रविवार, नवंबर 30, 2008

छोटी-मोटी घटना में बदलता हादसा

कल मुंबई में आतंकवादियों के खिलाफ़ कार्यवाही पूरी हुई! मुंबई के लोगों ने फ़ूल बरसाकर सुरक्षा बलों (एन.एस.जी. आदि) के प्रति अपना सम्मान प्रकट किया। इसके बाद नेताओं ने मोर्चा संभाल लिया। महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर.आर.पाटिल ने मुंबई पर हुये हमले को छोटा-मोटा हमला बताया! ताऊ कहते हैं-
पर हद तो महाराष्ट्र के गृह मंत्री आर.आर. पाटिल साहब ने करदी ! उन्होंने अपनी सरकार का बचाव करते हुए कहा की -- "आप इस घटना को पुरी तरह से सुरक्षा एजेंसियों का फेल्योर मत मानिए! इतने बड़े शहर में ये छोटी मोटी घटनाए तो हो ही जाती है !"
कल मैं टेलीविजन पर इस समाचार कवरेज को देख रहा था। एन.एस.जी. के चीफ़ दत्ता ने बताया कि ताज के अंदर अब कोई आतंकवादी नहीं है। लेकिन इसका लाइव कवरेज देने वाले एन.डी.टी.वी. के मनोरंजन भारती बार-बार कह रहे थे कि अभी एक आतंकवादी और अंदर है। वे कह रहे थे - कई बार सुरक्षा बलों की मजबूरियां होतीं है कि पूरी बात नहीं बताते। लेकिन आप इसे मानिये कि अभी एक आतंकवादी और अंदर है।

मुझे मीडिया की सनसनी-कामना और खुलासा लालसा पर तरस आ रहा था। अगले ने कोई बयान दिया और आप उसके एक दम उलट कोई दूसरा बयान बाहर खड़े-खड़े दे रहो हो माइक थामे हुये। जब सुरक्षा प्रमुख कह रहा है कि जब तक एक-एक कमरा हम देख नहीं लेते तब तक हमारा आपरेशन जारी रहेगा। ऐसे में उचक-उचक कर अपने विश्वत सूत्र देश के सामने उजागर करना कौन सी समझ की बात है। पता नहीं सुरक्षा प्रमुख ने सच बताया , गलत बताया , जानबूझकर बताया या अनजाने में लेकिन मीडिया कर्मियों की यह उचकन-फ़ुदकन उनका काम कठिन बनाती है। कभी-कभी तो लगता है कि ये बबुआ लोग किंडरगार्डन से सीधे माइक थाम के रिपोर्टिंग करने निकल लिये।

मुंबई हमले का पोस्टमार्टम शुरू हो गया है। युसुफ़ किरमानी बजरिये दीपक चोपड़ा कहते हैं कि इन हमलों के पीछे अमेरिका का हाथ है:
अमेरिका आतंकवाद को दो तरह से फलने फूलने दे रहा है – एक तो वह अप्रत्यक्ष रूप से तमाम आतंकवादी संगठनों की फंडिंग करता है। यह पैसा अमेरिकी डॉलर से पेट्रो डॉलर बनता है और पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सऊदी अरब, इराक, फिलिस्तीन समेत कई देशों में पहुंचता है। दूसरे वह आतंकवाद फैलने से रोकने की आड़ में तमाम मुस्लिम देशों को जिस तरह युद्ध में धकेल दे रहा है, उससे भी आतंकवादियों की फसल तैयार हो रही है।
इस हादसे में तमाम लोगों ने अपने खोये। दिलीप कवठेकर लिखते हैं:
मेरी बिटिया नुपूर के दिल्ली के MBA Course का सहपाठी, जिसकी शादी खड़कपुर में अभी ६ तारीख को होनी थी, खुद तारीख बन गया. CST Station पर होटल से खाना खाकर लौटते हुए वह भी आतंकवादीयों के गोलियों का शिकार हुआ. ऐसे कई अपनों की पीड़ा का एहसास हुआ जिनके चित्रों पर अब माला चढ गयी है.
इस हादसे के बाद लोगों ने अपने आक्रोश व्यक्त किये। कुछ लोगों ने हमला कर देने का आवाहन किया और कुछ ने आपातकाल का। नेताओं से सबको निराशा है। राजकिशोरजी आवाहन करते हैं- अब तो भारत धनुष उठाओ
मुंबई त्रासदी के दौरान सुरक्षा बलों के अलावा होटल प्रबंधन के लोगों ने भी अपनी जान पर खेलकर तमाम लोगों की प्राणरक्षा की। कविता वाचक्नवी लिखती हैं:
लंदन में रहने वाले 31 वर्षीय जाय कहते हैं कि मेरी जिंदगी उस अजनबी की कर्जदार है जो लियोपोल्ड कैफे में हुई गोलीबारी के दौरान मुझ पर कूद गया था और मैं बच गया।
दो दिन पहले ही एक इंटरव्यू में रिटायर्ड सुरक्षा प्रमुख साहनी कह रहे थे- "आतंकवाद से मुकाबला करना एक थका देने वाला और लगातार चलने वाला काम है। इसमें फ़ोकस्ड अटेंशन चाहिये। राजनीति नहीं। जब चीजों को राजनीतिक लाभ-हानि के नजरिये से देखा जाता है तब मामला हाथ से निकल जाता है।"

एस.टी.चीफ़. हेमंत करकरे और उनके साथी आतंकवादियों से लड़ते हुये मारे गये। दिलीप कवठेकर लिखते हैं:
प्रसिद्ध पुलिस अफ़सर और रोमानिया में भारत के पूर्व राजपूत ज्युलियस रेबेरो नें कहीं एक कॊलम में लिखा है, कि ये तीनों अफ़सर पुलिस के उन जांबाज़ अफ़सरों में से थे जो उच्च चरित्र और शौर्य के लिये जाने जाते थे, और रिश्वत मंड़ली से कोसो दूर थे.

बुधवार को करकरे उनके पास आये थे, इस बात से व्यथित हो कर के लालकृष्ण अडवानी नें उनके मालेगांव के हिन्दु आतंक के दृढ और इमानदार सफ़ाया पर प्रष्णचिन्ह लगा दिया था.

उस अफ़सर नें कर्तव्य पालन में कहीं कमी नही दिखाई, despite the bare fact the his moral was low with such stupid remarks .
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उपयोग करते हुये तमाम लोगों ने हेमंत करकरे के बारे में अपनी अकल के हिसाब से तमाम ऊल-जलूल बातें लिखीं हैं और शायद आगे भी लिखते रहेंगे लेकिन यह बात एक तथ्य है कि वे आतंकवादियों से लड़ते हुये मारे गये। उनकी पत्नी ने मोदी जी के द्वारा प्रस्तावित सहायता राशि लेने से मना कर दिया है।

आज इतवार है। कल ज्ञानजी ने बताया था कि आज मुंबई में दौड़ का आयोजन हो रहा है। शिवकुमार मिश्र शायद इसमें भाग लेने के लिये मुंबई रवाना भी हो चुके हैं!

हमले की खबर से सुनील दीपक बेचैन रहे। आलोक पुराणिक को लगा कि गृहमंत्री जी के कारण उनके पेशे और पेट पर हमला हो रहा है सो वे आज लेखन हड़ताल पर हैं।

अब जब आलोक पुराणिक जैसे नियमित लिख्खाड़ लिखना बंद किये हैं तो हमारा कुछ और लिखना शोभा नहीं देता। इसलिये हम अपनी बात यहीं खत्म करते हैं। आप इतवार के दिन आत्मचिंतन कीजिये मंथन कीजिये और धूप सेकियें। लेकिन आप यह भी देखिये कि चेन्नई के क्या हाल हैं! प्रशान्त प्रियदर्शी बता रहे हैं कि वहां लगातार बरिश से बाढ़ की स्थिति बनी हुई है।

आपका दिन शुभ हो!

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शनिवार, नवंबर 29, 2008

आतंक से जंग गोलकीपिंग करने जैसी है

कल रात एक एस.एम.एस. मिला। उसका हिंदी अनुवाद है:
एक आतंकवादी को माफ़ करना भगवान का काम है। लेकिन भगवान से उसकी मुलाकात करवाना हमारी जिम्मेदारी है।
कल ही एक अखबार में मुंबई धमाकों के बारे में एक लेख के में किन्हीं पाल विल्किंसन का वक्तव्य दिया था:
आतंक से जंग गोलकीपिंग करने जैसी है, जिसमें लोग आपके सैकड़ों बचाव को नहीं , एक चूक को याद रखते हैं।
कल समाचार चैनल आतंकवादियों से मुठभेड़ का लाइव कवरेज दिखाते रहे। बीच-बीच में बताते भी रहे कि हमें ज्यादा कुछ दिखाने के लिये मना किया गया। वे यह बताते भी रहे, सब कुछ दिखाते भी रहे। मीडिया तो जैसा है तैसा है ही। एन.एस.जी. के लोग भी मीडिया के झांसे में आकर, प्रचार कामना में बहकर एलियन की तरह मुंह ढंककर अपने किये का विस्तार से वर्णन करते रहे।

आश्चर्य हुआ जब एन.डी.टी.वी. के पचौरीजी एक दर्शक से पूछा- आपको इस मौके पर किया गया हमारा कवरेज कैसा लगा? यह सवाल पूछना शायद वे भूल गये कि अगली बार जब इस तरह का कवरेज करें तो आप क्या सुधार और देखना चाहेंगे।

इस तरह के लाइव कवरेज जनता को जानकारी कम देते हैं! आतंकवादियों के मंसूबों को ज्यादा पूरा करते हैं। राजीव जैन इस बात को - अपनी पोस्ट में कहते हैं!

आलोक नन्दन का भी मानना है कि राष्ट्रीय मीडिया को वार जोन की तमीज नहीं

शायद इसीलिये स्वामी ने लिखा:
अगर जागना है तो सबसे पहले अपनी नशीली टीवी बंद कर दो. उसी की मदद से आपकी सोच और जीवनशैली पर काबू पाया जा रहा है. एक जापानी नें कहा था दुनिया सुधारना आसान है. बस हम अपने आसपास के परिवेश को ठीक-ठाक करने की कोशिश कर लें, बाकी सब अपने आप सुधर जाएगा.
इस दौरान हिंदी ब्लागजगत में स्वाभाविक तौर पर मुंबई धमाकों से संबंधित पोस्टें लिखी रहीं। सभी के मन में आक्रोश, क्षोभ, गुस्सा, कुछ न कर पाने की बेबसी और देश की इज्जत पर आंच आने पर जैसे भाव मन में उठने चाहिये वैसे रूप में अपने को व्यक्त किया है। टिप्पणियों में भी यही पैटर्न रहा। कुछ लोगों ने लगभग हर पोस्ट पर आतंकवाद से संबंधित टिप्पणी ही लिखी। ब्लाग पर भी लाइव कवरेज हुआ! आतंकवाद की निंदा करने वाला एक ब्लाग भी बना!

ज्ञानदत्त जी इस मौके पर इंदिरा गांधी जी की कमी महसूस करते हैं। इंदिराजी फ़ौलादी इरादों वाली महिला थीं। अटलजी ने उन्हें १९७१ के युद्ध के बाद आधुनिक दुर्गा कहा था! लेकिन कुछ लोग यह भी कहते हैं इंदिराजी ने ही लोकतांत्रिक संस्थाओं के खात्मे की शुरुआत की थी। सेवाओं में राजनैतिक हस्तक्षेप बढ़ा! जनाधार वाले नेताओं के स्थान पर मुंहदेखी कहने वाले लोगों को ऊपर उठाया। उनकी इसी प्रवृत्ति के चलते उनके चारो तरफ़ दरबारी लोग बढ़ते गये जो उनके मिजाज के हिसाब से या अपने फ़ायदे के लिये उनको सलाहें देते रहे। समस्यायें पनपीं और फ़िर जब अति हो गयी तब इंदिराजी दुर्गा हो गयीं और दुष्टों का संहार कर दिया।

प्रशान्त प्रियदर्शी अर्जुन और भीम का आवाहन करते हैं।
रे रोक युधिष्ठिर को ना यहां,
जाने दे उसको स्वर्ग धीर..
लौटा दे हमें गांडीव-गदा,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर..
जब युधिष्ठिर के स्वर्ग जाने की बात हो रही होगी तब तक अर्जुन अपनी पारी खेल चुके थे। वे बेचारे गोपियों की रक्षा में भी असमर्थ हो लिये थे:
पुरुष बली नहिं होत है, समय होत बलवान,
भीलन लूटी गोपिका, वहि अर्जुन, वहि बान!
मेरी समझ में हमारे यहां अर्जुन, भीम की कमी नहीं है। ढेरों हैं। उनको समझाइस देकर सही काम में लगाने के लिये ऐसे नायक चाहिये जो वो भूमिकायें निभा सके जैसी कॄष्णजी ने महाभारत के समय में निभाई!

मुठभेड़ के समय तमाम लोग शिवसैनिकों और राज ठाकरे को खोज रहे थे।

समीरलाल अपना दुख प्रकट करते हुये कहते हैं:
हम (हिन्दु हैं,हम) हिन्दुस्तानी कायर हैं
हल्ला करने को शायर हैं..
तुम खेल सियासी चालों का
हम इक टुकड़ा हैं खालों का...
प्रमोदजी आगे क्या होगा इसकी झलक दिखलाते हुये लिखते हैं:
फुदकन प्रसाद फुदकते फिर सबको ख़बर करते घूमेंगे ढहा दिया उड़ा लिया गिरा दिया. इस रौरव जुगूप्‍सा की वज़ह जाने क्‍या होगी, खुद के चूतड़ के चिथड़े नहीं उड़े का आह्लाद होगा? सवारियां फिर इस गली से निकल उस सड़क पर जायेंगी, स्‍कूल का भारी झोला लिये एक बच्‍चा अपने घर आयेगा, समय और समाज के जंगल में खुशहाली सबसे आंख चुराती-सी होगी. फिर भी जो बचा रह जाता होगा उसके बच लेने में सरकार की कोई भूमिका न होती होगी.
युसुफ़ किरमानी सवाल पूछते हैं- पाकिस्तान पर हमले से कौन रोकता है ?

नीरज रोहिल्ला कहते हैं-
विस्फ़ोट की जिम्मेवारी लेने सरीखा काम भी केवल सनसनी फ़ैलाने वाला है । जब ब्रेकिंग न्यूज से सनसनी फ़ैल ही रही है तो अपना नाम भी क्यों बतायें । आज डेक्कन मुजाहिदीन तो कल शाहजहाँपुर मुजाहिदीन तो परसों औरैया मुजाहिदीन । कर लो जो करना है, हम नहीं बतायेंगे कि हमने किया है । आतंक सबसे भयावह होता है जब वो आपकी आंखो में हो, आप दिल में हो कि कोई भी जगह सुरक्षित नहीं है । क्या करेंगे ऐसे में आप ?
तमाम तरह के कानून और एजेन्सी बनाने के मसले पर उनका विचार है:
केवल एजेन्सियाँ बना देने से काम नहीं होगा । जो हवलदार ५०० रूपये लेकर ट्रक को बिना चैक कर जाने दे रहा है कि कागज पर सेब लिखा है लेकिन असल में टैक्स बचाने के लिये मसाले भरे हैं, उससे आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि अगली बार वो गोलियों से भरा ट्रक रोक लेगा । २०० रूपये लेकर ड्राइविंग लाईसेंस और राशन कार्ड बनाने वाला अनजाने में एक आतंकवादी को भारत का नागरिक नहीं बना देगा इसकी क्या गारण्टी है ? जब तक जनता ईमानदार नहीं होगी अगर फ़रिश्ते भी हमारी सेवा में लग जायें तो सुरक्षा की कोई गारण्टी नहीं दे सकता।
अब सवाल यह भी तो होगा कि जनता कैसे ईमानदार बने?

अनिल पुसदकर एक वाजिब सवाल उठाते हैं- क्‍या बिना लात खाए हम देश भक्त नहीं हो सकते! शिवकुमार मिश्र भी लगे हाथ सवाल पूछ लेते हैं- प्रभो, 'कंघीबाजी' से आगे भी कुछ सोचेंगे कि नहीं?

कुश की पीड़ा है-जबाब जो मिलते नहीं

कंचन लिखतीं है- हर तरफ ज़ुल्म है, बेबसी है, सहमा सहमा सा हर आदमी है

एस.टी.एफ़. के चीफ़ हेमंत करकरे की शहादत पर अपनी समझ के हिसाब से फ़ब्तियां कसने वाले भी यहां मौजूद थे। हेमंत करकरे की याद करते हुये गौरव सोलंकी की कविता बेचैन करने वाली है। ब्लाग जगत की सहज नेटवर्किंग की प्रवृत्ति के चलते शायद यह कम पढ़ी गयी| गौरव लिखते हैं:
हेमंत करकरे नाम का एक आदमी
मर गया था
और नहीं जीने देता था हमें।
ऐसे ही कई और साधारण नामों वाले आदमी
मर गए थे
जो नहीं थे सचिन तेंदुलकर, आमिर ख़ान
या अभिनव बिन्द्रा,
नहीं लिखी जा सकती थी उनकी जीवनियाँ
बहुत सारे व्यावसायिक कारणों से।
वे आगे लिखते हैं
कमज़ोर याददाश्त और महेन्द्र सिंह धोनी के इस समय में
यह हर सुबह गला फाड़कर उठती हुई हूक,
हेमंत करकरे, अशोक काम्टे, विजय सालस्कर
और बहुत सारे साधारण लोगों को बचाकर रख लेने की
एक नितांत स्वार्थी कोशिश है,
इसे कविता न कहा जाए।


खेतीबारी से जुड़े अशोक पाण्डेय जानकारी देते हैं- चीनी लहसुन से देश को खतरा, सुप्रीम कोर्ट ने दिया जलाने का आदेश

इस बीच युनुस अपने मन की तरंग दिखाते हुये एक लोकल स्टेशन का बुक स्टाल दिखाते हैं:
तो चलिए बुक-स्‍टॉल के 'मायाजाल' से होकर गुज़रें ।

शिखंडी, डेढ़ पसली का रावण, मेरी बीवी झांसी की रानी, कब मरेगा रावण, 24 कैरेट ऑपरेशन । केशव पंडित, ओमप्रकाश शर्मा और अन्‍य भारतीय बेस्‍ट-सेलर्स । चालीस रूपये की भारी-भरकम लुगदी।

एक लाइना

  1. कौन से दड़बे में घुसे हो नेताजी? : बूझो तो जाने!
  2. पुजारी बनाम मसीहा मुकाबला जोरो पर
  3. क्‍या बिना लात खाए हम देश भक्त नहीं हो सकते: कैसे हो सकते हैं जी, आदत से गद्दारी कैसे करें?
  4. प्रभो, 'कंघीबाजी' से आगे भी कुछ सोचेंगे कि नहीं? : कत्तई नहीं! तेल से सूट खराब हो जायेंगे!
  5. कहां हो शिवसैनिकों, मुंबई तुमको ढूंढ रही है : शिव सैनिक मौके के इंतजार में हैं
  6. आत्मसमर्पण गीत - हम हैं भेड़ बकरियों जैसे : कोई आये, चराये- जैसे मन चाहे वैसे!
  7. हम लुट चुके हैं दोस्तो! हमारे अपनों ने ही हमें लूटा है...: दुखवा मैं कासे कहूं सजनी
  8. आतंकवाद के विरुद्ध प्रहार : करने के लिये कविता का हथियार
  9. देश के लिये दौड़:चल भाग
  10. जागो देशवासियों: टीवी पर नया कार्यक्रम आ रहा है!
  11. रोया बहुत हूं मैं... : आंखे कुलबुला रहीं थीं, अब आराम है न!
  12. मुंबई हमले पर नया ब्लॉग : बाकी शहरों के लिये भी बना लिया जाये, काम आयेगा
  13. बच्चों को बताना ही पड़ेगा...: सो तो है!
  14. पोटा या नया कानून? से पहले जरुरी है सोंटा कानून
  15. नाकारा रहनुमाओं ने देश को किया शर्मसार : उनका यही काम है! उन्होंने किया!
  16. भारत को रूस की तरह तोड़ना चाहते हैं आतंकी: लेकिन हम फ़ेवीकोल के मजबूत जोड़ हैं!
  17. उफ़! किया क्या जाए?: ब्लाग लिखा जाये
  18. "दोषी कौन":जांच के बाद पता चलेगा

मेरी पसंद

तीस सेन्टीमीटर था बम का व्यास
और इसका प्रभाव पड़ता था सात मीटर तक
चार लोग मारे गए, ग्यारह घायल हुए
इनके चारों तरफ़ एक और बड़ा घेरा है - दर्द और समय का
दो हस्पताल और एक कब्रिस्तान तबाह हुए
लेकिन वह जवान औरत जिसे दफ़नाया गया शहर में
वह रहनेवाली थी सौ किलोमीटर से आगे कहीं की
वह बना देती है घेरे को और बड़ा
और वह अकेला शख़्स जो समुन्दर पार किसी
देश के सुदूर किनारों पर
उसकी मृत्यु का शोक कर रहा था -
समूचे संसार को ले लेता है इस घेरे में

और अनाथ बच्चों के उस रुदन का तो मैं
ज़िक्र तक नहीं करूंगा
जो पहुंचता है ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक
और उससे भी आगे
और जो एक घेरा बनाता है बिना अन्त
और बिना ईश्वर का.

येहूदा आमीखाई की कविता कबाड़खाना से साभार

और अंत में

सुबह छह बजे से शुरू करके अभी साढे आठ बजे तक इत्ते ब्लाग देख पाये सो इत्ती चर्चा कर दिये। बाकी आप देख लीजियेगा। आप सभी को शुभकामनायें।

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शुक्रवार, नवंबर 28, 2008

अब हर वक़्त हाई अलर्ट रहने का वक़्त है





ताज होटल में मुठभेड़ अभी भी जारी, नरीमन हाउस में आतंकवादियों से मुठभेड़ अभी भी जारी, ओबेराय होटल में सेना-एनएसजी की करवाई जारी, शहर के सभी स्कूल, कॉलेज, कार्यालय, शेयर बाज़ार, फिल्मों और सीरियल्स की शूटिंग सब बंद. मतलब कभी न रुकने वाली मुंबई शहर आतंक के साए में जी रही है और पूरी तरह से ठहरी हुई है...यह है इंडियन तमाशा पर सन्दीप की पोस्ट।

पता नही किसने कब क्या सोचकर यह गीत लिखा और गवा दिया -ये मुम्बई शहर हादसों का शहर है.....दिल्ली मे हाई अलर्ट है ...जीवन का हर पल मानों अब हाई अलर्ट पर है...हादसे शहर की नियति हो गये हैं। कहने की बात नही कि ब्लॉगजगत पिछले 36 घण्टों से शोक, आक्रोश, दुख और आतंक के मिले जुले भावों मे प्रतिक्रिया कर रहा है।

आर.अनुराधा ने अभी अनुरोध किया कि इस एक दिन हम सब हिन्दी ब्लॉग पर अपना सम्मिलित आक्रोश व्यक्त करे और यह चित्र अपनी पोस्ट मे डाल कर शोक प्रकट करें

यह देखना शायद उतना विचित्र नही है कि इस पूरे घटना क्रम पर ब्लॉग जगत की प्रतिक्रिया दुख से आक्रोश और कटाक्ष की ओर मुड़ती दिखाई दी और अनायास ही वाणी कटु व शैली व्यंग्यात्मक हो गयी, शब्द धधकने से लगे। मुद्दा पार्टियों की ओर भी मुड़ता दिखाई दिया पर आम आदमी दुख मिश्रित आक्रोश की मुद्रा मे ही रहा है। संजय बेंगाणी की अधिकांश टिप्पणियाँ इस तरह आयीं -शोक में डूबा है मन, क्या टिप्पणी दूँ, मन नहीं कर रहा कुछ भी लिखने को

कहते हो तो रो लेते हैं वाले अन्दाज़ मे समीर लाल समझ नही पा रहे कि शोक व्यक्त करने की रस्म अदायगी की जाए या खुद को टटोलने का प्रयास किया जाए,या शहीदों को श्रद्धांजलि दी जाए।

देखिये वे सभी पोस्ट जो हम सभी के सम्मिलित आक्रोश, क्षोभ और दुख को व्यक्त कर रही हैं -
ऊपर के तीन चित्र यहाँ से साभार

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गुरुवार, नवंबर 27, 2008

बेटा नामी चोर है, बाप है पहरेदार

आईबी की रिपोर्ट थी कि पन्द्रह से तीस नवम्बर के बीच में कोलकाता में आतंकवादी हमला हो सकता है. रिपोर्ट पढ़कर यहाँ के पुलिसवाले दो दिन के लिए सतर्क हो गए थे और हम गौरवान्वित. पुलिस वालों ने आने-जाने वाली गाड़ियों की तलाशी भी ली. दो दिनों तक उनकी तलाशी का टीवीय कार्यक्रम देखकर हमें थोड़ा गुमान हो गया था. ये सोचकर 'गुमानित' हुए जा रहे थे कि 'अब हमारा कोलकाता भी कोई छोटा-मोटा शहर नहीं रहा. आतंकवादी इस शहर को भी जानते हैं. यहाँ भी हमला होगा.'

लेकिन ये क्या? इन आतंकवादियों ने तो कोलकाता वालों को धोखा दे दिया. प्लान बनाया कोलकाता में हमला करने का और कर दिया मुम्बई में. आतंकवादी भी अब भरोसे के काबिल नहीं रहे. किसी भी ब्रांड के आतंकवादी भरोसे के काबिल नहीं रहे जी.

वैसे, कौन से ब्रांड का आतंकवादी हमें मारेगा? या फिर हम कौन से ब्रांड वाले से मरना पसंद करेंगे? अपने मरने के लिए कौन से ब्रांड के आतंकवादी पर भरोसा किया जा सकता है? घुघूती जी अपनी पोस्ट में यही सवाल करते हुए पूछती हैं;
"आइए अब हम झगड़ें कि ये किसके आतंकवादी हैं, इस धर्म के या उस धर्म के ? क्या मरने वाले को इससे कोई अन्तर पड़ेगा? कोई लोगों से पूछे कि वे किस ब्रांड के आतंकवादी के हाथ मरना पसंद करेंगे ?"
इस तरह के हमले आमजन को किस तरह से प्रभावित करते हैं इसका एहसास उनकी ये पोस्ट पढने से होता है. वे आगे लिखती हैं;
"बस यही कामना करती हूँ कि जिस होटल में मेरे पति हैं वहाँ के समाचार आने न शुरू हो जाए. स्वास्थ्य लाभ के बाद कल पहली बार एक मीटिंग के लिए मुम्बई गए हैं. बस यही बात कुछ सांत्वना दे रही है कि वे पाँच सितारा होटल में नहीं रुके हैं. वे ठीक हैं,उन्हीं ने फोन करके मुझे टी वी देखने को कहा. परन्तु बहुत से लोग जो होटलों में फंसे हैं वे ठीक नहीं हैं और वे सब भी हमारे ही हैं. किन्हीं ८० मृत व्यक्तियों के परिवारों का जीवन बदल गया है."
सच बात है. इस हमले ने ८० मृत व्यक्तियों के परिवारों के न जाने कितने सदस्यों का जीवन बदल दिया होगा. इस तरह से सारे हमलों के बारे में सोचा जाय तो एक अनुमान लगाया जा सकता है कि कितने लोग आए दिन आतंकवाद से प्रभावित हो रहे हैं.

घुघूती जी की इस पोस्ट को पढ़कर दिनेश राय द्विवेदी जी के मन में विचार कौंधा कि कल रात धर्म की मृत्यु हो गई. वे अपनी टिप्पणी में लिखते हैं;
"बिटिया मुम्बई में है, समाचार मिलने के ठीक पहले उस से बात हुई थी. रात भर समाचार आते रहे. इन्हें देखने के बाद नींद जैसी आनी चाहिए थी वैसी ही आई. पर आप की पोस्ट पढ़ने पर एक विचार कौंधा कि धर्म की आज रात मृत्यु हो गई. अब जो धर्म का नाम ले रहे हैं वे सभी उस की अंत्येष्टी में लगे हैं."
द्विवेदी जी के अनुसार जहाँ कल रात धर्म की मृत्यु हो गई. लेकिन एक ज़माना था जब धर्म कुलांचे मारता था. उस दिनों लोग धर्म की स्थापना के लिए न केवल लड़ते थे बल्कि उसका पालन करने के लिए निजी स्वार्थ को पीछे रख लेते थे.

महाभारत की लड़ाई समाप्त होने के बाद जब अश्वथामा ने द्रौपदी के पुत्रों को मार दिया. जब तक अर्जुन अश्वथामा को पकड़ कर द्रौपदी के सामने ला पाते, तबतक द्रौपदी धर्म का मर्म समझ चुकी थी. इस बात की जानकारी देते हुए मग्गा बाबा भीष्म के हवाले से अपनी पोस्ट में लिखते हैं;
"सत्य हमेशा सत्य होता है ! भले कड़वा हो पर सत्य खरा कुंदन है ! और किसी भी प्राणी
से वो व्यवहार मत करो जो तुम्हे अपने लिए ना पसंद हो ! यही था धर्म का मर्म !"
भीष्म द्बारा दिया गया धर्म का ये मर्म द्रौपदी की समझ में आ गया. इसलिए जब अर्जुन ने अश्वथामा को मारने के लिए अपनी कमर कसी तब द्रौपदी ने कहा;
"कल ही तो पितामह ने हमको धर्म का मर्म समझाया था की दुसरे के साथ वह व्यवहार मत करो जो तुम्हे अपने लिए पसंद ना हो ! और आज ही भूल भी गए ? अरे पुत्र वियोग की पीड़ा क्या होती है ? ये मुझसे अच्छी तरह और कौन जान सकता है ? मैं नही चाहती की माँ कृपी ( अश्वथामा की माता ) भी उस शोक को प्राप्त हो जिसे मैं भुगत रही हूँ ! अरे उनका इस अश्वथामा के अलावा अब इस दुनिया में बचा ही कौन है ?"
द्रौपदी की इस सोच पर महाभारत जी ने द्रौपदी को न केवल बुद्धिमान नारी बताया बल्कि मग्गा बाबा की जय-जयकार भी की. उन्होंने अपनी टिप्पणी में लिखा;
"ऎसी स्थिति में भी द्रौपदी ने अपना संयम नही खोया ! वो वाकई बहुत बुद्धिमान नारी थी ! मग्गाबाबा की जय !"
धर्म का ये मर्म शायद हमारी धर्मनिरपेक्ष सरकारों को समझ में आ गया है. यही कारण है कि वो आतंकवादियों के प्रति बदले की भावना से कार्यवाई नहीं करना चाहती.

जहाँ एक तरफ़ सरकार बदले की भावना से कोई कार्यवाई नहीं करना चाहती, वहीँ हर्षवर्धन जी का खून खौल रहा है. उन्हें इस बात का पछतावा है कि क्यों नहीं वे किसी फोर्स में भर्ती हुए? अपनी बात बताते हुए वे लिखते हैं;
"खून खौल रहा है. इच्छा ये कि क्यों नहीं मैं भी किसी फोर्स में हुआ. और, क्यों नहीं ऐसा मौका मुझे भी मिला कि दो-चार आतंवादियों को मार गिराता. साथ में कुछ नपुंसक नेताओं को भी."
हर्ष जी टीवी पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं. लिहाजा टीवी पत्रकारों की बात करते हुए वे लिखते हैं;
"हम टीवी वाले भले ही देश को न्यूज दिखाने के चक्कर में हर खबर को नाटकीय अंदाज पेश करने वाले बन गए हैं. लेकिन, सच्चाई यही है कि कलेजा हमारा भी कांपता है. औऱ,
खून हमारा भी खौलता है."
सच बात है. देश की आम जनता का केवल खून ही खौल सकता है. इस तरह से खून खौलने का रिजल्ट ये हुआ कि हर्ष जी ने नेताओं को नपुंसक बताया. जहाँ हर्ष जी ने नेताओं को नपुंसक बताया, वहीँ चंद्र मौलेश्वर प्रसाद जी ने जनता को नपुंसक बताया. अपनी टिप्पणी में प्रसाद जी लिखते हैं;
"जब तक नपुंसक जनता एकजुट होकर उन्हें राजनीति से नहीं निकाल देती. अब तो उन में इतना अहम आ गया है कि उत्तर देने की बजाय फोन पटक देते हैं!!!!!!!!!!"
'जनता' और 'नेता' से बने हुए देश को क्या कहा जाय?

मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के ऊपर लिखी गई हर पोस्ट पर ज्ञान दत्त पाण्डेय जी अपनी टिप्पणी में सबसे एक सवाल करते दिखे. अपनी टिप्पणी में उन्होंने सबसे पूछा;
"कौन हैं ये लोग?"
इसका जवाब जानने के लिए शिवराज पाटिल साहब का एक ब्लॉग बनवाना पड़ेगा. उनके ब्लॉग पर ये सवाल करने से शायद जवाब मिले. लेकिन वो भी तभी मिलेगा अगर पाटिल साहब शेरवानी शूट न बदल रहे हों.

वैसे जिस समय मैं ये चर्चा लिख रहा हूँ, मेरा पार्टनर विक्रम मेरे पास ही बैठा है. हर्ष जी के पोस्ट का शीर्षक, 'नपुंसक नेताओं के हाथ में कब तक रहेगा देश' को पढ़कर उसने अपनी टिप्पणी में कहा;
"ब्लॉगर लोग नेताओं को नपुंसक क्यों कह रहे हैं. उन्हें कैसे मालूम कि नपुंसक अगर देश पर शासन करेंगे तो उतने ही नकारा होंगे जितने हमारे ये नता हैं? अभी तक एक बार भी नपुंसकों के हाथ में शासन तो सौंपा नहीं."
विक्रम का कहना भी ठीक ही है. शासन तो नेताओं के हाथ में है. अब नेता हैं तो चुनाव है. चुनाव है तो उसका प्रचार है. प्रचार है तो वो अलोक पुराणिक जी के कानों तक पहुंचेगा ही. दिल्ली में आने वाले चुनावों में किसी नेताजी का प्रचार करने वाली एक 'टेलीफोनिक बालिका' ने पुराणिक जी को फ़ोन किया. उससे बातचीत के दौरान पुराणिक जी ने नेता के कैरेक्टर की तुलना जूते के कैरेक्टर से कर डाली. वे लिखते हैं;
"मैं आपको बताना चाहूंगी कि गारंटी जूतों के मामले में तो दी जा सकती है. पर नेताओं के साथ गारंटी वाला कोई आफऱ हमारे पास नहीं है. हमारे पास क्या, किसी के पास भी नहीं है."
उनकी इस पोस्ट पर ज्ञान दत्त पाण्डेय जी ने अपनी टिप्पणी में लिखा;
"गजब असमानता है जूते और नेता में. फिर भी दोनो को आप साथ ठेल दे रहे हैं. नेताओं से आपका लम्बी दूरी का वैर है. यह अच्छी बात नहीं है."
टिप्पणी से लगा जैसे पाण्डेय जी चाहते हैं कि पुराणिक जी का नेताओं से लम्बी दूरी का वैर न रहे. वैर छोटी दूरी का हो जाए.

व्यंगकार लम्बी दूरी का वैर जेब में लिए इतना कुछ कर देता है. दूरी घाट गई तो न जाने क्या कर डालेगा?

तरुण जी ने चिट्ठाचर्चा से छुट्टी ले ली. इसके बावजूद वे छोटी पोस्ट लिखते हैं. आज अपनी पोस्ट के शुरू में ही वे चेतावनी टाइप देते हैं कि;
"इस पोस्ट से किसी भी तरह की शालीनता और सयंम की उम्मीद ना करें."
ऐसी चेतावनी के बावजूद उनकी ये पोस्ट बहुत संयमित है. वे आगे लिखते हैं;
"इतने सारे विस्फोटों के होने के बाद भी ना सरकार को ना गृह मंत्री को शर्म तक नही ती कि उस जॉब से इस्तीफा दे दे जिसे करना उसके बुते की बात नही."
उन्होंने जब न्यूज में देखा कि दो आतंकवादी जिन्दा पकड़ लिए गए हैं तो उन्हें अच्छा नहीं लगा. उन्होंने अपनी पोस्ट में सवाल किया;
"इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी इन्हें क्या जिंदा पकड़ना जरूरी था? और बिहार के उस युवक को मारना क्यों जरूरी था?"
अब इस सवाल का जवाब कौन देगा? महाराष्ट्र के गृहमंत्री का ब्लॉग भी खुलवाना पड़ेगा. अरे वही जिन्होंने बिहार के इसी युवक के बारे में कहा था; "गोली का जवाब गोली से देंगे."

अब तो रिपोर्ट आए तो पता चले कि पकड़े गए दो आतंकवादी अपने गन से कहीं फूल तो नहीं फायर कर रहे थे?

अपनी पोस्ट में तरुण जी ने हेमंत करकरे और ऐसे ही अन्य पुलिस अधिकारियों और आम जन की मृत्यु पर शोक प्रकट किया. दिनेश राय द्विवेदी जी ने बताया कि हेमंत करकरे की मृत्यु से कई लोगों को सकून नामक भाव की प्राप्ति हुई होगी. तरुण जी के सवाल पर अपनी टिप्पणी में वे लिखते हैं;
"यह सवाल बहुत दिनों तक वातावरण में रहेगा, उस का उत्तर शायद ही मिल. हेमंत करकरे की मौत से शायद उन लोगों को सकून मिले जिन की आँख की पिछले दिनों वे किरकिरी थे. उन सभी शहीदों को विनम्र श्रद्धांजली जो कर्तव्य करते हुए शहीद हो गए."
द्विवेदी जी की टिप्पणी पढ़कर लगा जैसे वे करकरे से किरकिरी मिलाने के चक्कर में ऐसी टिप्पणी लिख गए. अन्यथा वे जानते हैं कि एक पुलिस अफसर की मौत पर किसे खुशी होगी?

हाल ही में दिल्ली में हुए जामिया हाउस मुठभेंड की बात को याद करते हुए शिव कुमार मिश्रा ने अपनी टिप्पणी में लिखा;
"हेमंत करकरे आतंकवादियों के साथ मुठभेंड में मारे गए. ये मुठभेंड सच्ची की थी क्या?"
आतंकवादी घटना ऐसी है कि कवि भी इसी मुद्दे पर कविता लिखते पाये गए. अभिनव अपनी कविता 'इंडियन लाफ्टर' देखिये, में लिखते हैं;
"मुंबई को बना दीजिये बमबई,
अरे, ये बगल से किसकी गोली गई,
किसने चलाई, क्यों चलाई, किस पर चलाई,
अमां छोडिये ये लीजिये दूध में एक्स्ट्रा मलाई "
काशी का अस्सी ज्ञानदत्त पाण्डेय जी की प्रिय किताब है. शायद इसीलिए इस किताब की 'शेल्फ लाइफ' लम्बी है और जब-तब शेल्फ से निकल आती है. प्रिय किताबों की यही खासियत होती है. एक जगह बैठ नहीं सकतीं. पाण्डेय जी के अनुसार उन्होंने कई बार जोर लगाया लेकिन काशी का अस्सी की तरंग का तोड़ नहीं मिलता. वे कहते हैं;
"खैर कितना भी जोर लगायें, तोड़ मिलता नहीं काशी की अस्सी की तरंग का. और उसका दो परसेण्ट@ भी अपनी लेखनी में दम नहीं है."
ये दो परसेंट वाली बात उन्होंने क्यों कहीं? इसका शायद दो धेले से कोई सम्बन्ध है.

वैसे तो प्रियंकर जी फिलहाल ब्लागरी से छुट्टी पर हैं लेकिन ज्ञानदत्त जी ने अपनी पिछली पोस्ट में प्रियंकर जी प्रदत्त एक टिप्पणी को पोस्ट के साथ लगा दिया है. काशी का अस्सी में इस्तेमाल की गई भाषा, जो गालीपूर्ण होने का एहसास दिलाती है, के बारे में प्रियंकर जी लिखते हैं;
"कुछ मुहं ऐसे होते हैं जिनसे निकली गालियां भी अश्लील नहीं लगती . कुछ ऐसे होते
हैं जिनका सामान्य सौजन्य भी अश्लीलता में आकंठ डूबा दिखता है . सो गालियों की
अश्लीलता की कोई सपाट समीक्षा या परिभाषा नहीं हो सकती."
अपनी टिप्पणी में वे आगे लिखते हैं;
"उनमें जो जबर्दस्त 'इमोशनल कंटेंट' होता है उसकी सम्यक समझ जरूरी है . गाली कई बार ताकतवर का विनोद होती है तो कई बार यह कमज़ोर और प्रताड़ित के आंसुओं की सहचरी भी होती है जो असहायता के बोध से उपजती है . कई बार यह प्रेमपूर्ण चुहल होती है तो कई बार मात्र निरर्थक तकियाकलाम."
गालियों की बात चली तो आपको बता दूँ कि कल तक कांग्रेस को गाली देने वाले पंगेबाज आज उसी पार्टी का चुनाव प्रचार कर रहे हैं. ये जानकर लगा कि ब्लॉगर कहीं नेता बनने की राह पर अग्रसर तो नहीं. अपने प्रचार में पंगेबाज लिखते हैं;
"काग्रेस शासन के अलावा इससे पहले कभी आपने इत्ती महंगाई देखी ?
काग्रेस ने कभी आपको गैस सिलेंडर बिना ब्लैक आसानी से मिलने दिया क्या ?
काग्रेस ने क्या दिल्ली मे और पूरे देश मे लूट की घटनाओ मे इजाफ़ा नही
कराया ?
काग्रेस ने कभी अल्पसंख्यक समुदाओ को बहुसंख्यक समुदाय के लोगो को मारने उनका
माल हथियाने मे कोई रुकावट खडी होने दी ?
काग्रेस ने क्या कभी भ्रष्टाचार के किसी भी मामले को खुलने दिया ?"
कांग्रेस के पक्ष में इतनी दलील देने के बाद उन्होंने लोगों से कांग्रेस को वोट देने की अपील की.
उनकी इस अपील पर कुश ने अपनी टिप्पणी में लिखा;
"पंजा तो हम देंगे.. लेकिन उनके गाल पर"
कुश की टिप्पणी से लगा कि वे कितने आशावादी हैं. उन्हें पूरा विश्वास है कि कांग्रेस अपना मुंह दिखायेगी. अगर ऐसा नहीं है तो कुश उनके गाल पर पंजा कैसे देंगे?

अनूप जी नैनीताल में बैठे हैं. कल बता रहे थे, वहां नेट कनेक्शन आता-जाता रहता है. ऐसे में एक
लाईन पर हमीं ट्राई मार लेते हैं.
अंत में एक दोहा हमारी तरफ़ से. बेकल उत्साही जी का दोहा है. वे लिखते हैं;

बेटा नामी चोर है, बाप है पहरेदार
लोग कहें महफूज़ है, सर्राफा बाज़ार

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बुधवार, नवंबर 26, 2008

लड़कियां जाने क्यों बिन वजह ही हँस देती हैं

चर्चा शुरू करने के पहले कुछ प्रमुख समाचार:
  1. ब्लोगीवुड की पहली फ़िल्म " शोले " रिलीज- बाक्स आफिस में टिकट के लिये मारामारी
  2. चुनाव के मौसम में समीरलाल का नारा- तुम तो बस नारे लगाओ!!
  3. गूगल की मदद से अब हिंदी में भी लुटना आसान
  4. ब्लागर की पहुंच का धमाल, वहां तक पहुंचा जहां कवि भी नहीं पहुंच पाता
  5. पुलिस की धर्म-निरपेक्षता का एक पहलू यह भी
  6. आलोक पुराणिक के ऊंट में मुंह में काजू बरामद
  7. इलाहाबाद में कुतिया ने दिये छोटे-छोटे पिल्ले चार
अब समाचार जरा विस्तार से। ब्लागजगत के हीरो कुश सोते-जागते ब्लाग की दुनिया में ही रहते हैं। वे ब्लाग ओढ़ते-बिछाते हैं। दुनिया की हर चीज को ब्लागर के चश्मे से देखते हैं। कल उन्होंने ब्लागईवुड की पहली फ़िल्म शोले रिलीज की। फ़िल्म देखते ही लोग इसे देखने के लिये लपक पड़े। शुरुआत गाने से हुई:
अरे मेरा ब्लॉग तेरा कमेन्ट
तेरा कमेन्ट मेरा ब्लॉग .. सुन ए मेरे यार..
जान पे भी खेलेंगे...
तेरे लिए ले लेंगे..
सबसे टिप्पणी...........
ये ब्लोगरी ..
हम नही छोड़ेंगे...
समीरलाल जहाज में अपने शाकाहारी मिशन के चलते पेट में चूहों से कबड्डी खिलवा दिये। जबलपुर पहुंचते ही इसके खिलाफ़ चुनाव के मौसम में नारे बाजी करने लगे।कहते हैं:
वजन की वजह से कहो मरणोपरांत आक्षेप लगा दें कि इनके वजन के कारण गिरा है जहाज, अतः घर वाले जुर्माना भरें. अमरीका है भई!! अपने फायदे के लिए जब सद्दाम को चूहे के बिल से पकड़ा दिखा सकता है तो हमारी क्या बिसात.
आपने देखा होगा कि लोग चोर-उचक्कों को देखते हैं तो या तो चोरों को थपड़िया देते हैं या फ़िर पुलिस को थमा देते हैं। लेकिन रवि रतलामी अलग जीव हैं। वे अपने लुटने के संदेश पर प्रसाद चढ़ा रहे हैं क्योंकि वह हिंदी में आया था।
अचानक मेरे मुंह से निकल पड़ा – आह! विश्व का पहला “हिन्दी में फ़िशिंग संदेश”!
आपने यह तो सुन ही रखा है कि जहां न जाय रवि, वहां जाय कवि। लेकिन ये ब्लागर के जमाने के पहले की बात है। आज तो ब्लागर वहां जा रहा है जहां कवि पहुंचने से इंकार कर देता है। पूजा उपाध्याय देखिये एक ब्लागर को कहां ले गईं:
"तुम्हारा और स्कॉच का कुछ रिलेशन समझ में नहीं आया" । वो मेरे ऑफिस में नई आई थी, उसके लैपटॉप पर कुछ सेटिंग करते हुए मैंने देखा कि उसने अपने आईपॉड का नाम "whiskey on the rocks" रखा था। जवाब देने के बजाये वह खिलखिला के हँस पड़ी, ये हँसी भी मेरी कुछ खास समझ में नहीं आई, लड़कियां जाने क्यों बिन वजह ही हँस देती हैं। जैसे कि उन्हें मालूम होता है कि हम उनकी हँसी से अपना सवाल भूल जायेंगे।
अभय तिवारी को पुलिस की धर्म-निरपेक्षता की पड़ताल करते हुये अपने विचार व्यक्त करते हैं। इस पोस्ट में उन्होंने पुलिस के पड़ताल करने के कुछ उदाहरण पेश किये हैं:
साम्प्रदायिक मानसिकता वाले अभियुक्तों के प्रति भी देश की पुलिस का पाशविक व्यवहार किस क़ानून और नीति की दृष्टि से जाइज़ है, मैं नहीं समझ सकता। अभियुक्तों ने पुलिस पर यातना की कई आरोप लगाये हैं ।
आलोक पुराणिक चुनाव के मौसम में ऊंट से पूछ रहे हैं भैया किस करवट बैठोगे? ऊंट है कि बता नहीं रहा है। अब ऊंट का नारकॊ टेस्ट तो होता नहीं सो आलोक जी ऊंट को डांटने लगे कहते हैं:
ऊंट आप विश्वसनीय नहीं रहे हैं, आपका कुछ पक्का ही नहीं है-मैंने डांटा।
मेरा पक्का नहीं है, तब ही तो तुम इंतजार कर रहे हो। जिनका सब कुछ पक्का होता है, उनमें मीडिया की दिलचस्पी नहीं रहती। पक्का तो अब मदनलाल खुरानाजी का है, कि अब कहीं नहीं जायेंगे। इसलिए मीडिया में कोई उनसे बात ही नहीं करता-ऊंट ने महीन बात कही।
ज्ञानजी के यहां वुधवार को पहले अवधिया जी अतिथि पोस्ट लिखते हैं। आज अतिथि पोस्ट रीता भाभी लिखिन हैं। बताती हैं:
सड़क की उस कुतिया ने अपनी डिलीवरी का इन्तजाम स्वयम किया था। कोई हाय तौबा नहीं। किसी औरत के साथ यह होता तो हड़कम्प मचता – गाड़ी/एम्ब्यूलेंस बुलाओ, डाक्टर/नर्सिंग होम का इन्तजाम करो, तरह तरह के इंजेक्शन-ड्रिप्स और जरा सी देर होती तो डाक्टर सीजेरियन कर चालीस हजार का बिल थमाता। फिर तरह तरह के भोजन-कपड़े-दवाओं के इन्तजाम। और पता नहीं क्या, क्या।
आगे वे संवेदनशील कामना करतीं हैं

प्रकृति अपने पर निर्भर रहने वालों की रक्षा भी करती है और उनसे ही इन्तजाम भी कराती है। ईश्वर करे; इस कुतिया के चारों बच्चे सुरक्षित रहें।

टिप्पणियां:


  1. एक और ख़ास ख़बर....सुना है फ़िल्म के कलेक्शन से प्रभावित होकर हीरोइन ने अपनी कीमत भी बढ़ा दी है! पल्लवी त्रिवेदी
  2. अगली पंक्ति में बैठ सीटी मारने में मजा आ रहा है. संजय बेंगाणी
  3. अगली बार मट्ठी और अचार ले के निकलना और सबको दिखा दिखा के खाना। आलोक कुमार
  4. क्या केने क्या केने। अभी ना मर रहे आप। जब तक हिंदी के एक एक ब्लाग पर आपकी टिप्पणी ना हो लेगी। जब तक हर नवोदित, उग चुके चुके लेखक को आप शुभकामना ना दे देंगे, तब तक आप ना मरेंगे। लिखवा कर गारंटी ले लीजियेगा। पक्की। आलोक पुराणिक
  5. 'कोई लड़की चाहे व्हिस्की पिए या किरासन तेल' हा हा ! ध्यान रखना पड़ेगा... ये ब्लॉग्गिंग भी...
    अभिषेक ओझा
  6. मैं कहता हूँ कि मेरे अंदर एक मुसलमान और पाकिस्तान रहता है. पंकज

एक लाइना

  1. क्या चिट्ठाकारी बेवकूफों के लिये है? अरे नहीं शास्त्रीजी, आप सबको अपने जैसा काहे समझ रहे हैं! हम लोग भी हैं चिट्ठाकारी के मैदान में!

  2. ताऊ ने चाँद पर कालोनी काटी : बुकिंग शुरू ताऊ के ब्लाग पर टिपियाने वालों को खास छूट

  3. तुम तो बस नारे लगाओ!!: हम सिर्फ़ मुंडी हिलायेंगे

  4. सफ़दर अली ख़ान लौटना चाहते हैं : त आयें न लौट के

  5. ओ पहाड़,मेरे पहाड़: बोलो भाई कुछ कहो भी तो!

  6. "ब्लॉग लिखे जाने के सात महत्वपूर्ण कारण " : सातो एक साथ लागू होते हैं कि अलग-अलग?

  7. खुश होने के नियम: सबसे बड़ी बात किसी नियम के पचड़े में मत पड़ॊ

  8. मंदी आई है तो फिर दूर तलक जायेगी...: पहले नानी फ़िर छ्ठी का दूध याद दिलवायेगी

  9. यह आख़री सलाम मेरा तेरे नाम है : इसके बाद वाले किसके नाम होंगे?

मेरी पसंद

आपका पूरा प्रदर्शन हो गया है |
हर जगह पर दूरदर्शन हो गया है |

अब न बदलेंगे यहाँ मौसम कभी
मुल्क का वातालूकुलन हो गया है |

खिलखिलाती कुर्सियाँ आयोजनों में
लोकमत निर्बल निवेदन हो गया है |

वंश बढ़ता जा रहा है लम्पटों का
सत्य का जबरन नियोजन हो गया है |

आइये अब तो करें बातें हृदय की
देह का सम्पूर्ण शोषण हो गया है |

कांपती है एक बूढी झोंपडी
आज मलयानिल प्रभंजन हो गया है |

कवि राय जोशी

और अंत में

घर से दूर नैनीताल की उत्तराखंड अकादमी से यह चर्चा ठेलते हुये ख्याल आया कि शीर्षक लिखा जाये- नैनीताल की वादियों से दुनिया की पहली चिट्ठाचर्चा। लेकिन बचा गये। ज्यादा मुफ़ीद टाइटिल पूजा उपाध्याय की पोस्ट का लगा।

चिट्ठाचर्चा के टेम्पेलेट में कुछ बदलाव देबाशीष ने किये हैं। आप इस बारे में अपने सुझाव दें। कैसा लगा। और क्या होना चाहिये इसमें।

चर्चा शुरू किये तो नेट कनेक्शन था। अब जब समेटने की बारी आई तो मुआ गायब है, बत्ती समेत। ओट मजे की बात कि गीजर/हीटर चल रहा है लेकिन रोशनी वाली लाइन उड़ी है।

तमाम ब्लाग जिनको मैंने पढ़ रखा था और जिनके बारे में सोचा था कि उनके बारे में लिखेंगे वो इस नेट-अपंगता के चलते दिख नहीं रहे हैं। अब जो हो गया सो हो गया। इत्ता बचा के रखते हैं अपनी पेन-ड्राइव में। जहां नेट मिला, ठेल देंगे।

पिछली चर्चायें कविताजी और विवेक सिंह ने की। इस टेप्पेलेट की अच्छाई यह भी है कि आप पिछ्ली चर्चायें भीं थोड़ा दक्षिणपंथी होकर देख सकते हैं।

अब कल शिवबाबू का नम्बर है। इसके पहले जहां मौका मिला हम फ़िर फ़िर से हाजिर होंगे जो बच गया उसे ठेलने के लिये।

तब तक आप प्रसन्न रहें, मस्त रहें और बिना वजह हंसते रहें। कोई टैक्स नहीं है जी हंसने पर!

छपते-छपते: हम इसे अभी पोस्ट कर ही रहे थे कि देखा अभय भाई ने अपनी पहली चर्चा की है। अभय का चर्चा मंच से जुड़ना हमारे लिये सुखद अनुभव है। मजे की बात है कि उनकी पोस्ट का टाइटिल है -सिगरेट पीती हुई लड़कियां और हमारी इस चर्चा का शीर्षक है -लड़कियां जाने क्यों बिन वजह ही हँस देती हैं। मात्र संयोग है कि दोनों कनपुरियों के ब्लाग शीर्षक लड़कियों पर क्रेंद्रित हैं। अगर नये टेम्पेलेट में यह सुविधा न होती कि हाल की चर्चायें दिखें तो शायद मैं इसे अभी न पोस्ट करता। शाम को करता।

बहरहाल अब फ़ाइनली इत्ता ही। बकिया फ़िर।

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सिगरेट पीती हुई लड़कियाँ

अनूप भाई ने बहुत पहले मुझे चिट्ठा चर्चा का आमंत्रण भेजा था.. मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया था क्योंकि यह एक सार्थक मंच है। रोज़ छपने वालों दिलचस्प चिट्ठों की चर्चा की एक परम्परा को अनूप भाई तथा अन्य साथी जिलाए हुए हैं। मेरे ज़ेहन में इस से अलग भी चिट्ठा चर्चा का एक प्रारूप था.. जिस में केवल एक नए दिलचस्प चिट्ठे की चर्चा की जाए। यही सोच कर मैंने आमंत्रण के लिए हामी भरी थी। अनेक दिलचस्प चिट्ठे रोज़ाना जुड़ रहे हैं.. मगर मैं अपनी निष्क्रियता के चलते उनकी चर्चा नहीं कर सका। आज मेरी नज़र एक ऐसे चिट्ठे पर पड़ी जिसने मुझे इस चर्चा के लिए प्रेरित किया।

यह चिट्ठा है.. अपना अपना आसमां.. और इसके चिट्ठाकार है सुमित सिंह। सुमित यूँ तो दिसम्बर २००७ से चिट्ठा लिख रहे हैं.. मगर महीने में एक ही आध पोस्ट लिखते हैं। कल उन्होने अपनी एक कविता चढ़ाई- सिगरेट पीती लड़कियाँ पिघलते एहसास की परछाई हैं

कविताओं के प्रति मेरा रुख अक्सर उदासीनता का रहा है। पिछले दिनों मैंने कविता के बने-बनाए पन पर अपने एक प्रिय लेखक की आलोचना भी की थी.. सुमित में मुझे वही बात जँच गई जिसका अभाव मुझे प्रायः कवियों में खलता है। वो है अनुभूति की ईमानदारी।

सुमित की उक्त कविता प्रचलित राजनीति, सामाजिक मान्यताओं और पोलिटिकल करेक्टनेस की परवाह न करते हुए अपनी एहसास के प्रति निष्ठावान रहती है। हो सकता है कि मैं सुमित की राजनैतिक और सामाजिक समझ से सहमत न होऊँ.. मगर कविता कोई नारा तो नहीं होती। नारा और कविता असल में तो एक दूसरे के ठीक विपरीत हैं। नारा तमाम जटिलताओं को एक दो मोटे वाक्यों में समेटने की विधा है और कविता जीवन, मन और समाज की तमाम जटिलताओं का खोलने और उधेड़ने का काम है। ये काम तब तक नहीं होगा जब तक कवि बनी-बनाई समझ और मान्यातों को चुनौती नहीं देगा।

सुमित सिंह को मेरी बहुत शुभकामनाएं.. ताकि वे अन्य कवियों की तरह सहम कर दुबक कर कविता न करें.. और ऐसे ही साहस से रचनाकर्म करते रहें! कविता ऐसे शुरु होती है..
एक झूठ को सदी के सबसे आसान सच में बदलने की कोशिश करती हैं
सिगरेट पीती हुई लड़कियाँ …
उंगलियों में हल्के से फंसाकर
धुँएं की एक सहमी लकीर बनाना चाहती हैं
ताकि वे बेबस किस्म की अपनी खूबसूरती को भाप बना कर उड़ा सकें
पूरी कविता को सुमित के चिट्ठे पर देंखे।

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मंगलवार, नवंबर 25, 2008

फुरसतिया की फुरसत का राज ?

ब्लॉगर भाई और भाभियों को हम शीश झुकावें ।
कवित विवेक एक नहिं मोरे फिर भी चर्चा गावें ॥

फुरसतिया की फुरसत का सब राज तुम्हें बतलाएं ।
बैठे नैनीताल, दूसरे उनका ब्लॉग चलाएं ॥

अनूप शुक्ला ने पब्लिक का आज भरोसा खोया ।
व्यंग्य पुरुष आलोक पुराणिक ने विश्वास डुबोया

ज्ञानदत्त भी रहे न पीछे पोल सभी की खोली
ट्यूब हुई खाली तो टिप्पणियों की शामत हो ली ॥

धर्मान्तरण रोकने का गम्भीर सवाल उठाया ।
किन्तु समस्या ज्यों की त्यों कुछ ज्ञान काम ना आया ॥

गुरु कराते फतवा जारी मुफ्ती को उकसाके ।
दाँव पड गया उल्टा साझीदार छोडकर भागे ॥

मुझको तो पहले ही शक था यह कलयुग की यारी ।
संकट आता देख छोडकर जाने की तैयारी ॥

नए ब्लॉग ज्ञानदर्पण से नेहनिमन्त्रण आया ।
रतन सिंह शेखावत ने यह अपना ब्लॉग बनाया ॥

राजनीति में जाना हो तो पढें काम की बातें ।
कूटनीति की खूब बिछाएं उसके बाद बिसातें ॥

ब्लॉगजगत के हीरो ताऊ इनके बिन सब सूना ।
पर अफसोस लगाया इनको फेरीवाला चूना ॥

आया चुनाव तो नेता आकर कदमों में झूले ।
बीत गया जब नारदमुनि की सूरत तक वे भूले ॥

नीरज गोस्वामी बतलाएं इनके यार लुटेरे
डॉक्टर जी को मिले भाग्य से घी के लड्डू टेढे

कुछ लम्हे सीमा गुप्ता ने ऐसा जादू डारा ।
पढी पोस्ट मन ज्ञानदत्त पाण्डेय जी का बंजारा

इनकी माँ मर गई जानकर हमें दुख हुआ भारी ।
हाय गरीबी ऊपर से यह डॉक्टर अत्याचारी ॥

वादे हैं वादों का क्या यह बलविंदर समझाएं ।
विवेक सिंह यों कहें देश से ओवरटाइम हटाएं

सभी धुरन्धर एक साथ लाए संदीप पहेली ।
देखें आप निराश न होंगे है अद्भुत अलबेली ॥

हिन्दी ब्लॉग लेखन के अन्तर्विरोध समझावें ।

क्लिष्ट शब्द कुछ हैं फिर भी जैसे तैसे पढ जावें ॥

अर्थजगत की बातों को ये मुहँ फाडकर सुनाएं ।
मुहँफट इनका नाम हमें क्या आप गौर फरमाएं ॥

श्रीलंका पर भारत की यह सोच सही ठहराएं ।
किन्तु स्वयं पर क्या सोचे भारत यह तो बतलाएं ?

उत्साही फिरदौस खान कुछ हैं उदास यह जाना ।
एक कहानी यह भी है जो कविता ब्लॉग जनाना

एक अजनबी बता रहे हैं सुनें सभी हम क्या हैं
मनुष्य की पहचान बताते सुरेश चन्द्र गुप्ता हैं ॥

सबसे मेहनतकश ब्लॉगर का मेडल जब आएगा ।
सुरेश चन्द्र गुप्ता जी को ही निर्विवाद जाएगा ॥

कन्या भ्रूणों की हत्या पर सुमित चमडिया बोले ।
घूघूती बासूती की भावुक कविता मन डोले ॥

मग्गा बाबा ने अपने अनमोल वचन यूँ बाँटे ।
द्रौपदी के पाँच पुत्र अश्वत्थामा ने काटे ॥

दिल्ली में सिक्कों की है क्यों कमी यहाँ पर जानें ।
कौपरनिकस वैज्ञानिक थे इनको भी पहचानें ॥

भारत की नारी झलकारी कथा ज्ञान की पाई ।
यहाँ वर बधू के विज्ञापन पर यह पोस्ट बनाई ॥

वोट नहीं देना भी तो है वोट, तर्क में दम है ।
इसका अर्थ व्यवस्था में विश्वास हमारा कम है ॥

पौराणिक कहानियों का हो जिनको शौक पुराना ।
चाहें चन्दा मामा के बारे में कुछ बतलाना ॥

भूतनाथ की भी सुन लें कुछ चाहें बात सुनाना ।

इनके भीतर एक फरिश्ता कैसा ताना बाना

मजेदार
योगेन्द्र मौद्गिल जी की सब कविताएं ।
रचना सिंह जिंदगी की गुजरी यादों में जाएं ॥

महेन्द्र मिश्रा भी जवान दिल कविताएं हैं कहते ।
मनविन्दर बिंबर के हर्फ हवा में लटके रहते ॥

भला रंजना जी भूलें अपनी पलकों के आँसू ?
आओ सुनवा ही दें सबको उनकी कविता धाँसू ॥

और अन्त में कैसे टिपियाना है सुनते जाएं ।
भला बुरा सब चल जाएगा पर अवश्य टिपियाएं ॥

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सोमवार, नवंबर 24, 2008

अपनी ही तुच्छताओं की अधीनता

आज यद्यपि मुझे यात्रा पर निकलना है और प्रातः ४.३० बजे बैठ कर चर्चा शुरू करने की इस घड़ी में अभी यह भी नहीं पता कि कितना लिखा जा सकेगा। स्पोंडेलाइटिस के गंभीर कष्ट से १० घंटे से परेशान हूँ , परन्तु अनूप जी की अनुपस्थिति में यह उचित नहीं कि कुछ भी न लिखा जाए| इसलिए जिनकी चर्चा महत्त्वपूर्ण होते हुए भी यहाँ उद्धृत करने से रह जाए वे सभी कृपया इसे अन्यथा न लें व सद्भाव बनाए रखें।

हिन्दी साहित्य प्रेमियों के लिए कल का दिन ज्ञानपीठ की घोषणा के कारण महत्वपूर्ण रहा क्योंकि इस सम्मान के लिए हिन्दी के वरिष्ठ कवि कुंवर नारायण के नाम की घोषणा हुई|
इस घोषणा के बाद कि वर्ष २००५ का ज्ञानपीठ पुरस्कार हिन्दी के शीर्षस्थ कवि कुंवर नारायण को दिया जाना है, यह उक्ति दुहराने का मन होता है कि इससे ज्ञानपीठ की ही प्रतिष्ठा बढ़ी है। ज्ञानपीठ पुरस्कार को समस्त भारतीय भाषाओँ के साहित्य में अत्यंत प्रतिष्ठित माना जाता है, पर इसके साथ भी विवाद और चयनित कवि-लेखक को लेकर बिल्कुल फर्क किस्म की बातें सामने आती रही है। इस परिप्रेक्ष्य में कुंवरजी का निर्विवाद चयन कुछ विलंबित ज़रूर है, पर इससे हिन्दी और विशेषकर कविता का सम्मान बढ़ा है। स्वयं कुंवरजी इसके लिए ख़ुद को एक निमित्त भर मानते हैं।
वैसे अनुराग जी निर्विवाद रूप से सामने आया है नाम परन्तु कई नॉन पार्टी वरिष्ठ साहित्यकारों से कल ( व गत २ माह से भी) फोनाचार द्वारा यह सुना गया कि बिसात तो पक्की बिछी थी, और....; खैर जाने दीजिए भारत में किसी भी ज्ञान शाखा से (या अन्य) संस्था के स्तर को बरकार रखने या बचे रहने की बात करना ही एक बड़ा व्यंग्य है|क्यों ऐसा होता है कि खेमे, धन,प्रभुता आदि के प्रयोग की मानसिकता के चलते लोगबाग कुछ भी अंजाम देने से नहीं सकुचाते

आने वाले समय में भी कुंठा का यह आलम कम होता दिखाई नहीं देता। संभावनाशील रचनाकारों के लिए पुरस्कार, पद, गद्दियाँ, आसन कुछ मायने नहीं रखने चाहिएँ । निराला को किसने क्या दिया,और क्या उन्होंने स्वीकारा? परन्तु कालजयी रचनाकार अपने को स्वयं स्थापित करता है वरना दूसरों को गिराने और उठाने की उठापटक वे करते हैं जिनके पास करने को कोई सर्जनात्मक कार्य नहीं हो।

कल एक रोचक प्रविष्टि आई, रोचक इसलिए कि उसके शीर्षक में एक शब्द ने बड़ा भ्रम पैदा कर दिया। विषयवस्तु भी कंधे थे और लेखमाला को पूरा करने के अपने बोझिल प्रतीत होते प्रयास की तुलना भी कंधे से की गयी थी। अब यदि कोई यह न पढ़े कि
जी हाँ यह पुरूष पर्यवेक्षण यात्रा तो अब कंधे पर लदे वैताल के मानिंद ही हो चली है ! पर मुझे इसे पूरा करना ही है -तो आगे बढ़ें -
तो कैसे अन्तर करेगा कि लदी कहने से शव या बोरे आदि का जो आभास उसे हो रहा है, वह टिकी कहने से विषयवस्तु से जुड जाता।

आप सभी ने एक गीत अवश्य सुना होगा और वह खेला भी देखा ही होगा, जो आज के नगरों के बच्चों के नसीब में नहीं है " .... घर बैठे सारा संसार देखो .. पैसा फेंको तमाशा देखो" पर बिना पैसे के हींग लगे न फिटकरी वाली बात हो तब तो वश्य देखना - दिखाना चाहिए| ये है हिन्दुस्तान मेरी जान!

इसी क्रम में विश्वप्रसिद्ध खजुराहो देखने साथ चलेंगे ?

अब घूमने घुमाने निकल ही पड़े हैं तो साहित्य अकादमी के त्रिदिवसीय कार्यक्रम में भी पधारें, अपनी इसी यात्रा का संकेत ऊपर किया था।

ज्ञान जी ने अपनी अफसरी चर्चा के प्रसंग वाले सारे एस.एम.एस. ब्लॉगर साथियों को सुनाने का लोभ किया तो उनकी निकटतम ब्लॉगर साथी ( और जीवनसाथी) से टिप्पणी का यह प्रतिसाद मिला -
लोगों में जब यह प्रतिभा होती है, तब रोजी-रोटी की चिंता इंजीनियरिंग पढ़वाती है। जब रोजी-रोटी का इंतजाम हो जाता है, तब यह प्रतिभा शुष्क हो चुकी होती है!
मामले की गंभीरता को जानना हो तो ज़रा- सा यहाँ तक टहल आईये, अंदाजा हो जाएगा|
ताऊ की एक खासियत होती है की अगर किसी को गलती या बदमाशी करते देख लिया तो उसको ५/७ लट्ठ जरुर मारेगा और कान के नीचे भी ३/४ जरूर बजायेगा ! ख़ुद का चाहे कितणा भी नुक्सान क्यूँ ना हो जाए !
रचना जी को ताऊ जी की इस सेवा का लाभ उठाकर घर के खाने से रेस्टोरेंट खोलने वालों की ख़बर लेनी चाहिए।

वरना रेस्टोरेंट में जा कर शाकाहारी भी खतरों से खेलने की मंशा पलने लगते हैं। अब इन्हें कौन बताए कि जब घी के लड्डू हों तो भला क्यों संताप करते हैं?

घर की बात चली तो याद आया कि क़स्बे की ओर से कल एक मार्मिक प्रश्न उठाया गया -
बहुत सारी मांओं ने अपनी बेटी का घर नहीं देखा होगा। अपनी लाडली का ससुराल कैसा है बहुत मांओं ने नहीं देखा है। बेटी का नहीं खाते हैं, इस बेहूदा सामाजिक वर्जना के अलावा कई अन्य कारण भी रहे होंगे जिनके कारण मांओं ने अपनी ब्याहता बेटियों का घर नहीं देखा होगा।
बेटियों की बात हुई तो बेटों की भी हो और फिर समूह में घूमते बेटे बेटियों की भी
अपन और ज्यादातर सभी सिर-कान से लेकर पाँव के अंगुठे तक पैक थे लेकिन देखता हूँ कि इनका ये ग्रुप अचानक अपने बाहर के कपड़े उतार देता है, लड़कों के बदन पर रह जाते हैं सिर्फ कच्छे (अंडरवियर) और लड़कियों के ब्रा और कच्छे। इधर उधर गुजरते सब लोग उनको ही देखने लगते, मैं उनको क्रॉस करते हुए एक उड़ती नजर डालता हूँ तो हायला ये क्या वो लड़के लड़कियाँ जो सबसे पीछे खड़े हैं, जिनका फोटो में चेहरा भी मुश्किल से आयेगा वो भी कपड़े उतारे फोटो खिंचवा रहे थे।

अब इसे क्या कहूँ पागलपन या जोश में होश खोती जवानी के लम्हों को संजो कर रखने की एक अनोखी और यादगार कोशिश जिसे दिवार में टांगकर तो रख नही सकते, किसी आल्मारी में ही रखना पड़ेगा।

इस घटना के सामने मेरी जमीन पर एक परिचय ऐसा भी मिला-

जीवन मे कुल अठ्ठाईस वैलेन्टाईन डे का बहिष्कार कर चुका हूँ इसलिये उचित ही अविवाहित हूँ. मिडिलवेयर सोफ्ट्वेयर के क्षेत्र में काम करता हूँ और अक्सर डेवलपमेंट, टेस्टिंग, बग्, डिफेक्ट फिक्सिंग और पर्फ़ौरमेंस ट्यूनिंग के लफडो में अपने को फ़ंसा पाता हूं.
मोदी के कार्यकाल में गिराए गए मंदिरों की चर्चा कारण जानने के लिए यहाँ जाएँ।

महान पिता की महान बात तो ठीक है, पर आपके ब्लॉग के नाम में प्रयुक्त मंत्र बुरी तरह अशुद्ध प्रयोग है | गनीमत है कि उसे पट पर दिखाया नहीं जा रहा केवल टेम्लेट में एडिट करके डाला गया है, सो टैब ही में आता है ।

कुछ गोपनीय पढ़ना चाहते हैं ? यह रहा

हमने तो इतिहास में एक ही काण्ड ( काकोरी ) सुना पढा था पर आज कल कुछ नए किस्म के ही होते हैं . इधर यह काण्ड हुआ तो हम खैर मना रहे हैं कि कहीं काण्डकारी सज्जन तक शिव जी का कहा न पहुँच जाए -
अगर युद्ध समाप्त होने के बाद फिर से कोई ये मामला उठाएगा ही तो एक जाँच कमीशन बैठा दूँगा. मेरे पिताश्री का क्या जाता है? मैंने तो सोच लिया है कि अगर जाँच कमीशन बैठाना भी पड़ा तो क्या फ़िक्र? मैं जो चाहूँगा, वही तो होगा. मैं तो साबित कर दूँगा कि दुशासन ने द्रौपदी की साड़ी उतारने की कोशिश नहीं की. ख़ुद द्रौपदी ही राज दरबार में आकर अपनी साड़ी उतारने लगी. ताकि वहां हंगामा करके दुशासन को फंसा सके.

ऐसी रिपोर्ट बनवा दूँगा कि द्रौपदी को ही सज़ा हो जायेगी।

अब भाटिया जी को इतने सुंदर फूल कीहचान पूछते भला क्या पता था कि एक ही जन इसे बूझ पाएगा वैसे इमली को भी क्या पता था कि जिस ब्लॉग जगत में कालसर्प योग का परिचय भी ऑनलाईन उपलब्ध है वहाँ एक ही बाशिंदा उसके फूल को चीन्ह सकेगा? इमली को अंग्रेजी में टैमरिंड कहते हैं, इस शब्द की कथा इतनी रोचक है कि यदि चुनाव के चक्कर में शब्दों का सफ अटका होता तो उनसे बाँटा जाता।

कविताएँ पढने का शौक भी इस बार पूरा कर सकते हैं आप ।

अजीब वक्त है

अजीब वक्त है -
बिना लड़े ही एक देश-का देश
स्वीकार करता चला जाता
अपनी ही तुच्छताओं की अधीनता !
कुछ तो फर्क बचता
धर्मयुद्ध और कीटयुद्ध में -
कोई तो हार जीत के नियमों में
स्वाभिमान के अर्थ को
फिर से ईजाद करता ।

- कुंवर नारायण

[ वरिष्ट कवि कुंवर नारायण की राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'कोई दूसरा नहीं' तथा 'सामयिक वार्ता' (अगस्त-सितंबर १९९३) से साभार ]

अंत में

आज की चर्चा इतनी ही। अभी ७.४५ हैं. कुल ३ घंटे। शाम का एक लाईन आज संभव नहीं(अब यात्रा की मजबूरी ठहरी)। चाहें तो विवेक अपनी कलम के जौहर आज रात या कल सुबह की चर्चा के रूप में दिखा सकते हैं| आगे उन पर व आप सभी पर| अन्य भाषा के चिट्ठे भी इस बार छूट रहे हैं।

टिप्पणियों द्वारा सहयोग करने वाले मित्रों को धन्यवाद भी देना अभी ही अनिवार्य है, वरना आगामी सप्ताह तक टल जाएगा। सो, मित्रो! सद्भाव बनाए रखें।

प्रतिक्रियाएँ आगे लिखने की इच्छा जगाती हैं|

अभिनन्दन !!

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रविवार, नवंबर 23, 2008

कहॉं गए वो ब्‍लॉग

अनूपजी शनिवारी चर्चा ठेल के चले गए हैं नैनीताल गए तो हैं ट्रेनिंग के नाम पर हमारा मन विश्‍वास करने को नहीं करता तो नहीं करता इसमें भी दोष उनका ही कहा जाना चाहिए आखिर अपनी छवि आदमी खुद ही बनाता है। खैर हमें रविवार को चर्चा का स्‍लॉट खाली दिखा तो सोचा क्‍यों न अपनी उमड़-घुमड़ को दे मारें। रोजाना चिट्ठाचर्चा होती है उन चिट्ठों की जिन पर प्रविष्टियॉं लिखी गई हैं, पर कितने ही ब्‍लॉग ऐसे हैं जो हैं पर उनसे पोस्‍टें नदारद हैं। अब चिट्ठाजगत के इन दो आरेखों को ही देखें-

ScreenHunter_01 Nov. 23 14.02

ScreenHunter_02 Nov. 23 14.03

इस बात कामतलब है कि सक्रिय ब्‍लॉग संख्‍या में कम है आनुपातिक रूप से भी। ऐसे में उन ब्‍लॉगों की याद आना स्‍वाभाविक है जो सक्रिय रहे जो दिशा देते रहे पर न जाने क्‍यों लाल से नारंगी खेमे में चले गए। आस फुरसत का दिन है तो तीन चिट्ठों को याद करने का काम निपटा लेते हैं नहीं वे कहेंगे कि बस यही याराना था -

Shrish_Passport भई सबसे ज्‍यादा तो हैरान करते हैं श्रीश बेंजवाल शर्मा का ब्‍लॉग ईपंडित मास्‍साब की आखरी पोस्‍ट पिछले अक्‍तूबर की है तब से इक्‍का-दंक्‍का टिप्‍पणी तो दिखी पर वे खुद न दिखे...तिसपर तुक्‍का ये कि ये बेचारे तो समय की कमी का बहाना भी नहीं बना सकते। हम से बेहतर कौन बताएगा कि मास्‍टर के पास समय ही इफरात से होता है। हॉं ये अलग बात है कि हमारी तरह हिन्‍दी के नहीं गणित के मास्टर हैं इसलिए ट्यूशन व्‍यूशन के झंझट में पड़ गए हों तो अलग बात है।

इस क्रम में एक अन्‍य ब्‍लॉग जो याद आता है वह है अपने गदाधारी दोस्‍त सृजन शिल्‍पी का। अपने डोमेन पर जाने वाले बिल्‍कुल शुरूआती चिट्ठाकारों में रहे सृजन ने बीच में एक पोस्‍ट ठेलकर अपने सपने व मोचित होने की सूचना तो दी थी पर कुल मिलाकर उनका ScreenHunter_04 Nov. 23 14.22ब्‍लॉग सृजनशिल्‍पी मूर्तिशिल्‍प मोड में है। उठो पार्थ गदा संभालो, मन नहीं लग रहा।

पंकज नरूला यानि मिर्ची सेठ अपनी धुरंधर गतिशीलता या अहम के लिए नहीं वरन उसके अभाव के लिए ही जाने जाते हैं। पंकज के ब्‍लॉग पर पिछले महीने एक पोस्‍ट दिखी थी। (दरअसल हमारी निगाह से तो छूट ही गई थी। खोजते बॉंचते अब दिखी) इनके भी अधिक दिखने की उम्‍मीद पाले हैं।

ऐसे में जब कितने ही दोस्‍त टंकी आरोहण करने पर उतारू हैं। कुन्‍नूसिंह तक जाने की सूचना दे चुके हैं। हम तो यही कह सकते हैं कि कुछ दूर और साथ चलते तो अच्‍छा था।

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शनिवार, नवंबर 22, 2008

शनिचरी चर्चा निठल्ले के साथ


ब्लागरी फ़ूल
[चर्चा पढ़ने के पहले बगल वाली फोटू देख लें कि ब्लागरी में सिद्धार्थ के क्या हाल हुये।]

आज शनिवार का दिन है। तरुण निठल्ले भाई की चर्चा का दिन। वे गायब हैं, कहते हैं अब चर्चा अगले साल। कुश भी कुछ दिन के लिये छुट्टी पर हैं। समीरलाल पहले ही गोल-मटोल हो गये। विवेक सिंह भी इधर-उधर हो गये। सब लोग एक-एक कर व्यस्त होते जा रहे हैं। आपको कभी लगा कि किधर लग लिये सब लोग?

मुझे अंदाज नहीं था लेकिन कल रात जब ताऊ की पोस्ट बांची तब माजरा खुला। असल में ताऊ ने तमाम लोगों से कर्ज ले रखा था। एक से लेकर दूसरे का चुका रहे थे। इसके बाद क्या हुआ सुनिये
अब इतने समय बाद ताऊ का भी दिमाग ख़राब हो गया ! रोज इससे लो और उसको दो ! अच्छी आफत खडी हो गई ! ताऊ हो गया त्रस्त ! आख़िर जब काबू से बाहर काम हो गया तो उसने एक दिन सारे ऋण दाताओं को सुचना भेज दी की आप आपस में ही मेरे बिहाफ पर एक दुसरे को रुपये देते लेते रहो ! जब जिसका नंबर हो दे दो और तुम्हारी कमाई और मेरा कर्ज चुकता होता रहेगा ! अब मैं कहाँ रोज रोज झंझट में पडू ?


तो ये सब लोग आपस में कर्ज चुका रहे हैं। जैसे ही ताऊ का कर्ज का मामला चुका ये सब हाजिर होंगे। चलिये तब तक हम कुछ बतिया लें। वैसे ताऊ की पोस्ट पढ़कर लगता है प्राण साहब यह उनके जैसे मस्त टाइप के जीव को देखकर लिखे होंगे:

परखचे अपने उड़ाना दोस्तो आसां नहीं
आपबीती को सुनाना दोस्तो आसां नहीं
ख़ूबियां अपनी गिनाते तुम रहो यूं ही सभी
ख़ामियां अपनी गिनाना दोस्तो आसां नहीं


कल मास्टर साहब ने बड़ी धांसू सी चर्चा कर डाली। नये अंदाज में। दोपहर के बाद किये सो कम लोग देख पाये। टिपियाये भी कम लोग। असल में मसिजीवी आडियो-वीडियो के चक्कर में इत्ता बिजी हो गये कि कोई और हुत्थल सूझी नहीं उनको।

स्मार्ट इंडियन अमेरिकी समाज के विरोधाभासी रंग दिखा रहे हैं:
समाज सेवी संस्थायें भी काम पर निकल पडी हैं ताकि बालगृह और अनाथालय आदि में रह रहे बच्चों तक उपहार और बेघरबार लोगों तक ऊनी कपड़े आदि पहुंचाए जा सकें. कुल मिलाकर यह समय विरोधाभास का भी है और संतुष्टि का भी. कोई उपहार पाकर संतुष्ट है और कोई उपहार देकर!


मनीश आपको आज सैर करा रहे हैं भुवनेश्वर की जैन गुफ़ाओं और मंदिरों की।

पूजा लिखती हैं:
फ़िर से एक पुरानी नज़्म, फ़िर से पीले जर्द पन्ने...और लबों पर वो हँसी कि क्या लिखती थी मैं उस समय...ये लिखा है ३१/०८/०२ को। अब सोचती हूँ तो लगता है कितने साल बीत गए...
तुझे मालूम नहीं ए मेरी मासूम सी ख्वाहिश
तुम्हें प्यार है मुझसे मेरा यकीन कर देखो।



फ़ूल


येल्लो हमे पता ही नहीं चला कि युनुस अचानक अप्रत्‍याशित रूप से हम अजमेर हो आए । लौट के आये तो सब कहानी सुना रहे हैं कि ये अजमेर है, ये चिश्ती साहब हैं। बताओ कहीं ऐसा होता है भला। जाने से पहले बताना चाहिये था। पूछना चाहिये था कि चलोगे साथ में।

वेबदुनिया पर कभी मनीषा पाण्डेय ब्लाग परिचय लिखती थीं। अब यह काम रवींद्र व्यास ने कर रहे हैं। इस बार की ब्लॉग चर्चा में अफ़लातून के ब्लाग समाजवादी जनपरिषद पर चर्चा हुई है। रवींद्र व्यासकहते हैं
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि यह ब्लॉग हमारे देश के हाहाकारी समय में महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस करता-कराता है। इसे पढ़ा जाना चाहिए।


पाडकास्टिंग से अब सब परिचित हैं। उन्मुक्तजी शुरू से ही अपनी पोस्टें लिखत-बोलत में पेश करते रहे हैं। अब एक और हिन्दी का पहला बोलता चिट्ठा लॉन्च हुआ। आदर्श राठौर अपनी खूबसूरत आवाज में इसे करेंगे। वैसे ब्लागिंग में ये अच्छी बात है कि जो भी करो वह पहला हो जाता है।

अब ये देखो पारुल ने भी संधिपत्र पर हस्ताक्षर कर दिये। उधर साहित्य शिल्पी अमर उजाला पहुंच गया।

अनुपम अग्रवाल जी के साथ आईना कुछ मौज ले रहा है। पार्टी बदल गया चुनाव के मौसम में! देखिये जरा:
आईने के सामने बैठाया उन्हें ,
मेरा आईना उनका दीवाना हो गया ।
लम्हा लम्हा समेटा था मैने कभी ,
जो बिख्ररा था, वो, अफ़साना हो गया।




 अमीर खुसरो

खड़ी बोली के पहले कवि के बारे में जानकारी दे रहे हैं अशोक पाण्डेय खेती बारी डाट काम वाले भैया:

खुसरो के पिता ने इनका नाम ‘अबुल हसन’ रखा था। ‘ख़ुसरो’ इनका उपनाम था। किन्तु आगे चलकर उपनाम ही इतना प्रसिद्ध हुआ कि लोग इनका यथार्थ नाम भूल गए। ‘अमीर खुसरो’ में ‘अमीर’ शब्द का भी अपना अलग इतिहास है। यह भी इनके नाम का मूल अंश नहीं है। जलालुद्दीन फीरोज ख़िलजी ने इनकी कविता से प्रसन्न हो इन्हें ‘अमीर’ का ख़िताब दिया और तब से ये ‘मलिक्कुशोअरा अमीर ख़ुसरो ’ कहे जाने लगे।


यह परिचय पाते ही राकेश जी की चांदनी मुस्कराने/जगमगाने लगी:
और उजरी जरा चांदनी हो गयी
चन्द्रमा से सुधायें बासने लगीं
ओस घुलने लगी जैसे निशिगंध में
भोर प्राची को दुल्हन बनाने लगी


और अब डा.कविता वाचक्नवी की आवाज में ये कविता सुनिये।

ब्लागर उवाव


  • "सनम हम तो ड़ूब चुके हैं अब हम तुम्हारे कंधे पर लटक कर तुमको भी डूबोयेन्गे" !ताऊ
  • एक दिन वह फ्लाईट लेट होने पर डेढ़ घंटा देर से केफे में मिलने पंहुचा, वह मधु मक्खी की तरह भुन भुना रही थी और बिना कुछ पूछे एक चांटा उसके मुह पर रसीद दिया जिसकी गुंज लाबी में देर तक रही!नीरा

    एक लाइना


    1. हवा के संग उड़ सकती हो... काहे नहीं दुनिया उड़ रही है हवा में


    2. लिखने को बहुत कुछ है अब भी कुछ बचा है क्या?

    3. क्यों तुम मुझसे रुठे हो। हम बतायेंगे नहीं!

    4. पॉडकास्टर; क्या आप प्लेयर बदल बदल कर थक चुके हैं? तो तनिक आराम कर लीजिये ये पोस्ट बांचते हुये

    5. परिवर्तन आएगा ' लेकिन आराम के साथ इठलाते हुये

    6. तुम्हें प्यार है मुझसे खबरदार जो इससे इंकार किया

    7. वो बचपन अभी तक पीछा कर रहा है

    8. जबाब कोई जरूरी तो नहीं ,फ़िर भी सवाल तो जबरिया पूछेंगे ही


    9. संधिपत्र पर हस्ताक्षर कर दिये जाड़े में


    10. कह गया थामगर आया क्यों नहीं!


    11. फुरसतियाजी, कृपया भूल सुधारें! एडवांस में? पहले भूल करने तो दो!


    12. धन, स्वास्थ्य और सदाचार में सबसे बड़ा कौन? ये तो नजर-नजर का फ़ेर है


    13. बिना शीर्षक ..क्या करे शीर्षक लिख कर शीर्षक लिखकर फ़िर पोस्ट लिखें



    14. गंगा तू बहती क्यूं है आदत से लाचार हूं बेटा


    15. तुम्हारी कसम मैं नहीं जानती कसम मत खाइये हम मान गये


    16. नहीं, ये सरासर झूठ है हर झूठ बोलने वाला यही कहता है


    17. तुम आ जाओ एक बार फ़िर चाहे दो बार चली जाना


    18. कृपया अखबार न पढें !! बोर करने के लिये हम बहुत हैं



    19. का करूं सजनी!! अभी तक टिप्पणियां नहीं आईं

    पाठक उवाच



  • जय जुगाड़ गुरू। अब लगता है आप हमसे एक आध बेसुरी आवाज में ऑन-ट्रायल पोस्ट करवा ही देंगे! :)http://techchittha.blogspot.com/2008/11/blog-post.html

  • डिलर्निंग…यानि ज्ञानसफाई। वाह क्‍या ईजाद है।उम्‍मीद है कि हम अगर इसका इस्‍तेमाल क्‍लास में करें तो आप किसी रायल्‍टी की मांग नहीं करेंगे।मसिजीवी

  • टंकी पर चढ़ने की नौबत आ रही है?! आखिर हम पहले ही कर रहे थे हम जैसे शरीफों से मौज न लीजिये। शरीफ की आह बहुत लगती है! ज्ञानदत्त पाण्डेय

  • उदासी में तो ये रचना पहले ही डुबो देती है .अंत अत्यन्त दर्दनाक है.लेकिन प्रियतम की शादी में तेरह्न्वी का शब्द कुछ दिलजला सा लगता हैअनुपम अग्रवाल


  • तरुण उवाच


    1.देश की चिंता किसे है…देश कटघरे मैं खङा हो…खड्डे मैं खङा हो…क्या फर्क पङता हैं…इनका वोट बैक सुरक्षित है ना….दरअसल सारी समस्या है कि जिन लोगों के नेतृत्व मैं कांग्रेस चल रही है उन्होंने देश की अस्मिता से नाता तोङ लिया है …कैसे भी करके बस सत्ता हाथ लग जाये देश की नाक कटे तो कटे
    मिहिरभोज

    2.चार्वाक दर्शन में और भी बहुत सी बातें हैं। उस बेचारे को फोकट बदनाम कर रखा है। असली ऋण ले कर च्यवनप्राश खाने वाले तो अब पैदा हुए हैं। घी तो डाक्टर ने बंद कर रखा है।
    चाहे कुछ भी कह लो जी पूंजीवाद की यह उपभोक्तावादी आजादी छीने बिना काम नहीं चलने का। यह उपभोक्तावाद धरती के सब साधनस्रोतों को छीन कर उसे खोखला करता जा रहा है। अब भी न चेते तो फिर खुदा भी दुनिया का मालिक होने से इन्कार करने वाला है। दिनेशराय द्विवेदी

    3.क्या सर, रात भर जागने के बाद जब सोने जा रहा हूँ तो नींद ही भाग खड़ी हुयी है आपकी पोस्ट को डिकोड करते हुए।

    ठहाका लगाने का मन कर रहा है, पर डर रहा हूँ कि दिन में पड़ोसी, मेरी ओर देखते हुए, अपनी तर्जनी, अपने ही सिर के पास ले जाकर क्लॉकवाइस घुमाना न शुरू कर दें:-) बी एस पाबला


    4.बड़े जमाने से चुनाव जुलूस का जनरल कालेज अपडेट नहीं हुआ हमारा। हम सोच रहे थे कि अबतक तो चीयरलीडरनियां संभालती होंगी चुनाव जुलूस परिदृष्य? आपने तो निराश कर दिया। वही पुराना इश्टाइल चले जा रहा है! :-( Gyandutt Pandey


    5.ओहो तो ये बात है... चाँद ने चकोर छोड़ चूहे से यारी कर ली ! अभिषेक ओझा

    6.कमीनीस्‍टों की यही पहचान है जब मजबूत होंगे मार-काट मचायेंगे जब कमजोर होंगे गाली-गलौज करेंगे। सकारात्‍मक बहस से दूर भागेंगे। खासकर, इन दिनों तो वो पगला गये हैं। देश भर में भाजपा के पक्ष में लहर जो चल रहा हैं। जब बाबरी मस्जिद का ध्‍वंस हुआ तो बहुत से कम्‍युनिस्‍टों ने आत्‍महत्‍या कर लिया। अब चारों में भाजपा की वापसी सुनिश्चित हैं यह देखकर तो कमीनीस्‍टों के होश उडने स्‍वाभाविक ही हैं। संजीव कुमार सिन्हा

    7.जब स्वामी दयानंद सरस्वती ने कहा था कि कितने भी अच्छे विदेशी राज से स्वराज हमेशा बेहतर है, तो उन्होंने यह कल्पना नहीं की होगी कि हमारे राजनेताओं के समान निकृष्ट व्यक्ति सत्ता में होंगे!दिवाकर प्रताप सिंह

    8.
    गलत बात गरीब नवाज से पहले निजामुद्दीन औलिया को सिजदा करना होता है , और आप बिना निजामुद्दीन औलिया तथा बाबा फ़रीदी को सजदा किये बिना निकल लिये , अगली बार दौरा दुरुस्त करे , गरीब नवाज अपने चेले का खास ख्याल रखते थे जनाब :)
    पंगेबाज

    9.

    ha ha ha ha ha ha ha chand ko aap he pilaa sktyn hain, or kise ke bus ka ye kaam to hai nahee…….wonderful writing..enjoyed each word..
    Naam dene ki jaroorat hai kya ;) सीमा गुप्ता

    10.वाह, आनन्दम आनन्दम.. बड़ि मौज़दार पोस्ट है, अनूप भाई !
    यह अपने दिमाग के सोचे ( शौचे ) वाला डब्बा साफसुथरा रक्खे वालों के लिये नहीं, बल्कि हम जैसे ज़बरद्स्ती के लेखक विचारक चिंतक ठेलक-पेलक घोंचू मानुष के लिये नसीहत पोस्ट है !
    वाह, आनन्दम आनन्दम, उल्टे पंडिताइन इस पोस्ट की तुक भिड़ा रहीं हैं, " तारीफ़ करूँ क्या उसकी.. जिसने इन्हें बनाया ! " सच्ची फ़ुरसत में बनाये गये होगे, तभी फ़ुरसतिया मार्का ब्लाग ढालना मुश्किल है ! वाह, आनन्दम आनन्दम.. वैसे मुझे तो इसके पीछे छिपा दर्द भी दिख रहा है सो, साधुवाद !
    डा. अमर कुमार

    11.

    बसंत में बहार आती है. बहार नाम का कोई मौसम नहीं होता |

    बिल्कुल होता है बहार नाम का मौसम । कभी कभी ये जेठ और असाढ के समय भी आ जाता है, मसलन जब हमने अपने स्कूल के समर टर्म में बायो-ई डिपार्टेमेंट में एक वर्कशाप की थी तो जाना था बहार क्या होती है । १० सालों के कैमिकल इंजीनियरिंग में बिना किसी लडकी के साथ पढाई करने के बाद जब अचानक ३ लडकों के साथ १४ लडकियाँ (और वो भी बला की खूबसूरत) देखी तो जेठ में ही बहार आ गयी थी ।

    शादीशुदा लोगों की बहार तब आती है जब पत्नी मायके जाती है :-)

    अगर तकनीकि तौर पर देखें तो भी विभिन्न भिगोलिक स्थितियों में फ़ूलों पे बहार का कोई फ़िक्स टैम नई है ।

    वैसे चौकस लिखा है, फ़िल्मों पे जरा ज्यादा लिखा करो ।
    - नीरज रोहिल्ला

    और अंत में



    आज की चर्चा सबेरे साढे पांच बजे शुरू किये अब सलटाते-सलटाते साढे आठ बज गये। इस बीच चाय पान करते, दोस्तों से बतियाते रहे। तरुण आनलाइन मिल गये तो उनको उनके निठल्लेपन का हवाला दिया तो बेचारे शर्मा-शर्मी में कुछ दस ठो पाठक टिप्पणियां थमा गये। इससे यह साबित होता है कि निठल्ले भी जिम्मेदार होते हैं। अब इसका मतलब यह भी कोई लगा सकता है कि निठल्ले ही जिम्मेदार होते हैं।

    लोगों का शिकायत का मौका खतम नहीं करना चाहिये इसलिये बिना जाने बूझे समय के बहाने तमाम पोस्टें छोड़ दीं। छोड़ क्या दी, छूट गयीं।


    शास्त्री जी की आजकी खिंचाई स्थगित। आज वे मस्त रहें। संभव है तो शिवकुमार मिश्र की टांग लौटा दें जो उन्होंने खिंचाई के लिये पकड़ी थी।

    अलग से लिखेंगे एक बात लेकिन एक बात जो लफ़ड़े वाली है वो यह है कि ज्ञानजी अपने को शरीफ़ साबित करने के प्रयास में लगे हैं। तभी वे आज पोस्ट नहीं लिखे। अब जब ज्ञानजी जैसे लोग शरीफ़ बन जायेंगे तो बेचारे शरीफ़ लोग कहां जायेंगे। शरीफ़ विरोधी इस प्रयास को नाकाम किया जाना चाहिये।

    और एक बात बतायें कि अब हम दस दिन के लिये जा रहे हैं नैनीताल। वहां हमारी ट्रेनिंग का कार्यक्रम है। इसलिये आप शायद हमारी चर्चा से मुक्त रहें। कल की चर्चा मास्टर मसिजीवी करेंगे। परसों डा.कविता वाचक्नवी। इसके आगे देखा जायेगा।

    बकिया मस्त रहें। कौनौ बात की फ़िकर न करें। हम कविता से ही अपनी बात खतम कर रहे हैं कोई टंकी पर थोड़ी चढ़ रहे हैं:

    उस शहर में कोई बेल ऐसी नहीं
    जो इस देहाती परिन्दे के पर बांध ले
    जंगली आम की जानलेवा महक
    जब बुलाती वापस चला आता हूं।

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