रविवार, दिसंबर 30, 2012

मेरी दीदी बहुत बहादुर थीं

मेरी दीदी बहुत बहादुर थीं, हमेशा कहतीं थीं कि एक दिन डॉक्टर बनूंगी। झूठ और जुल्म से उन्हें सख्त नफ़रत थी।
दिल्ली गैंगरेप की शिकार हुई लड़की के बारे में उसकी चचेरी बहनों ने  य बताते हुये गुस्से में कहा- सभी आरोपितों की सजा है कि उनको सीधे आग में जला देना चाहिये।

उ.प्र. के बलिया जिले के नरही क्षेत्र के एक अति पिछड़े गांव में रहने वाले पीड़िता के पिता ने अपनी बेटी की पढ़ाई के लिये पैसे कम पड़ने पर  बिहार में अपनी ननिहाल में मिली ड़ेढ़ बीघे जमीन बेंच दी। किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जिस बेटी के लिये चार महीने पहले पिता ने कहा था कि गांव को एक डॉक्टर देने की उम्मीद पूरी कर रहा हूं, उसका यह हश्र होगा। 

दामिनी, अमानत और कई नामों से पुकारते हुये मीडिया ने बताया कि उस बहादुर बच्ची ने होश में आते ही अपनी मां से पूछा था - वे पकड़े गये क्या?

वह जीना चाहती थी। लेकिन वावजूद अपनी जिजीविषा के वह मौत से मुकाबला हार गयी।आज सुबह उसका अंतिम संस्कार हुआ।

टीवी पर उसके अंतिम संस्कार की खबर के साथ ही यह खबर भी आ रही है कि दिल्ली में एक नाबालिग से छेड़छाड़ हुई। पश्चिम बंगाल में 45 साल की एक महिला की गैंगरेप के बाद हत्या कर दी गयी। दिल्ली में एक बरेली का आदमी भूख हड़ताल पर है। जया बच्चन और शबानी आजमी की भावुक होने की खबरें आ रही हैं।

माननीया प्रिा पाटिल अपने बचाव के लिये लड़कियों को जूडो-कराटे सीखने की सलाह दे रही हैं। वहीं  एक महानुभाव बयान दे रहे हैं- (बलात्कार से बचने के लिये ?)लड़कियों को स्कर्ट की जगह जींस-पैंट पहनना चाहिये।  माननीया की सीख है -अपने बचाव के लिये समर्थ बनो, हमला करना  सीखो। वहीं  महानुभाव का विचार है- बचना है तो अपने को सुधारो वर्ना हमें दोष मत देना। 

दिल्ली गैंगरेप की शिकार पीड़िता की  हालत सुधरने , स्थिर होने  और बिगड़ जाने की खबरें मीडिया चैनलों में आतीं रहीं। घटना के विरोध में आक्रोशित युवाओं का स्वत:स्फ़ूर्त आंदोलन, धरना, प्रदर्शन, पुलिसिया बहादुरी और राजनीति की खबरें भी। लोगों के बचकाने बयान भी आये। शर्मिंदगी, बयान वापसी और माफ़ीनामा भी हुआ।

पीड़िता को  इलाज के लिये  सिंगापुर ले जाने के  निर्णय की भी आलोचना ही हुई। तालिबान के खिलाफ़ आवाज उठाने वाली पाकिस्तान की बहादुर बच्ची मलाला युसुफ़जई का कहना है- बलात्कारियों ने उसको सड़क पर फ़ेंक दिया। सरकार ने उसको सिंगापुर में फ़ेंक दिया। दोनों में क्या अंतर है?

ब्लॉगजगत में भी इस घटना की व्यापक प्रतिक्रिया हुई। लोगों ने अपना आक्रोश व्यक्त किया। अपने स्टेटस पर काला गोला लगाया है। लेख , कवितायें लिखी हैं। फ़ेसबुक पर हुये कवरेज के असर के बारे में भी लिखा गया है। अनामी शरण बवाल ने अपने ब्लॉग पर -दिल्ली सामूहिक बलात्कार: दस अहम घटनाक्रम बताये हैं। राकेश झुनझुनवाला ने अपने ब्लॉग पर   बलात्कार से बचाव के तरीके  बताये हैं।


युवा पत्रकार लेखिका स्वाति अर्जुन ने अपनी भावनायें व्यक्त करते हुये संकल्प लिया- मैं उस घाव को नासूर नहीं बनने दूंगी।


छम्मकछल्लो ने  अपना आक्रोश जाहिर इस तरह जाहिर किया:
अब हम थक गए हैं अपने लिए बचाव करते-कराते।

अब हम भी मानते हैं, हम हैं सबसे दोषी।
हे इस समाज के इतने महान विचारक,
नियामक
एक ही उपाय कर दें आपलोग,
निकाल दें ऐसा कानून,
जुर्म है बेटियों का पैदा होना,

उससे भी बड़ा जुर्म है उसके माँ-बाप का
उसे धरती पर लाने का दुस्साहस करना
आप हे हमारे माई-बाप!
घोषित कर दें पैदा करना बेटियों को
है रेयरेस्ट ऑफ रेयर जुर्म!

प्रवीण शाह ने अपना संकल्प बताते हुये लिखा:
तंद्रा से झकझोर कर अब
सब को जगा गयी है तू
तेरे जाने का दुख तो है
पर है यह दॄढ़ निश्चय भी
आगे ऐसा नहीं होने देंगे
कर हम पर भरोसा, लड़की

बचकुचनी ने पीड़िता की स्थिति के बारे में सोचते हुये अपनी सोच बतायी- अपने बच्चों को चाहे वह बेटा हो या बेटी, इंसान बनाने का समय है-यही एक अंतिम रास्ता है  जो हमें इस डर से आजाद करा सकेगा।

विष्णु वैरागी जी ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये लिखा:

मैं मूलतः आशावादी आदमी हूँ। किन्तु ‘अति आशावादी’ नहीं। आज जो कुछ अखबारों में और समाचार चैनलों में नजर आ रहा है, वह मुझे ‘अति आशावाद’ ही लग रहा है। इसमें भी जो चिन्ताजनक बात मुझे लग रही है वह है - दूसरों से आशा/अपेक्षा। कोई नहीं कह रहा कि वह खुद कुछ करेगा। हर कोई ‘चाहिए’ की भाषा प्रयुक्त कर रहा है। इसी से मुझे परेशानी हो रही है।
 उन्होंने अपना संकल्प भी बताया: 
दूसरे क्या करें, क्या न करें, इस पर तो मेरा कोई नियन्त्रण नहीं। इसलिए अपने स्तर मैं संकल्प ले रहा हूँ कि मैं अपने मन में दामिनी की मौत को मरने नहीं दूँगा। खुद के स्तर पर, अपने परिवार के स्तर पर वह सब करूँगा जिससे फिर किसी दामिनी को ऐसी मौत न मरनी पड़े।
लाल्टू ने अपनी छब्बीस साल पुरानी कविता पोस्ट की जिसमें उन्होंने आशा की है:
हर शोषित की तरह

तुझे भी पता है

कि यह सब बदलेगा

किसी दिन

तू बाजारों में पत्रिकाओं के

मुख-पृष्ठों पर और

रसोइयों में मिट्टी के तेल की

आग से

मरेगी नहीं
वरिष्ठ लेखिका और स्तंभकार ने सुधा अरोड़ा ने बहादुर बच्ची  प्रति अपनी भावनायें  व्यक्त करते हुये लिखा:
आओ, हम तुम्हें विदा देते हुए शपथ लें
कि चुप नहीं बैठेंगे अब
इस दबे ढके इतिहास के काले पन्ने फिर खोलेंगे
अब हम आंसुओं से नहीं, अपनी आंख के लहू से बोलेंगे!
हत्यारों और कातिलों की शिनाख्त से मुंह नहीं फेरेंगे!
अपने नारों को समेट सिरहाना नहीं बनाएंगे,
नये साल की आवभगत में गाना नहीं गाएंगे!
आखिर तुम्हें हम क्या मुंह दिखाएंगे!
बस, अब और नहीं, और नहीं, और नहीं!
जंग जारी है, रहेगी! 
कुमारेंद्र सिंह सेंगर ने अपने भाव व्यक्त करते हुये लिखा:
पीड़ा किसी की भी हो; मृत्यु किसी की भी हो, हमें इंसान होने के नाते दर्द होना चाहिए, हमारी संवेदनाओं को जागना चाहिए। यदि हम सभी आज मोमबत्तियाँ जलाते हुए वास्तविक रूप में जागरूक हैं तो हमें उस पीड़ित लड़की की मृत्यु के बाद सोने की आवश्यकता नहीं। उसकी वेदना को हमें शिद्दत से महसूस करना होगा। सोशल मीडिया पर अपनी फोटो को काला कर लेने से, चन्द कालापन शेयर कर देने भर से न तो उसको न्याय मिलेगा और न उन पीड़ित लड़कियों को न्याय मिलेगा जो हमारे आसपास अपनी पीड़ा को लिए जी रही हैं। अब जरूरत मोमबत्तियाँ जलाकर औपचारिकता निर्वहन की नहीं वरन् स्वयं को मशाल बनाकर अपनी बहिन-बेटियों-माताओं के कष्ट, पीड़ा को जला देने की जरूरत है। काश! हम सब वाकई जागरूक हो पायें।
जनसंस्कृति मंच की ओर से राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण ने श्रद्धांजलि दी- शरीर के खत्म हो जाने के बाद भी वह इसी नई चेतना, नए संघर्ष और अथक संघर्ष की 'प्रेरणा' बनकर हम सबके दिलों में, युवा भारत की लोकतांत्रिक चेतना में सदा जीती रहेगी।

अंकुर जैन अपने लेख हे पुरुष यह आत्ममंथन का वक्त है में नारी से भी आत्ममंथन का आह्वान करते हैं और कहते हैं:
 गर स्त्री, स्त्री बनी रहे तो इस प्रकृति की फ़िजा को बदलने से कोई नहीं रोक सकता। बस, वह याद रखे कि उसे अपने सशक्तिकरण के लिए कतई पुरुष बनने की ज़रुरत नहीं है, उसे अपने शील को मर्द की भांति दो टके का बनाने की कोई ज़रुरत नहीं है क्योंकि वो अपने आप में एक सुंदर व्यक्तित्व है जो पुरुष से कई बेहतर है। दामिनी की मृत्यु आंदोलन से ज्यादा, आत्ममंथन की मांग कर रही है.............
अमलेन्दु उपाध्याय का मानना  हैं-
 बलात्कार किसी खास किस्म की यौन विकृति का परिणाम भर नहीं है बल्कि यह महिलाओं के खिलाफ समाज में जारी आम हिंसा का ही चरम रूप है।
उन्होंने बलात्कार की कड़ी सजा के एक और पहलू की तरफ़ इशारा करते हुये  लिखा: 
  ऐसी सख्ती की तलवार अधिकांशतः उन्ही भटके हुए लोगों पर और बहुधा एकदम मासूम लोगों पर वार करती है जो कमजोर आर्थिक या सामाजिक पृष्ठभूमि से आये होते हैं।


दबंग- 2 के इस हिट गाने  से अपनी बात शुरु करते हुये इस  दुर्घटना के कारणों की पड़ताल करते हुये खुशदीप ने लिखा:
इसमें कोई शक-ओ-शुबहा नहीं कि महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध घर में हो या बाहर, दोषियों को सख्त से सख्त सज़ा मिलनी चाहिए...लेकिन बात यही खत्म नहीं हो जाती है...हमें विचार इस बात पर भी करना है कि हमारे समाज का एक हिस्सा गर्त में जा रहा है तो उसके लिए ज़िम्मेदार कौन है...हमें समस्या के सिर्फ एक कोण से नहीं बल्कि समग्र तौर पर निपटने के लिए प्रयास करने चाहिएं...

इसके पहले अजित गुप्ताजी ने इस मसले के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करते हुये सुझाया:
मनोरंजन के नाम पर हो रहे भड़काऊ प्रदर्शन पर तत्‍काल रोक और संस्‍कार देने का कार्य भी तीव्रता से होना चाहिए। परिवारों को अपने बिगडैल नौनिहालों के प्रति सावचेत होना चाहिए। प्रशासन में घटती जिम्‍मेदारी पर विचार होना चाहिए। महानगर और गाँव की जनसंख्‍या के संतुलन पर भी चर्चा होनी चाहिए।

आगे उन्होंने चेतावनी भी दी :
जब तक सम्‍पूर्ण देश एकसाथ उठ खड़ा नहीं होगा, तब तक इस देश का भविष्‍य ऐसे ही खतरों से जूझता रहेगा। युवापीढ़ी क्रान्ति का बिगुल बजा रही है, लेकिन उसे पथ का मालूम होना चाहिए, पाथेय भी मिलना चाहिए और मंजिल का ठिकाना भी। नहीं तो यह युवाशक्ति भी एक अनियंत्रित भीड़ में बदल जाएगी।
प्रसिद्ध  पत्रकार , कहानीकार दयानंद पाण्डेय ने इस मसले पर राजनीति करने वालों को चेताते हुये कहा:
राजनीतिक पार्टियों के दुकानदार और यह सरकारें, कार्यपालिका और न्यायपालिका भी होश में आ जाएं। नहीं जनता अभी तक तो सिर्फ़ बलात्कारियों को मांग रही है, बेटी को इंसाफ़ देने के लिए। कल को आप राजनीतिक आकाओं को भी बस मांगने ही वाली है। फिर तो यह पुलिस, यह सेना सब इस जनता के साथ में होगी, आप की सुरक्षा में नहीं। जनता को इस कदर बगावत पर मत उकसाइए। इस अनाम बेटी की शहादत, जिस की मिजाजपुर्सी में समूचा देश खड़ा हो गया, खुद-ब-खुद, यही कह रही है। आंदोलनों के लिए लाक्षागृह बनाने से बाज़ आइए।  नहीं जनता, यह व्यवस्था बदलने को तैयार खड़ी है।
 गिरिजेश राव ने अपने भाव व्यक्त करते हुये लिखा है:
शिल्पा मेहता ने दामिनी को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि देते हुये आह्वान किया है:
सभी मित्रों से प्रार्थना है --- कृपया एक जनवरी की तारीख को, नव वर्ष के अर्थहीन सुखमय गीतों के बजाय , बलात्कार सम्बंधित केसों की सुनवाई के लिए
*** अखिल भारतीय स्तर पर (सिर्फ फेमस हुए केस नहीं हर केस के लिए)
*** स्थायी तौर से 
*** "फ़ास्ट ट्रेक कोर्ट्स"
की मांग को लेकर पोस्ट लिखें ।


इसी पोस्ट पर मुक्ति का उद्घोष है: हम यहीं पैदा होंगे, जियेंगे और लड़ेंगे. उसकी मौत एक युद्धघोष है. एक शहादत है. हम रोयेंगे नहीं. दुखी नहीं होंगे. हम लड़ेंगे. हम रोज़ उसके दुःख को महसूस करेंगे और लड़ने के लिए प्रेरणा लेंगे. हम लड़ेंगे.

एक बहादुर बच्ची, जो  कि अब हमारे बीच नहीं रही, के प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त  कामना करता हूं

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