रविवार, मार्च 31, 2013

क्षण जो लिखित रूप में मौजूद हैं

दिन बढिया इतवार का, सबसे अच्छा यार,
सोओ देर तक तानकर, कोई न पूछनहार।

कोई न पूछनहार ,नाश्ता भी मिलता आराम से,
दफ़्तर तो जाना नहीं, व्यस्त रहो बेकाम से।

व्यस्त रहो बेकाम से, और हांको बातें लंबी चौड़ी,
पड़े रहो घर में अजगर से, छोड़ के भागा-दौड़ी।


-कट्टा कानपुरी

आज की शुरुआत कट्टा कानपुरी के इस कलाम से हुई।  नेट पर कालेज के साथी मिल गये अधीर सिंघल। उन्होंने याद दिलाया कि हम लोग हास्टल में वाल मैगजीन बोले तो भित्ति पत्रिका निकाला करते थे -नाम था सृजन। हर शनिवार की रात देर तक कागज में लिखते कुछ इधर-उधर की बातें और मेस के नोटिस बोर्ड पर सटा कर सो जाते। सुबह देर तक सोते रहते फ़िर जाकर देखते कि लोग हमारे लिखे को बांचकर कुछ कुछ-कुछ कमेंट करके जा रहे हैं। ये फ़ेसबुक की वाल भी हमें अपने अपने हास्टल की मेस का नोटिस बोर्ड सी लगती है। जो मन में आये साट दो। जिसको जो कहना होगा कहेगा। अपने मन में मती रखो। वहां मेस में लोग कुछ कमेंट जबानी करते थे यहां फ़ेसबुक पर जबाबी कमेंट कीर्तन होता  है। जैसे देखिये हमारे इतवारी आराम के गुब्बारे में पिन चुभाते हुये बिहारी बाबू लिखते हैं:

अपनी किस्मत में कहाँ "कट्टा" सा आराम,
निकालेंगे अब काम पर लौटेंगे फिर शाम,
लौटेंगे फिर शाम, भले ही तुम हो अजगर,
हमरी छुट्टी खाय, पड़े रहना तुम घर पर!!

 बहरहाल चलिये अब आपको बताते हैं एक ब्लॉग के बारे में ! ब्लॉग का नाम है क्षण! जो लिखित रूप में मौजूद हैं ब्लॉग की मालकिन हैं बनारस की रहने वाली और सम्प्रति इलाहाबाद  विश्वविद्यालय से जर्नलिज्म और मासकॉम की पढ़ाई कर रही हैं। जैसे कि बुद्धिजीवी लोग होते हैं वैसे ही स्वभाव से आलसी हैं। अपने आसपास की घटनाओं को सहज और संवेदनशील ढंग से धर देती है अपने ब्लॉग में। हमको उनका लिखा पसंद आता है सो तारीफ़ कर देते हैं। इस पर  अनामिका का कहना होता है -खाली तारीफ़ मत करिये, कमी भी बताइये। अब भला हम क्या कमी बतायें जब कुछ दिखे तब न। 

अच्छा छोड़िये इधर-उधर की। अब आइये आपको अनामिका के ब्लॉग पोस्टों की कुछ झलकियां दिखाते हैं। शुरुआत करते हैं उनके मकान मालिक के किस्से से। उनकी आपसी बातचीत आपै देखिये:
महिनें में कई दिन ऐसे होते है…जब सुबह मकान मालिक से लड़ाई होती है….शाम को हमें बिजली से मुक्त कर अपने छोटे लड़के से लालटेन भेजवाते है … ना जाने कौन सी करामात करके रात को नल से पानी ही गायब कर देते हैं …..इतने नखरे झेलने पड़ते है मक्कान मालिक के…
.एक दिन अप्पन को गुस्सा आ गया…और पूछ ही लिया…क्यों यार अंकल जी क्यों माता-पिता की लाडलियों पर आप जुल्लम कर रहे हैं आप जी….तो कहनें लगे सुबह इत्ते देर से उठती हो तुम लोग….फिर दांत माजने में इत्ते टेम लगते है…तब तक तुममें से कोई फटाफट उत्तर देकर मिस इंडिया का ताज लेकर दरवज्जे पर आ जाये…
बाकी का पता नहीं लेकिन ये  देर तक दांत मांजने वाली बात सही लगती है। क्योंकि अनामिका आलस को अपना स्वाभाविक मित्र बताती हैं। 

लाईफ़बॉय है जहां में अनामिका अपने बचपन के लाईफ़बॉय से साफ़  होने और तन्दुरुस्त होने  के किस्से बताते हुये इस  साबुनिया झांसे की तरफ़ इशारा करती हैं:
लेकिन कैसे भी करके हम इसी साबुन से नहा कर तंदुरुस्त हुए….. तब तक यह बस नहाने का ही साबुन था…और हाथ धोने के लिए रिन साबुन के टुकड़े रखे जाते थे….लेकिन कुछ समय बाद लोग गमगमाने वाली किसी साबुन की तरफ आकर्षित हुए उस समय मुहल्ले के कई घरों में टेलिविजन आ चुका था….औऱ लोग सोनाली वेंद्रे के साबुन को घसने के इच्छुक हुए…औऱ घर के साबुनदानी मे खूशबुदार निरमा का निवास हो गया… .कुछ दिनों बाद नीबू की खूशबु वाला सिंथॉल भी आया…औऱ लाईफ़बॉय को लोगों ने हाथ धोने का साबुन बना दिया….तब तक लाईफ़बॉय का हैण्डवॉश विकसित नही हुआ था….और ऐसा लगता है कि लोगों से प्रेरित होकर ही हिन्दुस्तान यूनिलीवर नें लाईफ़बॉय का हैण्डवॉश परोसा….. और टेंशनियाकर कुछ दिन बाद लाईफ़बॉय में भी खुशबू झोंक दिया…साबुन के रैपर को नया रुप दिया…
सब्जी वाली भौजाई अनामिका की एक बहुत संवेदनशील पोस्ट है इसकी शुरुआत देखिये :
किसी ठकुराईन से कम नहीं लगती है वह सब्जी वाली …वुमेन हास्टल के पास वाले चौराहे पर दिन ढलते ही ठेले पर सब्जियों को करीने से तैयार करती है..जैसे मां अपनें ब्च्चे को स्कूल भेजनें के लिए रोज तैयार करती है.. सब्जियों को सजाते वक्त उसके हाथ की लाल चूड़िया हरी हरी सब्जियों के बीच ऐसे इठलाती है मानों सावन में कोई फसल पर कर लाल पड़ गयी हो…लेकिन वह कभी ध्यान नहीं देती अपनी सुंदरता पर..वह तो सब्जियों को सजानें में व्यस्त रहती है…और हमेशा अपनें को एक सब्जी वाली ही मानती है…
आगे वे लिखती हैं सब्जी वाली भौजाई के बारे में:
शाम होते ही हास्टल की लड़कियों से घिर जाती है वह..हंसते बोलते बतियाते हुए सब्जी तौलती है…देखनें में ऐसा लगता है जैसे फागुन में कई सारी ननदों नें मिलकर भौजाई को घेर रखा हो…लेकिन कुछ तो है उसके अंदर जो लोगों को अच्छा लगता है…चाहे वह सब्जी तौलते-तौलते उसे छौंकनें की विधि बता दे..चाहे बिन मांगे मुफ्त के हरे धनिया मिर्चा से विदाई कर दे..चाहे पैसे कम पड़नें पर कभी और लेने का हिम्मतपूर्ण वादा करवा ले…लेकिन कुछ है उसमें… उसके सरल और आत्मीय शब्दों में जो एक अजनबी शहर में अपनें मुहल्ले की चाची भाभी की हंसी ठिठोली का आनंद दिलाती है
एक लड़की नाजियाकी दास्तां बताती हैं अनामिका इस पोस्ट में:
बीस साल की उम्र पूरी करते बच्ची की तरह दिखने वाली एक लड़की की गोद में खुद एक बच्ची आ गई…जो संपूर्ण औरत बन गई थी…लेकिन अभी भी वह लड़ रही थी अपनें ससुराल वालों से कि उसे पढ़ाया जाये…पहले तो वह इसलिए पढ़ना चाहती थी ताकि कुछ कर सके…लेकिन अब वह बेटी के लिए पढ़ना चाहती है ताकि कल को उसकी बेटी को उसका पति ये जवाब ना दे कि अपनें घर से ही अपनें पैरों पर खड़ा होकर क्यों नहीं आयी…
दिल्ली में हुई बलात्कार की घटना के बाद अनामिका ने अपने लेख मानसिकता की जय हो......में लिखा:
शहरों गांवों में चलनें वाले बस आटो पर गरीबों के बच्चे कंडक्टरी करते हैं…इस दौरान वे दारु पीना सीखते हैं फूहड़ और भद्दे भोजपुरी गानें सुनकर जवान होते हैं…अपनें मालिकों की अश्लील बातें सुनते हैं…अश्लील काम को देखते है…फिर इनको इतना तजुर्बा हासिल हो जाता है कि…बलात्कार जैसी घटना को अंजाम देना इनके बाएं हाथ का खेल हो जाता है….और मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चे कैसे उत्तेजित होते हैं ये हर वो मध्यमवर्गीय परिवार जानता है जो सिर्फ मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की का बलात्कार होनें पर मामले को हवा देता हैं…वरना रोज ही दलितों की बेटियां किसी ना किसी मालिक के हवस का शिकार बनती हैं…..पहले के समय में किसी का बेटा पुलिस दरोगा बन जाता तो बेटी का बाप अपनी बेटी के लिए वर के रुप में उसे लालटेन लेकर खोजता था……अब पुलिस दरोगा जिस तरह से बाप की बेटी को देख रहे हैं…पूरा देश जानता हैं
अनामिका के लेखन का अंदाज जैसा देखा-सुना वैसा लिखा वाला है। अपनी तरफ़ से नमक-मिर्च नहीं लगाती तो कड़वे सच को छिपाती भी नहीं। बलात्कार की बतकही में दिल्ली कांड के बाद की कहानी बताती हैं:
उनमें से एक लड़का जोर से अपनें दोस्तों पर चिल्ला रहा था…और कह रहा था.."साल्ले मना किया था तुझे न….अभी दिल्ली वाली लड़की के साथ बलात्कार हुआ है और सुना है मर भी गई है वो…कुछ दिन में सब शान्त हो जावेगा साल्ले तब तक के लिेए शरीफ बन जा बेटा आयी बात समझ में….और ये पुलिस भोंसड़ी के ना अप्पन का पहले कुछ उखाड़ी है ना ही आज उखाड़ती…अगर लड़की वाला बलात्कार का मामला पूरे देशवा में ना फैला होता..ये पुलिस वाले साले खुद रोज लड़कियां छेड़ते हैं और भोंसड़ी के आज हमीं को दौड़ाये हैं"…
सहज करुणा अनामिका के व्यक्तित्व का मूल भाव है। उनकी एक और संवेदनशील पोस्ट का अंश देखिये:
अपनी बातों पर मुझे हंसते हुए देखकर उनमें से एक ने कहा…जाने दो दीदी तुम्हारे पास फुटकर पैसे नहीं हैं तो…लेकिन हमारी एक फोटो ले लो….अम्मा जाती हैं…एक बड्डे से साहब के घर बर्तन माजने…उन्होंने अपनी लड़की का फ्राक मेरे लिए दिया है..आज वही पहिने हूं….तो हमार फोटो ले लो….. उनकी बातें सुनकर ना जाने मुझे किस तरह का दुख हो रहा था…उसे कोई शब्द देकर मैं नहीं बयां कर सकती….मैं उन्हें दस रुपए दी और वहां से चल दी….लेकिन दिमाग मे उन बच्चियों की खनकती हुई आवाज शोर मचा रही थी….एक रुपया दे दो दीदी…एक रुपया दे दो भैया…
 आम तौर पर लेख लिखने वाली अनामिका  कवितायें भी लिखती हैं:
सीने से चिपकी है मेरे
आज भी वो गर्माहट
जो तुम्हारे आगोश में आकर मिलती थी

लेकिन
ना जाने कहां से
आंखों से गिरने लगे
पानी के कुछ टुकड़े 
जो सारी यादें बहा ले गए

और दीवार पर लगी
तुम्हारी तस्वीर भी
धुंधली पड़ गई
दिन के घने कुहरे की तरह

एक और कविता में महिलाओं के बारे में लिखती हैं अनामिका:
आटे की तरह
रिश्तों में सनी औरत
मर्द जिसका लोई बनाकर
समाज के तवे पर सेंकता है
पूड़ी कचौड़ी की भांति।

जरुरत और सुविधा के मुताबिक
औरत इंसान नहीं है
उसका तो परिचय ही
मां-बहन और बीबी है
साड़ी गहने और परिवार
में उलझी औरत
सारा जीवन देखती है
बस एक ही मंजर
और इन्हीं के नाम का रंग चढ़ाकर
गुजार देती है जीवन अपना
सिर्फ एक ही परिचय से
अन्ततः मां-बहन और बीबी बनकर...


गांव कैसे बदल रहे हैं आज के समय में । अनामिका लिखती हैं:
गांव में अब दूरदर्शन और डीडी न्यूज देखने वाले लोग गए तेल लेने…..लोग सैकड़ो चैनल का मजा नोच रहे हैं……
और उसी मिट्टी में सानकर अब बच्चों को गढ़ रहे हैं…. मतलब गांव के बच्चे को
गांव में ही शहरी बाबू के रंग में रंगा जा रहा है…बच्चे को चम्मच से खाना सीखा रहे हैं…..
पैर छूना भुलवाकर नमस्ते बोलना सीखा रहे हैं……गांव की एक अलग-थलग
महक चैन-सुकून, सोंधी खुशबू टाइप जिस संस्कृति पर हमें गूरूर है
ना उसे हमारे अपने ही कुचल रहे हैं…धरासाई हो रही है हमारी विरासत…
फ़िलहाल अनामिका के कोचिंग वाले गुरु जी का यह किस्सा बताकर अपनी बात खतम करते हैं:
दूसरा कह रहा है….एक गो गुरु जी हमरा कोचिंग में भी हैं…गुरु ऑक्सफोर्ड से पढ़ के आयल हौवें…….
हिन्दी से त एतना नफरत बा जइसे ठाकुर चमार से करता है…..कहते हैं
साले इलाहाबाद वाले हमरी अंगरेजी खराव कर दिये….हियां आके हमहुं ई जंगली भाषा बोले लगे……
तभी बीच में कोई बोला….हमरे गुरु जी को तो अंगरेजी आता ही नहीं है…..
ऊ हमके भुगोल पढाते हैं और हम उनको अंगरेजी….. एक बार फिर से डिब्बे मे अट्ठाहास गूजां……..
तब तक ट्रेन इलहाबाद पहुंच चुकी थी……
नवंबर 12 से शुरु होकर मार्च 13 तक कुल जमा 23 पोस्टों में से कुछ का जिक्र किया यहां पर।
उनके लेखन का अंदाज सहज, संवेदनशील और गैरबनावटी है। आप उनकी बाकी की पोस्टें पढ़ें और उनपर अपनी राय बतायें।

आज की चर्चा फ़िलहाल इतनी ही। बाकी की फ़िर कभी।

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शनिवार, मार्च 30, 2013

कभी हल्के से झोंके से बिखरता है चराग़

आजकल अभिनेता संजय दत्त की सजा और उसकी माफ़ी के बड़े चर्चे हैं। उनका तो अपराध साबित हो गया। बहुत पहले। अपराध साबित होने के बाद कुछ दिन की सजा भुगतने के बाद वे जमानत पर छूटे और विदेश तक घूम कर आये थे। सुप्रीम कोर्ट से सजा फ़ाइनल होने के बाद उनको माफ़ करने की मांग की आंधी चली। मीडिया दनादन संजय दत्त कवरेज कर रहा है। लेकिन उसके चौखटे से अरविंद केजरीवाल गायब हैं जो पिछले सात दिनों से  अनशन पर हैं। डा. राजेन्द्र त्रिपाठी ने अपने फ़ेसबुक वाल पर यह सूचना दी:
आज अरविन्द केजरीवाल के अनशन का सातवाँ दिन था।उनकी हालत बेहद चिन्ताजनक है।अन्ना ने भी कहा है कि सारे दल अरविन्द को मरने देना चाहते हैं।मीडिया ख़ामोश है। जनता अपने असली ख़िदमतगार के प्रति अजीब ढंग से चुप है।सरकार भी अरविन्द की मौत का ही इन्तज़ार कर रही है वर्ना अबतक बातचीत की पहल की गई होती।यह कैसा लोकतन्त्र है?याद रहे ख़ामोश रहने वाली क़ौमें इतिहास में गुम हो जाया करती हैं।वैचारिक मतभेद का यह मतलब तो हरगिज़ नहीं होता है कि अरविन्द को चुपचाप मर जाने दिया जाय।सरकार और सारे राजनैतिक दलों को चाहिए कि वे अरविन्द को मरने से बचाएँ।अरविन्द जैसे लोगों को जीना चाहिए।मैं अरविन्द से अपील करता हूँ कि वे अपना अनशन समाप्त करें।

उधर मारुती कंपनी प्रबंधन, सरकार और प्रशासन के दमन के खिलाफ 24 मार्च से हरियाणा के कैथल जिले में चल रहा अनिश्चितकालीन धरना आज से आमरण अनशन में बदल गया है. संघर्षरत मज़दूरों ने अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल के पक्ष में व्यापक समर्थन की अपील की है. इस मौके पर  जेल में बंद 147 मजदूरों की और से जारी पत्र को अपने यहां जारी किया गया है।मजदूरों ने अपने हाल बयान करते हुये अपने बारे में लिखा है:
हम सभी किसान या मजदूरों के बच्चे हैं. माँ-बाप ने हमे बड़ी मेहनत से खून-पसीना एक करके 10वी-12वी या ITI शिक्षा दिलवाई व इस लायक बनाया कि इस जीवन में कुछ बन सके व अपने परिवार का सहारा बन सके.हम सभी ने कंपनी द्वारा भर्ती प्रक्रिया में लिखित व् मौखिक परीक्षायों को पास करके व् कंपनी की जो जो भी नियम व शर्ते थी, उनपर खरे उतर कर मारुति कंपनी को ज्वाइन किया. जोइनिंग करने से पहले, कंपनी ने सभी प्रकार से हमारी जांच करवाई थी, जैसे- घर की थाने तहसील की व क्रीमिनल जांच करवाई गई थी! पिछले समय का हमारा कोई क्रिमिनल रिकार्ड नहीं हैं.
अपनी सेवाओं  के बारे में बताते  हुये वे लिखते हैं:
जब हमने कंपनी को ज्वाइन किया तब, कंपनी का मानेसर प्लांट निर्माणाधीन था. हमने अपने कड़ी मेहनत व लगन से अपने भविष्य को देखते हुए, कंपनी को एक नयी उचाई पर ले गए. जब पूरी दुनिया में आर्थिक मंदी छायी हुई थी, तब हमने प्रतिदिन दो घंटे एक्स्ट्रा टाइम देकर साल में 10.5 लाख गाड़ियों का निर्माण किया था. कंपनी की लगातार बढ़ते मुनाफा का हम ही पैदावार रहे हैं, जबकि आज हमे अपराधी और खूनी ठहराया जा रहा हैं.
मजदूरों की शिकायत है:
लेकिन न तो हमारी कहीं सुनाई हो रही है, न ही हमें जमानत दी जा रही है. और तो और, जो हरियाणा पुलिस ने चार्जशीट कोर्ट में पेश की है, उसमें किसी गवाह का नाम नही है और वह आधी अधूरी है. हमारा लोकतान्त्रिक अधिकारो का हनन लगातार हो रहा हैं, और कानून को कंपनी मालिकों के स्वार्थ में व्यवहार किया जा रहा हैं. इस दौरान बहत से कर्मचारियों ने अपने परिवार के सदस्य के साथ-साथ बहत कुछ खो दिया है. काफी मजदूर ऐसे भी है जिनके माता-पिता नहीं हैं और पुरे परिवार का पालन पोषण का भार उन्ही पर है.
 क्या कोई मीडिया इनकी आवाज उठायेगा?

डा. सुषमा नैथानी कम लिखती हैं लेकिन जब लिखती हैं तो खूब लिखती हैं, डूबकर लिखती हैं। पिछले दिनों न्यूयार्क यात्रा संस्मरण लिखा उन्होंने। इस संस्मरण में विदेश में भारतीयों से भेदभाव, अपने यहां भी खुन्नस के बारे में बतियाते हुये वे व्हेलिंग की जानकारी देती हैं। भेदभाव के किस्से सुनिये उनसे ही:
सबका सामान आ गया, मेरा पोस्टर जो चेकइन किया था वो नहीं आया, एअरलाइन वालों को पूछ रही हूँ, एजेंट एक दुसरे से पूछ रहे है, कंप्यूटर पर चेक कर रहे हैं,  टी.वी. पर अर्जेंटीना से नए पोप के चुने जाने की खबर है.  डेस्क पर खड़ी एजेंट कहती है कि इसे चैकइन की जरूरत नहीं थी, कैरीऑन  की तरह लाया जा सकता था. यही किया भी था, लेकिन पोर्टलैंड में एअरलाइन के एजेंट ने मुझसे चैकइन करवा लिया, बदले में तिरछी मुस्कान मिलती है. इन तिरछी मुस्कानों के आशय को पहचानती हूँ, जिस तरह भारत से निकलते वक़्त  कस्टमकर्मीयों की नफ़रत और अपनी पावर के बेजा इस्तेमाल से एन.आर. आई. लोगों को तंग करने के सुख को. 

सेमिनारों में शाकाहारी भोजन की उपलब्धता और महिलाओं की बढ़ती भागेदारी पर टिप्पणी:
पिछले बीस वर्षों में कम से कम कांफ्रेंस मेनू में शाकाहारी भोजन उसी तरह बढ़ गया है जैसे कान्फ्रेंस में औरतों की भागीदारी. शाकाहारियों को अब भूखों नहीं मरना पड़ता, औरतें ज्यादा सहज दिखतीं हैं ...  

आगे व्हेलिंग यानी कि व्हेल मछली का शिकार की जानकारी और उससे जुड़ी अन्य बातों की जानकारी है:
कांफ्रेंस के बाद घंटे भर के लिए  'व्हेलिंग म्यूजियम' देखा  जो अब एक छोटे से मकान के भीतर है  उन्नीसवीं सदी के मध्य में यहाँ 'कोल्ड स्प्रिंग हार्बर व्हेलिंग कम्पनी ' शुरू हुयी, जो सदी के आखिरी दशक में बंद हो गयी. . 'व्हेलिंग' यानि व्हेल मछली का शिकार. व्हेल मछली के शिकार और उसके शरीर के विभिन्न हिस्सों का इस्तेमाल ३ हज़ार वर्ष पहले से एस्किमो लोग जीवनयापन के लिए करते रहे हैं; मांस खाने के लिए, हड्डी का इस्तेमाल बर्तन, फ़र्नीचर, सुई से लेकर कई तरह के औजारों को बनाने के लिए, और त्वचा के नीचे चर्बी की बहुत मोटी परत जिसे ब्ल्बर कहते हैं, का उपयोग रोशनी के लिये. परन्तु उनकी जीवनपद्धती से समंदर के भीतर व्हेल मछली के बाहुल्य में कोई फर्क नहीं पड़ा.
पूरा लेख  पठनीय है। देखिये, पढिये।

इस्मत जैदी के ब्लॉग की पंच लाइन है-हम ने ज़मीर का कभी सौदा नहीं किया बस ख़्वाहिशात हार गईं कारज़ार में!    उनके ब्लॉग की चर्चा की याद  करते हुये उनका एक शेर याद आया जिसे गौतम राजरिशी चुरा के ले गये थे:
"हमारे हौसलों का रेग ए सहरा पर असर देखो
अगर ठोकर लगा दें हम, तो चश्मे फूट जाते हैं"
उनकी ताजा गजल के तीन शेर आपके सामने पेश हैं:
रात जब नींद की आग़ोश में गुम होती है
कितनी ख़ामोशी से तनहाई में जलता है चराग़
हसरतें , ख़्वाहिशें, अरमान बुझे जाते हैं
पर दम ए रुख़सत ए आख़िर को संभलता है चराग़

यूँ तो आँधी के मुक़ाबिल भी डटा रहता है
और कभी हल्के से झोंके से बिखरता है चराग़



शानदार गजल।  कुछ कठिन शब्दों के मतलब  भी दिये हैं नीचे ताकि पाठक वाह-वाह करते हुये उनके मतलब समझकर दुबारा वाह-वाह कर सके।

होली तो अब होली। इस बार हम होली में जबलपुर में ही रहे। कानपुर की होली मिस किये।लेकिन कल हेमा दीक्षित  की पोस्ट ने फ़िर से कानपुर की होली की याद दिला दी। कानपुर की होली के बयान उनके ही यहां सुनिये:

होली का खेला पूरा नहीं होता जब तक रँग, गुलाल-अबीर की संगत में कीचड़-कादा,गोबर ,टट्टी-पेशाब की भी पूरी महफ़िल ना सजा ली जाए ...  किसी के पहने हुए कपड़ों को फाड़ कर नाली और कीचड़ में डुबा-डुबा कर बनाए गये पीठ तोड़ पछीटे लिए गली-गली चोई की तरह उतराते होरियार ...

सफेदे में पोत कर नग्न दौडाये जाते चितकबरे लोग ... रूमालों की बीन बनाये सम्पूर्ण नाग अवतार में ज़मीन पर लोट-लोट कर सामूहिक नागिन नृत्य करते लोग ... माँ-बहनात्मक गलचौर के रस में सम्पूर्ण माहौल को भिगाते लोग ...

शीला की जवानी में मदमस्त , मुन्नी बदनाम बनी तमाम कारों पर सवार लोग ...  जलेबीबाई  की तर्ज पर जैसे किसी पगलैट होड़ में कमाल के कमरतोड़ नाच मे अंधाधुंध डूबे और दौड़े चले जाते है
 होली का त्यौहार लगता है लड़कों के लिये आरक्षित है यह भी वे अपनी पोस्ट में लिखती हैं:

स्त्रियाँ और लड़कियाँ इन होरियारों को सिर्फ देख सकती है अपने-अपने सुरक्षित ठिये-ठिकानों से ...
स्त्रियाँ और लड़कियाँ अपनी हदबंदी में ही होरियार होती है ना बस ...

अरे  हाँ .. लड़कियों एवं स्त्रियों को तो होलिका दहन देखने की मनाही होती है ... वो घर के अंदर रहती है दहीबड़े,काँजी,गुझियाँ ,पापड,चिप्स इत्यादि तलती हुई ... पुरुष जाते है बाहर होलिका दहन में गन्ना और गेंहूँ की बालियाँ भूंजने और बल्ले की माला चढ़ाने ... 

डाक्टरों के क्या हाल हैं आजकल देश में देख लीजिये काजल कुमार के कार्टून में:

 चलते-चलते देखिये खुशदीप के यहां अपने उल्लू प्रेम कथा के 66 साल और ज्ञानदत्त जी के यहां भोंदू के किस्से। फोटू नीचे देखिये भोंदू की।



 image   
अभी फ़िलहाल इत्ता ही। बाकी फ़िर कभी। लेकिन जाने से पहले मधु अरोरा की फ़ेसबुक दीवार से यह समझाइश बांच लीजिये:
हम ज़िन्‍दगी में किसीको भी शत प्रतिशत खुश कर ही नहीं सकते। जितना उनको खुश करने की कोशिश की जाती है, उनकी अपेक्षाएं सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती जाती हैं। इस चक्‍कर में बंदे के चेहरे का रंग उतरता जाता है और वह अपना सुख चैन गंवा देता है।

आपका दिन चकाचक बीते। व्यस्त रहें, मस्त रहे।

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शुक्रवार, मार्च 29, 2013

मार्च के महीने में घुन्ने और समझौते से उगे आदमी से मुलाकात



नौकरी पेशा लोगों के लिये मार्च का महीना बड़ा जालिम टाइप होता है। जित्ता काम साल  भर में नहीं होता उत्ता इकल्ले मार्च में हो जाता है। सरकार के सारे फ़ण्ड खर्चने का महाभारत मार्च में होता है। मार्च इत्ती तेजी से मार्च करता है कि जड़त्व के नियम की आड़ में आधे से ज्यादा अप्रैल तक पर कब्जा जमा लेता है। दस-पन्द्रह-बीस अप्रैल तक मार्च का झण्डा फ़हराता है। बहरहाल।

इसई मार्च की व्यस्तता के शिकार अपन भी सुबह चर्चा कर नहीं पाये। लेकिन देखा कि कल की चर्चा दैनिक भास्कर  में  छपी है। शहर में अखबार खोजा सो मिला नहीं। कोई नहीं यही देखिये जो छपा है अखबार में। इसका मतलब कि अखबार वाले भी चिट्ठाचर्चा बांचते हैं कभी-कभी।

बहरहाल अब देखते हैं एकाध ब्लॉग और बताते हैं आपको भी उनके बारे में। चलिये सबसे पहले आपको मिलवाते हैं एक वाहियात आदमी से। उसके बाद अच्छे ब्लॉग का जिक्र करते  हैं। देखिये  क्या कहते हैं सागर के  ब्लॉग में यह  आदमी अपने बारे में बताता है:
तुम्हें कभी कभी लगता होगा न कि मैं कितना घुन्ना आदमी हूं और यह कल्पना भी करती होगी कि कभी जो मुझे मिलना हुआ गर सच में तो इस रास्कल को कॉलर से पकड़कर फलाना बात पूछूंगी, चिलाना सवाल करूंगी। लेकिन तुम्हारी ही तरह मेरे पास जबाव नहीं होते, सिर्फ सवाल हैं, बेहिसाब मौलिक सवाल। जबाव भी है लेकिन वो सब बस समझौते से उगा है, जबाव में घनघोर बदलाव है, यह मौलिक नहीं है, यह कभी कुछ है तो कभी कुछ। ग़ौर करोगी तो पाओगी जबाव मूड पर निर्भर करता है। एक प्रश्न है जो अटल और नंगा खड़ा रहता है। खैर छोड़ो....मैं भी कितना वाहियात आदमी हूं कहां से कहां बह जाता हूं।
यही  घुन्ना और समझौते से उगा आदमी किन ख्यालों में गुम रहता है यह भी देखा जाये जरा:
दुपट्टा सलीके से अब लेने लगी हो। और इस संभालते वक्त चेहरे पर की हया भी देखने लायक है। क्या आगे चलते अब भी हुए यूं अचानक पीछे पलट कर कर देखकर हंसती हो? क्या मेरी तरह अब भी कोई तमीज़ से छेड़ता है तो चेहरे पर ऐसा एक्सप्रेशन लाती हो जैसे खट्टी दही चखी हो? क्या साइड के टूटे दांतों वाली खिड़की अब भी हमेशा झांकती रहती है? क्या वहीं जहां से तुम्हारी नाक की बनावट माथे में मिलकर खत्म होती है वहीं से भवहें अपनी ऊंची उड़ान भरती हैं?
सागर के ब्लॉग के नाम के बारे में डा.अरविन्द मिश्र ने अपने विचार व्यक्त करते हुये लिखा था:
सोचालय नाम देखते ही ही मुझे कुछ अजीब सा भाव इस ब्लॉग से विकर्षित कर जाता है -मनुष्य के दिमाग को 'शौचालय ' के रूप में ध्वनित करने की सोच वाला क्या कुछ विकृत सा न लिखेगा ? मगर मन मारकर कुछ अंश आज यहाँ पढ़े तो लगा जनाब तो अच्छा लिखते है मगर मैं तो फिर भी वहां प्रवेश करने से रहा -नाम तो वे बदलेगें ना?
 अब क्या तो नाम बदलेगा वह अपना नाम- वाहियात खुद ही कहता है जो अपने को। :)

चलिये एक और वाहियात आदमी के किस्से देखिये जरा। मियां मुशर्रफ़ कीर्तिश   भट्ट की नजर में कैसे दिखते हैं देखिये:
parvez musharraf cartoon, Pakistan Cartoon, kargil war, indian army, Terrorism Cartoon, TerroristPhoto: बीच बजार छोटे शहर के हिम्‍मतवालों की दोस्तियां.. एक पुरानी खींची फोटू की नकल..ये साथ का स्केच प्रमोद सिंह जी  की फ़ेसबुक  दीवार से लिया गया है। उसमें लिखे हैं प्रमोद जी-बीच बजार छोटे शहर के हिम्‍मतवालों की दोस्तियां.. एक पुरानी खींची फोटू की नकल..!  
ये नीचे की फोटो के लिये विवरण लिखते हैं प्रमोद बाबू:

बउआ-बउनी.. मीना कुमारी की 'छोटी बहू' में इनकी कास्टिंग न हो सकती थी.. चेहरे पर की क्रमश: खुशीआइल और मुरझाइल उसी के प्रतिक्रिया में है..
Photo: बउआ-बउनी.. मीना कुमारी की 'छोटी बहू' में इनकी कास्टिंग न हो सकती थी.. चेहरे पर की क्रमश: खुशीआइल और मुरझाइल उसी के प्रतिक्रिया में है..
ये वाली के लिये टाइटल अंग्रेजी में है-a new sketchy sketch of an old blastin' affair..
Photo: a new sketchy sketch of an old blastin' affair..

इसके लिये क्या लिखा है देखिये-पोती के साथ आजी, स्‍वरगनिबासी.. उमा के साथ टिल्‍डे..



Photo: पोती के साथ आजी, स्‍वरगनिबासी.. उमा के साथ टिल्‍डे..

 चलते-चलते देखिये इरफ़ान जी का बनाया कार्टून:


आज के लिये फ़िलहाल इतना ही। बाकी फ़िर कभी।शुभ रात्रि।

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गुरुवार, मार्च 28, 2013

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की

कल होली तो होली। आज सब लोग खुमारी में होंगे। जिनके दफ़्तर होंगे वे बेमन से तैयार होकर देश की जीडीपी दर से घिसटते हुये से जायेंगे। दफ़्तर तो हमको भी जाना है। लेकिन जाने से पहले चर्चियाना है। सो चलते हैं फ़टाफ़ट कुछ पोस्टों पर टहल लेते हैं जैसे होली मिलने लोग मोहल्ले में जाते हैं।

लेकिन चर्चा शुरु करने के पहले एक खुश खबरी  साझा कर लेते हैं।मनीष कुमार ने के ब्लॉग एक शाम मेरे  नाम ने अपने सात साल पूरे किये। मनीष चिट्ठाजगत के सबसे नियमित ब्लॉगरों में से हैं।  अपने प्रिय गीतों, गजलों, उपन्यासों और कविताओं जो उनको दूसरी ही दुनिया में खींच ले जाते हैं उनको महसूस करने और अभिव्यक्त करने की मंशा से बनाये इस ब्लॉग में कई बेहतरीन पोस्टें पढ़ने को मिली। अपनी इस सात साला जन्मदिनिया पोस्ट में मनीष ने अपनी दस बेहतरीन पोस्टें साझा की हैं।

मनीष चिट्ठाचर्चा के नियमित चर्चाकार भी रहे हैं। उनके सात साल पूरा करने के मौके पर उनको बधाई और आगे कई साल सफ़लतापूर्वक पूरे करने की मंगलकामनायें।

अब चलिये चर्चाकर्म पर! देखिये पहले होली का माहौल कैसा बना था मनोज ’आजिज’ बता रहे हैं रचनाकार के मंच से:
दिलों का गुलशन महक उठे होली में
जज़्बों की चिड़िया चहक उठे होली में

उड़ न जाये अरमान सारे गुलाल जैसा
अरमानों  की लौ दहक उठे होली में
उधर मास्टरनी जी खेल रंग की जंग का एलान करते हुये कह रही हैं
मत देख लंका, मत देख इटली
मत देख दंगा, मत ले पंगा
मत देख भूख, मत देख रसूख
मत देख गरीबी, मत देख फरेबी । 
जब ये सब न देखें त करें का? ये भी बता रही हैं कुमायूंनी चेली:
आज बस झूम झूम कर गाले होली
आज बस झूम झूम कर सुन ले होली
आज बस झूम झूम कर देख ले होली
सखी- सहेली, पास- पड़ोसी या प्रियतम के संग
खेल रंग की जंग, बस तू खेल रंग की जंग  । 
 उधर मास्टर हिमांशु पाण्डेय आह्वान कर रहे हैं होली का कुछ ऐसे:
जग की रंजित परिधि बढ़ा दो, वसंत की रागिनी पढ़ा दो
प्रति उल्लास हर्ष वनिता को रंग भरी चूनरी उढ़ा दो 
हर तरुणी का चुम्बन कर लो भुला के बातों में भोली-भोली -
होली, होली, होली!
अब बताओ ये मास्टरजी कह रहे हैं-हर तरुणी का चुम्बन कर लो। होता है कहीं ऐसा? पिटवायेंगे का? आप पढ़ लीजिये बस्स! बाकी दूसरों के लिये छोड़ दीजिये।

हां नहीं तो मैडम आज कई खुलासे कर रही हैं- इधर उधर की सुनाते हुये। मामला धर्म से संबंधित है सो ज्यादा न बतायेंगे बस पता दिये दे रहे हैं और एक ठो हिस्सा यहां सटा दे रहे हैं बस्स:
हरिद्वार गए थे हम, वहाँ तो हम एकदमे हैरान हो गए। एक पंडा जी तो हमरे कुल-खानदान की जनम पत्री  ही निकाल दिए, कि फलाने आपके बाप है और अलाने आपके दादा है। बाप रे ! हम तो फटाफट पूजा-पाठ के लिए तैयार हो गए। पूजा करके हम जैसे ही नारियल पानी में फेंके, फट से दो-तीन बच्चे कूद गए पानी में और वही नारियल किनारे ले आये। सेम टू सेम नारियल, सेम टू सेम दूकान और सेम टू सेम हम जैसे लोग, न जाने कब से ऊ नारियल रिसाईकिल हो रहा है, और न जाने कब से लोग जानबूझ कर बुड़बक बन रहे हैं :)
 वसीम बरेलवी साहब नयी पीढी के बारे में फ़र्माते है:
नये जमाने की खुदमुख्तारियों को कौन समझाये,
कहां से बच निकलना है, कहां जाना जरूरी है।
वह बात पीडी की यह पोस्ट पढते हुये याद आती है जहां नयी पीढी कहती है हमका न चाहिये आपकी कौनौ सलाह। एक सीन दिखा देते हैं बाकी आप खुदै देख लीजियेगा सलाहों से आजिज है नया लरका लोग:
"कहाँ घर लिए हो?"
"जे.पी.नगर में."
"कितने में?"
"1BHK है, नौ हजार में"
"और ऑफिस कहाँ है?"
"वहीं पास में, घर से आधे किलोमीटर पर"
"चार किलोमीटर दूर ले लेते तो दो हजार कम लगता"
फिर से मन में सोचते हुए, "और उसके साथ दो घंटे के ट्रैफिक का धुवाँ और धूल भी मुफ़्त में ही मिलता + दो घंटे बर्बाद अलग से, आपको आपकी अपनी धूल मुबारक़, हमें अपना बचा हुआ समय मुबारक़."
 कबाड़ी किंग अशोक पाण्डेय सुनवा रहे हैं बाबा नजीर अकबराबादी की रचना सुनिये यहां  स्वर छाया गांगुली का:

जब फागुन रंग झमकते हों
तब देख बहारें होली की
परियों के रंग दमकते हों
ख़ुम शीशे जाम छलकते हों
महबूब नशे में छकते हों
जब फागुन रंग झमकते हों



उधर डाक्टर दराल  भी होलियाना हो गये और डाक्टर कविराय बन गये:
चश्मे पे जब हो जाये , रंगों की बौछार
सतरंगी नज़र आये , ये सारा संसार।
ये सारा संसार , फिर लगे सुनेहरा
गोरा दिखे काला , काला हरा भरा।
कह डॉक्टर कविराय, ना बुरा मनाना ,
होली पर सबको हंसकर गले लगाना।
 होली के मौके पर शिवकुमार मिश्र ने नेताओं का गुझिया कंपटीशन करा दिया। देखिये क्या हाल जमे हैं:
रविशंकर प्रसाद बोले; "मैं माननीय लालू जी से पूछना चाहता हूँ कि प्राचीन भारत के समय से ही गुझिया के मसाला में जो गरी काटकर डाली जाती थी वह रंगी नहीं जाती थी। यहीं देख लीजिये कि इन्होने जो मसाला यहाँ रखा है उसमें इस्तेमाल होने वाली गरी को इन्होने हरे रंग में रँग दिया है।"

रविशंकर प्रसाद की बात पर लालू जी बोले; "आ जो हरे रंग से रंगी गरी देख रहे हैं, ऊ रंगी नहीं है। उसको कहते हैं सेकुलर गरी ... आपका निगाह ही हरा हो गया है। आ अंधे को सब जगह गरी की हरियाली ही दिखाई देती है।"
मुलायम जी के बयान भी सुनिये:
मुलायम जी को लगा कि यहाँ उन्हें सी बी आई का पक्ष लेने की ज़रुरत है। बोले; "एखिये, ऐसी बात नई ऐ। हअबाअ सी बी आई जो ऐ मासाआ नई लाती। असोई चअती अहे, उसके लिए दूकानदाअ कई बाअ खुदै मसाआ पौंचा जाता ऐ। हमयें खुद अपई आँखों से जो ऐ सो देखा ऐ।"
 देर से देखा लेकिन दीपक बाबा के आश्रम का निमंत्रण आप भी देख लीजिये:
कल पूनम पाण्डेय जी होली खेलने बाबा के आश्रम आ रही है, सुधिजन  होली खेलने के लिए आश्रम में आमंत्रण है...

१. गिलास खाली ले कर आना, भांग यहाँ घोटी जा रही है.
२. शरीर के नाज़ुक अंग से हलके कपड़े पहने ताकि उसके फटने से पहले कपड़े फट जाएँ.

कपड़े फ़टने की बात चली तो देखिये हल्दिया की कपड़ा फ़ाड होली में विवेक सिंह के क्या हाल हुये:

सलिल वर्मा के हाल भी देख लीजिये। कैसे कोरे बचे हैं फोटो खिंचवाने के लिये जबकि स्टेटस में लिखे कुछ और हैं:
मैं स्टेटस लिखने में व्यस्त था और श्रीमती जी पीछे से छिपकर चेहरे पर रंग पोत गयीं.. मैं मना करता रह गया, मगर वो नहीं मानीं.. अब उन्हें कौन समझाए कि जानेमन! जो रंग चौबीस साल पहले चढ़ा था वही नहीं उतरा, तो क्यूँ ख्वामख्वाह रंग और पानी बर्बाद कर रही हो.. वैसे भी यहाँ पानी की किल्लत है!!
सच में त्यौहार परेशानियां भूल जाने का नाम है!!
बहुत हुआ। अब चला जाये। दफ़्तर बेताबी से अपन का इंतजार कर रहा है। आप भी मजे कीजिये। जय हो। चलते-चलते कविता बांचते जाइये हमारी ही है:
आज होली का त्योहार है,
हम सबकी खुशियों का विस्तार है
हर हाल में हंसने का आधार है

हंसी का भी बहुत बड़ा परिवार है
कई बहने है जिनके नाम है-
सजीली,कंटीली,चटकीली,मटकीली
नखरीली और ये देखो आ गई टिलीलिली,

हंसी का सिर्फ एक भाई है
जिसका नाम है ठहाका
टनाटन हेल्थ है छोरा है बांका
हंसी के मां-बाप ने
एक लड़के की चाह में
इतनी लड़कियां पैदा की
परिवार नियोजन कार्यक्रम की
ऐसी-तैसी कर दी.

हंसी की एक बच्ची है
जिसका नाम मुस्कान है
अब यह अलग बात कि उसमें
हंसी से कहीं ज्यादा जान है.

अब सच्ची वाला बाय बोल के जा रहे हैं।मस्त रहिये।

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मंगलवार, मार्च 26, 2013

होली जीन, कार्टूनलीला, टाइटल बाजी और मीठी नोक झोंक


होली शुरु हो गयी है। लेख और कार्टून आने लगे होली के मौके पर। फ़िर मैगजीन कैसे ने आयें। सो संजय बेंगानी ने साथी ब्लॉगरों को हड़काकर, धमकाकर और फ़ुसलाकर लेख,कवितायें, कार्टून मंगवाये और होली पत्रिका होलीजीन निकाल  दी। आप भी पढिये। चकाचक है। उतार लीजिये यहां से और पढिये चाहे आनलाइन, चाहे पीडीएफ़ में (2 एमबी और 10 एम बी दोनों में है। उसके पहले राजेश दुबे ने कार्टूनलीला निकाली जो अभी आनलाइन नहीं है । लेकिन आप खरीद कर बांच सकते है। फ़िलहाल तो आप उसका मुखपृष्ठ निहार लीजिये। और हां अगर आप लिखने के साथ-साथ छपाने का भी शौक रखते हैं तो अपनी रचनायें भी भेज सकते हैं कार्टूनलीला में छपने के लिये। राजेश दुबे कार्टूनिस्ट हैं। वे आपकी रचनाओं पर कार्टून बनाकर छापेंगे। पैसा-उइसा भी देंगे जब कभी पत्रिका कमाई करने लगेगी। लेकिन फ़िलहाल  आपको आभार से काम चलाना पड़ेगा। पत्रिका का ई पता है-cartoonleela@gmail.com भेजिये अपना लिखा हुआ। छपवाइये। :)

और आपको पता ही होगा कि ब्लॉग जगत में एक ठो हां मैडम हैं जिनका तखल्लुस है हां नहीं तो! और ये हां नहीं तो मैडम बहुत तेज चैनल हैं। हर काम इस्टाइल से करती हैं। ये नीचे का इस्टाइलिश वाला फ़ोटो भी उनका ही है। होली शुरु हुई नहीं कि सब टाइटल बांट दिहिन। तीन ठो पोस्ट बक्सा में हैं एक , दो और तीन! देख लीजिये क्या पता आपको भी कोई टाइटिल मिला हो। टाइटल से मन नहीं भरा तो ब्लॉग चिंतन तक कर डाला। देखिये तो जरा:

 
ब्लॉगर हौं तो बस एही बतावन, बसौं कोई गुट के छाँव मझारन 

नाहीं तो पसु बनिके फिरोगे, आउर खाओगे नित रोज लताड़न  

पाहन बनौ चाहे गिरि बनौ, नाही धरोगे धैर्य, कठिन है ई धारण

फिन खग बनि इक पोस्ट लिखोगे, औ करोगे अभासीजगत से सिधारन 

अब जब टाइटल और पोस्ट बांच ही चुके हैं तो इसी पोस्ट में " हां नहीं तो !" मैडम की आवाज में खूबसूरत गाना भी सुनियेगा-भरी दुनिया में आखिर दिल को समझाने कहाँ जाएँ! बहुत सुन्दर गाना। टाइटल और पोस्ट पढ़के जो मूड खराब हुआ होगा वह ठीक हो जायेगा- हां नहीं तो! :)

अब भाई जब  टाइटल  बांटने का काम खाली मैडमैं करेंगी का? जब मैडम बांटेंगी तो देशनामा वाले खुशदीप काहे नहीं बांटेंगे? बन्दा 1994 से कलम-कंप्यूटर तोड़ रहा है अब अचानक टाइटल बांटने लगा। होली जो कराये सो कम है!


आप ही देखिये राज भाटिया के उकसावे पर टाइटल फ़िलिम बनाइन हैं खुशदीप। नाम धरिन हैं ब्लॉगोले। कहानी का विवरण आप उनकी पोस्ट में देखिये लेकिन टाइटल हम आपको दिखाये देते हैं:

ठाकुर बलदेव सिंह....सतीश सक्सेना
वीरू....अनूप शुक्ल
जय....समीर लाल
गब्बर सिंह...डॉ अरविंद मिश्र
जेलर...राजीव तनेजा
सूरमा भोपाली....अविनाश वाचस्पति
रहीम चाचा...जी के अवधिया
रामू काका...???
सांभा...???
कालिया...???
अहमद...???
टाइटल का मजा तो ठीक है लेकिन हमको लग रहा है कि अगर कहीं ये फ़िलिम बनी तो ये टाइटिल वाले गब्बर सिंह कहेंगे कि फ़िल्म शुरु करो -जब है जां जाने जहां मैं नाचूंगी । फ़ुल फ़िल्म में केवल यही गाना चलेगा और कुच्छ नहीं!  

होली के मौके पर लंदन बुलेटिन में शिखा वार्ष्णेय ने दुनिया भर में होली की तरह मनाये त्योहारों की जानकारी दे दी। खाली जानकारी देना तो विकीपीडिया टाइप मामला हो गया सो उस्ताद लोगों की तरह मैडम अपनी तरफ़ से भी कुछ न कुछ कहेंगी ही न! सो कहा है वो आप भी सुन लीजिये:


                                     यूँ देखा जाये तो अपने पराये की यह भावना सिर्फ एक मानसिकता भर है। जहाँ तक मुझे इस घुमक्कड़ी और अप्रवास ने सिखाया और अनुभव कराया है वह यह कि, मानो तो पूरी दुनिया एक जैसी है न मानो तो अपना पड़ोसी भी एलियन लगेगा। मनुष्य हर जगह एक जैसे ही हैं। सभी के शरीर में दिल,  दिमाग निश्चित जगह पर ही होता है,त्वचा का रंग बेशक अलग अलग हो परन्तु खून का रंग सामान ही होता है। हाँ कुछ भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार उनके रहन सहन के ढंग अवश्य बदल जाते हैं और फिर उनके अनुसार कुछ सोचने का ढंग भी,परन्तु मूलत: देखा जाये तो हर जगह , हर मनुष्य एक जैसा ही होता है।
        

तो तय हुआ कि हर जगह , हर मनुष्य एक जैसा ही होता है। ठीक ? अब आगे देखा जाये मामला!

काजल कुमार कार्टूनिस्ट काले चश्में वाले
राजेश दुबे संस्कार धानी वाले

फ़िलहाल आप ये कार्टून देखिये। छोटे लगाये हैं कि अगल-बगल लग सकें। बड़े होते ही गठबंधन पार्टियों के घटक दलों की बहककर अलग-अलग हो जा रहे थे।क्लिकियाइये बड़े हो जायेंगे








सिद्धार्थ त्रिपाठी रायबरेली के बड़े खंजांची साहब को पता नहीं कहां से समय मिल गया आज और उन्होंने कवि/संपादक की नोकझोंक पेश की देखिये क्या कहते हैं दुष्यंत कुमार अपने संपादक धर्मवीर भारती से:
पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुजूरDushyant-Kumar_postal-stamp_27-09-2009

संपादकी का हक तो अदा कीजिए हुजूर

 अब जिन्दगी के साथ जमाना बदल गया

पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुजूर
अब जब संपादक भी कवि है तो ऊ भी कुछ न कुछ तो कहिबै करेगा। सो देखिये क्या कहता है कवि संपादक अपने पीड़ित शायर से सिद्धार्थ त्रिपाठी के यहां नोक-झोंक में।

ये नयी पीढ़ी न जाने क्या अगड़म बगड़म लिख कर स्वाहा कर देती है एक तरफ़ पंडितजी उनको कैरेक्टर लेस कहते हैं दूसरी तरफ़ कहा जाता है- तुम व्यंग्य में माहिर हो गये हो।  सच क्या है वह तो घटनास्थल पर ही पता चलेगा।

आपको होली के मौके पर गिरता हुआ कटहल देखना हो तो पहुंचिये सुखी कैसे हों की तकलीफ़देह पड़ताल में जुटे प्रमोद सिंह की नोटबुक पर!

प्रिया दत्त क्यों नहीं आयीं काटजू से मिलने ? यह मसला अगर समझना चाहते हैं तो हाथ रगड़ते हुये चलिये पुण्य प्रसून बाजपेयी के यहां।

सड़क छाप भाईसाहब होली में सबके मुंह काले कर रहे हैं आप भी देखिये तमाशा राइटर एट लार्ज पर!

आखीर में यादों का जंकयार्ड ही मिलता है। देखिये क्या है वहां:

इतने साल बाद भी सारे रस्ते वैसे ही याद थे...किस मोड़ पर रुकी थी...कहाँ पहली बारिश का स्वाद चखा था...कोलेज के आगे का चाट का ठेला...गोसाईं टोला की वो दूकान जहाँ एक रुपये में कैसेट पर गाना रिकोर्ड करवाते थे. नेलपॉलिश खरीदने वाली दुकान. बोरिंग रोड का वो हनुमान जी का मंदिर. आर्चीज की दुकान की जगह लीवाईज का शोरूम खुल गया है.

कितने सालों में ये शहर परत दर परत मेरे अन्दर बसता रहा है. बचपन की यादें नानीघर से. जब भी जाते थे दिदिमा अक्सर बाहर ही दिखती थी. उसमें कोई फ़िल्मी चीज़ नहीं दिखती थी. कोने खोपचे के किराने की दुकान, आइसक्रीम फैक्ट्री, दूर तक जाती रेल की पटरियां. हर चीज़ के साथ जुड़े कितने लोग दिखते रहे...मम्मी, नानाजी...बचपन और कोलेज के कुछ दोस्त जिनका अब नाम भी याद नहीं.

आज के लिये बस इतने ही चिट्ठे बाकी फ़िर कभी!

जज्बे को सलाम

यह है उत्तर प्रदेश की सोमवती ! इन्होंने उपले बनाकर और बेचकर अपने दो बेटों की परवरिश की, उन्हें पढ़ाया-लिखाया। आज उनके दोनों बेटे उत्तर प्रदेश पुलिस में डिप्टी एस.पी हैं। एक मां और स्त्री के संघर्ष की प्रतीक बनी सोमवती को हमारा सलाम ! फ़ेसबुक में Dhruv Gupta की जरिये।

और अंत में :

कल कई साथियों ने प्रतिक्रिया दी कि जमाये रहो चर्चा। सो हम जमा दिये आज भी। कल का कोई भरोसा नहीं काहे से कि फ़ैशन के दौर में गारंटी चलती नहीं और फ़िर ये ठहरा बेफ़ालतू का काम। चलिये आप मजे करिये। हम भी लगते हैं काम से। 

सभी होली मुबारक हो।

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सोमवार, मार्च 25, 2013

प्यार की समझाइश, स्पर्श थेरेपी और जिंदगी का कास्ट डायरेक्टर


My Photoअनु सिंह चौधरी संस्मरण उस्ताद हैं। अपने जीवन से जुड़े कई बेहतरीन संस्मरण उन्होंने अपने ब्लॉग में लिखे हैं। एक पोस्ट में अपने जुड़वां बच्चों आद्या और आदित को (मां का पत्र बच्चों के नाम) कुछ समझाइशें दी अनु श्री ने ।उनमें से एक यह भी है:

प्यार कई बार होगा और हर बार जिससे भी प्यार करो, उतना ही टूटकर, उतनी ही ईमानदारी से प्यार करना। बाबा से प्यार करना। एक-दूसरे से प्यार करना। अपने दोस्तों से प्यार करना और उससे भी ज़रूरी, ख़ुद से प्यार करना। मोहब्बत लेकिन सिर्फ एक बार करना।
Photo: बाबा और आदित। और मुस्कुराहटें।यहां जिनको बाबा कहा गया वे परसों कटिहार से नई दिल्ली आते मुगलसराय स्टेशन पर उतर गये। उनको भूलने की बीमारी है। पता चलने पर दिन भर खोज हुयी। सारे स्टेशन खोजे गये। देवेन्द्र पाण्डेय जी बनारस से मुगलसराय गये। आखिर में वे कोडरमा में मिले। सुबह के खोये शाम को मिले। शायद अनु इस खोना-पाना बाबा का  पर कोई संस्मरण लिखना चाहें।

My Photoशेफ़ाली पाण्डेय आजकल फ़ुल लिखन्तू मूड में हैं। उनके की बोर्ड माउस से दनादन व्यंग्य लेख निकल रहे हैं। अपनी ताजी पोस्ट में चलते-फ़िरते स्पर्श थेरेपी करते चलने वालों का चरित्र चित्रण करते हुये वे लिखती हैं:
ये महानुभाव  आपको हर जगह  मिल जाएंगे । इन्हें दुनयावी भाषा में दुकानदार कहा जाता है । आप इनकी दूकान से कुछ भी  खरीदें, ये पैसा लेते या देते समय आपके हाथों को अवश्य स्पर्श करते हैं । ये स्पर्श थेरेपी के स्पेशलिस्ट होते हैं । इन्हें भय होता है कि यदि ये आपके हाथ को पकड़ कर पैसे ना लें तो इन पैसों को शायद धरती निगल जाएगी । आपके हाथों को छूकर इन्हें एहसास होता है कि पैसा एकदम सही हाथों में गया है ।
ऐन-केन प्रकारेण किसी भी तरह स्पर्श सुख चाहना वाले लोगों के लक्षण देखिये:
दरअसल ये पूरी तरह होशो - हवास में रहते हैं । बस महिला के कंधे पर ही इन्हें ठीक से नींद आती है । अगर कोई पुरुष इनके बगल में आकर बैठ जाए तो इनकी नींद वैसे ही काफूर हो जाती है जैसे सजा सुनकर संजय दत्त और उसके चाहने वालों की । कभी - कभी नींद के सुरूर में ये इस कदर बेहोश हो जाते हैं कि इन्हें अपने हाथ पैरों के इधर - उधर चले जाने का होश नहीं रहता, ठीक उसी तरह जिस तरह खेनी प्रसाद वर्मा को अपनी जुबां का भरोसा नहीं रहता जो माइक को देखते ही बेकाबू हो जाती है । 
My Photoअगर आप कविता और अच्छी कविता लिखना चाहते हैं तो देखिये जानिये अच्छी कविता लिखने के लिये आपके पास क्या होना चाहिये बता रही हैं माधवी शर्मा गुलेरी:
"...कविता मात्र आवेग नहीं... अनुभव है। एक अच्छी कविता लिखने के लिए तुम्हें बहुत-से नगर और नागरिक और वस्तुएं देखनी-जाननी चाहिए। बहुत-से पशु और पक्षी... पक्षियों के उड़ने का ढब। नन्हें फूलों के किसी कोरे प्रात में खिलने की मुद्रा। अज्ञात प्रदेशों और अनजानी सड़कों को पलटकर देखने का स्वाद। औचक के मिलन। कब से प्रस्तावित बिछोह।
सागर सोचालय में क्या कहते हैं देखिये:
जिंदगी का कास्ट डायरेक्टर बुरा होते हुए भी अच्छा है। मूल्यांकन का तराजू वाला न्याय की तरह अंधा है। अपनी जिंदगी का शॉट डीविज़न करता हूं तो पाता हूं बहुत मिसकास्टिंग है मगर एक तुम्हारे नाम का वज़न रख दिया जाता है तो पलड़ा इस ओर झुक आता है। मिट्टी के चूल्हे पर सिंके हुए राख की सौंधी महक आती गोल-गोल रोटी की तरह।
शहीद दिवस के मौके पर की गयी चर्चा में सागर की टिप्पणी थी:
भगत सिंह बहुत आकर्षित करते हैं, बल्कि कहूं कि मेरे सिर चढ़ कर नाचते हैं। इतने कि आप उनके बारे में जितना सोचते जाएं आपकी हैरानी बढ़ती जाएगी। मात्र 23 साल और विचार और कर्म में इतनी गहराई। 'मैं नास्तिक क्यों हूं' को पढ़ने पर लगता है कहां ज़माना आगे बढ़ा है? फेसबुक, गूगल और ओरेकल कंपनियों में तनख्वाह और सुविधाएं सही मिलने से नहीं होगा। आप अपने काम में भी भगताइयत ला सकते हैं। राइटर लेखन में बगावत लाएं से लेकर जो जिस पेशे से जुड़ा है उसमें वो बागी बन सकता है।

जो जिस पेशे से जुड़ा है उसमें वो बागी बन सकता है कहने वाले सागर अपने ब्लॉग सोचालय में क्या लिखते हैं देखिये:
मैं खुश रहने के लिए काम नहीं करता। न काम करके खुश होता हूं। काम करता हूं इसलिए कि अपने दिन के 12 घंटे काट सकूं। कई बार उमग कर, हुलस कर और कई बार मजबूर होकर फोन उठाया। बुखार में जब कमज़ोरी से कमर टूट रही हो तो क्या संभाला जाए ? जीभ पर जब कोई स्वाद न लगता हो, होंठ बार बार खुश्क हो जाते हों, और उसे लपलपाई जीभ से बार बार गीला करना पड़े और कई लोगों ने लगभग मिन्नत करना पड़ जाए कि 'प्लीज़ मुझसे एक मिनट बात कर लो'।
समय बिताने के लिये काम करने वाला लेखक आखिर में लिखता है:
जिंदगी का कास्ट डायरेक्टर बुरा होते हुए भी अच्छा है। मूल्यांकन का तराजू वाला न्याय की तरह अंधा है। अपनी जिंदगी का शॉट डीविज़न करता हूं तो पाता हूं बहुत मिसकास्टिंग है मगर एक तुम्हारे नाम का वज़न रख दिया जाता है तो पलड़ा इस ओर झुक आता है। मिट्टी के चूल्हे पर सिंके हुए राख की सौंधी महक आती गोल-गोल रोटी की तरह।
शनिवार को लखनऊ लिट्रेरी फ़ेस्टिवल हुआ। वहां फ़िल्म निर्देशक मुज़फ़्फ़र अली ने मुजफ़्फ़र अली ने बच्चों को बिगड़ने से बचाने के लिये जो उपाय बताया वह देखिये:
इस मौके पर आज मुज़फ़्फ़र अली बहुत बढ़िया बोले। बोले कि पैसा कमाना बहुत हो गया, दिमाग का सफ़र बहुत हो चुका, अब दिल का सफ़र होना चाहिए। किसी पत्ती के हरे होने और फिर उस के पीला होने और फिर पेड़ को छोड़ देने की बात ऐसी सूफ़ियाना रंग में डूब कर उन्हों ने कही कि मन मोह लिया। उन्हों ने आज के बच्चों के बिगड़ने की चर्चा की और कहा कि इन्हें शायरी सिखा दीजिए, सब सुधर जाएंगे।
इस फ़ेस्टिवल में अमरेन्द्र भी शामिल हुये थे। उनकी रपट का इंतजार है।

होली के मौके पर  कबाड़खाना पर कबाड़ी किंग अशोक पाण्डेय के सौजन्य से सुनिये शोभा गुर्टू की आवाज में आज बिरज में होरी रे रसिया।

चिट्ठाचर्चा की पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुये कविता जी ने लिखा:
यह चर्चा मंच तो अब तक मेरा अपना है... अब भी इस से जुड़ी हूँ। और उसके पूर्ववत् अनवरत होने की कामना हर समय मन में बनी रहती है। जब जब चर्चा लिखे एजाती है तो बाँचने भी जरूर आती हूँ। हाँ है, यह कठिन व समयलेवा काम... फिर ऊपर से थैंकलेस्स भी। नेकी कर कुएँ में डाल वाला।

नेकी तो नहीं लेकिन यह थैंकलेस काम मुझे मजेदार लगता है। जब मौका मिलता है करने लगता हूं। करते हैं और फ़िर छोड़ते हैं। फ़िर करते हैं।  इस बार भी  देखिये कब तक सिलसिला चलता है।

दो साल पहले चिट्ठाचर्चा को ब्लागर से अलग साइट पर ले गये थे। लेकिन वहां मामला जमा नहीं। उधर की पोस्टें  भी नदारद हो गयीं। अब उनको  खोजकर दुबारा यहां जमा रहे हैं। चिट्ठाचर्चा के टिप्पणी बक्से को फ़ेसबुक से जोड़ा है। इससे फ़ेसबुक के कमेंट भी यहां आ जायेंगे। यह सुविधा कई ब्लाग में पहले से ही है। आप भी अपने ब्लॉग पर इसे जोड़ना चाहते हैं तो जोड़ लीजिये। ट्यूटोरियल यहां पर है।


मेरी पसंद

आज सारे दिन घूमता रहा
और कोई दुर्घटना नहीं हुई।
आज सारे दिन लोगों से मिलता रहा
और कहीं अपमानित नहीं हुआ।
आज सारे दिन सच बोलता रहा
और किसी ने बुरा नही माना।
आज सबका यकीन किया
और कहीं धोखा नहीं खाया।
और सबसे बड़ा चमत्कार तो यह 
कि लौटकर मैंने किसी और को नहीं
अपने को ही लौटा हुआ पाया।

-कुंवर नारायण

 और अंत में

आज अभी फ़िलहाल इतना ही। बाकी फ़िर कभी। मस्त रहिये। नीचे का चित्र सतीश चन्द्र सत्यार्थी के फ़ेसबुक दीवाल से जिन्होंने संजय दत्त को सजा मामले में अपनी राय लिखी:
संजय दत्त जितने भी महत्वपूर्ण व्यक्ति हों क़ानून के अनुसार अपराध की सजा देकर अदालत ने जनता की निगाहों में अपना सम्मान बढ़ाया है... अब संजय दत्त के लिए अच्छा यही होगा कि वे माननीयों से दया की भीख लेने की जगह देश के संविधान का सम्मान करते हुए जेल चले जाएँ... इससे जनता और उनको चाहने वालों की नज़र में उनकी इज्ज़त ही बढ़ेगी... और साल छह महीने में अदालत को अगर लगता है कि उनका आचरण सही है और आगे दुबारा उनके द्वारा अपराध किये जाने की संभावना नहीं है तो बड़प्पन दिखाते हुए उनकी सजा को ख़त्म कर देना चाहिए.... जब हत्यारे, बलात्कारी और देश को लूटने वाले बाहर घूम रहे हैं तो करोड़ों चेहरे पर मुस्कान लाने वाले एक कलाकार का इतना हक़ तो बनता है यार...

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शनिवार, मार्च 23, 2013

शहीद दिवस, अर्थ आवर और होली का हुड़दंग

 धूल के कण रक्त से धोए गए हैं,
विश्व के संताप सब ढोए गए हैं।
पांव के बल मत चलो अपमान होगा,
सिर शहीदों के यहां बोए गए हैं। 
-स्व.राजबहादुर’विकल’
 
आज शहीद दिवस है। आज के ही दिन सन 1931 को कांत्रिकारी भगत सिंह और उनके साथियों को फ़ांसी की सजा सुनाई गयी थी। आज कई साथियों ने अमर  शहीदों को याद करते हुये पोस्टें लिखीं। महेन्द्र नेह ने शहीद भगत सिंह और उनके क्रान्तिकारी विचार के बारे में जानकारी दी। रेखाजी ने शहीदों को श्रद्धांजलि दी। युवा दखल के आशुतोष चंदन ने मीडिया द्वारा भगतसिंह के ग्लैमराइज किये जाने की  बात  कही:
दरअसल मीडिया भगत सिंह की जो रोमांटिक क्रांतिकारी वाली तस्वीर भुनाती है ,आज का युवा सिर्फ उसी से परिचित है । भगत सिंह से उसका मतलब फांसी के फंदे पर हँसते-हँसते झूल जाने वाला दिलेर है , जो इंकलाब ज़िन्दाबाद का नारा देता था । भगत सिंह से शहीद भगत सिंह तक की यात्रा से , भगत सिंह के इंकलाब के मायने से उनका दूर-दूर तक कुछ लेना देना नहीं है । इस अर्थ में वो सिर्फ उसे चेहरे को पहचानते है जो फिल्मी हीरोइज़्म से भरा हो । भगत सिंह के विचारों की सान से उसका कोई राबता नहीं ।
शहीद दिवस के मौके पर  ‘अर्थ-आवर’ मनाने को चोचला जैसा ही तो बता रहे हैं आशुतोष जब वे यह कहते हैं:
तो  ऐसे समय में, ऐसे युवाओं और ऐसे बौद्धिकों (?) के बीच हमें तय करना है कि हम ‘अर्थ-आवर’ “सेलीब्रेट” करती “इंडिया” के साथ हैं या शहीद भगत सिंह, शहीद सुखदेव, शहीद राजगुरु के भारत की जनता के साथ हैं ? महज़ 1 घंटे तक बिजली की बरबादी का रोना रोने वाले हैं या अपने अमर शहीदों की शहादत और उनके मकसद को याद करते हुये, अपनी ऐतिहासिक विरासत को जानने-समझने और  उन  सपनों पर बात करने वाले हैं जो भारत की ही नहीं पूरी दुनिया की बेहतरी के लिए ज़रूरी हैं ?..

भगतसिंह एक क्रांतिकारी के साथ-साथ विचारक भी थे। उनका लेख मैं नास्तिक क्यों हूं उनके द्वारा लिखे गये लेखों में सबसे चर्चित लेख है। इसमें उन्होंने ईश्वर के संबंध में अपने विचार रखते हुये लिखते हैं:
ईश्वर में विश्वास और रोज़-ब-रोज़ की प्रार्थना को मैं मनुष्य के लिये सबसे स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा हे, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया। अतः मैं भी एक पुरुष की भाँति फाँसी के फन्दे की अन्तिम घड़ी तक सिर ऊँचा किये खड़ा रहना चाहता हूँ।
बलिदान से पूर्व 20 मार्च 1931 भगतसिंह अपनी अन्तिम भेंट में भगतसिंह ने कहा था:
'अंगरेजों की जड़ हिल चुकी है, वे पन्द्रह सालों में चले जाएँगे, समझौता हो जाएगा, पर उससे जनता को कोई लाभ नहीं होगा, काफ़ी साल अफरा-तफरी में बीतेंगे, उसके बाद लोगों को मेरी याद आएगी'। 
भगतसिंह ने जो जीवन जिया वह आने वाली पीढियों के नायकों के लिये आदर्श बना।  जे.एन.यू. के छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे चंदशेखर, जो कि सीवान में एक जनसभा करते हुये  मारे गये , ने एक सवाल-जबाब के दौरान कहा था:
“हां, मेरी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा है- भगतसिंह की तरह जीवन, चेग्वेआरा की तरह मौत"
 आज के ही दिन पंजाबी के क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह पाश भी शहीद हुए थे। पाश ने 23 शहीद दिवस के मौके पर शहीद भगत सिंह के लिये जो कविता लिखी थी वह उन पर भी लागू होती है:
उसकी शहादत के बाद

देश की सबसे बड़ी पार्टी के लोगों ने 
अपने चेहरे से आँसू नहीं, नाक पोंछी 
गला साफ़ कर बोलने की 
बोलते ही जाने की मशक की 

उससे सम्बन्धित अपनी उस शहादत के बाद 
लोगों के घरों में, उनके तकियों में छिपे हुए
कपड़े की महक की तरह बिखर गया 

शहीद होने की घड़ी में वह अकेला था ईश्वर की तरह
लेकिन ईश्वर की तरह वह निस्तेज न था
शहीद दिवस के मौके पर शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि।

आज सफ़लता के मायने क्या रह गये हैं इसका इशारा करते हुये चंद्रभूषण लिखते हैं:मेरी कोई सलाह तुम्हारे काम की नहीं
उपमा में नहीं, सच में हम दो अलग-अलग दुनियाओं में हैं।

कैसे कहूं,
मुझे डर लगता है, जब देखता हूं तुम्हें किसी मंजिल के करीब।

क्या तुम कीचड़ में धंसते चले जाओगे?
गढ़ डालोगे इसका ही कोई सौंदर्यशास्त्र?

या कि कांटे छेद डालेंगे
शरीर के साथ-साथ तुम्हारी आत्मा भी?                                                                                                               

शहीद दिवस और अर्थआवर से अलग संतोष त्रिवेदी होली में हुड़दंग मचाते दिखे:




  
संतोष त्रिवेदीहोली में देकर दगा,गई हसीना भाग ,
पिचकारी खाली हुई ,नहीं सुहाती फाग !!
नहीं सुहाती फाग,बुढउनू खांसि रहे हैं,
पोपले मुँह मा गुझिया, पापड़ ठांसि रहे हैं।
अखर रहे पकवान,नीकि ना लगै रंगोली।
चूनर लेती जान, कहे आई अस होली।।
 इस हुड़दंग से  अलग संतोष त्रिवेदी के गुरुजी को अपना मनपसंद विषय मिल गया तो उस पर उन्होंने अपनी राय ठेल दी और सेक्स की सही उम्र की जानकारी दे दी!

उधर डा.दराल को  ब्लॉग लिखने के लिये आइडिया ही नहीं मिल रहा वे लिखते हैं:
जोर लगाने पर भी कोई आइडिया नहीं आ रहा जिस पर कुछ लिखा जाये। ठीक वैसा हाल है जैसा  किसी प्रोस्टेट के मरीज़ का होता है कि पेशाब करने के लिए  जितना जोर लगाओ उतना ही अवरुद्ध होता है।
हमारी शिकायत इससे एकदम उलट रहती है। हमारे पास इत्ते आइडिया रहते हैं कि उन पर अमल न होने पर वे भुनभुनाते रहते हैं और कहते हैं:
 हम पर फ़ौरल अमल किया जाये। आप हमारे सेवक हैं। अगर हम पर अमल न हुआ तो हम फ़ौरन अनशन पर बैठ जायेंगे। आमरण अनशन कर देंगे।
 वैसे ब्लॉग और फ़ेसबुक की रगड़-घसड़ पर कल ही हमारे फ़ेसबुक मित्र अजय त्यागी ने अपनी दीवाल पर लिखा:
ये ब्लाग वाले फेसबुक वालों की लाईक-कामेंट संपन्नता देख-देखकर इतना जलते क्यों हैं। जब देखो कोई ना कोई पीछे पडा रहता है.....:)
 वैसे खुशदीप ने एक डायनासोर की डरावनी फोटू अपने ब्लाग पर लगाकर स्टेटस लिखा था:
हिंदी ब्लॉगर और डॉयनासोर...कुछ कुछ मिलता ही मामला है...जब डॉयनासोर्स ने बढ़ते बढ़ते अति कर दी थी तो दुनिया से विलुप्त हो गये...बस उनके जीवाश्म (फॉसिल) ही रह गए...कहीं ब्लॉगर्स के साथ भी तो ये नहीं हुआ...

लेकिन अपन को ब्लॉग और फ़ेसबुक की लड़ाई नहीं करवानी। सो अपने न दोनों का गठबंधन करा दिया और ब्लॉग के कमेंट फ़ेसबुक पर तथा फ़ेसबुक के ब्लॉग पर जाने की सुविधा लगा ली। धन्यवाद रवि रतलामी और हमारे दफ़तर के सुबि सैमुअल जिनके प्रताप से यह सुविधा लग गयी।

मेरी पसंद

घोसले में आई चिड़िया से
पूछा चूजों ने,
मां आकाश कितना बड़ा है?

चूजों को 
पंखों के नीचे समेटती
बोली चिड़िया
सो जाओ
इन पंखों से छोटा है।

-रामकुमार तिवारी

और अंत में

आज के लिये फ़िलहाल इतना ही। बाकी फ़िर जब मन आयेगा। तब तब मजा करिये।

नीचे का चित्र देवेंद्र पांडेय 'बेचैन आत्मा’ के ब्लाग से। इसका परिचय देते हुये लिखते हैं:
सूर्योदय का समय है। एक आदमी बैठकी लगा रहा है। एक ध्यान मग्न है। एक जाल समेट रहा है, पंडित जी गंगा स्नान को जा रहे हैं और एक स्त्री घाट किनारे बैठी है। दूसरा चित्र और उसका विवरण उनके ब्लॉग पर देखिये।

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शुक्रवार, मार्च 22, 2013

हिंदी ब्लॉगिंग कुछ इधर-उधर से

चिट्ठाचर्चा कभी हमारी मनपसंद कारगुजारी होती थी नेट पर। है तो अभी भी लेकिन इस कारगुजारी के लिये समय नहीं निकलना मुश्किल हो गया है। बीच-बीच में शुरु करते हैं बंद कर देते हैं। तय करते हैं कि नियमित  करेंगे लेकिन फ़िर अनियमित हो जाते हैं। मेरी दो टकियों की नौकरी में लाखों की चर्चा जाये टाइप। अब सोचते हैं कि बिल्कुल अनियमित चर्चा करेंगे।


चिट्ठाजगत के शुरुआती दौर में चहल-पहल बहुत थी। किसी बड़े घर के आंगन के तरह से सुबह से ही गुलजार हो जाता था चिट्ठाजगत का आंगन। जीवंत, कलरव,कलह, टिप्पणी फ़ुटौव्वल, सुलह मरहम। तब संकलकों की बड़ी भूमिका थी चिट्ठों के बारे में जानकारी देने में।  बीते दिनों को याद करते हुये चंद्रभूषण पूछते हैं-क्या हिंदी ब्लॉगिंग दोबारा जिंदा हो सकती है  पुराने दिनों को याद करते हुये वे लिखते  हैं:
पांच-छह साल पहले अचानक ऐसा हुआ कि हिंदी की सबसे अच्छी चीजें ब्लॉग पर ही पढ़ने को मिलने लगीं। कंटेंट और भाषा,  दोनों स्तरों पर इतनी ताजगी कि जादू सिर चढ़ कर बोलता था। उन्हीं दिनों देखादेखी मैं भी लिखने वालों में शामिल हुआ। बिल्कुल स्पॉन्टेनियस ढंग से कुछ चीजें लिखीं और इसमें भी उतना ही मजा आया, जितना पढ़ने में आता था।
 आज के हाल भी बयान किये चंदू जी ने:
पिछले साल के मध्य में थोड़ा-बहुत सोशल साइटें देखने की फुरसत और हिम्मत मिली तो दिखा कि खेल का मैदान बदल चुका है। जिन भी ब्लॉगरों के लिंक मेरे पास थे, उनपर नई चीजें बहुत ही कम आ रही थीं। उन्हें फिर से पढ़ पाने की चाहत में फेसबुक पर गया, जहां उनकी सक्रियता की खबरें मिल रही थीं। टेक्नोसैवी मैं हूं नहीं, लिहाजा देख पाने की सीमा है, लेकिन पता नहीं क्यों फेसबुक के साथ मेरी रसाई बिल्कुल ही नहीं हो पाई है।
आखिर में उनका सवाल है:
हालत यह है कि लगभग सभी नामी अखबार और पत्रिकाएं अपने ऑनलाइन एडिशन में चर्चित लेखकों को ब्लॉगर की शक्ल में ही पेश कर रही हैं- हालांकि जेनुइन ब्लॉग कंटेंट के आसपास भी ये नहीं पहुंचते। जानना चाहता हूं कि क्या हिंदी ब्लॉगिंग अब खत्म हो चुकी है।
और लोगों की टिप्पणियों के अलावा रवि रतलामी की टिप्पणी है :
ब्लॉगिंग तो कभी मरी ही नहीं थी, तो फिर से जिंदा होने का सवाल कहाँ से उठता है.
ब्लॉगिंग सदा सर्वदा की तरह फल फूल रही है. यहाँ देखें -
http://www.haaram.com/Default.aspx?ln=hi 
अब जब ब्लॉगिंग धड़ल्ले से हो रही है तो अपन सोचते हैं कि उसकी चर्चा भी होनी चाहिये-भले ही गाहे-बगाहे। है कि नहीं।
अब चर्चा की शुरुआत कर रहे हैं तो हिन्दी ब्लॉगिंग के मार्निंग ब्लॉगर ज्ञान जी से ही काहे न की जाये। पांच साल पहले ज्ञानजी पर लिखी पोस्ट का शीर्षक था- ज्ञानजी हिंदी ब्लॉग जगत के मार्निंग ब्लॉगर हैं । आज पांच साल बाद भी ज्ञानजी अपना जलवा बरकरार रखे हैं और सुबहिया पोस्टें ठेलते हैं। नया कैमरा ले किये हैं तो अब खरपतवार के फ़ोटू भी लेना शुरु किये हैं! आप भी देखिये ताजी पोस्ट का एक ठो फ़ोटू।


इससे एक बार फ़िर साबित हुआ कि अच्छा कैमरा हाथ आते ही लोग कूड़ा फ़ोटू खैंचने लगते हैं।

अच्छे भले लड़के कैसे कविता और बाद में कैसे ब्लॉगिंग की तरफ़  उन्मुख होते हैं यह पता चलता है देवांशु की दो साला पोस्ट से। अगड़म-बगड़म-स्वाहा पर पोस्ट पूरे उन्नीस दिन बाद आई। लेकिन इसको पढ़ने से पता चलता है किन-किन लोगों का हाथ रहा है इनको ब्लॉग की दुनिया में लाने और बनाये रखने में। वे लिखते हैं:
ब्लॉग की दुनिया में पंकज बाबू हमें लेकर आये | हालांकि पंकज हमारे ही शहर से हैं, पर उनसे पहली मुलाक़ात कोलकाता में हुई | फिर वो मुंबई चले गए और मैं बंगलोर | पंकज के दो कॉलेज फ्रेंड मेरे साथ मेरे ही प्रोजेक्ट में थे | उनमें से एक पवन बाबू से पता चला कि पंकज साहब भी कॉलेज के पहले से  लिखते आये थे | उनकी एक डायरी थी जिसे कॉलेज में “ज़हर की पोटली"  कहा जाता और पंकज जैसे ही उसे लेकर आते बोला जाता “आओ डसो" | 
[DSC00524%255B3%255D.jpg]
देवांशु की इस पोस्ट में ब्लॉग जगत के सक्रिय और शरीफ़ माने जाने वालें ब्लॉगर हैं। खतरनाक कहने में खतरा सो न कहेंगे लेकिन एक-एक करके उनके ब्लॉग का पता बता देते हैं। बायें से पहली हैं सोनल रस्तोगी।  छोटी-छरहरी पोस्टों में अपनी बात कहने वाली सोनल छुटकी कविताओं और एकबार में पढ़कर तारीफ़ करने लायक कहानियों में अपनी बात कहती हैं। कविताओं में जो होता है सो आप देखें लेकिन कहानियों में कुछ न कुछ शरारत जरुर रहती है। ताजी पोस्ट में कविता है सो देखिये उसका अंश:
जागा हूँ उस दिन से
पलक भी झपकी नहीं
के तुम लौट ना जाओ
खडका कर कुण्डी कहीं
आहट सुनना चाहता हूँ
तुम्हे छूना चाहता हूँ
कहते है राख से भी
जन्म जाते है लोग
गर पुकारो दिल से
इस कविता से ही पता चलता है कि कवि रहे भले सिटकनी वाले घरे में लेकिन कविता में कुण्डी ही लगायेगा।
बायें से दूसरी अनु् सिंह चौधरी घुमन्तू और संस्मरण उस्ताद हैं। आसपास की घटनाओं को अपने संवेदनशील नजरिये   से देखने वाली। उनकी सबसे ताजी पोस्ट का शीर्षक ही उनकी पूरी बात बयान करता है- बोए जाते हैं बेटे, उग आती हैं बेटियां। देखिये इसका अंश:
बेटे पढ़ानेवाले, क्या तेरे मन में समाई
काहे ना बेटी पढ़ाई तूने...

बेटे को दिया तूने तख़्ती और बस्ता
बेटी ने गठरी उठाई
पोस्ट पूरी पढी जानी चाहिये सो आप पहुंचिये यहां। देवांशु के ब्लॉग की तीसरी फोटो है लंदन निवासी प्रवासी ब्लॉगर शिखा वार्ष्णेय की। उनकी तारीफ़ क्या करें उनके बारे में सब लोग जानते होंगे। हाल ही में लेखनी सानिध्य में रहीं और उसके किस्से कम बयान किये फ़ोटू ज्यादा लगाये।
उसई ऊपर वाले फ़ोटू में चौथे कलाकार हैं अभिषेक बाबू। हम मिले तो नहीं इनसे लेकिन लगता है सबसे शरीफ़ इस फोटू में अभिषेक ही हैं। प्रेम कहानी बहुत लिखते हैं। इस बार पर हम कोई टिप्पणी नहीं करेंगे लेकिन अच्छा लगता है उनकी कहानियां पढ़ना। सबसे ताजी कहानी आप भी प्रेम रस में पगी है। देखिये बयान:
कुछ आज से पांच साल पहले तक तुम्हारे लिखे खत मुझे मिलते रहे..अब नहीं मिलते तुम्हारे खत मुझे..ये एक तरह से अच्छा भी है..क्यूंकि तुम्हारे खत पढ़ के मैं उन रास्तों पे चलने लगता हूँ जहाँ खुद को तुम्हारे और करीब पाता हूँ..जहाँ तुम और ज्यादा मेरे अंदर बस सी जाती हो..लेकिन शायद अब समय है की उन रास्तों पे आगे न बढूँ..तो ऐसे में ये अच्छा ही है की तुम्हारे खत नहीं मिलते हैं मुझे अब.
अब नायक को समझना चाहिये कि पांच साल पहले का जमाना और था और आज का जमाना और। अब एस.एम.एस., चैटिंग के जमाने में कहां प्रेम पत्र। नायिकायें भी आधुनिक होंगी की नहीं।

अब देखिये मजाक-मजाक में इत्ते चिट्ठों का जिक्र हो गया। करना तो और चाहते थे लेकिन समय मुआ मौका नहीं देता। सो चलना पड़ेगा जी। लेकिन चलते-चलते एक समाचार सुनते चलिये। कविता वाचक्नवी जी को भारतीय उच्चायोग, लंदन द्वारा "आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी पत्रकारिता सम्मान" से सम्मानित किया गया। उनको बहुत-बहुत बधाई। कविता जी चिट्ठाचर्चा मंच से बहुत दिन तक जुड़ी रहीं। तमाम बेहतरीन चर्चायें की उन्होंने। चिट्ठाचर्चा की हजारवीं पोस्ट उन्होंने ही लिखी थी-गर्व का हजारवाँ चरण : प्रत्येक ज्ञात- अज्ञात को बधाई

कविता जी को बहुत-बहुत बधाई। आगे और सम्मान मिलने के लिये मंगलकामनायें।
Photo: मार्च 19, 2013 की सायं भारतीय उच्चायोग, लन्दन के भारत भवन (INDIA HOUSE) में ब्रिटेन में भारत के राजदूत डॉ. जैमिनी भगवती जी के हाथों "आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी पत्रकारिता सम्मान" ग्रहण करते हुए। चित्र में पीछे खड़े हैं उच्चायोग में भारत के मंत्री (समन्वय) श्री सु. सिद्धू जी।



आज के लिये फ़िलहाल इतना ही। बाकी फ़िर कभी।
आपका दिन चकाचक बीते। शुभकामनायें।

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