रविवार, दिसंबर 30, 2012

मेरी दीदी बहुत बहादुर थीं

मेरी दीदी बहुत बहादुर थीं, हमेशा कहतीं थीं कि एक दिन डॉक्टर बनूंगी। झूठ और जुल्म से उन्हें सख्त नफ़रत थी।
दिल्ली गैंगरेप की शिकार हुई लड़की के बारे में उसकी चचेरी बहनों ने  य बताते हुये गुस्से में कहा- सभी आरोपितों की सजा है कि उनको सीधे आग में जला देना चाहिये।

उ.प्र. के बलिया जिले के नरही क्षेत्र के एक अति पिछड़े गांव में रहने वाले पीड़िता के पिता ने अपनी बेटी की पढ़ाई के लिये पैसे कम पड़ने पर  बिहार में अपनी ननिहाल में मिली ड़ेढ़ बीघे जमीन बेंच दी। किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जिस बेटी के लिये चार महीने पहले पिता ने कहा था कि गांव को एक डॉक्टर देने की उम्मीद पूरी कर रहा हूं, उसका यह हश्र होगा। 

दामिनी, अमानत और कई नामों से पुकारते हुये मीडिया ने बताया कि उस बहादुर बच्ची ने होश में आते ही अपनी मां से पूछा था - वे पकड़े गये क्या?

वह जीना चाहती थी। लेकिन वावजूद अपनी जिजीविषा के वह मौत से मुकाबला हार गयी।आज सुबह उसका अंतिम संस्कार हुआ।

टीवी पर उसके अंतिम संस्कार की खबर के साथ ही यह खबर भी आ रही है कि दिल्ली में एक नाबालिग से छेड़छाड़ हुई। पश्चिम बंगाल में 45 साल की एक महिला की गैंगरेप के बाद हत्या कर दी गयी। दिल्ली में एक बरेली का आदमी भूख हड़ताल पर है। जया बच्चन और शबानी आजमी की भावुक होने की खबरें आ रही हैं।

माननीया प्रिा पाटिल अपने बचाव के लिये लड़कियों को जूडो-कराटे सीखने की सलाह दे रही हैं। वहीं  एक महानुभाव बयान दे रहे हैं- (बलात्कार से बचने के लिये ?)लड़कियों को स्कर्ट की जगह जींस-पैंट पहनना चाहिये।  माननीया की सीख है -अपने बचाव के लिये समर्थ बनो, हमला करना  सीखो। वहीं  महानुभाव का विचार है- बचना है तो अपने को सुधारो वर्ना हमें दोष मत देना। 

दिल्ली गैंगरेप की शिकार पीड़िता की  हालत सुधरने , स्थिर होने  और बिगड़ जाने की खबरें मीडिया चैनलों में आतीं रहीं। घटना के विरोध में आक्रोशित युवाओं का स्वत:स्फ़ूर्त आंदोलन, धरना, प्रदर्शन, पुलिसिया बहादुरी और राजनीति की खबरें भी। लोगों के बचकाने बयान भी आये। शर्मिंदगी, बयान वापसी और माफ़ीनामा भी हुआ।

पीड़िता को  इलाज के लिये  सिंगापुर ले जाने के  निर्णय की भी आलोचना ही हुई। तालिबान के खिलाफ़ आवाज उठाने वाली पाकिस्तान की बहादुर बच्ची मलाला युसुफ़जई का कहना है- बलात्कारियों ने उसको सड़क पर फ़ेंक दिया। सरकार ने उसको सिंगापुर में फ़ेंक दिया। दोनों में क्या अंतर है?

ब्लॉगजगत में भी इस घटना की व्यापक प्रतिक्रिया हुई। लोगों ने अपना आक्रोश व्यक्त किया। अपने स्टेटस पर काला गोला लगाया है। लेख , कवितायें लिखी हैं। फ़ेसबुक पर हुये कवरेज के असर के बारे में भी लिखा गया है। अनामी शरण बवाल ने अपने ब्लॉग पर -दिल्ली सामूहिक बलात्कार: दस अहम घटनाक्रम बताये हैं। राकेश झुनझुनवाला ने अपने ब्लॉग पर   बलात्कार से बचाव के तरीके  बताये हैं।


युवा पत्रकार लेखिका स्वाति अर्जुन ने अपनी भावनायें व्यक्त करते हुये संकल्प लिया- मैं उस घाव को नासूर नहीं बनने दूंगी।


छम्मकछल्लो ने  अपना आक्रोश जाहिर इस तरह जाहिर किया:
अब हम थक गए हैं अपने लिए बचाव करते-कराते।

अब हम भी मानते हैं, हम हैं सबसे दोषी।
हे इस समाज के इतने महान विचारक,
नियामक
एक ही उपाय कर दें आपलोग,
निकाल दें ऐसा कानून,
जुर्म है बेटियों का पैदा होना,

उससे भी बड़ा जुर्म है उसके माँ-बाप का
उसे धरती पर लाने का दुस्साहस करना
आप हे हमारे माई-बाप!
घोषित कर दें पैदा करना बेटियों को
है रेयरेस्ट ऑफ रेयर जुर्म!

प्रवीण शाह ने अपना संकल्प बताते हुये लिखा:
तंद्रा से झकझोर कर अब
सब को जगा गयी है तू
तेरे जाने का दुख तो है
पर है यह दॄढ़ निश्चय भी
आगे ऐसा नहीं होने देंगे
कर हम पर भरोसा, लड़की

बचकुचनी ने पीड़िता की स्थिति के बारे में सोचते हुये अपनी सोच बतायी- अपने बच्चों को चाहे वह बेटा हो या बेटी, इंसान बनाने का समय है-यही एक अंतिम रास्ता है  जो हमें इस डर से आजाद करा सकेगा।

विष्णु वैरागी जी ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये लिखा:

मैं मूलतः आशावादी आदमी हूँ। किन्तु ‘अति आशावादी’ नहीं। आज जो कुछ अखबारों में और समाचार चैनलों में नजर आ रहा है, वह मुझे ‘अति आशावाद’ ही लग रहा है। इसमें भी जो चिन्ताजनक बात मुझे लग रही है वह है - दूसरों से आशा/अपेक्षा। कोई नहीं कह रहा कि वह खुद कुछ करेगा। हर कोई ‘चाहिए’ की भाषा प्रयुक्त कर रहा है। इसी से मुझे परेशानी हो रही है।
 उन्होंने अपना संकल्प भी बताया: 
दूसरे क्या करें, क्या न करें, इस पर तो मेरा कोई नियन्त्रण नहीं। इसलिए अपने स्तर मैं संकल्प ले रहा हूँ कि मैं अपने मन में दामिनी की मौत को मरने नहीं दूँगा। खुद के स्तर पर, अपने परिवार के स्तर पर वह सब करूँगा जिससे फिर किसी दामिनी को ऐसी मौत न मरनी पड़े।
लाल्टू ने अपनी छब्बीस साल पुरानी कविता पोस्ट की जिसमें उन्होंने आशा की है:
हर शोषित की तरह

तुझे भी पता है

कि यह सब बदलेगा

किसी दिन

तू बाजारों में पत्रिकाओं के

मुख-पृष्ठों पर और

रसोइयों में मिट्टी के तेल की

आग से

मरेगी नहीं
वरिष्ठ लेखिका और स्तंभकार ने सुधा अरोड़ा ने बहादुर बच्ची  प्रति अपनी भावनायें  व्यक्त करते हुये लिखा:
आओ, हम तुम्हें विदा देते हुए शपथ लें
कि चुप नहीं बैठेंगे अब
इस दबे ढके इतिहास के काले पन्ने फिर खोलेंगे
अब हम आंसुओं से नहीं, अपनी आंख के लहू से बोलेंगे!
हत्यारों और कातिलों की शिनाख्त से मुंह नहीं फेरेंगे!
अपने नारों को समेट सिरहाना नहीं बनाएंगे,
नये साल की आवभगत में गाना नहीं गाएंगे!
आखिर तुम्हें हम क्या मुंह दिखाएंगे!
बस, अब और नहीं, और नहीं, और नहीं!
जंग जारी है, रहेगी! 
कुमारेंद्र सिंह सेंगर ने अपने भाव व्यक्त करते हुये लिखा:
पीड़ा किसी की भी हो; मृत्यु किसी की भी हो, हमें इंसान होने के नाते दर्द होना चाहिए, हमारी संवेदनाओं को जागना चाहिए। यदि हम सभी आज मोमबत्तियाँ जलाते हुए वास्तविक रूप में जागरूक हैं तो हमें उस पीड़ित लड़की की मृत्यु के बाद सोने की आवश्यकता नहीं। उसकी वेदना को हमें शिद्दत से महसूस करना होगा। सोशल मीडिया पर अपनी फोटो को काला कर लेने से, चन्द कालापन शेयर कर देने भर से न तो उसको न्याय मिलेगा और न उन पीड़ित लड़कियों को न्याय मिलेगा जो हमारे आसपास अपनी पीड़ा को लिए जी रही हैं। अब जरूरत मोमबत्तियाँ जलाकर औपचारिकता निर्वहन की नहीं वरन् स्वयं को मशाल बनाकर अपनी बहिन-बेटियों-माताओं के कष्ट, पीड़ा को जला देने की जरूरत है। काश! हम सब वाकई जागरूक हो पायें।
जनसंस्कृति मंच की ओर से राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण ने श्रद्धांजलि दी- शरीर के खत्म हो जाने के बाद भी वह इसी नई चेतना, नए संघर्ष और अथक संघर्ष की 'प्रेरणा' बनकर हम सबके दिलों में, युवा भारत की लोकतांत्रिक चेतना में सदा जीती रहेगी।

अंकुर जैन अपने लेख हे पुरुष यह आत्ममंथन का वक्त है में नारी से भी आत्ममंथन का आह्वान करते हैं और कहते हैं:
 गर स्त्री, स्त्री बनी रहे तो इस प्रकृति की फ़िजा को बदलने से कोई नहीं रोक सकता। बस, वह याद रखे कि उसे अपने सशक्तिकरण के लिए कतई पुरुष बनने की ज़रुरत नहीं है, उसे अपने शील को मर्द की भांति दो टके का बनाने की कोई ज़रुरत नहीं है क्योंकि वो अपने आप में एक सुंदर व्यक्तित्व है जो पुरुष से कई बेहतर है। दामिनी की मृत्यु आंदोलन से ज्यादा, आत्ममंथन की मांग कर रही है.............
अमलेन्दु उपाध्याय का मानना  हैं-
 बलात्कार किसी खास किस्म की यौन विकृति का परिणाम भर नहीं है बल्कि यह महिलाओं के खिलाफ समाज में जारी आम हिंसा का ही चरम रूप है।
उन्होंने बलात्कार की कड़ी सजा के एक और पहलू की तरफ़ इशारा करते हुये  लिखा: 
  ऐसी सख्ती की तलवार अधिकांशतः उन्ही भटके हुए लोगों पर और बहुधा एकदम मासूम लोगों पर वार करती है जो कमजोर आर्थिक या सामाजिक पृष्ठभूमि से आये होते हैं।


दबंग- 2 के इस हिट गाने  से अपनी बात शुरु करते हुये इस  दुर्घटना के कारणों की पड़ताल करते हुये खुशदीप ने लिखा:
इसमें कोई शक-ओ-शुबहा नहीं कि महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध घर में हो या बाहर, दोषियों को सख्त से सख्त सज़ा मिलनी चाहिए...लेकिन बात यही खत्म नहीं हो जाती है...हमें विचार इस बात पर भी करना है कि हमारे समाज का एक हिस्सा गर्त में जा रहा है तो उसके लिए ज़िम्मेदार कौन है...हमें समस्या के सिर्फ एक कोण से नहीं बल्कि समग्र तौर पर निपटने के लिए प्रयास करने चाहिएं...

इसके पहले अजित गुप्ताजी ने इस मसले के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करते हुये सुझाया:
मनोरंजन के नाम पर हो रहे भड़काऊ प्रदर्शन पर तत्‍काल रोक और संस्‍कार देने का कार्य भी तीव्रता से होना चाहिए। परिवारों को अपने बिगडैल नौनिहालों के प्रति सावचेत होना चाहिए। प्रशासन में घटती जिम्‍मेदारी पर विचार होना चाहिए। महानगर और गाँव की जनसंख्‍या के संतुलन पर भी चर्चा होनी चाहिए।

आगे उन्होंने चेतावनी भी दी :
जब तक सम्‍पूर्ण देश एकसाथ उठ खड़ा नहीं होगा, तब तक इस देश का भविष्‍य ऐसे ही खतरों से जूझता रहेगा। युवापीढ़ी क्रान्ति का बिगुल बजा रही है, लेकिन उसे पथ का मालूम होना चाहिए, पाथेय भी मिलना चाहिए और मंजिल का ठिकाना भी। नहीं तो यह युवाशक्ति भी एक अनियंत्रित भीड़ में बदल जाएगी।
प्रसिद्ध  पत्रकार , कहानीकार दयानंद पाण्डेय ने इस मसले पर राजनीति करने वालों को चेताते हुये कहा:
राजनीतिक पार्टियों के दुकानदार और यह सरकारें, कार्यपालिका और न्यायपालिका भी होश में आ जाएं। नहीं जनता अभी तक तो सिर्फ़ बलात्कारियों को मांग रही है, बेटी को इंसाफ़ देने के लिए। कल को आप राजनीतिक आकाओं को भी बस मांगने ही वाली है। फिर तो यह पुलिस, यह सेना सब इस जनता के साथ में होगी, आप की सुरक्षा में नहीं। जनता को इस कदर बगावत पर मत उकसाइए। इस अनाम बेटी की शहादत, जिस की मिजाजपुर्सी में समूचा देश खड़ा हो गया, खुद-ब-खुद, यही कह रही है। आंदोलनों के लिए लाक्षागृह बनाने से बाज़ आइए।  नहीं जनता, यह व्यवस्था बदलने को तैयार खड़ी है।
 गिरिजेश राव ने अपने भाव व्यक्त करते हुये लिखा है:
शिल्पा मेहता ने दामिनी को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि देते हुये आह्वान किया है:
सभी मित्रों से प्रार्थना है --- कृपया एक जनवरी की तारीख को, नव वर्ष के अर्थहीन सुखमय गीतों के बजाय , बलात्कार सम्बंधित केसों की सुनवाई के लिए
*** अखिल भारतीय स्तर पर (सिर्फ फेमस हुए केस नहीं हर केस के लिए)
*** स्थायी तौर से 
*** "फ़ास्ट ट्रेक कोर्ट्स"
की मांग को लेकर पोस्ट लिखें ।


इसी पोस्ट पर मुक्ति का उद्घोष है: हम यहीं पैदा होंगे, जियेंगे और लड़ेंगे. उसकी मौत एक युद्धघोष है. एक शहादत है. हम रोयेंगे नहीं. दुखी नहीं होंगे. हम लड़ेंगे. हम रोज़ उसके दुःख को महसूस करेंगे और लड़ने के लिए प्रेरणा लेंगे. हम लड़ेंगे.

एक बहादुर बच्ची, जो  कि अब हमारे बीच नहीं रही, के प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त  कामना करता हूं

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मंगलवार, अक्तूबर 23, 2012

अधूरे सपनों की कसक

"मेरा डॉ बनने का जूनून उड़ान भरने लगा ,पर होनी कुछ और थी , मुझे दसवीं के बाद उस जगह से दूर विज्ञान  के कॉलेज में दाखिला के लिए पापा ने मना कर दिया | ये कह कर की  दूर नहीं जाना है पढने| जो है यहाँ उसी को पढो , और पापा ने मेरी पढ़ाई कला से करने को अपना फैसला सुना दिया | मैं  कुछ दिल तक कॉलेज नहीं गयी | खाना छोड़ा और रोती रही , पर धीरे -धीरे मुझे स्वीकार करना पड़ा उसी सच्चाई को |  "


"सपने देखने शुरू कर दिए मेरे मन ने .कई बार खुद को सरकारी जीप मे हिचकोले खाते देखा पर भूल गयी थी कि मैं एक लड़की हूँ ,उनके सपनो की कोई बिसात नही रहती ,जब कोई अच्छा लड़का मिल जाता हैं |बस पापा ने मेरे लिय वर खोजा और कहा कि अगर लड़की पढ़ना चाहे तो क्या आप पढ़ने  देंगे बहुत ही गरम जोशी से वादे किये गये ."


"जब बी ए  ही करना है तो यहीं से करो .. मैंने बहुत समझाया ...मुझे बी ए नहीं करना है वो तो एक रास्ता है मेरी मंजिल तक जाने का पर उस दिन एक बेटी के पिता के मन में असुरक्षा घर कर गई ..घर की सबसे बड़ी बेटी को बाहर  भेजने की हिम्मत नहीं कर पाए ...और मैं उनकी आँखे देखकर बहस "


"मुझे हमेशा से शौक था .... विज्ञान विषय लेकर पढ़ाई पूरी करने की क्यों कि कला के कोई विषय में मुझे रूचि नहीं थी ..... लेकिन बड़े भैया के विचारों का संकीर्ण होना कारण रहे .... मुझे कला से ही स्नातक करने पड़े ..... ऐसा मैं आज भी सोचती हूँ .... कभी-कभी इस बात से खिन्न भी होती है...."


"उन्हीं दिनों मेरे दादाजी घर आये हुए थे। कॉलेज  खुलने ही वाले थे, मेरे पिताजी ने दादा जी से भी विचार विमर्श  किया और दादाजी ने निर्णय सुना दिया गया कि कॉलेज नहीं बदलना है . उसी कॉलेज में आर्ट विषय लेकर पढ़ना है , मानो दिल पर एक आघात लगा था। कुछ दिन विद्रोह किया लेकिन बाद में उनका फैसला मानना ही पड़ा।  "


"न्यायाधीश की बेटी, और हर अन्याय के खिलाफ लड़ने का संकल्प धारण करने वाली लड़की अपने प्रति होने वाले इस अन्याय का प्रतिकार नहीं कर पाई और जीवन भर अपनी हार का यह ज़ख्म अपने सीने में छिपाये रही !"



रेखा श्रीवास्तव अपने ब्लॉग पर एक सीरीज अधूरे सपनों की कसक पढवा रही हैं . 
आप भी पढिये और सोचिये नर - नारी समानता आने में अभी कितनी और देर आप लगाना चाहते हैं . कितनी और बेटियों को आप अधूरे सपनों के साथ अपना जीवन जीने के लिये मजबूर करना चाहते हैं और कितनी बेटियों से आप ये सुनना चाहते हैं की नियति के आगे सब सपने अधूरे ही रहते हैं . 

बेटी के लिये विवाह कब तक कैरियर का ऑप्शन बना रहेगा . कब तक आप विवाह करके लडकियां सुरक्षित हैं हैं ये खुद भी मानते रहेगे और लड़कियों से भी मनवाते रहेगे . 




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शनिवार, अक्तूबर 20, 2012

अनाथालय, भाषा, तिलस्म और बहादुर मलाला

सुबह जुड़े नेट संसार से तो सबसे पहले संजीत की पोस्ट दिखी। फ़ेसबुक पर  सटाये थे। वे अपने पिताजी की पुण्य तिथि के मौके पर अनाथालय जाते हैं और वहां के बच्चों को नास्ता-भोजन करवाते हैं। पांच साल पहले की पोस्ट आज फ़िर पढ़ी। पोस्ट में अनाथालय के शुरु होने के पीछे के उद्धेश्य और आज की स्थिति के बारे में भी इशारा किया गया है:

 शुरुआत करने वाले तो एक बहुत अच्छी और निस्वार्थ भाव से शुरु करते हैं पर बाद मे उस काम को संभालने वाले अगर उसमे व्यवसायिकता और स्वार्थ का घालमेल कर दें तब???

उस समय के लोगों की टिप्पणियां बांची। दो टिप्पणियां आप भी देखिये:

ALOK PURANIK said...मार्मिक है जी, जो अच्छे काम दिल में आ रहे हैं फौरन कर गुजरिये।
 अच्छा मैने नोट यह किया है कि जब आप नजर का चश्मा लगाकर फोटू पेश करते हैं, तो पोस्ट बहुत सात्विक होती है।
जब धूप का चश्मा लगाकर पोस्ट लिखते हैं, तो खासी आवारगी भरी होती है। अगर चश्मे से इस तरह मनस्थिति में बदलाव आता हो, तो क्या कहने, यार ऐसे चार-चश्मे अपन को भी भिजवाओ ना। 
विनीत कुमार said...
बहुत अच्छा लगा पढ़कर,समझिए कि समाज की जिन गतिविधियों का विस्तार होना चाहिए था,निर्मम बाजार लील कर गया,अब तो डर है कि इस अनाथालय को किसी बहुराष्ट्रीय एनजीओ के हाथ न दे दिया जाए,संजीत भाई आप इस पर नजर बनाए रखेंगे और जरुरत पड़ी तो अपन कुछ लोग दिल्ली से भी चल पड़ेगे।
पांच साल पुरानी पोस्ट का लिंक फ़ेसबुक  लगा था सोचा ताजी है। लेकिन देखा तो पांच साल पुरानी दिखी। अच्छा लगा लेकिन यह भी फ़िर से पुख्ता हुआ कि फ़ेसबुक पर पुराना नया सब नया सा ही दिखता है। आपके लिये भले माल पुराना हो लेकिन वहां दिख तो नया रहा है। मतलब फ़ेसबुक के राज में नये की कोई गारंटी नहीं।

आज ललित कुमार ने अपने यहां समाज में भाषा के बदलते स्वरूप पर चर्चा की। उनका सवाल और  निष्कर्ष है:
 क्या “कमीना” जैसे शब्द के अधिकाधिक प्रचलन में आ जाने को हम हिन्दी भाषा की समृद्धि करार दे सकते हैं? मेरे विचार में ऐसा बिल्कुल नहीं है। शब्द तो पहले भी था और अब भी है। शब्द के मायने भी नहीं बदले हैं –केवल प्रयोग करने का तरीका बदल रहा है। सो इसे भाषाई विकास नहीं कहा जा सकता।
ललित कुमार आगे कहते हैं:
पश्चिमी समाज में “फ़क” शब्द के कम बुरे और बहुत बुरे अनेकों अर्थ हैं और यह बेतहाशा चलन में है। साहित्य और आम-बोलचाल का हिस्सा भी है। इसे दोस्त भी इसे प्रयोग करते हैं और दुश्मन भी। लेकिन अभिभावक और शिक्षक बच्चे द्वारा इस शब्द के प्रयोग किए जाने पर हर बार उसे टोकते हैं। पश्चिमी समाज पचास बुराईयों में गिरने के बाद उनसे निकलने की कोशिश कर रहा है और हम हैं कि आधुनिकता के नाम पर उन्हीं बुराईयों की नकल कर रहे हैं।
इस दो अक्षरी शब्द के प्रचलन के बारे में न जाने क्या सामाजिक-भाषाई कारण होंगे । मुझे एक कारण यह लगता है कि  यह समाज की हड़बड़ मानसिकता का परिचायक है। हर काम फ़टाफ़ट निपटा देने की मन:स्थिति का ।

नश्तर..फ़ेसबुक पर ही आराधना जी का स्टेटस देखा तो पता उन्होंने के कविता लिखी है:

वो भरती है शब्दों के प्यालों में दर्द
फिर उसे छूकर अमृत बना देती है...
वो हँसती है
परियों की शहजादी सी
उड़ जाती है,
फिर आकर बैठती है
आँखों की मुंडेरों पर
बनकर मीठे आँसू,

वो कविताएँ पिरोती है
मोतियों की माला सी,

जो कभी गिरकर बिखर जाय उसकी कविता
हर एक शब्द से एक नयी कविता बन सकती है।

(प्यारी बाबुषा के लिए)
अब बाबूषा के बारे में खोजने निकले तो आवेश तिवारी की पोस्ट दिखी। देखिये वे क्या लिखते हैं बाबूशा के बारे में:
आप उन्हें तिलिस्म कह सकते हैं, हाँ तिलिस्म ही तो हैं ! जबलपुर के एक स्कूल में पढ़ा रही बाबुशा कोहली को जब कभी मैं देखता हूँ तो मुझे बार-बार लगता है कि जब ये छोटी रही होंगी तो इनके मुंह में अक्सर स्याही लग जाती होगी | खैर कलम और स्याही से इनकी दोस्ती है भी कमाल की | कभी कभी इन्हें पढ़ते वक्त यूँ लगता है जैसे भोर में रुद्राभिषेक सुन रहा होऊं या फिर बिस्मिल्ला खान फिर से जीवित होकर गंगा के किनारे शहनाई बजा रहे हों | बाबुशा अपनी कविताओं में जितनी सहजता से हमसे  आपसे या किसी से बात करती हैं उतनी ही सहजता से प्रकृति और ईश्वर से भी संवाद करती हैं | आप जब कभी उनसे या उनकी कविताओं से बात करेंगे तो मुमकिन है आप कविता पढने के बाद सिर्फ और सिर्फ ख़ामोशी को सुनना पसंद करें | 
  बाबूशा की कवितायें और कई जगह मिलीं। उनक ब्लॉग दिखा नहीं। तिलस्म! शायद सीमित पाठकों के लिये है। उनके कुछ डिब्बाबंद ख्याल देखिये:
  1. ज़्यादातर स्त्रियों की नहीं होतीं ,
    आँखें ,कान या नाक -
    वे होती हैं 
    मात्र  गहरी -अंधी सुरंगें !
  2. गाय पॉलीथीन खा गयी 
    आदमी सूअर खा गया 
    औरत खा गयी 
    अपना ही गुलाबी कलेजा -
    हर कोई  खुद को मारने पर उतारू था !
  3. मैं फ़्रांस हूँ और यह असंभव है कि मैं कभी साइबेरिया हो जाऊं !
    मेरे गुम्बदों पर सोने के तार जड़े हुए हैं और मेरे अस्तित्व पर बर्फ नहीं गिरती .
    मेरा हर श्वास नूतन है
    विश्व के कुछ हिस्सों के लिए प्रेरक
    कुछ के लिए घातक हूं मैं
    मेरे प्रति तटस्थ दृष्टिकोण रखना असंभव है!  
     

 आज की तस्वीर

मलाला ने आंखें खोलीं और मदद लेकर खड़ी भी हुई ।  अफ़लातून के स्टेटस से।
और अंत में 
कल की चर्चा में मेरी पसंद में जो कविता पोस्ट की थी उसने लोगों को उदास कर दिया। इसीलिये आज कविता नहीं । वैसे कल एक फ़न्नी बात यह हुयी थी कि कल चर्चा का शीर्षक था-टीवा न खोलने की हिदायत के बीच चर्चा   शाम को देखा तो टीवा को टीवी किया। टीवी और टीवा दोनों शरीफ़ हैं। कुछ बोले नहीं। इस पर अपना ही एक लेख याद भी आया-छोटी ई, बड़ी ई और वर्णमाला।  न पढ़ा हो तो पढिये हिम्मत करके। बुरा नहीं लगेगा। 
आज के लिये फ़िलहाल इतना ही है। बाकी के लिये फ़िर कभी। ठीक है न!
 

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शुक्रवार, अक्तूबर 19, 2012

टीवी न खोलने की हिदायत के बीच चर्चा

सबेरे-सबेरे चाय पीते हुये लैपटाप खोल के बैठे तो याद आया कि कल बेचैन पांडे जी की एक ठो कविता बांचने से रह गयी थी। सोचा आज ही निपटा दें। देखा तो हिदायत थी टी वी मत खोलना । पांडेजी कहिन थे कि टीवी खोलते ही भ्रष्टाचार, बलात्कार, हाहाकार दिखेगा। हम फ़ौरन खोले टीवी। एन.डी.टी.वी. खोले। उसकी दस खबरें थीं:
  1. पवार को बचा रहे हैं केजरीवाल-वाई पी सिंह
  2. केजरीवाल का सिंह के आरोपों से इन्कार
  3.  वाई.पी.सिंह ने लगाये पवार पर आरोप
  4. पवार परिवार को कौड़ियों के मोल जमीन
  5. पवार परिवार का आरोपों से इंकार
  6. टैजर आईलैंड में दिग्विजय सिंह पर आरोप
  7. दिग्विजय सिंह का आरोपों से इंकार
  8. बदायूं में अधिकारी को जिंदा जलाने की कोशिश
  9. रेलवे कर्मचारियों को 78 दिन का बोनस
  10. चंडीगढ़ में एस.पी.सिटी एक लाख की घूस लेते हुये गिरफ़्तार।
 अब बताइये भला इन रोजमर्रा की खबरों में  भ्रष्टाचार, बलात्कार, हाहाकार  दिख रहा है कहीं। इसीलिये कहा गया है कवि कल्पनालोक में जीते हैं। हम अगर पांडेजी की बात मानकर टी.वी. न खोलते तो गये थे काम से। ये दस सूचनायें पता न चल पातीं।

वाई.पी.सिंह को लगता है मीडिया अपना नया हीरो बनाना चाहती है कुछेक दिन के लिये। आखिरी की तीन घटनायें इस बात की तरफ़ इशारा करती हैं कि नौकरी में समूह में ही रहने में बरक्कत है। एस.पी.सिटी अपने जूनियर से घूस ले रहा था। उसको पुलिस ने पकड़ लिया। क्या इसे एक अधिकारी की निजता में उल्लंघन नहीं कहा जाना चाहिये। अधिकारियों पर उनके रोजमर्रा के काम करने में अड़चने लगायीं जायेंगी तो वे भला परफ़ार्म कैसे करेंगे।

दूसरे के इलाके में दखल देने का एक और नमूना देखिये । कवि अमित कुमार श्रीवास्तव की कल्पनायें क्या हैं:
मेरा फोटोकदम मेरे ,
आहट तेरी ,
नींदे तेरी,
ख़्वाब मेरे ,
इतनी ख्वाहिश बस |
मतलब देखिये कवि  के पास इत्ते इफ़रात ख्बाब हैं  कि  दूसरे की नींद में धर देना चाहता है। अगले की नींद न हो गयी कोई स्विस बैंक हो गयी। इनके ख्बाब न हुये इफ़रात पैसा हो गया जिसे कहीं धर देना है।

ऐसे ही एक और कविमना  शख्सियत  के के बयान देखिये:
My Photoमैं पागल होती जा रही हूँ. पागल दो तरह के होते हैं...एक चीखने चिल्लाने और सामान तोड़ने वाले...एक चुप रह कर दुनिया को नकार देने वाले...मुझे लगता है मैं दूसरी तरह की होती जा रही हूँ. ये कैसी दुनिया मेरे अन्दर पनाह पा रही है कि सब कुछ धीमा होता जा रहा है...सिजोफ्रेनिक...बाईपोलर...सनसाइन जेमिनी. खुद के लिए अबूझ होती जा रही हूँ, सवाल पूछते पूछते जुबान थकती जा रही है. वो ठीक कहता था...मैं मासोकिस्ट ही हूँ शायद. सारी आफत ये है कि खुद को खुद से ही सुलझाना पड़ता है. इसमें आपकी कोई मदद नहीं कर सकता है. उसपर मैं तो और भी जिद्दी की बला हूँ. नोर्मल सा डेंटिस्ट के पास भी जाना होता है तो बहादुर बन कर अकेली जाती हूँ. एकला चलो रे...
देश में सब लोग घपले/घोटाले की खबरें देखने में बिजी हैं। ऐसे में एक मिसिर जी हैं जो प्रधानमंत्री जी की चिंताओं की चिंता कर रहे हैं।  चिंता का नमूना आप भी देखिये:
"अरे एक मसला कितने दिन बहस-प्रेमी जनता को बिजी रखेगा? और नया मसला खड़ा नहीं करेंगे तो जनता को भी नहीं लगेगा कि सरकार काम कर रही है। वहीँ फिनांस मिनिस्टर को देखो, उन्होंने ऍफ़ डी आई का मसला खड़ा करके कुछ तो राहत पंहुचाई। एडुकेशन मिनिस्टर पिछली बार आकाश टैबलेट के साथ दिखे थे। कितना पुराना मामला है। टैबलेट फेल हो गया, इम्प्रूव्ड आकाश आने का समय हो गया लेकिन एक भी नई फोटो दिखाई नहीं दी उनकी।" 
अभी-अभी खबर मिली है कि इन सब चिंताओं से भी बड़ी एक चिंता और  सामने आ कर खड़ी हो गयी है। पता चला है कि भारत के क्रिकेट खिलाड़ी चल नहीं पा रहे हैं। कोई भी खिलाड़ी न टिक पा रहा है।न चल पा रहा है। अब मीडिया वालों से कोई पूछे कि दोनों शिकायतों का मतलब क्या है भाई। एक तरफ़ कहते हो टिको। दूसरी तरफ़ कहते हो टिको।

लेकिन एक बात समझ में नहीं आती कि खिलाड़ी जब चल नहीं पाते तो दौड़ने-भागने वाला खेल खेलने के लिये उनको चुना काहे के लिये जाता है।

मेरी पसंद
सुनीता सनाढ्य पाण्डेय
वह फटी फ़्राक वाली लड़की
जो उठाए  अपने सर पर
प्लास्टिक का चमकता हुआ खिलौना टेंट-हाउस 
चली जा रही है
अपने खस्ता हाल टेंट  को
जिसे वह अपना घर कहती है

कल इसे बेचने की कोशिश करेगी
ठीक उसी तरह जैसे आज उसने 
टेडी बियर बेचा था
कार मे बैठे अपने हम-उम्र के पापा को

बात दस  रुपये  की खातिर नहीं बन पा रही थी
फिर बनी ,वह हारी 
जीत कार वाले अंकल की ही हुई
भूख से रोते छोटे भाई का
चेहरा जो देख लिया था उस लड़की ने.....


और अंत में
अब क्या लिखें। देश के बारे में कुछ चिंता करने का मन था। लेकिन अब जाना है दफ़्तर। सो चलते हैं। तब तक आप संभाल लो देश के हाल। ठीक है न!

नीचे की फोटो उन्हीं बेचैन पांडेय जी के ब्लॉग से जिनकी बात से बात शुरु हुई थी।  फ़ोटो विवरण उधरिच पाइयेगा।


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गुरुवार, अक्तूबर 18, 2012

रियलिटी शो से करप्शन वैध बनता है

आजकल टेलिविजन वालों को अपना प्राइम टाइम और बहस टाइम का विषय खोजने के लिये पसीना नहीं बहाना पड़ता। उनका यह काम या तो खाप पंचायतें कर देती हैं या माननीय केजरीवालजी। प्राइम टाइम से जैसे जनता का मनोरंजन होता रहता है। केजरीवाल के खुलासों पर अपनी फ़ेसबुकिया राय रखते हुये जगदीश्वर चतुर्वेदी ने लिखा है- केजरीवाल तो समाचार चैनलों के रीयलिटी शो हो गए हैं।
आगे  अपने एक और स्टेटस में वे फ़रमाते हैं-  
कल से केजरीवाल एंड कंपनी के लोग फिर से टीवी चैनलों पर बैठे मिलेंगे और कहेंगे एक सप्ताह बाद हम फिर से फलां-फलां की पोल खोलने जा रहे हैं। गडकरी की पूर्व सूचना वे विज्ञापन की तरह वैसे ही दे रहे थे जैसे कौन बनेगा करोडपति का विज्ञापन दिखाया जाता है। कहने का अर्थ यह है कि केजरीवाल एंड कंपनी अपने प्रचार के लिए राजनीति कम और विज्ञापनकला के फार्मूलों का ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं। वे किसी एक मुद्दे पर टिककर जनांदोलन नहीं कर रहे वे तो सिर्फ रीयलिटी शो कर रहे हैं और हरबार नए भ्रष्टाचार पर एक एपीसोड बनाकर पेश कर रहे हैं। रियलिटी शो से करप्शन वैध बनता है।
जिस तेजी से केजरीवाल जी लोगों के काम उजागर कर रहे हैं उससे जो मुझे लगा वह मैंने कल अपने स्टेटस में लिखा:
केजरीवाल जी के काम करने के तरीके से पता चलता है कि वे पुराने नौकरशाह हैं। जैसे नौकरशाह रोज फ़ाइलें निपटाते हैं वैसे ही वे रोज एक नया घपला निपटा देते हैं।
 लगता तो मुझे यह भी है:
केजरीवाल जी और राजनीतिक पार्टियों में भाषाई मतभेद दिखते हैं। जिसको केजरीवालजी ’ राजनीतिक पार्टियों की मिलीभगत ’ मानते हैं उसे राजनीतिक पार्टियां शायद ’शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व’ मानती हैं।
तस्वीरये जो शांतिपूर्ण सह अस्तित्व वाली बात है वह अपने एक कार्टून में राजेश दुबे जी ने भी बयान की है देखिये। मजाक की बात से अलग से हटकर देखा तो समाजवादी चिंतक किशन पटनायक जी  भ्रष्टाचार की समस्या पर विचार करते हुये लिखा है:
  1. सिर्फ भ्रष्टाचार की विशेष घटनाओं के प्रति जन आक्रोश को संगठित किया जा सकता है , किसी एक घटना को मुद्दा बनाकर एक राजनैतिक कार्यक्रम चलाया जा सकता है , जैसे बोफोर्स , बैंक घोटाला इत्यादि । भ्रष्टाचार्करनेवाले व्यक्ति के विरुद्ध प्रचार अभियान चलाकर उसे थोडे समय के लिए बदनाम भी किया जा सकता है ।लेकिन इन कार्यक्रमों से भ्रष्टाचार का उन्मूलन नहीं होता । समाज , राजनीति ,और प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार इस तरह के आन्दोलनों के द्वारा प्रभावित नहीं होता है , ज्यों का त्यों बना रहता है ।
  2. ’भ्रष्टाचार – भ्रष्टाचार ’ चिल्लाने से उसमें कोई कमी नहीं आती । इसका मतलब है कि भ्रष्टाचार को नियंत्रण में रखनेवाली स्थितियाँ बिगड़ चुकी हैं और नियंत्रण करनेवाली व्यवस्था में बहुत खोट आ गई है । कभी – कभी भ्रष्टाचार की कुछ सनसनीखेज घटनाओं को लेकर जो भ्रष्टाचार विरोधी वातावरण बनता है या ’ लहर’ देश में पैदा होती है । उसका खोखलापन यह है कि उसमें सामाजिक स्थिति और नियंत्रण व्यवस्था की बुनियादी खामियों पर ध्यान नहीं जाता है । यहाँ तक कि मुख्य अपराधी को दंडित करने के बारे में गंभीरता नहीं रहती । वह सिर्फ एक व्यक्ति-विरोधी या घटना-विरोधी प्रचार होकर रह जाता है । कभी-कभी तो लगता है कि इस प्रकार के विरोधी प्रचार को चलाने के पीछे कुछ निहित स्वार्थ सक्रिय हैं । 
  3. भ्रष्टाचार को जड़ से समझने के लिए निम्नलिखित आधारभूत विकृतियों की ओर ध्यान देना होगा – (१) प्रशासन के ढाँचे की गलतियाँ । जवाबदेही की स्पष्ट और समयबद्ध प्रक्रिया का न होना , भारतीय शासन प्रणाली का मुख्य दोष है । (२) समाज में आय-व्यय तथा जीवन-स्तरों की गैर-बराबरियाँ अत्यधिक हैं । जहाँ ज्यादा गैर-बराबरियाँ रहेंगी , वहाँ भ्रष्टाचार अवश्य व्याप्त होगा । (३) राष्ट्रीय चरित्र का पतनशील होना ।
  4. भ्रष्टाचार की उत्पत्ति के अन्य बिन्दुओं पर सचमुच मूलभूत परिवर्तन यानी क्रान्तिकारी परिवर्तन की जरूरत होगी । आधुनिक समाज में आर्थिक गैर-बराबरी भ्रष्टाचार की जननी है । जैसे – जैसे गैर-बराबरियों के स्तर अधिक होने लगते हैं , उनके दबाव से निचले स्तरों के लोग वैध तरीकों से ही उच्च स्तर के जीवन तक पहुँचने की कोशिश कर पाते हैं । नई आर्थिक नीतियों के बाद आमदनियों की गैर-बरबरी बहुत बढ़ने लगी है । मध्य वर्ग में से एक ऐसा तबका तैयार हो रहा है,जिसका मासिक वेतन २० हजार रुपये से एक लाख रुपया होगा । इसका जो प्रभाव नीचे के स्तरों पर होगा , उससे जहाँ भ्रष्टाचार की गुंजाइश नहीं है , वहाँ अपराध की तीव्रता बढ़ेगी । 
किशन पटनायक जी का पूरा लेख आप यहां  बांच सकते हैं। इसी सिलसिले में प्रख्यात समाजवादी चिंतक कृष्णकांत की चिंता और चुनौती  क्या है देखिये :
सबसे बड़ी चुनौती यह है कि कोई चुनौतियों को देखता ही नहीं. सबसे बड़ी चिंता यही है कि कोई चिंतित ही नहीं है. छोटे-छोटे स्वार्थों के फेरे में ईर्ष्या और व्यक्तिवादी प्रवृत्ति हावी होती जा रही है.
 ऐसे कठिन समय में जब आम आदमी का जीना मुहाल होता जा कोई सपने कैसे देख सकता है। लेकिन रेखा श्रीवास्तव जी हैं जो लोगों को उनके सपने के बारे में बात करने के लिये उत्साहित कर रही हैं। उनके ब्लॉग पर कई साथी ब्लॉगर अपने सपने के बारे में बता चुके हैं। आज बारी है अंजू चौधरी की। वे अपने अधूरे सपने के बारे में बताती हैं:
पापा के गुज़र जाने के बाद एक अधूरी इच्छा मन में कहीं छिपी रही और वक्त के साथ मैं तो बड़ी हो गई और उसके साथ साथ मेरा सपना भी साल दर साल बड़ा होने लगा ...कि शायदा कोई होगा  जो कभी ना कभी उनकी जगह लेगा .....वो भाई हो ....पति हो या फिर कोई ऐसा दोस्त जो मुझे किसी भी रूप में अपना सके |

बाकी के सपने आप रेखा जी ब्लॉग पर देखिये। हमसे भी वे  अपने सपने के बारे में लिखने में अनुरोध, आग्रह,
फ़िर से आग्रह और अब धमकी तक दे चुकी हैं ( न लिखना हो तो बता दें) लेकिन हम अभी तक अपने सपने के बारे में लिख नहीं पाये। लिखेंगे तो न जाने कब लेकिन सपने के  नाम पर याद आई रमानाथ अवस्थी की कविता की पंक्तियां:

रात लगी कहने सो जाओ, देखो कोई सपना
जग ने देखा है बहुतों का, रोना और तड़पना
यहाँ तुम्हारा क्या, कोई भी नहीं किसी का अपना
समझ अकेला मौत तुझे ललचाई सारी रात।

 मेरी पसंद
सुबह--एक हल्की-सी चीख की तरह
बहुत पीली और उदास धरती की करवट में
पूरब की तरफ एक जमुहाई की तरह
मनहूस दिन की शुरुआत में खिल पड़ी ।


मैं गरीब, मेरी जेब गरीब पर इरादे गरम
लू के थपेड़ों से झुलसती हुई आंखों में
दावानल की तरह सुलगती उम्मीद ।


गुमशुदा होकर इस शहर की भीड़ को
ठेंगा दिखाते हुए न जाने कितने नौजवान
क्ब कहां चढ़े बसों में ओर कहां उतरे
जाकर : यह कोई नहीं जानता ।


कल मेरे पास कुछ पैसे होंगे
बसों में भीड़ कम होगी
संसद की छुट्टी रहेगी
सप्ताह भर के हादसों का निपटारा
हो चुकेगा सुबह-सुबह
अखबारों की भगोड़ी पीठ पर लिखा हुआ ।


सड़कें खाली होने की हद तक बहुत कम
भरी होंगी : पूरी तरह भरी होगी दोपहर
जलाती हुई इस शहर का कलेजा ।


और किस-किस का कलेजा नहीं जलाती हुई ।
यह दोपहर आदमी को नाकामयाब करने की
हद तक डराती हुई उसके शरीर के चारों तरफ ।

मिलो दोस्त, जल्दी मिलो
मैं गरीब, तुम गरीब
पर हमारे इरादे गरम ।


 अवधेश कुमार

और अंत में
कल किन्ही सतीश यादव जी ने  सतीश पंचम जी का ये वाला फ़ेसबुकिया  स्टेटस उनके स्टेटस से उठाकर यहां टिप्पणी पर सटा दिया:
इतिहासकार मानते हैं कि तीन हजार वर्ष पूर्व भारतवर्ष विद्वानों से गंजा हुआ था, उनमें हिन्दी के प्रतिष्ठित साहित्यकार बड़ी संख्या में होते थे। अभिलेखों के उत्खनन के दौरान कई ऐसे साहित्यकारों के बीच "हत्त तेरे की धत्त तेरे की" भावनाओं का उदात्त प्रकटीकरण भी हुआ है. ऐसे ही एक लेख में एक साहित्यकार दूसरे को बुढ़भस कह उसकी साहित्यिक रचनाधर्मिता पर प्रश्नचिन्ह अंकित करता है तो दूसरा उसे आँख सेंकू साहित्यकार कह अपनी नव रचनाधर्मिता का परिचय देता है। इन अभिलेखों के अध्ययन से पता चलता है कि दस हजार वर्ष पूर्व भारत में आँख सेकनें और फिर साहित्य रचने में लोग कितने पारंगत थे. विद्वानों का मानना है कि वात्स्यायन ने भी कामसूत्र इसी भांति रची थी. कालांतर में कई अनेक मूर्धन्य साहित्यकार भी इस कोटि में पाये गये हैं.
( ईसवी सन् 5012 की इतिहास की उत्तर पुस्तिका के अंश )

फ़िर बाद में मिटा भी दिया।शायद शर्मा गये होंगे यह सोचकर सतीश पंचम माइंड करेंगे। देखिये आजकल के जमाने में भी ब्लॉगर कित्ता तो शरीफ़ आदमी होता है। :)

कल ही ज्ञानदत्त जी ने सवाल किया था:
कौन हैं ये विष्णु खरे? सलमान खुर्शीद खेमे के हैं या केजरीवाल के? 

हमको ये त पता नहीं कि विष्णु खरे जी किसके आदमी हैं लेकिन लोग बताते हैं कि वे बहुत बड़े कवि और  आलोचक  हैं। एक ब्लॉगर ने तो अपना नाम खुल्ला करने की शर्त के साथ यह भी  बताया कि वे बहुत बदतमीज हैं। बहस में बहुत खराब भाषा का इस्तेमाल करते हैं।

बहुत हुआ आज के इत्ता। अब चलें दफ़्तर वर्ना देर होने पर बहस की गुंजाइश बनेगी। क्या पता बदतमीजी भी हो जाये। इसलिये  चलते क्या अब तो भागते हैं। लेकिन आप आराम से रहिये। चिन्ता जिन करा। मस्त रहा।

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बुधवार, अक्तूबर 17, 2012

अब तो हैं सब कच्चा माल

जिन चिट्ठाकार साथियों को लगता है कि चिट्ठाजगत की  बहस-उहस में  उजड्ड भाषा प्रयुक्त होती है उनको साहित्य जगत के महाविभूतियों की बहस बांचनी चाहिये। उनका अपराध बोध  कम हो जायेगा। लगेगा कि अभी तो बहुत कुछ सीखना है । पतन की घणी संभावनायें हैं  ब्लॉग जगत में। ऐसी ही एक बहस देखिये एक आदरणीय आलोचक और एक फादरणीय कवि-आलोचक-अनुवादक-पूर्व संपादक के बीच।   इस बहस में आदरणीय और फ़ादरणीय दोनों एक दूसरे के प्रति फ़टाफ़टा प्रेमप्रकटीकरण में तल्लीन दिखते हैं। नमूने देख लीजिये:
  1. विष्णु खरे इस वक्त के सबसे बददिमाग लेखक हैं।- डा.विजय बहादुर सिंह
  2. वे साहित्य के मंच पर अपनी उपस्थिति कुछ वैसी जताते हैं जैसे छोटे परदे पर राखी सावंत। - डा.विजय बहादुर सिंह
  3. मुझे पिछले कुछ दिनों से इन्टरनेट, ईमेल और प्रिंट-मीडिया में कतिपय इतने ज़लील,नाबदानी तत्वों से निपटना पड़ रहा है। -विष्णु खरे  
  4. मुझे अपने बदन से ही हिंदी के सन्डास की बू आने लगी है। -विष्णु खरे
  5. प्रतिक्रिया-पेचिश-पीड़ित आचार्य भिलसा भोपाल भंड--विष्णु खरे
  6. हमारी नाक़िस राय में निराला की जीवनी के प्रथम खंड को छोड़कर रामविलास शर्मा का लगभग सारा लेखन समसामयिक हिदी साहित्य के लिए अप्रासंगिक है।-विष्णु खरे
  7. भिभोभं की देखिबै-सुनिबै की बेला आन पहुँची है कि वे अपनी आँखें टीवी पर राखी सावंत से ही सेंक कर अपनी बुढ़भस काटने को विवश हैं लेकिन उसके बारे में जो उनकी राय लगती है उसे जान कर मैं उन्हें यही सलाह दूंगा कि उससे दूर ही रहें - मैंने सुना है ठरकी लम्पटों की धोती वह बिदास, सार्वजनिक रूप से गीली-पीली कर देती हैं। -विष्णु खरे   

 इस उद्धरणों का फ़ुल मतलब समझने के लिये पोस्ट देखिये। जानकी पुल पर ही विनीत कुमार जोहन्सबर्ग में हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन के वाकये को लेकर चली बहस में कहते हैं-वे व्यवस्थित और कलात्मक ढंग से हिन्दी का नाश करते हैं।

वहां टहलते हुये  मुकुल राय की कविता मिली। बांचिये:


घर में जाले, बाहर जाल
क्या बतलाएं अपना हाल?
दिन बदलेंगे कहते-सुनते
बीते कितने दिन और साल!
तुम ये हो, हम वो हैं, छोड़ो
अब तो हैं सब कच्चा माल
आज निर्मलानन्द अभय तिवारी का जन्मदिन है। उनको जन्मदिन की बधाई।

मेरी पसन्द
हम दोनों के बीच एक हारमोनियम है

हारमोनियम के उस तरफ़
सुरों को अपनी उंगलियों की थापों से
जगाती हुई तुम बैठी हो
और इस तरफ़
तुम्हारे सुरों में नाद भरने
पर्दे से हवा धोंकता हुआ मैं
हारमोनियम-
किलकारियां भरता, हाथ पैर चलाता
एक नया नवेला बच्चा है लगभग छः महीने का
हम दोनों उसे खिलाने में लगे हुए हैं
हम दोनों के बीच एक हारमोनियम है

मेरे तुम्हारे दरम्यान एक बरसाती नदी है
जिसमें राग अनंत लहरें उठाते हैं
हम डूबते हंै उस नदी में
तैरते हैं और गोते लगाते हुए
पकड़ते हंै संतरंगी मछलियों को
हारमोनियम हम दोनों के बीच उस नदी की तरह है

लेकिन क्या तुमने
’यमन’ की सरगम याद करते हुए
कभी ग़ौर से देखा है हारमोनियम को
क्या वह तुम्हें पुल की तरह दिखाई नहीं देता
जिस पर से दौड़-दौड़कर
हम एक-दूसरे के करीब तक पहुँचते हैं
और छुए बिना ही भीग-भीग जाते हैं

हम दोनों के बीच एक हारमोनियम है
उसमें शब्द नहीं हैं तो क्या
वह वही भाषा बोलता है
जो मेरी है, तुम्हारी है

हम दोनों के बीच हारमोनियम एक चरखे की तरह है
जो बुन रहा है
बहुत महीन और मुलायम धागे


हेमंत देवलेकर

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सोमवार, अक्तूबर 15, 2012

जैंजीबार के संस्मरण




काफ़ी दिन से सोच रहा था कि चिट्ठाचर्चा की जाये। कभी कुछ अच्छा / रोचक पढ़ता तो मन करता कि इसके बारे में लिखा जाये लेकिन कायदे से लिखने की इच्छा सब गुड़ गोबर कर देती। सच कहें तो मुझे लगता है कि अच्छा लिखने के चक्कर में पोस्ट स्थगित करने की भावना  ब्लॉगिंग की दुश्मन है।  दुश्मनी -ए-चिट्ठाकारी। अभी फ़ेसबुक पथ पर टहल रहे थे तो देखा कि जीतेंन्द्र चौधरी ने नये ब्लॉगरों को टिप्स देते हुये लिखा है:
विभिन्न ब्लॉग के बारे में जानने के लिए कम से कम किसी एक ब्लॉग संकलक (Blog Aggregator) पर जरूर जाएँ, साथ ही प्रतिदिन चिट्ठों पर की गयी चिट्ठा चर्चा को भी अवश्य पढ़ें। चिट्ठा चर्चा को तो आपको अपना होम पेज ही बना देना चाहिए।
अब संकलक  तो रहे नहीं। न ही जीतू की सलाह पर कोई अमल करने वाला है। लेकिन मन किया कि कभी-कभी चर्चा करने का काम तो करना चाहिये। अपने सुकून के लिये।

आज अपन की छुट्टी थी। पितृविसर्जन अमावस्या । आज के बदले कल हम काम कर चुके हैं। सो आज सुबह से कई दिनों की स्थगित की हुई पोस्टें पढ़ने का काम किये। उनमें सबसे पहले पढ़ी फ़िल्म आलोचक विद्यार्थी चटर्जी की  के लिखे  अफ़्रीका के द्वीप जैंजीबार के यात्रा संस्मरण। जैंजीबार का  यात्रा संस्मरण छह साल बाद लिखा गया। इसका अनुवाद  अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है। अनुवाद दस  किस्तों में    जनपथ पर प्रकाशित हुआ है। पहली किस्त में विषय प्रवर्तन । दूसरी किस्त में वे जैंजीबार की उत्पत्ति  के बारे में बताते हैं:
किंवदंती यह है कि इस दुनिया-जहान को बनाने के बाद अल्लाह ने अपनी रचना को वक्त निकाल कर गौर से देखा। रचना इतनी खूबसूरत बन पड़ी थी कि खुशी में अल्लाह की आंख से आंसू की एक बूंद छलक गई। जैंजि़बार के लोगों का मानना है कि यह ईश्वरीय अश्रुकण जहां गिरा, वहीं पर उनका जज़ीरा समुद्र में से बाहर निकल आया।
जैंजीबार में विविध धर्म/सम्प्रदायों के लोगों के रहने की बात बताते हुये प्रो. चटर्जी अपनी बात कहते हैं:
एकरूपता दरअसल इस अर्थ में एक अपराध से कम नहीं होती जो भावनाओं की ज़मीन को बंजर बना देती है। इसके बरक्स विविधता एक ऐसा शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व है जिसके सावधानी से बरते जाने पर उसके फल जादुई आभा लिए हो सकते हैं जिनमें असीमित गुंजाइशों के बीज हों।
 (यहां ऊपर की यह तस्वीर कला को समर्पित चित्रकार जॉन डी सिल्‍वा की है)

जैंजीबार की कलात्मक/सांस्कृतिक गतिविधियों की जानकारी के बाद जैंजीबार के समाज के बारे में जानकारी देते हुये वे  पूर्वी अफ्रीका की महानतम जीवित सांगीतिक विरासत बी.किडूडे से परिचय कराते हैं:
वे अतीत और वर्तमान, परंपरा और आधुनिकता का ऐसा संगम हैं जो आपके भीतर सिहरन पैदा करती हैं। मैं जब उस नाइट क्लब में घुसा, और आश्चर्यजनक रूप से मुझसे प्रवेश शुल्क नहीं मांगा गया, तो मैंने देखा कि एक माइक के सामने रोशनी के एक टुकड़े के बीच वे धीरे-धीरे हिल रही थीं। उनका सिर ढंका था और देह पर एक रंगीन कपड़ा लिपटा था। बाएं हाथ में उनके एक सिगरेट थी और दाएं हाथ में बियर का छोटा ग्लास। जैंजि़बार के विशिष्ट संगीत तारब का प्रतिनिधित्व करने वाली किडूडे गा रही थीं, नाच रही थीं और बीच-बीच में सिगरेट का एक कश खींच ले रही थीं या बियर गटक ले रही थीं। एक मौके पर तो वे मंच से नीचे दर्शकों के बीच उतर आईं और भीड़ में शामिल हो गईं। उनका आत्मविश्वास और उनकी कला का जादू ऐसा मंत्रमुग्ध करने वाला था कि वे वहां मौजूद किसी को भी कुछ भी करने को सहर्ष तैयार कर सकती थीं। 
ऊपर की चित्र बी.किडूडे का है। वे 99 बरस की उमर में जिंदा हैं। उनसे संबंधित यह वीडियो देखिये। संस्मरण की छठी  और सातवी किस्त में जैंजीबार के शहीद माखन सिंह के बारे में जानकारी है। महान योद्धा माखन सिंह केनिया की आज़ादी और मजदूर वर्ग कोसंगठित करने के लिए ने जीवनपर्यंत संघर्ष किया था। आठवी किस्त में जैंजीबार के व्यापार, पहनावे, रीति-रिवाज, त्योहार की झलक दिखलाई गयी है। पहनावे  के बारे में वे बताते  हैं:
अफ्रीकी स्त्रियों और पुरुषों के बीच ढीले-ढाले रंगीन कपड़ों या आकर्षक जूते-चप्पलों के साथ और रंगीन चश्मों के साथ मेल खाने वाले कपड़ों का चलन है। यहां तक कि जैंजि़बार का सबसे गरीब आदमी भी जानता है कि अपने इस विशिष्ट परिधान में वह सबसे बेहतर कैसे दिख सकता है। शुक्रवार की नमाज के वक्त आप उन्हें देखिए तो वे अपने सबसे अच्छे कपड़ों में आपको मिलेंगे। हफ्ते के बाकी दिन भी, खासकर नमाज के वक्त वे इतने ही खूबसूरत दिखते हैं, लेकिन ऐसा नहीं कि सिर्फ मस्जिद या उसके आस-पड़ोस में वे बन-ठन कर निकलते हैं। बाज़ारों में, सड़कों पर और समुद्र के पास वे आपको अपने सबसे बेहतरीन परिधानों में दिख जाएंगे। गरीबों को आप उनकी कातर नजरों से पहचान सकते हैं, लेकिन उनकी चाल-ढाल और दूसरी शारीरिक भंगिमाओं में भी एक स्वाभाविक आकर्षण होता है।
(ऊपर का चित्र रंगीन अफ़्रीकी शर्ट पहने हुये नेल्सन मंडेला का।)

पारंपरिक नववर्ष या वाका कोगवा’ (Mwaka Kogwaका आगमन मनाने के लिए जैंजि़बार का सबसे रोमांचक पारंपरिक कर्मकाण्ड किया जाता है। हम यहां एक ऐसे कर्मकाण्ड के गवाह बने जो जितना खूबसूरत था उतना ही अधिक भयावह। आसपास के गांवों के ढेर सारे पुरुष अपने दुश्मन गांवों के पुरुषों को केले के तने से बेरहमी से पीटे जा रहे थे। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि पिछले साल अधूरी रह गई शिकायतों और शिकवों से निजात पाई जा सके। एक ओर जहां पुरुष एक-दूसरे पर सनक की हद तक हमलावर थे, वहीं स्थानीय महिलाएं साथ जुटकर गीत गा रही थीं और नृत्य  कर रही थीं। प्रो.चटर्जी लिखते हैं:
वे लोग जो गीत गा रहे हैं, उसके बोल इतने भद्दे हैं जिनका अनुवाद किया जाना संभव नहीं।  बाद में एक स्थानीय व्यक्ति से मुझे पता चला कि नववर्ष की रात कोई भी पुरुष गांव की किसी भी महिला के साथ परस्पर सहमति से संभोग कर सकता है। यह यहां एक परंपरा का हिस्सा था जिस पर गांव के बुजुर्गों समेत गांव के किसी को भी कोई एतराज नहीं होता।
(चर्चा की शुरआत का चित्र  ’वाका कोगवा’ का  है। संबंधित वीडियो यहां देखें)

संस्मरण की नवी किस्त में प्रो.चटर्जी ने जैंजीबार में जन्में प्रख्यात छायाकार मोहम्मदअमीन के बारे में जानकारी दी है। वेबताते हैं:



 अमीन अग्रणी छायाकार थे। अफ्रीका और उससे बाहर उन्होंने हर बड़ी घटना को अपने लेंस में कैद किया। प्रताड़ना के बावजूद बगैर झुके, बमों और गोलियों की दहशत में साहस से डटे हुए और अपनी बाईं बांह गंवा कर भी उन्होंने अपना काम नहीं छोड़ा जिसके चलते वे सर्वश्रेष्ठ सर्वकालिक फोटो पत्रकार कहलाए। उनके समकालीन उन पर नाज़ भी करते और उनसे रश्क भी खाते थे। 


प्रो. चटर्जी  आगे बताते  हैं:

मोहम्मद अमीन का सबसे यादगार काम इथोपिया में 1984 में आए विनाशक अकाल का कवरेज है जिसके माध्यम से उन्होंने समूची दुनिया को बीसवीं सदी के सबसे बड़े दानकर्म से लिए प्रेरित किया। इस विनाश से प्रभावित लाखों लोगों के लिए अंतरराष्ट्रीय सरोकार निर्मित करने में उन्होंने प्रेरणा और उत्प्रेरक दोनों का ही काम किया। उनकी रिपोर्टिंग ने संपन्न देशों को शर्मसार किया, उन्हें कार्रवाई को बाध्य किया और इस तरह से एक देश विनाशकारी अकाल के मुंह से बाहर आ सका। एक धमाके में वे (मो) अपना बायां बाजू गंवा बैठे। इसके बावजूद उनके उत्साह में कमी नहीं आई। वे कृत्रिम बांह का इस्तेमाल करने वाले दुनिया के पहले फोटोग्राफर बने।

 इस पोस्ट में मोहम्मद अमीन से जुड़ी  कड़िया हैं जिससे उनके काम का अन्दाजा होता है।  आखिरी किस्त में जैंजीबार के बर्बर अतीत, जेल से जुड़े वीडियो और जैंजीबार की अन्य झलकियां हैं। जैंजीबार की यात्रा संस्मरण लिखने के लिये प्रो.विद्यार्थी चटर्जी का आभार और उसे अनुवाद करके हम तक पहुंचाने के लिये अभिषेक श्रीवास्तव का शुक्रिया।  नीचे जैजीबार का एक चित्र ।



 आज के लिये फ़िलहाल इतना ही। दस पोस्टों की चर्चा हो गयी आज ।  बाकी फ़िर कभी देखा जायेगा।

मेरी पसंद
सुनीता सनाढ्य पाण्डेय"अरे माटीमिले ठीक से झाड़ू लगा
अरे ***,सुनता है कि नहीं?
ज़ोर ही नहीं है क्या हाथ पाँव मे तेरे
*****, एक सपाटा दूँगी अभी
ठीक से काम कर"

रोज़ सुबह मेहतरानी के ये बोल 
कानों मे पड़ते हैं मेरे
लड़का सड़क की सफाई करता है
वह कचरा-गाड़ी खींचती है
एक भी वाक्य बिना गाली के नहीं
हर गाली बद-दुआ से भरी

आश्चर्य तब हुआ जब ये जाना
वह लड़का कोई उसका नौकर नहीं बल्कि
उसका अपना ही बेटा है
पति शराबी है...राह ना भटक जाये बेटा भी
इसलिए यह भाषा अपनाती है

सोच रही हूँ जाने आगे क्या लिखा है
मेहतरानी के भविष्य में.....

सुनीता सनाढ्य पाण्डेय

आज की तस्वीर



ये तस्वीर देवेंद्र पाण्डेय की ब्लॉग पोस्ट  से।


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