलावर होने वाला समाज हैं. हम गरीबी और पिछड़ेपन के महासगर में घिरे रह कर भी अपनी सीमित निजी सफलता पर इतराने और इठलाने वाला समाज हैं. ऐसे में इसके लक्षण हिंदी ब्लॉग जगत में भी दिखें तो आश्चर्य कैसा. दाग अच्छे हैं की तर्ज़ पर कहूं तो विवाद भी अच्छे हैं अगर विवादों से कोई सबक मिलता हो,अगर वे हमें परिपक्व बनाते हों. पर हमारा अभिमुखीकरण उस ओर भी कम ही दिखाई देता है.


हमें तो ये लाइने जमीं बहुत जमीं:
हिंदी चिट्ठाकारी हिंदी समाज के पुराने कुएं में लगा नया रहट है. रहट की डोलचियों में पानी तो उसी समाज का है . उस बंद समाज की समस्याएं ही हिंदी चिट्ठाकारी की भी समस्याएं हैं. समाज बदलेगा,तभी चिट्ठाकारी का स्वरूप बदलेगा. तब हिंदी चिट्ठाकारी का पोखर इतना बड़ा महासागर होगा जिसे छोटे-मोटे दूषक तत्व प्रदूषित नहीं कर पाएंगे. तब तक हम सब अपने गिलहरी मार्का प्रयास जारी रखें और उस अच्छे समय की प्रतीक्षा करें .


आगे उन्होंने लिखा-मित्र बुरे दिनों की पतवार होते हैं और अच्छे दिनों का संगीत!देखिये। इसी बहाने उनका लिखना शुरू हुआ। बधाई! मसिजीवी ने प्रियंकरजी के इस लेख पर टिपियाते हुये लिखा:

बात पते की है… आलोचना/असहमति के लिए पर्याप्‍त सम्‍मान दिखा पाना कठिन काम है पर यही हमारी नजर में चरित्र का सही लिटमस टेस्‍ट है।


सतीश पंचम पिछले दिनों नास्टल्जिक मूड में रहे। लगभग दिगम्बरी मुद्रा में नहाये। गेहूं लदवायेलुंगी पहन के रंगून घुमायेछत पर सूत के आये। इस सबसे फ़ारिग हुये जरा सा तो कल पूरा डिस्कवरी चैनल का किस्सा सुनाकर उसके फ़ायदे गिनाये:
1- जहाँ तक मैं महसूस कर सकता हूँ कि अपने काम के प्रति उपेक्षा या हीनभावना अब नहीं रखता, या कम रखता हूँ। जब भी हीन भावना आने लगती है तो Bear Grylls को याद करता हूँ कि उनके काम से तो अच्छा ही है जहां जंगल-जंगल, तूफान, गर्मी, बर्फ और रेगिस्तान के बीच चलना पडता है। सांप, बिच्छू खाना पड़ता है।

2- दूसरी ओर यह लगता है कि किसी विपरीत परिस्थिति के आने पर मैं शायद अपना हौसला पहले की अपेक्षा अब शायद कुछ ज्यादा देर तक बनाए रख सकता हूँ। उमस, गर्मी, ठंडी, बारिश आदि के बीच जिस तरह Bear Grylls अपना हौसला बनाए रख जंगल से बाहर निकलने की जुगत में लगे रहते हैं वह काबिले तारीफ है।

हांलाकि Bear Grylls के साथ जंगल में उनका कैमरा क्रू होता है लेकिन जहां नदी, पर्वत या बर्फीली झील में कूदना होता है तो खुद Bear Grylls को ही कूदना होता है, कैमरा क्रू केवल संबल प्रदान कर सकता है, एक आश्वस्ति दे सकता है कि हां हम भी है यहां....ठीक हमारे अपनी सोसाईटी, समाज की तरह की आप जूझो...हम तो हैं न यहां :)

और जहां तक हौसलों को बनाए रखने की बात है तो मैं गेहूँ कि लदवाई में ही पस्त हो जाने वाला इंसान हूँ यह भी एक सच है :)

3- एक अलग किस्म का फायदा यह हुआ है कि अब मैं सब्जी लेते समय दो दिन पुरानी गोभी और पिचके टमाटर देख आगे नहीं बढ़ जाता। अब मन में यह भाव आता है कि अरे इतना तो चलता है :)

4- एक सबसे अलहदा फायदा मेरी श्रीमती जी को भी हुआ होगा कि शायद अब मेरी ओऱ से भोजन में नमक कम या ज्यादा होने जैसी शिकायतें कम से कम होती गई होगी :)

लेकिन सतीश पंचम ने एक काम बहुत गड़बड़ किया इसके पहले! उन्होंने बापी के घरवापसी के किस्से सुनाये। इस पर ज्ञानजी ने बापियाटिक पोस्ट की मांग की। और उनकी मांगपूर्ति का काम शुरू किया संजीत त्रिपाठी ने। अपने दोस्त तुषार को याद करते हुये संजीत ने शुरु किया किस्सा:
बापी स्वभाव से अलमस्त, बेपरवाह लेकिन अंदर से इमोशनल हालांकि अपने मनोभावों को दबाने में हमेशा सफल कि कोई न समझे कि वह इमोशनल है। बापी को समझ पाना वाकई मुश्किल भी रहा। किसी बात का कोई समय नहीं कभी रात को तीन बजे नहाकर बोरे-बासी खाना और फिर सो जाना तो कभी सरे शाम से ही सो जाना और फिर रात भर या तो उपन्यास पढ़ना या फिर घर से निकल कर आजाद चौक में जमी मोहल्ले के युवाओं की महफिल में दो बजे रात तक समय गुजारना।

पशु-पक्षियों प्रति प्रेम के अतिरिक्त और क्या काम की चीज सीखी संजीत ने बापी से ऊ भी सुन लीजिये:

गालियों की डिक्शनरी मैने बापी से ही समझी और पसंद की कन्या को लाइन मारने के लिए पांच किलोमीटर सायकल चलाकर उसके घर महज इसलिए जाना कि वो दिख जाए, ये बात मैने सबसे पहले बापी में ही देखी। अपनी सायकल किसी और को दी हुई हो तो किसी और दोस्त से सायकल उधार ले कर जाना है लेकिन उस लड़की के घर तक जाना है।
इसके बाद की हरकतें भी देखिये जरा संजीत की और उनके प्रति बापी के सहज उद्गार:
ये अलग बात है कि बापी ने उस लड़की से जितनी बातें न की हो, उतनी मैने उस लड़की से बाद में तब कर ली जब वह मेरे अखबार के मार्केटिंग विभाग में थी और उस लड़की को बापी के नाम से छेड़ा भी था। बापी को यह बात तब मैने चिढ़ाते हुए बताई तो उसके मुंह से फौरन मेरे लिए निकला था " कमीने"।

बापी के वर्तमान किस्से भी सुन लीजिये अब संजीत मुख से:

तो बापी साहब आजकल गांव से ही शहर अपनी नौकरी बजाने आते हैं हफ्ते में तीन-चार दिन। बाकी दिन दौरे पर अपने गांव से आगे की ओर कंपनी की वसूली के लिए। जब रायपुर आता है तो न आने का कोई समय निश्चित न ही वापसी का। कभी शाम को 4 बजे रायपुर आएगा और रात को 11 बजे गाड़ी उठा कर निकल लेगा वापस गांव की ओर। पिछले साल दिसंबर में जब रायपुर में कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। एक रात मैं प्रेस से लौट कर खाना खा रहा था। रात के बारह बज रहे थे। अचानक मोबाइल की घंटी बजी। उधर बापी पूछ रहा था कहां है तू। मैने कहा घर में हूं। उसने कहा "मै एक ढाबे में खाना खा रहा हूं, सोच रहा हूं गांव जाउं या नहीं"। मैने कहा न जा, यहां आजा घर। फिर बापी आया करीब पौन घंटे बाद। दोनो बतियाने के बाद सोए करीब तीन बजे। सुबह मेरे सोकर उठने से पहले बापी साहब फरार हो चुके थे। अपना एक मोबाइल और बेल्ट यहीं भूलकर। हफ्ते भर बाद आकर ले गया उसे।

अब लगे हाथों रायपुर के बारे में भी बापी से सुनते चलें:

"रायपुर तो एकदम कचरा हो गया है (उसके इस कथन ने निश्चित ही राजधानी का एहसास लिए मुझ जैसे कई रायपुरवासियों को तमाचा जड़ा), लं* साला पूरे शहर की मां-बहन एक हो गई है राजनीति के कारण। इससे तो गांव में रहना वाकई बढ़िया है। "

अब इत्ती किस्तें हमने पढ़वा दी। आगे की आप खुदै बांचिये

समीरलाल ने आज एक कविता में अपनी इच्छायें जाहिर की:
जब युद्ध हो कुरुक्षेत्र का
मैं कृष्ण होना चाहता हूँ
बस पाप धोना चाहता हूँ
कुछ और होना चाहता हूँ.

समीरलाल की इच्छायें पूरी हों। कहीं महाभारत हो और वे अपनी कृष्ण की ड्यूटी बजायें। वैसे इस कविता को बांचते समय मुझे पापुलर मेरठी की ये लाइनें याद आयीं:
अंधेरे को मिटाना चाहता हूँ
तुम्हारा घर जलाना चाहता हूँ

मै अब के साल कुरबानी करूँगा
कोई बकरा चुराना चाहता हूँ

नई बेगम ने ठुकराया है जब से
पुरानी को मनाना चाहता हूँ

मेरा धँधा है कब्रें खोदने का
तुम्हारे काम आना चाहता हूँ


और अंत में


फ़िलहाल इतना ही। आपका दिन अच्छी शुरू हो और शानदार बीते। हफ़्ते के बारे में भी यही कह रहे हैं। पिछले दिनों के अपने ब्लॉगिंग के सूत्र यहां पेश किये थे। मन करे तो देखियेगा।

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