गुरुवार, अप्रैल 25, 2013

चाय में चीनी जरा कम है, ये आज का पहला गम है

चाय में चीनी जरा कम है,
ये आज का पहला गम है।

IPL में चौके हैं, छक्के हैं
चीयरबालायें बेदम हैं।

चीन का तंबू तिब्बत में,
उनके यहां जगह कम है।

-कट्टा कानपुरी
ये कट्टा कानपुरी का स्टेटस सुबह फ़ेसबुक पर लगाया तो डा.अरविंद मिश्र ने मोबाइल शिकायत ठेल दी:
ब्लॉग बालाओं को क्या भूल गये,
जो इन पर अब निगाहे करम हैं।
कवि यहां दूसरे के बहाने अपनी मन की यादें के जंगल में टहलने की कोशिश करता है। चीयरबालाओं के लिये हमारे मन में हमेशा से सहानुभूति रही है। यह बात मैं आज से पूरे दो साल पहले कह चुका हूं:
इस सबके के चक्कर में सबसे ज्यादा मरन बेचारी चियरलीडरानियों की होती है। हर छक्के-चौके पर उनको ठुमका लगाना पड़ता है। सौंन्दर्य की इत्ती खुलेआम बेइज्जती और कहीं नहीं खराब होती जितनी चीयरबालाओं की होती है। एकाध रन पर भले वे धीरे-धीरे हिलें लेकिन चौका-छक्का लगने पर उनको बहुत तेज हिलना पड़ता है। जैसे उनको बिजली नंगा का तार छू गया हो। वे बेचारी कोसती होंगी चौका-छक्का लगाने वाले खिलाड़ियों को- खुद तो रन लेने के लिये हिलता नहीं। छक्का मारकर हमारा कचूमर निकलवा रहा है। अरे इत्ता ही शौक है रन बनाने का तो दौड़कर रन लो। पसीना बहाओ। लेकिन नहीं। खुद तो हिलेगा नहीं। गेंद उछाल कर मैदान के बाहर कर दी। हमको हिलाकर धर दिया। हिटर कहीं का। चौकाखोर कहीं का। छक्केबाज नहीं तो।
और भी बातें हुयीं स्टेटस में। अरुण अरोरा ने उमर का (अपनी या किसकी?) लिहाज रखने को कहा। सपना भट्ट ने बीबी को फ़ोन करने की धमकी दी (अभी करते हैं आपकी बीबी को फ़ोन/उनके बेलन में अभी बड़ा दम है) सिद्धेश्वर जी ने मौसम को अच्छा बताया( सुबह - सुबह कविया गए / आज अच्छा -सा मौसम है)शिवबली राय ने विन्ध्य के वासी को उदास बता दिया। बहरहाल ! दो दिन पहले दिल्ली और सिवनी में मासूमों के साथ हुये बलात्कार की चर्चा गेल के तूफ़ान और सचिन के जन्मदिन में इधर-उधर हो गयी। सोनल रस्तोगी ने अपने भाव व्यक्त करते हुये लिखा था: सुना है प्रभु काम बहुत बढ़ गया है धरती पर विभाग शिफ्ट कर रहे हो सदा के लिए नर्क को नया नाम दिया था "अपना घर " तो बताते तो सही इस दुर्घटना के बाद जो चैनल देश में बढ़ती दरिंदगी और असुरक्षित माहौल के किस्से चीख-चीखकर बता रहे थे उनके आसपास ही कैसा हाल है यह विनीत कुमार ने बताया:
टीवी सीरियल को वूमेन स्पेस कहा जाता रहा है क्योंकि यहां पुरुष के मुकाबले स्त्री पात्रों की संख्या लगभग दुगुनी है. यही बात आप न्यूज चैनलों के संदर्भ में भी कहा जा सकता है. दुगुनी नहीं भी तो चालीस-साठ का अनुपात तो है ही लेकिन वो इस मीडिया मंडी में सुरक्षित तो छोड़िए इतनी भी आजाद नहीं है कि वो अपने उन इलाकों पर स्टोरी कर सके जहां से देशभर की स्त्रियों की सुरक्षा को लेकर बड़ी-बड़ी बातें हो रही है लेकिन उसके साथ भी यहां वही सबकुछ होता है जो कि इससे बाहर के इलाके में हो रहा है.
विनीता का चैनलों से अनुरोध है:
आप में सो जो लोग भी दिल्ली की ताजा घटना को लेकर टीवी टॉक शो में जा रहे हों, चैनल के लोगों से अपील कीजिए कि लड़की के लिए किसी की बेटी,किसी की बहन,किसी की पत्नी जैसे जुमले का इस्तेमाल बंद करने की अपील कीजिए. ये बहुत ही घटिया और घिनौना प्रयोग तो है ही..साथ ही आप नागरिक के बजाय बहन,बेटी,पत्नी को वेवजह क्यों घसीटते हैं..ये सब करनेवाले लोग बहन,बेटी..तक का ख्याल नहीं करते..आप संबंधों को एंटी वायरस की तरह इस्तेमाल न करें.
आगे एक और लेख में विनीत "दरिंदों की दिल्ली" जैसे स्लग और स्पेशल पैकेज चलाने के पहले न्यूज चैनल की भाषा और प्रस्तुतिकरण पर सवाल उठाते हुये इनके झांसे में न आकर अपना भविष्य बनाने के लिये दिल्ली आने वालों के मन से डर निकालते हुये लिखते हैं:
लड़की ! तुम्हें मैं कैसे यकीन दिलाउं कि दिल्ली दरिंदों का शहर नहीं है. इसी दिल्ली में तुम्हारी जैसी मेरी दर्जनों दोस्त बिंदास रहती है, अपने मन का करती है, बोलती-लिखती है. जब वो इस शहर में नई-नई आयी थी तो सहमी सी कि मुंह से वकार तक नहीं निकलते थे, उनमे से कई अभी जंतर-मंतर, आइटीओ पर धरना प्रदर्शन करती मिल जाएगी, न्यूज चैनलों में यौन हिंसा के खिलाफ न्यूज पढ़ती, स्क्रिप्ट लिखती मिल जाएगी. इस शहर ने उसे गहरा आत्मविश्वास दिया है उन्हें. ये सब उतना ही बड़ा सच है, जितना बड़ा कि अगर तुम्हारी मां मेरा ब्लॉग पढ़ लेगी, मीडिया पर लिखी मेरी पोस्टें पढ़ेगी तो कभी नहीं चाहेगी कि तुम मीडिया में जाओ. तुम्हारे पापा क्या पता तुम्हें चाहे जो कर लो पर मीडिया में न जाने की नसीहतें देंगे..लेकिन ये सब लिखने के बावजूद में रोज सैंकड़ों तुम जैसी लड़कियों को मीडिया में जाने, काम करने और बेहतर होने का पाठ पढ़ाकर आता हूं. कोई भावना में आकर नहीं, न ही सिर्फ अपनी रोजी-रोटी के लिए. इसलिए भी कि ये सच में तुम्हारी दुनिया है जिस पर हम जैसों ने कब्जा किया हुआ है, मैं खुद के लूटे जाने और तुम्हें छीनने की ट्रेनिंग देने में कामयाब हो सकूं तो सच में मुझे अच्छा लगेगा.
आज चंद एकलाईना:
  1. ओ लैला तुम्हे कुटवा देगी, लिख के ले लो...खुशदीप :अभी भी वक्त है संभल जाओ खुशदीप
  2. हमारी जिंदगी में भी, कई बे-नाम रिश्ते हैं......: ’अदा’ का खुलासा और किसी के लिये दुनिया छोड़ने का एलान
  3. शर्मिंदा हूं क्योंकि " मैं दिल्ली हूं " .. :यह तो आधा सच है, पूरा खुलेगा तब क्या हाल होगा?
  4. मैं वही अँधेरों का आदमी… : जिसको बर्दाश्त करना मुश्किल है
  5. एक थी डायन: नारी अस्मिता के मुंह पर तमाचा: चटाख- गूंज जर्मनी तक सुनाई दी
  6. कृपया अपना मुंह बंद कर हँस लें ..... : मुंह खुला तो हंसी फ़रार हो जायेगी।
  7. लेखक वस्तुतः अपनी भाषा का मूलनिवासी या आदिवासी होता है : उसकी भाषा ही उसका जल, जंगल, ज़मीन और जीवन हुआ करता है।
  8. इंसानी भेड़िये कहीं बाहर से नहीं आते --- :ये हमारी अपनी मेहनत की कमाई हैं
  9. आह ! हंगामेदार देश हमारा :खुल गया मानो मुद्दों का पिटारा
  10. भाग्य में लिखा वो मिला :जो मिला नहीं उसका क्या गिला?
  11. आउ, आउ; जल्दी आउ! : न त ई चरचा करके फ़ूटि लेई
  12. तब तो मैं ग़रीब ही भला! : सस्ता गेंहू चावल तो मिलेगा
  13. दिल को दहलाती दरिन्दगी : एक वैज्ञानिक चेतना संपन्न ब्लॉगर की संकल्पना
  14. " अंगड़ाई ......या .......हस्ताक्षर ......." : भरपूर ले और पूरी की पूरी लें
  15. तिब्बत, चीन, भारत और संप्रभुता : और लीपापोती में जुटे भारतीय नेता
  16. समय का चक्र : पूरा चले बिना मोहि कहां विश्राम
  17. गुड़िया भीतर गुड़ियाएं : इनको कहां ले जायें, कैसे बचायें?

और अंत में


ब्लॉगजगत से जुड़ी चर्चा में लोगों की रुचि देखकर मन किया कि एक चर्चा ब्लॉगजगत में हुये बवालों की भी की जाये। शीर्षक रहे- ब्लॉगजगत के बवालों का इतिहास। कैसा रहेगा बताइये?

आज के लिये फ़िलहाल इतना ही। बाकी फ़िर कभी। तब तक आप मस्त रहिये। जो होगा देखा जायेगा।

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मंगलवार, अप्रैल 23, 2013

हिंदी ब्लॉगिंग के दस साल- कुछ शुरुआती यादें

दो दिन पहले हिन्दी ब्लॉगिंग के दस साल पूरे हुये। कुछ अखबारों में देखा लोगों ने बयान जारी किया है। हिन्दी ब्लॉगिंग के बारे में बताया है। अगले दिनों में कुछ और बयान आयेंगे। लेख भी और वार्तायें भी। चलिये हम भी आपको कुछ झलकियां दिखाते हैं।

हिन्दी ब्लॉगिंग की पहली पोस्ट आलोक कुमार ने लिखी 21 अप्रैल, 2003 को। पहली पोस्ट में कुछ ये लिखा गया:

सोमवार, अप्रैल 21, 2003 22:21

चलिये अब ब्लॉग बना लिया है तो कुछ लिखा भी जाए इसमें।

वैसे ब्लॉग की हिन्दी क्या होगी? पता नहीं। पर जब तक पता नहीं है तब तक ब्लॉग ही रखते हैं, पैदा होने के कुछ समय बाद ही नामकरण होता है न। पिछले ३ दिनों से इंस्क्रिप्ट में लिख रहा हूँ, अच्छी खासी हालत हो गई है उँगलियों की और उससे भी ज़्यादा दिमाग की। अपने बच्चों को तो पैदा होते ही इंस्क्रिप्ट पर लगा दूँगा, वैसे पता नहीं उस समय किस चीज़ का चलन होगा।

काम करने को बहुत हैं, क्या करें क्या नहीं, समझ नहीं आता। बस रोज कुछ न कुछ करते रहना है, देखते हैं कहाँ पहुँचते हैं।

अब होते हैं ९ २ ११, दस बज गए।

आलोक द्वारा प्रकाशित। टिप्पणी(0)
जम गया

आलोक द्वारा प्रकाशित। टिप्पणी(0)

यू टी ऍफ़ ८ ठीक नहीं है।

आलोक द्वारा प्रकाशित। टिप्पणी(0)

अब कैसा है?

आलोक द्वारा प्रकाशित। टिप्पणी(0) बड़ा कैसे करें?

आलोक द्वारा प्रकाशित। टिप्पणी(0) लगता है यह अक्षर छोटे हैं।

आलोक द्वारा प्रकाशित। टिप्पणी(0) नमस्ते।
क्या आप हिन्दी देख पा रहे हैं?
यदि नहीं, तो यहाँ देखें।
आलोक द्वारा प्रकाशित। टिप्पणी(0)


हिन्दी के प्रथम चिट्ठाकार आलोक कुमार से एक बातचीत आप यहां पढ़ सकते हैं।।

आलोक के पहले विनय रोमन हिन्दी में हिन्दी से जुड़ी गतिविधियों के बारे में जानकारी अपने चिट्ठे पर लिखते रहते थे। हिन्दी भाषा में उस समय जो भी काम हो रहे थे उनके बारे में जानकारी वे अपने ब्लॉग पर लिखते रहते थे। उनके ब्लॉग के मत्थे पर केदारनाथ सिंह की यह कविता मौजूद है:

जैसे चींटियाँ लौटती हैं बिलों में कठफोड़वा लौटता है काठ के पास ओ मेरी भाषा! मैं लौटता हूँ तुम में जब चुप रहते-रहते अकड़ जाती है मेरी जीभ दुखने लगती है मेरी आत्मा -केदारनाथ सिंह


यह वह समय था जब हिन्दी के सभी अखबार अलग-अलग देवनागरी मुद्रलिपियों में अखबार निकाल रहे थे। नेट पर अखबार पढ़ने के लिये बहुत दिनों तक उनके फ़ांट भी उतारने पड़ते थे। शुरुआती ब्लॉगरों के लिये हिन्दी में लिखने का औजार तख्ती था। तख्ती की सहायता से। इसीलिये हम अपने को तख्ती के जमाने का ब्लॉगर कहते हैं।

शुरुआती दौर के कुछ ब्लॉगरों के नाम यहां दिये हैं। इसमें हिन्दी की पहली महिला चिट्ठाकार पद्मजाका भी नाम जुड़ना है। पद्मजा ने ब्लॉग बनाया सितम्बर 2003 में। लेकिन पहली पोस्टिंग की हुई जून 2004 में। जब उन्होंने लिखा:

चिट्ठा विश्व . . . इस हफ्ते चिट्ठा विश्व में कुछ योगदान दिया। अभी तो यह बीटा वर्जन में है, देबाशीष अभी लेखन सामग्री जुटाने मे लगे हैं। आपके सुझाव भी आमंत्रित हैं। पर ये क्या? मेरा ही चिट्ठा इस सूची से गायब है? पता चला कि जब तक अपना चिट्ठा अपडेट नही करो ये दिखायेंगे नहीं। तो लो भाई, ये हो गया हमारा चिट्ठा भी अपडेट।
देबाशीष नवंबर 10 नवंबर, 2003 में ब्लॉग जगत में आ गये थे। पहली पोस्टिंग में उन्होंने लिखा:

Monday, November 10, 2003 गांववालों, मैं आ गया हूँ आलोक और पद्मजा के बाद अब मेरी बारी हिंदी चिठ्ठों की दुनिया में प्रवेश की। पर भारत‍ पाक की बातचीत की तरह ज्यादा उम्मीदें न रखें। रफ्तार तो नल प्वाईंटर वाली ही रहेगी, बदलेगा तो बस अंदाज़े बयां।
पद्मजा के चिट्ठे की एक पोस्ट से जानकारी मिली कि नीरव ने भी ब्लॉग लिखना शुरु किया है। नीरव ने पहली पोस्ट जून 2004 में लिखी। देबाशीष, पद्मजा और नीरव सहकर्मी थे। उन दिनों इंदौर में। सो हिन्दी ब्लॉग की शुरुआती गतिविधियों का केन्द्र इंदौर ही रहा। शुरुआती गतिविधियां मतलब चिट्ठाविश्व, चिट्ठाकार समूह, अनुगूंज और बुनो कहानी का आयोजन और अक्षरग्राम पर जो सुझावबाजी देबाशीष कर रहे थे। बुनो कहानी में तो कुल जमा छह कहानी लिखी गयीं। लेकिन अनुगूंज बहुत दिनों तक चली। हिन्दी ब्लॉगिंग के सबसे बेहतरीन लेख में से कुछ लेख अनुगुंज के बहाने लिखे ब्लॉगरों ने। बुनो कहानी की पहली कहानी का तीसरा भाग मुझे लिखना था लेकिन मैंने अपने सहकर्मी गोविन्द उपाध्याय को इसे पूरा करने का जिम्मा दिया। उनका लिखना सालों से स्थगित था। उन्होंने यह कहानी पूरी की और फ़िर दुबारा लिखना शुरु कर दिया। उसके बाद से वे धड़ाधड़ लिखने लगे और हाल ही में उनका चौथा कहानी संग्रह आया है। ये होते हैं ब्लॉगिंग के साइड इफ़ेक्ट।

पंकज नरुला मार्च 2004 में और रविरतलामी 20 जून 2004 में ब्लॉग अखाड़े में आये। ब्लॉगजगत के शुरुआती दिनों के खलीफ़ा रहे देबाशीष, पंकज और रविरतलामी। हिन्दी के शुरुआती दौर के ब्लॉग अभिव्यक्ति में छपे रविरतलामी के लेख अभिव्यक्ति का नया माध्यम ब्लॉग को पढ़कर कई लोगों ने अपना ब्लॉग बनाया। इसी को पढ़कर और देबाशीष के ब्लॉग पर मौजूद की बोर्ड सहायता से मैंने भी अपना ब्लॉग बनाया और पहली पोस्ट में बमुश्किल सिर्फ़ इत्ता लिख पाया:
अब कबतक ई होगा ई कौन जानता है


शुरुआती अनाड़ीपन के चलते हमने अपने यहां आयी तीन टिप्पणियां भी मिटा दीं। बाद में पता जीतेन्द्र, इंद्र अवस्थी, अतुल अरोरा, रमण कौण, अनुनाद सिंह के बारे में पता चला।

उस समय अतुल अरोरा हम सभी के सबसे पसंदीदा ब्लॉगर थे। अतुल अरोरा रोजनामचा के अलावा अपने अमेरिकी जीवन के किस्से लाइफ़ इन एच.ओ.वी. लेन में लिख रहे थे।

शुरुआती समय में हिन्दी ब्लॉगिंग को बढ़ावा देने में अक्षरग्राम का सबसे अहम योगदान रहा। सारे एजेंडे यहां तय होते। बाद में ई-पण्डित ने इसके ज्ञानकोश की जिम्मेदारी संभाली। हिन्दी ब्लॉगिंग के बारे में सबसे शुरुआती समय की गतिविधियां अक्षरग्राम में मौजूद हैं। पंकज नरुला से फ़िर से अनुरोध करेंगे कि वे जनहित में एक जगह कहीं इसे वापस रखें ताकि लोग हिन्दी ब्लॉगिंग की शुरुआती हलचल को महसूस कर सकें।

आज संकलक गायब हैं। नारद , ब्लॉगवाणी और चिट्ठाजगत कोई नहीं जिससे हिन्दी ब्लॉगपोस्टों के बारे में पता चल सके। तमाम लोग हिन्दी ब्लॉगिंग में कमी आने का कारण हिन्दी ब्लॉगिंग में संकलक का न रहना बताते हैं। हिन्दी विश्व, जिसकी परिकल्पना देबाशीष ने की थी, में भारत की सभी भारतीय भाषाओं के चिट्ठों की जानकारी देने की योजना थी। उसका उद्धेश्य था:

चिट्ठा विश्व, यानि हिन्दी चिट्ठों (ब्लॉग) के संसार में आपका स्वागत है। मूल रूप से चिट्ठा विश्व हालांकि एक ब्लॉग अन्वेशक (एग्रीगेटर) या न्यूज़ रीडर ही है पर हमारा प्रयास है कि यह निज भाषा के प्रयोग में गौरव महसूस करने वाले हिन्दी चिट्ठाकारों (ब्लॉगर्स) की समग्र छवि प्रस्तुत कर सके।


चिट्ठाविश्व में पोस्टें बहुत धीमी गति से अपडेट होतीं थीं। आज पोस्ट करो अपने ब्लॉग पर तो कल दिखतीं थीं। जीतेन्द्र धड़ाधड़ पोस्ट करते तो उनकी ही दो तीन पोस्टें छायीं रहतीं। उनको हडकाया गया तब वे माने लेकिन करते अपने ही मन की थे। चिट्ठाविश्व में ही उन दिनों चिट्ठाचर्चा की पोस्ट भी दिखती थी। यह भी देबाशीष का सुझाव था।

चिट्ठाविश्व के बारे में रवीन्द्र प्रभात ने अपनी किताब हिन्दी ब्लॉगिंग का इतिहास में लिखा है:
’चिट्ठाविश्व’देबाशीष द्वारा जावा पर बना ,बहुत ही अच्छा प्रोग्राम था, जिसमें ब्लॉग झट से अपग्रेड हो जाया करते थे।
ये झट से अपग्रेड होने वाली बात सही नहीं है। चिट्ठाविश्व ब्लॉग पोस्ट अपडेट होने में घंटो लगते थे।

शुरुआती समय में सबसे बड़ी समस्या टिप्पणी करने की थी। शुरु में कट-पेस्ट तकनीक से टिप्पणियां करते थे लोग। जब ई-स्वामी आये तो उन्होंने हग टूल बनाया जिसे सीधे ब्लॉग में लगाया जा सके और सीधे टिप्पणी की जा सके। यह अपने समय की बड़ी उपलब्धि थी।

चिट्ठाचर्चा की शुरुआती पोस्टों में नये ब्लॉग की जानकारी दी जाती थी। 21 अप्रैल’2003 को शुरु करके सौ चिट्ठे 25 अगस्त'2005 में पूरे हुये। सौंवां चिट्ठा रायबरेली के मूलनिवासी राहुल तिवारी का था। दो महीना कम ढाई साल लगे एक से सौ तक आंकड़ा पहुंचने में। इसकी जानकारी देते हुये देबाशीष ने लिखा:

हिन्दी ब्लॉगमंडल में हार्दिक स्वागत इन ६ नये चिट्ठों काः IIFM, भोपाल के छात्र भास्कर लक्षकर का संवदिया; लखनउ के निशांत शर्मा, समूह ब्लॉग कहकशां, यूवीआर का हिन्दी, मासीजीवी का शब्दशिल्प और रायबरैली के राहुल तिवारी का जी हाँ! और खुशी के बात यह भी है कि हिन्दी ब्लॉग संसार की संख्या आखिरकार प्रतीक्षित १०० की संख्या तक पहुँच ही गई। शत शत अभिनन्दन सभी चिट्ठाकारों का!
इसके बाद की हिन्दी के ब्लॉग तेजी से बढ़े। चिट्ठाचर्चा भी गतिशील हुई। जो कि अब तक जारी है।

शुरुआती समय में ब्लॉग को अपनी भड़ास निकालने का माध्यम मानने वाले साहित्यकार अब हिन्दी ब्लॉगिंग से जुड़ रहे हैं। आज नेट पर जो भी हिन्दी दिखती है उसका श्रेय हिन्दी में अपने को व्यक्त करने की झटपटाहट रखने वाले हिन्दी ब्लॉगरों को जाता है। कोई पहले जुड़ा कोई बाद में। किसी को कहीं से पता चला किसी को कहीं और से। लेकिन यह बात निर्विवाद है कि इंटरनेट पर हिन्दी के प्रचार-प्रसार का बहुत कुछ श्रेय हिन्दी ब्लॉगरों को जाता है।

इस पर अपनी टिप्पणी करते हुये प्रियंकर जी ने लिखा:
इसका एक प्रतीकात्मक अभिप्राय यह भी है कि अब हिंदी पर हिंदी पट्टी के चुटियाधारियों का एकाधिकार खत्म होने को हैं . आंकड़े कहते हैं कि अगले दस-बीस वर्षों में दूसरी भाषा के रूप में हिंदी सीखने वाले विभाषियों की संख्या मूल हिंदीभाषियों से ज्यादा होगी . और तब एक नये किस्म की हिंदी अपने नये रूपाकार और तेवर के साथ आपके सामने होगी


हिन्दी ब्लॉगरों के बारे में सबसे अच्छी शुरुआती टिप्पणी अनूप सेठी जी ने फ़रवरी’2005 में वागर्थ में लिखे अपने लेख में की थी:
यहां गद्य गतिमान है। गैर लेखकों का गद्य। यह हिन्दी के लिए कम गर्व की बात नहीं है। जहां साहित्य के पाठक काफूर की तरह हो गए हैं, लेखक ही लेखक को और संपादक ही संपादक की फिरकी लेने में लगा है, वहां इन पढ़े-लिखे नौजवानों का गद्य लिखने में हाथ आजमाना कम आह्लादकारी नहीं है। वह भी मस्त मौला, निर्बंध लेकिन अपनी जड़ों की तलाश करता मुस्कुराता, हंसता, खिलखिलाता जीवन से सराबोर गद्य। देशज और अंतर्राष्ट्रीय। लोकल और ग्लोबल। यह गद्य खुद ही खुद का विकास कर रहा है, प्रौद्योगिकी को भी संवार रहा है। यह हिन्दी का नया चैप्टर है।
बाद में अक्तूबर 2007 के कादम्बिनी में बालेन्दु दाधीच का लेख आया-ब्लॉगिंग: ऑनलाइन विश्व की आज़ाद अभिव्यक्ति!इसको पढ़कर भी बहुत से लोग ब्लॉगजगत से जुड़े।

हिन्दी ब्लॉगजगत के दस वर्ष पूरा होने के मौके पर सभी ब्लॉगर साथियों को शुभकामनायें। आपका मस्त मौला, निर्बंध लेकिन अपनी जड़ों की तलाश करता मुस्कुराता, हंसता, खिलखिलाता जीवन से सराबोर लेखन चलता रहे।

मेरी  पसन्द

आज मेरी पसन्द में एक पुरानी चर्चा  ब्लॉगजगत की कुछ पोस्टें इधर-उधर से जस की तस यहां पेश है:

ब्लॉगजगत की कुछ पोस्टें इधर-उधर से

हिन्दी ब्लॉगिंग पर लिखे जितने भी लेख मैंने देखे उनकी जब मैं याद करना शुरू करता हूं तो मुझे सबसे पहले याद आता है अनूप सेठी जी के लेख का यह अंश:
यहां गद्य गतिमान है। गैर लेखकों का गद्य। यह हिन्दी के लिए कम गर्व की बात नहीं है। जहां साहित्य के पाठक काफूर की तरह हो गए हैं, लेखक ही लेखक को और संपादक ही संपादक की फिरकी लेने में लगा है, वहां इन पढ़े-लिखे नौजवानों का गद्य लिखने में हाथ आजमाना कम आह्लादकारी नहीं है। वह भी मस्त मौला, निर्बंध लेकिन अपनी जड़ों की तलाश करता मुस्कुराता, हंसता, खिलखिलाता जीवन से सराबोर गद्य। देशज और अंतर्राष्ट्रीय। लोकल और ग्लोबल। यह गद्य खुद ही खुद का विकास कर रहा है, प्रौद्योगिकी को भी संवार रहा है। यह हिन्दी का नया चैप्टर है।

पांच साल से ऊपर हो गये इस लेख को पढ़े हुये लेकिन यह गतिमान गद्य वाली बात अक्सर याद आती है। मस्तमौला, निर्बंध। इतने दिनों में अनूप सेठी की बात कभी गलत नहीं लगी। यह जरूर हुआ कि ब्लॉगर आये, लिखा और लिखना कम करते रहे। जितने लोगों ने लिखना कम किया उससे अधिक नये लोग आ गये मैदान में। लोगों का लिखना बन्द हुआ लेकिन गद्य गतिमान बना रहा। बात अनूप सेठीजी ने गद्य की कही थी लेकिन यह बात ब्लॉग जगत की समग्र अभिव्यक्ति पर लागू होती है।

यह बात कल अजित गुप्ता जी के लेख क्या ब्लॉग जगत चुक गया है के संदर्भ में याद आई। मेरी समझ में ब्लॉग जगत में लोगों ने एक से एक बेहतरीन लेख और अन्य चीजें लिखीं हैं। लेकिन हमारा बांचने का संकलक निर्भर अंदाज ऐसा होता जाता है कि कई बार हम लोगों के बेहतरीन लिखा पढ़ नहीं पाते। उन तक पहुंच नहीं पाते।

अभी ज्यादातर लोग फ़ीड रीडर या संकलक से देखकर पढ़ते हैं। मैं भी चर्चा के लिये संकलक से ही सामग्री का चयन करता हूं लेकिन पढ़ने के लिये अपने जो पसंदीदा लिखने वाले हैं उनका लिखा हुआ सारा कुछ पढ़ने का प्रयास करता हूं। आलम यह है कि पसंदीदा लिखने वाले बढ़ते जा रहे हैं और बांचने के लिये समय की कमी होती जा रही है।

इसी क्रम में मैंने इस इतवार को डॉ.मनोज मिश्र के ब्लॉग की शुरुआत से लेकर आजतक की सारी सामग्री पढ़ डाली। बीच में कहीं छोड़ने का मन नहीं हुआ। मनोज का ब्लॉग पढ़ना मेरे मन में तब से उधार था जब से मैंने उनके ब्लॉग पर जौनपुर के किस्से देखे थे। उनके ब्लॉग पर जौनपुर की यह फोटो मेरे मन में बसी हुई है।

सोचकर मुझे खुद ताज्जुब होता है कि ब्लॉगजगत में जहां पोस्टों की उम्र एक-दो दिन, हफ़्ते-दो हफ़्ते मानी जाती है वहां कोई पोस्ट ऐसी बस जाये मन में कि साल भर बाद उसके लेखक की सारी पोस्टें पढते हुये उसको खोजा और मिलने पर टिपियाया जाये:
ये वाला फोटो ही मेरे मन में बसा है। नदी बीच पुल और शीर्षक’ए पार जौनपुर ओ पार जौनपुर’!

मैं अगर आपके ब्लॉग का पता भूल जाऊं तो याद करने के लिये गूगल से यही लिंक खोजूंगा-
एपार जौनपुर - ओपार जौनपुर ......


इसी तरह पिछले पांच सालों में ब्लॉग जगत के पढ़े न जाने कितने लेख/कवितायें अक्सर याद आते हैं। हर किसी में को याद करने का कोई न कोई सूत्र वाक्य है जिससे मैं उनको खोजकर दुबारा/तिबारा और फ़िर दुबारा/तिबारा पढ़ता हूं।

ऐसे ही कुछ लेख/कवितायें/चर्चायें और अन्य भी बहुत कुछ जो मुझे याद आते हैं वो उन सूत्र वाक्यों के साथ आपको बताता हूं देखियेगा?


  1. कुछ लोग मौसम की तरह चिपचिपे होते हैं: निधि

  2. ज़ेब में साप्ताहिक हिन्दुस्तान का एक बड़ा पन्ना मोड़कर रखता, जिसे बिछा कर कोनों को पैर के अंगूठे से दबाकर मुर्गा बन जाता, और झुका हुआ पढ़ता रहता ।: डा.अमर कुमार

  3. अगले जनम मोहे बेटवा न कीजो... :समीरलाल

  4. गुरुजी का चेहरा तेज युक्त मानो अपने सबसे घटिया लेख़ पर सौ टिप्पणिया लेके बैठे हो...:कुश

  5. दीवाली के दिन मां मेरे लिए दीयाबरनी खरीदती। मिट्टी की बनी बहुत ही सुंदर लड़की जिसके सिर पर तीन दीए होते। रात में तेल भरकर उन दीयों को जलाते। मां उसे अपनी बहू की तरह ट्रीट करती,ऐसे में कोई उसे छू भी देता तो मार हो जाती। लड़कियों से प्यार करने की आदत वहीं से पड़ी। :विनीत कुमार

  6. शुक्ला जी हॉस्टल के तमाम नाकाम प्रेमियों के लिए उम्मीद की एक साडे पॉँच फूटी लौ बन के उभरे ओर एक घटना ने इस लौ को ओर जगमगा दिया ..... :डा.अनुराग आर्य

  7. हमारे वीर बालक ने अभी तक हमको बाई-बाई करना नहीं छोड़ा था सो हम भी फिर से बाई कर ही रहे थे कि अवतरण एक धड़ाम की आवाज के साथ हो गया. हमें पीछे से आदर्श तरीके से शास्त्र- सम्मत विधि से ठोंक दिया गया था. :इंद्र अवस्थी

  8. बचपन का अधकटा पेंसिल सबसे कीमती था । :प्रेम पीयूष

  9. कुछ गीत बन रहे हैं, मेरे मन की उलझनों में।
    कुछ साज़ बज रहे हैं, मेरे मन की सरगमों मे॥
    :सारिका सक्सेना

  10. सबसे बुरा दिन वह होगा
    जब कई प्रकाशवर्ष दूर से
    सूरज भेज देगा
    ‘लाइट’ का लंबा-चौड़ा बिल
    यह अंधेरे और अपरिचय के स्थायी होने का दिन होगा
    : प्रियंकर

  11. लड़कियाँ
    आँसूओं की तरह होती हैं
    बसी रहती हैं पलकों में
    जरा सा कुछ हुआ नही की छलक पड़ती हैं
    सड़कों पर दौड़ती जिन्दगी होती हैं
    वो शायद घर से बाहर नही निकले तो
    बेरंगी हो जाये हैं दुनियाँ
    या रंग ही गुम हो जाये
    लड़कियाँ,
    अपने आप में
    एक मुक्कमिल जहाँ होती हैं
    :मुकेश कुमार तिवारी

ओह बड़ा मुश्किल है सारी पसंदीदा पोस्टों को एक ही पोस्ट में बताना। न जाने कितने लेख/कवितायें और न जाने क्या-क्या हैं। सुबह से इनको ही पढ़ते दिन हो गया। चर्चा तो रह ही गयी। खैर वह फ़िर कभी सही।

मेरी पसंद


तीस सेन्टीमीटर था बम का व्यास
और इसका प्रभाव पड़ता था सात मीटर तक
चार लोग मारे गए, ग्यारह घायल हुए
इनके चारों तरफ़ एक और बड़ा घेरा है - दर्द और समय का
दो हस्पताल और एक कब्रिस्तान तबाह हुए
लेकिन वह जवान औरत जिसे दफ़नाया गया शहर में
वह रहनेवाली थी सौ किलोमीटर से आगे कहीं की
वह बना देती है घेरे को और बड़ा
और वह अकेला शख़्स जो समुन्दर पार किसी
देश के सुदूर किनारों पर
उसकी मृत्यु का शोक कर रहा था -
समूचे संसार को ले लेता है इस घेरे में

और अनाथ बच्चों के उस रुदन का तो मैं
ज़िक्र तक नहीं करूंगा
जो पहुंचता है ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक
और उससे भी आगे
और जो एक घेरा बनाता है बिना अन्त
और बिना ईश्वर का.
येहूदा आमीखाई

और अंत में


फ़िलहाल इतना ही। और बहुत सारी सामग्री है हिन्दी ब्लॉग जगत में जिसको मैं बार-बार पढ़ना चाहता हूं। उसके बारे में चर्चा करना चाहता हूं। यहां जो मैंने बताई वह तो हिमखंड की नोक भी नहीं है। बहुत कूड़ा है यहां लेकिन बहुत सारा कंचन भी तो है यहां जो बांचना है। अभी तो शुरुआत है जी।

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सोमवार, अप्रैल 22, 2013

खुनचुसवा सोमवार की चिट्ठाचर्चा

सोमवार आ गया,
फ़िर खून चूसने लगा।

इतवार किधर गया,
कुछ पता तो बता।

हाल सब बेहाल हैं,
कुछ हौसला बढ़ा।

चल छोड़ सब यार,
कर जरा चिट्ठाचर्चा

ये सोमवार को खून चूसने वाली बात खुशदीप के ब्लॉग से। उनकी पोस्ट का शीर्षक है-ब्लडी मंडे क्यूं आया ख़ून चूसने... उन्होंने लिखा है:
आज मंडे है...मंडे का नाम अगर आप संडे का सुन लें तो आपको क्या हो जाता है...काम पर जाने वाले हों या स्कूल-कॉलेज जाने वाले बस यही मलाल करते रहते हैं, यार ये मंडे इतनी जल्दी क्यों जाता है...इसी मंडे की महिमा पर आजकल टीवी और एफएम रेडियो चैनल्स पर एक गाना बड़ा पॉपुलर हो रहा... पढ़िए, देखिए, धुनिए...शायद आपकी भी दुखती रग इसके साथ जुड़ी हो...
इस खूनचुसवा सोमवार के बारे में अब क्या कहा जाये? मजबूरी है। जब इतवार आयेगा तो सोमवार को भी झेलना ही पड़ेगा। बहरहाल अब देखिये कुछ ब्लॉग में क्या लिखा गया है। ललित शर्मा ने आज ब्लॉगिंग के चार साल पूरे किये। इसकी सूचना देते हुये वे लिखते हैं:
"ब्लॉगिंग करते कब 4 साल बीत गए, पता ही न चला। आज "ललित डॉट कॉम" की 701 वीं पोस्ट है। इन वर्षों से अनेको ब्लॉगर्स से मुलाकात हुई, हजारों ब्लॉगों को पढा होगा। टिप्पणियों का अदान-प्रदान हुआ और ब्लॉग युद्धों का भी साक्षी बना। लेकिन जो मजा ब्लॉग़िंग का "ब्लॉगवाणी" एवं "चिट्ठा जगत" के रहते था। वह अब कहाँ। इन चिट्ठा संकलकों का स्थान कोई अन्य नहीं ले सका। अभी तक तो उर्जा बनी हुई है लेखन के लिए, कभी थोड़ा उतार चढाव भी आ जाता है। लेकिन ब्लॉगिंग निरंतर जारी है। इस अवसर पर सभी पाठकों को मेरी शुभकामनाएं।"


इन चार सालों में ललित शर्मा ने बहुत यात्रायें कीं और उनके बारे में लिखा। यायावर ब्लॉगर हैं ललित शर्मा। "सिरपुर सैलानी की नजर में" किताब भी दिखती हैं उनके ब्लॉग पर। किलों, खंडहरों, नदी और पुरातात्विक स्थलों की खूब सारी यात्रायें की हैं। उनके बारे में खूब सारा लिखा है। स्थलों से जुड़ी जानकारियां, किंवदंतिया और किस्से-कहानियां लिखते रहते हैं। कम-ज्यादा करके नियमित ब्लॉगिंग से जुड़े रहे हैं। ब्लॉगिंग के चार साल पूरा करने पर ललित शर्मा को बधाई। आगे कई साल तक निरंतर लिखते रहने के लिये मंगलकामनायें। दिल्ली में मासूम बच्ची के साथ हुये दुराचार पर मीनाक्षी जी ने लिखा है:
अन्धेरे कमरे के एक कोने में दुबकी सिसकती बैठी सुन्न सहम जाती है फोन की घंटी से वह अस्पताल से फोन पर मिली उसे बुरी खबर थी जिसे सुन जड़ सी हुई वह उठी कुछ सोचती हुई एक हाथ में दूध का गिलास दूसरे में छोटी सी गोली कँपकँपाते हाथ ...थरथर्राते होंठ , आसुँओं से भीगे गाल नन्ही सी अनदेखी जान को कैसे बचाएगी इस जहाँ से खुद को बचा न पाई थी उन खूँखार दरिन्दों से....
इरफ़ान ने अपने फ़ेसबुक स्टेटस में सवाल किया है:
आज कल राहुल गाँधी कहाँ हैं? आज जबकि देश कानून और व्यवस्था के उन्हींके बैठाए लोगों के तानेबाने से जूझ रहा है।इससे पहले भी जब देश के युवाओं का आन्दोलन बेटियो की रक्षा के लिए देश भर में चल रहा था तब भी राहुल गाँधी नदारद थे. क्या उनको अब भी यह ग़लतफ़हमी है की देश का युवा सिर्फ उनके लम्बे-लम्बे आर्थिक भाषण और उनका 'फेयर एंड लवली' चेहरा देखकर ही उन्हें वोट दे देगा?
अपने कार्टून में इरफ़ान ने हाल बताये हैं आज के समाचारों के। राजेश दुबे ने पोस्टर में बच्ची की मनोदशा बयान की है। देखिये: संयोग से आज राजेश दुबे का जन्मदिन भी है। उनको जन्मदिन की मंगलकामनायें।




 नारी ब्लॉग पर सवाल है-बलात्कार करने वाले ६ महीने से ८ ० साल तक की नारी का बलात्कार कर रहे हैं क्यूँ क्युकी उनको डर ही नहीं हैं 

  उधर अदा कहती हैं- मेरी दोस्ती मेरा प्यार। इस पोस्ट में मामला संता-बंता से शुरु होते हुये दोस्ती पर लेक्चर से गुजरता हुआ अजनबी तुम जाने पहचाने से लगते हो तक गया है। बहुत अच्छी आवाज है अदा जी की। एक सुनिये तो आपको भी लगेगा कि हम झूठ न बोलते हैं।

वन्दनाजी ने अपनी बात कहते हुये नारी ब्लॉग को वोटिंग का आह्वान किया गया है। अपील की गयी है:
अगर आप महिलाओं के उत्थान के पक्षधर हैं, उन्हें बराबरी का दर्ज़ा देने की बात करते हैं, उनका सम्मान करते हैं, तो अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर " नारी" को वोट देकर उसे इस दौड़ में आगे रक्खें. आभार. नीचे दिये गये लिंक पर जा के आप नारी को वोट कर सकते हैं. इसके अलावा आप अपने फेसबुक अकाउंट और ब्लॉग-यूआरएल के ज़रिये भी वोटिंग का महत्वपूर्ण हिस्सा बन सकते हैं.
इस पोस्ट में कई लोगों ने टिप्पणी करके अपना मत व्यक्त किया है। सलिल वर्मा लिखते हैं:
रचना जी से मेरे कई बार मतभेद हुए और बहस भी हुई.. लेकिन उनके अंदर की 'नारी' को मैंने भी व्यक्तिगत रूप से महसूस किया है.. जब मेरा ट्रांसफर गुजरात में हुआ तो मेरी बेटी दसवीं में थी और बोर्ड के बीच में मेरा ट्रांसफर उसकी पढाई के लिए बहुत बड़ा झटका था.. रचना जी को जब यह पता चला तो उन्होंने स्वयं यह पेशकश की कि मैं अपनी बेटी को उनके पास छोड़ दूं और बेफिक्र होकर गुजरात चला जाऊं.. इसके पहले हम एक ब्लोगर के रूप में ही एक दूसरे को जानते थे, फोन पर कार्यालयीन बातें भी हुईं थीं उनसे, लेकिन मिले कभी न थे.. उनकी यह पेशकश मुझे अंदर तक प्रभावित कर गयी.. एक तेज-तर्रार ब्लोगर के रूप में कुख्यात नारी का यह ममतामयी रूप मेरे लिए अविस्मरणीय था.. लोग चाहे कुछ भी कहें, मैं व्यक्तिगत रूप से उनका बहुत सम्मान करता हूँ!!
ब्लॉगजगत के भाई साहब सतीश सक्सेना कहते हैं:
बधाई एक अच्छी अपील के लिए ! अपने अख्खड़पन और कसैले स्वाभाव की वज़ह से रचना की हार की संभावनाएं अधिक हैं मगर उन जैसों का होना यहाँ बेहद आवश्यक है ! मैंने उनके धुर विरोधियों से भी अपील की है कि वे खुले मन के साथ विचार करते हुए नारी को ही वोट दें ! इस अड़ियल लड़की का होना ही, तमाम लड़कियों लिए राहत का आधार है ! हार हो या जीत, रचना का आत्मविश्वास सुरक्षित रहेगा , इसका मुझे विश्वास है ! शुभकामनायें "नारी" को !
पोस्ट और इन टिप्पणियों पर अंग्रेजी में टिपियाते हुये डॉ.अरविन्द मिश्र लिखते हैं:
There is another catogary of best person to be followed and Rachana ji's blog does not belong to that...her blog is nominated under best blog category-so other considerations like her persona or being benevolent etc are irrelevant here.
उनको जबाब देते हुये लिखा गया:
डॉक्टर साब, उस कैटेगरी की चर्चा यहां हो भी नहीं रही. मुझे मालूम है, नारी सर्वश्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉग के लिये नामांकित है, मैने पोस्ट में ज़िक्र भी किया है कि रचना जी की उदारता का ज़िक्र मैने वोट बटोरने के लिये नहीं किया है. ये नारियों की आवाज़ को बुलन्द करने वाला ब्लॉग है, सो हम सब नारियों की तो कम से कम जिम्मेदारी है ही अपील करने की. हां, आप वोट करें, न करें ये फ़ैसला लेने के लिये स्वतंत्र हैं ही :)
हम तो पहले ही लिख चुके हैं:
यह बढिया मौका था/है महिला ब्लॉगरों के लिये कि वे नारी/चोखेरबाली ब्लॉग का समर्थन करके ब्लॉगजगत के इनाम जीतने के मामले में पुरुष ब्लॉगरों का चला आ रहा वर्चस्व खतम करने की कोशिश करतीं।


आपको जैसा ठीक लगे वैसा करिये। साथ के ये  दो स्केच संतोष त्रिवेदी की बिटिया के बनाये हुये हैं उनके फ़ेसबुक स्टेटस से लिये।



आप सभी को सप्ताह की शानदार शुरुआत के लिये शुभकामनायें।

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रविवार, अप्रैल 21, 2013

सूरज, पौधे, मासूम, दरिंदगी, टू फ़िंगर टेस्ट और एडवांस में संवेदना

आज इतवार की सुबह है। नौकरीपेशा वालों की छुट्टी होगी। लेकिन सूरज वैसे ही निकलेगा। मीनाक्षी जी ने अठारह महीने बाद फ़िर से लिखना शुरु किया है। वे सूरज और पौधों को देखते हुये लिखती हैं:



सूरज

आसमान से नीचे उतरा
धरती के आग़ोश में दुबका
ध्यान-मग्न पौधों का ध्यान-भंग करता
हवा के संग मिल साँसे गर्म छोड़ता

पौधे

एक पल को भी विचलित न होते
झूम-झूम कर फिर से जड़ हो जाते...
फिर से होकर लीन समाधि में
सबक अनोखा सिखला जाते 

 उनके ब्लॉग का नाम है प्रेम ही सत्य है। उनके यहां प्रेम है। वही सत्य भी। लेकिन दुनिया में प्रेम और सत्य के अलावा भी बहुत कुछ है। वहां  घृणा, हैवानियत और दरिंदगी भी है। जैसा कि अभी हाल में दिल्ली में हुआ।
 
दो दिन पहले दिल्ली में फ़िर एक मासूम बच्ची के साथ बलात्कार हुआ। बच्ची अस्पताल में है खतरे से बाहर। टेलीविजन पर प्रधानमंत्री वाली बहस थम गयी है। समाज में बढ़ती दरिंदगी फ़िर बहस का मुद्दा बन गयी है। टेलीविजन वालों के पास जितने भी बलात्कार के किस्से हैं वह उन सबको एक साथ अपने यहां उड़ेल रही है। बलात्कार पीड़िता द्वारा आत्महत्या, मासूम से बलात्कार, बलात्कारी का बहिष्कार। सब के साथ आई.पी.एल. बदस्तूर जारी है। लोगों में आक्रोश है। बलात्कार का आरोपी पटना में गिरफ़्तार कर लिया गया है। बी.बी.सी.की खबर के अनुसार उसका नाम मनोज है। उसने स्वयं प्रेमविवाह किया था। :
ज़िले के औराई अंचल निवासी मनोज कुमार ने दो साल पहले प्रेम-विवाह किया है। मनोज की उम्र 22 साल है और वो पिछले 15 साल से दिल्ली में रह रहा है. उसके पिता ओल्ड सीलमपुर इलाक़े में जूस की रेहड़ी लगाते हैं और वो गारमेंट फैक्ट्रीज में दिहाड़ी मज़दूर हैं. और वह अपने परिवार के साथ दिल्ली में रहकर मज़दूरी करते हैं. कजरा थाना प्रभारी ने बताया कि जब मनोज को गिरफ़्तार किया गया और मुज़फ्फ़रपुर कोर्ट में पेश किया गया, तब वहां जमा भीड़ के तमाम लोग उनकी घिनौनी करतूत पर उन्हें लताड़ रहे थे. "मनोज अपनी ससुराल चिक्नौटा गाँव में छिपे हुए थे. पुलिस ने मनोज के मोबाइल फ़ोन लोकेशन के ज़रिए ये पता लगाया कि मनोज कहां छिपे हुए थे. दिल्ली पुलिस ने मनोज को शुक्रवार रात दो बजे पकड़ा था." बिहार पुलिस पुलिस के मुताबिक़ मनोज कुमार बार-बार अपनी ग़लती मानकर गिड़गिड़ा रहे थे और लोग कह रहे थे कि पूरा मुज़फ्फ़रपुर उनकी हैवानियत पर शर्मिन्दा हुआ है.
खबर के अनुसार आरोपी मनोज बच्ची को मरा समझकर छोड़कर भाग गया। मरा न समझता तो शायद यह काम भी निपटाके जाता। आरोपी ने अपना आरोप स्वीकार कर लिया है और अपनी करनी पर शर्मिंदा है। पहले हैवानियत, फ़िर शर्मिंदगी, फ़िर अफ़सोस के बाद जब वह अदालत में पेश होगा तो पक्का बतायेगा कि वह बेकसूर है। दिल्ली में दामिनी प्रकरण के बाद एकबार फ़िर लोगों में गुस्सा फ़ूट पड़ा है। लोगों ने अपना आक्रोश प्रकट किया है। कुछ अभिव्यक्तियां देखिये:

  1. डॉ.मोनिका शर्मा लिखती हैं: आज मन बहुत व्यथित है । एक पांच वर्षीय बच्ची के साथ हुयी पाशविक घटना के बारे में जानकर । सच, मन दहला देने वाला परिदृश्य प्रस्तुत कर रहा है आज के दौर का समाज । बेटियों का आगे बढ़ना , पढना लिखना, उनका पूजनीय होना हर शब्द बस प्रदर्शन भर लग रहा है । दुष्कर्म मानो प्रतिदिन सुना जाने वाला शब्द हो चला है । देश की महिलाओं और बेटियों के साथ आये दिन पाशविक कृत्य हो रहे हैं । साथ ही जिस तरह की सामाजिक-प्रशासनिक व्यवस्था में हम जी रहे हैं, संभवतः आगे भी होते ही रहेंगें । कहाँ जा रहे हैं हम ? किस ओर मुड़ गयी है हमारी सामाजिक पारिवारिक व्यवस्था ? हे राम...बेटियों के वंदन और मानमर्दन का कैसा खेल 


  2. अजित गुप्ता लिखती हैं: दिल्‍ली की मासूम कली के साथ हुई दरिंदगी, मन-मस्तिष्‍क में हाहाकार मचाए हुए है। लग रहा है कि अब इस देश की कलम में भी ताकत नहीं रही। हमने भेड़िये पैदा करने प्रारम्‍भ कर दिए हैं। कल्‍पना कीजिए उस जंगल की, जहाँ भेड़ियों की संख्‍या बढ़ रही हो और अन्‍य प्राणियों की संख्‍या घट रही हो, तब अन्‍य प्राणियों का क्‍या हाल होगा? मैं बार-बार कह रही हूँ कि आज समाज के हजारों ठेकेदार बने घूम रहे हैं लेकिन ये ठेकेदार केवल भेड़िये पैदा कर रहे हैं, मनुष्‍य नहीं। समाज भेड़िये पैदा कर रहा है और समाज के ठेकेदार जनता से सुरक्षा-कर वसूल रहे हैं


  3. रश्मि रविजा का कहना है: तो क्या छोटी छोटी बच्चियों के साथ ऐसे दुष्कर्म इसलिए हो रहे हैं क्यूंकि हमारे समाज में तमाम वर्जनाएं हैं ? यौन कुंठित पुरुषों की तादाद इतनी बढती जा रही है कि आये दिन छोटी छोटी मासूम बच्चियां उनकी कुंठाओं का शिकार हो रही हैं. नहीं चाहिए ये बंदिशें ,नहीं चाहिए ये बंधन. सबको आज़ाद कर दो , किसी पर कोई रोक-टोक न हो. वे अपनी काम-पिपासा ,अपने हमउम्र वालों के साथ ही शांत करें. इन मासूम बच्चियों को बख्श दें . मेरी बातें बहुत ही अव्यावहारिक लग रही होंगीं. पसंद भी नहीं आ रही होंगीं ,पर इस मनःस्थिति में मुझे इसके सिवा कुछ नहीं सूझ रहा . अगर ऐसे खुले समाज में हमारी बच्चियां सुरक्षित हो जाती हैं तो यही सही. और अगर हमें इतना आगे नहीं बढ़ना है तो फिर पीछे लौट चलें. बाल-विवाह को ही प्रश्रय दें. आखिर पचास साठ साल पहले इतना वहशीपन तो नहीं था लोगों में . आधुनिक बनने की कैसी कीमतें चुका रहे हैं हम ?? क्या आज वर्जनाहीन समाज ही बच्चियों की सुरक्षा की शर्त है 


  4. अमित लिखते हैं: ये बलात्कारी सांड
    अपने मनोविज्ञान में
    किसी नारी से कोई भेद भाव नहीं करते
    इनके लिए
    स्त्री चाहे एक साल से छोटी शिशु हो
    या साठ से ऊपर की वृद्धा
    सब बलात्कार के योग्य हैं|
    दिल्ली है सांड़ों की, बलात्कारियों की


  5. सत्येन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव का सवाल है: दिल्ली में फिर पांच साल की एक बच्ची के साथ बलात्कार हुआ. बच्ची से इलाज से लेकर प्रदर्शनकारियों से निपटने तक में दिल्ली पुलिस ने फिर दिखाई असंवेदनशीलता क्या आपको नहीं लगता कि एक बच्ची को अपनी हवस का शिकार बनाने वाले को मौत की सजा से कम कुछ नहीं होना चाहिए? कब थमेगा ये सिलसिला?


कार्टूनिस्ट इरफ़ान ने इस मौके पर पुलिस की भूमिका पर कार्टन बनाये हैं। इरफ़ान के ये कार्टून आज के समय में पुलिस में आये बदलाव की कहानी कहते हैं। घूस लेने के लिये ख्यातनाम पुलिस विभाग खुद घूस की पेशकश करने 
 लगा है-अपराध की खबर छिपाने के लिये।
 

इस मौके पर  स्वप्नमंजूषा’अदा’ ने एक अनुभव साझा किया है यह लिखते हुये ---" इस समय जो भी सुनने को मिल रहा है ...मेरा यह संस्मरण सामयिक कहा जा सकता है, इसलिए दोबारा डाल  रही हूँ"। देखिये- एक पेड़ ऐसा भी ....(आँखों देखी ) 

बलात्कार के आरोपी की सजा के लिये अदालती कार्यवाही के प्रक्रिया में पीड़िता का टेस्ट होता है। इसे टू फ़िंगर टेस्ट कहते हैं। पत्रकार नेहा झा इस बारे में अपने विचार लिखती हैं बलात्कार की ही तरह घोर अमानवीय व सम्मान का उल्लंघन है 'टू फिंगर टेस्ट'!:
"टू फिंगर टेस्ट से पता लगाने की कोशिश की जाती है की लड़की कुवांरी है या नहीं। इसके लिए डॉक्टर पीड़िता के योनि में ऊँगली प्रवेश कर इस आधार पर रिपोर्ट देता है कि उसकी दो उँगलियाँ योनि में आसानी से प्रवेश कर पाती हैं या उसे दिक्कत महसूस हुई, प्रवेश के दौरान खून निकला या नहीं।

इस टेस्ट के परिणाम अगर सकारात्मक आ जायें तो बचाव पक्ष के वकील की चांदी हो जाती है। अब वो अदालत में साबित कर सकते हैं की लड़की तो सेक्स की आदी थी और बलात्कार उसकी सहमति से हुआ है। अब सवाल शादी शुदा महिलाओं से जुड़ता है। यानी किसी विवाहित महिला के साथ बलात्कार होता है तो उसकी मेडिकल रिपोर्ट और बचाव पक्ष के वकील तो यही कहेंगे कि मी लोर्ड महिला तो सेक्सुअली हेबिचुअल थी इसलिए सबकुछ सहमति से ही हुआ होगा। दूसरा कि ऐसे टेस्ट शादी के बाद पति द्वारा किये जाने वाले बलात्कार की अवधारणा को ही नकार देता है।"

 समाज में  दरिंदगी बढ़ती जा रही है। जन्म देने वाले पिता तक अपनी बच्ची से बलात्कार कर रहे हैं। पुलिस कुछ कर नहीं पा रही है। ऐसे में सरकार क्या कर सकती है। आलोक पुराणिक का कहना है कि सरकार  एडवांस में शोक संवेदना व्यक्त कर सकती है।
दिल्ली की हर लड़की-महिला का ईमेल एड्रेस हम जुटा लेंगे, उस पर सुबह ही एडवांस में सौरी बोल देंगे। शाम तक कोई वारदात हो जाये, तुम्हारे साथ, समझ लो कि सुबह ही सौरी बोल दिया गया था। वारदात बहुत ज्यादा बड़ी हो, तो हमारा शोक संदेश आपके साथ है। बधाई अगर आप शाम को एकदम ठीकठाक घर वापस आ गयीं। चेतावनी ये कि इन इन रास्तों में पुलिस थाने पड़ते हैं, यहां से ना गुजरें। पुलिसवाले चांटा मार सकते हैं। उचक्कों के बारे में चेतावनी मुश्किल है, पर पुलिस के चांटे की चेतावनी तो दे ही सकते हैं। रोज सुबह बधाई, चेतावनी एक साथ ईमेल कर दी जायेगी, लैपटाप खोलकर देख लें।
आज फ़िलहाल इतना ही। नीचे यह वीडियो देखिये बीस मिनट की है। इसमें बताया गया है कि भविष्य में जब किताबें नहीं रहेंगी तब कैसी होगी दुनिया। आपका सप्ताहांत शुभ हो।

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शनिवार, अप्रैल 20, 2013

प्रेम का गणित , फ़िजिक्स और केमेस्ट्री याने सीधा कनेक्शन दिल से


मेरा परिचयलड़का प्रेम में था
उस महुए के फूल जैसी लडकी के.
वो उसे पी जाना चाहता था शराब की तरह
लडकी को इनकार था  खुद के सड़ जाने से....

लड़का उसे चुन कर
हथेली में समेट लेना चाहता था
हुंह.....वो छुअन !
लड़की सहेजना चाहती थी
अपने चम्पई रंग को.

लड़का मुस्कुराता उसकी हर बात पर,
लड़की खोजती रही
एक वजह-
उसके यूँ बेवजह मुस्कुराने की....-प्रेम का रसायन......

यह कविता अनु लता राज नायर की  है।   दो बेटों की मां, केमिस्ट्री में  एम.एस.सी. हैं सो प्रेम की केमेस्ट्री के बारे में अक्सर लिखती रहती हैं। केमेस्ट्री में एम.एस.सी. हैं तो काफ़ी दिन तक गणित का भी साथ रहा होगा। सो प्रेम का गणित भी मौजूद है उनकी कविताओं में देखिये:
यदि प्रेम एक संख्या है
तो निश्चित ही
विषम संख्या होगी....

इसे बांटा नहीं जा सकता कभी
दो बराबर हिस्सों में.
अब जब प्रेम का गणित है तो भौतिकी भी जरूर होगी। प्रेम में डूबता/उतराना सबसे ज्यादा सुना जाता है सो वही देखिये:
तुम्हारे प्रेम में डूब गयी....


नहीं चाहती थी डूबना
डूब कर अपना अस्तित्व खोना मुझे नापसंद था

उत्प्लवन के सिद्धांत तय करते हैं शर्तें - तैरते रहने की.
डूब जाने की कोई शर्त नहीं!!!!
 प्रेम कवितायें लिखने वाला प्रेम पत्र लिखने से कैसे चूक सकता है। सो अनुलता  ने भी लिखा। लिखकर कलम तोड़ दी (माउस क्यों नहीं तोड़ा? :)
पत्र लिखूं / न लिखूं
तुमसे  कहूँ/ न कहूँ
प्रेम तो रहेगा ......
तुम खत पढो/ न पढ़ो..
सहेजो/ फाड़ दो.....
प्रेम तो रहेगा ही......
मानो या न मानो....
 भोपाल और  रायपुर में  पढाई करने वाली अनु को पढ़ना बहुत पसंद है। विद्यार्थी जीवन में पढ़ाकू रहीं सो कविता सूझी नहीं। अब जब सुकून मिला तो कवितायें लिखीं। मतलब कविता लेखन फ़ुर्सत का काम है। :) लिखने की प्रेरणा देने वाले अपने पिताजी के बारे में लिखते हुये अनु ने कविता लिखी:
बचपन से सुनती आयी थी
वो अटपटी सी कविता
न अर्थ जानती थी
न सुर समझती....
कविता थी या गीत ???
मचलती आवाज़ से लेकर
खरखराती ,कांपती आवाज़ तक
जाने कितनी बार सुना
लफ्ज़ रटे हुए थे...
जब जब कहती
तब तब वो बेहिचक सुनाने लगते
और मैं खूब हंसती...
बस अपने बाबा की बच्ची बन जाती....
जो कविता  बाबा सुनाते थे और जिसे बाबा की बच्ची सुनती थी  बाद में गूगलबाबा की मदद से पता चला अनु को कि वो एक लोरी थी जिसे उनके पापा उनके लिये गाया करते थे। अनु लिखती हैं: 

ये मेरी पापा के साथ आख़री तस्वीर है....उनके जन्मदिन की.उनके जाने के बस  17 दिन पहले.
जिस गीत का ज़िक्र किया है मैंने वो एक लोरी है जो मलयालम में पापा गाया करते थे.....उनके जाने के बाद गूगल पर देखा तो जाना कि वो एक लोरी है जिसे केरल के राजा "स्वाति थिरूनल" को सुलाने के लिए गाया जाता था .इसको प्रसिद्द कवि "इरवि वर्मन थम्पी" 1783-1856 A.D. ने लिखा था....एक और संयोग है कि पापा भी स्वाति नक्षत्र में जन्में थे....और हमारे लिए किसी राजा से कम न थे.
 अपने पापा से गहरे प्रभावित अनु उनको याद करते हुये लिखती हैं:
उस खालीपन में...
निर्वात में
जीवन संभव न था....
जीने की वजह खोजी
तो पाया एक तारा....
रात के सूने आकाश में टिमटिमाता
सबसे चमकीला तारा...
जो मुस्कुराता है मुझे देख कर !!
 छोटी,छोटी कविताओं के माध्यम से अपनी बात कहने वाली अनु की कविताओं में प्रेम है, प्रेमपत्र हैं तो यादें और यादों के पदचिन्ह भी हैं। सीली रात की बाद की एक सुबह का दृश्य देखिये:
सुनो न ! किरणों की पाजेब
कैसे खनक रही है
तुम्हारे आँगन में.
मानों मना रही हो कमल को
खिल जाने के लिए
सिर्फ तुम्हारे लिए.....

चहक  रहा है गुलमोहर
बिखेर कर सुर्ख फूल
तुम्हारे क़दमों के लिए....

नज्म से प्रेम तक का रास्ता देखिये कैसे तय किया उन्होंने :

कुछ छंद लिखे
मेरी बातों पर
मैं कविता हुई....

वो मौन हुआ 
बस छू कर गुज़रा
मैं प्रेम हुई......

अनु मूलत: केरल की रहने वाली हैं। मलयालम उनकी मातृभाषा है। भोपाल और रायपुर में रहने/पढ़ने के चलते हिन्दी सीखी। ब्लॉग पर कवितायें उनके ब्लॉग के नाम (my dreams 'n' expressions.....याने मेरे दिल से सीधा कनेक्शन.....) के अनुरूप सीधा दिल से निकलती हैं। दैनिक भास्कर और अहा जिदगी में रचनायें प्रकाशित। कविता संग्रह- "ह्रदय तारों का स्पंदन " और रश्मि प्रभा जी द्वारा सम्पादित पुस्तक  "शब्दों के अरण्य"में रचनायें शामिल।

संयोग से  अनु लता राज नायर का आज जन्मदिन है। उनको जन्मदिन का मंगलकामनायें।  उनका दिल से सीधा कनेक्शन बना रहे। नियमित लिखती रहें। प्रेम की गणित, भौतिकी और केमेस्ट्री मजबूत रहे। उनके पिताजी की गायी लोरी तो मैने नहीं सुनी लेकिन उनके लिये उनके जन्मदिन के मौके पर  मेरी माताजी द्वारा गायी एक लोरी जो किसी राजकुमारी के लिये उसकी मां गाती होती होंगी।






मेरी पसंद

कल फ़ेसबुक मित्र sudhir tiwari की के यहां यह चित्र देखा:
चित्र: An anthropologist proposed a game to the kids in an African tribe. He put a basket full of fruit near a tree and told the kids that who ever got there first won the sweet fruits. When he told them to run they all took each others hands and ran together, then sat together enjoying their treats. When he asked them why they had run like that as one could have had all the fruits for himself they said: ''UBUNTU, how can one of us be happy if all the other ones are sad?''

'UBUNTU' in the Xhosa culture means: "I am because we are."

https://www.facebook.com/ThePlatznerPost
For more "Like" our page...Thanks!!! : )

 इस चित्र के बारे में जानकारी देते हुये बताया गया था An anthropologist proposed a game to the kids in an African tribe. He put a basket full of fruit near a tree and told the kids that who ever got there first won the sweet fruits. When he told them to run they all took each others hands and ran together, then sat together enjoying their treats. When he asked them why they had run like that as one could have had all the fruits for himself they said: ''UBUNTU, how can one of us be happy if all the other ones are sad?''

'UBUNTU' in the Xhosa culture means: "I am because we are."

 हम हैं इसलिये मैं हूं। मतलब जब हम सब नहीं रहेंगे तो मैं कहां बचेगा?
मैंने उनकी वाल पर इस पोस्ट को पसन्द किया तो उन्होंने सवाल लिखा:
भाई अनूप, आपको धन्यवाद thanx कह कर एक पल nice अनुभव करने का प्रयास रहेगा जिसे संभवतः आप और आप सरीखे कुछ अन्य भी पसन्द करेंगे. उसके पश्चात हम सभी फिर उसी धक्का मुक्की में शामिल होने की कवायद में अपने को स्वस्थ एवम और बेहतर सिद्ध करने की evening walk की प्रक्रिया में निकल पड़ेंगे!
 इस पर मेरा जबाब था:
Sudhir Tewari हां शायद ऐसा ही हो लेकिन इस तरह के उदाहरण मन पर प्रभाव डालते हैं, बदलते हैं। भले ही थोड़ा-थोड़ा!
आपका क्या कहना है इसपर आप भी बताइयेगा।


 और अंत में

आज के लिये फ़िलहाल इतना ही। बाकी फ़िर कभी।  नीचे का कार्टून भी सुधीर तिवारी की फ़ेसबुक वाल से:
चित्र: Aadhar Card.. :P

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गुरुवार, अप्रैल 18, 2013

भारतीय ब्लॉग मेला, जर्मनी ब्लॉग मेला और नारी ब्लॉग

कल की चर्चा पर संजय झा जी की टिप्पणी थी:
"हा...हा...हा... भारतीय राजनीति का ’ब्लॉगिंग संस्करण" कहां तो बहुभाषीय ब्लॉगिंग प्रतियोगिता में ’हिन्दी ब्लॉगिंग’ को आगे करने की मुहिम चलना था.....कहां ये आपस में हल्दीघाटी का मैदान बना हुआ है.... मजे लिये जा रहे हैं....मगर ’दुख/संताप/क्षोभ/क्रोध/बेबसी के साथ....."
संजय जी द्वारा प्रयुक्त ’भारतीय’ शब्द के साथ कुछ पुरानी बातें याद गयीं। सन 2004/2005 में जब हम ब्लॉगिंग में नये आये थे। अंग्रेजी ब्लॉग लिखने वाले नियमित रूप से ’भारतीय ब्लॉग मेला’ आयोजित करते थे। इसमें किसी एक ब्लॉग पर ब्लॉगर साथी अपने ब्लॉगपोस्टों के लिंक सटा देते थे और फ़िर उनकी चर्चा वे (अंग्रेजी के) ब्लॉगर अपने ब्लॉग पर करते थे। शुरु में तो बड़ा अच्छा लगा हिन्दी ब्लॉगरों को कि वे ’भारतीय ब्लॉग मेला’ में चर्चा हो गयी। एक बार हिन्दी की कई पोस्टों की चर्चा हुई तो अतुल अरोरा ने मारे खुशी के अक्षरग्राम पर पोस्ट लिख मारी - छा गयी हिंदी ’भारतीय ब्लॉग मेला’ में। कुछ दिन बाद हिन्दी ब्लॉगरों का संकोच खतम हुआ और फ़िर तो धड़ल्ले से हम लोग बहुतायत में ’भारतीय ब्लॉग मेला’ में छाने लागे। अंग्रेजी ब्लॉगरों से बहस करने लगे। बहस जब भी होती तो सब हिन्दी ब्लॉगर साथ हो जाते। ऐसे ही एक ’भारतीय ब्लॉग मेला’ madman के ब्लॉग पर आयोजित हुआ। उसमें उन्होंने हिन्दी ब्लॉग्स की चर्चा करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुये लिखा:
I know some Hindi blog entries were nominated, but I've left them out of this mela, not because I'm a snobbish bastard, but because: 1) I studied Hindi for 10 years at school, and speak the language fluently, but haven't read any big chunks of Hindi since 1990. So my reading speed has reduced to a crawl. 2) The thin strokes of the text coupled with the low resolution of a PC monitor made it even harder to read the entries. 3) Some of the spelling mistakes (mostly misplaced matras) didn't help either. My apologies to you all. Perhaps we should start a Hindi version of the Mela soon. Shanti, what do you think?
इसके बाद किन्ही सत्यवीर ने टिप्पणी करते हुये लिखा:
I agree that hindi blogs should have a different blog mela. It is better to keep regional languages at a different forum. Unlike english blogs it is trouble to download fonts and read a language you have forgot before ages. And if hindi posts are allowed in english blog meal then why not tamil,teulugu,marathi and so on...
सत्यवीर ने जब हिन्दी को क्षेत्रीय भाषा कहा तो हिन्दी के ब्लॉगरों ने वहां इस पर आपत्ति और बहस की। शुरुआत देबाशीष (Indiblogger )ने की। फ़िर इंद्र अवस्थी ,जीतेन्द्र चौधरी और अन्य ने मोर्चा संभाला। जीतेन्द्र चौधरी ने लिखा:
Interesting to know that HINDI is regional language! how about changing the name of this place "INDIAN BLOG WORLD" Why are u using word "BHARTIYA" OR "MELA"? I would not comment on the people, who spoke something foul about hindi but would definately say one thing. "जिस पेड़ के तने पर बैठे हो उसको आरी से काटने की कोशिश मत करो."
इसके बाद madman ने झल्लाकर कमेंट बंद कर दिये। वह पोस्ट थी 4 जनवरी,2005 की। बहस होने के बाद अतुल अरोरा ने गुस्से में लिखा- अब भारतीय ब्लॉग मेला में नामांकन बंद। मैंने उसी समय एक पोस्ट (अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है ) में लिखा:
भारतीयब्लागमेला(वर्तमान) का उपयोग तो सूचनात्मक/प्रचारात्मक होता है.किसी चीज को पटरा करने के दो ही तरीके होते हैं:-
1.उसको चीज को टपका दो(जो कि संभव नहीं है यहां)
2.बेहतर विकल्प पेश करो ताकि उस चीज के कदरदान कम हो जायें.
चूंकि हिंदी में ब्लाग कम लिखे जाते हैं अत:केवल हिंदी के लिये ब्लागमेला आयोजित करना फिजूल होगा.हां यह किया जा सकता है कि सभी भाषाओं के ब्लाग की साप्ताहिक समीक्षा की जाये.जो नामांकन करे उसकी तो करो ही जो न करे पर अगर अच्छा लिखा हो तो खुद जिक्र करो उसका और उसे सूचित करो ताकि वो हमसे जुड़ाव महसूस करे.तारीफ ,सच्ची हो तो,बहुत टनाटन फेवीकोल का काम करती है.है कि नहीं बाबू जीतेन्दर.तो शुरु करो तुरंत ब्लागमेला.

हिन्दी में ब्लॉग कम लिखे जाने की बात सन 2005 की है। अब तो खूब लिखे जाते हैं। इस पोस्ट के तीन दिन बाद ही चिटठाचर्चा की शुरुआत हुई। जिसकी शुरुआती पोस्ट में लिखा गया-
भारतीय ब्लागमेला के सौजन्य से पता चला कि हिदी एक क्षेत्रीय भाषा है.यह भी सलाह मिली कि हिंदी वालों को अपनी चर्चा के लिये अलग मंच तलाशना चाहिये.इस जानकारी से हमारेमित्र कुछ खिन्न हुये.यह भी सोचा गया कि हम सभी भारतीय भाषाओं से जुड़ने का प्रयास करें. इसी परिप्रेक्ष्य में शुरु किया जा रहा है यह चिट्ठा.दुनिया की हर भाषा के किसी भी चिट्ठाकार के लिये इस चिट्ठे के दरवाजे खुले हैं.यहां चिट्ठों की चर्चा हिंदी में देवनागरी लिपि में होगी. भारत की हर भाषा के उल्लेखनीय चिट्ठे की चर्चा का प्रयास किया जायेगा.
चिटठाचर्चा की शुरुआत के समय बमुश्किल 30 ब्लॉगर रहे होंगे हिन्दी के। आज हिन्दी के कुल ब्लॉग की संख्या 30000 तो पार कर ही गयी होगी। तमाम लोग आये लिखने। नयी तकनीक और सुविधायें। पहले हम मुकाबले के लिये अंग्रेजी ब्लॉगरों के पास जाते थे। अब आपस में ही लड़-झगड़ लेते हैं। हालिया जर्मनिया ब्लॉग इनाम में इसका मुजाहरा देख ही रहे होंगे सभी। लोग आपस में एक दूसरे को कतरने में लगे हैं। हास्यास्पद भाषा में तुकबंदी करते हुये इज्जत उतार रहे हैं। संजय झा की टिप्पणी के चलते जो पुरानी बात याद आ गयीं वह यहां बता दिये। अब आगे चला जाये। लेकिन पहले पीछे। पिछली पोस्ट में रवीन्द्र प्रभात जी के एक अंग्रेजी अखबार को दिये इंटरव्यू का जिक्र हुआ। उसमें उन्होंने साइट का लिंक जानना चाहा ताकि वे उसकी प्रामाणिकता से अवगत हो सकें। हमें जो पता था हमने बता दिया। इसके बाद लोगों ने और कुछ टिप्पणियां की। जैसे कि:
  1. डा.महफ़ूज अली ने लिखा: मैं चूँकि रविन्द्र प्रभात जी को पर्सनली जानता हूँ वो ऐसे नहीं हैं ... कुछ ऐसे भी होते हैं जो दूसरों के कन्धों पर बन्दूक रख कर चलाते हैं ... साउथ एशिया टुडे को देखने के बाद यह लगा कि यह साईट किसी सेमी-लिटरेट टाइप के आदमी की है .... इसकी अंग्रेजी मतलब मेरे जैसा अंग्रेजी जान्ने वाला पढ़ लेगा तो छ बार आत्महत्या कर लेगा ... और जो थोडा बहुत काम चलाऊ अंग्रेजी जानते हैं वो सिर्फ उस वेबसाइट पर लानत भेजेंगे ... और जो जाहिल होगा वो उस वेबसाइट पर यकीन करेगा ... और जिस हिसाब से उस वेबसाइट पर सरकारी चीज़ों का इस्तेमाल हुआ है वो ऍफ़ . आय. आर. (सार्क कन्ट्रीज का लोगो का यूज़ हुआ है ... जिसे मैंने मिनिस्ट्री को फॉरवर्ड तो कर दिया है ...बाकि अब सरकार या मिनिस्ट्री जाने) करने के लिए काफी है ... कोई भी अच्छा पढ़ा लिखा आदमी वैसी अंग्रेजी नहीं लिखेगा ... और वैसे भी अंग्रेजी का आदमी इन सब टुच्चा गिरी में नहीं पड़ेगा वो भी हिंदी ब्लॉग के लिए ... यह भी सोचने वाली बात है ... फैक्ट्स को जानने की कोशिश करनी चाहिए ... अगर यह इतनी ही सच्ची वेबसाइट होती तो क्वालिटी की अंग्रेजी होती ...इससे साफ़ ज़ाहिर है कि यह वेबसाइट तामझाम के लिए ही बनायीं गयी है जिसका मालिक अंग्रेजी में बहुत ही कमज़ोर है ....
  2. Sandeep Agarwal ने लिखा: साउथ एशिया टुडे को रजिस्टर करने वाला विनय प्रजापति है और augustvinay @gmail.com उसी का ईमेल एड्रेस है. विनय का जन्मदिन बीस अगस्त को पड़ता है उसी पर उसने ईमेल एड्रेस बनाया है और गो डैडी पर रजिस्टर किया है ... गो डैडी पर रजिस्टर होने के कारण रजिस्टर एरिया न्यू डेल्ही दिखाई दे रहा है। विनय प्रजापति जाकिर और रविन्द्र का ही दोस्त है व् लखनऊ से है और साइबर तकनीशियन है जिसे सब लोग ब्लॉग जगत में इसी रूप में जानते हैं. मैं खुल कर सामने नहीं आ सकता इसलिए छुपकर आना मजबूरी है। पर सच यही है और दिमाग लगाया जाए तो स्थिति सही ही मालूम होगी। ईमेल एड्रेस का augustvinay होना इत्तेफाक नहीं है.
जिस अखबार में रवीन्द्र प्रभातजी का अंग्रेजी इंटरव्यू छपना बताया गया, जिसकी अंग्रेजी डा.महफ़ूज अली ने ऐसी बताई जिसको कि उनके जैसा अंग्रेजी जानने वाला पढ़ लेगा तो छ बार आत्महत्या कर लेगा ..., उसमें जो ईमेल दिया है वह संदीप अग्रवाल ने बताया कि विनय प्रजापति का है। विनय प्रजापति को संदीप अग्रवाल ने जाकिर और रवीन्द्र जी का दोस्त बताया है। अब दोस्ती की बात तो दोस्त लोग ही बता सकते हैं लेकिन हम यही जानते हैं कि विनय प्रजापति वर्ष 2010 में परिकल्पना द्वारा वर्ष के सर्वश्रेष्ठ तकनीकी चिट्ठाकार का अलंकरण प्रदान किया गया था।

संभव है दोनों विनय प्रजापति अलग-अलग हों जिनके मेल एक ही हों। उन वाले विनय प्रजापति को रवीन्द्र प्रभात न जानते हों जिनके अखबार में उनका अंग्रेजी में इंटरव्यू छपा। एक ही नाम के जब कई लोग हो सकते हैं तो एक ई-मेल के कैसे नहीं। हो सकता यह सब जानकारी गड़बड़ हो। कहने को तो लोग यह भी कह रहे हैं-क्या फिक्स हैं डायचे वेले अवार्ड्स?


अब कुछ बातें नारी ब्लॉग को वोट देने के बारे में। कुछ लोगों ने कमियां, नकारात्मकता और पढ़ने तक के लिये आरक्षित कर देने की बात बताते हुये उसको वोट देने वालों पर सवाल उठाये हैं। नारी ब्लॉग के बारे में कमियों वाली बात सही है। यह भी सही है उसकी भाषा ऐसी-वैसी ही है। उसकी माडरेटर मनमानी करती रहीं हैं। जब मन आया तब किसी को सदस्य बना लिया। जब खटपट हुई निकाल दिया। जब मन आया सामूहिक रखा ब्लॉग। जब मन किया व्यक्तिगत बना दिया। केवल निमंत्रण पर पढ़ने वाला बना दिया। जब देखो तब बेवजह के तर्क देते हुये माहौल खराब किया। इतनी कमियों के बावजूद उसके लिये वोट देने जैसा फ़िजूल काम मैंने क्यों किया। वह भी तब जबकि नारी की माडरेटर ने हमारी समय-समय पर आलोचना करते हुये लिखा- कि हम हा हा, ही ही करते हुये ब्लॉगिंग का माहौल बिगाड़ते रहते हैं, अनूप शुक्ल हिन्दी के कौन विद्वान हैं?, आपने अपनी पोस्ट में महिला का चित्र क्यों लगाया?, मामा के किस्से लिखते रहते हैं आदि-इत्यादि कम से पचीस-तीस पोस्टों में उनकी किरपा हमारे ऊपर हुई है।

इसके बावजूद हमने ’नारी’ ब्लॉग को वोट दिया क्योंकि 2007 से हमने देखा है कि: नारी ब्लॉग के पहले तक हिन्दी ब्लॉग जगत मूलत: मर्दवादी था (अभी भी है काफ़ी हदतक)। नारी ब्लॉग के आने के बाद इस एकतरफ़ा वर्चस्व को झटका देने की शुरुआत हुई। नारी ब्लॉग ने हमेशा नारी मुद्दों पर अपनी आवाज उठाई है। शुरुआती दौर में बहुत सारी महिला ब्लॉगर इससे (मेरी समझ में सबसे ज्यादा) जुड़ी थीं। बाद में कम-ज्यादा जुड़ना होता गया। यह तो उन विज्ञान ब्लॉगों के साथ भी हुआ जिससे डा.अरविन्द मिश्र जड़े थे (जो कि उनके मानसपुत्र हैं।) नारी ब्लॉग का रवैया कभी-कभी अतिवादी रहा। लेकिन जब भी कभी नारी मुद्दों पर बात चली तो वहां आवाज उठाई गयी। मौका आने पर ’नारी’ब्लॉग के माध्यम से जुड़ी महिलाओं ने पुरुष ब्लॉगरों के फ़ूहड़ टिप्पणियों का जमकर विरोध किया


इस सबसे अलग मैं ’नारी’ ब्लॉग की माडरेटर का इसलिये प्रशंसक हूं कि उन्होंने जितनी बहादुरी और हिम्मत के साथ अपने खिलाफ़ हुये हमलों का मुकाबला किया है और अभी तक डटी हुई हैं उतनी हिम्मत विरले लोगों में ही होती है। उनके खिलाफ़ लिखी गयी कुछ पोस्टों के नमूने देखिये: लोग माथा पीट रहे हैं और तुम लिंग पकड़ कर बैठी हो यह पोस्ट डा.अलबेला खत्री ने लिखी थी। इसकी चर्चा शिवकुमार मिश्र ने की थी- तुलसी और दुर्वासा इतने भौंडे तो नहीं थे इस पोस्ट में आई टिप्पणियों से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि हिन्दी ब्लॉगिंग परिवार के लोग कितनी बेहूदी टिप्पणियां करते रहे हैं उनके खिलाफ़।

ऐसी और न जाने कितनी पोस्टें हैं जिनमें उनके खिलाफ़ और अन्य महिला ब्लॉगरों के खिलाफ़ द्विअर्थी टिप्पणियां करती की गयीं। रचना जी में बहुत सारी कमियां होंगी। लेकिन उनकी बहादुरी, बेबाकी और डटकर मुकाबला करने की हिम्मत के लिये मेरे मन में उनके प्रति इज्जत है।

आज भले नारी ब्लॉग की सदस्याओं के अपने-अपने ब्लॉग हैं। वे उनके व्यवहार या अपनी मजबूरियों के चलते भले न उससे जुड़ी हों लेकिन यह सच है ब्लॉगजगत में ’नारी’ ब्लॉग ने हमेशा महिला अस्मिता से जड़े मुद्दे उठाये। चोखेरबाली ने भी बहुत अच्छा काम किया। उसकी भाषा भी अधिक परिष्कृत रही है। लेकिन ठेठ और ठसकदार तरीके से नारी मुद्दों पर बात कहने की शुरुआत का श्रेय नारी को ही जाता है। उसने कम से कम यह झांसा तो नहीं किया कि कहीं फ़र्जी चीनी भाषा में इंटरव्यू दिया और उसका जापानी से अनुवाद कराके हिन्दी में सटा दिया अपना भौकाल बनाने के लिये।

वैसे यह बढिया मौका था/है महिला ब्लॉगरों के लिये कि वे नारी/चोखेरबाली ब्लॉग का समर्थन करके ब्लॉगजगत के इनाम जीतने के मामले में पुरुष ब्लॉगरों का चला आ रहा वर्चश्व खतम करने की कोशिश करतीं।

न हमारे वोट देने से कोई जीतेगा, न न देने से कोई हारेगा। लेकिन हमारा अपना मानना है कि ब्लॉगजगत में नारी अस्मिता की रक्षा के लिये जितना जद्दोजहद और लड़ाई-झगड़ा और बवाल भी नारी ब्लॉग से जुड़े साथियों ने किया उतना और किसी ने नहीं। इसलिये हमने उसको अपना वोट दिया। यह सपोर्ट बावजूद इस सच्चाई के  बावजूद कि नारी ब्लॉग की माडरेटर ने खुलकर जितनी मेरी खिल्ली उडाई होगी उतनी शायद ही किसी और की।

मैं उनके हौसले , हिम्मत और बहादुरी की तारीफ़ करता हूं। इसीलिये उनका समर्थन किया। अब यह मौका भी है सो अपनी बात कह लिये। ऐसे मौके पर बकौल डा.अरविन्द मिश्र तटस्थ नहीं रहना चाहिये क्योंकि -जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध…

ये तो रही हमारी बात। आपकी आप जानो!

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मंगलवार, अप्रैल 16, 2013

कट्टाकानपुरी, वधशाला, चाकू वाली कविता और हल्दीघाटी का ब्लॉग मैदान

सात बज गये सुबह के, आय गयी है चाय,
जगा रहे स्टेटस को, बेटा अब तो उठि जाव।

बैठ बिस्तरे पर मजे से, खटर-पटर हुई जाय,
लिखें-पढ़ेगे बाद में, तनि शेर-वेर सटि जाय।
-कट्टा कानपुरी
 
सुबह फ़ेसबुक पर ये स्टेटस लिखकर श्रीगणेशायनम: किया तो कानपुर से कविराय आशीष राय की टिप्पणी आई-सुब्बे सुब्बे कट्टा दिखाते हो आप ?

अब हम उनको क्या जबाब देते? विनम्रता पूर्वक जबाब दिया- ये कट्टा कानपुरी का विनम्र संस्करण है जी। वैसे लिखने को तो हम यह भी लिख सकते थे- जब आप किस्तों में वधशाला लिखते हैं तब कुछ नहीं होता और हम जरा सा नाम चमका देते हैं तो उस पर सवाल उठाते हैं?

बताते चलें कि आशीष जी ने देश ऐतिहासिक चरित्रों के बारे में वधशाला श्रखला के अंतर्गत अभी तक छह भाग में लिखा है। शुरुआत देखिये:
रातः ,संध्या, सूर्य ,चन्द्रमा, भूधर, सिन्धु ,नदी ,नाला जल, थल, नभ क्या है ? न जानता वर्षा, आंधी, हिम ज्वाला विश्व नियंता कभी न देखा , पर इतना कह सकता हूँ जिसने विश्व रचा है उसने ,प्रथम बनाई बधशाला
शुरुआत में सीता, दशरथ, चाणक्य, महानंद,भीम, कीचक,भगतसिंह के बारे में जो लिखा उन्होंने उस पर कई इस्मत जी जिनका शेर
हमारे हौसलों का रेग ए सहरा पर असर देखो, अगर ठोकर लगा दें हम तो चशमे फूट जाते हैं.----- शेफ़ा कजगाँवी
आशीष ने अपने ब्लॉग के माथे पर शेरावाली के रूमाल सरीखा बांध रखा है ,प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये लिखा:
दूर फेक दो तुलसी दल को . तोड़ो गंगा जल प्याला दुआ फातिहा दान पुन्य का मरे नाम लेने वाला मेरे मुंह में अरे डाल दो एक उसी सतलज की बूंद जिसके तट पर बनी हुई है , भगत सिंह की बधशाला आशीष ढेरों आशीष मन से निकले तुम्हारे लिये बहुत ही सुंदर कविता मुझे ये कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि तुम्हारी जितनी कविताएं मैं ने अभी तक पढी हैं ,ये सर्वश्रेष्ठ लगी मुझे ,,,,जियो ख़ुश रहो ! इसी तरह लिखते रहोगे तो एक दिन हिन्दी साहित्य के आकाश पर तुम्हारा नाम अवश्य चमकेगा इन्शा अल्लाह !!

अब जब शेफ़ा कजगाँवी जियो खुश रहो कह दें तो अब फ़िर क्या बचता है तारीफ़ के लिये। नाम तो चमक के रहेगा हिन्दी साहित्य के इतिहास में आशीष राय का जय हो। दूसरे भाग में संगीता स्वरूप जी ने वधशाला वाले अंदाज में ही तारीफ़ की:
एतिहासिक घटनाएँ ले कर खूब लिखी है बधशाला शोक हुआ जब अशोक को , पिया अहिंसा का प्याला नहीं सीखता कोई विगत से , जलती रहती है ज्वाला नित- नित कर्म करें ऐसे , जगती बनती बधशाला । बहुत बढ़िया प्रयोग है ... अद्भुत रचना
वैसे आशीष बाबू ये बतायें कि बधशाला सही है कि वधशाला? ऊ न बतायेंगे तो मिसिर जी तो हैं हीं बताने के लिये। मैनाक पर्वत वाले मिसिरजी। :)

भारत के स्वतंत्रता संग्राम को जानने के लिये बच्चों को तीसरी वधशाला पढ़नी चाहिये। लेकर टीपू, डलहौजी, कुंवरसिंह, हरदयाल सब मिल जायेंगें यहां। चौथे भाग में आयी प्रतिक्रियाओं में से कई लोगों ने इस कविता को पाठ्यक्रम मे लगाने की मांग की।

पांचवे भाग में आशीष की कविता के साथ शिखा की आवाज की जुगलबंदी है। ओजकविता का मधुर आवाज में जुगलबंदी। क्या बात है-अद्भुतै न कहा जायेगा इसे।

लेकिन ये क्या छठवे भाग की जुगलबंदी किधर है जी? इसमे खाली कविता से टरका दिया गया। आवाज गुम है। ये ठीक नहीं है। मेरी मांग है कि शिखाजी अपनी दो-चार कवितायें भले कम पोस्ट करें लेकिन् सब बधशालाओं को अपनी आवाज से नवाजें। बदले में हम उनकी पहले वाली कविताओं की दुबारा तारीफ़ करने का वायदा करते हैं। आशीष भी वधशाला सीरीज को चालू रखें। कानपुर में कबाड़ियों की कोई कमी नहीं है। :)

अपडेट:आशीष जी की वधशाला को ब्लॉगजगत की आधिकारिक पॉडकास्टर अर्चना चावजी ने अपना ओजस्वी स्वर प्रदान किया है। सुनिये।बकौल आशीष राय -उनकी साधारण कविता अर्चनाजी के कंठ से गुजरकर अद्भुत हो गयी।

बात कट्टा कानपुरी की हो रही थी। ये तो मात्र तखल्लुस है। उपनाम है। कोई हम कट्टा लिये थोड़ी चलते हैं सच्ची में। लेकिन कविता जी तो बचपनै में चक्कू लेकर इम्तहान देने गयीं थीं। विश्वास नहीं होता तो बांचिये उनका बयान -जब मैं अपने साथ छुरा ले गई। "छुरे वाली कविता" और "योद्धाजी" के हाथ में अब छुरा भले न रहता हो लेकिन तेवर वही बरकरार हैं। फ़ेसबुक और ब्लॉगजगत में भी। मैं तो भैया उनके वीरांगना वाले स्टेटस पर मारे डर के कोई टिप्पणी तक नहीं करता खाली लाइक करके फ़ूट आता हूं। उनका ये हौसला और जज्बा बरकरार रहे और इससे और लोग सीखें तथा निडर बने।:)

फ़ेसबुक लोगों के आपसी बहस और कहासुनी के नये अड्डे हैं। लोग वहां बहस करते हैं और फ़िर उनको अपने ब्लॉग पर इकट्ठा धर देते हैं सारी बहस सजाकर। दो फ़ेसबुकिया बहसें जो वहां से उठकर ब्लॉग अटारी पर आकर बैठ गयीं देखिये-महादेव पर कब्‍जे के लिए भिड़े हिंदी के कार्तिक-गणेश! और कन्यादान क्या ह्यूमन ट्रेफिकिंग नहीं है? ... फेसबुक पर एक संवाद

बहसें ब्लॉगजगत में भी हो रही हैं और मामला व्यक्तिगत आक्षेप, कोर्टकचहरी, मानहानि तक पहुंचता दिख रहा है। ब्लॉगजगत बवालजगत बबालजगत बन रहा है। एक जर्मन संस्था इनाम बांट रही है ब्लॉगिंग के। उसका वोटिंग का तरीका इतना बचकाना है कि कोई भी सौ-पचास लोगों को इकटठा करके अपने पक्ष में वोट हासिल कर सकता है। फ़ेसबुक, ट्विटर, ओपेन आईडी इन सबके आपसी गठबधन से अनगिनत वोट बटोर सकता है। बाकी अगर मामला जूरी को तय करना है तो हल्ला-गुल्ला बेकार। हमें तो जाना नहीं है लेकिन इनाम के लिये कटा-जुज्झ करने वाले बतायें कि इनाम लेने के जर्मनी जाने का किराया कौन देगा। अगर किराया खुद देना होगा तो कौन जायेगा? दूसरे अगर ब्लॉग सामूहिक है तो कौन जायेगा इनाम लेने? जिसने ब्लॉग शुरु किया वह या जो आज सक्रिय है और मीडिया में अपने नाम का परचम लहरा रहा है ये देखो भाई ये है हमारा ब्लॉग-इनाम मिला है। मिला नहीं अभी नामांकित हुआ है।

ब्लॉगजगत की पुरानी बहसों के आगे की बहस में हुआ यह कि :
  1. खुशदीप पर आरोप लगा-खुसदीप भाई हमेशा झूठ ही बोलते हैं
  2. रवीन्द्र प्रभात ने बताया कि जर्मनिया ब्लॉगिंग इनाम के लिये नामांकित दस ब्लॉग हिन्दी के सबसे अच्छे ब्लॉग नहीं है। इसमें टिप्पणी करते हुये रचनाजी ने लिखा- Ravindra Prabhat was forced to confer a PRAIKALPNA AWARD to Naari Blog last year because it was voted as one among the top 5 blogs of the last ten years of hindi bloging People like Naari BLOG becuase it raises voice against these INDIAN MAN who think woman are second grade citizens और जाकिर अली 'रजनीश' जो कि दो श्रेणियों नामांकित ब्लॉग सर्प संसार के सहलेखक हैं ने टिप्पणी करते हुये लिखा- बड़ा धांसू इंटरव्‍यु है। नि:संदेह इसे पढकर कईयों के सीने पर सांप लोट जाएंगे।
  3. रवीन्द्र प्रभात जी ने परिकल्पना पर (जिसका उद्धेश्य- हिंदी के माध्यम से सभी के लिए एक सुंदर और ख़ुशहाल सह- अस्तित्व की परिकल्पना को मुर्तरूप देना हैं......) हद है जी कहकर - जानकारी देते हुये लिखा-
    रचना जी के द्वारा साउथ एशिया के एडिटर साहब को लिखे गए पत्र में मेरे ऊपर गंभीर इल्जाम लगाया गया है कि मैंने हिन्दी ब्लोगिंग का इतिहास पुस्तक में नाम छापने के एवज में ब्लोगरों से पैसे लिए हैं और अब उनके द्वारा मांगने पर मेरे द्वारा वापस नहीं किया जा रहा है। एडिटर साहब के द्वारा रचना को दिये गए प्रतियुत्तर में यह कहा गया है, कि यदि यह इल्जाम सिद्ध नहीं हुआ तो यह मान हानि के दायरे में आयेगा ।
    इसके अलावा उन्होंने लोगों से राय भी मांगी है-
    आपसे एक और निवेदन है कि अपना मन्तव्य भी दे कि इस प्रकार के आक्षेप के लिए संबन्धित व्यक्ति पर क्या मुझे मान-हानि का मुकदमा दायर करना चाहिए ?
  4. संतोष त्रिवेदी ने बताया - ब्लॉग जगत में ’नारी’ की असलियत!! इसमें जानकारी है कि रचनाजी ने रवीन्द प्रभात पर क्या आरोप लगाये।
  5. खुलासे की कड़ी में रचना जी ने खुलासा करते हुये बताया - कि जिस अखबार में रवीन्द्र प्रभात जी का अंग्रेजी में इंटरव्यू छपा था उस साइट का रजिस्ट्रेशन 23 जनवरी’ 2013 को हुआ तथा उस साइट के मालिक कोई शुभेन्दु प्रभात हैं। आगे उन्होंगे लिखा-
    अपने ही अखबार में अपना ही इंटरव्यू देना और प्रचार करना इतिहास ऐसे ही बनता हैं और बिकता हैं " ब्लॉग-जगत में 'नारी' की असलियत " बताने वाले अपनी असलियत भी औरो को क्यूँ नहीं बताते क्यूँ अपने और अपने परिवार को आगे बढाने के लिये हिंदी ब्लोगर का इस्तमाल वो एक सीढ़ी की तरह करते हैं और जो खिलाफत में बोलता हैं उसके खिलाफ पोस्ट लगा कर मदारी की तरह मजमा इकठा करते हैं
    इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये स्वप्न मंजूषा अदा जी ने लिखा-
    मुझे नहीं मालूम सच्चाई क्या है। लेकिन यहाँ जो दिया गया है उसे देख कर मन वितृष्णा से भर गया और इतना षड्यंत्र देख कर तो अब किसी भी बात का विश्वास नहीं रहा। ब्लॉग्गिंग न हुई हल्दीघाटी का मैदान हो गया।
    आगे उन्होंने फ़िर कहा:
    बहुत दुखद है ये सब, फिर भी यही कहूँगी यह एक बहुत ही अच्छा अवसर मिला था हिंदी ब्लॉग्गिंग को अंतर्राष्ट्रीय मंच में मान्यता मिलने का, इसलिए सारी रंजिश छोड़ कर परिपक्वता दिखाते हुए, इस प्रतियोगिता में आगे बढ़ा जाए मेरी शुभकामना आप सभी चयनित ब्लोग्स के साथ है। सब ठीक हो जाएगा।


अब जब ब्लॉगजगत हल्दीघाटी का मैदान बन गया जहां लोग एक-दूसरे की इज्जत का खून करने पर उतारूं हैं। हास्य-व्यंग्य लिखने वाले हास्यास्पद और बेहूदी भाषा में व्यक्तिगत आक्षेप करें तो भला इतने में ही है कि आज बस इतना ही कहकर दफ़्तर के लिये फ़ूट लो।

जय हो। दिन आपके लिये शुभ हो।

जयबजरंगबली की।

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शुक्रवार, अप्रैल 12, 2013

फ़रिश्ते सरीखे मुस्तफ़ा और खोना-मिलना पापा का

पिछले महीने एक सुबह, बहुत सुबह मेरे फ़ोन पर एक एस.एम.एस. आया- अनूप जी क्या आप मुगलसराय में किसी को जानते हैं? जरूरी काम है।

एस.एम.एस. अनुसिंह चौधरी का था। उनसे कभी-कभी गांव कनेक्शन के लिये लेख या सामग्री के सिलसिले में बात होती रहती है। लेकिन इत्ती सुबह का यह सवाल अलग सा था।

 मैंने उनको फ़ोन किया तो पता चला कि उनके पापा मुगलसराय स्टेशन के पास ट्रेन से उतर गये हैं। उनको भूलने की बीमारी है। मेरे पास मुगलसराय के किसी दोस्त का नंबर तो नहीं था लेकिन बनारस के जितने मित्रों के नंबर मेरे पास थे मैंने उनको दिये। उन दोस्तों को फ़ोन भी कर दिया कि अनुसिंह फ़ोन करेंगी । रेलवे से जुड़ा मामला होने के चलते सबसे पहले ज्ञानदत्त पाण्डेयजी और अपने दोस्त मनोज अग्रवाल को फ़ोन किया। अनुसिंह से उनके पापा का विवरण लेकर उनको बताया। ज्ञानदत्त जी और मनोज जी दोनों ने मुगलसराय में स्टेशन मास्टर/डीआरएम और संबंधित लोगों फ़ोन किये। नंबर दिये। मनोज ने बताया कि यह बात रेलवे के लोगों को रात से ही पता है और वे हर संभव जगह पर खोज कर रहे हैं।

यह खोज खबर तो रात से ही शुरु हो गयी थी। इसका पता अनु सिंह को था। लेकिन वे चाहती थीं कि कोई दोस्त/जानने वाला खुद मुगलसराय स्टेशन जाकर देख आये। क्या पता स्टेशन में ही कहीं हों उनके पापा। इस बीच मैंने देवेन्द्र पाण्डेय जी को फ़ोन किया। बनारस में रहते हैं। वे फ़ौरन मुगलसराय स्टेशन जाने के लिये तैयार हो गये। विवरण मैंने उनको एस.एस.एस. कर दिया था। कुछ देर बाद उन्होंने फ़ोन किया कि उनको मैं पहचानूंगा कैसे? कोई फ़ोटो हो तो आसानी होगी। अनुसिंह ने अपने पापा की फ़ोटो अपलोड की फ़ेसबुक पर। देवेन्द्र पाण्डेयजी बनारस से निकल पड़े मुगलसराय के लिये।

इस बीच मैंने डा.अरविन्द मिश्र को भी फोन किया। पता चला कि वे सोनभद्र में थे। बहुत दूर बनारस से। हिमांशु के बारे में पता किया तो पता चला कि वे मुगलसराय से काफ़ी दूर रहते हैं। अफ़लातून जी का फोन उठा नहीं।

घंटे भर बाद देवेन्द्र पाण्डेय जी का फ़ोन आया। मुगलसराय स्टेशन से। उन्होंने हर प्लेटफ़ार्म छान मारा था लेकिन अनु के पापा का पता नहीं चला। घंटे-ड़ेढ घंटे और खोजने के बाद वे वापस बनारस लौटे। उदास। सबको यही लग रहा था कि अनु के पापा मुगलसराय में किसी दूसरी ट्रेन में बैठ गये होंगे। शहर में होने की आशंका भी थी। जहां संभव वहां खोजा जा रहा था। बीच-बीच में अनु सिंह के उदास अपडेट मिल रहे थे-पापा का कोई पता नहीं मिला अब तक। मैं हर बार दिलासा देता कि हौसला रखो मिल जायेंगे। मेरी तरह और न जाने कितने शुभचिंतक उनको हौसला बंधा रहे होंगे। लेकिन बीतते समय के साथ उनकी आवाज उदास होती जा रही थी- पापा अभी तक नहीं मिले। आखिरी बार मैंने करीब नौ बजे फ़ोन किया था। वही उदास जबाब- कुछ पता नहीं चला। हमारा भी वही कहना- हौसला रखो मिलेंगे। जरूर मिलेंगे।

रात करीब दस बजे अनुसिंह का फोन आया- अनूप जी, पापा मिल गये। इसके बाद उन्होंने कुछ-कुछ बताया कि कैसे मिले, कहां मिले। मेरे लिये बड़ी खुशी की बात थी कि सुबह एकदम सुबह से जो अनु सिंह के पापा के खो जाने की उदास खबर थी वह रात तक मिलने की खबर में बदल गयी थी। मैंने फ़ौरन देवेंद्र पांडेय, डा.अरविन्द मिश्र और मनोज अग्रवाल तथा ज्ञानदत्तजी सूचना दी।

अब उदासी छंट गयी थी। हमने अनुसिंह चौधरी से कहा कि तुम संस्मरण उस्ताद हो। पापा के खोने-मिलने का संस्मरण लिखो। उन्होंने कहा- हां लिखूंगी। शायद यह भी कहा कि इस बीच जिस मन:स्थिति से गुजरी हूं वह सब लिख पाना संभव नहीं है।

इस बीच अनु ने पोस्ट लिखी - पापा के खोने और मिलने के बीच ! इस संस्मरण में अनु ने अपने पापा के खोने और फ़िर से मिल जाने के किस्से को विस्तार से बयान किया है। पापा के खोने की खबर उनको अपनी मां(सास) से मिली। उनको अपराध बोध भी रहा होगा कि उनके साथ रहते वे स्टेशन पर उतर गये। अपराध बोध रुलाई के रूप में फ़ूटा:
“पापा कहीं चले गए हैं,” फ़ोन उठाते ही मां ने कहा और फिर उनकी रुलाई फूट गई। मां और पापा, यानी मेरे सास-ससुर होली हमारे साथ मनाने के लिए कटिहार से दिल्ली डिब्रूगढ़ राजधानी में आ रहे थे और ऐसे कई सफ़र दोनों साथ-साथ साल में कई बार करते हैं। मुश्किल ये है कि आठ साल पहले सिर पर लगी एक चोट की वजह से अब याददाश्त कई बार पापा को तन्हा छोड़ने लगी है और थोड़ी देर के लिए वो ये भूल जाते हैं कि वो कहां हैं, किसके साथ हैं और उन्हें जाना कहां है।
65 साल की उमर कोई ऐसी ज्यादा उमर नहीं होती लेकिन भूलने की बीमारी के चलते वे उतर गये कहीं मुगलसराय में। इसके बाद:
मां की नींद खुली तो ट्रेन प्लैटफॉर्म से खिसकने लगी थी और पापा सामने की सीट पर नहीं थे। ट्रेन रुकवाकर अपने पति को खोजने की मां की सारी कोशिशें नाकाम गईं और उस नाकामी का अपराधबोध और डर हिचकियों में फोन पर निकला।
उसके बाद :
डेढ़ बजे रात से पापा को खोजने की कोशिश शुरू हो गई। हम कई सौ किलोमीटर दूर थे। मुग़लसराय में हम किसी को जानते तक नहीं थे। लेकिन पैंतालीस मिनट के भीतर आधी रात होने के बावजूद देश के सबसे बड़े जंक्शनों में से एक मुग़लसराय में पैंसठ साल के एक लापता आदमी को खोजने का काम शुरू हो गया।
साथ जुड़े लोगों के हाल/मन कैसे थे। क्या-क्या किया गया खोज-खबर लेने में:
मां ट्रेन में थीं, हम दिल्ली में और पापा गुमशुदा थे। हमें रेलवे, पुलिस और मीडिया में बड़े ओहदों पर बैठे कुछ दोस्तों का सहारा था। बावजूद इसके एक ऐसे बुजुर्ग को खोजना मुश्किल था जो भूल जाने की हालत में अपना नाम और घर का पता तक नहीं बता पाते। मुमकिन था कि उन्होंने कोई दूसरी ट्रेन ले ली हो। ये भी मुमकिन था कि वो मुग़लसराय शहर में कहीं खो गए हों। मुग़लसराय से उस वक़्त होकर गुज़रने वाली सभी ट्रेनों और उन सभी स्टेशनों पर गुमशुदगी की रिपोर्ट पहुंचा दी गई जहां पापा के उतरने की संभावना थी। वाराणसी, इलाहाबाद, कानपुर, दिल्ली और हावड़ा के रूट में गया, धनबाद, गोमो, आसनसोल और हावड़ा तक आरपीएफ़ को इत्तिला कर दिया गया। दिल्ली और आस-पास के शहरों से परिवार के लोग मुग़लसराय तक पहुंच गए। घर-परिवार, दोस्त-यार, अनजान लोग तक मदद के लिए आगे आए, सांत्वना दी, फोन करके हिम्मत बंधाते रहे। मनीष को सुबह साढ़ चार बजे एयरपोर्ट के लिए टैक्सी में बिठा आने के बाद से फ़ोन बजना बंद नहीं हुआ।
इसके बाद तुलसीदास की चौपाई चरितार्थ होने लगी:
धीरज,धरम, मित्र अरु नारी,
आपतकाल परखिये चारी।
और यह इम्तहान कैसा गुजरा इसके बारे में अनु लिखती हैं:
स्कूल के दोस्त, कॉलेज के दोस्त, आईआईएमसी के दोस्त, एनडीटीवी के दोस्त, ब्लॉगर दोस्त, ऑनलाईन दोस्त, भूले दोस्त, बिसरे दोस्त, नए दोस्त, पुराने दोस्त... मुसीबत के कुछ घंटों में अपनी ख़ुशकिस्मती का अहसास हुआ। जिसने सुना, मदद के लिए हाथ बढ़ाया। जैसे बन पड़ा, मदद की भी। जहां रहे, हाथ थामे रखा और सहारा देते रहे।
लेकिन समय के साथ हौसला कम होता जा रहा था। बीस घंटे बाद के हाल ये थे :
रात घिरने लगी और उत्तर प्रदेश के एक बड़े पुलिस अधिकारी ने मुझे फोन पर कहा, “मैं आपको झूठी दिलासा नहीं दूंगा। पुलिस के हाथ में कुछ नहीं। जो है, ऊपरवाले के हाथ में है। हिम्मत बनाए रखिए और दुआ कीजिए कि आपके ससुर जहां हों, ठीक हों।” पूरे बीस घंटे में उस लम्हे मैं दूसरी बार फूट-फूटकर रोई थी।
जो है सब कुछ ऊपर वाले के हाथ में , करिश्मा भले सब उसका ही रहा हो लेकिन उनके पापा मिले नीचे वाले इंसान की मेहनत के चलते। अनु लिखती हैं:
मुग़लसराय स्टेशन पर उतरने के बाद रात में ही पापा स्टेशन से बाहर चले गए। उन्हें याद नहीं था कि जाना कहां है और आए कहां से हैं। शहर में भटकने के बाद जब ट्रेन में बैठे होने की याद आई तो वापस लौट गए और जो पहली ट्रेन दिखी, उसपर बैठ गए। ट्रेन में नींद आ गई और नींद खुली तो कोडरमा में थे। वहीं उतरकर उन्होंने चलना शुरू कर दिया और धूप के चढ़ने के साथ भूखे-प्यासे रास्ते पर चलते रहे। उन्हें ना कोई नंबर याद था ना जगह की सुध थी। शाम होने लगी तो वो मुस्तफ़ा नाम के एक आदमी के घर के बाहर पड़ी कुर्सी पर बैठ गए और कहा, ये मेरा घर है। मुस्तफ़ा वहीं नमाज़ पढ़ रहे थे। नमाज़ अता करने के बाद मुस्तफ़ा ने बस्ती के और लोगों को आवाज़ दी और पूछा कि कोई इस बुज़ुर्ग को जानता था क्या। बस्ती के लोगों ने पापा से बात करने की कोशिश की। धूप, थकान और घबड़ाहट से बेहाल पापा वहीं गश खाकर गिर गए जिसके बाद मुस्तफ़ा ने मोर्चा संभाल लिया।
और  मुस्तफ़ा के मोर्चा संभालने के बाद:
उन्हें होश में लाने से लेकर उन्हें खाना खिलाने और आराम करने देने की जगह देते हुए उस फ़रिश्ते सरीखे इंसान ने एक बार भी ना सोचा कि ये नया आदमी कौन और इससे मेरा नाता क्या, या फिर इसकी धर्म-जात क्या। पापा ने टुकड़ों-टुकड़ों में अपना परिचय दिया और मुस्तफ़ा बस्ती के लड़कों के साथ मिलकर फोन और इंटरनेट कैफ़े की मदद से उन जानकारियों के आधार पर पापा के घर का पता करने की कोशिश करते रहे। आख़िर में पापा को पटना में रहनेवाले अपने एक बचपन के दोस्त का नाम और घर का आधा-अधूरा पता याद आया। मुस्तफ़ा और बस्तीवालों ने गूगल पर वो आधा पता डाला और कई कोशिशों के बाद पापा के दोस्त से बात करने में क़ामयाब हो गए।
अद्भुत संयोग है यह सब। मुगलसराय से भटककर 300 किलोमीटर दूर कोडरमा के किसी गांव पहुंचना। एक अनजान इंसान को उसके परिजनों के पास तक पहुंचाने के लिये तकनीक का इस्तेमाल। सब कुछ काल्पनिक, अद्भुत और सुखद सा लगा होगा जब अनु के पापा एक फ़रिश्ते जैसे इंसान मुस्तफ़ा की नेकनीयती और मेहनत के चलते मिल गये। अगर कोडरमा के उस गांव में मुस्तफ़ा न मिलते तो क्या होता? अनु सिंह ने लिखा:
बाकी की कहानी लिखते हुए मेरे हाथ ये सोचकर कांप रहे हैं कि अगर मुस्तफ़ा ने पापा को अपने घर से निकाल दिया होता तो? या फिर लावारिस समझकर पुलिस के हवाले कर अपने कर्तव्य की इतिश्री ही समझ ली होती? या फिर एक गांव में बैठे हुए तकनीक का इस्तेमाल कर एक भूले हुए आदमी का पता खोजने की नामुमकिन-सी कोशिश ही ना की होती तब?
इस सुखांत घटना से मिले सबक के बारे में लिखती हैं अनु:
पापा घर लौट आए हैं और गुमशुदगी और तलाश का ये एक दिन हमें ज़िन्दगी के कुछ अहम और नायाब पाठ सिखा गया है। अपने बच्चों की तरह अपने बुज़ुर्गों का ख़्याल रखना हमारी ज़िम्मेदारी है। जैसे बच्चों को अकेले नहीं छोड़ा जा सकता, वैसे बुज़ुर्गों को भी नहीं। उनकी देखभाल के लिए एक सुदृढृ व्यवस्था का निर्माण वो चुनौती है जिससे पार पाना ही होगा। आमतौर पर गुम होनेवालों में बड़ी संख्या बच्चे, बुज़ु्र्ग और मानसिक रूप से परेशान, तनावग्रस्त लोगों की होती है और उनकी गुमशुदगी पूरी तरह रोकी तो नहीं जा सकती। लेकिन हमारी थोड़ी-सी जागरूकता एक परिवार को बिखरने से बचा सकती है। कहीं किसी भटके हुए की मदद करना एक छोटा-सा ग़ैर-ज़रूरी काम लग सकता है, लेकिन ये छोटा-सा काम किसी एक इंसान और उसके परिवार को बड़े दुख से बचा सकता है। मुस्तफ़ा नाम के एक अनदेखे अजनबी ने सहृदयता का जो पाठ पढ़ाया है, वो भी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा सबक है।
अनु की यह पोस्ट मैंने कल रात पढ़ी। मुझे अपने जीवन में ऐसे तमाम लोग याद आये जब एकदम अनजान लोगों ने ऐसे सहायता की जैसे हम उनके एकदम सगे हों। तीस साल पहले साइकिल से भारत भ्रमण के दौरान ऐसा कई बार हुआ। केरल में मेरे पिताजी के ऐसे मित्र मिले जो न मेरे पिताजी से कभी मिले भी न थे। एक पुलिस अधिकारी ने अपने पास के सब पैसे हमको दे दिये। इसके अलावा खाना/पीना रहना और अन्य सहयोग और सुविधायें इफ़रात मिलीं। वह तीन माह का भारत दर्शन मेरे लिये ऐसा अनुभव है जिसके चलते मुझे कोई भी देश के किसी भी हिस्से का व्यक्ति अजनबी सा नहीं लगता। बहरहाल आज की चर्चा सिर्फ़ इतनी ही। अनु सिंह का यह संस्मरण लिखने के बाद और कोई चर्चा करने का मन नहीं है। इसी को दुबारा पढ़ते हुये दुआ करना करना चाहता हूं कि दुनिया में मुस्तफ़ा सरीखा मन और नेकनीयती सबको मिले।

और अंत में

अनु सिंह के पापा का खोलने और मिलने का संस्मरण पढ़कर अपना एक किस्सा याद आ गया। करीब पांच-छह साल पहले हमारी श्रीमतीजी फ़र्रुखाबाद से कानपुर ट्रेन से आ रहीं थीं। रात की ट्रेन से। आंधी के चलते टेलीफ़ोन लाइनें उखड़ गयीं थीं। रेलवे वालों को भी पता नहीं चला रहा था कि ट्रेन कहां हैं। पास के रावतपुर स्टेशन गये। वहां भी कुछ पता नहीं चला। हम कार से फ़र्रुखाबाद की तरफ़ चल दिये। हर स्टेशन पर देखते कि ट्रेन वहां तक पहुंची है कि नहीं। उसके बाद आगे चल देते। ज्यादा दूर तक नहीं जाना पड़ा। दो स्टेशन आगे ही मंधना में गाड़ी खड़ी थी। बिजली गुल। ट्रेन में अंधेरा। हम डिब्बा-डिब्बा अपनी पत्नी और भतीजी को खोजते रहे। आवाज देकर पुकारते भी रहे। इस बीच ट्रेन ने चलने के लिये सीटी भी दे दी। हम सोच नहीं पाये कि उतर जायें कि गाड़ी में खोजते रहें। इस बीच एक सीट पर बैठी श्रीमती जी ने मुझको देख लिया। और हम उनको ट्रेन से उतारकर अपने साथ ले आये। इस तरह मजाक-मजाक में हम कम मेहनत में काम भर के हीरो भी बने रहे कुछ दिन। लेकिन बाद की रूटीन लापरवाहियों ने वह हीरो मेडल न जाने कब का धुंधला दिया है। :)

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